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श्री तत्त्वार्थ सूत्र जी

श्री तत्त्वार्थ सूत्र जी

प्रथमो अध्याय:
सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञाना ।
सम-चरित मोक्ष मारग माना ।।१।।

श्रद्धान अटल तत्त्वार्थ परम ।
सम-दर्शन, शिव-सोपन प्रथम ।।२।।

सम दर्शन हेत निसर्ग एक ।
अधिगम इक और अनर्घ लेख ।।३।।

चेतन, जड़, आस्रव-बन्ध भ्रात ।
संवर, निर्जर, शिव तत्व सात ।।४।।

निक्षेप-थापना, नाम, द्रव्य ।
निक्षेप-भाव, ध्यातव्य भव्य ।।५।।

जुड़ता प्रमाण नय से नाता ।
अधिगम तत्त्वों का हो जाता ।।६।।

निर्देश, स्वामि, साधन, विधान ।
अधि-करणस्-थिति मार्गणा थान ।।७।।

क्षेत्रन्तर, काल, संख्य, पर्शन ।
बहु अल्प भाव सत्-दिग्दर्शन ।।८।।

मति-ज्ञान, ज्ञान-श्रुत, अवधि-ज्ञान ।
मन-पर्यय, केवल-ज्ञान भान ।।९।।

यह सम्यक् ज्ञान विभेद पञ्च ।
जुग-भेद प्रमाण कथित विरञ्च ।।१०।।

थित-आदि, ज्ञान-मति-श्रुत सुजान ।
पहले परोक्ष नामक प्रमाण ।।११।।

अवधी मन-पर्यय सकल-ज्ञान ।
प्रत्यक्ष नाम दूजे प्रमाण ।।१२।।

मति, मृति, संज्ञा, चिंता साँची ।
अभिनिबोध-एकारथ-वाची ।।१३।।

मति-ज्ञान जन्म इन्द्रिय मन से ।
गुरु-मुख ‘निस्सृत’ मुख-भगवन् से ।।१४।।

अव-ग्रह, ईहा, अवाय, धारण ।
मति ज्ञान प्रभेद तरण-तारण ।।१५।।

बहु, बहुविध, अनिसृत, क्षिप्र, उक्त ।
ध्रुव और इतर इनके अनुक्त ।।१६।।

यह बारह मिल कर सभी भेद ।
होते पदार्थ के, कहें वेद ।।१७।।

व्यंजन विख्यात नाम जिसका ।
बस सिर्फ अवग्रह ही उसका ।।१८।।

न ‘अवग्रह-व्यजंन’ मन द्वारा ।
होता न कदापि नयन द्वारा ।।१९।।

श्रुत ज्ञान जन्म मति ज्ञान पूर्व ।
जुग भेद नेक द्वादश अपूर्व ।।२०।।

अधिकारी देव तथा नारक ।
भव प्रत्यय ज्ञान-अवधि नामक ।।२१।।

सविकल्प-षट् क्षयुपशम निमित्त ।
हिस्से तिर्-यञ्च मनुज पवित्र ।।२२।।

ऋजु मति, मन-पर्यय ज्ञान एक ।
मति-विपुल अपर जैना-भिलेख ।।२३।।

इन दोंनो में लायें अन्तर ।
इक विशुद्धि, अप्-प्रति-पात इतर ।।२४।।

वर विशुद्धि, क्षेत्र, विषय, स्वामी ।
अर अवधि, मनः पर्यय नामी ।।२५।।

कुछ ही पर्याय समस्त द्रव्य ।
मतिज्ञान, ज्ञान-श्रुत विषय दिव्य ।।२६।।

अद्भुत अनूप भवि अवधि-ज्ञान ।
जाने पदार्थ बस रूप वान ।।२७।।

सर्वा-वधि विषय अनन्त भाग ।
जानें मन-पर्यय धर-विराग ।।२८।।

जानें युगपत् केवल ज्ञानी ।
पर्याय द्रव्य सब, ’जिनवाणी’ ।।२९।।

युगपत् इक आतम में प्रधान ।
हो सकते इक-लग चार ज्ञान ।।३०।।

मति-ज्ञान-अवधि-श्रुत मिथ्या-भी ।
होते सम्यक् भी, वाँचा-‘भी’ ।।३१।।

गत-हस्त असत्-सत् भंग सात ।
कुग्-ज्ञान ज्ञान उन्मत्त भाँत ।।३२।।

ऋजु सूत्र, शब्द, संग्रह, नैगम ।
व्यवहार, भिरुढ़, भूत-एवम् ।।३३।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
प्रथ-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।१।।

