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योगी भक्ति

योगी भक्ति

(१)
सद्गुरु अपने जैसे एक

नरक दुख डर जो’वन चाले,
जगा अन्तर्मन हंस विवेक ।
सद्गुरु अपने जैसे एक

आन तरु तल आसन माड़ा,
देख बिजुरी नभ काले मेघ ।।
सद्गुरु अपने जैसे एक

दोपहर गीषम चढ़ पर्वत,
सूर सन्मुख ठाड़े अनिमेष ।
सद्गुरु अपने जैसे एक

तुषारी ठण्ड निश गुजारी,
ओढ़ धृति कम्बल चतुपथ बैठ ।
सद्गुरु अपने जैसे एक

(२)
कोई न सन्तों के जैसा

नरक दुख डर जो’वन चाले,
छोड़ के घर रुपया पैसा ।
कोई न सन्तों के जैसा

आन तरुतल आसन माड़ा,
लगा ज्यों बरसा अन्देशा ।।
कोई न सन्तों के जैसा

दोपहर गीषम चढ़ पर्वत,
सूर, तप तपें कहें कैसा ।
कोई न सन्तों के जैसा

तुषारी ठण्ड निश गुजारी,
ढ़क धृति कंबल तन अशेषा ।।
कोई न सन्तों के जैसा

(३)
पाणी पातर ।
जय पद यातर ।
शिश वस मातर ।
जयतु जयतु जय ।

दुख नारक डर ।
जो’वन तज घर ।
कच लुंचन कर ।
विचरण निर्भय ।।
जयतु जयतु जय ।

बिजुरी बादल ।
धारा मूसल ।
ठाड़े तरुतल ।
हित सुख अक्षय ।।
जयतु जयतु जय ।

गीष्म दोपहर ।
चढ पर्वत पर ।
तकें सूर खर ।
इक टक दृग् द्वय ।।
जयतु जयतु जय ।

शीत लहर पल ।
धर धृति कम्बल ।
आ चतुपथ चल ।
थित हित अघ क्षय ।।
जयतु जयतु जय ।

पाणी पातर ।
जय पद यातर ।
शिश वस मातर ।
जयतु जयतु जय ।

(४)
सन्तों की बात निराली है

देख नरकों की वेदना,
जो’वन राह निहारी है ।
सन्तों की बात निराली है

सुनते ही मेघ गर्जना,
जोग तरुतल तैयारी है ।।
सन्तों की बात निराली है

सूर्य का करते सामना,
गिर शिखर गीष्म दुपारी है ।
सन्तों की बात निराली है

ओढ़ धृति कम्बल बैठना,
चतुपथ ठण्ड तुषारी है ।।
सन्तों की बात निराली है

(५)
जय पीछि कमण्डल धारी

वन जो’वन राह निहारी ।
डर नरक पतन दुख भारी ।।
जय पीछि कमण्डल धारी

झिर मूसल धारा काली ।
तरतले खड़े अविकारी ।।
जय पीछि कमण्डल धारी

चढ़ पर्वत गीष्म दुपारी ।
ठाड़े सम्मुख तिमिरारी ।।
जय पीछि कमण्डल धारी

पवमान शीत निशि कारी ।
धृति कम्बल ओढ़ गुजारी ।।
जय पीछि कमण्डल धारी

(६)
सन्त सन्तोषी वन्दना

जो’वन घर से निकल पड़े,
देख नरकों की वेदना ।
सन्त सन्तोषी वन्दना

जोग तरुमूल साध बैठे,
सुनते ही मेघ गर्जना ।।
सन्त सन्तोषी वन्दना

चढ़ पर्वत ग्रीष्म दोपहर,
सूर्य का करते सामना ।
सन्त सन्तोषी वन्दना

आन चौराहे ठण्ड में,
ओढ़ धृति कम्बल बैठना ।।
सन्त सन्तोषी वन्दना

(७)
मैंने साधू देखे वन में

नरक पतन दुख से डरकर जो,
निकल पड़े जो’वन में ।
मैंने साधू देखे वन में

खड़े ग्रीष्म ऋतु, चढ़ पर्वत पर,
दुपहर सूर्य तपन में ।।
मैंने साधू देखे वन में

वृक्ष तले ठाड़े बरसा में,
उठे तरंग न मन में ।
मैंने साधू देखे वन में

ओढ़ धीर कम्बल गुजरे निशि,
बहती शीत पवन में ।।
मैंने साधू देखे वन में

(८)
साधु दिगम्बर मेरे

जो’वन निकल पड़े हैं घर से,
डर दुख नरक घनेरे ।
साधु दिगम्बर मेरे

साध जोग तरुमूल खड़े हैं,
बरसा सांझ सबेरे ।।
साधु दिगम्बर मेरे

ग्रीष्म खड़े चढ़ गिर रवि सम्मुख,
खा लू लपट थपेड़े ।
साधु दिगम्बर मेरे

ओढ़ कबरिया धीर शिशिर निशि,
चतुपथ खड़े अकेले ।।
साधु दिगम्बर मेरे

(९)
धन धन
साधु जीवन धन धन

जर, जन्म, मरण ।
दुख नरक पतन ।
भयभीत श्रमण ।
वन ओर गमन ।।
धन धन
साधु जीवन धन धन

बादल गर्जन ।
झिर जल वर्षण ।
माड़े आसन ।
तरुतल मुनिगण ।।
धन धन
साधु जीवन धन धन

ऋत ग्रीषम क्षण ।
चढ़ गिर शिखरन् ।
खर सूर किरण ।
सहते सिरमण ।।
धन धन
साधु जीवन धन धन

धृति कम्बल तन ।
चतुपथ थिर मन ।
गुजरी तपधन ।
निशि शीत पवन ।।
धन धन
साधु जीवन धन धन

(१०)
दैगम्बर गुरू हमारे

दुःसह नरक पतन दुख से डर,
जो’वन राह निहारे ।
दैगम्बर गुरू हमारे ।।

खड़े योग तरु मूल साध कर,
बिजुरि देख घन कारे ।
दैगम्बर गुरू हमारे ।।

ग्रीष्म दोपहर, चढ़ पर्वत पर,
सूर सामने ठाड़े ।।
दैगम्बर गुरू हमारे ।।

ओढ़ शीत ऋतु धीरज कम्बल,
चतु-पथ आन पधारे ।।
दैगम्बर गुरू हमारे ।।

(२०)
गुणगान अचिन्त्य अनूप ।
श्री गुरु भगवंत स्वरूप ।।

कौड़ी न पास रखते ।
नत नम नजरें तकते ।।
चिच्-चिदानंद चिद्रूप ।
श्री गुरु भगवंत स्वरूप ।।१।।

