परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 186
मंगलकर अमंगलहार ।
मंशा पूर्ण इक दरबार ।।
तिहु-जग एक रखवाले ।
बाबा सदलगा वाले ।।स्थापनम्।।
कंचन झार, प्रासुक नीर ।
भेंटूॅं, हेत भव-जल तीर ।।
घन-जग बिजुरि उजियारे ।
बाबा सदलगा वाले ।। जलं ।।
चन्दन सुगंधित मनहार ।
भेंटूॅं, हेत मन अविकार ।।
हरते कष्ट-दुख सारे ।
बाबा सदलगा वाले ।। चंदनं ।।
स्वर्ण पिटार, अक्षत धान ।
भेंटूॅं, हेत शाश्वत थान ।।
प्यासी धरा घन-काले ।
बाबा सदलगा वाले ।। अक्षतं ।।
सुरभित पुष्प, नन्दन बाग ।
भेंटूॅं, हेत भीतर जाग ।।
चाबी इक, अनेक ताले ।
बाबा सदलगा वाले ।। पुष्पं ।।
षट् रस घृत अमृत नैवेद ।
भेंटूॅं, क्षुधा मेटन हेत ।।
टकते चुनर शश-तारे ।
बाबा सदलगा वाले ।। नैवेद्यं ।।
गो घृत दीप ज्योत अखण्ड ।
भेंटूॅं, हेत सरसुत कण्ठ ।।
माँ सी फूँक भव छाले ।।
बाबा सदलगा वाले ।। दीपं ।।
अगर कपूर चन्दन चूर ।
भेंटूॅं, हेत संयम नूर ।।
सारे जहाँ से न्यारे ।।
बाबा सदलगा वाले ।। धूपं ।।
फल रसदार फूटे गन्ध ।
भेंटूॅं, हेत सहजानन्द ।।
मीठे सिन्धु अर खारे ।।
बाबा सदलगा वाले ।। फलं ।।
युगपत् द्रव्य सबरे आठ ।
भेंटूॅं, हेत अन्त-समाध ।।
थारे भी, न बस म्हारे ।
बाबा सदलगा वाले ।। अर्घ्यं ।।
=जयमाला=
दोहा=
थाम हाथ न छोड़ते,
हो लेते प्रभु साथ ।
मेले में माँ राखती,
कस के शिशु का हाथ ।।
आ-रति कीजे संध्या संध्या ।
सुत श्रीमति मल्लप्पा नन्दा ।।
शरद पूर्णिमा का दिन आया ।
ग्राम सदलगा उत्सव छाया ।।
लिये दीप घृत गाय सुगन्धा ।
आ-रति कीजे संध्या संध्या ।।१।।
सूर देश-भूषण ब्रमचारी ।
साक्षि ज्ञान-गुरु दीक्षा थारी ।।
छोड़ और सब गोरख धन्धा ।
आ-रति कीजे संध्या संध्या ।।२।।
श्रमणी, श्रमण किये अनगिनती ।
सरसुति सेव देखते बनती ।।
बना सरस मानस निस्पन्दा ।
आ-रति कीजे संध्या संध्या ।।३।।
करघा, थलि-प्रतिभा, गौशाला ।
अखर जिनालय पाथर वाला ।।
हित उन्मूल यम-जनम फन्दा ।
आ-रति कीजे संध्या संध्या ।।४।।
आप सिन्ध गुण अपरम्पारा ।
हाथ कहो किस ? गणना तारा ।।
श्रद्धा सुमन चढ़ा सानन्दना ।
आ-रति कीजे संध्या संध्या ।।
सुत श्री मति मल्लप्पा नन्दा ।।
आ-रति कीजे संध्या संध्या ।।५।।
।।जयमाला पूर्णार्घ्यं।।
दोहा=
दिखे नहीं बलजोर भी,
तब गुण-सागर घाट ।
‘सहज-निराकुल‘ लो बना,
बाबा अपने भाँत ।।
Sharing is caring!