कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
…पद्यानुवाद…
*मंगलाचरण*
नमो जिणवर अरि-हंताणं ।
णमो सिद्धम् आ-यरि-याणं ।।
उवज्झायाणं णमो णमो ।
सव्व साहूणं णमो णमो ।।
जगत कल्याण आप करते ।
दे अभय-दान पाप हरते ।।
आप जलयान जलध जग में ।
निरत तव विरद गान मग में ।।१।।
देव दुर्लभ गुण रत्नाकर ।
थके सुरगुरु तुम गुण गाकर ।।
कमठ से हार जीत चाले ।
पार्श्व वे त्रिभुवन रखवाले ।।२।।
आप गाथा रचना चाहीं ।
मन्द-मत पढ़ा लिखा नाहीं ।।
धृष्टता कर उलूक बाला ।
सूर्य वर्णन मनु कर चाला ।।३।।
मोह क्षय पा केवल ज्ञाना ।
न होगा तुम गुण गा पाना ।।
प्रकट जल रत्न राश दिखती ।
कहो किसने कर ली गिनती ।।४।।
कखहरा भी न मुझे आता ।
सोच यह कीर्तन तुम गाता ।।
भुजाएँ अपनी फैलाकर ।
बताता शिशु सीमा सागर ।।५।।
विफल जब बड़े बड़े जोगी ।
आप थुति क्या मुझसे होगी ।।
कार्य बिन सोच समझ साधा ।
चहक चिड़िया मनु आराधा ।।६।।
दूर थुति आप ऊर्ध्व रेता ।
नाम भी पाप विहर लेता ।।
ग्रीष्म ऋत पथिक भरे हापी ।
हवा झोंका सरवर काफी ।।७।।
आप जिसके मन में रहते ।
पाप “अब हम चलते” कहते ।।
नाग चन्दन लिपटे काले ।
मोर केका सुन झर चाले ।।८।।
नजर बस पड़ जाये तेरी ।
भागती दिखे निश अंधेरी ।।
देख गोस्वामी को आते ।
चोर पशु छोड़ भाग जाते ।।९।।
तुम्हें क्यों तरण कह पुकारें ।
हृदय हम बिठा तुम्हें तारें ।।
मसक तैरे, जादू मन्तर ।
हवा जो है उसके अन्दर ।।१०।।
काम वशीभूत जगत सारा ।
आप आगे मन्मथ हारा ।।
अग्नि बुझ चाली जिस जल से ।
वही जल वडवानल झुलसे ।।११।।
सार्थ गुरु नाम आप भारी ।
तिरें रख उर तुम संसारी ।।
अगम चिन्तन गौरव गरिमा ।
झलकती करुणा, दया क्षमा ।।१२।।
क्रोध परिणाम पूर्व विनशे ।
भिड़ चले कैसे कर्मन से ।।
यदपि शीतल तुषार होता ।
उजड़ वन हरा भरा खोता ।।१३।।
खोजने तुम्हें सन्त चाले ।
हृदय बैठे डेरा डाले ।।
खोज गर कमल बीज ठाना ।
कर्णिका कमल इक ठिकाना ।।१४।।
ध्यान क्या आप लगाया है ।
दशा परमात्म रिझाया है ।।
अग्नि संजोग देर केवल ।
धातु स्वर्णिम तज भाव उपल ।।१५।।
हृदय जिस आश्रम तुम लेते ।
विदेही उसे बना देते ।।
सुमन यूॅं ही स्वभाव है ना ।
हाथ खुशबू से भर देना ।।१६।।
मान के तुम हम इक भाँती ।
तुम्हें ध्या स्वानुभूति थाती ।।
अमृत यह जल विचार ऐसा ।
‘कि निर्विष विष संशय कैसा ।।१७।।
ब्रह्म हरिहर माने दुनिया ।
तुम्हें शंकर माने दुनिया ।।
पीलिया रोग अगम लीला ।
श्वेत भी शंख दिखा पीला ।।१८।।
समय धर्मोपदेश ‘माया’ ।
वृक्ष भी अशोक कहलाया ।।
रखा सूरज ने आद कदम ।
जीव जग जागा साथ पदम ।।१९।।
पॉंखुरी ऊर्ध्व अधो डण्डल ।
वृष्टि सुर पुष्पों की अविरल ।।
सुमन जो तुम समीप आते ।
अधो गति बन्ध-कर्म पाते ।।२०।।
हृदय गम्भीर सिन्ध द्वारा ।
प्रकट तुम वाक् अमृत धारा ।।
पान कर जिसका भवि प्राणी ।
मेंट लेते आनी-जानी ।।२१।।
दूर तक नीचे जाते जो ।
तुरत फिर ऊपर आते वो ।।
चॅंवर जश ऐसा कुछ गाते ।
नत-विनत गत-ऊरध नाते ।।२२।।
दिव्य धुन श्याम तन सलोना ।
जड़ित मण सिंहासन सोना ।।
स्वर्ण गिर मेर गरजते घन ।
भविक जन मोर थिरते मन ।।२३।।
आप भा-मण्डल अहि-चीना ।
पत्र तर अशोक छवि-छीना ।।
निकटता थारी बड़भागी ।
सचेतन कौन न वैरागी ।।२४।।
देव दुन्दुभि बाजे गगना ।
शब्द करती अँगना-अँगना ।।
निरालस आ, झट इन्हें चुनो ।
यहाँ शिव सारथवाह सुनो ।।२५।।
आप मुख क्षत अँधयार हुआ ।
चन्द्रमा च्युत अधिकार हुआ ।।
सेव हित शश, समेत तारे ।
छत्र मिस देह तीन धारे ।।२६।।
स्वर्ण का कोट प्रताप समां ।
कोट चाँदी कीरत प्रतिमा ।।
कोट इक माणिक दिव पूंजी ।
कान्ति प्रति मूरत ही दूजी ।।२७।।
विनत सुर मुकुटों की माला ।
चरण तुम सेवक तत्काला ।।
सुमन तुम चरण टिके आके ।
लेख लो देख विधि उठा के ।।२८।।
आप पीछे लगना आया ।
तीर भव जल उनने पाया ।।
घड़े से आगे आप कदम ।
तारते शून्य विपाक करम ।।२९।।
नगन तुम जगदीश्वर कैसे ।
न लेखन हो, अक्षर ऐसे ।।
जड़ जिन्हें कहते अज्ञानी ।
उन्हें जानो कैसे ज्ञानी ।।३०।।
क्रोध से भर शठ कमठ चला ।
किया नभ उड़ा धूल धुंधला ।।
न छू पाया छाया तुमरी ।
उलट रज कर्म आत्म जकड़ी ।।३१।।
गरजती भीम मेघ माला ।
चमकती बिजुरी विकराला ।।
धार मूसल पानी दुस्तर ।
कमठ कृत कर्म लेप वज्जर ।।३२।।
मुण्ड माला पहने दौडें ।
प्रेत मुख से ज्वाला छोड़ें ।।
कमठ ने जिन्हें भिंजाया है ।
निकाचित कर्म बुलाया है ।।३३।।
सुमन श्रद्धा, सरगम ओमा ।
हृदय गदगद, पुलकित रोमा ।।
काम सब छोड़ तोर सिमरण ।
उन्हीं का जीवन बस धन-धन ।।३४।।
कान दे अंगुली रख छोड़ी ।
सलंगर द्रोणी कब दौड़ी ।।
मन्त्र तुम नाम न सुन पाया ।
विपद् विषधर दौड़ा आया ।।३५।।
जन्म इस जन्मांतर दूजे ।
आप पद पंकज नहिं पूजे ।।
हा ! पराभव इस भव झोली ।
दिवाली तम, अनरव होली ।।३६।।
बँधी दृग् विमोह अंधियारी ।
दर्श तुम किया न इक बारी ।।
मर्म-भेदी अनर्थ जेते ।
पॉंत लग सभी दुक्ख देते ।।३७।।
जुड़ा तुम श्रुत, यज दर्शन से ।
कहाँ जुड़ सका किन्तु मन से ।।
टूट जो रही ना दुख पंक्ती ।
क्रिया कब भाव शून्य फलती ।।३८।।
भक्त वत्सल ! शरण्य शरणा ।
नाथ हे ! पुण्य भूम करुणा ।।
नत विनत मुझे शरण लीजे ।
दलन दुख अंकुर कर दीजे ।।३९।।
सार भण्डार ! अमंगल हर !