बोलें मिसरी घोलें ।
पलकें पल को खोलें ।।
नित निमग्न निज-रस कूप ।
श्री गुरु भगवंत स्वरूप ।।२।।

क्या कहे, ज्ञात रस…ना ।
आता मन को कसना ।।
कलि काल चतुर्-थस्-तूप ।
श्री गुरु भगवंत स्वरूप ।।३।।

दिवि लाभान्वित धरती ।
बेवजह दया झिरती ।।
बरगदी छांव जग धूप ।
श्री गुरु भगवंत स्वरूप ।।४।।

गिन सका कौन तारे ।
सुनते सुर-गुरु हारे ।।
लो साध निरा-कुल चूप ।
श्री गुरु भगवंत स्वरूप ।।५।।

(२१)
।। जयतु जयतु गुरुदेव ।।

नगन दिगम्बर देह ।
यद्यपि देह वैदेह ।।
सार्थक ‘जगत’ सदैव ।
जयतु जयतु गुरुदेव ।।

हाथन लुंचन केश ।
विगत राग, गत द्वेष ।।
रत मां प्रवचन सेव ।
जयतु जयतु गुरुदेव ।।१।।

वृक्ष मूल चौमास ।
आतप अभ्रवकाश ।।
भांत स्वयं स्वय-मेव ।
जयतु जयतु गुरुदेव ।।२।।

परहित नैन पनील ।
चुन उत्तर गुण शील ।।
पुण्य सातिशय जेब ।
जयतु जयतु गुरुदेव ।।३।।

सु…मरण संध्या तीन ।
ज्ञान ध्यान लवलीन ।।
शिशु मन विगत फरेब ।
जयतु जयतु गुरुदेव ।।४।।

अगम वचन गुण गाथ ।
सहज नमन नत माथ ।।
हित उत्-तारण खेव ।
जयतु जयतु गुरुदेव ।।५।।

(२२)
किसी से नफरत नहीं जिन्हें ।
किसी से मतलब नहीं जिन्हें ।
वे मुनि हैं ।।
रहते अपने में मगन ।
किसी से होती नहीं जलन ।
किसी को देते नहीं वचन ।
सुन लेते हैं दो, पकड़ाने की चार
फुर्सत नहीं जिन्हें ।
वे मुनि हैं ।।१।।

बरसात में छतरी ।
धूप में छाँव बरगदी ।
जो ठण्डी में धूप गुनगुनी हैं ।
वे मुनि हैं ।।
किसी से लेना नहीं जिन्हें ।
किसी का देना नहीं जिन्हें ।
वे मुनि हैं ।।
रहते अपने में मगन ।
किसी से होती नहीं जलन ।
किसी को देते नहीं वचन ।
सुन लेते हैं दो, पकड़ाने की चार
फुर्सत नहीं जिन्हें ।
वे मुनि हैं ।।२।।

जग जल से भिन्न कमल
मन निर्मल गंगा जल
सार्थ नाम गुणकार जो गुणी हैं ।
वे मुनि हैं ।।
जोड़ना जुड़ना नहीं जिन्हें ।
झुक चले, भिड़ना नहीं जिन्हें ।
वे मुनि हैं ।।
रहते अपने में मगन ।
किसी से होती नहीं जलन ।
किसी को देते नहीं वचन ।
सुन लेते हैं दो, पकड़ाने की चार
फुर्सत नहीं जिन्हें ।
वे मुनि हैं ।।३।।

(२३)
।। मुनिराज चले वन को ।।

कच घुंघराली हाथ खींच के ।
प्रीत पुरानी बेलि सींच के ।।
वश में करने मन को ।
मुनिराज चले वन को ।।१।।

वस्त्र उतार, उतारी पगड़ी ।
तजी साज-सामग्री सगरी ।।
‘रे छोड़ छाड़ वन को ।
मुनिराज चले वन को ।।२।

हाथ चार दृग् रखकर धरती ।
हाथ कमण्डलु पीछी फबती ।।
शिव राधा ब्याहन को ।
मुनिराज चले वन को ।।३।।

(२४)
।। जयतु दैगम्बर श्रमण ।।

हाथ कमण्डलु पीछी है ।
रीझ चली दृग् तींजी है ।।
समर्पित श्रद्धा सुमन ।
जयतु दैगम्बर श्रमण ।।१।।

लगन लगी बेला तेला ।
सम सोना माटी ढ़ेला ।।
एक कल भव जल तरण ।
जयतु दैगम्बर श्रमण ।।२।।

आशा दृष्टि हटाई है ।
नासा दृष्टि टिकाई है
सुरत शिव राधा रमण ।
जयतु दैगम्बर श्रमण ।।३।।

(२५)
।। नमोस्तु ते ।।
दया दुशाल ओढ़ के ।
विमोह जाल छोड़ के ।।
चल पड़े जंगल के रास्ते ।
नमोस्तु ते, नमोस्तु ते, नमोस्तु ते ।।१।।

उखाड़ केश हाथ से ।
उतार भेष गात से ।।
चल पड़े निःश्रेयस वास्ते ।
नमोस्तु ते, नमोस्तु ते, नमोस्तु ते ।।२।।

निहार हाथ चार भू ।
सुधार साध चार-सू ।।
चल पड़े आहिस्ते-आहिस्ते ।
नमोस्तु ते, नमोस्तु ते, नमोस्तु ते ।।३।।

(२६)
।। सन्तों की बात निराली है ।।

जग रात जगाना नीरज को ।
उठ प्रात उठाना सूरज को ।।
निशि रोजाना उजियाली है ।
सन्तों की बात निराली है ।।१।।

कर ज्ञान, ध्यान में लग जाना ।
फिर-ध्यान, ज्ञान में लग जाना ।
इक जिन्हें कबाली-गाली है ।
सन्तों की बात निराली है ।।२।।

पल-पल नासा दृष्टि रखना ।
दिल मुट्टी खिल सृष्टि रखना ।।
दृग्-परिणति भोली भाली है ।
सन्तों की बात निराली है ।।३।।

डग भरें बाद, देखें पहले ।
संकल्प शक्ति लख दिल दहले ।।
लख नजर उतरती काली है ।
सन्तों की बात निराली है ।।४।।

