विषापहार स्तोत्र पद्यानुवाद
*मंगलाचरण*
जयतु जयतु श्री जी अरिहन्त ।
जयतु जयतु श्री सिद्ध अनंत ।।
प्रनुति सूर, उवझाय प्रणाम ।
नूर जैन नभ नुति अविराम ।।
विद समस्त व्यापार निसँग ।
वयस् दीर्घ जर चढ़ा न रंग ।।
सर्वग कैसे ? स्वात्म निवास ।
महिमा आप नाप आकाश ।।१।।
भले कीर्ति गुण अगम गणेश ।
चाहूँ तुम गुण-गान प्रवेश ।।
दीप अंधेरा करे न दूर ?
पहुॅंच न जहॉं किरण इक सूर ।।२।।
पग पीछे लौटाता इन्द ।
मैं साधूॅं तुम श्रुति अनुबन्ध ।।
भाँत झरोखे थोथे ज्ञान ।
अधिक अर्थ का करूँ बखान ।।३।।
विश्व-दृश्व तुम विद् तिहुँ लोक ।
अगम त्रिजग मानस आलोक ।।
कितने ? तुम कैसे ? चुप बोल ।
तव थव असामर्थ्य कृति मोर ।।४।।
आत्म दोष से पीड़ित बाल ।
कृपा वैद्य पा यथा निहाल ।।
हम संसारी जन नीरोग ।
कृत भव पूर्व आप संजोग ।।५।।
देता रहे दिलाशा भान ।
कल की तरह आज अवसान ।।
दे क्या दे ? धन इक आताप ।
पर मंशा पूरण तुम जाप ।।६।।
सुख पाता करके तुम सेव ।
विमुख उठाता दुख स्वयमेव ।।
किन्तु आप दर्पण मानिन्द ।
कब प्रसन्न ? कब रुष्ट जिनन्द ।।७।।
गर्त सिन्ध, तुम हृदय उदार ।
ऊंट मेर गिर आप पहाड़ ।।
लिये सीम पृथुता नभ भूम ।
कहाँ न तुम ? जन-जन मालूम ।।८।।
परिवर्तन तुम अटल विधान ।
पुनरागमन न, जा शिव थान ।।
तज सुख यहाँ, वहॉं सुख चाह ।
किन्तु बड़ा सामंजस वाह ! ।।९।।
किया भस्म बस तुमने काम ।
वशि पीछे भोला बस नाम ।।
जा लेटे हरि शैय्या नाग ।
नासा दृष्टि रखी तुम जाग ।।१०।।
और पाप घर तुम निष्पाप |
इसीलिये बस शगुन न आप ।।
कर निंदा छोटा सा ताल ।
नाहिं प्रशंसा सिन्ध विशाल ।।११।।
कर्म जीव नर्तन गृह नींव ।
कारण भ्रमण कर्म-थिति जीव ।।
नाव लगाती नाविक पार ।
नाविक बिन कब नाव किनार ।।१२।।
सुख हित, दुख कृत करना प्रीत ।
गुन हित, गाना औगुन गीत ।।
धर्म नाम हिंसा के खेल ।
रेल पेलना शिशु हित तेल ।।१३।।
आप अलावा क्या विष मन्त्र ।
आप रसायन, मणी विष हन्त ।।
औषध इक तुम विष अपहार ।
जाने क्यूँ भटके संसार ।।१४।।
कोन चार चित चित्त तरंग ।
चित्त बाह्य जीवन सतरंग ।।
सहज तुम्हें रखते ही चित्त ।
हाथ हाथ सब हाथ विचित्र ।।१५।।
आप त्रिकाल जानते बात ।
आप एक त्रिभुवन के नाथ ।।
हैं पदार्थ लेकर मर्याद ।
महिमा केवल ज्ञान अगाध ।।१६।।
शचपत क्या करता तुम सेव ।
बॉंध पाल भक्तिन् तट खेव ।।
हाथ छत्र हित आदर सूर ।
सिर छैय्या, पगतल न ततूर ।।१७।।
कहाँ आप अपगत रत-द्वेष ।
अरु इच्छा बिन सुख उपदेश ।।
और नाग, नर, सुर प्रिय रम्य ।
गुण कीर्तिन तुम वचन अगम्य ।।१८।।
आप अकिञ्चन ज्यों फलदार ।
धन सम्पन्न न फल दातार ।।
निकलीं पर्वत नदियॉं नेक ।
सिन्ध न जन्मी नदिया एक ।।१९।।
इन्द्र जगत् सेवा प्रण मण्ड ।
लिये इसलिए सविनय दण्ड ।।
प्रेरक एक आप इस काज ।
प्रातिहार्य अष्टक सरताज ।।२०।।
