परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 111
गुरुदेव हमारे ।
ठाड़े तुम द्वारे ।।
तुम भी कभी आओ ।
मेरे भी द्वारे ।। स्थापना ।।
तर जल कर गागर ।
दर चल कर आकर ।।
भेंटूँ समता-धर ।
जै विद्या सागर ।। जलं ।।
रज मलयज गागर ।
दर चल कर आकर ।।
भेंटूँ आपा-धर ।
जै विद्या सागर ।। चन्दनं ।।
अक्षत धो-धाकर ।
दर चल कर आकर ।।
भेंटूँ गुण-आगर ।
जै विद्या सागर ।। अक्षतम् ।।
चुन पुष्प सजाकर ।
दर चल कर आकर ।।
भेंटूँ नित-जागर ।
जै विद्या सागर ।। पुष्पं ।।
नैवेद्य बनाकर ।
दर चल कर आकर ।।
भेंटूँ अमि-गागर ।
जै विद्या सागर ।। नैवेद्यं ।।
घृत दीप सजाकर ।
दर चल कर आकर ।।
भेंटूँ बाधा-हर ।
जै विद्या सागर ।। दीपं ।।
घट धूप सजाकर ।
दर चल कर आकर ।।
भेंटूँ सुखदा ऽपर ।
जै विद्या सागर ।। धूपं ।।
फल थाल सजाकर ।
दर चल कर आकर ।।
भेंटूँ शिव-नागर ।
जै विद्या सागर ।। फलं।।
वसु द्रव्य सजाकर ।
दर चल कर आकर ।।
भेंटूँ वरदा ऽवर ।
जै विद्या सागर ।। अर्घं ।।
==दोहा==
जिन्होंने जग को दिया,
मूकमाटी उपहार ।
गुरु विद्या सविनय तिन्हें,
नमन अनन्तो बार॥
॥ जयमाला ॥
धन्य मिल जिनको रही,
गुरुदेव तरु दिन रात छाया ।
चाहिये क्या ? चाहिये था,
स्वयं वो जब हाथ आया ॥
डर अब उसे किस बात का,
जब खे रहे गुरु नाव हैं ।
कब दूर मन्जिल मिल गये,
जब पथ पड़े गुरु पाँव हैं ।
अत्त रवि रिपु कर्म जितने,
दिखाना लो दिखा उतने ।
नहिं कर सकोगे बाल भी,
बाँका खड़े गुरु छाँव हैं ॥
कहाँ माँ की गोद से,
अच्छा सुरक्षा थान साथी ।
बन रहा कमजोर भी,
बलजोर शिशु माँ साथ आया ॥
धन्य मिल जिनको रही,
गुरुदेव तरु दिन-रात छाया ॥
हमें क्या चिन्ता,
करें गुरुदेव जब चिन्ता हमारी ।
डोर जब गुरु-हाथ,
छूने आसमाँ की चलो ! बारी ॥
सिर उठा गुरुदेव ने,
अपने लिया बीड़ा हमारा ।
रो पड़ोगी पाप मति ,
कह दो अभी भी वक्त, हारी॥
शून्य दुनिया क्या फरक,
पड़ता ‘कि रीझे या न रीझे ।
अंक गुरु रखते ही आगे ,
शून्य मुँह क्या बात आया ॥
धन्य मिल जिनको रही,
गुरुदेव तरु दिन रात छाया ॥
नजर गुरु कुम्हार पड़ अब,
गई कब मैं पतित माटी ।
आ गया शिव शिखर मानो,
जब बने गुरुदेव लाठी ॥
खाद पानी दे रहे,
गुरुदेव बन माली तुझे मन ।
छोड़ सारी फिकर अब कब,
आसमाँ अनुलंघ्य घाटी ॥
टेक घुटने, टेकने अब,
माथ दर-दर क्या भटकना ।
हाथ जब सिर माथ रख,
गुरु ने दिया बन हाथ दाँया ॥
धन्य मिल जिनको रही,
गुरुदेव तरु दिन रात छाया ॥
।।जयमाला पूर्णार्घ्यं ।।
==दोहा==
गुरुदेव के गुणगान से,
जन्म जन्म के पाप ।
पलक मात्र मैं आप ही,
लेते रस्ता नाप ॥
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