आंखों से सब कुछ कह देना ।
ना लेना कुछ, दिल रख लेना ।।
मन बच्चों जैसा खाली है ।
सन्तों की बात निराली है ।।५।।

(२७)
मृग पाथर समझ खुजावत खाज ।
जय जयत जयत, जय जय मुनिराज ।।

वन जोवन सुन शिव तिय आवाज ।
सेवक न किसी के खुद सरताज ।
कल चिन्ता विसर सम्हारत आज ।।
मृग पाथर समझ खुजावत खाज ।
जय जयत जयत, जय जय मुनिराज ।।१।।

मां प्रवचन समित गुप्ति वस नाज ।
तरु-मूल अभ्र आतप इक काज ।।
पड़ दृष्ट अष्ट अरकुल सर गाज ।
कुछ उदर बड़ा सा राखत लाज ।।
मृग पाथर समझ खुजावत खाज ।
जय जयत जयत, जय जय मुनिराज ।।२।।

कलि कोई एक गरीब नवाज ।
भवि ! भव सागर उत्तरण जहाज ।।
मन चाह निराकुल-पुर साम्राज ।
बह धारा विधि सुख साधत साज ।।
मृग पाथर समझ खुजावत खाज ।
जय जयत जयत, जय जय मुनिराज ।।३।।

(२८)
चल पड़े जोवन देखो ना ।
बनाने आत्म खरा सोना ।।

खड़े बरसा विरछा नीचे ।
आंख कुछ खोले, कुछ मीचे ।।
सलोना जिन्हें इक अलोना ।
बनाने आत्म खरा सोना ।
चल पड़े जोवन देखो ना ।।१।।

खड़े जा पर्वत के ऊपर ।
सूर जब दिखलाये तेवर ।।
लिये दौना न कहे दो ना ।
बनाने आत्म खरा सोना ।
चल पड़े जोवन देखो ना ।।२।।

तुसारी ठण्ड, पड़ा पाला ।
आ चुराहे आसन माड़ा ।।
अगम गुण कीर्त शरण मोना ।
बनाने आत्म खरा सोना ।
चल पड़े जोवन देखो ना ।।३।।

(२९)
।। सन्त ये ऐसे कैसे हैं ।।

पोंछते मिलते हैं आंसू ।
धकाते बन पाछी वायू ।
सन्त खुद अपने जैसे हैं ।।१।।

धूप खा, खड़े तान छाते ।
बदल पत्थर फल बरसाते ।।
कुछ कुछ तरुवर ऐसे हैं ।
सन्त खुद अपने जैसे हैं ।।२।।

दाग़ धब्बे धो डालें हैं ।
तृप्त कर देने वाले हैं ।।
कुछ कुछ दरिया ऐसे हैं ।
सन्त खुद अपने जैसे हैं ।।३।।

(३०)
सन्त सिवा, क्या शिव सुन्दर सत् ।
है सन्तों का मन बालक वत् ।।

हँसते, हँसी न कभी उड़ाते ।
कभी न मुंह लग के बतियाते ।।
गम खाते, गुस्सा पी जाते ।
चुगल चपाती कभी न खाते ।।
रहते अपनी दुनिया में रत ।
है सन्तों का मन बालक वत् ।।१।।

फिकर न कल की, आज सहेजें ।
दूर बैठ अपनापन भेजें ।।
जले, कुड़े न किसी पर खींचें ।
देख दीन दुखिया दृग् भींजे ।।
चल तीरथ, इक करुणा मूरत ।
रहते अपनी दुनिया में रत ।
है सन्तों का मन बालक वत् ।।२।।

भूल न अपनी सिर उस मड़ दी ।
रूठ मान जाते हैं जल्दी ।।
बना काम पर परणत चल दी ।
डाला पंक, रंग इक हल्दी ।।
पैसा सिर चढ़ सका न स्वारथ ।
रहते अपनी दुनिया में रत ।
है सन्तों का मन बालक वत् ।।३।।

(३१)
।। सन्त साधजन बहती धारा ।।

रज कण राग द्वेष से रीते ।
परहित मर मिटते, दृग् तीते ।।
दृष्टि उठा हरते अंधियारा ।
सन्त साधजन बहती धारा ।।१।।

आते जाते मार थपेड़े ।
शंकर, कंकर टेड़े मेड़े ।।
बनता साधें परोपकारा ।
सन्त साधजन बहती धारा ।।२।।

ग्रीषम गर्म न शीतल ठण्डी ।
मार्ग न बना, चले पगडण्डी ।।
आश निरा-कुल सुख इस बारा ।
सन्त साधजन बहती धारा ।।३।।

(३२)
बात कुछ हटके सन्तान की ।
राह रख ली बीहड़ वन की ।।

और का लौटाया कर जोड़ ।
लुटाया अपना भी दिल खोल ।।
तिसना छोड़ छाड़ धन की ।
राह रख ली बीहड़ वन की ।
बात कुछ हटके सन्तान की ।।१।।

आ सका कब फैलाना हाथ ।
खड़े बाहें पसार दिन-रात ।।
समझ परिभाषा जोवन की ।
राह रख ली बीहड़ वन की ।
बात कुछ हटके सन्तान की ।।२।।

यहां तक रखा न जोड़ा एक ।
निरा-कुल सुख अब सपना देख ।।
पकड़ हट शिव तिय ब्याहन की ।
राह रख ली बीहड़ वन की ।
बात कुछ हटके सन्तान की ।।३।।

(३३)
महिमा साधुजन न्यारी ।
भीतर ज्ञान भण्डारी ।।

जोवन चल पड़े वन ओर ।
खनखन नेह तज, घर छोड़ ।।
तन मल पटल श्रृंगारी ।
भीतर ज्ञान भण्डारी ।
महिमा साधुजन न्यारी ।।१।।

पूरे हुये नहिं दो मास ।
लुंचन आ चला फिर रास ।।
परिषह जय, निरतिचारी ।
तन मल पटल श्रृंगारी ।
भीतर ज्ञान भण्डारी ।
महिमा साधुजन न्यारी ।।२।।

निवसे गुफा कोटर शून ।
दें कम, काम लें तन दून ।।
शिव तिय ब्याह तैयारी ।
परिषह जय, निरतिचारी ।
तन मल पटल श्रृंगारी ।
भीतर ज्ञान भण्डारी ।
महिमा साधुजन न्यारी ।।३।।