‘द्वितीय अध्याय’
उपशम, क्षय स्व-तत्व जीव राव ।
क्षयु-पशम उदय परिणाम भाव ।।१।।

क्रमश: जुग, नव,’नव-नव’ समेत ।
इक्कीस, ’भाव इन’ तीन भेद ।।२।।

जुग-भाव-औपशम जैन-अखर ।
सम्यक्त्व एक चारित्र अपर ।।३।।

दृग्, चारित ज्ञान-सकल-दर्शन ।
नव भाव क्षायिकन लब्धिन पन ।।४।।

दृग्, चरित मिश्र व्रत लब्धिन पन ।
चउ ज्ञान-अज्ञान तीन दर्शन ।।५।।

औदयिक कषाय लेश्य अविरत ।
दृग्, मिथ्या ज्ञान असिध लिंग गत ।।६।।

भव्यत्व और जीवत्व नाम ।
भवि ! भाव तीन यह पारिणाम ।।७।।

गुरु-देव, देव-पुरु प्रवचन है ।
उपयोग जीव का लक्षण है ।।८।।

उपयोग ज्ञान-इक भेद आठ ।
विध चउ दर्शन औ’ जैन पाठ ।।९।।

संसारी एक मुक्त दूजा ।
जुग भेद जीव ध्वनि जिन गूँजा ।।१०।।

जुग भेद जीव संसारी जन ।
मन सहित दूसरे विरहित मन ।।११।।

थावर संसारी कहलाते ।
त्रस भी संसारी में आते ।।१२।।

भू, वनस्पति, जल, अनिल, अनल ।
थावर यह झलके ज्ञान सकल ।।१३।।

इन्द्रिय दो, तीन, चार, पाँचा ।
त्रस, ‘आगम-जैन’ इन्हें वाँचा ।।१४।।

गर कहो, इन्द्रियाँ कितनी हैं ।
बस पाँच, नहीं अनगिनती हैं ।।१५।।

भो ! भेद इन्द्रियों के कितने ।
सँग बेरी के काँटे जितने ।।१६।।

निर्वृति और उपकरण नाम ।
द्रव्येन्द्रिय भेद-जुगल ललाम ।।१७।।

इक लब्धि नाम उपयोग अवर ।
भावेन्द्रिय भेद कथित जिनवर ।।१८।।

पर्शन इक इन्द्रिय इक रसना ।
इक घ्राण, चक्षु इन्द्रिय श्रवणा ।।१।।

तिन विषय पर्श, रस, गंध, वरण ।
अरु शब्द कथित जिनवर प्रवचन ।।२०।।

विश्रुत ! श्रुत-सुत में आते जो ।
श्रुत, मन का विषय बताते वो ।।२१।।

भू, वनस्पती, जल, अग्नि, पवन ।
थावर इन इन्द्रिय इक पर्शन ।।२२।।

कृमि, पिपीलिका, अलि, मनु-जाये ।
बढ़ती इक-इक इन्द्रिय पाये ।।२३।।

है जीव असंज्ञी मन रीता ।
मन सहित जीव संज्ञी, ’गीता’ ।।२४।।

गति विग्रह कर्म-निमित्त योग ।
तिन कथन वचन जिन सत्य-योग ।।२५।।

अनुसार श्रेणि के होती है ।
गति-विग्रह केवल ज्योति है ।।२६।।

जीवन जिन मनी दिवाली है ।
गति तिन, बिन मोड़े वाली है ।।२७।।

चउ समय पूर्व, मोड़े वाली ।
गति कही जीव-जन संसारी ।।२८।।

इक समय खरचता खाली है ।
ऋजु गति बिन मोड़े वाली है ।।२९।।

रहता गर जीव अनाहारक ।
तो समय इक-‘दु’-या तीन तलक ।।३०।।

सम्मूच्छन इक,वच मात-परम ।
इक गर्भ एक उप-पाद जनम ।।३१।।

चित् शीतल संवृत और इतर ।
सम्मिश्र योनि नव, ’रव-जिनवर’ ।।३२।।

इक गर्भ जरायुज बतलाया ।
अण्डज इक-पोत ‘तोत्र’ गाया ।।३३।।

सुर-नारक जो कहलाते हैं ।
उपपाद जन्म वो पाते हैं ।।३४।।

उपपाद अलावा जन्म गरभ ।
सम्मूर्च्छन जेते जीव सरब ।।३५।।

औदारिक एक वैक्रियिक तन ।
आहारक इक तैजस कार्मण ।।३६।।

तन जो आगे-आगे आते ।
अर और सूक्ष्म होते जाते ।।३७।।

तैजस शरीर तक, तन सारे ।
सुन, गुण असंख्य प्रदेश वाले ।।३८।।

आहारक से तैजस, कार्मण ।
गुण नन्त प्रदेश रखें प्रवचन ।।३९।।

तैजस, कार्मण यह जुगल देह ।
अप्-प्रतिघाती प्रवचन विदेह ।।४०।।

तैजस, कार्मण यह जुगल गात ।
हैं नादि-काल से जीव साथ ।।४१।।

सब के सब ही संसारी जन ।
रखते शरीर तैजस कार्मण ।।४२।।

हो सकते, लग इन देह चार ।
युगपत् जीविक ध्वनि-दिव्य सार ।।४३।।

कार्मण नाम अंतिम शरीर ।
सुनि, निरुपभोग धुनि-मुनि-गभीर ।।४४।।

सम्मूर्च्छन गर्भ जन्म पाते ।
देही औदारिक कहलाते ।।४५।।

शैय्या उपपाद जन्म पाते ।
देही वै-क्रियिक कहे जाते ।।४६।।

वैक्रियिक शरीर अनोखा है ।
सम्भाव्य ऋद्धि भी होता है ।।४७।।

तैजस शरीर भी इसी भाँत ।।
तप-तप-विशेष, है लगे हाथ ।।४८।।

तन आहारक संयत प्रमत्त ।
शुभ अव्-व्याघाती इक विशुद्ध ।।४९।।

सम्मूर्च्छन नारक में आते ।
वे वेद नपुंसक इक पाते ।।५०।।

देवों में वेद नपुंसक ना ।
कहना तिनका जो हिंसक ना ।।५१।।

इन सिवा जीव जे बच जाते ।
वे वेद यथा सम्भव पाते ।।५२।।

सुर नारक, चरमोत्तम देही ।
पूर्णायु असंख्य वर्ष सेवी ।।५३।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
द्विती-यो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।२।।

‘तृतीय अध्याय’
भा रत्न, शर्करा, बालु, पंक ।
तर धूम तमः तम महा बंक ।।
घनु-दधि प्रतिष्ठ घन-तनू-वात ।
स-प्रतिष्ठ स्वयं आकाश बाद ।।१।।

लख तीस, बीस-पन, दश-पन दश ।
बिल तीन, पाँच कम इक, पन-बस ।।२।।

विक्रिया वेदना लेश्या-तन ।
परिणाम अशुभ-तर नारक-जन ।।३।।

हा ! जीव नरक जेते रहते ।
दुख आपस में देते रहते ।।४।।

दुख देते देव असुर-कुमार ।
जा तलक-नरक तीजे कराल ।।५।।

इक, तीन, सात, दश जुग मिल कर ।
वय दुबीस, ’तीस-तीन-सागर’ ।।६।।

जम्बू लग सिन्ध-लवण ललाम ।
सागर असंख्य शुभ द्वीप नाम ।।७।।

आकार-वलय पृथु दुगुण-दुगुण ।
घेरे पुरु द्वीप-समुद्र शगुन ।।८।।

तिन बिच पृथु जोजन इक लाखा ।
जुत नाभि मेरु जम्बू भाखा ।।९।।

इक भरत हैमवत नाम एक ।
हरि इक विदेह धर-नर-विवेक ।।
रम्यक इक हैरण्-यवत भ्रात ।
ऐरावत मिल ये क्षेत्र सात ।।१०।।

विस्तृत समुद्र पूरब पश्चिम ।
ले सिर, इन क्षेत्र विभाग धरम ।।
गिरि हिमवन्, हिमवन्-महा, निषध ।
गिरि नील, रुक्मि, शिखरी पर्वत ।।११।।

