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कहानी

कहानी – जादुई किताब 

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

                                                             “जादुई किताब”

एक बार एक किताब आसमान से आकर के एक व्यक्ति की गोद में गिरती है । कवर इतना बेहतरीन है जिसका, ‘कि आनायास ही किताब को खोलने का मन करने लगता है, पर ये क्या ? पहला ही पन्ना, और वो भी खाली, दूसरा पन्ना पलटा गया वो भी खाली, तीसरा पन्ना पलटने का मन न किया, उस व्यक्ति ने सोचा, किसी ने एप्रिल-फूल बनाया है, और उसने उछाल दिया, उस जादुई-किताब को साधारण सी किताब समझकर,

सत्य हम कितनी जल्दी करते हैं, जब दूसरों को परखते हैं, और जब हमें कोई परखता है, तो हम कहते हैं, एक बार तो और आजमा के देेख लो शायद हम काम के व्यक्ति निकलें । वैसे दुनिया में प्रत्येक चीज अजीज बना कर भेजी गई है । बस ‘भेजा’ अपना-अपना है, किसी को काम की लगती चीज, किसी को बेकार, देखो ना… जिससे हम कचरा समझकर अपने घर से बाहर निकाल करके फेंक देते हैं बेकार की कहकर के, वही चीज सुबह-सुबह कचड़ा उठाने वाले बच्चों की पॉलीथिन में काम की चीज समझकर पुनः रख जाती है । बिलकुल जैसे पहले व्यक्ति ने किया, परखते समय वैसा ही साँझ होने को है, प्रत्येक एक दूसरे को ‘एप्रिल फूल’ बना रहा है, लेकिन इस बार जादुई किताब एक सहजू नाम के लड़के की गोद में जाकर के गिरी, जो अपनी दादी के साथ दूसरे विद्यालय की दूसरी कक्षा में पढ़ता था । किताब का वजन न के बराबर था लेकिन जादू ‘कि पन्ने पे पन्ने पलटते गया वह, सारे के सारे पन्ने खाली निकलते चले गये । सितारे आये, चाँद ने चाँदनी बिखेर दी, समुद्र में ज्वार भाटा उठने लगे, आधी रात होने को आई, लेकिन सहजू लगा है पन्ने पलटने के लिए, तभी पलटते पन्नों के बीच खाली नहीं, इस बार एक पन्ना मोती सरीखे अक्षरों से भरा पाया सहजू ने, और वह फूला न समाया । एक कविता मिली उसमें उसे, उसने तुरन्त मोबाइल पे डाल दिया । ढ़ेर सारे ‘लाइकस्’ आ गये ।

दूसरे दिन की शाम, फिर वही प्रोगाम चालू हुआ, देर रात जागने के बाद फिर एक पन्ना भरा पाया सहजू ने, अब तो सहजू का नाम बड़े कवियों में आने लगा । कवि-कोविद् उसकी कविताएँ बड़े गौर से और खूब चाव के साथ पढ़ने, सुनने लगे । धीरे-धीरे सहजू को पन्ने खोलते ही भरे पन्ने मिलने लगे, अब सहजू को हर रोज खूूब खुशी होती, बखूब कविताएँ जो उसके नाम होतीं ।

बस यही कीमिया उन्नति, प्रगति, विकास की आधार शिला है । चलते चलो सही रास्ता पकड़ के तब तक न थकों, न थमों, जब तक ‘कि मंजिल खुद न कहने लगे, रुको-रुको मैं तुम्हारे स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए बैठी हूँ

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