(३४)
साधु जीवन अपने जैसा ।
न बोले सिर चढ़कर पैसा ।।

बिछाने धरती मनमानी ।
चादरा गगन आसमानी ।।
हाथ कच लोंच स्वाभिमानी ।
नाम ही है पातर पाणी ।।
भांत पहरी सजग हमेशा ।
न बोले सिर चढ़ के पैसा ।
साधु जीवन अपने जैसा ।।१।।

क्रोध गुस्सा पीना आता ।
गम्म खाने मन ललचाता ।।
गीत नवकार खूब भाता ।
जोड़ना शिव राधा नाता ।।
राग टूटा, छूटा द्वेषा ।
भांत पहरी सजग हमेशा ।।
न बोले सिर चढ़ के पैसा ।
साधु जीवन अपने जैसा ।।२।।

पोर निज अंगुलियाँ सुमरनी ।
नापते पांव पांव धरणी ।।
व्यथा मण, कान्ति तन सुवरणी ।
अगम महिमा न जाय वरणी ।।
किसी का वैभव ना ऐसा ।
भांत पहरी सजग हमेशा ।।
न बोले सिर चढ़ के पैसा ।
साधु जीवन अपने जैसा ।।३।।

(३५)
और आंखों से नाता है ।
छोड़ तेरा मेरा,
क्या न सन्तों को आता है ।

सुना क्या ? तुंकारी किस्सा ।
तभी से किया नहीं गुस्सा ।।
लटकती सूंड जन्म अगला ।
सुना क्या ? झाड़ा मद पल्ला ।।
सुना क्या ? कल तिरंच नाते ।
छोड़ माया वन आ जाते ।।
धुने सिर, मले हाथ माखी ।
सुना क्या ? यम-दर तिसना की ।।
छोड़ फन्दा घेरा,
क्या न सन्तों को आता है ।
और आंखों से नाता है ।
छोड़ तेरा मेरा,
क्या न सन्तों को आता है ।।१।।

सुना क्या ? कौन पराया है ।
किसी का दिल न दुखाया है ।
प्राण धन क्या दिया सुनाई ।
तभी से चोरी बिसराई ।।
भरोसे-मन्द कहाँ झूठा ।
सुना क्या ? नेह झूठ छूटा ।।
सुना क्या ? भवद गहल श्वानी ।
ब्रह्म-चर, छोड़ मुकत रानी ।।
काल नरकेश्वर राजेश्वर ।
सुना क्या ? त्यागा आडम्बर ।।
छोड़ चेहरे चेहरा,
क्या न सन्तों को आता है ।
और आंखों से नाता है ।
छोड़ तेरा मेरा,
क्या न सन्तों को आता है ।।२।।

(३६)
।। न पूछो बात सन्तों की ।।

रहते अपने में मगन ।
बिछौने है बिछी धरती,
ओढ़ लेते नीला गगन ।।
सन्त खुद जैसे संतोषी ।
न पूछो बात सन्तों की ।।१।।

बहते दरिया हैं श्रमण ।
न फैलाते कभी झोली,
बाँटते खुशियाँ रात-दिन ।।
दया मूरत न और देखी ।
सन्त खुद जैसे संतोषी ।
न पूछो बात सन्तों की ।।२।।

गुरु तरु छैय्या जग तपन ।
पोंछते दुखियों के आंसू,
हरें अंधियारा उठा नयन ।
निरा-कुल वृत्ति सिंह अनोखी ।
दया मूरत न और देखी ।
सन्त खुद जैसे संतोषी ।
न पूछो बात सन्तों की ।।३।।

(३७)
कर मल पाटल श्रृंगार चले ।
मुनि व्याहन शिवपुर नार चले ।।

सिर काँधे भार उतार चले ।
हाथों से केश उखाड़ चले ।।
वन छोड़ छार घर-बार चले ।
मुनि ब्याहन शिवपुर नार चले ।।१।।

गुणधन करने दृग् चार चले ।
अवगुण करने यम द्वार चले ।।
करने जागृति गलहार चले ।
मुनि ब्याहन शिवपुर नार चले ।।२।।

नासा दृष्टी अविकार चले ।
कर वस्तु स्वरूप विचार चले ।।
पाने निज निधि उस पार चले ।
मुनि ब्याहन शिवपुर नार चले ।।३।।

करने निज पर उद्धार चले ।
बहने सहजो विधि-धार चले ।।
हित सौख्य ‘निराकुल’ न्यार चले ।
मुनि ब्याहन शिवपुर नार चले ।।४।।

(३८)
हैं खड़े दया से सटके ।
गुरु खुद जैसे कुछ हटके ।।

पारस को पड़ता छूना ।
लोहा तब जाकर सोना ।।
गुरु दूर, गुरु का ध्याना,
क्या किया हुआ कल्याणा ।।
गुरु रस पारस से बढ़ के ।
गुरु जश पारस-से बढ़ के ।।१।।

रख लिया नाम क्या होता ।
नीचे कब पनपा पौधा ।।
तुम सत्संगति में आके ।
भूला भी खुश, निधि पाके ।।
बोले न स्वार्थ सिर चढ़ के ।
गुरु वट ‘विरक्ष’ से बढ़ के ।।२।।

बस बारी तीन उछाले ।
फिर, चिर निश्चिंत सुला ले ।।
गुरु क्षमा करें, कह ‘गलती’ ।
अहसान गुरू अनगिनती ।।
कब बढ़े, दोष अर मड़ के ।
गुरु-वर दरिया से बढ़ के ।।
हैं खड़े दया से सटके ।
गुरु खुद जैसे कुछ हटके ।।३।।

(३९)
रखते नित हंस विवेक ।
मुनि भीतर बाहर एक ।।

मन बालक सद्या-जात ।
अनुराग जाग दिन रात ।।
रख ध्यान अहिंसा पाथ,
सुलझी सी रखते बात ।।
पीड़ित पर पीड़ा देख ।
मुनि भीतर बाहर एक ।।१।।

रग लहु पुरु वंशी गौर ।
विश्राम हिरणिया दौड़ ।।
दृग् मां प्रतिरूप अमोल,
परिणत जागृत शिर-मौर ।।
चल काल अतीत सुलेख ।
मुनि भीतर बाहर एक ।।२।।