दृग् निर्धन, श्रीमन् दिन रैन ।
तुम सिवाय निर्धन किन नैन ।।
थित तम, थित प्रकाश ले देख ।
थित प्रकाश दृग् कब तम टेक ।।२१।।
वृद्धि, श्वास, लख दृग् टिमकार ।
वंचित स्वानु-भवन नर-नार ।।
तुम अध्यात्म रूप गत द्वन्द ।
कैसे लखें तुम्हें मत-मन्द ।।२२।।
आप पिता, इनके सुत आप ।
कुल प्रकाश यूँ तुम अपलाप ।।
तजना ले हाथों में सोन ।
मान स्वर्ण की पाहन जोन ।।२३।।
विजय नगाड़ा मोह त्रिलोक ।
विनत सु-रासुर देते ढ़ोक ।।
पर, कब छेड़ तुम्हें की भूल ।
भट मुठभेड़ विनाश समूल ।।२४।।
दृग् औरन गति चार दुरन्त ।
देखा तुमने बस शिव पन्थ ।।
देख भुजा न किया गुमान ।
‘के जानूँ मैं तीन जहान ।।२५।।
राहु सूर पीछे दव नीर ।
सिन्धु परेशां प्रलय समीर ।।
साथ वियोग भाव जग भोग ।
अक्षर आप ज्ञान नीरोग ।।२६।।
बिन जाने कर तुम्हें प्रणाम ।
तथा यथा बुध नुत परिणाम ।।
मान हरित मण कॉंच समान ।
कब दरिद्र ? मण माणिक-वान ।।२७।।
दग्ध कषाय देव व्यवहार ।
चतुर मधुर भाषण व्यापार ।।
‘मंगल’ घट फूटा क्या मीत ।
बुझा दीप ‘बढ़ना’ जग-रीत ।।२८।।
अनेकान्त श्रुत गत रत-रोष ।
कहे आप वक्ता निर्दोष ।।
बोल नाम सार्थक संयुक्त ।
कहें, कौन रोगी ज्वर मुक्त ।।२९।।
बिन वाञ्छा तुम प्रणव निनाद ।
सिर्फ नियोग, न दूजी बात ।।
साथ चांदनी निकले इन्द ।
पूर बढ़ चले ‘सहजो’ सिन्ध ।।३०।।
धवल आप गुण परम गभीर ।
तुम गुण-सिन्ध भले यूँ तीर ।।
और किसी विध तुम गुण अन्त ।
देखा गया न हे ! गुणवन्त ।।३१।।
थुति न सिर्फ सरवारथ सिद्ध ।
नुति सपेक्ष, ‘मृति’ भक्ति प्रसिद्ध ।।
सुमरूॅं, भजूँ, नमूॅं सिर टेक ।
साधित साध्य उपाय प्रतेक ।।३२।।
अधपत आप नगर तिहु धाम ।
नित्य ज्योत वन्दन त्रिक-शाम ।।
विगत पाप, कब पुण्य समेत ।
औरन पुण्य सातिशय हेत ।।३३।।
अन्य अगोचर विदित स्वरूप ।
विरहित शब्द, पर्श, रस, रूप ।।
सुमरण अगम यदपि जिनराज ।
तदपि करूँ मैं सुमरण आज ।।३४।।
याचित श्रीमन् यदपि अकिंच ।
गुण गभीर पर-मनस् अचिन्त्य ।।
विश्व पार ! कब जिनका पार ।
शरण चरण वे जिन अविकार ।।३५।।
ढ़ोक त्रिलोक दीक्ष गुरुदेव ।
वर्धमान उन्नत स्वयमेव ।।
पाहन पूर्व न, पर्वत बाद ।
मेर न फिर गिर कुल विख्यात ।।३६।।
बाध्य न बाधक, एक स्वरूप ।
गत गौरव लाघव चिद्रूप ।।
काल कला क्षत अक्षत ज्योत ।
चरणन तुम भेंटूॅं दृग्-मोत ।।३७।।
वर व माँगता बन के दीन ।
क्षीण-राग तुम रोष-विहीन ।।
आप वृक्ष तर छाया लाभ ।
कहो ? यॉंचना से क्या लाभ ? ।।३८।।
यदि आग्रह मॉंगो वरदान ।
लगन चरण तुम करो प्रदान ।।
होगी शीघ्र दया बरसात ।
शिख विनम्र गुरु करुणा पात्र ।।३९।।
साध भक्ति तुम बीस उनीस ।
पूरण मन भावन जगदीश ! ।।
‘सहज-निराकुल’ भक्ति विशेष ।
साथ धनंजय करे स्वदेश ।।४०।।
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