“हाईकू”
मैंटे निधत्ति निकाचित भी पाप,
दर्शन आप ।।१।।
रहने लगे मन जो तुम मेरे,
गुम अंधेरे ।।२।।
आप स्तवन,
निकाले रोग-नाग वल्मीक-तन ।।३।।
गर्भ-पल भू कञ्चन,
पधराया मैंने भी मन ।।४।।
अहेत हितु,
आप हृदय,
और पाप न हो छू ।।५।।
वापिका नय कथा आप,
विनाशे व्यथा संताप ।।६।।
कमल…
रक्खे, ‘कि चरण… कंचन
पधारो मन ।।७।।
चुभें तो कैसे कॉंटे रोग,
तू मुझे लिये जो गोद ।।८।।
आप-असर,
हरे मान,
हो मान-स्तंभ पत्थर ।।९।।
आपको छूती हवा भी,
मैंटे छूते ही रोग सभी ।।१०।।
आया भटक,
आप निकट आज
राखिजो लाज ।।११।।
कल्याण श्वान सुन,
जप तो नाम आप शगुन ।।१२।।
कुंचिका आप भक्ति लगाई,
मुक्ति उसने पाई ।।१३।।
थामा ‘कि दीया आप संज्ञान,
मुक्ति मार्ग आसान ।।१४।।
कुदाल आप स्वतन,
भेंटे छुपा स्वानुभव धन ।।१५।।
गंगा स्याद्वाद,
साधी नहीं ‘कि डूब,
विमुक्ति हाथ ।।१६।।
आप प्रसाद,
‘ध्या सोऽहं लगे हाथ गति परम ।।१७।।
मन्थन आप-सिन्धु-वचन,
भेंटे अमृत-कण ।।१८।।
गत अम्बर, आडम्बर,
तुम्हीं सत् शिव सुन्दर ।।१९।।
मुख तलक भरे प्रशंसा जेब
आपकी सेव ।।२०।।
जगेक मंशा पूरण,
भक्ति-सुधा पगे वचन ।।२१।।
सन्निधि वैर-हारी आपकी,
बलिहारी आपकी ।।२२।।
जोड़े अपने वतन से,
की स्तुति आप मन से ।।२३।।
तव संस्तव,
भिंटाये कल्याणक पञ्च विभव ।।२४।।
थुति बहाने,
किया आ’दर आप-सा बन जाने ।।२५।।
कल्याण मन्दिर स्तोत्र
कल्याण,
कल…यान
कोई तो रिश्ता भक्त भगवान् ।।१।।
गाऊँ जो तुम-गुण,
मैं होता कौन,
द्यु-गुरु मौन ।।२।।
शिशु उलूक समान,
मेरा आप सूर्य बखान ।।३।।
आप गुण,
गा
‘सकता कौन’
गिन
सन्धु रतन ।।४।।
फैला के बाहु,
सिन्धु-कथन
‘मेरा’
थवन-तेरा ।।५।।
सोच कमर बाँधी,
‘निज वाणी से बोलें ही पाँखी ।।६।।
आप नाम ‘भी’ ग्रीष्म-सर अनिल-सा,
करे हल्का ।।७।।
आप ‘मोर’ जो ‘जी चन्दन,
ढ़ीले ‘कि सर्प बन्धन ।।८।।
चोर,
गो छोड़,
पा ग्वाला भागे,
पाप त्यों आप आगे ।।९।।
मसक
हवा…ले,
‘तैरे’ जग तुम्हें हृदय रख ।।१०।।
काम न पाया तुम्हें छल,
बड़वा ने पिया जल ।।११।।
‘गुरु’ आ जिया कैसे,
तिराते सिन्धु-भो लघुता से ।।१२।।
सौम्य आपने कर्म अरी,
दहे,
ज्यों तुषार हरी ।।१३।।
बीज
कमल कर्णिका और कीमें,
आप भी ‘जी’ में ।।१४।।
सुवर्ण जल,
भाव उपल,
आप सद्-ध्यान अनल ।।१५।।
करें छू
साधू
निस्सन्देह,
विग्रह’ यानी ‘कि देह ।।१६।।
बिष उतारे,
पानी अमृत कहा
सोऽहं उत्तारे ।।१७।।
रोगी पीलिया जगत्
तुम्हें ही माने और भगवत् ।।१८।।
पा तुम्हें वृक्ष भी अ…शोक,
न किस का सूर्यालोक ।।१९।।
बर्षा डण्ठल
‘नीचे’
सुमन
आप पाप बन्धन ।।२०।।
अजरामर प्राणी,
कल्याणी आप अमृत वाणी ।।२१।।
कहे चॅंवर,
नीचे जाते ऊपर
आ नवा सर ।।२२।।
सिंहासनस्थ श्यामल तन,
मेरु मेघ नूतन ।।२३।।
हुआ नीराग अशोक,
पा मण्डल…भा श्याम,
ढ़ोक ।।२४।।
भेरी बाजे,
‘कि इधर विहर-भौ-फेरी विराजे ।।२५।।
छतर
मानो अनुचर चन्दर
त्रि-रूप धर ।।२६।।
कोट माणिक्य,
स्वर्गौर मिष,
कान्ति प्रताप यश ।।२७।।
तजें मुकुट-माला
‘सुमन’
भजें आप चरण ।।२८।।
घट कुम्हार,
आप पीछे लागे
‘कि सिन्धु-भौ पार ।।२९।।
आप अखर,
लिखने के काम न आते मगर ।।३०।।
कमठ धूल उड़ाई,
जा उसी से चिपकी स्थाई ।।३१।।
वर्षा नीर,
‘कि…लो दूर
कमठ वो, भौ-जल तीर ।।३२।।
भेजे पिशाच,
अब तक कमठ को भेजें आँच ।।३३।।
दिखते जिन्हें सिर्फ आप,
देखते न उन्हें पाप ।।३४।।
मन्त्र नाम जो आप न सुना,
विपद् ना…गिन चुना ।।३५।।
पूजे न आप चरण,
बना अब-तब सदन ।।३६।।
किये न कभी तुम दर्शन,
कहे ताताँ विघन ।।३७।।
भक्ति तो की,
पै भाव शून,
पाऊॅं तो कैसे सुकून ।।३८।।
वीनति,
छुये इति,
तीन दुक्ख बीज संतति ।।३९।।
पा के भी तुम्हें,
न ध्या पाया,
भौ ‘मानो’ वृथा गमाया ।।४०।।
त्राहि माम्,
डूबूॅं जल-जन्म
बचाओ आ मेरे राम ।४१।।
करो ‘कि ऐसा,
पाऊँ तुम्हें अपना स्वामी हमेशा ।।४२।।
विधिवत् रचा,
तव संस्तव भेंटे आप-विभव ।।४३।।
यह कल्याण मन्दिर स्तोत,
पार भौ-सिन्धु पोत ।।४४।।
महा-वीराष्टक स्तोत्र
ज्ञान झलकें,
चेतन-अचेतन यथा दर्पण ।
समान भान,
तत्पर प्रकटन, मार्ग कल्याण ।
वे महावीर स्वामी,
हों मेरे पथ नयन गामी ।।१।।
निस्पन्द, प्रदा-नन्द कहें नेत्र दो
गया क्रोध खो ।
मुद्रा प्रशान्त,
विशुद्ध आद्योपान्त मूर्ति निरखो ।
वे महावीर स्वामी,
हों मेरे पथ नयन गामी ।।२।।
पाते शतेन्द्र मुकुट स्पर्श रोज,
पद-पयोज ।
बनता वैसे,
करें प्रशान्त, ज्वाला-भौ पानी जैसे ।
वे महावीर स्वामी,
हों मेरे पथ नयन गामी ।।३।।
मेंढ़क-मुख-पाँखुरी,
पाया पल में पुरी-पुरी ।
क्या अचरज,
पा जाते जिन्हें भज पुरी-दूसरी ।
वे महावीर स्वामी,
हों मेरे पथ नयन गामी ।।४।।
स्वर्ण समान,
शरीरी ज्ञान, एक वैसे अनेक ।
त्रिशला माँ,
पै अजन्मा श्री मान्, स्थान वैराग्य एक ।
वे महावीर स्वामी,
हों मेरे पथ नयन गामी ।।५।।
ज्ञान जिसमें जल,
नय तरंग नेक उज्ज्वल ।
गंगा वो वाणी,
हंस, अहिंसा वंश, एक कल्याणी ।
वे महावीर स्वामी,
हों मेरे पथ नयन गामी ।।६।।
आनन्द तीता,
शिव पाने वैभव बन विनीता ।
वय कुमार,
दुर्निवार सुभट मन्मथ जीता ।
वे महावीर स्वामी,
हों मेरे पथ नयन गामी ।।७।।
बन्धु निष्काम,
विहर मोह गद वैद्य निर्दाम ।
शगुन नाम,
सम शरण शाम, कल्याण धाम
वे महावीर स्वामी,
हों मेरे पथ नयन गामी ।।८।।
स्तोत्र महा-वीराष्टक,
पठाये मोक्ष-तलक ।
गोम्मटेश-स्तुति
नेत्र सुन्दर,
फुल्ल-दल कमल नील अपर ।
मुख चन्दर,
नासिका शोभा पुष्प-चम्पक-हर ।
वे गोम्मटेश, तिनके नाम,
कोटि, मेरे प्रणाम ।।१।।
स्वच्छ अम्बर,
कर्ण सुन्दर, दोल तलक कंध ।
कपोल जल-कान्त,
अडोल बाहु सुण्ड-गजेन्द ।
वे गोम्मटेश, तिनके नाम,
कोटि, मेरे प्रणाम ।।२।।
जेय-भा-शंख,
अनुपमेय मन हरण कण्ठ ।
सुदृश्य मध्य उन्नत,
हिमालयी विशाल कंध ।
वे गोम्मटेश, तिनके नाम,
कोटि, मेरे प्रणाम ।।३।।
चैत्य समस्त प्रधान,
पूर्ण चन्द, प्रद आनन्द ।
शोभायमान,
शिखर गिरि विन्ध्य सोने सुगंध ।
वे गोम्मटेश, तिनके नाम,
कोटि, मेरे प्रणाम ।।४।।
नर, अमर, उरंग प्रतिपाल,
वन्द्य त्रिकाल ।
मानो काम-गो,
पता माधवी लता, तन विशाल ।।
वे गोम्मटेश, तिनके नाम,
कोटि, मेरे प्रणाम ।।५।।
सत् दिगम्बर,
रहित आडम्बर, एक निडर ।
निष्कंप, सर्प आदि स्पर्श,
आदर्श, विशुद्ध तर ।
वे गोम्मटेश, तिनके नाम,
कोटि, मेरे प्रणाम ।।६।।
हर समूल, दोष मूल,
निष्काम, वैराग धाम ।
एक जिनेश,
निःशल्य भरतेश, दृगाभिराम ।
वे गोम्मटेश, तिनके नाम,
कोटि, मेरे प्रणाम ।।७।।
रहित अन्तर् बाहिर ग्रन्थ,
मद मोह निहन्त ।
उपास-वन्त,
वर्ष पर्यन्त, शम यम बसन्त ।
वे गोम्मटेश, तिनके नाम,
कोटि, मेरे प्रणाम ।।८।।
रत्नाकर पंच-विंशतिका
भगवान् !