सुवरण, अर्जुन, तपनीय स्वर्ण ।
वै-डूर्य, रजत-मय हेम वर्ण ।।१२।।

मणि चित्र-विचित्र पार्श्व गिरवर ।
सम विस्तृत मूल मध्य ऊपर ।।१३।।

‘पद्-मौर’ पद्म तिगिन्छ केसर ।
मह पुण्डरीक-पुण्-डरीक सर ।।१४।।

सर लम्बा इक हजार योजन ।
चौड़ा ‘सौ’ पाँच-बार योजन ॥१५॥

सर, नाम-पद्म जो पहला है ।
भवि ! वह दश योजन गहरा है ॥१६॥

सरवर तिस बीचों बीच अचल ।
इक योजन वाला एक कमल ॥१७॥

सर और कमल अगले-अगले ।
दुगुने लम्बे चौड़े गहरे ॥१८॥

श्री, ही, धृति, लक्ष्मी, कीर्ति, बुद्ध ।
पल्यिक समान परिषद् निबद्ध ।।१९।।

धुनि-गंगा, सिन्धु-नदी, रोहित ।
धुनि-रोहितास्य इक सरित्-हरित ।।
हरि, कान्ता, सीता, सीतोदा ।
नारी,नर-कान्ता जल-स्रोता ।।
धुनि-स्वर्ण-कूल, धुनि-रूप्य-कूल ।
रक्ता, रक्तोदा तोय-मूल ।।२०।।

धुनि-जुगल पूर्व में आतीं जो ।
भवि ! दिशा-पूर्व में जातीं वो ।।२१।।

अवशेष सात धुनि इन चौदा ।
दिश्-पश्चिम बढ़ा रही शोभा ।।२२।।

परिवृत गंगा सिन्ध्वादि-धार ।
परिवार नदी चौदह हजार ।।२३।।

पृथु भरत पाँच-सौ अर छबीस ।
योजन छह भागर-‘भा-गुनीस’ ।।२४।।

गिरि क्षेत्र विदेह तलक आते ।
दुगुने-दुगुने होते जाते ।।२५।।

गिरि क्षेत्र यथा दक्षिण भाषे ।
गिरि क्षेत्र तथा उत्तर भासे ।।२६।।

छह-छह, ’जी उत्सर्पिणी काल ।
छह-छह ही अव-सर्पिणी काल ।।
उनमें भरतै-रावत इन में ।
भवि ! वृद्धि, हास हो छिन छिन में ।।२७।।

इन सिवा भूम जे जे विशाल ।
वे रहें अवस्थित सदा-काल ।।२८।।

है-मवत पल्य हरि वर्ष जुगल ।
कुरु-देव पल्य त्रिक् आयुष बल ।।२९।।

वय कहीं यथा दक्षिण ‘मानौ’ ।
वय रही तथा उत्तर मानो ।।३०।।

जो क्षेत्र विदेह प्रदत्त-हर्ष ।
हो वहाँ आयु संख्यात वर्ष ।।३१।।

इक सौ नब्बे कर जम्बु-भाग ।
इक भाग-भाग बस भरत-जाग ।।३२।।

जो कही द्वीप जम्बू विभूत ।
वो दुगुण खण्ड़-धातकि अकूत ।।३३।।

निधि खण्ड़-धातकी जैसी है ।
भवि ! आधे-पुष्कर वैसी है ।।३४।।

गिरि मानु-षोत्-तरन पहले बस ।
जा सकते धर-शरीर-मानस ।।३५।।

दो भेद मनुज, गिर्-जिन-मुखरित ।
इक आर्य, म्लेच्छ न लव-संस्कृत ।।३६।।

भवि ! विदेह कुरु दे-वुत्तर तज ।
भू-कर्म भरत-ऐरावत रज ।।३७।।

वय तीन पल्य उत्कृष्ट लखन ।
अन्तर्-मुहूर्त वय मनुज जघन ।।३८।।

वय जितनी कही मनुष्यों की ।
वय उतनी रही तिर्यचों की ।।३९।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
तृती-यो(ध्)-ध्यायः नमो नमः ।।३।।

‘चतुर्थ अध्याय’
इक देव भवन-वासी-व्यन्तर ।
ज्योतिष इक वासी-कल्प अमर ।।१।।

आदिन् सुर तीन निकाय मीत ।
होतीं लेश्या पर्यन्त पीत ।।२।।

पन ज्योतिष, दुदश कल्प वासी ।
वसु व्यन्तर, रुदश भवन वासी ।।३।।

दश त्रिदश, इन्द्र इक सामानिक ।
जग-पाल-पारिषद, किल-वीषिक ।।
अभि-योग्य अनी-किक पर-कीर्णक ।
त्रायस-त्रिं-शरु आतम रक्षक ।।४।।

व्यन्तर ज्तोतिष्क निकाय जुगल ।
त्रायस्-त्रिंशरु जग-पाल विकल ।।५।।

पूरब गिनाय जो दो निकाय ।
हैं उनमें दो-दो इन्द्र राय ।।६।।

पर्यन्त स्वर्ग-पुर ऐशाना ।
प्रविचार काय द्वारा माना ।।७।।

होता प्रविचार परस द्वारा ।
फिर रूप शब्द मानस द्वारा ।।८।।

जा सोलह स्वर्गों से ऊपर ।
अप्-प्रवीचार-धर सभी अमर ।।९।।

दश भेद-देव वासी-भवनन ।
भवि ! असुर कुमार, नाग,सुपरण ।।
इक उदधि-कुमार, कुमार-तनित ।
दिक्, द्वीप, वात, अग्निन्, विद्युत ।।१०।।

नामा गन्धर्व, पिशाच त्रिदश ।
इक भूत, यक्ष नामा राक्षस ।।
किम्पुरुष, महोरग अर किन्नर ।
यह आठ प्रभेद देव-व्यन्तर ।।११।।