बन्धन विधि आद्योपांत ।
दुर्भाव कषाय प्रशांत ।।
तन लिप्त जल्ल-मल कान्त ।
कृत काम सहज निर्भान्त ।।
मंजिल पहले कब टेक ।
मुनि भीतर बाहर एक ।।३।।

(४०)
।। शिव वधु न यूं हि देखे राहें ।।

मुनि पास न रखते तिनका भी ।
अनुराग रहा ना तन का भी ।।
दो छोड़ स्वर्ग, न मोक्ष चाहें ।
अध्यात्म सरोवर अवगाहें ।।
शिव वधु न यूं हि देखे राहें ।।१।।

कन्दर्प नहीं मन दर्प नहीं ।
मनु मुनिवर दूजे दर्पण ही ।।
कब राग आग आतम दाहें ।
रख चाहत घृत, न नीर भांहें ।।
शिव वधु न यूं हि देखे राहें ।।२।।

जप ‘सत्त्वेषु मैत्रीं’ भाया ।
आया शरणागत अपनाया ।।
हित शत्रु खड़े पसार बाहें ।
मन सुरत अबकि शिव वधु ब्याहें ।
शिव वधु न यूं हि देखे राहें ।।३।।

(४१)
चलते-फिरते तीरथ हैं ।
मुनि समता की मूरत हैं ।।

पर्याप्त प्राप्त कुछ जो भी ।
दिव शिव न चाह निर्लोभी ।।
करते विधि का स्वागत हैं ।
मुनि समता की मूरत हैं ।।

दो पकड़ा जाये कोई ।
या कीर्तन गाये कोई ।।
कब खींझत, कब रीझत हैं ।
मुनि समता की मूरत हैं ।।

अंजुली आया कटु, मीठा ।
खट्टा, कषायला, तीखा ।।
निर्-गृद्ध उदर पूरत हैं ।
मुनि समता की मूरत हैं ।।

(४२)
डर नरक, वन गमन ।
धन ! दिगम्बर श्रमण ।।

ग्रीषम आतापन ।
तरु-तल बरसा क्षण ।।
ठण्डी चौराहे, बिदा माड़ आसन ।
धन ! दिगम्बर श्रमण ।।१।।

भाव मैत्र हरजन ।
क्षमा भाव दुर्जन ।।
दया दीन, मनुआ हरसे लख गुणगण ।
धन ! दिगम्बर श्रमण ।।२।।

राग-द्वेष मुंचन ।
हाथ केश लुंचन ।।
धरा है ही बिछी, ओढ़ लेते गगन ।
धन ! दिगम्बर श्रमण ।।३।।

(४३)
कब द्वेष किया, कब राग किया ।
सन्तों ने सब कुछ त्याग दिया ।।

हाथों से केश उखाड़े हैं ।
वन जाकर वस्त्र उतारे हैं ।।
नख नख नक्षत्र-राज चन्दा,
गहने मल पाटल धारे हैं ।।
बन प्रतियोगी कब भाग लिया ।
सन्तों ने सब कुछ त्याग दिया ।।१।।

बरसा विरछा नीचे ठाड़े ।
ग्रीषम गिर, थिर आसन माड़े ।।
चौराहे गुजर चली ठण्डी,
कर सांय-सांय मारुत चाले ।।
पल-पल अनूठ इक जाग छिया ।
सन्तों ने सब कुछ त्याग दिया ।।२।।

नासा से दृष्टि टिका राखी ।
फिर के न कोई वस्तु तांकी ।।
ठण्डे तुषार से पड़ चाले,
न रहे ‘कि कर्ज़, कर्मन बाकी ।।
बस इनका इक बेदाग जिया ।
सन्तों ने सब कुछ त्याग दिया ।।३।।

(४४)
।। हैं सन्त स्वयं के जैसे ।।

अभिजात बाल वत् मन है ।
जल भिन्न कमल जीवन है ।।
वन चले, छोड़ धन पैसे ।
हैं सन्त स्वयं के जैसे ।।१।।

ना कहना कुछ, सब सहना ।
ना रहना टिक, नित बहना ।।
भुवि, कुछ-कुछ दरिया ऐसे ।
हैं सन्त स्वयं के जैसे ।।२।।

तर हाथ न हाथ करे हैं ।
हाथों पे हाथ घरे हैं ।।
वच अगम, कहूॅं गुण कैसे ।
हैं सन्त स्वयं के जैसे ।।३।।

(४५)
।। साधुजन वन की ओर चले ।।

नरक पतन से डर करके ।
भेष दिगम्बर धर करके ।।
नेह दुनिया से तोड़ चले ।
साधुजन वन की ओर चले ।।१।।

नासा ‎‫दृग् गीली धर करके ।
विषयाशा ढ़ीली कर करके ।।
ब्याह रति शिव-वधु जोड़ चले ।
साधुजन वन की ओर चले ।।२।।

पाप, पुण्य श्रद्धा कर के ।
ज्ञान, चरित अपनाकर के ।।
सभी आकुलता तोड़ चले ।
साधुजन वन की ओर चले ।।३।।

(४६)
।। कठिन सन्तों की साधना ।।

एक बार भोजन, एक बार पानी ।
न ठहरना कहीं, दरिया सी रवानी ।।
‘रे सबके वश की बात ना ।।
कठिन सन्तों की साधना ।।१।।

पांव पांव अपने, गांव गांव जाना ।
हुये न दो महिने, कच उतार लाना ।
सेज धरा, चादर गगन आसमानी ।
न ठहरना कहीं, दरिया सी रवानी ।।
‘रे सबके वश की बात ना ।।
कठिन सन्तों की साधना ।।२।।

देख मेघ बिजुरी, आ तरु-तल रहना ।
ठण्ड कड़ाके की, बल मुट्ठी सहना ।।
गर्मी भर ‘सहजो’ लू लपटें खानी ।
न ठहरना कहीं, दरिया सी रवानी ।।
‘रे सबके वश की बात ना ।।
कठिन सन्तों की साधना ।।३।।

(४७)
तपस्या सन्तों की कठिन ।
जागना रहता रात-दिन ।।

अपने घर पर पेट भरे ।
नहिं पर घर मनुहार भले ।
और तो और एक बारी,
दिन में वो भी खड़े खड़े ।।
चढ़ना रहता लाठी बिन ।
तपस्या सन्तों की कठिन ।।