मेरा सिवाय आप कौन कोन जहान ।।१।।
अन्तर्यामी जो आप,
न छुपा रहा आपसे पाप ।।२।।
ला…ला
आगे माँ खोले राज
देता मैं भी बोले आज ।।३।।
भगवान् ! किया न ध्यान,
मैं नादान, दिया न दान ।
न तपा तप
नृ-भौ कल्प-पादप, न जपा जप ।।
न शील पाला,
न शुभ-ओर चाला, मन का काला ।।४।।
गया जलाया, अग्नि क्रोध से
जाल माया फँसाया ।
गया डसा, मैं साँप लोभ से,
ग्राह मान से ग्रसा ।।५।।
लोक हित न किया,
हाथ लगे, तो क्यूँ सुख ‘जिया’ ।
मानव मूर्ति मैं लिये,
बस भव पूर्ति के लिये ।।६।।
पाहन-मेरा मन,
झिर अमृत आप-आनन ।।७।।
धृत चारित,
धो बैठा हाथ वशी निन्द्रा, प्रमाद ।।८।।
और ठगने के लिये
हा ! बसाया वैराग्य हिये ।
जन, रञ्जन के लिये,
उपदेश हा ! खूब दिये ।।
वाद विवाद के लिये,
हा ! प्रयास विद्या के किये ।
कहूँ कितना
हँसी कराने वाला कृत्य अपना ।।९।।
करके और निन्दा,
किया अपने मुख को गंदा ।
देख पराईं नारीं-जन,
गन्दले किये नयन ।।
और दे दुख, जो चिन्त्वन,
वो किया गन्दला मन ।।१०।।
हा ! विषयान्ध बन,
मैंने आप को ठगा भगवन् !
क्या छुपा रहा आप-से,
सलज्ज वो कहा आपसे ।।११।।
किये मन्त्रौर गल-हार
भुलाया मन्त्र नौ-कार ।
किये ग्रन्थौर गल-हार,
भुलाया ग्रन्थ भौ-पार ।।
हो कर्मोदय ‘कि विथा,
‘आप और’ सुनाई व्यथा ।।१२।।
समक्ष तुम, न रख तुम्हें आँख,
की ताँक-झाँक ।।१३।।
दाग-स्त्री राग,
जल-शास्त्र भी, मनु रहा न भाग ।।१४।।
कला न कोई गुण-और,
शामिल पै अहम्-दौड़ ।।१५।।
आयु जा रही गली,
फूटती नव-पाप-धी कली ।
उम्र खोने को,
आश विषय और जबॉं होने को ।।
करूँ औषधि खोज,
छोड़ मैं आप पद पयोज ।।१६।।
आप भानू
हा ! आश-प्रकाश ताँका मुँह जुगनू ।।१७।।
भव मानव खोया,
रोया विपिन सुकृत बिन ।
न बन दया-पन्थ राही,
श्री-तरु, काम-गो चाही ।।
आती… न ताँकी ज्वाला रोग,
हा ! चाखी हाला-संभोग ।।१८।।
विचारा… आना ‘कि धन,
न विचारा आना निधन ।।१९।।
छुऊँ ‘कि सुमन
छुआ कहाँ सदाचरण ।
तीथोद्धार, न हुआ परोपकार,
हा ! मैं भू भार ।।२०।।
खूब करके भी सत्सङ्ग,
न चढ़ा वैराग्य रङ्ग ।
कड़वे-कड़े वचन में,
न राखी शान्ति मन में ।।२१।।
न लेश ज्ञान अध्यात्म,
पाऊँ पद क्यूँ परमात्म ।।२२।।
विसार स्वामी वर्धमाँ,
भार भूत-भावी वर्तमाँ ।।२३।।
क्या व्यथा खोलूँ मुष्टिका,
ज्ञान आप
क्या न झलका ।।२४।।
जैसा भी
साधो, माटी-माधौ
तेरा ही
कीजो सुराही ।।२५।।
इष्टोपदेश
कर्म माटी क्या गली,
तूमड़ी तैरी,
जय हो तेरी ।।१।।
अन्ध पाषाण सोना,
‘सिद्ध’
त्यों जीव भगवान् होना ।।२।।
बटोही काफी फरक,
स्वर्ग छाँव…
धूप नरक ।।३।।
मोक्ष जो हमें
‘भेजें’
भाव वो स्वर्ग चुटकिंयों में ।।४।।
भोगें सदैव,
छक के सुख-छटे स्वर्ग में देव ।।५।।
लगते देते से रस हैं,
विषय ‘पर’ विष हैं ।।६।।
आत्मा स्वभाव भूली,
वजह मोह-मोहन-धूली ।।७।।
पराये ‘तन-धन’,
‘अपना’
मानें बौराये-जन ।।८।।
साँझ आ तरु,
पा वजह…
सुबह हवा पखेरु ।।९।।
फैके ले हाथ अंगार,
कृपा-पात्र गुनहगार ।।१०।।
राग-द्वेष दो डोर से
भ्रमें प्राणी,
जैसे मथानी ।।११।।
भाँत रहट
बढ़ी एक,
झंझट खड़ीं अनेक ।।१२।।
थिर धारणा,
नश्वर
उतारना घी पी के ज्वर ।।१३।।
देखते औरों की बाधा,
बैठ वृक्ष दावाग्नि नादाँ ।।१४।।
आयु छीजती,
व्यय समय
न ‘कि आय रीझती ।।१५।।
कमाना देने दान,
लगाना धूल,
कबूल स्नान ।।१६।।
प्राप्ति, तृप्ति
न आसाँ
विरक्ति
‘भोग’ छोड़ने जोग ।।१७।।
हुआ ‘इतर’ इतर देह छू
न कर स्नेह तू ।।१८।।
उपकारी जे,
‘काय-के’
जीव-राय अपकारी वे ।।१९।।
चिंतामणी भी,
दे ध्यान
डली-खली भी, सावधान ।।२०।।
अत्यन्त सुखी,
अमर,
देह-भर,
मैं स्वानुभवी ।।२१।।
संयत मन व इन्द्रिंयाँ,
भीतरी खोलें अंखिंयाँ ।।२२।।
सेवा… अज्ञानी अज्ञान
‘ज्ञानी’
ज्ञान दे, लेख देखे ।।२३।।
दे स्वानुभव,
निरास्रव-निर्जरा-वैभव निरा ।।२४।।
दो में हो
नाता,
कैसा जब ध्यानेक ध्येय औ’ ध्याता ।।२५।।
वैराग खोल बन्धन दे,
बन्धन दे राग…
जाग ।।२६।।
भोग… संयोग जन्य,
शुद्ध बुद्ध मैं
मुझसे अन्य ।।२७।।
हा ! नापा स्नेह देहादि रस्ता,
जुड़ा दुःखों से रिश्ता ।।२८।।
क्यूँ डरूँ,
न मैं मरूँ,
पुद्गल वृद्ध, युवा व शिशु ।।२९।।
‘भोग वस्तुएँ’
सभी छोड़ दीं
अब क्या छू-ना छर्दी ।।३०।।
कर्म-कर्म का
हितैषी
आत्मा आत्मा का
जगत् ही, स्वार्थी ।।३१।।
पहले हाथ में,
अपना लो-
हित और बाद में ।।३२।।
गुरु कृपा
स्व पर ज्ञानाभ्यास,
दे छुवा आकाश ।।३३।।
आराधे
आप हित साधे
है विदु
सो स्वात्मा गुरु ।।३४।।
बुध…बुत
न बुत अद्भुत,
‘पर’ निमित्त भर ।।३५।।
‘ध्यानी’ चाहिये स्वात्मा हमें,
प्रशान्त-चित् एकान्त में ।।३६।।
‘स्वानुभूति ज्यों ज्यों रीझे,
त्यों-त्यों छीजे भोगानुभूति ।।३७।।
भोगानुभूति छीजे ज्यों-ज्यों,
रीझे त्यों-त्यों स्वानुभूति ।।३८।।
इन्द्रजाल सी दुनिया दिखी,
भाग ‘कि आत्मा लिखी ।।३९।।
स्व कार्य वशी
कह के… भूले तभी
अध्यात्म रसी ।।४०।।
‘रे स्वानुभवी बोलता हुआ भी,
न बोलता कभी ।।४१।।
कैसा
यह क्या ?
विसरे देह स्नेह,
स्नेही-विदेह ।।४२।।
रहें,
‘कि हो चित्-चोर,
स्थान वो
फिर न पायें छोड़ ।।४३।।
वक्त देहादि न दे
वो छूटे कर्मों से
न ‘कि बँधे ।।४४।।
पर दुख
दे
सुख आत्मा
‘अपना’
लें महामना ।।४५।।
पुद्-गल मेल-जोल
हा ! घुमाये भौ-भौ गोल-गोल ।।४६।।
निजात्म ध्यानी,
अपूर्वानन्द पाते
ज्ञानी बताते ।।४७।।
बाह्य दुख,
न करता परेशान
अद्भुत ध्यान ।।४८।।
आत्मा सिवाय,
मुमुक्षु को न कुछ और दिखाय ।।४९।।
ग्रन्थन सार निर्ग्रन्थन
है जुदा तन चेेतन ।।५०।।
अपना देश
हो अपना,
अपना इष्टोपदेश ।।५१।।
प्रश्नोत्तर रत्नमालिका
वैसी
माँ जैसी शिक्षिका
प्रश्नोत्तर रत्नमालिका ।।
कौन, चाहिये जहाँ लगाना मन ?
गुरु वचन ।।
कौन, छूते ही जिसे आनी चाहिये लाज ?
अकाज ।।
कौन, श्री गुरु ?
जगत् हित से दिन जिनका शुरु ।।
शीघ्र कर्त्तव्य क्या विद्-वेद ?
संसार सन्तति छेद ।।
क्या, बीज वृक्ष निर्वाण ?
भो ! सहित क्रिया संज्ञान ।।
क्या, मोक्ष मार्ग में कलेवा ?
सद्धर्म मानव-सेवा ।।
कौन, नृ-लोक में पावन ?
जिसका शिशु सा मन ।।
कौन, पण्डित ?
एक विवेक नीर-क्षीर मण्डित ।।
क्या, हलाहल ?
करने गुरुओं के नेत्र सजल ।।
क्षार संसार क्या सार ?
स्वोपकार, परोपकार ।।
कौन, मदिर मोह वर्षाने वाला मेह ?
सनेह ।।
कौन, तस्कर ?
हा ! इन्द्रिय विषयों का परिकर ।।
क्या, संसार को बढ़ाने वाली लता ?
हहा ! गृद्धता ।।
कौन, दुश्मन ?
किया बन के झूठ-मूठ शयन ।।
होता किससे प्राय: डरना ?
कहीं जाऊँ मर ना ।।
कौन, अंधे से भी बढ़कर हुआ ?
रागी मनुआ ।।
कौन, वीर ?
न व्यथित जो ललना लोचन तीर ।।
पेय पीयूष क्या कर्णांजुल बना ?
दिव्य-देशना ।।
क्या, बड़प्पन का मूल ?
अयाचक-वृत्ति अमूल ।।
किसे समझ पाना बड़ा-विचिन्न ?
त्रिया-चरित्र ।।
कौन, चतुर सुजान ?
स्त्री-चरित्र का जिसे भान ।।
क्या, दरिद्रता ?
सिर्फ सिर्फोर सिर्फ
असन्तुष्टता ।।
क्या, लघुता से दृग् आँजना ?
तिनके की भी याचना ।।
कौन, जीता ?
‘जी’ जिसका भौ-शरीर-भोग भै’-भीता ।।
क्या, जड़ता ?
न करना यत्न,
रख के भी पटुता ।।
कौन, जागर ?
विवेक भींजे,
दृग् जे तीजे पा-कर ।।
क्या, निद्रा मानी ?