पूर्ण मन भावन ! मंगलकर !
तलक जब सु…मरण ना होवे ।
पलक तव सुमरण न खोवे ।।४०।।
तारने वाले भव जल से ।
दया तुम निस्वारथ बरसे ।।
उठा, रख दो मुझको सुख में ।
नाक तक डूबा जल दुख में ।।४१।।
भक्ति तुम चरण कमल लूटा ।
पुण्य यदि सातिशय अनूठा ।।
तलक जब मैं दूॅं भव फेरे ।
बने रहिये स्वामी मेरे ।।४२।।
भव्य जन जे प्रमाद तज के ।
पुलक, दृग् मुक्ताफल सज के ।।
निरखते अपलक तुम आनन ।
विरचते आप भजन, वे धन ।।४३।।
अहो जन ‘नयन कुमुद चन्द्रा’ ।
पार्श्व हे ! मॉं वामा नन्दा ।।
मैल हाथों का धन पैसा ।
‘निराकुल’ कर लो खुद जैसा ।।४४।।
एकीभाव स्तोत्र पद्यानुवाद
(१)
*मंगलाचरण*
णमो णमो अरिहन्त जिनन्द ।
णमो णमो जिण सिद्ध अणन्त ।।
वन्दण आ-यरीय उवझाय ।
सव्व साहूणं मण वच काय ।।
एक मेक ज्यों पानी दूध ।
कर्म जुड़े स्वयमेव अटूट ।।
भक्ति विनाशे कर्म निकाच ।
आया आश लिये दर सॉंच ।।१।।
जिनके पास मोति श्रुत रूप ।
कहें तुम्हें वे ज्योति-स्वरूप ।।
नापे राह अंधेरा पाप ।
मन जो आन विराजे आप ।।२।।
हर्ष अश्रु ले, गदगद बोल ।
भजा तुम्हें थव मन्त्र अडोल ।।
निकल रोग अहि वामी देह ।
दिखें भागते निस्संदेह ।।३।।
पूर्व गर्भ तुम कंचन भूम ।
पुण्य प्रताप मनस् मासूम ।।
आप विराजे मन जब आन ।
क्या अचरज ? तन स्वर्ण समान ।।४।।
इक निर्बाध तुम्हीं सर्वेश ।
बन्धु अकारण ! जगत् हितेश ।।
सेज चित्त मम आप निवास ।
कर ही दोगे दुक्ख विनाश ।।५।।
भटक भटक अटवी संसार ।
अमृत सरित् नय कथा तिहार ।।
पा साधूॅं जब भीतर डूब ।
दबना दव-दुख, कहॉं अजूब ।।६।।
पल विहार पा पाँवन पर्श ।
कमल कतार स्वर्ण भा-दर्श ।।
मन सर्वांग पर्श पा तोर ।
श्रेय न कौन बढ़ा मुझ ओर ।।७।।
काम विराम ! अमृत ! सुन वैन ।
शिव स्वरूप रख तुमको नैन ।।
रोग रूप कॉंटे विकराल ।
किस विध आंख करेंगे लाल ।।८।।
पाहन ही इक मानस्-तम्भ ।
चूर चूर पर मानस् दम्भ ।।
कारण आप निकटता एक ।
यथा न कहीं और उल्लेख ।।९।।
संस्पर्शित तुम देह पहाड़ ।
अपहरती रज रोग बयार ।।
ध्यान द्वार तुम हृदय प्रविष्ट ।
‘सहजो’ सिद्ध समस्त अभीष्ट ।।१०।।
भव भव प्राप्त दुक्ख तुम ज्ञात ।
शस्त्र घात वत् जिनकी याद ।।
तुम सर्वग, तुम दया निधान ।
क्या करतब अब तुम्हीं प्रमाण ।।११।।
मरण समय सुन कर नवकार ।
स्वर्ग श्वान रत पापाचार ।।
ले मणमाल जाप तुम नाम ।
क्या संदेह ? विभव सुर स्वाम ।।१२।।
निर्मल चरित भले संज्ञान ।
बिन तुम भक्ति रूप श्रद्धान ।।
बन्धन मुहर विमोह किवाड़ ।
किस विध उद्-घाटित शिव द्वार ।।१३।।
अघ अंधयार ढ़का शिव-पन्थ ।
गहन गहन दुख गर्त अनन्त ।।
अगर अगार न तुम धुन दीव ।
होता कौन विमुक्ति करीब ।।१४।।
ढ़की कर्म निधि आतम ज्योत ।
विमत अलब्ध, सुदृष्ट बपौत ।।
भक्त आप ले थवन कुदाल ।
करे हस्तगत वह तत्काल ।।१५।।
स्याद् वाद गिर हिम अवतार ।
सिन्ध अमृत शिव तक विस्तार ।।
तुम पद भक्त गंग अवगाह ।
गत रज कर्म, विगत भवदाह ।।१६।।
आप भाँत मैं सुख संपन्न ।
सन्मति निर्विकल्प उत्पन्न ।।
मिथ्या यदपि तृप्ति अहसास ।
महिमा तुम अचिन्त्य अविनाश ।।१७।।
लहर सिन्ध धुन तुम सत् भंग ।
विरहित मल एकान्त निसँग ।।
कर मन्थन बुध मन मन्दार ।
करे अमृत सेवन चिरकाल ।।१८।।
अस्त्र शस्त्र से रखते प्रीत ।
शत्रु जिन्हें लेते हैं, जीत ।।
देह आप सुन्दर अभिराम ।
क्या वस्त्राभूषण का काम ।।१९।।
इन्द्र आप क्या करता सेव ।
पुण्य सातिशय भरता जेब ।।
तुम शिव पोत लगाते छोर ।
जोग प्रशंसा थुति यह तोर ।।२०।।
वाणी आप अनक्षर रूप ।
अक्षर गम्य न आप स्वरूप ।।
कल्प वृक्ष जैसे फलदार ।
तर अमि भक्ति हृदय उद्गार ।२१।।
द्वेष किसी से तुम्हें न नेह ।
मन तुम परम उपेक्ष विदेह ।।
वैमनस्य मेंटे तुम छांव ।
ऐसा और ना देव प्रभाव ।।२२।।
विरद वाँचते देवी देव ।
ज्ञान मूर्त ! तुम वन्द्य सदैव ।।
किया आपका पल गुण गान ।
प्रद सम चरित ज्ञान श्रद्धान ।।२३।।
दरश, वीर्य, सुख, ज्ञान अनन्त ।
पथि निस्वार्थ आप श्रुति पन्थ ।।
धन्य पुण्य-तन ! शिव-पथ पूर ।
थल निवार्ण बढ़ाये नूर ।।२४।।
तव थव असफल विबुध प्रयास ।
मुझे मति-मन्द कहाँ अवकाश ।।
