==पूजन==
एक सहारा पार्श्व तुम्हारा ।
चरण तुम्हारे हृदय हमारा ।।
हृदय हमारे चरण तुम्हारे ।
रहें विराजे, रहें विराजे,
जब तक घट में जीवन धारा ।
जब तक नभ में चन्दा तारा ।।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्व जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
ॐ ह्रीं श्री पार्श्व जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री पार्श्व जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
जल गंगा प्रासुक कर लाया ।
दर दर भटक द्वार तुम आया ।।
हृदय हमारे चरण तुम्हारे ।
रहें विराजे, रहें विराजे,
जब तक घट में जीवन धारा ।
जब तक नभ में चन्दा तारा ।।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मलयागिर चन्दन घिस लाया ।
दर दर भटक द्वार तुम आया ।।
हृदय हमारे चरण तुम्हारे ।
रहें विराजे, रहें विराजे,
जब तक घट में जीवन धारा ।
जब तक नभ में चन्दा तारा ।।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
थाल अखण्डित अक्षत लाया ।
दर दर भटक द्वार तुम आया ।।
हृदय हमारे चरण तुम्हारे ।
रहें विराजे, रहें विराजे,
जब तक घट में जीवन धारा ।
जब तक नभ में चन्दा तारा ।।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुरभित पुष्प पिटारी लाया ।
दर दर भटक द्वार तुम आया ।।
हृदय हमारे चरण तुम्हारे ।
रहें विराजे, रहें विराजे,
जब तक घट में जीवन धारा ।
जब तक नभ में चन्दा तारा ।।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भाँत भाँत घृत व्यंजन लाया ।
दर दर भटक द्वार तुम आया ।।
हृदय हमारे चरण तुम्हारे ।
रहें विराजे, रहें विराजे,
जब तक घट में जीवन धारा ।
जब तक नभ में चन्दा तारा ।।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अनबुझ दीप मालिका लाया ।
दर दर भटक द्वार तुम आया ।।
हृदय हमारे चरण तुम्हारे ।
रहें विराजे, रहें विराजे,
जब तक घट में जीवन धारा ।
जब तक नभ में चन्दा तारा ।।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गंध सुगंध विविध दश लाया ।
दर दर भटक द्वार तुम आया ।।
हृदय हमारे चरण तुम्हारे ।
रहें विराजे, रहें विराजे,
जब तक घट में जीवन धारा ।
जब तक नभ में चन्दा तारा ।।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
फल पिटार वन नन्दन लाया ।
दर दर भटक द्वार तुम आया ।।
हृदय हमारे चरण तुम्हारे ।
रहें विराजे, रहें विराजे,
जब तक घट में जीवन धारा ।
जब तक नभ में चन्दा तारा ।।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जल फल आद द्रव्य सब लाया ।
दर दर भटक द्वार तुम आया ।।
हृदय हमारे चरण तुम्हारे ।
रहें विराजे, रहें विराजे,
जब तक घट में जीवन धारा ।
जब तक नभ में चन्दा तारा ।।
जय-जयकारा, जय-जयकारा ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=कल्याणक अर्घ्य=
जय जयतु जयतु जय पारस
है अभी गर्भ में देरी ।
घर पिता रत्न मण ढ़ेरी ।।
लख स्वप्न मात दृग् पावस ।
जय जयतु जयतु जय पारस ।।
ॐ ह्रीं वैशाख-कृष्ण-द्वितीयायां
गर्भ कल्याणक प्राप्ताय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गिर मेर क्षीर अभिषेका ।
दृग् सहस सार्थ अभिलेखा ।।
तर पद अंगुष्ठ सुधा रस ।
जय जयतु जयतु जय पारस ।।
ॐ ह्रीं पौष-कृष्ण-एकादश्यां