गुजारना मूढ़ता में जिन्दगानी ।।
क्या, न रहने वाला तलक-क्षण ?
धन-जौवन ।।
कौन, करे भा शशि अनुकरण ?
जन-सज्जन ।।
क्या, नरक ?
हा ! हा ! वैशाखिंयाँ
हाथों में लेना रख ।।
क्या, सुख ?
होना निःसंग
राग-रंग से मोड़ मुख ।।
क्या, सत्य ?
हित ‘जीवन’ आराधते रहना कृत्य ।।
क्या, प्रिय तिय-जहान ?
प्राणियों को अपने प्राण ।।
क्या, दान ?
रह न जाना कौने मन आकांक्षा मान ।।
कौन, मित्र ?
जो बचा पापों से, मन करे पवित्र ।।
क्या, आभूषण ?
ओढ़ना बाना शील, गत दूषन ।।
क्या, वचनों का गहना ?
मौन या ‘कि सत्य कहना ।।
क्या, अनर्थ का फल ?
दुखना मन का पल-पल ।।
अजीज चीज क्या सुख देने वाली ?
मैत्री निराली ।।
कौन, दक्ष ?
दु…ख नाश में
राखा न कुछ पास में ।।
कौन, अंधे ?
जो रत अकार्य-रूप गोरख धंधे ।।
कौन, बहरे ?
तलक कानन जो हित न करे ।।
कौन, मूक ?
जो जाये प्रिय भाषण समय-चूक ।।
मर्ण क्या ?
एक ही शब्द में बताना है तो मूर्खता ।।
बहुमूल्य क्या कहाय ?
अवसर पे दिया जाय ।।
तलक मृत्यु शल्य क्या ?
अकार्य जो छुप के किया ।।
कहाँ, जरूरी प्रयास ?
दानौषध व विद्याभ्यास ।।
क्या, अनादर के जोग ?
पर-धन, पर-स्त्री भोग ।।
ज्ञानी सदा क्या विचारता ?
संसार की असारता ।।
प्रेयसी किसे करना ?
कुशलता, मैत्री, करुणा ।।
जाँ जाये पे न लेने योग्य शरण ?
कृतघ्न-जन ।।
वन्द्य किसके एक सदा चरण ?
सदाचरण ।।
कौन, निर्धन ?
आँचल न जिसके चारित्र-धन ।।
कौन, मौन जो जीते जगत् ?
सहिष्णु-जन और सत् ।।
भाजन कौन देव-मान ?
पुमान दया प्रधान ।।
भीति जरूरी किससे ?
हा ! भ्रमण भौ अटवी से ।।
ले कौन चित्त जीत ?
भाषण प्रिय-सत्य, विनीत ।।
लाभ के लिये रहूँ कहाँ रत मैं ?
न्याय पथ में ।।
है क्या, चंचल विद्युत् भाँत ?
स्त्री और दुर्जन साथ ।।
कौन, शैल से अविचल आज भी ?
सुमन सभी ।।
कब, सोचना ही पड़ता ?
आ बसे, जो कृपणता ।।
कौन, वैभव को और निखारती ?
‘जि उदार धी ।।
कौन, होने न दे निर्धनता भार ?
बुद्धि-उदार ।।
कौन, समर्थ को छुवाये गगन ?
सहिष्णु-पन ।।
क्या, दुर्लभ गो-काम समान ?
चार प्रद कल्याण ।।
प्रथम प्रद कल्याण
साथ प्रिय वचन ‘दान’ ।।
द्वितीय प्रद कल्याण
अभिमान रहित ‘ज्ञान’ ।।
तृतीय प्रद कल्याण
‘शौर्य’
देता क्षमा, सम्मान ।।
तुरीय प्रद कल्याण
‘धन’
देता सा त्याग मान ।।
रत्नमालिका प्रश्नोतर,
दे बना ये अनुत्तर ।।
भावना द्वात्रिंशतिका
मैत्री हर…से,
गुणी देख औ-गुणी ‘जि…न बरसे ।।१।।
समान
खड्ग म्यान
जुदा मृदा मैं भावी भगवान् ।।२।।
मानापमान,
‘दुख-सुख’
हों एक मकाँ मशान ।।३।।
मन मेरे,
हों स्थापित भाँति बुत चरण तेरे ।।४।।
एकेन्द्रियादि जीव सताये,
पाप हो मिथ्या जाये ।।५।।
हहा ! उन्मग पग बढ़ाये,
पाप हो मिथ्या जाये ।।६।।
वैद्य विष-को जैसे,
निन्दा…
पाप को विहँसे वैसे ।।७।।
हुआ जो पाप प्रमाद से,
पा कृपा आप विहँसे ।
हा ! हुआ अतिक्रमण,
छुऊँ अब प्रतिक्रमण ।।८।।
विशुद्धि मन लगाना घाटा,
अतिक्रम कहाता ।
शील बाड़ उल्लंघन नाता,
व्यतिक्रम कहाता ।।
पीछे विषयों के भाग-दौड़,
अतिचार क्या और ।
अति आसक्ति की शिरमौर
अनाचार क्या और ।।९।।
पद, अक्षर, मात्रा-भूल,
भूल माँ,
दो छुवा आस्मां ।।१०।।
सार…दे बोधि, समाधि,
परिणाम शुद्धि
तार दे ।।११।।
वृन्द मुनीन्द्र स्मरणीय,
शतेन्द्र अविस्मरणीय ।
कीर्तित वेद सदैव,
वो जयति जै देवदेव ।।१२।।
दर्शन ज्ञान सुख स्वभाव,
भौ-वि-मुख विभाव ।
गम्य स्वानुभौ एक
वह जयति जै देव-देव ।।१३।।
निरसक भौ दुःख जाल,
दर्शक विश्व त्रिकाल ।
निरखें जोगी स्वयमेव,
जयति जै देव-देव ।।१४।।
प्रतिपादक शिव-पन्थ,
अतीत दुख भदन्त ।
दूर-सुदूर कुटेव,
वो जयति जै देव-देव ।।१५।।
प्रद वत्सल प्राणी अशेष,
रीते राग व द्वेष ।
जिताक्ष ! ज्ञानमय ! नेक,
जयति जै देव देव ।।१६।।
व्यापक, सिद्ध, विरुद्ध,
धुत-कर्म, बद्ध, विशुद्ध ।
सुलटे, ध्याते ही दैव,
वो जयति जै देव-देव ।।१७।।
छुये न दोष कलंक,
तम सूर्य दर्श ज्यों रंक ।
नित्य, नेकेक, निरञ्जन,
सदैव उसे वन्दन ।।१८।।
विश्व-प्रकाशी भान,
खो चला आगे जिसके मान ।
संस्थित स्वात्म ! चिरन्तन,
सदैव उसे वन्दन ।।१९।।
दृष्टि गोचर जो हुआ
‘कि नयनों ने विश्व छुआ ।
अनाद्यनन्त ! शुद्ध कञ्चन
सदा उसे वन्दन ।।२०।।
अग्नि ने जैसे विटप,
‘किये क्षय’ मन्मथ, भय ।
विरत चिन्ता ! रत चिन्तन,
सदा उसे वन्दन ।।२१।।
आश-न मन,
आत्मा
उस सिवा कौन आसन ।।२२।।
ख्याति न संघ सम्मेलन,
समाधि सा…धन आत्मन् ।।२३।।
न मैं किसी का
न कोई म्हारा,
सिर्फ आत्मा हमारा ।।२४।।
एकाग्र मन
साधो !
जहाँ कहीं भी समाधि-धन ।।२५।।
मैं अविनाशी ज्ञान-मय,
होने-को शेष विलय ।।२६।।
गेह,
न देह अपना
चर्म ओम् ‘कि लो रोम फना ।।२७।।
मैं भोग रहा दुक्ख अनेक,
हेत संयोग एक ॥२८।।
भव-बेली,
खो विकल्प केली,
देखो आत्मा अकेली ।।२९।।
कृृत पूर्व
‘दे फल’
और तो स्वयं कर्म विफल ।।३०।।
न और फल दे अपना कर्म,
पा…लो शिव शर्म ।।३१।।
छुआ सकल
निकल
‘परमात्मा’
‘कि हुआ आत्मा ।।३२।।
यह भावना बत्तीसी
साधो
भींजी आँख तीजी सी ।।
दर्शन पाठ
स्वर्ग सोपान
दर्शन देव-देव
हेत कल्याण ।।१।।
छू जिनवाणी
पाप ‘हुआ छू’
पानी…
सछिद्र-पाणी ।।२।।
विनाशे जन्म-जन्म पाप
दर्शन जिनेन्द्र आप ।।३।।
प्रफुल्ल मन-पद्म वन,
पा जिन सूर्य दर्शन ।।४।।
उमड़े सिन्धु-आनन्द,
पा दर्शन इन्दु-जिनेन्द्र ।।५।।
वसुधा वसु-भूप,
आप अनूप, प्रशान्त रूप ।।६।।
सिद्ध अनन्त,
विशुद्ध, चिदानन्द
वन्द्य जिनेन्द्र ।।७।।
सिवा तेरे, न और शरण
त्राहि-माम् श्री भगवन् ।।८।।
न हुआ जगत् त्राता
आप जैसा
न होगा विधाता ।।९।।
लाँघ शक्ति, मैं…
सदा सर्वदा लागूँ जिन-भक्ति में ।।१०।।
करना रंक भले
विनन्ति
जिन भक्त-भौ मिले ।।११।।
जिन दर्शन से क्षय,
जन्म जरा-मृत्यु आमय ।।१२।।
आज सफल नयन,
पा जिनेन्द्र आप दर्शन ।
चुल्लू भर, भौ-सागर
आज मेरा…
प्रसाद तेरा ।।१३।।
मृत्यु महोत्सव
आये ‘कि मुक्ति-पुरी
‘देवा’
समाधि बोधि कलेवा ।।१।।
कैसा भय ?
खो जर्जर ‘देह’ ज्ञान-मै निःसन्देह ॥२।।
कैसा डर ?
मैं अमर
देह और जाऊँ नगर ।।३।।
मृत्यु-पल क्यूँ विकल,
न पाना क्या सुकृत-फल ॥४।।
दुखी आतम,
देह-गेह
निकाले अकेला यम ।।५।।
दिलाये मृत्यु सखा,
जन-सहज सुख सम्पदा ।।६।।
आत्मार्थ रहे ना गप,
साधो
मृत्यु कल्प पादप ।।७।।
नूतन
जीर्ण तन…
करें आ…
मृत्यु अभिनन्दन ।।८।।
क्या ठहरना यहीं
नहीं
तो चल…
आज क्या कल ।।९।।
विरक्त
हित प्रमोद
‘मृत्यु’
भय गोद आसक्त ।।१०।।
लोक, किसमें दम
‘स्वयम् जाता’
ले रोक आतम ॥११।।
व्याधि दुख ई वजह से,
नेह ‘कि देह विहसे ।।१२।।
पानी राख…ना ज्ञानी,
बिना परीक्षा-अग्नि ‘अपना’ ।।१३।।
फल… प्रयत्न
‘साध्य’ सुख समाधि से
मृत्यु-पल ॥१४।।
गति पशु न नारकी
‘क्षपक की’
देव-पालकी ।।१५।।
जागृति-मृत्यु-पल,
तप स्वाध्याय व्रतेक फल ।।१६।।
सुनते प्रीत नवल,
फिर भीत क्यों मृत्यु-पल ।।१७।।
झपी पलक,
आ स्वर्ग-से क्षपक
छुये फलक ।।१८।।
HIGH Q.