हित-शिव कल्पद्रुम कल्याण ।
किया बहाने श्रुति सम्मान ।।२५।।
(२)
मंगलाचरण
अरिहंताणं अरिहंताणं ।
सिद्धाणं श्री आयरियाणं ।।
उवझा-याणं उवझा-याणं ।
लोए णमो सव्व साहूणं ।।
एक मेक पय पानी जैसे ।
कर्म बॅंध चले जाने कैसे ।।
भक्ति मेंटती कर्म निकाचा ।
लगा हाथ मेरे दर साँचा ।।१।।
सीप हाथ जिनके श्रुत मोती ।
कहा तुम्हें उन्होंने ज्योती ।।
रह न सकेगा पाप अंधेरा ।
मन मेरे जब आप बसेरा ।।२।।
हर्ष अश्रु ले गदगद वाणी ।
तव थव मन्त्र जाप जप प्राणी ।।
रोग सर्प बिच वामी देहा ।
पकड़ निकालें निस्संदेहा ।।३।।
तव अवतार पूर्व बलिहारी ।
पृथ्वी स्वर्ण मयी हो चाली ।।
हुआ तुम्हें मन-भवन बिठाना ।
क्या अचरज ? तन स्वर्ण समाना ।।४।।
बन्धु अकारण हितु जग तीना ।
जग निर्बाध नेत्र रख लीना ।।
मम मन सेज निवास तुम्हारा ।
अपहर ही लोगे दुख सारा ।।५।।
पग पग भव अटवी चिर नापी ।
पा तुम अमृत कथा नय वापी ।।
साधूॅं नख-शिख उसमें डुबा ।
दबे दाब दुख, कहाँ अजूबा ।।६।।
पल विहार पा तुम पद छाया ।
पद्म कतार स्वर्ण छव आया ।।
मन सर्वांग छुओ तुम मोरा ।
लाभ न कौन श्रेय बेजोड़ा ।।७।।
अमृत वचन झिर तुम मुख चन्दा ।
पिऊॅं भक्ति प्यालन सानन्दा ।।
रोग रूप काँटे भयकारी ।
किस-विध करें आंख नम म्हारी ।।८।।
मानस्-तम्भ यदपि पाषाणा ।
तदपि विहर चाला अभिमाना ।।
वजह निकटता सिर्फ तुम्हारी ।
धन ! धन ! अचिन्त्य महिमा धारी ।।९।।
तुम तन पर्वत मारुत आई ।
रोग धूल मनु शामत आई ।।
ध्यान मार्ग तुम हृदय पधारे ।
देर न, म्हारे वारे न्यारे ।।१०।।
भव भव दुक्ख प्राप्त जो हमको ।
तुम सर्वेश पता ही तुमको ।।
सिहरन उठी याद क्या कीना ।
क्या करतब अब आप प्रवीणा ।।११।।
नेत्र श्वान ने सुरगन खोला ।
सुन नवकार मन्त्र अमोला ।।
ले मण-माल आप गुण गाना ।
क्या सन्देह राज-दिव पाना ।।१२।।
भले ज्ञान चारित्र अनूठा ।
स्रोत भक्ति तुम हृदय न फूटा ।।
मुहर बन्द मोहन वह ताला ।
शिव दर कैसे ? खुलने वाला ।।१३।।
ढ़का मुक्ति पथ पाप अंधेरे ।
दुख रूपी गड्ढे बहुतेरे ।।
आगे तुम धुन चले न दीवा ।
लगे कौन मंजिल से जीवा ।।१४।।
आत्म ज्योति निधि कर्मन झाँपी ।
दृग् धर नन्द हेत ‘अर’ हापी ।।
ले तुम संस्तव रूप कुदाली ।
सहज भक्त ले मना दिवाली ।।१५।।
स्याद् वाद नय हिमगिर निसरी ।
मोक्ष अमृत सागर तक बिखरी ।।
तुम पद भक्ति गंग नदिया में ।
धुलें पाप कब संशय जा में ।।१६।।
आप हृदय लहरे सुख जैसा ।
निर्विकल्प हूॅं मैं भी ऐसा ।।
यदपि धारणा झूठ हमारी ।
पर महिमा तुम अतिशय कारी ।।१७।।
तुम धुन सिन्ध भंग सत् लहरें ।
मल एकान्त विहरतीं विहरें ।।
मन मन्दर मन्थन करतारा ।
सेवन अमृत तृप्त चिरकाला ।।१८।।
सुन्दर आप छाप शश पूना ।
व्यर्थ वस्त्र आभरण प्रसूना ।।
मित्र सभी जग शत्रु न कोई ।
अस्त्र शस्त्र सो नाहक दोई ।।१९।।
इन्द्र आप सेवा क्या करता ।
झोली आप पुण्य से भरता ।।
भव जल तरण तारने वाले ।
बड़े कीमती ये जयकारे ।।२०।।
तव धुन निरक्षरी ओंकारा ।
अ-स्पष्ट मम थुति उद्गारा ।।
तुम गुण गान समर्थ न माना ।
भॉंत कल्पतर प्रद वरदाना ।।२१।।
आप कभी ना आपा खोते ।
रुष्ट किसी से तुष्ट न होते ।।
सन्निधि आप वैर अपहारी ।
यूँ ही विनत न दुनिया सारी ।।२२।।
गाता स्वर्ग आप गुण गाथा ।
दाता ! ज्ञान मूर्ति, जग त्राता ! ।।
तत्व ग्रन्थ विद् भक्त तिहारे ।
भक्त तुम्हारे दिव शिव द्वारे ।।२३।।
वीर्य नन्त, सुख, दर्शन, ज्ञाना ।
जिसने थुति करना तुम ठाना ।।
तर कल्याण पंच तिस झोरी ।
परिणय मुक्ति राधिका गोरी ।।२४।।
तव गुण सिन्ध पार ना जोगी ।
मुझ मत-मन्द धार दृग् होगी ।।
आदर कीना थवन बहाने ।
‘साध निराकुल सहज’ तराने ।।२५।।
विषापहार स्तोत्र पद्यानुवाद
*मंगलाचरण*
जयतु जयतु श्री जी अरिहन्त ।
जयतु जयतु श्री सिद्ध अनंत ।।
प्रनुति सूर, उवझाय प्रणाम ।
नूर जैन नभ नुति अविराम ।।
विद समस्त व्यापार निसँग ।
वयस् दीर्घ जर चढ़ा न रंग ।।
सर्वग कैसे ? स्वात्म निवास ।
महिमा आप नाप आकाश ।।१।।
भले कीर्ति गुण अगम गणेश ।
चाहूँ तुम गुण-गान प्रवेश ।।
दीप अंधेरा करे न दूर ?
