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कविता

कविता-आकिंचन्य

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

आकिंचन्य
(१)
आकिंचन्य मतलब
नफरत नहीं रखना
किसी से भी
मतलब नहीं रखना

(२)
आकिंचन्य मतलब
पीठ के पीछे
अपनी
नाक से आगे
अपना कुछ नहीं है
किञ्चित मात्र भी, कुछ भी

(३)
यदि आप पूछते ही हैं
आकिंचन मतलब
तो कुछ कुछ शब्द आकिंचन
खुदबखुद ही कह रहा है
आ…का…चिन
चिन मतलब चिन्मय
यानि ‘कि चिन्मय हमारा आका है
जाने चेतन को भुला करके
हमने किन किन को ताकां है

(४)
आकिंचन मतलब
निर्लेप माफिक आसमां
हाँ ! हाँ !!
कोई भी पराया नहीं
कोई भी हममाया नहीं
बस आ…समा जा
मतलब आने वाला है कौन ?
यह प्रश्न करके गौण
आ…समा
बस आ…समा
सिरफ आ…समा

(५)
आकिंचन मतलब
ज्यादा और कुछ नहीं
आ यानि ‘कि आत्मा
कंचन
ऐसा दृढ़ श्रृद्धान
काफी है
बनाने के लिये भगवान्

(६)
आकिंचन मतलब
यानि ‘कि
किंचित मात्र न मेरा
जाने, मैं खातिर किसकी
लगाये जा रहा हूँ
चेहरे पे चहेरा

(७)
आकिंचन मतलब
निर्ग्रन्थ
ग्रन्थ मतलब गाँठ, गठान
सो सहजो निराकुल मतलब हुआ
बगैर गाँठ वाली गाँठ
जिसे सिर पर रखकर
बढ़ाना पाँव
कारण तनाव

(८)
बड़ा प्यारा
अनोखा, मीठा सबसे न्यारा शब्द है
आकिंचन्य
आ मतलब नहीं है
और किंचन से कुछ कुछ
मिलता जुलता शब्द किचिन
किच-किच मचती है
वह किंचन जहां नहीं है
ऐसा गिरि कन्दर, वृक्ष कोटर
वन उपवन
वहाँ रहने वाले निर्ग्रंथ
सन्त महन्त
भावी अरिहन्त
सिद्ध अनंत

(९)
बढ़-चढ़ है
आकिंचन
विभूति, स्वानुभूति
स्वानुभवन
गूंगे का गुड़ है
सच जो अंदर है
वह न अन-दर है

(१०)
आकिंचन्य मतलब
‘मैं पून हूँ’
इस सहजो निराकुल पद को
श्रृद्धा प्रसून चढ़ाते रहना
जबतक ‘के रगों में
न हो चाले
सुफेद खून बहना

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