जयतु ज्ञान,
सुचरित, श्रद्धान
श्री वर्धमान ।।१।।
निकाल दुख से हमें,
दे बिठाल ‘धर्म’ सुख में ।।२।।
धर्म
दर्शन, ज्ञान, चारित्र
‘सम्यक्’
और अधर्म ।।३।।
देव वे ‘जि
जे वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी ।।४।।
सद् देव-शास्त्र-गुरु श्रद्धान घना,
सम्यक्-दर्शना ।।५।।
वीतराग,
न दोष क्षुधादि-रूप जिनमें दाग ।।६।।
हितोपदेशी
परंज्योती
सर्वज्ञ
सार्थ विभूति ।।७।।
सच्ची राह
दे…बता
‘बाजा’
शिल्पी से रख क्या चाह ?।।८।।
लिखा निर्ग्रन्थ हो
सद्ग्रन्थ वो
कहा अरिहन्त जो ।।९।।
निधान,
ज्ञान-ध्यान ‘गुरु’ निस्पृह निष्परिग्रह ।।१०।।
खड्ग पानी-सा
श्रद्धान
‘अपना’ लो काम बना ।।११।।
क्षयी औ’ वशी
‘दुखमै’
‘जा…न’
पाप-बीज सुख में ।।१२।।
त्रि-रतन
‘पा… वन’ तन
न करो जुगुप्सा मन ।।१३।।
उतार चश्मा
‘अपना लेना’
गूढ
‘दृष्टि’ अमूढ़ ।।१४।।
ले खुश्बू फन
झापन
‘औ’ ओ-गुण उपगूहन ।।१५।।
च्युत चरणा
युत करना
श्रुति…स्थिति करणा ।।१६।।
करना साथ नर्मी
‘वात्- ‘सल्य’
न मानो साधर्मी ।।१७।।
सहज
तज दुर्भावना
करना ‘भी’ प्रभावना ।।१८।।
अंजन,
मति-अनन्त,
उद्दायन, रेवती धन्य ।।१९।।
जिनेन्द्र गुणी,
वारिषेण, श्री विष्णु व वज्र मुनी ।।२०।।
सम्यक् श्रद्धान
‘अंग हीन’
अक्षर मन्त्र समान ।।२१।।
मूढ़ता
‘लोक’
गज नहा डालना रज सूड तः ।।२२।।
मूढ़ता
‘देव’ वो मानना
जो देव-पना ढूढ़ता ।।२३।।
मूढ़ता
‘गुरु’ वो मानना
जो गुरु-पना ढूढ़ता ।।२४।।
पूजा,
‘कुल’-माँ,
बल, तप, श्री,
वपु ज्ञाँ… वसु गुमाँ ।।२५।।
धर्म, धर्मात्मा एक
हो अपमान न जाये…देख ।।२६।।
पाप छूता तो
‘विथा अन्य सम्पदा’
पाप छूटा जो ।।२७।।
पड़ा अंगार
रा…ख
ख… रा
सम्यक्त्वी भले चाण्डाल ।।२८।।
सद्धर्म मात्र छुआ
रात्रि-जागर
अमर हुआ ।।२९।।
पन्थ सुदृष्टि अवरोध
भयाशा, स्नेह व लोभ ।।३०।।
खेवनहारा
दिव मारग शिव
दर्शन न्यारा ।।३१।।
न वृक्ष ज्ञाना-चरणा,
बीज सम्यक् दर्शन बिना ।।३२।।
कछुआ गृही निर्मोही,
खरगोश संयमी मोही ।।३३।।
श्रेय अनूप,
सम्यक् ‘दर्शन’
मिथ्या अश्रेयरूप ।।३४।।
भले अव्रति
सम्यक्-दृष्टि
न पाये कभी दुर्गति ।।३५।।
सतेज,
धन्य, सम्पन्न-ओज
जल भिन्न सरोज ।।३६।।
द्यु ठाठ-बाट
आठ ऋद्धियाँ सभी
धी हंस निधी ।।३७।।
चौदह रत्न निधियाँ नव,
सम्यक् दृष्टि वैभव ।।३८।।
दृग्धारी जगत् जगत
धर्मतीर्थ अधिकारी सत् ।।३९।।
बताते…
सम्यक् दृष्टि
पाते अक्षय निर्भय मुक्ति ।।४०।।
भूदेव
होते होते द्यु-देव
होते यूँ देव देव ।।४१।।
न अधिक
न धिक्
निःसन्देह होता
ज्ञान न खोटा ।।४२।।
बोधि समाधि निधान,
अनुयोग ‘प्रथम’ ज्ञान ।।४३।।
विद् लोकालोक विभाग,
करणानुयोग चिराग ।।४४।।
गृहस्थ, साध
अनुयोग
‘चरण’ प्रद समाध ।।४५।।
जीव, अजीव पता
द्रव्यानुयोग ‘दीव’ दे बता ।।४६।।
बाद दृग् ज्ञान,
साधो व्रतानुराग
मेंटने राग ।।४७।।
स्वयं हिंसादि निवृत्त
निर्मोही न राजादि भृत्त ।।४८।।
विरत
हिंसा, झूठ, चोरी,
अब्रह्म, संग चरित ।।४९।।
चारित्र मुनि का सकल
विकल गृही का मित्र ।।५०।।
पञ्चाणु व्रत
त्रिगुण ‘व्रत’ शिक्षाऽऽचार सागार ।।५१।।
तोड़ना स्थूल हिंसाद नाता,
अणु-व्रत कहाता ।।५२।।
सुदूर त्रस-संकल्प हिंसा,
अणु व्रती अहिंसा ।।५३।।
छेद,
बन्धन, वध भूखा ‘रखना’ भार बेहद ।।५४।।
बुलवाता न बोलता झूठ कभी,
सत्याणुवती ।।५५।।
चुगली,
न्यास-आँख, ‘रखना’ खोल वाक्
और लेख ।।५६।।
करना पर कर…ना
अचौर्याणु व्रत लखना ।।५७।।
मिश्र सदृश
विलोप विनि’मान’
‘चौरार्था’-दान ।।५८।।
व्रति सन्तोष स्वदार
माँ बहिन सी परनार ।।५९।।
ब्याह
औ’ अंग क्रीडा
ग्राम स्त्री चेष्टा कामाति चाह ।।६०।।
रखना
परि…ग्रह
परिमाणाऽणु-व्रत लखना ।।६१।।
विस्मय, लोभ, संग्रह, वाहन
ऽति भार वहन ।।६२।।
निरतिचार
पालन अणुव्रत
द्वार सद्गत ।।६३।।
मातंग,
धन-देव, श्री वारिषेण, नीली जैवन्त ।।६४।।
हा ! धन-श्री,
सत्-घोष, ऋषि रक्षक,
श्मश्रु नौनीत ।।६५।।
पंचाणुव्रत त्याग मकार
मूलगुण सागार ।।६६।।
गुण ‘व्रत’ दिग्
ऽनर्थ-दण्ड, प्रमाण भोगोपभोग ।।६७।।
आमरणा दिश्-दिश् सीमा करना
दिग् व्रत लखना ।।६८।।
जो प्रसिद्ध दिश् दश स्थान,
करते आ परिमाण ।।६९।।
सीमा बाहिर दिग् व्रती
उपचार से महद् व्रती ।।७०।।
मन्द कषाय प्रत्याख्यान
दिग्व्रति सन्त समान ।।७१।।
महाव्रती नौ कोटी से,
फेरे मुंह वृत्ति खोटी से ।।७२।।
ऊर्ध्वाध: तिर्यग् उलाँघना
बढ़ाना ‘सीमा’ भुलाना ।।७३।।
अनर्थ दण्ड वृति
छोड़े नाहक पाप प्रवृत्ति ।।७४।।
‘पाप’ वाक्,
हिंसादान,
अपध्यान, दुः श्रुति प्रमाद ।।७५।।
दिखाना पन्थ
पाप पंक से सना, पाप देशना ।।७६।।
करना हिंसा के साधन प्रदान,
हा ! हिंसा दान ।।७७।।
अप ध्यान
ले जाना ध्यान हो जहाँ पाप प्रधान ।।७८।।
लजाने वाले सरसुति
शास्त्र न शस्त्र दु़श्रुति ।।७९।।
खेल भू, हरी, अग्नि, पानी, वात
हा ! चर्या प्रमाद ।।८०।।
प्रसाधन धिक्
कन्दर्प, मौखर्य कु’चेष्टा’ नाहक ।।८१।।
भोगोपभोग परिमाण
आसक्ति विषय हान ।।८२।।
‘रे ! भोग
छोड़ा ‘भोग-के’ पुन: भोगा वे उपभोग ।।८३।।
विराधे जीव राश…मधु मांस
हा ! सार्थ मदिरा ।।८४।।
अल्प फल हो बहु विघात,
न लो चीजें वो हाथ ।।८५।।
त्याग प्रतिज्ञा पूर्वक विषयों का,
व्रत अनोखा ।।८६।।
नियम कुछ
‘काल’ पर्यन्त त्याग करना…यम ।।८७।।
रथ, मन्मथ,
ताम्बूल, राग-फूल,
गीत संगीत ।।८८।।
इनसे काल कुछ कहना हहा !
