परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 174
रखते जो नित योगों की सँभाल ।
काटा करें न बैठे हैं जिस डाल ।।
गुरुवर वे विद्या सिन्धु महाराज ।
आये पल अखीर, रख लेवें लाज ।। स्थापना ।।
मिला न जल भर लाया नैनन नीर ।
मुनि मन भाँत बना दो मम तस्वीर ।।
गुरु विद्या ओ श्रमण संघ सरताज ।
कर अनसुनी न देना शिशु आवाज ।। जलं ।।
खड़ा लिये चन्दन बदले संतोष ।
क्षण आयें जब रोष, न दूँ खो होश |।
गुरु विद्या ओ श्रमण संघ सरताज ।
कर अनसुनी न देना शिशु आवाज ।। चन्दनं ।।
अक्षत कहाँ सुकृत ले आया द्वार ।
विहँसा सकूँ वृषभ तेली किरदार ।।
गुरु विद्या ओ श्रमण संघ सरताज ।
कर अनसुनी न देना शिशु आवाज ।। अक्षतम् ।।
फूल नहीं, पल ले आया अनुकूल ।
खाये मुँह की मन्मथ मोहन धूल ।।
गुरु विद्या ओ श्रमण संघ सरताज ।
कर अनसुनी न देना शिशु आवाज ।। पुष्पं।।
था चरु नहिं ले आया निस्पृह नेह ।
पाऊँ अबकी अनुपम अवगम देह ।।
गुरु विद्या ओ श्रमण संघ सरताज ।
कर अनसुनी न देना शिशु आवाज ।। नैवेद्यं ।।
दीप जगह ले आया अदब बुजुर्ग |
स्वर्ग स्वप्न न रहे ख्वाब अपवर्ग ।।
गुरु विद्या ओ श्रमण संघ सरताज ।
कर अनसुनी न देना शिशु आवाज ।। दीपं ।।
धूप कहाँ मति आया लिये मराल ।
अबकि काल न कर पाये बेहाल |।
गुरु विद्या ओ श्रमण संघ सरताज ।
कर अनसुनी न देना शिशु आवाज ।। धूपं।।
फल नहिं श्रीफल बना आ गया हाथ ।
मुलाकात दो करा शिव वधु बात ।।
गुरु विद्या ओ श्रमण संघ सरताज !
कर अनसुनी न देना शिशु आवाज ।। फलं ।।
अरघ मिला न, ले आया गुण नेक ।
साधा सब अबकि साधूँ निज एक ।।
गुरु विद्या ओ श्रमण संघ सरताज |
कर अनसुनी न देना शिशु आवाज ।। अर्घं।।
“दोहा”
इक अपूर्व सी शान्ति दे,
सुनते ! गुरु गुण गान ।
आ पल दो पल के लिये,
छेड़ें गुरु गुण-तान ।।
।। जयमाला ।।
भँवर भव सिन्धु किनारा ।
दीन इक बन्धु सहारा ।।
गुरु द्वारा,
गुरु द्वारा ।
है यही गम हरने वाला ।
है यही तम हरने वाला ।।
और न, खोजा जग सारा ।
भँवर भव सिन्धु किनारा ॥
जहाँ इक यही भागवाँ है ।
जहाँ इक यही बागवाँ है ।।
बात यही सात-सितारा ।
भँवर भव सिन्धु किनारा ।।
यही दी दुआ खास माँ है ।
यही दे छुवाँ आसमाँ है ।।
नेक खुशी एक पिटारा ।
भँवर भव सिन्धु किनारा ।।
यही नैय्या खेवैय्या है ।
तरैया ‘ता-थैय्या’ छैय्या है ।
जमीं जन्नत-ए नजारा ।
भँवर भव सिन्धु किनारा ।।
दीन इक बन्धु सहारा ।
गुरु द्वारा,
गुरु द्वारा ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
“दोहा”
साथी गर कोई यहाँ,
तो वो गुरु का नाम ।
की सुपुर्द इसको बनी,
हरिक सुहानी शाम ॥
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