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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 215

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 215

सुन पीड़ा लो ।
ले बीड़ा लो |।
कल्याण का ।
मेरे भगवान् आ ।। स्थापना ।।

उजला सा जल ।
धुंधला सा कल ।।
कीजे करुणा ।
दीजे शरणा ।। जलं ।।

शीतल चन्दन ।
भीतर क्रन्दन ।।
कीजे करुणा ।
दीजे शरणा ।। चंदनं ।।

अक्षत पावन ।
वञ्चित सावन ।।
कीजे करुणा ।
दीजे शरणा ।। अक्षतम् ।।

गुल वरन-वरन ।
‘गुल’ मञ्जुल-पन ।।
कीजे करुणा ।
दीजे शरणा ।। पुष्पं ।।

चरु घृत निर्मित ।
अमृत विरहित ।।
कीजे करुणा ।
दीजे शरणा ।। नैवेद्यं ।।

संदीप रतन ।
समीप अवगुण ।।
कीजे करुणा ।
दीजे शरणा ।। दीपं ।।

घट धूप नवल ।
मण्डूक अकल ।।
कीजे करुणा ।
दीजे शरणा ।। धूपं ।।

मीठे से फल ।
खींचे सा छल ।।
कीजे करुणा ।
दीजे शरणा ।। फलं ।।

वसु द्रव नीके ।
गारव भीगे ।।
कीजे करुणा ।
दीजे शरणा ।। अर्घं ।।

==दोहा==
छत्र-छाँव गुरुदेव की,
पाते ही इक बार ।
पलक झपक पाती नहीं,
हो जाते निर्भार ।।

।। जयमाला ।।

इनकी नजरें बोलतीं हैं ।
राज गहरें खोलतीं हैं ।।
बोलता वो, दिखे ना कहीं ।
जो दिखे, वो बोलता नहीं ।।
सो बस घड़ी-घड़ी ।
निरखूँ नासिका अणी ।।
इनकी नजरें बोलतीं हैं ।
राज गहरें खोलतीं हैं ।।

भले आता ही दिखाता ।
छोर-क्षितिज आ-कहाँ पाता ।।
सो ताकूँ जमीं ।
झुकी झुकी लाजमी ।।
इनकी नजरें बोलतीं हैं ।
राज गहरें खोलतीं हैं ।।

सरस्-नात निश चाँद आता ।
थामते, न लग हाथ पाता ।।
सो पर्दे पलक ।
पाऊँ अपनी झलक ।।
इनकी नजरें बोलतीं हैं ।
राज गहरें खोलतीं हैं ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।

।। दोहा ।।
जिन्होंने गुरुदेव से,
जोड़ रखी संप्रीत ।
बिन मंथन ही पा रहे,
वे जिन-श्रुत नवनीत ।।

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