नियम कहा ।।८९।।
ऽनुस्मृति, लोल्य, अति तृषा-नुभव
भोगानुपेक्षा ।।९०।।
देशौ काशिक,
सामायिक, प्रोषध व वैय्यावृत ।।९१।।
देशौ काशिक परित्याग,
अपेक्षा काल विभाग ।।९२।।
प्रसिद्ध खेत हाट,
देशौकाशिक क्षेत्र मर्याद ।।९३।।
मर्यादा काल देशौकाशिक,
दिन ‘नेक’ मासिक ।।९४।।
सीमा बाहर व्रति देशौकाशिक
यति माफिक ।।९५।।
रूप, क्षेपण-पुद्गल,
आनयन शब्द-प्रेषण ।।९६।।
सामायिक
मुँ: पापों से लेना फेर, तलक देर ।।९७।।
सामायिक के काल
पर्यक, मुष्टि ‘बन्धन’ बाल ।।९८।।
सामायिक के स्थान
गुफा, मन्दिर, शून मकान ।।९९।।
रहना मन एक आश ना,
वही तो एकाशना ।।१००।।
शोभे
एकाग्र होके
की सामायिक आलस्य खो के ।।१०१।।
सामायिक में ग्रहस्थ
सोपसर्ग साधु सवस्त्र ।।१०२।।
उपसर्ग व परिषह पा,
ध्यानी खोते न आपा ।।१०३।।
सामायिक में जानी-मानी
भावना बारह भानी ।।१०४।।
चपल मन वाक् तन,
अनादर हा ! विस्मरण ।।१०५।।
आठे चौदस,
त्याग आहार विध चार प्रोषध ।।१०६।।
उपवास का दिन
साधो न्हवन अञ्जन बिन ।।१०७।।
पीवे अमृत धर्म प्याला
उपास करने वाला ।।१०८।।
एकासनेक बात
‘प्रोषध’ उप-वास विख्यात ।।१०९।।
स्मरण ‘बिन’ शोधे ‘ग्रहण’
सेज शुद्धि नादर ।।११०।।
वैय्यावृत्ति
सद्धर्म वृद्धि हितार्थ
दान सुपात्र ।।१११।।
आपत्ति दूर करना
वैय्यावृत्ति व्रति अपना ।।११२।।
यथा शक्ति, ‘दा’-देना ‘न’ नग्न साध
सनौधा भक्ति ।।११३।।
दान पापों को,
‘धो डाले’ पानी जैसे के दाग सारे ।।११४।।
कीर्ति, थुति
दे भोग दान यति
सुकुल प्रनुति ।।११५।।
दान सुपात्र हूबहू
बोया बीज उपजाऊ भू ।।११६।।
वैयावृत्ति चौ-विध
शास्त्र, आहाराऽऽवास औषध ।।११७।।
वृषभसेना, श्रीषेण,
ग्वाल-बाल व’राह वाह ।।११८।।
न और दूजा
मंशा पूरण एक अर्हन पूजा ।।११९।।
देव द्युपुरी
मुख भक्त मेंढ़क एक पांखुरी ।।१२०।।
विस्मर्ण, ईर्ष्या,
अपमान पिधान
‘हरित्’ निधान ।।१२१।।
सल्लेखना
पा कालाकाल राखना धर्म अपना ।।१२२।।
तप मन्दिर कलशा
सु…मरण भज शक्तिशः ।।१२३।।
निर्झर नैन
‘ले’ क्षपक क्षमा ले मधुर वैन ।।१२४।।
कहते हुये पापों को धिक्
ले महाव्रत क्षपक ।।१२५।।
स्नेह से तोड़
स्नेह
क्षपक श्रुत से राखो जोड़ ।।१२६।।
क्षपक
स्निग्ध पान
‘छू…कर’ खर पान लो रख ।।१२७।।
क्षपक
बाद नीर
‘छोड़ो’ नौ कार साथ शरीर ।।१२८।।
जीने, जाने का आह्वान
भीति, मित्र-स्मृति निदान ।।१२९।।
अभ्युदय व निःश्रेयस दाता,
सु…मरण नाता ।।१३०।।
दुख एक ना
पता ? मोक्ष में सिर्फ निराकुलता ।।१३१।।
सिद्ध अनन्त
ज्ञान, दर्शन, सुख, वीरज वन्त ।।१३२।।
न ले पायेंगा
‘फिर…के’
प्रलय आ, सिद्ध अक्षरा ।।१३३।।
हमेशा
सिद्ध आत्मा रहता
शुद्ध सोने के जैसा ।।१३४।।
सच… सद्धर्म
दे ओ शिव शर्म,
‘दे खो सब कर्म ।।१३५।।
पाछा ‘ग्या’ रह,
श्रावक… दर्जे आगे के रहे कह ।।१३६।।
धन्य श्रावक दार्शनिक
दर्शन जैन पथिक ।।१३७।।
शीलाणुव्रत धारी
‘नि:शल्यो व्रति’ निरतिचारी ।।१३८।।
संध्या त्रिक में,
साधो ! नौ-कार व्रति सामायिक में ।।१३९।।
मान औषध
पर्व-चार आहार-हान, प्रोषध ।।१४०।।
बड़भाग,
धी सचित्त त्याग, जीमे साग स…आग ।।१४१।।
रात्रि भोजन त्याग
‘प्रतिमा’ दया, करुणा, क्षमा ।।१४२।।
दिखाना आत्मा और अंगूठा,
ब्रह्मचर्य अनूठा ।।१४३।।
परिहारी षट् कर्म
‘आरम्भ’ त्याग प्रतिमा धारी ।।१४४।।
ममत्व मूर्च्छा खो चाला,
परिग्रह त्यागी निराला ।।१४५।।
न परिग्रहारंभ निरत
अनुमत त्याग विरत ।।१४६।।
सदीव, मुनि करीब
बड़भागी, उद्दिष्ट त्यागी ।।१४७।।
‘धर्म अपना’
मानते विद्वद्-गण पाप दुश्मन ।।१४८।।
आतम
‘रत्न करण्डक’ बना ‘कि परमातम ।।१४९।।
सम्यक् दर्शन श्री
‘रक्षा करे सदा’ माँ समाँ मेरी ।।१५०।।
‘श्री-तत्त्वार्थ-सूत्र-जी-हाई-को’ ?
प्रथमो अध्याय:
सम्यक्-दर्शन-ज्ञान चारित्र
मोक्ष मार्ग पवित्र ।।१।।
पदार्थ जैसा,
मानना उसे वैसा,
सम्यक् दर्शन ।।२।।
निसर्ग, अधि-गम,
सम्यक् दर्शन हेतु जनम ।।३।।
तत्त्व,
चित्-अचित्, आस्रौ,
बन्ध, संवर, निर्जरा मोक्ष ।।४।।
नाम, स्थापन, द्रव्य, भाव
जानन तत्त्व उपाव ।।५।।
प्रमाण नय,
कराते हैं पदार्थों-से परिचय ।।६।।
निर्देश स्वामी, साधनाधिकरण,
स्थिति, विधान ।।७।।
सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन,
कालान्तर भावल्प-बहु ।।८।।
संज्ञान
मति, श्रुत, अवधि,
मन-पर्य, केवल ।।९।।
कोई प्रमाण,
तो…
मति ज्ञानादि ये पाँचों ही ज्ञान ।।१०।।
आदि के मति-श्रुत ज्ञान,
परोक्ष रूप प्रमाण ।।११।।
शेष,
विशेष, तीन ज्ञान
प्रत्यक्ष रूप प्रमाण ।।१२।।
अभिनिबोध स्मृति,
संज्ञा व चिन्ता, एकार्थ मति ॥१३।।
भरे उड़ान,
मति ज्ञान,
कारण,
इन्द्रिय मन ।।१४।।
औ-ग्रह, ईहा, अवाय व धारणा,
भेद मति ज्ञाँ ।।१५।।
एकेक-विध, क्षिप्र, निस्सृत, उक्त, ध्रुव
‘औ-ग्रह ।।१६।।
बारह,
अव-ग्रह ये किसके,
तो पदारथ के ।।१७।।
ईहादि नहीं,
व्यञ्जन पदार्थ का, अवग्रह-ही ।।१८।।
होता व्यञ्जन औग्रह,
नयन के,
‘बिना’ मन के ।।१९।।
पूर्वक मति ज्ञान,
दो, नेक, दश-दो, श्रुत ज्ञान ।।२०।।
औधि ज्ञान,
भौ प्रत्यय,
अधिसासी,
द्यु-नर्क वासी ।।२१।।
क्षयोपशम निमित्त,
भेद षट् नृ-तिर्यंच, मित्र ।।२२।।
मनः पर्यय-ऋजुमति,
‘दूसरा’ विपुलमति ।।२३।।
ऋजुमति वि-शुद्ध,
‘विपुलमति’ अप्रतिपाती ।।२४।।
औ’धि
‘विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी, विषय’
मनः पर्यय ।।२५।।
जानते मति-श्रुत,
सभी द्रव्यों की पर्यायें कुछ ।।२६।।
रूपी पदार्थों का
सविधि रखता ‘ज्ञान’ अवधि ।।२७।।
रखता,
मनः-पर्यय ‘ज्ञान’ औधि
भाग अनन्त ।।२८।।
‘पता’,
केवल ‘ज्ञान’ पर्याय द्रव्य सर्व रखता ।।२९।।
ज्ञान चार आ सकते साथ
‘एक’ आत्मा के हाथ ।।३०।।
धिक् भी
‘होते’ मति श्रुत अवधि
‘ज्ञान’ सम्यक् भी ।।३१।।
अज्ञान,
मिथ्या-दृष्टि ज्ञान,
उन्मत्त वत्
सत् भी असत् ।।३२।।
नै गम्, संग्रः व्यौ-हा, रर्जु-सूत्र,
शब्द रूढै-वंभूत ।।३३।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
प्रथ-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः ।।१।।
‘द्वितीय अध्याय’
उपशम ‘छै’,
क्षयोपशम ‘उदै’,
परिणाम स्व ॥१॥
दो, नौ, नौ औ’ नौ इक्कीस तीन भेद,
क्रम समेत ॥२॥
भाव द्विविध
चारित्र सम्यक्त्विक
औपशमिक ॥३॥
व्रत क्षायिक दृग्, लब्धि ‘पन’
ज्ञान सर्व दर्शन ॥४॥
दर्शन तीन अज्ञान,
चार ज्ञान,
पाँच लब्धियाँ
चारित्र मिश्र दृग्,
संयमासंयम भाव अठारा ॥५॥
कषाय ‘चार’ गति मिथ्यात्व
लेश्या षट् लिंग त्रिक,
असिद्-धत्विक,
अज्ञान असंयम भावौदयिक ॥६॥
भाव,
जीवत्व, भव्यत्व,
अभव्यत्व पारिणामिक ॥७॥
जीव लक्षण
‘उपयोग’
चिदात्म परिणमन ॥८॥
उपयोग दो,
ज्ञान भेद चार,
‘औ चार दर्शन ।।९।।
पूर्वोक्त,
जीव जो,
उसके भेद दो
संसारी मुक्त ॥१०॥
रहित मन, मन-धारी
भेद दो जीव संसारी ॥११।।
त्रस स्थावर नाम धारी
भेद दो जीव संसारी ॥१२॥
स्थावर-पन,
भू, वनस्पति, जल, अग्नि, पवन ॥१३॥
दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रिय वाले
त्रस निराले ॥१४॥
साँच,
इन्द्रियाँ पाँच
नहीं ग्यारह
रहीं न छह ॥१५॥
हैं इन पाँचों इन्द्रियों के प्रकार कितने
तो,
दो ॥१६॥
द्रव्येन्द्रिय में आते
निवृति-उप-कर्ण बताते ॥१७॥
भावेन्द्रिय में आते
लब्धि औ’ उप-योग बताते ॥१८॥
पाँच,
स्पर्शन, रसना, घ्राण,
चक्षु, कर्ण इन्द्रियाँ ॥१९॥
विषय इन-के
स्पर्श, रस, गन्ध वर्णौर
शब्द ॥२०॥
मति पूर्वक हुआ ‘श्रुत’
‘विषय’
मन विश्रुत ॥२१॥
एक स्पर्शन इन्द्रिय वाले
काय स्थावर सारे ।।२२।।
त्रस,
क्रमश:
बढ़ती इन्द्रियेक का पाते जश ॥२३॥
रहता संज्ञी नाम जीव,
सहित मन सदीव ॥२४॥
गति-विग्रह संजोग,
तब काय कार्मण योग ।।२५।।
म्हार-तुम्हार
‘विग्रह-गति’
श्रेणी के अनुसार ॥२६॥
वगैर मोड़े वाली,
‘गति’ विमुक्त जीव निराली ॥२७॥
विग्रह-गति
‘जन-संसार’
पूर्व समय चार ।।२८।।
गति वगैर मोड़े वाली
समय न जोड़े वाली ॥२९॥
अनाहरक,
जीवेक दो या तीन समय तक ॥३०॥
जन्म त्रिभाँत
सम्मूर्च्छन गरभ औ’ उपपाद ।।३१।।
सचित्त-शीत-संवृत
‘इतर’ औ’
मिश्र योनि नौ ॥ ३२॥
जन्म गरभ,
जरायुज, अंडज पोत-सरब ।।३३।।
देव-नारकी निराले
उपपाद जनम वाले ॥३४॥
सुनो, क्या ?
शेष जीवों का,
सम्मूर्च्छन जन्म अनोखा ॥३५।।
देहौदारिक,
वैक्रियिका ऽऽहारक
तैजस-कार्मण ॥३६॥
साँच
शरीर पाँच
सक्रम
आगे-आगे सूक्षम ॥ ३७॥
प्रदेश गुण असंख्यात क्रमशः
पूर्व तैजसा ॥३८॥
प्रदेश नन्त गुण
आगे तैजस और कार्मण ॥३९॥
जुगल इन शरीर थाती
पन अप्रतिघाती ॥४०॥
जीव अनादि साथ
तैजस और कार्मण गात ॥४१॥
सभी संसारी-जन
धनी तैजस ‘तन’ कार्मण ॥४२॥
इन दो-को ले के
‘तन’ चार एक जीव के देखे ॥४३॥
‘निरुपभोग’ वो अखीर
कार्मण नामा
शरीर ॥४४।।
गर्भज इक
सम्पूर्च्छनज इक
देहौदारिक ॥४५॥
जन्मोपपाद जिनका
वैक्रियिक गात तिनका ॥ ४६॥
सीझे ऋद्धि से भी धन !