पहुॅंच न जहॉं किरण इक सूर ।।२।।
पग पीछे लौटाता इन्द ।
मैं साधूॅं तुम श्रुति अनुबन्ध ।।
भाँत झरोखे थोथे ज्ञान ।
अधिक अर्थ का करूँ बखान ।।३।।
विश्व-दृश्व तुम विद् तिहुँ लोक ।
अगम त्रिजग मानस आलोक ।।
कितने ? तुम कैसे ? चुप बोल ।
तव थव असामर्थ्य कृति मोर ।।४।।
आत्म दोष से पीड़ित बाल ।
कृपा वैद्य पा यथा निहाल ।।
हम संसारी जन नीरोग ।
कृत भव पूर्व आप संजोग ।।५।।
देता रहे दिलाशा भान ।
कल की तरह आज अवसान ।।
दे क्या दे ? धन इक आताप ।
पर मंशा पूरण तुम जाप ।।६।।
सुख पाता करके तुम सेव ।
विमुख उठाता दुख स्वयमेव ।।
किन्तु आप दर्पण मानिन्द ।
कब प्रसन्न ? कब रुष्ट जिनन्द ।।७।।
गर्त सिन्ध, तुम हृदय उदार ।
ऊंट मेर गिर आप पहाड़ ।।
लिये सीम पृथुता नभ भूम ।
कहाँ न तुम ? जन-जन मालूम ।।८।।
परिवर्तन तुम अटल विधान ।
पुनरागमन न, जा शिव थान ।।
तज सुख यहाँ, वहॉं सुख चाह ।
किन्तु बड़ा सामंजस वाह ! ।।९।।
किया भस्म बस तुमने काम ।
वशि पीछे भोला बस नाम ।।
जा लेटे हरि शैय्या नाग ।
नासा दृष्टि रखी तुम जाग ।।१०।।
और पाप घर तुम निष्पाप |
इसीलिये बस शगुन न आप ।।
कर निंदा छोटा सा ताल ।
नाहिं प्रशंसा सिन्ध विशाल ।।११।।
कर्म जीव नर्तन गृह नींव ।
कारण भ्रमण कर्म-थिति जीव ।।
नाव लगाती नाविक पार ।
नाविक बिन कब नाव किनार ।।१२।।
सुख हित, दुख कृत करना प्रीत ।
गुन हित, गाना औगुन गीत ।।
धर्म नाम हिंसा के खेल ।
रेल पेलना शिशु हित तेल ।।१३।।
आप अलावा क्या विष मन्त्र ।
आप रसायन, मणी विष हन्त ।।
औषध इक तुम विष अपहार ।
जाने क्यूँ भटके संसार ।।१४।।
कोन चार चित चित्त तरंग ।
चित्त बाह्य जीवन सतरंग ।।
सहज तुम्हें रखते ही चित्त ।
हाथ हाथ सब हाथ विचित्र ।।१५।।
आप त्रिकाल जानते बात ।
आप एक त्रिभुवन के नाथ ।।
हैं पदार्थ लेकर मर्याद ।
महिमा केवल ज्ञान अगाध ।।१६।।
शचपत क्या करता तुम सेव ।
बॉंध पाल भक्तिन् तट खेव ।।
हाथ छत्र हित आदर सूर ।
सिर छैय्या, पगतल न ततूर ।।१७।।
कहाँ आप अपगत रत-द्वेष ।
अरु इच्छा बिन सुख उपदेश ।।
और नाग, नर, सुर प्रिय रम्य ।
गुण कीर्तिन तुम वचन अगम्य ।।१८।।
आप अकिञ्चन ज्यों फलदार ।
धन सम्पन्न न फल दातार ।।
निकलीं पर्वत नदियॉं नेक ।
सिन्ध न जन्मी नदिया एक ।।१९।।
इन्द्र जगत् सेवा प्रण मण्ड ।
लिये इसलिए सविनय दण्ड ।।
प्रेरक एक आप इस काज ।
प्रातिहार्य अष्टक सरताज ।।२०।।
दृग् निर्धन, श्रीमन् दिन रैन ।
तुम सिवाय निर्धन किन नैन ।।
थित तम, थित प्रकाश ले देख ।
थित प्रकाश दृग् कब तम टेक ।।२१।।
वृद्धि, श्वास, लख दृग् टिमकार ।
वंचित स्वानु-भवन नर-नार ।।
तुम अध्यात्म रूप गत द्वन्द ।
कैसे लखें तुम्हें मत-मन्द ।।२२।।
आप पिता, इनके सुत आप ।
कुल प्रकाश यूँ तुम अपलाप ।।
तजना ले हाथों में सोन ।
मान स्वर्ण की पाहन जोन ।।२३।।
विजय नगाड़ा मोह त्रिलोक ।
विनत सु-रासुर देते ढ़ोक ।।
पर, कब छेड़ तुम्हें की भूल ।
भट मुठभेड़ विनाश समूल ।।२४।।
दृग् औरन गति चार दुरन्त ।
देखा तुमने बस शिव पन्थ ।।
देख भुजा न किया गुमान ।
‘के जानूँ मैं तीन जहान ।।२५।।
राहु सूर पीछे दव नीर ।
सिन्धु परेशां प्रलय समीर ।।
साथ वियोग भाव जग भोग ।
अक्षर आप ज्ञान नीरोग ।।२६।।
बिन जाने कर तुम्हें प्रणाम ।
तथा यथा बुध नुत परिणाम ।।
मान हरित मण कॉंच समान ।
कब दरिद्र ? मण माणिक-वान ।।२७।।
दग्ध कषाय देव व्यवहार ।
चतुर मधुर भाषण व्यापार ।।
‘मंगल’ घट फूटा क्या मीत ।
बुझा दीप ‘बढ़ना’ जग-रीत ।।२८।।
अनेकान्त श्रुत गत रत-रोष ।
कहे आप वक्ता निर्दोष ।।
बोल नाम सार्थक संयुक्त ।
कहें, कौन रोगी ज्वर मुक्त ।।२९।।
बिन वाञ्छा तुम प्रणव निनाद ।
सिर्फ नियोग, न दूजी बात ।।
साथ चांदनी निकले इन्द ।
पूर बढ़ चले ‘सहजो’ सिन्ध ।।३०।।
धवल आप गुण परम गभीर ।
तुम गुण-सिन्ध भले यूँ तीर ।।
और किसी विध तुम गुण अन्त ।
देखा गया न हे ! गुणवन्त ।।३१।।
थुति न सिर्फ सरवारथ सिद्ध ।
नुति सपेक्ष, ‘मृति’ भक्ति प्रसिद्ध ।।
सुमरूॅं, भजूँ, नमूॅं सिर टेक ।
साधित साध्य उपाय प्रतेक ।।३२।।
अधपत आप नगर तिहु धाम ।
नित्य ज्योत वन्दन त्रिक-शाम ।।
विगत पाप, कब पुण्य समेत ।
औरन पुण्य सातिशय हेत ।।३३।।
अन्य अगोचर विदित स्वरूप ।
विरहित शब्द, पर्श, रस, रूप ।।
सुमरण अगम यदपि जिनराज ।
तदपि करूँ मैं सुमरण आज ।।३४।।
याचित श्रीमन् यदपि अकिंच ।
गुण गभीर पर-मनस् अचिन्त्य ।।
विश्व पार ! कब जिनका पार ।
शरण चरण वे जिन अविकार ।।३५।।
ढ़ोक त्रिलोक दीक्ष गुरुदेव ।
वर्धमान उन्नत स्वयमेव ।।
पाहन पूर्व न, पर्वत बाद ।
मेर न फिर गिर कुल विख्यात ।।३६।।
बाध्य न बाधक, एक स्वरूप ।
गत गौरव लाघव चिद्रूप ।।
काल कला क्षत अक्षत ज्योत ।
चरणन तुम भेंटूॅं दृग्-मोत ।।३७।।
वर व माँगता बन के दीन ।
क्षीण-राग तुम रोष-विहीन ।।
आप वृक्ष तर छाया लाभ ।
कहो ? यॉंचना से क्या लाभ ? ।।३८।।
यदि आग्रह मॉंगो वरदान ।
लगन चरण तुम करो प्रदान ।।
होगी शीघ्र दया बरसात ।
शिख विनम्र गुरु करुणा पात्र ।।३९।।
साध भक्ति तुम बीस उनीस ।
पूरण मन भावन जगदीश ! ।।
‘सहज-निराकुल’ भक्ति विशेष ।
साथ धनंजय करे स्वदेश ।।४०।।
भूपाल चतुर्विंशति स्तवन
…पद्यानुवाद…
छुये जो भगवन् के चरणा ।
सुबह उठ, ले श्रद्धा सुमना ।।