जन्म कल्याणक-प्राप्ताय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वन आके कर पट मुञ्चन ।
कर हाथों से कच लुञ्चन ।।
व्रत साधे साधु निरालस ।
जय जयतु जयतु जय पारस ।।
ॐ ह्रीं पौष-कृष्ण-एकादश्यां
दीक्षा कल्याणक प्राप्ताय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
समशरण हिरण केशर भी ।
सुन रहे वैर तज सुर’भी ।।
निश सहज व्यतीत अमावस ।
जय जयतु जयतु जय पारस ।।
ॐ ह्रीं चैत्र-कृष्ण-त्रयोदश्यां
ज्ञान कल्याणक प्राप्ताय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ध्यानानल कर्म जला के ।
इक समय लगा शिव जाके ।।
सेवें सुख ‘सहजो’ पा बस ।।
जय जयतु जयतु जय पारस ।।
ॐ ह्रीं श्रावण-शुक्ल-सप्तम्यां
मोक्ष कल्याणक प्राप्ताय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
==विधान प्रारंभ==
“अष्ट दलकमल पूजा
विधान की जय“
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो जिणाणं*
नमो जिणवर अरि-हंताणं ।
णमो सिद्धम् आ-यरि-याणं ।।
उवज्झायाणं णमो णमो ।
सव्व साहूणं णमो णमो ।।१।।
ॐ ह्रीं महामंत्र रूपाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो ओहि-जिणाणं*
प्रथम मंगल अरिहंताणं ।
द्वितिय मंगल श्री सिद्धाणं ।।
तृतिय मंगल मुनिवर साँचे ।
तुरिय मंगल वच जिन वॉंचे ।।२।।
ॐ ह्रीं मंगल कारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो परमोहि-जिणाणं*
प्रथम उत्तम अरिहंताणं ।
द्वितिय उत्तम श्री सिद्धाणं ।।
तृतिय उत्तम मुनिवर साँचे ।
तुरिय उत्तम वच जिन वॉंचे ।।३।।
ॐ ह्रीं परमोत्तमाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वोहि-जिणाणं*
प्रथम शरणा अरिहंताणं ।
द्वितिय शरणा श्री सिद्धाणं ।।
तृतिय शरणा मुनिवर साँचे ।
तुरिय शरणा वच जिन वॉंचे ।।४।।
ॐ ह्रीं परम शरणाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अणंतोहि-जिणाणं*
जगत कल्याण आप करते ।
दे अभय-दान पाप हरते ।।
आप जलयान जलध जग में।
निरत तव विरद गान मग में ।।५।।
ॐ ह्रीं मनोवांछित फल प्रदाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो कोट्ठ-बुद्धीणं*
देव दुर्लभ गुण रत्नाकर ।
थके सुरगुरु तुम गुण गाकर ।।
कमठ से हार जीत चाले ।
पार्श्व वे त्रिभुवन रखवाले ।।६।।
ॐ ह्रीं अल्प बुद्धि निवारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो बीज-बुद्धीणं*
आप गाथा रचना चाहीं ।
मन्द-मत पढ़ा लिखा नहीं ।।
धृष्टता कर उलूक बाला ।
सूर्य वर्णन मनु कर चाला ।।७।।
ॐ ह्रीं पाप फल विनाशकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पदानु-सारीणं*
मोह क्षय पा केवल ज्ञाना ।
न होगा तुम गुण गा पाना ।।
प्रकट जल रत्न राश दिखती ।
कहो किसने कर ली गिनती ।।८।।
ॐ ह्रीं संकट मोचन समर्थाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नीर, चन्दन, अक्षत-शाली ।
पुष्प, चरु, गो घृत दीपाली ।।
धूप, श्री फल ले हाथों में ।
चढ़ाऊॅं ले जल आंखों में ।।
ॐ ह्रीं अष्टदल कमल हृदयस्-थिताय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“षोडश दलकमल पूजा
विधान की जय”
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सभिण्ण-सोदाराणं*
कखहरा भी न मुझे आता ।
सोच यह कीर्तन तुम गाता ।।
भुजाएँ अपनी फैलाकर ।
बताता शिशु सीमा सागर ।।९।।