वैक्रियिक नामक तन ॥४७॥
तैजस नाम शरीर भी,
सम्प्राप्त ऋद्धि से सुधी ॥४८॥
शुभ, विशुद्ध आहारका ऽव्याघाती
नो-साधो थाती ॥४९॥
नारकी
वेद नपुंसक समेत
सम्मूर्च्छन भी ॥५०॥
न नपुंसक वेद वाली
पर्याय-देव निराली ॥५१॥
यथा सम्भव,
शेष-जीवौर वेद तीन वैभव ॥५२॥
वर्षा-संख्यायु
चर्मोत्तम-नारकी-देव पूर्णायु ॥५३॥
इति मोक्ष-शास्त्रे
द्विती-यो(ध्)-ध्यायः नमो नमः ।।२।।
‘तृतीय अध्याय’
रत्न, शर्करा, बालुका,
पंक, धूम ‘तम-महा’-भा
क्षमा
ये सात
तीन वलय-वात
बाद आसमाँ ॥१॥
तीस, पच्चीस, पन्द्रा, दश, ’ती-नून’
लाखेक-‘पाँच’ ॥२॥
ना-रत
लेश्या, परिणाम, वेदना, देह, विक्रिया ॥३॥
बताते
एक-दूसरे को नारकी खूब सताते ॥४॥
तलक नर्क तीजे
छेड़ें असुर संक्लेश भींजे ॥५॥
सागर तीन, सात, दश, सत्रा, ’वै’-बीस,
तेवीस ॥६॥
असंख्य द्वीप जम्बू
लवण सिन्धू
नाम
ललाम ॥७॥
क्रमश: द्वीप सिन्धु औ’ चूड़ी
घेरे ले दूनी-दूरी ॥८॥
लाख जोजनी
सुमेरु मध्य द्वीप जम्बू मोहनी ॥९॥
भरत, हैम-रत, हरि, विदेह, रम्यक नाम
हैरण्यवत, ऐरावत वर्ष ये क्षेत्राभिराम ॥१०॥
भू विभाजक
पूर्व पश्चिम सिन्धु तक
छः गिरी
‘हिमवन’-महा, निषध
नील रुक्मि और शिखरी ॥११॥
हेम, रजत
बाल सूर्य वैडूर्य
रजत, हेम ॥१२॥
मणि पार्श्व ये गिरि
समान मूल-मध्य उपरि ।।१३।।
पद्मौर
‘महा’ पुण्-ड़री-कौर
केश-‘री’ तिगिन्छ ॥१४॥
ह्रद पहला
लम्बा योजन दश
‘सौ’-पन
चौड़ा ॥१५॥
योजन-दश अवगाही पदम
ह्रद प्रथम ॥१६॥
मध्य प्रथम-सरवर
योजन एक पुष्कर ॥१७॥
शगुन
ह्रद कमल, आगे-आगे, पृथु दुगुन ॥१८॥
सुर-नार
श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी उदार
पद्म बसें
स-सामानिक पारिषद् पल्येक लसें ॥१९॥
नदिंयाँ
गंगा, सिन्धु रोहित
रोहि-तास्या हरित
श्री हरिकान्ता
सीता सीतोदा, नारी श्री नर-कान्ता
सुवर्ण कूला
रुप्य कूला
रक्ता रु रक्तोदा
चौदा ॥२०॥
पूर्व में जातीं
दो-दो नदिंयों में, जो पूर्व में आतीं ॥२१॥
नदिंयाँ शेष,
बह पश्चिम जातीं अपने-देश ।।२२।।
गंगा-सिन्ध्वादि नदिया परिवार
चौदा-हजार ॥२३॥
क्षेत्र पाँच सौ छब्बीस
योजन-‘छ: खण्ड’-उन्नीस ॥२४॥
विदेह लग,
क्रमश: दूने-दूने क्षेत्रौर नग ॥२५॥
दक्षिण यथा
क्षेत्र और पर्वत
उत्तर तथा ॥२६॥
उत्सर्पिणी के
छह-छह कालों में
औ-सर्पिर्णी के
खास
भरत-ऐरावत में होता,
वृद्धि औ’ ह्रास ।।२७।।
छोड़ भरत-ऐरावत
भूमिंयाँ सदा शाश्वत ॥२८॥
हैमवतेक
पल्य
द्वि हरिवर्ष
त्रि देवकुरु ।।२९।।
दक्षिण यथा
मानो ‘वयादि-मानौ’ उत्तर तथा ॥३०॥
क्षेत्र विदेह
संख्यात वर्ष तक विलसे देह ॥३१॥
भरत, भाग शतकेक नब्बे वाँ
जम्बू द्वीप का ।।३२।।
‘श्री’ जम्बू द्वीप कही
धातकी-खण्ड दुगुनी वही ॥३३॥
धातकी खण्ड कही
‘श्री’ आधे द्वीप पुष्कर वही ॥३४॥
न उलाँघते कदापि नर
गिरी-मानुषोत्तर ॥३५॥
आर्य-विरला
दो ‘मानौ’ भेदों में से म्लेच्छ अगला ॥३६॥
विदेह वर्ज-कुरु
भरत,
कर्म-भू ऐरावत ॥३७॥
उत्कृष्ट पल्य तीन
नृस्थिति-हीन अन्तर्मुहूर्त ॥३८॥
वय-तिर्यंचों की
परा ऽवर
तय-नृ-बराबर ॥३९॥
इति मोक्ष-शास्त्रे
तृती-यो(ध्)-ध्यायः नमो नमः ।।३।।
‘चतुर्थ अध्याय’
भवन-‘वासी’-द्यु
व्यन्तर ज्योतिष्क रु
कल्पवासी ।।१।।
पर्यन्त-पीत लेश्याएँ
आदि-देव तीन निकाय ॥२॥
विभेद-देव क्रमशः
दश-आठ-पाँच बारह ।।३।।
दश-त्रिदश
इन्दर, सामानिक
त्रायस-त्रिंश
आत्म रक्षक, पारिषद
अनीक
लोक-पालक
प्रकीरणक, अभियोग्य वा
दश वाँ किल्विषिक ॥४॥
त्रायस्त्रिंश न पाल-जगत्
व्यन्तर ज्योतिषिन सत् ॥५॥
पहले के जो निकाय दो
उनमें इन्द्र-राय-दो ।।६।।
तलक स्वर्ग-ऐशान
प्रविचार, काय प्रधान ।।७।।
प्रविचार द्यु शेष परस,
रूप, शब्द मानस ।।८।।
किया नहीं ‘कि स्वर्ग सौलह पार
अप्रवीचार ।।९।।
असुर, नाग, विद्युत्,
सुपर्ण, अग्नि, वात, स्तनित,
उदधि, द्वीप, दिक्-कुमार
भवन वासी छः चार ।।१०।।
गंधर्व, यक्ष,
महोरग, राक्षस,
भूत-पिशाच,
किम्पुरुषौर किन्नर
भेद आठ यह व्यन्तर ।।११।।
सूर्य चन्द्रमा
ग्रह नक्षत्र तारा
ज्योतिष्क धारा ।।१२।।
दें नृलोक में मेरु फेरे सदैव
ज्योतिष्क देव ।।१३।।
गति ज्योतिष्क वजह
‘जाये’-काल-विभाग यह ॥१४॥
बहिर् नृलोक, अवस्थित सदैव
ज्योतिष देव ।।१५।।
विमान जन्म पाते जे
वैमानिक, कहलाते वे ।।१६।।
देव विमान जन्य
कल्पोपपन्न, कल्पातीतन्य ।।१७।।
न्यारे,
क्रमश: ये विमान
ऊपर-ऊपर सारे ।।१८।।
सौधर्म, ऐशा-न
सानतकुमार, महेन्द्र, ब्रह्म
ब्रह्मर
लान्तो, कापिष्ट, शुक्र
महाशुक्र, सतार
सहस-स्रार
आनत-प्राण-तारण
अच्युत-कल्प
औ’ ग्रैवेयक नौ अनुदिश
विजै, वैजन्त, जैन्त
अपराजित नाम
और सर्वार्थ सिद्धि
द्यु धाम ।।१९।।
‘सुख’ ‘विषय’-अवधि, लेश्या-‘द्युति’
प्रभाव स्थिति ।।२०।।
गति, शरीर, परिग्रह ‘मान’
द्यु-द्यु हीयमान ।।२१।।
‘लेश्या’-पीत दो द्यु-तीन पद्म
शेष शुक्ल द्यु सद्म ।।२२।।
नौ ग्रैवेयक से पूर्व-पूर्व
संज्ञा कल्प अपूर्व ।।२३।।
ब्रह्म लोक में रहते
‘लोकान्तिक’ ‘देव’ कहते ॥२४॥
सारस्वत, आ-दिव्य
अरुण, गर्द-तोय, तुषित,
वहि्न, अरिष्ट, अव्याबाध
वरिष्ठ लौकान्तिकाऽऽठ ॥२५॥
द्विचरम
चौ विजयादि में लेने वाले जनम ।।२६।।
देव-नारकी मनुष्य न्यारे
जीव तिर्यंच सारे ।।२७।।
सागर-इक
असुर
अहि-सुर ‘वै’
पल्य त्रिक
सुपर्ण ढाई
‘पल्य’ दो द्वीप
पल्य डेढ़
छः शेष ।।२८।।
कुछ अधिक दो सागर
सौधर्म-युग्म ‘वै’ वर ।।२९।।
सानत औ ‘वै’ वर
कुछ अधिक सात सागर ।।३०।।
दहा सागर
ब्रह्म-‘युग्म’
लान्तौ ‘वै’ चौदा सागर
सोला सागर
‘वै’ ब्रह्म-औ-सतार ठारा सागर
युग्म आनत-प्राणत नाम
‘वै’-वर बीस सागर
युग्म आरण-अच्युत ‘वै’ वर
बाबीस सागर ।।३१।।
और एकेक सागर
ग्रैवेयक नव ‘वै’ वर
और बढ़ेक सागर
विजयादि चार ‘वै’ वर
‘वै’ परावर
सर्वारथ सिद्ध
ते-तीस सागर ।।३२।।
सौधर्मशान
पल्येक ‘वै’ कुछौर
जघन्य मान ।।३३।।
पूर्व-पूर्व ‘वै’ अनन्य
अनन्तर द्यु ‘वै’ जघन्य ॥३४॥
पूर्व-पूर्व ‘वै’-वर
वय जघन्य नरक-अर ।।३५।।
प्रभा रतन
‘वै’ जघन
बरस
हजार दश ।।३६।।
वासी-भुवन
‘वै’ जघन
बरस
हजार दश ।।३७॥
व्यन्तर गण
‘वै’ जघन
बरस
हजार दश ।।३८।।
‘वै’-वर
कुछ अधिक पल्य-एक
देव-व्यन्तर ।।३९।।
‘वै’-वर
कुछ अधिक पल्य-एक
ज्योतिष्क सुर ॥४०॥
देव ज्योतिष्क वय जघन्य
भाग आठवाँ पल्य ॥४१॥
‘वै’ लौकान्तिक परावर
प्रमाण आठ-सागर ॥४२॥
इति मोक्ष-शास्त्रे
चतुर्-थो(ध्)-ध्यायः नमो नमः ।।४।।
‘पंचम अध्याय’
पुद्-गल धर्मा ऽधर्म
औ’काश-दाय
अजीवकाय ।।१।।
भव्य ! ध्यातव्य
धर्माधर्म आकाश
पुद्गल द्रव्य ।।२।।
और हाँ, सुनो