आ पड़े सुख-सुरगन झोरी ।
उसी की शिव राधा गोरी ।।१।।
हहा ! संसार मरुस्थल सा ।
तुम घनी छाया के विरछा ।।
पाप-संताप ताप पाया ।
आप द्वारे न कौन आया ।।२।।
आज तुम दर्शन क्या पाये ।
कूप माँ गर्भ बहिर आये ।।
पा गई आँख रोशनी ‘नौ’ ।
आज भव सफल हुआ मानो ।।३।।
कहाँ यह वैभव सम-शरणा ।
और निस्पृहता आभरणा ।।
चरित महिमा अगम्य थारी ।
सर्व-दर्शी ओ ! त्रिपुरारी ! ।।४।।
किया मर्दन विमोह मल का ।
ज्ञान दर्पन तुम जग झलका ।
राज्य छोड़ा जैसे माटी ।
न यूँ अर अचरज परिपाटी ।।५।।
सुभग लगने वाले मन को ।
तुम्हें देखा जिसने क्षण को ।।
नाम सार्थक दीना दाना ।
तप तपा, की पूजा नाना ।।६।।
किये बस कान न गुण थारे ।
अमिट थापे उर गुण सारे ।।
पार श्रुत वह अपने जैसा ।
गुण रतन भूषण ! ना वैसा ।।७।।
ढुराते जिन्हें देव वृन्दा ।
गौर हूबहू किरण चन्दा ।।
लसित चितवन शिव वधु तरुणा ।
चॅंवर जिन जयन्त भू गगना ।।८।।
छत्र, दुन्दुभ, सुर-तरु, गीता ।
चॅंवर, झिर गुल, भावृत, पीठा ।।
अष्ट ये प्रातिहार्य धारी ।
करो जिनवर रक्षा म्हारी ।।९।।
दन्त-गज वन कमलन थिरकी ।
मण्डली देवी सुरपुर की ।।
बजे बाजे युगपत् जेते ।
दिव्य देवागम जै जै ते ।।१०।।
आँख अमृत झरना जिसमें ।
तेज अनुपम ऐसा किसमें ।।
चन्द्र मुख आप देखते ही ।
नेत्र कृतकृत, दृग्-धर मैं ही ।।११।।
मल्ल पै जगत् इन्हें बोला ।
ग्रसित मनमथ मोहन भोला ।।
मल्ल वैसे हो तुम एका ।
उर्वशी, रम्भा, सिर टेका ।।१२।।
आप दर्शन इच्छा ज्यों की ।
पल्लवित पुण्य वृक्ष त्यों ही ।।
फुल्ल नजदीक आप पहुंचे ।
लखा मुख लागे फल गुच्छे ।।१३।।
शमन कामानल जल धारा ।
करण गटगट प्रवचन धारा ।।
मेघ थिरकत सुरपत मोरा ।
और नहिं जश जिन सा धौरा ।।१४।।
प्रदक्षिण जिनगृह त्रय कीनी ।
अंजलि मुकुलित सिर लीनी ।।
आप चरणन पाई छाया ।
उन्होंने विघटाई माया ।।१५।।
आप नख मण्डल आईना ।
जिन्होंने देखा मुख अपना ।।
कान्ति, लक्ष्मी, धीरज पाई ।
कीर्ति उनकी मंगलदाई ।।१६।।
अमृत झिर गिर श्री नृप देवा ।
गेह लक्ष्मी दिव-शिव खेवा ।।
पताका धर्म तर विराजी ।
जैन मन्दिर जय नभगाजी ।।१७।।
देव, नर, नाग करें पूजा ।
तरण तारण न और दूजा ।।
पिण्ड छूटा जो कर्मों से ।
नाथ मैं सिर्फ तुम भरोसे ।।१८।।
सुबह सोकर जैसे उठते ।
वस्तु मंगल दृग् जा तकते ।।
आपके मुख जैसा कोई ।
न मंगलकर अर जग दोई ।।१९।।
कीर सद्धर्म तपोवन के ।
कोकिला काव्य नन्द वन के ।।
हंस सरवर पंकज गाथा ।
मुकुट गुणमण नुति जग त्राता ।।२०।।
स्वर्ग शिव सुख रख अभिलाषा ।
तपे तप, जप भज वनवासा ।।
भक्त तुम वचन भावना भा ।
व्याह लेते दिव-शिव राधा ।।२१।।
देवि मंगल, जश गन्धर्वा ।
न्हवन सुरपत नियोग सर्वा ।।
सोच, अब करतव क्या हमरा ।
दोल बन दोलायित हिवरा ।।२२।।
जन्म कल्याणक आराधा ।
नृत्य ताण्डव सुरपत साधा ।।
देवि झण-झण झंकृत वीणा ।
विवर्णन हो सकता ही ना ।।२३।।
देख प्रतिमा तुम मनहारी ।
हमें आनन्द बड़ा भारी ।।
देव अपलक लखने वाले ।
धरण सुख वर्णन कर हारे ।।२४।।
आज मन्दिर श्री जी देखा ।
सदन चिन्तामण ही देखा ।।
रसायन का घर देखा है ।
सिद्ध-रस कब अनदेखा है ।।२५।।
आप थुति जल अवगाहूँ मैं ।
पाप पन कषाय दाहूँ मैं ।।
निराकुल सुख इक आसामी ।
पुन: दर्शन होवे स्वामी ।।२६।।
(२)
सुबह सुबह भगवान् के,
जो उठ छूता पाँव |
स्वर्गों के सुख भोग के,
जा लगता शिव गॉंव ।।१।।
मरुथल यह संसार है,
छाँव दार तरु आप ।।
कौन ना भागा आ रहा,
तप्त पाप संताप ।।२।।
गर्भ कूप माँ नीसरा,
सफल जन्म मम आज ।
नेत्र पा गया तीसरा,
कर दर्शन जिनराज ।।३।।
महिमा अगम्य आपकी,
सर्व-दर्शी बड़भाग ।
विभव समव-शरणी कहाँ,
कहाँ आप नीराग ।।४।।
तृणवत् छोड़ा राज्य है,
मोह मल्ल को जीत ।
दर्पन-वत् झलका सभी,
और न ऐसी रीत ।।५।।
श्रद्धा से देखा तुम्हें,
अधिक न क्षण एकाध ।
दान दिया, तप भी किया,
समेत पूजा-पाठ ।।६।।
गुण तुम सुन के कान से,
किया हृदय श्रृंगार ।
गुण-मण भूषण धन्य वे,
जल स्कंध-श्रुत पार ।।७।।
देव ढ़ोरते हैं जिन्हें,
किरण चन्द्रमा भाँत ।
मण्डित चॅंवर जिनन्द वे,
जयवन्ते दिन-रात ॥८।।
छत्र, चॅंवर, धुन, वृत्त-भा,
सुर-तरु, दुन्दुभि-देव ।
पीठ, पुष्प, झिर पुन-धरा,
रक्षा करें सदैव ।।९।।
निरत नृत्य दिव देवियाँ,
वन कमलन गज दन्त ।
बाज देव बाजे रहे,
देवागम जयवन्त ।।१०।।
आँख अमृत झिर, शश प्रभा,
निरुपम मुख तुम देख ।
दृग् कृतार्थ मैंने किये,
दृग्-धर मैं ही एक ।।११।।
मोहन मोहित हो चले,
बस भोला शिव नाम ।
आप रहे जागृत सदा,
लागा दाव न काम ॥१२।।
तुम दर्शन अभिलाष से,
पल्लव पुन विरवान ।
फुल्ल पाय नजदीकता,
मुख देखत फलवान ।।१३।।
कामानल ‘के बुझ चले,
प्रवचन तुम जल धार ।
इन्द्र मोर लख झूमते,
धन ! जिनन्द जयकार ।।१४।।
भक्त भ्रमर तरु चैत्य की,
दे प्रदक्षिणा तीन ।
हाथ जोड़ चरणन खड़ा,
मनु ‘शिव’ दाता-दीन ।।१५।।
नख दर्पण में आपके,
मुख देखा चिरकाल ।
पाय, कान्ति, धृति, जश, रमा,
उसका उन्नत भाल ।।१६।।
निर्झर अमि नृप-इन्द्र श्री,
पर्वत, लक्ष्मी गेह ।
केत धर्म तरु जयत जै,
गृह-जिन देह विदेह ।।१७।।
कर्म शत्रु क्षण-मात्र में,
किये चित्त चउ-कोन ।
जयतु जयतु जिन-देव जै,
अर्चनीय तिहु भौन ।।१८।।
दर्शनीय हैं वस्तु जे,
सुबहो मंगलकार ।
अथ-इति शशि मुख आपका,