बिछौना लो बिछा धरती ।
भले गर्मी, बरसा, सरदी ।।
ओढ़ लो ये नीला गगन,
तलक जब तक श्वास चलती ।।
रहना जल में जल से भिन ।
तपस्या सन्तों की कठिन ।।

पग उठाना देख रखना ।
नाक ऊपर आंख रखना ।।
सभी सहना, न कहना कुछ,
ज़िन्दगी भर नाक रखना ।।
हैं नहिं वैसे नामुमकिन ।
तपस्या सन्तों की कठिन ।।

(११)
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण

दुख जरा, जनम मरन ।
भीत गति नरक पतन ।
हंस मत लगा लगन ।
वन गमन, वन गमन, वन गमन

मेघ बिजुरी से चपल ।
भोग विष विषय सकल ।
मार सो तरंग मन ।
वन गमन, वन गमन, वन गमन

क्षण क्षयी जल बुदबुदा ।
जिन्दगी चपल तथा ।
जोड़ सुख अखर नयन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण

व्रत समिती गुप्ति भज ।
झर चले ‘कि कर्म रज ।
ध्यान, जिन वचन रमन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण

मल पटल कतार लग ।
नग्न-दिगम्बर सजग ।
विगत-राग, गत-मदन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण

शिला तप्त रवि प्रखर ।
पाँव नाप गिरि शिखर ।
सूर मुख तपश्चरण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण

अमृत ज्ञान पान नित ।
क्षमा, छत्र-तोष धृत ।
सहज परीषह सहन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण

इन्द्र धनुष श्याम घन ।
बिजुरी जल, नम-पवन ।
योग मूल तरु शरण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण

ताड़ित शर धार जल ।
धीर वीर दृग्-सजल ।
विचलित कब आचरण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण

धृति कम्बल ओढ़ तन ।
निश व्यतीत शीत क्षण ।
चतुस्-पथ तले गगन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण

धारक इमि योग त्रय ।
पुण्य तन, सदय हृदय ।
दें तैरा वैतरण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण

(१२)
रोग पीड़ित जर जन्म मरण ।
भीत दुख दुःसह नरक पतन ।।
मेघ बिजुरी से भोग चपल ।
देख जल बुद-बुद जीवन पल ।।
जोड़ मति हंस एक नाता ।
सिर्फ बन दृष्टा अर ज्ञाता ।।
ले चले वन के मध्य शरण ।
सुख अलौकिक रख चाह श्रमण ।।

महाव्रत समिति गुप्ति धारी ।
सुरत स्वाध्याय ध्यान न्यारी ।।
धाम शाश्वत निवास करने ।
तपें तप कर्म नाश करने ।।

विगत मद-मोह, दृग् पनीले ।
क्यों न हों कर्म बंध ढ़ीले ।।
मल पटल आभूषण तन पे ।
लगा रक्खी लगाम मन पे ।।
सूर्य किरणन संतप्त शिला ।
सुखा चाली लू-लपट गला ।।
शिखर पर्वत पग रखते तब ।
घोर तप तपते कँपते कब ।।

पान संज्ञानामृत क्षण क्षण ।
क्षमा जल अभिसेचित पुन तन ।।
छत्र छाया संतोष वरण ।
क्यों न परिषह हो चलें सहन ।।

श्याम घन कण्ठ मोर जैसे ।
भ्रमर-कज्जल कुछ कुछ ऐसे ।।
इन्द्र ले धनुष निकल आया ।
भयंकर घन-गर्जन माया ।।
हवा ठण्डी ओला-पानी ।
हाय ! मौसम की मनमानी ।।
तपोधन ! निर्भय वे विरले ।
आ विराजे तब वृक्ष तले ।।

बाण बौछार धार जल की ।
धीर-धर ! फिकर कहाँ कल की ।।
जीत परिषह ! भयभीत जनन ।
नृसिंह ! कब विचलित सदाचरण ।।

जम चली हिम रस्ते-रस्ते ।
झिर चले वृक्ष-वृक्ष पत्ते ।।
शब्द हा ! साँय-साँय होता ।
सब्र का उड़ चाले तोता ।।
लहर ठण्डी जा फिर आती ।
शुष्क लकरी तन इक भॉंती ।।
गुजारें ओढ़ धीर कम्बल ।
चतुष्पथ खड़े शिशिर निश पल ।।

योग त्रय धारक वे ऋषिगण ।
सकल तप साधक ये ऋषिगण ।।
सातिशय-पुन, अन-सुख रशिया ।
मुझे कर देवें शिव पुरिया ।।

(१३)
साँचा श्री गुरु का द्वारा
जय कारा जय जयकारा

जर जनम मरण ।
डर नरक पतन ।
मत हंस नेह विस्तारा ।
जय कारा जय जयकारा

अख-विषय चपल ।
लख जीवन पल ।
वन भेष दिगम्बर धारा ।
जय कारा जय जयकारा

व्रत गुप्त समित ।
श्रुत ज्ञान सुरत ।
रत जप-तप हित क्षय ‘कारा’ ।
जय कारा जय जयकारा

मल पटल कोश ।
तन, विकल दोष ।
गिर कर्म-बन्ध हिल चाला ।
जय कारा जय जयकारा

शिल तप्त भान ।
गिर शिखर आन ।
खड्गासन सूर निहारा ।
जय कारा जय जयकारा

झिर अमृत अखर ।
सन्तोष छतर ।
पुन तन ! सहिष्णु अवतारा ।
जय कारा जय जयकारा

सुर धनु दर्शन ।
झिर घन गर्जन ।
आ तरुतल आसन माड़ा ।
जय कारा जय जयकारा

जल धार बाण ।
अर धैर्य वान ।
नग चरित भीत संसारा ।
जय कारा जय जयकारा

हिम-थर रस्ते ।
पतते पत्ते ।
स्वर साँय-साँय विकराला ।
जय कारा जय जयकारा

कम्बल धीरज ।
निश शिशिर सहज ।
चतुपथ व्यतीत ‘तर’-तारा ।
जय कारा जय जयकारा

त्रय योग वन्त ।
रूख-सुख भदन्त ।
दें धरा, धरा सिर भारा ।
जय कारा जय जयकारा

(१४)
संत्रस्त जन्म जर मरणा ।
दृग् भी’तर गंगा जमना ।।
दुख नरक पतन भयभीता ।
हित मानस तरंग रीता ।।
चल बिजुरी मेघ समाना ।
विष विषय भोग तज नाना ।।
जल बुद-बुद जीवन धारा ।
मुनि जो’वन राह निहारा ।।