ध्यातव्य सदीव ही
द्रव्य जीव भी ।।३।।
अनूप,
द्रव्य ये नित्य अवस्थित और अरूप ॥४॥
पुद्-गल रूपी है,
आज दिश-किस ये बात छुपी है ।।५।।
आकाश तक
संख्या में यक-यक
द्रव्य,
ध्यातव्य ।।६।।
तथा निष्क्रिय भी
धर्मादिक द्रव्य ये तीनों सभी ॥७॥
जीवेक धर्म
असंख्यात-प्रदेश
‘द्रव्य’ अधर्म ।।८।।
सम्मत-सभ्य
नन्त प्रदेश वाला आकाश द्रव्य ।।९।।
प्रदेश-नन्त-संख्यात-असंख्यात
पुद्-गल ख्यात ।।१०।।
प्रदेश अणु का नहीं होता,
चूँकि, सबसे छोटा ।।११।।
लोकाकाशेक
अवगाह धर्मादि
द्रव्य उल्लेख ।।१२।।
आगाह,
सब लोकाकाश
अधर्म, धर्म और औ’गाह ।।१३।।
विकल्प-राह, प्रदेशेक चल
औ’-गाह पुद्गल ।।१४॥
ले लोकाकाश
भाग-असंख्यातवाँ
औ’गाह जीवा ।।१५।।
प्रदेश जीव,
संकोच-विस्तार
स्व-भाव ज्यों दीव ।।१६।।
‘रे गति धर्म
‘उपकार’ अधर्म
निमित्त स्थिति ।।१७।।
जीव,पुद्गल
दान औ’-काश
उप-कार आकाश ।।१८।।
कृपा पुद्गल महान
तन-मन-वाक्, प्राणापान ।।१९।।
पुद्गल उप-कार
सुख-दुख औ’तार, संहार ।।२०।।
लगाना इक-दूजे को पार
जीवों का उपकार ।।२१।।
काल-वर्तना परिणाम
किरिया ‘परत्व-वाम’ ।।२२।।
न्यारे
‘पुद्-गल’
स्पर्श, रस, गंध व वरण वाले ।।२३।।
शब्द संस्थान छाया तमौर
बन्ध-सूक्ष्मातपौर ।।२४।।
भेद पुद्-गल द्वन्द,
अणु पहला
अगला स्कंध ।।२५।।
भेद, संघात भेद-संघात द्वारा
स्कंध-औ’तारा ।।२६।।
हेतेक ‘भेद’ ही संसार में
अणु अवतार में ।।२७।।
कारण भेद और संघात,
स्कंध चाक्षुष हाथ ।।२८।।
दिव्य उल्लेख
सामान्य लक्षण ‘सत्’ द्रव्य प्रत्येक ।।२९।।
पहचान ‘सत्’ चीन
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य ये तीन ।।३०।।
कारण द्रव्य नित्य कही
‘स्मरण’ है यह वही ।।३१।।
सापेक्ष मुख्य-गौण
विरुद्ध धर्म दो, सिद्ध मौन ।।३२।।
चिकनापन दूसरा रूखापन
बन्ध कारण ।।३३।।
गुण जघन्य अछूता
पुदगलों का बन्ध अनूठा ।।३४।।
समान ‘गुण’ सदृश्य भी
समर्थ बन्ध न कभी ।।३५।।
सुनो, शकत्यंश दो अधिक चाहिए
बन्ध के लिए ।।३६।।
अधिक गुण वाला
ले परिणमा, ज्यों गुड़ गीला ।।३७।।
गुण के साथ-साथ, पर्याय वाला
द्रव्य निराला ।।३८।।
ध्यातव्य हंस ‘मति’-बाल भी,
द्रव्य एक, काल भी ॥३९॥
दिव्य,विशाल
नन्त समय वाला, द्रव्य वो काल ।।४०।।
सुन,
आश्रय-द्रव्य सहित
‘गुण’ गुण रहित।।४१।।
तद्-भाव ‘फिर-के’ रहा बने
परिणाम मायने ।।४२।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
पञ्-चमो(ध्)-ध्यायः नमो नमः ।।५।।
‘षष्ठम् अध्याय’
योग यानी-कि
शरीर की
मन की
‘क्रिया’ वाणी की ॥१॥
‘क्रिया’ मन-वाक्-तन
जो योग कही
आसव्र वही ॥२॥
पुण्य आस्रव
शुभ ‘योग’ अशुभ
पाप आस्रव ॥३॥
ईर्यापथिक
मुक्त ‘कषाय’ युक्त
साम्परायिक ॥४॥
पच्चीस क्रिया
चौ कषाय
अव्रत ‘पाँच’ इन्द्रियाँ ॥५॥
अधिकरण
वीर्य-‘बेजोड’
भाव तीव्र-ज्ञातौर ॥६॥
अजीव-रूप
‘अधि-करण’ रूप
जीव अनूप ॥७॥
कषाय चौ त्रिक्
संरम्भादिक कृतादि
‘योग’ आठ-सौ ॥८॥
‘वे’ निर्वतना-संयोग
‘ते’ निसर्ग औ’
निक्षेप ‘चौ’ ॥९॥
मात्सर्य उप-घात
अन्तराय,प्र-दोष
निह्नव
‘आसादनन’ दर्शन
‘आवरण’
ज्ञान ‘आस्रव’ ॥१०॥
वेद्य-असाता
विद्यमान उभय
इतर-आप
परिवेदन, वध, आक्रन्दन
दुःख शोक ताप ॥११॥
आस्रव साता
राग संयमादि सहज-योग
दान-विरति व
भूत-अनुकम्पा, क्षान्ति व शौच ।।१२।।
अवर्णवाद
केवली, श्रुत, संघ, धर्म, देवाद ॥१३॥
‘मोह’ चारित
तीव्र परिणामात्म कषायोदित ।।१४।।
‘आय’-नारक
भावारम्भ ‘बहुत’ परिग्रह धिक् ॥१५॥
आय,पर्याय तिर्यंच-आय
एक, माया कषाय ॥ १६॥
आय-मानव
आरम्भ ‘भाव’
परि-गिरह लव ॥१७॥
अर पर्याय नर आय
मृदुता
स्वभाव-भाय ।।१८।।
आय अखिल ‘जो ना’
अव्रति और निःशील होना ।।१९।।
निर्जरा-ऽऽकाम
बाल-तप
सराग-‘संयम’-नाम ॥२०॥
‘आय-देवाय’
सम्यक्त्व भी एकौर
हेत बेजोड़ ॥२१॥
नाम-अशुभ संयोग
विसंवाद, वक्रता-योग ।।२२।।
अविसंवाद, ऋजुता योग
नाम-शुभ संयोग ॥२३॥
तीर्थंकराय
दर्शन विशुद्धि, ’वि-नै’-सम्पन्नता,
निरतिचार-शील-व्रत,
अभीक्ष्ण-ज्ञानोपोग,
संवेग, त्याग-तप
समाधि ‘साधु’
वैयाविरत्ति
अर्हत्, आचार्य,
बहु-सुरुत
‘भक्ति’
‘पिरवचन’
वात्सल्य, मार्ग-प्रभावना
ऽऽवश्यक-अपरिहाणि ॥२४॥
आत्म प्रशंसा
पर निन्दा-‘गुण’
औ’ गुण हा ! ‘वंशा’ ॥२५॥
आहा ! निंदात्म
पर-प्रशंसा
असद्गुणो-च्छादन
वृत्ति नम्र
उद्भावन गुण नेक
व अनुत्सेक ॥२६॥
कारण,
आय,
अन्तराय
दानादि विघ्न-करण ॥२७॥
इति मोक्ष-शास्त्रे
षष्-ठमो(ध्)-ध्यायः नमो नमः ।।६।।
‘सप्तम् अध्याय’
हिंसा, असत
चोरी, अब्रह्म, परि-ग्रह ‘विरत’ ॥१॥
अणु ‘विरत’
एक-‘देश’-सरब
‘विरत’ महा ॥२॥
रहे ‘कि बना
‘व्रत’
प्रत्येक पाँच-पाँच भावना ॥३॥
गुप्ति वाक्-मन
ईर्या-दाँ-निक्षेपण
दिवा-भोजन ॥४॥
प्रत्याख्यान ‘भै’
क्रोध, लोभ, प्रहास
ऽनुवीची भाष ॥५॥
वारण ऊन
‘वास’ शून
भो-जन् अविसंवाद ॥६॥
अंग स्त्री
कथा राग
स्मरण रस श्रृंगार त्याग ॥७॥
द्वेषामनोज्ञ
‘विषै’-इन्द्रिय ‘त्याग’
मनोज्ञ-राग ॥८॥
अवद्य-हेय
हिंसादि-यहाँ-वहाँ
अपाय-देय ।।९।।
हिंसादि दुःख ही
भाना, न अथक ही, अरुक भी ॥ १०॥
दीन कारुण्य
मैत्री ‘हर-से’
‘गुण और’ माध्यस्थ्य ॥११॥
काय ‘स्वभाव’ जगत्
‘भाई’
संवेग-वैराग्य हित ।।१२॥
विहँसा मति हंसा
प्राण वियोग करना ‘हिंसा’ ॥१३॥
विहँसा हंसा मत बोलना असत्
‘इंसा’ अनृत ॥१४॥
विहँसा हंसा-बुद्धि
अदत्तादान ‘स्तेय’ प्रसिद्धि ॥१५॥
विहँसा हंसा धी
मैथुन ‘अ-बह्म’ ऐसी चर्चा ही ॥१६॥
विहँसा हंसा विवेक
मूर्च्छा परि-ग्रह उल्लेख ॥१७॥
रहित शल्य-माया, मिथ्या, निदान
व्रति प्रधान ॥१८॥
अगारी व्रति विरले
अनगार व्रति दूसरे ॥१९॥
अणुव्रतों का धारी
कमल-भिन्न-जल, अगारी ॥२०॥
दिग्-देश-दण्ड-अनर्थ सामायिक
प्रोषधोपास
व्रत भोगौर परिमाण
अतिथि संविभागिक ॥२१॥
मारणान्तिक सल्लेखना
साधो ! ले माथे रेख ना ।।२२।।
शंका-कांक्षा
वि-चिकित्सा प्रशंसा
औ’ दृष्टि ‘संस्तव’ ॥२३॥
ऽथ क्रम-बार
व्रत व शील
पाँच पाँच ऽतिचार ॥२४॥
बन्धन, वध
छेद अति-भार
नि-रोध आहार ॥२५॥
वाक् ‘कूट’ लेख
न्यासा-‘पहार’
‘भेद’ मंत्र साकार ॥२६॥
प्रयोग ‘स्तेन’ सम्मान
राज-द्रोह
बाँट हा ! हाट ॥२७॥
विवाह ‘और’ गृहीता
वेश्या ‘क्रीड़ा’
‘अनंग’ ‘तृषा’ ॥२८॥
हिरण्य-स्वर्ण क्षेत्र-वास्तु
दासौर धनान्न, कुप्य ॥२९॥
वृद्धि ‘क्षेत्र’ वि-स्मरण
तिर्यग्-ऊर्ध्वऽधः
ऽतिक्रमण ॥३०॥
‘आनैन’ प्रेष्य ‘क्षेप’
पुद्-गल शब्द-‘नुपात’ रूप ॥३१॥
कौत्कुच्य, व्यर्थ-‘कृत्य’ असमीक्ष्य
कं-दर्प मौखर्य ॥३२॥
विस्मृति, अपमान
मान वाक् तन दुष्प्रणिधान ॥३३॥
शोध न देख