अंगुलि अनाम कतार ।।१९।।
शुक तप-वन सद्धर्म-भो,
पिक वन नन्दन छन्द ।
हंस पद्य सरवर कथा,
गुण-मण मौल जयन्त ।।२०।।
और दाह तन दे चलें,
स्वर्ग-मोक्ष रख चाह ।
भक्त आप जा शिव लगे,
ले धुन दिव्य पनाह ।।२१।।
न्हवन इन्द्र, गन्धर्व जै,
मंगल तिय-सुर अन्य ।
किं कर्तव्य विमूढ़ मैं,
साध बनूँ क्या ? धन्य ।।२२।।
नृत्य नाम ताण्डव किया,
सुरपति पल अभिषेक ।
झण-झण धुन वीणा शची,
वचन अगम अभिलेख ।।२३।।
रख प्रतिमा दृग् आपकी,
इतना जब आनन्द ।
अपलक देव निहारते,
सुख वर्णन कब सन्ध ।।२४।।
आज देख जिन धाम को,
देखा गृह रस-सिद्ध ।
देखा घर चिन्ता-मणी,
गेह रसायन रिद्ध ।।२५।।
तव थव सरित् निमग्न मैं,
मेंटूॅं तापज खेद ।
चित्त लगाता आपमें
‘दर्शन पुनः’ समेत ।।२६।।
(३)
करुणा क्षमा भण्डारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।
उठ के ले सुमन श्रृद्धान ।
छूते पॉंव श्री भगवान् ।।
वे शिव-स्वर्ग अधिकारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१।।
मरुथल भाँत यह संसार ।
भगवन् वृक्ष छायादार ।।
गुम अघ-धूप दृग् लाली ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२।।
दर्शन किये क्या जिनराज ।
निकला गर्भ माँ मनु आज ।।
धन भव ! बना दृग्-धारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।३।।
वैभव समशरण बड़भाग ।
अचरज ! और यह वैराग ।।
महिमा तुम अगम भारी ।।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।४।।
जीरण तृण समां तज राज ।
हन भट-मोह सिर शिव-ताज ।।
छव ऐसी ना अर न्यारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।५।।
जिसने तुम्हें श्रद्धा साथ ।
रक्खा नैन क्षण एकाध ।।
उसकी मनी दीवाली ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।६।।
मन से किया तुम गुण-गान ।
जिसने किये गुण तुम कान ।।
धन ! इक वही पुनशाली ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।७।।
भासे चन्द्रमा से गौर ।
ढ़ोरें देव चौंषठ चौंर ।।
जय जय शब्द नभ भारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।८।।
गुल, छत, चॅंवर, धुन संगीत ।
धृत वृत्त-प्रभा, सुर-तरु, पीठ ।।
त्राहि-माम् त्रिपुरारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।९।।
सार्थक नाम पन-कल्यान ।
देवी-देव द्युपुर आन ।।
पुन भव एक अवतारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१०।।
तेजोमय अमृत झिर आँख ।
शशि मुख आप यूँ दृग् राख ।।
कृतकृत आंख जुग म्हारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।११।।
सुर तिय डग भरा, भर दम्भ ।
सार्थक नाम उवर्शी, रम्भ ।।
‘राखी नाक’ अधिकारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१२।।
दर्शभि-लाष पल्लव वान ।
पुन-द्रुम फुल समीप प्रयाण ।।
लख अब तुम सफल क्यारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१३।।
जल उपदेश दव रति-वेग ।
इन्द्र मयूर जिनपति मेघ ।।
‘जय’ पुन सातिशय कारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१४।।
जिनगृह प्रदक्षिण दे तीन ।
श्री फल हाथ सुमरन लीन,
शिव मैं, अब न संसारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१५।।
मुख जे तकें भाव विभोर ।
दर्पण रूप नख में तोर ।।
लें टक चुनर शश तारी ।।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१६।।
पर्वत अमृत झिर सिरि स्वाम ।
सार्थक पताका जिन-धाम ।।
जय जिन चैत्य आधारी ।।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१७।।
जिनके भक्त सुर, नर, नाग ।
क्या ले चुरा कर्म, सजाग ।।
जिन वे एक शरणा ‘री ।।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१८।।
दर्शन जोग प्रात सकार ।
कोई वस्तु मंगलकार ।।
बढ़ क्या आप चरणा ‘री ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१९।।
शुक वन धर्म, पिक वन छन्द ।
मानस हंस ! गाथा ग्रन्थ ।।
तुम गुण ‘सुमन’ श्रृंगारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२०।।
करके लक्ष्य दिव-शिव सौख ।
जप, तप, नियम नियमित लोक ।।
रति तुम यूंहि शिवकारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२१।।
मंगल देवि, जश गन्धर्व ।
सुरपत न्हवन रत कृत सर्व ।।
मम किम् कृत विमूढ़ा ‘री ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२२।।
सुरपत नृत्य आप प्रकार ।
वीणा देवि अन झंकार ।
वर्णन जोग वह ना ‘री ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२३।।
प्रतिमा आज राख जिनन्द ।
इतना मुझे जब आनन्द ।।
दिव दृग् गैर टिमकारी ।।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२४।।
चिन्तामण, रसायन, रिद्ध ।
देखा धाम निध रस-सिद्ध ।।
जिनगृह दृष्टि क्या डाली ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२५।।
सुख सहजो-निराकुल खूब ।।
तव थव सरसि साधो डूब ।।
दर्शन आश पुनि थारी ।।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२६।।
दर्शन पाठ पद्यानुवाद
(१)
किया दर्शन देव देवा ।
स्वर्ग शिरपुर पार खेवा ।।१।।
सार्थ दर्शन अघ छुड़ा के ।
टिके जल कब छिद्र पा के ।।२।।
पद्मराग समान मुखड़ा ।
देखते ही दूर दुखड़ा ।।३।।
दर्श जिन रूपी रवि का ।
अघ अंधेरा दूर दीखा ।।४।।
दर्श जिनवर रूप चन्द्रा ।