शशि, सूर्य, नखत, ग्रह, तारा-गण ।
ज्योतिष्क-देव, यह विभेद पन ।।१२।।

नर-लोक देव ज्योतिष तमाम ।
रत मेरु प्रदक्षिण आठ-याम ।।१३।।

गतिमान देव-ज्योतिष द्वारा ।
हो सके विभाग-काल सारा ।।१४।।

बाहिर हैं द्वीप अढ़ाई जे ।
ज्योतिष्क देव संस्थाई वे ।।१५।।

जे जन्म विमानों में पाते ।
वैमानिक देव-कहे जाते ।।१६।।

वैमानिक इक कल्पोप-पन्न ।
वैमानिक कल्पा-तीत अन्य ।।१७।।

ये वैमानिक विमान न्यारे ।
संस्थित ऊपर-ऊपर सारे ।।१८।।

सौधर्म देव ऐशान नाम ।
सानत मा-हेन्द्र विमान नाम ।।
सुर ब्रह्म नाम सुर ब्रह्मोत्-तर ।
नामा लान्तव कापिष्ठ शुकर ।।
सुर महा-शुक्र नामा शतार ।
कल्पोप-पन्न इक सहस्-स्रार ।।
आनत प्राणत आरण अच्युत ।
ग्रै-वेयक नव अनुदिश अद्भुत ।।
सुर विजय वै-जयंतर जयन्त ।
अपराजित सुर सर्वार्थ सिद्ध ।।१९।।

सुख, अवधि-विषय-इन्द्रिय, प्रभाव ।
थिति लिये लेश्य द्युति बढ़त भाव ।।२०।।

सुर ऊपर ऊपर हीन जान ।
गति, देह, परिग्रह’अर गुमान ।।२१।।

जुग स्वर्ग पीत, त्रिक स्वर्ग पद्म ।
लेश्या शुक्ला सुर-शेष-सद्म ।।२२।।

लग स्वर्ग प्रथम, ग्रै-वेय-पूर्व ।
है कल्प-नाम संज्ञा अपूर्व ।।२३।।

नामा जग-ब्रह्म स्वर्ग पंचम ।
सुर लौकान्तिक झूमें परचम ।।२४।।

लौकान्तिक देव प्रकार आठ ।
आदित्य, अरुण इक ‘वह्-नि’ पाठ ।।
इक गर्द तोय, इक सारस्वत ।
इक अरिष्ट, अव्याबाध, तुषित ।।२५।।

विज-यादि विभव भव जे पाते ।
द्वि चरम-शरीरी में आते ।।२६।।

जे नारक नर-सुर अर तमाम ।
संसार जीव तिर्-यञ्च नाम ।।२७।।

वय सागर एक असुर कुमार ।
वय पल्य तीन अहि-सुर कुमार ।।
दो पल्य द्वीप, ढ़ाई सुपरण ।
वय डेढ़-पल्य अवशेष छहन ।।२८।।

उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागर ।
सौधर्म और ऐशान सफर ।।२९।।

माहेन्द्र आयु सानत प्रधान ।
कुछ अधिक सात सागर प्रमाण ।।३०।।

वय ब्रह्मोत्-तर-अर दश सागर ।
जुग-लान्तव वय चौदस सागर ।।
वय शुक्र जुगल-सागर षट्-दश ।
वय जुग-सतार सागर अठ-दश ।।
वय सागर बीस जुगल-आनत ।
सागर बाबीस जुगल-अच्युत ।।३१।।

अर सागर इक-इक वय वैभव ।
कुछ ‘अर’ न मिले ग्रै-वेयक नव ।।
अनुदिश सागर वय और-और ।
बढ़ने विजयादिक और दौड़ ।।
सागर तेतीस जघन वय-अर ।
सर्वार्थ सिद्धि पा रहे अमर ।।३२।।

वय ऐशा-नरु सौधर्म जघन ।
कुछ अधिक पल्य इक जिन प्रवचन ।।३३।।

वय पूर्व-पूर्व उत्कृष्ट-अमर ।
वय जघन स्वर्ग सुर-गण नन्तर ।।३४।।

वय पूर्व-पूर्व उत्कृष्ट नरक ।
वय जघन अनन्तर इष्ट नरक ।।३५।।

हज्जार बरस दश अधिक न कम ।
वय जघन नारकी नरक-प्रथम ।।३६।।

हज्जार बरस दश अधिक न कम ।
वय जघन भ’वन’-वासी आगम ।।३७।।

हज्जार बरस दश अधिक न कम |
वय व्यन्तर जघन जैन-आगम ।।३८।।

उत्कृष्ट आयु व्यन्तर सुर-गण ।
कुछ अधिक पल्य इक जिन प्रवचन ।।३९।।

उत्कृष्ट आयु ज्योतिष सुर-गण ।
कुछ अधिक पल्य इक जिन प्रवचन ।।४०।।

ज्योतिष्क देव गण वय जघन्य ।
‘जिन वचन’ आठवें भाग पल्य ।।४१।।

वय लौकान्तिक उत्कृष्ट जघन ।।
सागर प्रमाण वसु माँ-प्रवचन ।।४२।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
चतुर्-थो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।४।।