ॐ ह्रीं अरिष्ट ग्रह निवारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सयं-बुद्धाणं*
विफल जब बड़े बड़े जोगी ।
आप थुति क्या मुझसे होगी ।।
कार्य बिन सोच समझ साधा ।
चहक चिड़िया मनु आराधा ।।१०।।
ॐ ह्रीं दारिद्रय निवारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पत्तेय-बुद्धाणं*
दूर थुति आप ऊर्ध्व रेता ।
नाम भी पाप विहर लेता ।।
ग्रीष्म ऋत पथिक भरे हापी ।
हवा झोंका सरवर काफी ।।११।।
ॐ ह्रीं तुष्टि पुष्टि करणाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो बोहिय-बुद्धाणं*
आप जिसके मन में रहते ।
पाप “अब हम चलते” कहते ।।
नाग चन्दन लिपटे काले ।
मोर केका सुन झर चाले ।।१२।।
ॐ ह्रीं मनकाम रूप प्रदाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो ऋजु-मदीणं*
नजर बस पड़ जाये तेरी ।
भागती दिखे निश अंधेरी ।।
देख गोस्वामी को आते ।
चोर पशु छोड़ भाग जाते ।।१३।।
ॐ ह्रीं स्व शरीर रक्षकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो विउल-मदीणं*
तुम्हें क्यों तरण कह पुकारें ।
हृदय हम बिठा तुम्हें तारें ।।
मसक तैरे, जादू मन्तर ।
हवा जो है उसके अन्दर ।।१४।।
ॐ ह्रीं भूत प्रेतादि भय निवारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दसपुव्वियाणं*
काम वशीभूत जगत सारा ।
आप आगे मन्मथ हारा ।।
अग्नि बुझ चाली जिस जल से ।
वही जल वडवानल झुलसे ।।१५।।
ॐ ह्रीं रंगाँगन रक्षणाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो चोद्दस-पुव्वियाणं*
सार्थ गुरु नाम आप भारी ।
तिरें रख उर तुम संसारी ।।
अगम चिन्तन गौरव गरिमा ।
झलकती करुणा, दया क्षमा ।।१६।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्य-वशीकरणाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो
अट्टंग-महा-निमित्त-कुसलाणं*
क्रोध परिणाम पूर्व विनशे ।
भिड़ चले कैसे कर्मन से ।।
यदपि शीतल तुषार होता ।
उजड़ वन हरा भरा खोता ।।१७।।
ॐ ह्रीं मन्द कषाय करणाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउव्व-इड्ढि-पत्ताणं*
खोजने तुम्हें सन्त चाले ।
हृदय बैठे डेरा डाले ।।
खोज गर कमल बीज ठाना ।
कर्णिका कमल इक ठिकाना ।।१८।।
ॐ ह्रीं क्रोध उन्मूलन समर्थाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विज्जा-हराणं*
ध्यान क्या आप लगाया है ।
दशा परमात्म रिझाया है ।।
अग्नि संजोग देर केवल ।
धातु स्वर्णिम तज भाव उपल ।।१९।।
ॐ ह्रीं मन कालुष्य निवारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो चारणाणं*
हृदय जिस आश्रम तुम लेते ।
विदेही उसे बना देते ।।
सुमन यूॅं ही स्वभाव है ना ।
हाथ खुशबू से भर देना ।।२०।।
ॐ ह्रीं सौभाग्य साधकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पण्ण-समणाणं*
मान के तुम हम इक भाँती ।
तुम्हें ध्या स्वानुभूति थाती ।।
अमृत यह जल विचार ऐसा ।
‘कि निर्विष विष संशय कैसा ।।२१।।
ॐ ह्रीं विष बाधा निवारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आगास-गामीणं*
ब्रह्म हरिहर माने दुनिया ।
तुम्हें शंकर माने दुनिया ।।
पीलिया रोग अगम लीला ।
श्वेत भी शंख दिखा पीला ।।२२।।
ॐ ह्रीं अकुटुम्ब बाधा निवारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आसी-विसाणं*
समय धर्मोपदेश ‘माया’ ।
वृक्ष भी अशोक कहलाया ।।
रखा सूरज ने आद कदम ।