उमड़ता बढ़ सिन्धु नन्दा ।।५।।
खिर चली धुनी ओम न्यारी ।
जयतु जय जिनवर तुम्हारी ।।६।।
सच्चिदा-नन्दैक रूपा ।
सिद्ध परमातम अनूपा ।।७।।
अन्यथा रक्षक न कोई ।
शरण इक तुम जहाँ दोई ।।८।।
आप रक्षक गगन गूंजा ।
तुम सिवा रक्षक न दूजा ।।९।।
भक्ति जिन नित मिले मुझको ।
भक्ति जिनपत मिले मुझको ।।१०।।
दया बिन पद चक्रि बोझा ।
दृग् सजल निर्धन सरोजा ।।११।।
देव दर्शन पापहारी ।
विहर भव जर यम बिमारी ।।१२।।
=दोहा=
आज तुम्हें ज्यों ही किया,
मैंने नैनन द्वार ।
मात्र चुलुक भर रह गया,
मेरा जल संसार ।।१३।।
(२)
धुन ।
जिन ।।
पुन ।
धन ! ।।१।।
लज ।
रज ।।
‘गज’ ।
भज ।।२।।
लख ।
मुख ।।
सुख ।
रुख ।।३।।
‘रव’ ।
छव ।।
भव ।
नव ।।४।।
शश ! ।
जश ।।
दिश् ।
दश ।।५।।
पुरु ! ।
गुरु ! ।।
विभु ! ।
प्रभु ! ।।६।।
बुध ! ।
सिध ! ।।
रिध ।
निध ।।७।।
दय ।
जय ।।
क्षय ।
भय ।।८।।
नख- ।
शिख ।।
‘रख’ ।
अख ।।९।।
नित- ।
प्रति ।।
श्रुति ।
रति ।।१०।।
इक ।
त्रिक ।।
धिक् ।
पिक ।।११।।
गद ।
मद ।।
हत ।
सत ।।१२।।
जग ।
‘मग’ ।।
लग ।
दृग् ।।१३।।
(३)
दरश ।
ऽऽदरश ।
परश ।।१।।
नमन ।
श्रमण ।
सुमन ।।२।।
वदन ।
नयन ।
शगुन ।।३।।
चरण ।
अरुण ।
करुण ।।४।।
‘सउम’ ।
प्रणम ।
ब्रिहम ।।५।।
नगन ।
लगन ।
मगन ।।६।।
प्रसिध ।
विशुध ।
प्रणुत ।।७।।
किरण ।
‘करण’ ।
शरण ।।८।।
विरख ।
निरख ।
सदख ।।९।।
दरिद ।
भगत ।
जगत ।।१०।।
जनम ।
शरम ।
रहम ।।११।।
जनन ।
मरण ।
तरण ।।१२।।
सुभग ।
दिरग ।
सुरग ।।१३।।
(४)
हर्ष ।
दर्श ।।
तोर ।
छोर ।।१।।
मुक्ति ।
भक्ति ।।
आप ।
पाप ।।२।।
वीत- ।
प्रीत ।।
राग ।
जाग ।।३।।
नूर ।
सूर ।।
आँख ।
साख ।।४।।
वक्त्र ।
चन्द्र ।।
नैन ।
चैन ।।५।।
क्षान्त ।
शान्त ।।
रूप ।
नूप ।।६।।
सिद्ध ।
बुद्ध ।।
लोक ।
ढ़ोक ।।७।।
रक्ष ।
रक्ष ।।
शर्ण ।
तर्ण ।।८।।
त्रातृ ।
भाँत ।।
आप ।
आप ।।९।।
प्राप्त ।
आप्त ।।
देव ।
सेव ।।१०।।
साथ ।
पाथ ।।
भृत्य ।
युक्त ।।११।।
रोग ।
योग ।।
सन्त ।
हन्त ।।१२।।
आज ।
नाज ।।
दृष्टि ।
वृष्टि ।।१३।।
(५)
शिवपुर ।
भव सुर ।।
दर्शन ।
अघ हन ।।१।।
अर्चन ।
मुनि गण ।।
कल्मष ।
यम ग्रस ।।२।।
गत रत ।
अरहत ।।
सुमरण ।
सु-मरण ।।३।।
पति दिन ।
नुति जिन ।।
अन्धर ।
यम घर ।।४।।
गुण जश ।
जिन शश ।।
वर्धन ।
सुख धन ।।५।।
अम्बर ।
दिग् धर ।।
जय जय ।
क्षय भय ।।६।।
शुद्धम् ।
सिद्धम् ।।
नन्दन ।
वन्दन ।।७।।
शरणम् ।
चरणम् ।।
जिनवर ।
गुणधर ।।८।।
रक्षक ।
तिहु जग ।।
इक तुम ।
दृग् नम ।।९।।
नुति जिन ।
रति जिन ।।
वर हित ।
अर्चित ।।१०।।
निर्धन ।
दय धन ! ।।
‘चक्कर’ ।
बिन उर ।।११।।
ध्यां क्षय ।
आमय ।।
जनमर ।
यम जर ।।१२।।
निरखत ।
जिनपत ।।
पावन ।
आँखन ।।१३।।
(६)
अपवर्ग ।
प्रद स्वर्ग ।।
पद पर्श ।
जिन दर्श ।।१।।
तुम जाप ।
गुम पाप ।।
चल देत ।
जल छेद ।।२।।
पथ जाग ।
गत राग ।।
मुख देख ।
सुख रेख ।।३।।
धन ! नूर ।
जिन सूर ।।
तुम चित्त ।
तम चित्त ।।४।।
सानन्द
जिन चन्द ।।
रख नैन ।
सुख चैन ।।५।।
दिक् चीर ।
दृग् नीर ।।
दयवन्त ।
जयवन्त ।।६।।
रिध हाथ ।
सिध साध ।।
नुति नित्य ।
हित सत्य ।।७।।
शिव तर्ण ।
दिव शर्ण ।
बस आप ।
निष्पाप ।।८।।
तुम मात्र ।
इक त्रात ।।
तिहु लोक ।
बहु ढ़ोक ।।९।।
दिन-नक्त ।
जिन भक्त ।।
ओ ! आप्त ।
हो प्राप्त ।।१०।।
धन विथा ।
जिन जुदा ।।
जय दीन ।
दय लीन ।।११।।
तुम योग
गुम रोग ।।
भवि, जीर्ण ।
भव, मर्ण ।।१२।।
पुन नाज ।
धन ! आज ।।
दृग् मोर ।
लख तोर ।।१३।।
(७)
दर्शन तव ।
दिव-शिव नव ।।१।।
यति वन्दन ।
इति बन्धन ।।२।।
लख जिन मुख ।
दुख हन सुख ।।३।।
रवि जिनवर ।
गत अन्धर ।।४।।
अरहत शश ।
अर्चत जश ।।५।।
अम्बर दिक् ।
दृग् रख इक ।।६।।
बुध आगम ।
सिध आतम ।।७।।
फकत शरण ।
महत् चरण ।।८।।
रक्षक तुम ।
जगत् कुटुम ।।९।।
रति जिनपत ।
यति निरखत ।।१०।।
सजिन विरद ।
शगुन दरिद ।।११।।
जिन सुमरण ।
धन ! सु-मरण ।।१२।।
धन ! नयनन ।
जिन दर्शन ।।१३।।
(८)
देव दर्शन ।
हर्ष तत्क्षण ।।
हाथ सपना ।
घाट अपना ।।१।।
दर्श साधो ।
पर्श पादौ ।।
पाप झिरता ।
काल डरता ।।२।।
मुख विरागा ।
पद्म रागा ।।
देख लीना ।
अघ विलीना ।।३।।
सूर जिनवर ।
दूर अन्धर ।।
पद्म भवि मन ।
सद्म शिव धन ।।४।।
चन्द्र जिनवर ।
दाह भव हन ।।
अमृत बर्षण ।
सौख्य वर्धन ।।५।।
दिशा अम्बर ।
न आडम्बर ।।
अरहत प्रभो ।
जयतु जय हो ।।६।।
बन्ध विजयी ।
नन्द विनयी ।।
सिद्ध देवा ।
नुति सदैवा ।।७।।
शरण एका ।
चरण नेका ।।
करो रक्षा ।
न अर इच्छा ।।८।।
जगत् त्राता ।।
जयत दाता ।।
तुम अलावा ।
कौन बाबा ।।९।।
भक्ति जिनवर ।
रात्रि दिन भर ।।
मिले मुझको ।
ढ़ोक तुझको ।।१०।।
जिन करीबा ।
धन गरीबा ।।
बिन जिनेशा ।
भार पैसा ।।११।।
तोर जोगा ।
तोड़ रोगा ।।
जरा मरना ।
अर जनमना ।।१२।।
धन्य आंखें ।
तुम्हें निरखें ।।
जलधि भव मम ।
आज चुलुकम् ।।१३।।
(९)
दर्शन देवा ।
दिव-शिव खेवा ।।१।।
माटी माधो ।
दर्शन ‘साधो’ ।।२।।
पाप निकन्दा ।
जाप जिनन्दा ।।३।।
‘सूर’ सबेरा ।
दूर अंधेरा ।।४।।
नुति जिन चन्दा ।
अमृता-नन्दा ।।५।।
प्रशान्त रूपा ।
जय चिद्रूपा ।।६।।
वधु शिव कन्ता ।
सिद्ध अनन्ता ।।७।।
करण्ड करुणा ।
शरण्य शरणा ।।८।।
रक्षक कोई ? ।
तुम जग दोई ।।९।।
मिले हमेशा ।
भक्ति जिनेशा ।।१०।।
भला गरीबा ।
दया करीबा ।।११।।
तोर सहारे ।