शैन-उत्सर्गादान
स्मृति ‘औ’-मान ॥३४॥
संमिश्राहार
अभिषव-दुःपक्क संबंध ‘सचित्’ ॥३५॥
अपिधान, नि-क्षेप, मात्सर्य,
स्मृति ‘औ’ व्यपदेश ॥३६॥
निदान, रक्षा-प्राण
मरण,
मित्र-सुख-स्मरण ।।३७॥
‘रे अनुग्रह ठान
अपनी वस्तु का त्याग ‘दान’ ॥३८॥
लाये दान में निखार
इति मोक्षशास्त्रे
सप्त-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः ।।७।।
‘अष्टम अध्याय’
‘बन्ध’
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, जोग ॥१॥
जीव कषाय
‘योग’ कर्म पुद्गल संबंध
बंध ॥२॥
प्रकृति, स्थिति, अनुभव, प्रदेश
चौ बंध भेद ॥३॥
ज्ञाना-‘वर्ण’-दृग्, वेद्य, मोहाय
नाम गोत्रान्तराय ॥४॥
जो पाँच,
नौ, दो, ऽठ-बीस
चौ ब्यालीस
दो और-पाँच ॥५॥
मति सुरुत
‘औधि’ मनः पर्यय
केवल ज्ञान ॥६॥
दर्शन-‘औधि’
केवल चक्षु
‘और’ निन्द्रादि पन ॥७।।
ख्यात जो
साता वेदनीय, असाता वेदनीय दो ॥८॥
तीन दर्शन ‘मोह’
चारित्र दो
‘नौ’-‘कषाय’ सोला ॥९॥
नरक ‘आयु’ तिर्यंच, मनुष्यायु
और देवायु ॥१०॥
ॐ गति,जाति,
शरीर, अंगोपांग,
निर्माण, बंध,
संघात, संस्थाँ,
‘संहन’, स्पर्श
रस, गन्ध, वरण,
आनुपूरव्य,
अगुरुलघु,
उप ‘घात’ अपर
आतपोद्योत
उच्छ्वास तीर्थंकर
विहायोगति
अर प्रत्येक शरीर
तिरस सु-भग
सुस्वर
शुभ सूक्ष्म
पर्याप्त स्थिरादेय
यशः कीरति ।।११।।
कर्म-गोत्र दो
उच्च ‘गोत्र’ दूसरा
नीच-गोत्र औ’ ॥१२॥
दानान्तराय
‘लाभ-भोगोपभोग’
वीर्यान्तराय ॥१३॥
सागर तीस कोटाकोट
दृग् वेद्यान्तराय बोध ॥१४॥
‘स्थिति उत्कृष्ट’
सत्तर कोटाकोट, सागर मोह ॥१५॥
सागरोपम
बीस कोटिक कोट
नाम व गोत्र ॥१६॥
‘स्थिति उत्कृष्ट’ आयु
सागरोपम तैतीस साधु ॥१७॥
आगम धारा
वेद्य स्थिति जघन्य मुहूर्त बारा ॥१८॥
‘भी’-पाठ
नाम गोत्र स्थिति जघन्य मुहूर्त आठ ।।१९।।
शेष प्रकृति अन्य
अन्तर्मुहूर्त स्थिति जघन्य ॥२०॥
फलद शक्ति विशेष
‘अनुभव’ जिनोपदेश ॥२१॥
अनूप,
कर्म का जैसा नाम फल तदनुरूप ॥२२॥
कर्म
अपना अपना दे के फल
लेते निकल ॥२३॥
आतम
‘योग’ क्षत्रेक, नंतानंत, कर्म सूक्षम ॥२४॥
वेदनी साता
शुभायु नाम गोत्र पुण्य विख्याता ॥२५॥
पुण्यावशेष
प्रकृति सारीं
पाप संज्ञक न्यारीं ॥२६॥
इति मोक्षशास्त्रे
अष्ट-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः ।।८।।
‘नवम् अध्याय’
जिनोपदिष्ट
आस्रव का निरोध
‘संवर’ इष्ट ॥१॥
गुप्ति समिति
धर्माऽनुपेक्षा
‘परि-ष: जै’ चारित्र ॥२॥
तपसी तप से न सिर्फ निर्जर ही,
संवर भी ॥३॥
मार्ग ‘अपना’ मुक्ति
‘योग’ निग्रह करना गुप्ति ॥४॥
समिति ईर्या भाषा
एषणाऽऽदान
निक्षेपत्सर्ग ॥५॥
क्षमा, मृदु-र्जु
शौच सत् संयं,तप,
त्यागाऽऽकिं-चौर ॥६॥
अनित्या, शर्ण, संसार,
एकत्व,अ-शुचि, अन्यत्व,
‘आस्रौ’, संवर
निर्जरा, लोक, बोधि-दुर्लभ, धर्म ॥७॥
निर्जर
‘हेत’
मार्ग दृढ़तर
जे सह्य
वे परिषह ॥८॥
क्षुधा, तृषा, स्त्री,
शीतोष्ण, दंश, नाग्-न्य,
अरति, चर्या,
निषद्या, शय्या,
आक्रोश, वध, याँचा,
अलाभ, रोग,
तृणस्-पर्श,
सत्कारादि, प्रज्ञा,
अज्ञान-अदृग् ॥९।।
परिषह वान्
चौ-दश
गुणस्थान
दश, दो-दश ॥१०॥
कर्म घातिया संहारा
परिषह तिनके ग्यारा ॥११॥
‘संभौ’ बादर-साम्पराय,
जो परि-षह गिनाय ॥१२॥
आवर्ण ज्ञान
वजह-परीषह प्रज्ञा-अज्ञान ॥१३॥
अन्तराय अ-लाभ हो
अदर्शन दर्शन ‘मोह’ ॥१४॥
नाग्-न्य, अरति
निषद्या-ऽऽकोश, याँचा
सत्कारादि, स्त्री ॥१५॥
वेद्य करण
औ’शेष परिषह अवतरण ।।१६।।
‘आत्मा ले एक’
परिषह उन्नीस विकल्प देख ॥१७॥
समता, छेद, विशुद्धि-परिहार
सूक्ष्मौ ऽथाख्यात ॥१८॥
उपास ‘शून’ रसून
कायक्लेश
वृत्ति ससंख्य ॥१९॥
‘विनै’, स्वाध्याय, प्रायश्चित,
व्युत्सर्ग, ध्याँ, वैयावृत ॥२०॥
ध्याँ बिना क्रम-बार
चौ, पंच, नौ, दो, दश प्रकार ॥२१॥
नौ आलोचना,
प्रतिक्रमण, तदु-भय, विवेक,
व्युत्सर्ग, तप,
छेद, परिहार,
व उपस्थापना ॥२२॥
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, उपचार
विनय-चार ॥२३॥
तप, मनोग, शैक्ष, संघ, कुल, औ’
गण ग्लाँ साधो ॥२४॥
वाचना ऽऽम्नाय
पृच्छना, अनुप्रेक्षा, धर्मोपदेश॥२५॥
त्याग उपधि
बाह्य-अन्तर् तमाम व्युत्सर्ग नाम ॥२६॥
ध्यान,
रोकना अन्तर्मुहूर्त वृत्ति-चित् एक ठान ॥२७॥
ध्यानार्त, ध्यान रौद्र
धर्म्य ध्यान औ’
शुक्ल ‘ध्यान’ चौ ॥२८॥
‘रे धर्म ध्यान
‘दूसरा’
शुक्ल ध्यान हेत निर्माण ॥२९।।
अमनोज्ञ वि-‘योग’ बैठाना
आद्य ध्यानार्त माना ॥३०॥
गोट मनोज्ञ जोग बैठाना
दूजा ध्यानार्त माना ॥३१॥।
चिन्ता वेदना डूबते जाना
तीजा ध्यानार्त माना ॥३२॥
रट आगामी भोग लगाना
चौथा ध्यानार्त माना ॥३३॥
प्रमत्त गुण-स्थान
तलक-वहाँ, ये आर्त ध्यान ॥३४॥
तिजोरी, हिंसा-झूठ
चोरी ‘ध्याँ’ रौद्र
पंचम् गुणस्थान ॥३५॥
आज्ञाऽपाय ‘वि-चै’ विपाक, संस्थान
चौ धर्म्य ध्यान ॥३६॥
पूर्व विद् ज्ञानी
औ’ पृथक्त्व ‘विर्तक’ एकत्व ध्यानी ॥३७॥
केवल, सूक्ष्म क्रिया
प्रतिपाति औ’
ध्यान शुक्ल ॥३८॥
चौ, पृथकत्व
‘वि-तर्के-कत्व
सूक्ष्म क्रि-याप्रतिपातौ ॥३९॥
क्रमशा:
ध्यान शुक्ल ‘योग’
तीनेक-काय आयोग ॥४०॥
पूर्व दो ध्यान
सवितर्क वीचार ऐकाश्रय वान् ॥४१॥
ध्वनि ओंकार है
दूजा शुक्ल ध्यान अवीचार है ॥४२॥
विश्रुत
ऊहा-विशेष ही तर्कणा वितर्क-श्रुत ॥४३॥
वीचार यानी
अर्थ, व्यंजन, योग-संक्रान्ति ध्यानी ॥४४॥
सक्रम
सम्यग्दृष्टि श्रावक
व्रत नन्त-वियोज्य
दर्शन मोह-क्षपक
औ’शमक
औ’शान्त मोह
क्षपक क्षीण मोह
जिन
निर्जर असंख्य गुण ॥४५॥
साधो, पुलाक, वकुश, कुशील,
नि-र्ग्रन्थो स्नातक ॥४६॥
श्रुत, ’संयम-औ’
तीर्थ लिंग स्थान
लेश्योप-पाद ।।४७।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
नव-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः ।।९।।
‘दशम् अध्याय’
मोह ‘क्षै’
ज्ञाना ‘वर्ण’ दृग्
अन्तराय ‘क्षै’ केवल ‘जै’ ॥१॥
हेत-बंध ‘खो-ना’
मोक्ष आत्यन्तिक कर्म ‘क्षै’ होना ॥२॥
उपशमादि व भव्यत्व अभाव
‘मोक्ष सद्भाव’ ॥३॥
सम्यक्त्व ज्ञान
‘केवल’ दर्शन व सिद्धत्व भाव ॥४॥
जीव ऊपर लोकान्त तक जाता
मुक्ति ज्यों पाता ॥५।।
पूर्व प्रयोग
संगाभाव
टूक दो बंध
‘स्वभाव’ ॥६।।
चक्री-चक्र
निर्लेप-तुम्बी
एरण्ड-बीज
शिखाग्नि ॥७॥
धर्मास्तिकाय प्रसिद्ध
वहीं तक गमन सिद्ध ॥८।।
अन्तर, क्षेत्र, काल,
गति, चरित्र,
अल्प-बहुत्व,
प्रत्येक ‘बुद्ध’ बोधित
औ’गाहना
लिंग व तीर्थ ॥९॥
इति मोक्ष-शास्त्रे
दश-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः ।।१०।।
।। इति तत्त्वार्थ-सूत्रम् ।।
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