‘पंचम अध्याय’
धर्मिक अधर्म अवकाश दाय ।
पुद्-गल यह सभी अजीवकाय ।।१।।

आकाश धर्म पुद्-गल अधर्म ।
यह सभी ‘द्रव्य’ मत जैन धर्म ।।२।।

ध्यातव्य बात यह सदा भव्य ।
है जीव नाम भी एक द्रव्य ।।३।।

यह द्रव्य सभी अद्-भुत अनूप ।
हैं नित्य-अवस्थित, हैं अरूप ।।४।।

इक पुद्-गल नाम द्रव्य इनमें ।
चर्चित वह रूपी ऋषि-गण में ।।५।।

संख्या में एक अधर्म द्रव्य ।
आकाश एक, इक धर्म द्रव्य ।।६।।

ये द्रव्य तीन जे एक-एक ।
निष्-क्रिय वज्रांकित जैन लेख ।।७।।

धर्मरु अधर्म इक जीव ख्यात ।
गणना प्रदेश है असंख्यात ।।८।।

आकाश प्रदेशों की गणना ।
है ‘अनन्त, मत’ संशय करना ।।९।।

पुद्-गल प्रदेश संख्यात, नन्त ।
हैं असंख्यात भी ‘भी’ सुगंध ।।१०।।

जिन जैनागम-संतोप-देश ।
परमाणु न होते हैं प्रदेश ।।११।।

अवगाह द्रव्य धर्मादि नेक ।
बस केवल लोका-काश एक ।।१२।।

खिल लोका-काश अधर्म-धर्म ।
अवगाह नाह-जिन-धर्म मर्म ।।१३।।

लोका-काशेक प्रदेश आद ।
पुद्-गल अवगाह विकल्प साथ ।।१४।।

लोका-काशाद असंख्य भाग ।
अवगाह जीव मत वीतराग ।।१५।।

विस्तार सकोची भाँत दीव ।
अवगाह लोक आकाश जीव ।।१६।।

उपकार धर्म गति में निमित्त ।
संथिति उपकार-अधर्म मित्र ।।१७।।

अद्-भुत महान अवकाश दान ।
उपकार द्रव्य ‘आकाश-वाण’ ।।१८।।

उपकार पुद्-गलों का गाया ।
मन प्राणा-पान वचन काया ।।१९।।

पुद्-गल-पुद्-गल उपकार और ।
सुख-दुख, यम-जीवन, भाग-दौड़ ।।२०।।

भो ! पार एक दूजे लाना ।
उपकार जीव जाना-माना ।।२१।।

परिणाम, क्रिया, वर्तन, परत्व ।
अपरत्व, अनुग्रह काल तत्व ।।२२।।

पुद्-गल अद्-द्वितिय फरस वाले ।
अर गन्ध वर्ण अर रस वाले ।।२३।।

थूलातप, शब्द, बन्ध, सूक्षम ।
उद्योत, छाँव, संस्था-नरु तम ।।२४।।

दिश्-दश सुगंध जिन श्रुतस्-कंध ।
पुद्-गल विभाग जुग अणुस्-कंध ।।२५।।

प्रतिकार-सन्ध संघात-भेद ।
अवतार कन्ध संघात-भेद ।।२६।।

सन्देश मनुज केवल ज्ञाना ।
अणु जन्म भेद केवल माना ।।२७।।

मिल-जुल संघात भेद करणी ।
अवतार कन्ध-चाक्षुष धरणी ।।२८।।

प्रवचन निर्गत रति-रोष श्रमण ।
सत् सुनो ! द्रव्य निर्दोष लखन ।।२९।।

उत्पाद युक्त जो व्यय संयुक्त ।
सत्, सत् है वह, वो धौव्य युक्त ।।३०।।

यह वही, यही जो आभाषा ।
साहित्य नित्य की परिभाषा ।।३१।।

सापेक्ष वस्तु इक मुख्य गौण ।
दो धर्म विरोधी सिद्ध मौन ।।३२।।

चिकनापन अथवा रूखापन ।
प्रवचन-निर्ग्रन्थ, बन्ध कारण ।।३३।।

पुद्-गल जघन्य गुण वाले जो ।
नहिं उनका बन्ध निराले वो ।।३४।।

होने पर गुण पुद्-गल समान ।
नहिं बन्ध सदृश भी गुण विधान ।।३५।।

शकत्यंश कहूँ या गुण न भेद ।
दो अधिक चाहिए बन्ध हेत ।।३६।।

गुण अधिक परिणमा ले समूल ।
गुड़ गीला धूल यथा अमूल ।।३७।।

पर्याय और गुण वाला है ।
अद्भुत है, द्रव्य निराला है ।।३८।।

ध्यातव्य, भव्य हे ! मति मराल ।
इक द्रव्य और भी नाम-काल ।।३९।।

सम-शरण अलौकिक उजियाला ।
वह काल अनंत समय वाला ।।४०।।

जे सदा द्रव्य में रहते हैं ।
निर्गुण वे गुण, जिन कहते हैं ।।४१।।

फिर के तद्भाव बना रहना ।
‘परिणाम’ जिनागम का कहना ।।४२।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
पञ्-चमो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।५।।

‘षष्ठम् अध्याय’
तन-क्रिया, क्रिया-मन, क्रिया-वचन ।
यह योग, सयोग दिया प्रवचन ।।१।।

जिन, भाई जिन्हें दृष्टि-नासा ।
तिन योग वही आस्रव भाषा ।।२।।

शुभ योग पुण्य-आस्रव सयोग ।
कारण पापस्रव अशुभ योग ।।३।।

ईर्यापथ आस्रव गत-कषाय ।
आस्रव कषाय-युत साम्पराय ।।४।।

आस्रव कषाय चउ अव्रत पञ्च ।
इन्द्रिय पन क्रिय पन गुणित पञ्च ।।५।।

वर तीव्र-मन्द अज्ञात भाव ।
अर वीर्य अधिकरण ज्ञात भाव ।।६।।

दूजा अजीव विरला वाना ।
अधिकरण जीव पहला माना ।।७।।

त्रिक् कृतादि सं-रम्भा-दिक त्रिक् ।
रु कषाय ‘योग’ तिय वसु सौ इक ।।८।।

ति निसर्ग योग ‘जुग’ निर-वर्तन ।
निक्षेप चउ अजी-वाधि-करण ।।९।।

उपघात, असादन, मात्सर्य ।
निह्-नव प्रदो-षन्-तराय वर्य ।।
आवरण ज्ञान आस्रव वरने ।
दर्शनावरण आस्रव वरणे ।।१०।।

हा ! वेद्य स्व-पर ‘अर’ परि-देवन ।
दुख, शोक, ताप, वध, आक्रन्दन ।।११।।

कर्मास्रव वेदनीय साता ।
अनुकम्पा भूत व्रती ध्याता ।।
दानादि योग संयम सराग ।
अर क्षान्ति शौच प्रवचन विराग ।।१२।।

आस्रव दृग्-मोह अवर्णवाद ।
श्रुत, देव, केवली, धर्म आद ।।१३।।

चरि-तास्रव मोह उदय कषाय ।
परिणाम तीव्र भव-विभव दाय ।।१४।।

नरकाय-आय आरंभ बहुत ।
‘अर’ हाय-हाय-पन परिग्रह बुत ।।१५।।

सम-शरण दिव्य धुन जिनराया ।
तिर्-यञ्च आयु आस्रव माया ।।१६।।

नर आय आय आरम्भ अलप ।
दुख-दाय ! हाय ! पन परिग्रह जप ।।१७।।

नर काय आय अर अधिकारी ।
आ जन्म-गर्भ मृदुता धारी ।।१८।।

व्रत रहित शील विरहित होना ।
आस्रव आयुष्क सकल ‘जो ना’ ।।१९।।

तप बाल ‘संयमा-संयम’ अर ।
संयम-सराग अकाम-निर्जर ।।२०।।

देवाय आय ‘मत साध’ पाठ ।
सम्यक्त्व और लो बाँध गाँठ ।।२१।।

प्रद आस्रव नाम-अशुभ प्रसाद ।
हा ! योग वक्रता विसंवाद ।।२२।।

‘अवि-संवा-दरु’ सारल्य योग ।
शुभ नाम कर्म आस्रव सयोग ।।२३।।

दर्शन विशुद्धि, सम्पन्न विनय ।
अतिचार शून व्रत शीलद्-द्वय ।।
ज्ञानोप-योग संवेग सतत ।
तप त्याग समाधि सु-वैय्या-वृत ।।
अरिहत, आचार्य भक्ति पाठक ।
पन-अपरि-हार षट् आवश्यक ।।
वत्सल-प्रवचन, प्रवचन-भक्ती ।
आस्रव तीर्थक कीर्तक मुक्ती ।।२४।।