जीव जग जागा साथ पदम ।।२३।।
ॐ ह्रीं जिन दीक्षा बाधा निवारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दिट्ठि-विसाणं*
पॉंखुरी ऊर्ध्व अधो डण्डल ।
वृष्टि सुर पुष्पों की अविरल ।।
सुमन जो तुम समीप आते ।
अधो गति बन्ध-कर्म पाते ।।२४।।
ॐ ह्रीं आजिविका बाधा निवारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नीर, चन्दन, अक्षत-शाली ।
पुष्प, चरु, गो घृत दीपाली ।।
धूप, श्री फल ले हाथों में ।
चढ़ाऊॅं ले जल आंखों में ।।
ॐ ह्रीं षोडशदल-कमल
हृदयस्-थिताय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“चतुर्विंशतिदल कमल पूजा’
विधान की जय”
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो उग्ग-तवाणं*
हृदय गम्भीर सिन्ध द्वारा ।
प्रकट तुम वाक् अमृत धारा ।।
पान कर जिसका भवि प्राणी ।
मेंट लेते आनी-जानी ।।२५।।
ॐ ह्रीं दृष्टि दोष निरोधकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दित्त-तवाणं*
दूर तक नीचे जाते जो ।
तुरत फिर ऊपर आते वो ।।
चॅंवर जश ऐसा कुछ गाते ।
नत-विनत गत-ऊरध नाते ।।२६।।
ॐ ह्रीं अर्ध शिरः पीडा शामकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो तत्त-तवाणं*
दिव्य धुन श्याम तन सलोना ।
जड़ित मण सिंहासन सोना ।।
स्वर्ण गिर मेर गरजते घन ।
भविक जन मोर थिरते मन ।।२७।।
ॐ ह्रीं शत्रु उन्मूलन समर्थाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो महा-तवाणं*
आप भा-मण्डल अहि-चीना ।
पत्र तर अशोक छवि-छीना ।।
निकटता थारी बड़भागी ।
सचेतन कौन न वैरागी ।।२८।।
ॐ ह्रीं आक्रन्दन शोक परिहारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-तवाणं*
देव दुन्दुभि बाजे गगना ।
शब्द करती अँगना-अँगना ।।
निरालस आ, झट इन्हें चुनो ।
यहाँ शिव सारथवाह सुनो ।।२९।।
ॐ ह्रीं नेत्र पीडा विनाशकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-गुणाणं*
आप मुख क्षत अँधयार हुआ ।
चन्द्रमा च्युत अधिकार हुआ ।।
सेव हित शश, समेत तारे ।
छत्र मिस देह तीन धारे ।।३०।।
ॐ ह्रीं रिद्धि-सिद्धि प्रदायकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो घोर-परक्-कमाणं*
स्वर्ण का कोट प्रताप समां ।
कोट चाँदी कीरत प्रतिमा ।।
कोट इक माणिक दिव पूंजी ।
कान्ति प्रति मूरत ही दूजी ।।३१।।
ॐ ह्रीं अपकीर्ति निवारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-गुण-वंभ-यारिणं*
विनत सुर मुकुटों की माला ।
चरण तुम सेवक तत्काला ।।
सुमन तुम चरण टिके आके ।
लेख लो देख विधि उठा के ।।३२।।
ॐ ह्रीं सत्पथ प्रदर्शकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आमो-सहि-पत्ताणं*
आप पीछे लगना आया ।
तीर भव जल उनने पाया ।।
घड़े से आगे आप कदम ।
तारते शून्य विपाक करम ।।३३।।
ॐ ह्रीं समस्त ज्वर रोग शामकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो खेल्लो-सहि-पत्ताणं*
नगन तुम जगदीश्वर कैसे ।
न लेखन हो, अक्षर ऐसे ।।
जड़ जिन्हें कहते अज्ञानी ।
उन्हें जानो कैसे ज्ञानी ।।३४।।
ॐ ह्रीं गर्भ संरक्षकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो जल्लो-सहि-पत्ताणं*
क्रोध से भर शठ कमठ चला ।
किया नभ उड़ा धूल धुंधला ।।
न छू पाया छाया तुमरी ।
उलट रज कर्म आत्म जकड़ी ।।३५।।