व्रत, समिति गुप्ति संयुक्ता ।
स्वाध्याय, ध्यान अनुरक्ता ।।
गत मोह, मोख अभिलाषा ।
साधा निज निलय निवासा ।।

तन मल पटलों की माला ।
गिर कर्म बन्ध हिल चाला ।।
अम्बर, आडम्बर रीते ।
अरि मदन, मोह, मद जीते ।।
शिल तप्त किरण दिनमाना ।
लू लपट घर्म पवमाना ।।
डग डग गिर शिखर निरखते ।
सूरज सन्मुख तप तपते ।।

सन्तोष छत्र सिर छाया ।
जल क्षमा सिंच पुन काया ।।
ज्ञानामृत पान हमेशा ।
क्यों परिषह करें परेशाँ ।।

गल मोर, भ्रमर काजर से ।
‘घन’ घोरे गरजते बरसे ।।
ले इन्द्र धनुष निकला है ।
ढ़ा रही कहर चपला है ।।
ठण्डी चल रहीं हवाएँ ।
लग ताँता खड़ीं बलाएँ ।।
तरु मूल योग तब साधा ।
नवकार मंत्र आराधा ।।

संसार भीत, वनवासी ।
जलधार बाण बरसा सी ।।
अरि परिषह घात प्रवीरा ।
कब चारित ढ़िगें गभीरा ।।

हिम परतें रस्ते रस्ते ।
झर चाले तरु-तरु पत्ते ।।
हा ! सांय-सांय आवाजें ।
डर, सिहरन, भीति नवाजे ।।
पवमान नजर काली है ।
तन यष्टि सूख चाली है ।।
धृति ओढ़ कवरिया कारी ।
थित चतुषथ रात गुजारी ।।

त्रैविध जोगी बड़भागी ।
सुख अविनश्वर अनुरागी ।।
पुन जोड़ तपोधन न्यारे ।
शिव तक बन चलो सहारे ।।

(१५)
नरक पतन भयभीता ।
परिणति हंस विनीता ।।
विष विषयों में पाया ।
लगी न देर भुलाया ।।
जीवन बुद-बुद पानी ।
ठानी सरित् रवानी ।।
दुख जम जन्म बुढ़ापा ।
मुनि रस्ता वन नापा ।।

समिति गुप्त व्रत धारी ।
अध्ययन ध्यान विहारी ।।
मानस सुख अभिलाषा ।
तापस रख दृग् नासा ।।

तन मल पटल निकेता ।
गत-रत ऊरध-रेता ।।
गाँठ कर्म वस ढ़ीली ।
निस्पृह ! आँख पनीली ।।
तप्त शिला तप भाना ।
चढ़ गिर शिखर सुजाना ।।
सन्मुख सूर निवसते ।
घोर तपस्या करते ।।

क्षमा शील पुन काया ।
तरु सन्तोषी छाया ।।
संज्ञानामृत धारा ।
इक सहिष्णु अवतारा ।।

इन्द्रधनुष अभिरामा ।
काग भ्रमर घन श्यामा ।।
गर्जन वज्र कराली ।
मारुत शीतल चाली ।।
झिर मूसल थारा सी ।
तब मुनिगण वनवासी ।।
योग मूल तरु साधें ।
असि आउसा आराधें ।।

झिर बरसा बाणों की ।
धन ! रक्षा रत्नों की ।।
धीरा ! नृसिंह ! प्रवीरा !
अविचल चरित गभीरा ।।

हिम कण रस्ते-रस्ते ।
पत चाले तर पत्ते ।।
सांय-सांय स्वर भारी ।
सूख यष्टि तन चाली ।।
धीरज क़मरी ओढ़ी ।
चौराहे दृग् जोड़ी ।।
रातरि शिशिर गुजारें ।
कर्मों को ललकारें ।।

लगन योग त्रय लागी ।
सुख सन्मुख बड़भागी ।।
धन्य तपोधन सारे ।
मेटें मन अंधियारे ।।

(१६)
धरती के देवता जय
दया, करुणा, क्षमा, निलय

आमय जर जनम मरण ।
दुख दुःसह नरक पतन ।
मति जागृत पानीय पय ।
धरती के देवता जय

जल बुदबुद जीवन पल ।
बिजुरी से विषय चपल ।
जो’वन लीना आश्रय ।
धरती के देवता जय

व्रत समिति गुप्ति संबल ।
स्वाध्याय ध्यान पल पल ।
जप तप हित कर्मन क्षय ।
धरती के देवता जय

मल पटल देह शोभा ।
गत गहल, विगत लोभा ।
दैगम्बर सदय हृदय ।
धरती के देवता जय

शिल तप्त सूर किरणन ।
गिरि शिखर नाप चरणन ।
थित सूर जोड़ दृग् द्वय ।
धरती के देवता जय

संज्ञानामृत क्षण क्षण ।
जल क्षमा सिञ्च पुन तन ।
तर-तोष परिषह विलय ।
धरती के देवता जय

शिखि कण्ठ, भ्रमर काजर ।
सुर धनु गर्जन बादर ।
तरु मूल प्रावृट् समय ।
धरती के देवता जय

शर ताड़ित जल धारा ।
मन अन-तरंग न्यारा ।।
अविचल चरित हिमालय ।
धरती के देवता जय

झिर हिमकण मिश्रित जल ।
स्वर सांय-सांय अविरल ।
मनु मारुत परुष प्रलय ।
धरती के देवता जय

तन ढ़ाक धीर कम्बल ।
चौराह शिशिर निशि पल ।
सहजो व्यतीत निर्भय ।
धरती के देवता जय

इमि योग त्रय अनूठे ।
आशा झिर सुख फूटे ।
वे सन्त भर दें विनय ।
धरती के देवता जय
दया, करुणा, क्षमा, निलय
धरती के देवता जय

(१७)
त्रस्त यम जनम बुढ़ापा रोग ।
हृदय जल-पय विवेक संजोग ।।
नदारत घन बिजुरी पल बाद ।
भोग विष विषय देर कब हाथ ।।
क्षण क्षयी जैसे बुद-बुद नीर ।
जिन्दगानी क्षण क्षयी शरीर ।।
घोर दुख नरक पतन भयभीत ।
जागा ली जो’वन कानन प्रीत ।।