परनिन्द असद्-गुण उद्-भावन ।
निज प्रशंस सद्-गुण उच्छादन ।।२५।।

दूजा गोत्रास्रव उच्च लेख ।
भवि ! वृत्ति नम्र इक अनुत्सेक ।।
निज निन्द असद्-गुण उच्छादन ।
पर-प्रशंस सद्-गुण उद्-भावन ।।२६।।

दानादिक विघ्न-करण शुरु-भी । ।
कर्मास्रव अन्तराय ‘सुर-भी’ ।।२७।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
षष्-ठमो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।६।।

‘सप्तम् अध्याय’
व्रत विरत झूठ, हिंसा, चोरी ।
अब्रह्म विरत माया जोड़ी ।।१।।

उपदेश महा-व्रत सर्व-देश ।
हिंसादि ‘विरत’ अणु एक-देश ।।२।।

व्रत रखने थिर सम्मत विरंच ।
भावन प्रतेक व्रत पंच पंच ।।३।।

दिन भोजन आदाँ निक्षेपण ।
समिती ईर्या गुप्ती वच-मन ।।४।।

कुप्-प्रलोभ-प्रत्या-ख्यान हास ।
भय प्रत्या-ख्या-ननु वीचि भाष ।।५।।

शुचि भो-जन वारण ‘रिता’ वास ।
अवि-संवा-दर मोचिता वास ।।६।।

रस त्याग अंग तिय कथा-राग ।
रत पूर्व ‘भोग’ श्रृंगार त्याग ।।७।।

अमनोज्ञ इन्द्रि-यन विषय भोग ।
परि-त्याग रोष अर रति मनोग ।।८।।

हा ! निन्दनीय हिंसादि पाप ।
प्रद इह-अमुत्र संक्लेश ताप ।।९।।

मन साँझ साँझ भावन गूँजे ।
हिंसादि पाप दुख ही दूजे ।।१०।।

माध्यस्थ और प्रिय जगत् तीन ।
अनुराग गुणी, कारुण्य दीन ।।११।।

संवेग और वैराग्य हेत ।
भाई स्वभाव-जग-तन समेत ।।१२।।

बन प्रमत्त, विहँसा मति-हंसा ।
प्राणों का वध करना हिंसा ।।१३।।

बन प्रमत्त विहँसा हंसा मत ।
कहना असत्य विख्यात अनृत ।।१४।।

विहँसा मति हंसा बन प्रमत्त ।
आदान वस्तु चोरी अदत्त ।।१५।।

बन प्रमत विहँसा हंस बुद्ध ।
मैथुन अब्रह्म जगत् प्रसिद्ध ।।१६।।

विहँसा मति हंसा प्रमत्त बन ।
मूर्च्छा परि-ग्रह चर्चित त्रिभुवन ।।१७।।

विरहित माया मिथ्या निदान ।
निःशल्य व्रती इक त्रिक्-जहान ।।१८।।

अनगार दूसरे व्रत धारी ।
गृह-सन्त अगारी बलिहारी ।।१९।।

अधिकारी मरण बाल पण्डित ।
पन अहिंसादि अणु-व्रत मण्डित ।।२०।।

उपभोग भोग परिमाण विरत ।
संविभाग अतिथि महान विरत ।।२१।।

गुरु परम प्रीति पूर्वक सुमरण ।
वर स्वयं प्रीति पूर्वक सु-मरण ।।२२।।

थव-दृष्टि-औ प्रशंसा शंका ।
विचिकित्सा दृगति-चार कांक्षा ।।२३।।

व्रत शील पंच पंचाति-चार ।
क्रम-बार भव्य ! अथ इस प्रकार ।।२४।।

वध, बन्धन, अति-भारा-रोपण ।
छेदन, निरोध-पानी-भोजन ।।२५।।

साकार मंत्र ‘भेदन’ प्रहास ।
वच ‘कूट’ लेख अपहार न्यास ।।२६।।

चोरी प्रयोग क्रय माल लूट ।
हा ! हाट-बाँट नृप-नियम-टूट ।।२७।।

कामातिरेक रत पर-विवाह ।
अर गणिका ‘गमन’ अनंग ग्राह ।।२८।।

घर, खेत, रूप्य, धन, स्वर्ण, धान ।
दासौर कुप्य अतिक्रम प्रमाण ।।२९।।

अध तिर्-यग् व्यति-क्रम ऊर्ध्व ओर ।
अर क्षेत्र वृद्धि विस्मरण-छोर ।।३०।।

आ-‘नयन’-प्रेष्य शब्दानु-पात ।
पुद्-गल क्षेपण रूपानु-पात ।।३१।।

कन्दर्प, मुखर-ता कौत्-कुच्य ।
अस-मीक्ष्य ‘भोग-अर’ अनर्थक्य ।।३२।।

मन-काय-वान दुष्-प्रणि-धान ।
अवधान-हान व्रत मान-हान ।।३३।।

उत्सर्ग शैन बिन-देख शोध ।
आदान, अनादर, लोप-बोध ।।३४।।

आहार सचित् अभि-षवाहार ।
संबंध दुपक मिश्रिता-हार ।।३५।।

निक्षेप सचित् अपि-धान और ।
मात्सर्य, विस्मरण दान और ।।३६।।

आशंस मरण-जीवन निदान ।
अनुराग मित्र सुख-पूर्व ध्यान ।।३७।।

भावन उपकार-स्वपर पवित्र ।
परि-त्याग वस्तु निज दान मित्र ।।३८।।

विधि, द्रव्य, पात्र, दाता विशेष ।
वरदान दान संशय न लेश ।।३९।।
इति मोक्षशास्त्रे
सप्त-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।७।।