ॐ ह्रीं अतिवृष्टि अनावृष्टि निवारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विप्पो-सहि-पत्ताणं*
गरजती भीम मेघ माला ।
चमकती बिजुरी विकराला ।।
धार मूसल पानी दुस्तर ।
कमठ कृत कर्म लेप वज्जर ।।३६।।
ॐ ह्रीं बान्धव बाधा निवारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सव्वो-सहि-पत्ताणं*
मुण्ड माला पहने दौडें ।
प्रेत मुख से ज्वाला छोड़ें ।।
कमठ ने जिन्हें भिंजाया है ।
मनु निकाच कर्म बुलाया है ।।३७।।
ॐ ह्रीं कामानल उपशामकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो मण-बलीणं*
सुमन श्रद्धा, सरगम ओमा ।
हृदय गदगद, पुलकित रोमा ।।
काम सब छोड़ तोर सिमरण ।
उन्हीं का जीवन बस धन-धन ।।३८।।
ॐ ह्रीं वैभव वर्धन समर्थाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो वच-बलीणं*
कान दे अंगुली रख छोड़ी ।
सलंगर द्रोणी कब दौड़ी ।।
मन्त्र तुम नाम न सुन पाया ।
विपद् विषधर दौड़ा आया ।।३९।।
ॐ ह्रीं श्वान वृत्ति विधूताय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो काय-बलीणं*
जन्म इस जन्मांतर दूजे ।
आप पद पंकज नहिं पूजे ।।
हा ! पराभव इस भव झोली ।
दिवाली तम, अनरव होली ।।४०।।
ॐ ह्रीं राग आग परिदाहनाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो खीर-सवीणं*
बँधी दृग् विमोह अंधियारी ।
दर्श तुम किया न इक बारी ।।
मर्म-भेदी अनर्थ जेते ।
पॉंत लग सभी दुक्ख देते ।।४१।।
ॐ ह्रीं विष विषय रति हरणाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सप्पि-सवीणं*
जुड़ा तुम श्रुत, यज दर्शन से ।
कहाँ जुड़ सका किन्तु मन से ।।
टूट जो रही ना दुख पंक्ती ।
क्रिया कब भाव शून्य फलती ।।४२।।
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय प्रदाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो महुर-सवीणं*
भक्त वत्सल ! शरण्य शरणा ।
नाथ हे ! पुण्य भूम करुणा ।।
नत विनत मुझे शरण लीजे ।
दलन दुख अंकुर कर दीजे ।।४३।।
ॐ ह्रीं कर्मारि विध्वंसकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अमिय-सवीणं*
सार भण्डार ! अमंगल हर !
पूर्ण मन भावन ! मंगलकर !
तलक जब सु…मरण ना होवे ।
पलक तव सुमरण न खोवे ।।४४।।
ॐ ह्रीं संसार सागर तारणाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अक्खीण-महा-णसाणं*
तारने वाले भव जल से ।
दया तुम निस्वारथ बरसे ।।
उठा, रख दो मुझको सुख में ।
नाक तक डूबा जल दुख में ।।४५।।
ॐ ह्रीं मारी बीमारी निवारकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो वड्ढ-माणाणं*
भक्ति तुम चरण कमल लूटा ।
पुण्य यदि सातिशय अनूठा ।।
तलक जब मैं दूॅं भव फेरे ।
बने रहिये स्वामी मेरे ।।४६।।
ॐ ह्रीं भव बन्धन विमोचकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सव्व सिद्धा-यदणाणं*
भव्य जन जे प्रमाद तज के ।
पुलक, दृग् मुक्ताफल सज के ।।
निरखते अपलक तुम आनन ।
विरचते आप भजन, वे धन ।।४७।।
ॐ ह्रीं भय सप्तक विनाशकाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वसाहूणं*
अहो जन ‘नयन कुमुद चन्द्रा’ ।
पार्श्व हे ! मॉं वामा नन्दा ।।
मैल हाथों का धन पैसा ।
‘निराकुल’ कर लो खुद जैसा ।।४८।।
ॐ ह्रीं निरा’कुल प्रदाय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“पूर्णार्घं”
नीर, चन्दन, अक्षत-शाली ।
पुष्प, चरु, गो घृत दीपाली ।।