सतत स्वाध्याय ध्यान संलीन ।
पंच व्रत समिति गुप्तियाँ तीन ।।
मोह चकचूर हूर शिव हेत ।
आसमाँ तप बहिरन्तर केत ।।

लिप्त अवलिप्त मल पटल देह ।
शिथिल बन्धन भव निस्संदेह ।।
गत विगत रत नित निरत समाध ।
निष्पृही नगन दिगम्बर साध ।।
शिला संतप्त खर प्रखर शूर ।
लू लपट रूप बनाया क्रूर ।।
गिर शिखर दुपहर दृग् रख पन्थ ।
सूर सन्मुख तप तपें भदन्त ।।

सतत सत् ज्ञानामृत रस पान ।
छत्र संतोष मित्र कल्याण ।।
क्षमा जल सिंचमान पुन-काय ।
न कहते, सहते धन ! मुनिराय ।।

भ्रमर स्याही कज्जल मानिन्द ।
यथा कुछ-कुछ मयूर गल-कण्ठ ।।
इन्द्र ले धनुष हुआ तैयार ।
सघन घन गर्जन हाहाकार ।।
कहर बिजुरी, शीतल पवमान ।
मूसला धारा स्वयं समान ।।
तापसी देख यथा आकाश ।
आन करते तरुमूल निवास ।।

धार जल मानो बरसा तीर ।
नृसिंह ! सहते सहजो धर धीर ।।
शत्रु परिषह जय, माथ गुलाल ।
अविचलित चरित सुमेर पहार ।।

समिश्रित हिम कण जल बरसात ।
पाँत लग झिर तरु पात प्रपात ।।
शब्द हा ! साँय साँय विकराल
वन्य पशु रव रौरवी मिशाल ।।
परुष पवमान शिशिर दिनरात ।
सूख चाला तन लकरी भॉंत ।।
ओढ़ कम्बल धीरज मुनिराज ।
गुजारें निशि चौराह विराज ।।

योग साधा आतापन चूल ।
जोग अभावकाश तरुमूल ।।
आश आनन्द निराकुल छांव ।
सन्त वे ले चालें शिव गाँव ।।

(१८)
दर्शन साधु बलिहारी ।
करुणा दया अवतारी ।।

मरना जनमना आवर्त ।
दुख संत्रस्त नारक गर्त ।।
परिणति श्याह संहारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।

बुद-बुद-नीर जीवन लेख ।
क्षणिक विभूत बिजुरी, मेघ ।।
जो’वन राह दृग्-धारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।

धृत व्रत समित गुप्त विभूत ।
नित स्वाध्याय, डूब अनूठ ।।
तापस इक निरतचारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।

‘गुण’-मण पटल-मल अनुस्यूत ।
बन्धन कर्म शिथली भूत ।।
निर-हंकार ब्रम-चारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।

शिल सन्तप्त उन्मुख सूर ।
चढ़ गिरि शिखर सन्मुख सूर ।।
तप संप्रीत विस्तारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।

तर सन्तोष ‘शोष कषाय’ ।
सिञ्चित क्षमा जल, पुन काय ।।
अमरित ज्ञान आहा’री ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।

कज्जल-भ्रमर कण्ठ-मयूर ।
धन ! धनु-इन्द्र गर्जन भूर ।।
तरु तल योग निशिकारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।

ताड़ित धार जल मनु बाण ।
दुख भवभीत, धीरज वान् ।।
नृसिंह ! सहिष्णु ! अविकारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।

हो स्वर साँय-साँय कराल ।
डग-डग बिछ चला हिम जाल ।।
शोषित यष्टि तन सारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।

चाले ओढ़ कम्बल धीर ।
रातरि शिशिर नग्न शरीर ।।
थित चतुपथ गुजर चाली ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।

इमि त्रय योग धार भदन्त !
जप-तप हेत परमानन्द ।।
दे लिख नाम सरना’री ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।

(१९)
=दोहा=
पुण्य सातिशय मानिये,
दर्शन गुरु महाराज ।
चरणों से लग चालिये,
बनता बिगड़ा काम ।।

हमें नरकों में ना जाना ।
जिन्होंने अबकी यह ठाना ।।
त्रस्त जय, जनम, मरण, ओ ‘री ।
हंस मत प्रीत अमिट जोड़ी ।।

क्षण क्षणी घन बिजुरी जैसे ।
विष विषय-जर रुपये पैसे ।।
ओंस मानिन्द जिन्दगानी ।
चले वन, लिये आँख पानी ।।

समित, व्रत, गुप्ति केत लहरे ।
सतत श्रुत रत, उतरे गहरे ।
निरत जप तप विशुद्धि पाने ।
नाम सिद्धों में लिखवाने ।।

मल पटल आभूषण धारी ।
दिगम्बर निष्पृह अविकारी ।।
कर्म बन्धन गिर हिल चाला ।
विनिर्गत मोह मदिर हाला ।।

शिला संतप्त सूर्य रश्मी ।
लू लपट खो आई नरमी ।।
गिर शिखर पाँव पाँव आते ।
खड़े रवि सन्मुख हो जाते ।।

ज्ञान अमरित धारा फूॅंटी ।
देह तर क्षमा जल अनूठी ।।
छत्र संतोष पुण्य काया ।
नाम सहजो सहिष्णु आया ।।

कण्ठ शिखि से काले काले ।
भ्रमर कज्जल प्रतिछवि वाले ।।
घन सघन गर्जन विकराला ।
वायु शीतल मूसल धारा ।।

ले दिखे इन्द्र धनुष अपना ।
देख तापस ऐसा गगना ।।
तरु तले बैठ चले देखा ।
मेंटने श्याह कर्म लेखा ।।

धार जल मनु बाणन बरसा ।
सहर्षित सहन विघन सहसा ।।
धीर ! पर हेत दृग् भिजोते ।
चरित से विचलित कम होते ।।

बर्फ रस्ते रस्ते छाई ।
पात तरु मनु शामत आई ।।
शब्द हा ! साँय साँय भारी ।
ठण्ड खा शुष्क देह सारी ।।

लगा राखा अंकुश मन पे ।
धीर कम्बल ओढ़ा तन पे ।।
खड़े चौराहे निशि ठण्डी ।।
गुजर चाली धन ! शिव पंथी ।।

योग त्रय धारक बड़भागी ।
‘निराकुल’ सुख इक अनुरागी ।।
हेत सुमरण सु’मरण कीना ।
जाग भी’तर संध्या तीना ।।

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