‘अष्टम अध्याय’
मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद ।
बन्धन कषाय अर योग-जात ॥१॥

कर कर्म योग पुद्-गल अपने ।
सकषाय जीव लगता बँधने ।।२।।

प्रकृती, संस्थिति, अनुभव, प्रदेश ।
ये भेद-बन्ध प्रवचन जिनेश ॥३॥

आवरण ज्ञान दृग् नाम आय ।
वेदन-मोहन गोत्रन्-तराय ।।४।।

क्रमशः पन नव ब्यालीस चार ।
जुग ‘आठ-बीस’ जुग पन प्रकार ।।५।।

मति-ज्ञान, ज्ञान-श्रुत, अवधि-ज्ञान ।
मन-पर्यय, केवल-ज्ञान-भान ॥६॥

निद्रादि पंच चक्षुस्-दर्शन ।
केवल अवधि अचक्षुस्-द्शन ।।७।।

है पहली साता वेदनीय ।
अर प्रकृति असाता वेदनीय ॥८॥

दो चरित्र ‘मोह’ दर्शन तीनों ।
सोलह कषाय-नौ नौ गीनो ।।९।।

तिर्-यञ्चा-यिक नरकाय एक ।
इक आय देव नर आय एक ॥१०॥

संस्थान नाम संघात जात ।
निर्माण अगुरुलघु वर्ण गात ।।
गति आनुपूर्वी ‘सं-हनन’ फरस ।
उद्यो-तातप पर-घातर रस ॥
तीर्थंकर अंगो-पांग गन्ध ।
गति विहायसी ‘उच्-छ-वास’ बन्ध ॥
त्रस तन प्रत्येक सुभग सुस्वर ।
थावर तनौर दुर्भग दुस्वर ॥
शुभ, अपर्याप्त, बादर, अस्थिर ।
पर्याप्त, अशुभ, सूक्षम, संस्थिर ।।
आदेय और इक यशः कीर्त ।
इक अनादेय अपयशः कीर्त ॥११॥

जो गोत्र कर्म वसु रहा बीच ।
इक उच्च दूसरा कहा नीच ॥१२॥

इक दान लाभ भोगान्-तराय ।
अर वीरज उप भोगान्-तराय ॥१३॥

वेद्यन्-तराय ज्ञाना-वरणर ।
थिति कोटा-कोटि तीस सागर ॥१४॥

उत्कृष्ट मोह थिति श्रुत-सुबोध ।
श्रुति सागर सत्तर कोटि-कोट ॥१५॥

थिति नाम गोत्र वर धुनि शिरीष ।
भवि सागर कोटा कोट बीस ॥१६॥

संस्थिति उत्कृष्ट आयु कर्मन ।
तैतीस साग-रोपम वर्णन ॥१७॥

बारह मुहूर्त भाई भागिनी ।
थिति जघन कर्म वेदन वरणी ।।१८।।

थिति मान्य जघन्य मुहूर्त आठ ।
द्वय नाम गोत्र धुनि-दिव्य पाठ ।।१९।।

थिति जघन कर्म अव-शेष पाँच ।
अन्तर्-मुहूर्त क्या ? साँच आँच ।।२०।।

फल दान शक्ति का पड़ जाना ।
अनुभवियों ने अनुभव माना ।।२१।।

सुप्रसिद्ध नाम जिसका जैसा ।
फल वैसा, फेर-बदल कैसा ।।२२।।

वे अपना-अपना देके फल ।
स्वयमेव कर्म सब देते चल ।।२३।।

थित सूक्ष्म योग अणु नन्त-नन्त ।
क्षेत्राव-गाह-इक आत्म बन्ध ।।२४।।

सद्-वेद्य आयु शुभ गोत्र नाम ।
ये प्रकृति पुण्य संज्ञक तमाम ।।२५।।

अवशेष प्रकृति इनके सिवाय ।
सब पाप रूप फल दुख-प्रदाय ।।२६।।
इति मोक्षशास्त्रे
अष्ट-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।८।।

‘नवम् अध्याय’
जन जन ने माना निर्विरोध ।
‘संवर संज्ञक’, आस्रव-निरोध ।।१।।

वह गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्ष रूप ।
परिषह जय, धर्म चरित अनूप ।।२।।

होती न अकेली निर्जर ही ।
‘तप से’, होता है संवर भी ।।३।।

निग्रह योगों का भली भाँत ।
वह गुप्ति, किसे यह खली बात ।।४।।

उत्सर्-गिक आदाँ-निक्षेपण ।
इक समिति भाष, ईया, ऐषण ।।५।।

मृदु, क्षमा, शौच, ऋजु, सत्, संयम ।
तप, त्याग, अकिंचन, ब्रह्म धरम ।।६।।

अनुपेक्ष अनित्य, अशुचि, निर्जर ।
संसार, लोक, आस्रव, संवर ।।
एकत्व, बोधि, दुर्लभ, अशरण ।
अन्यत्व, धर्म स्वाख्यात अहन ।।७।।

अच्यवन मार्ग संवर शिवार्थ ।
वे सह्य परी-षह निर्जरार्थ ।।८।।

शीतोष्ण, क्षुध्, पिपासा, चर्या ।
नग्नत्व, वध, निषद्या, शय्या ।।
आक्रोश, रोग, मल, तृणस्-पर्श ।
अज्ञान, अरति, प्रज्ञा, अदर्श ।।
सत्कार-समाहित-पुरस्कार ।
दंशक, याँचना, अलाभ, नार ।।९।।

छद्मस्थ-अरति लव साम्पराय ।
दश-चार परी-षह श्रुत गिनाय ।।१०।।

जिन सन्त जैन आगम धारा ।
अरिहन्त जिन परीषह ग्यारा ।।११।।

तर बादर साम्पराय खीसा ।
सम्पूर्ण परी-षह बाबीसा ।।१२।।

प्रज्ञा परिषह अज्ञान जनम ।
सद्-भाव आवरण ज्ञान करम ।।१३।।

परिषह अदर्श दृग्-मोह जाय ।
परिषह अलाभ लाभान्-तराय ।।१४।।

आक्रोश, निषधा, अरति, नार ।
सत्कार-समाहित-पुरस्कार ।।
नग्नत्व और परिषह, याँचा ।
सद्-भाव मोह चारित वाँचा ।।१५।।