धूप, श्री फल ले हाथों में ।
चढ़ाऊॅं ले जल आंखों में ।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशति दल कमल
हृदयस्-थिताय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“महा-अर्घं”
गंग-जल, मलयागिर चन्दन ।
अखण्डित धान, पुष्प नन्दन ।।
धूप, व्यंजन, फल, दीपाली ।
भेंट मेंटन परणत काली ।।
ॐ ह्रीं अष्ट-चत्वारिंशद्-दलकमल
हृदयस्-थिताय
श्री पार्श्व जिनेन्द्राय
महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“जयमाला”
=दोहा=
आश किरण इक रोशनी,
करुणा दया निधान ।
विघ्न हरण, चिंतामणी,
पार्श्व नाथ भगवान् ।।
पारस पार लगाते हैं ।
सहजो-सन्त बताते हैं ।।
लेते भक्त आँख मोती ।
देते दृग् भीतर ज्योती ।।१।।
शूल सिंहासन बन चाली ।
फूलमाल नागन काली ।।
ज्वाला बदली पानी में ।
ग्वाला पंकती ज्ञानी में ।।२।।
पारस पार लगाते हैं ।
सहजो-सन्त बताते हैं ।।
लेते श्रीफल हाथों का ।
भय हरते भय सातों का ।।३।।
लगे पाँव पट खुल चाले ।
भरे घॉंव झट खुल ताले ।।
वज्जर अंग अंग अञ्जन ।
घर चन्दन त्रिशला नन्दन ।।४।।
पारस पार लगाते हैं ।
सहजो-सन्त बताते हैं ।।
लेते सिर्फ सुमन श्रद्धा ।
देते कण्ठ बिठा विद्या ।।५।।
क्षितिज छू चले पट धागे ।
जीव गिंजाई तट लागे ।।
नन्दी राज-घरानों में ।
‘जन्मा’ श्वान विमानों में ।।६।।
पारस पार लगाते हैं ।
सहजो-सन्त बताते हैं ।।
लेते बस गदगद बोली ।
देते मुख तक भर झोली ।।७।।
मेंढ़क ‘नाक’ राख पानी ।
धीवर मीन अभय दानी ।।
मैना सुन्दर पत राखी ।
मोती ज्वार, स्वर्ण पाखी ।।८।।
पारस पार लगाते हैं ।
सहजो-सन्त बताते हैं ।।
लेते ढ़ोक फर्श एका ।
देते मुंह मांगा देखा ।।९।।
मैं भी किस्मत का मारा ।
सुना जहाज बड़ा थारा ।
रख लो ना दे इक कोना ।
चाह ‘निराकुल’ सुख जो ना ।।१०।।
=दोहा=
पारस पत्थर नाम का,
बढ़ पारस तुम नाम ।
जिह्वा अब-तब जब छुये,
भव स्वर्णिम परिणाम ।।
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
‘दोहा’
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
=आरती=
पाया दर्शन तेरा ।
पुण्य सातिशय मेरा ।।
ले दीपों की थाली ।
आरति करूँ तिहारी ।।
गाथा कीर्तन तेरा ।
पुण्य सातिशय मेरा ।।
पाया दर्शन तेरा ।
पुण्य सातिशय मेरा ।।
ले दीपों की थाली ।
आरति करूँ तिहारी ।।
गर्भ आरती पहली ।
बरसा रत्न रुपहली ।।
सपने देख सबेरा ।
माता पुण्य घनेरा ।।
पाया दर्शन तेरा ।
पुण्य सातिशय मेरा ।।
ले दीपों की थाली ।
आरति करूँ तिहारी ।।
जन्म आरती दूजी ।
जय स्वर्गों तक गूँजी ।।
नह्-वन क्षीर सुमेरा ।
सुरपत पुण्य घनेरा ।।
पाया दर्शन तेरा ।
पुण्य सातिशय मेरा ।।
ले दीपों की थाली ।
आरति करूँ तिहारी ।।
त्याग आरती तीजी ।
परिजन दृग् भींजी ।।
चढ़ शिविका वन डेरा ।
सुरगण पुण्य घनेरा ।।
पाया दर्शन तेरा ।
पुण्य सातिशय मेरा ।।
ले दीपों की थाली ।
आरति करूँ तिहारी ।।
ज्ञान आरती चौथी ।
जगमग केवल ज्योती ।।
दिया तले ना अंधेरा ।
दिश् दिश् पुण्य घनेरा ।।
पाया दर्शन तेरा ।
पुण्य सातिशय मेरा ।।
ले दीपों की थाली ।
आरति करूँ तिहारी ।।
मोख आरती अन्ता ।
मुक्ति राधिका कन्ता ।।
नन्ता काल बसेरा ।
शिवपुर पुण्य घनेरा ।।
पाया दर्शन तेरा ।
पुण्य सातिशय मेरा ।।
ले दीपों की थाली ।
आरति करूँ तिहारी ।।
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