अवशेष परी-षह जो नाना ।
सद्-भाव वेद्य ताना-बाना ।।१६।।

सविकल्प एक से ले उनीस ।
सम्भव युगपत् परिषह मुनीश ।।१७।।

परि-हार ‘विशुद्ध’ छेद समता ।
थाख्यात चरित्र, सूक्ष्म ममता ।।१८।।

तन-क्लेश, त्याग-रस, उदर-ऊन ।
परि-संख्य-वृत्ति, उपवास ‘शून’ ।।१९।।

स्वाध्याय, विनय, तप, प्रायश्चित ।
व्युत्सर्ग, ध्यान, तप, वैय्यावृत ॥२०।।

क्रम-बार ‘ध्यान-अर’ पाँच, चार ।
नो, दो, दश तप ‘भी’तर प्रकार ।।२१।।

तप, छेद, प्रति-क्रमण, आलोचन ।
तदुभय, विवेक इक उप-थापन ।।
व्युत्सर्ग और इक परी-हार ।
हैं प्रायश्चित यह नव प्रकार ।।२२।।

चौ विनय ज्ञान, आचार, विनय ।
इक दर्शन अर उपचार विनय ।।२३।।

बुध, सूर, शैक्ष्य, गण, क्लान्त-रोग ।
कुल, साधु, संघ, तापस-मनोज्ञ ।।२४।।

वाचन, स्वाध्याय, धर्म-देशन ।
आम्नाय, पृच्छना, अनु-पेक्षण ।।२५।।

व्युत्सर्ग उपधि इक बाह्य त्याग ।
अभ्यन्तर त्याग उपधि सजाग ।।२६।।

थिर ध्यान वृत्ति, चित् विषय एक ।
अन्तर्-मुहूर्त ‘सं-हनन’ नेक ।।२७।।

इक आर्त रौद्र इक शुक्ल ध्यान ।
औ’ धर्म ध्यान चौ सकल ध्यान ।।२८।।

धर्मौर शुक्ल ये ध्यान द्वेत ।
धुनि दिव्य भव्य ! निर्माण हेत ।।२९।।

अमनोग वियोग योग लाना ।
यह ध्यान आर्त पहला माना ।।३०।।

सुमनोग वियोग योग लाना ।
यह ध्यान आर्त दूजा माना ।।३१।।

चिन्ता पीड़ा घुलते जाना ।
यह ध्यान आर्त तीजा माना ।।३२।।

भाना कल विषय-भोग गाना ।
यह ध्यान आर्त चौथा माना ।।३३।।

सद्-भाव ध्यान आरत अविरत ।
संयत-प्रमत्त अर देश-विरत ।।३४।।

चोरी असत् तिजोरी हिंसा ।
ध्याँ रौद्र पाप देशिक ध्वंसा ।।३५।।

आज्ञा अपाय संस्थान विचय ।
ध्याँ धर्म कर्म-फल-दान विचय ।।३६।।

सवितर्क पृथक-इक शुक्ल ध्यान ।
भर्तार ‘पूर्व’ विद् सकल-ज्ञान ।।३७।।

क्रिय पात सूक्ष्म क्रिय शुकल ध्यान ।
भर्ता अपूर्व विद् सकल ज्ञान ।।३८।।

क्रिय सूक्ष्म पात सवितर्क पृथक् ।
क्रिय पूर्ण घात सह वितर्क यक ।।३९।।

तिय योग पृथक् ‘अर’ एक योग ।
क्रिय काय योग अक्रिय अयोग ।।४०।।

संज्ञा पृथकत्व एकत्व धार ।
सवितर्क इकाश्रय सवी-चार ।।४१।।

पर हाँ…रहना थोड़े सतर्क ।
ध्याँ अवी-चार भाविक वितर्क ।।४२।।

गत ‘तर्क-वितर्क’ वितर्क अर्थ ।
श्रुत सर्व मान्य निर्बल-समर्थ ।।४३।।

संक्रान्ति अर्थ व्यंजन योगन ।
वीचार मान्य बिन आलोचन।।४४।।

सम-दृष्टि निर्जरा गुण असंख्य ।
श्रावक विरत वियोजक अनंत ।।
दृग् क्षपक, उप-शमक मोह शान्त ।
अर क्षपक मोह-बिन जिन प्रशान्त ।।४५।।

‘निर्ग्रन्थ’ पुलाक, वकुश, कुशील ।
निर्ग्रन्थ, सनातक अगम-लील ।।४६।।

संयम श्रुत प्रति-सेवना तीर्थ ।
उप-पाद लेश्य लिंग ‘थान कीर्त’ ।।४७।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
नव-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।९।।

‘दशम् अध्याय’
क्षय मोह दर्श आवर्ण ज्ञान ।
क्षय अन्तराय जय पूर्ण ज्ञान ॥ १ ॥

बल निर्जर क्षय कर्मन तमाम ।
जय बन्ध हेत, बस मोक्ष धाम ॥२॥

अर भाव ‘उप-शमा-दिक’ अभाव ।
‘मुक्ती’ अभाव भव्यत्व भाव ॥३॥

सिद्धत्व सिद्ध केवल दर्शन ।
सम्यक्त्व ज्ञान केवल पर्शन ॥४॥

जैसे ही जीव मुक्ति पाता ।
ऊपर लोकान्त तलक जाता ॥५॥

पूरब-प्रयोग, संगिक-अभाव ।
दो-टूक-बंध, कारण स्वभाव ॥६॥

कुम्हार-चक्र, तुम्बी-सजात ।
एरण्ड-बीज, शिख-अग्नि भाँत ॥७॥

धर्मास्तिकाय आगम प्रसिद्ध ।
बस गमन वही तक स्वयं सिद्ध ॥८॥

गति, क्षेत्र, काल, प्रत्येक-बुद्ध ।
लिंग, तीर्थ चरित, बोधित-प्रबुद्ध ॥
अवगाहन, अल्प-बहुत्व ज्ञान ।
संख्या, अन्तर ‘दश-तीन ठान’ ॥९॥
इति मोक्ष-शास्त्रे
दश-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।१०।।
॥ इति तत्त्वार्थ-सूत्रम् ।।

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