रोग किनारे ।।१२।।
धन ! धन ! अंखिया ।
दर्श जिन किया ।।१३।।
(१०)
दर्शन जिनन्द ।
हन पाप बन्ध ।
जल-यान स्वर्ग, अपवर्ग स्यन्द ।।१।।
दर्शन जिनेश ।
निरसन कलेश ।
जल छिद्र ओक रिसता अशेष ।।२।।
लख पद्मराग ।
मुख तुम विराग ।
अघ विघट प्रकट झट एक जाग ।।३।।
जिन सूर दर्श ।
मन पद्य हर्ष ।
तम नाश प्रकाश अपूर्व पर्श ।।४।।
लख चन्द पून ।
सुख सिन्ध दून ।
वृष अमृत बिन्द भव दाह शून ।।५।।
सम्यक्त्व आद ।
गुण युक्त आठ ।
वन्दन प्रशान्त ! अन्तस् विराट ।।६।।
सिद्धात्म नन्त ।
परमात्म पन्थ ।
वन्दन सदैव आनन्द-वन्त ।।७।।
जुग चरण तोर ।
इक शरण मोर ।
रक्षक न और तुम चरण छोड़ ।।८।।
त्राता जहान ।
अपने समान ।
तुम आगत नागत वर्तमान ।।९।।
जिन भक्ति लाभ ।
जिन भक्ति लाभ ।
मिल सके सदा प्रद अमित आभ ।।१०।।
जिन धर्म छाड़ ।
पद चक्र भार ।
दारिद्र भला, जिन-धर्म धार ।।११।।
वैतरण वर्ण ।
लख आप चर्ण ।
क्षय आप आप भव जरा मर्ण ।।१२।।
भव जल वितान ।
अंजुल प्रमाण ।
दृग् जोड़, तोर धन भव पुमान ।।१३।।
(११)
दरश जिनन्द बलिहारी ।
पूरब उदय पुन भारी ।।
दर्शन देव दिव सोपान ।
दर्शन देव शिव जलयान ।।
दर्शन पाप परिहारी ।
दरश जिनन्द बलिहारी ।।१।।
अंजुल छिद्र रिसता नीर ।
कज्जल कब ठहरता पीर ।।
वन्दन साध त्रिपुरारी ।
दरश जिनन्द बलिहारी ।।२।।
भा मण पद्य राग समान ।
मुख गत राग लख भगवान् ।।
दुर्मति द्वार यम प्यारी ।।
दरश जिनन्द बलिहारी ।।३।।
दरश जिनेश रूपी सूर ।
अघ अंधियार करता दूर ।।
भवि मन फुल्ल फुलवारी ।।
दरश जिनन्द बलिहारी ।।४।।
दर्शन चन्द्र अपने भॉंत ।
वर्धन सुख, अमृत बरसात ।।
भव भव दाह मिट चाली ।।
दरश जिनन्द बलिहारी ।।५।।
धुन दिव तत्त्व सत् जीवाद ।
गुण सम्यक्त्व आदिक आठ ।।
रुप प्रशान्त अविकारी ।।
दरश जिनन्द बलिहारी ।।६।।
चित् आनन्द एक स्वरूप ।
आतम तत्व ज्योत अनूप ।।
अष्टम भूम अधिकारी ।।
दरश जिनन्द बलिहारी ।।७।।
आप शरण अकारण एक ।
शरणा इक अमिट अभिलेख ।।
रक्षा कीजिये म्हारी ।।
दरश जिनन्द बलिहारी ।।८।।
त्राता लोक तीन अकेल ।
दाता कहाँ तुम सा मेल ।।
करुणा क्षमा भण्डारी ।।
दरश जिनन्द बलिहारी ।।९।।
पाऊँ भक्ति-जिन दिन रात ।
और न दूसरी फरियाद ।।
मंशा पूर्ण जश-धारी ।।
दरश जिनन्द बलिहारी ।।१०।।
दीन भला करीब जिनेन्द्र ।
विरथा जिन सुदूर नरेन्द्र ।।
जाते पाप-पुन खाली ।।
दरश जिनन्द बलिहारी ।।११।।
मणि जिन दर्श कांचन जोग ।
मिटते मृत्यु भव-जर रोग ।।
पलटे पाप मति काली ।
दरश जिनन्द बलिहारी ।।१२।।
=दोहा=
आज हमारे नेत्र दो,
सफलीभूत जिनेश ।
दर्शन करके आपका,
दिखने लगा स्वदेश ।।१३।।
(१२)
देव दर्शन जो नित करता ।
पाप का नाम निशां मिटता ।।
स्वर्ग सुख सीढ़ी जिनदर्शन ।
प्रथम शिव पैड़ी जिन दर्शन ।।१।।
देव दर्शन से अभी अभी ।
सहज छू मन्तर पाप सभी ।।
छेद वाली अंजुल पाकर ।
टिके कब नीर भले सागर ।।२।।
प्रभा मानिन्द पदम रागा ।
देख मुख चन्द प्रशम रागा ।।
पाप भाव भवनान्तर जोड़े ।
आप यम द्वार तरफ दोड़े ।।३।।
किया जिन रूप सूर दर्शन ।
तिमिर संसार दूर तत्क्षण ।।
कमल मन पुलकित हो चाला ।
पदारथ पाये उजियाला ।।४।।
किया दर्शन मुख जिन चन्दा ।
सिन्ध वृद्धिंगत आनंदा ।।
अमृत सद्धर्म सतत बरसा ।
ताप-भव हाँप उठा सहसा ।।५।।
सिन्ध गुण सम्यक्-त्वादिक धन ।
तत्व जीवादिक प्रतिपादन ।।
दिगम्बर जिन प्रशान्त रूपा ।
ढ़ोक हित स्वानूभूत नूपा ।।६।।
एक आनन्द आत्म चिन्मय ।
अटल परमात्म तत्व निर्णय ।।
सिद्ध परमात्म वे अनंता ।
हृदय आ पहुंचे दृग् पन्था ।।७।।
शरण तुम मुझे जगत दोई ।
शरण तुम सिवाय ना कोई ।।
दया करके, करके करुणा ।
मुझे ले लो अपनी शरणा ।।८।।
आज, कल तुम रक्षक मेरे ।
आप थे कल रक्षक मेरे ।।
बने रहना रक्षक कल भी ।
न होना ओझल तुम पल भी ।।९।।
मिले जिन भक्ति मुझे दिन दिन ।
मिले जिन भक्ति मुझे छिन छिन ।।
सदा जिन भक्ति ज्योत जागे ।
सदा जिन भक्ति लगन लागे ।।१०।।
रहित सद्धर्म जिन अहिंसा ।
प्रशंसित कहाँ पद शहंशा ।।
दास भी, भले गरीबा भी ।
सहित सद्-धर्म जिन प्रभावी ।।११।।
पाप जो संज्ञा ‘गिर’ पाते ।
आप दर्शन से झिर जाते ।।
रोग त्रय जन्म जरा मरणा ।
मिटें छूते ही जिन चरणा ।।१२।।
=दोहा=
आंख अपूरब पा चली,
दर्शन पाके तोर ।
रहा सुदूर न आ चला,
मनु भव सागर छोर ।।१३।।
(१३)
निराकुल करने वाला ।
आपका दर्शन न्यारा ।।
छाँव दिव देने वाला ।
नाव शिव खेने वाला ।।१।।
वज्र मनु पाप पहारा ।
छिद्र अंजुल जल धारा ।।२।।
विरागी वक्त्र निहारा ।
कोटि भव पाप विडारा ।।३।।
दूर मानस अँधियारा ।
सूर पारस जयकारा ।।४।।
दर्शन जिन चन्द्र तिहारा ।
दाह भव एक किनारा ।।५।।
दिगम्बर शान्त निराला ।
दृष्टि सम्यक् करतारा ।।६।।
अपूर्वानन्द नजारा ।
सहज शुद्धातम प्यारा ।।७।।
अकारण एक सहारा ।
एक निस्पृह रखवाला ।।८।।
अकेला तारणहारा ।
जगत त्राता अवतारा ।।९।।
भक्ति जिन रवि शशि तारा ।
अनवरत मंगल-कारा ।।१०।।
दीनता तिल परिवारा ।
बिना जिस पद नृप खारा ।।११।।
जन्म हर अपहर काला ।
बुढ़ापा रोग निवारा ।।१२।।
=दोहा=
आज आप क्या दिख चले,
सफल हमारे नैन ।
चुलुक मात्र भव जल बचा,
लगा हाथ सुख-चैन ।।१३।।
(१४)
दर्शन जिन-देव पाप-हारी ।
सोपान-स्वर्ग, शिव-सुख- कारी ।।१।।
जिन-दर्शन पाप विघटता सब ।
अंजुल-सछिद्र, जल टिकता कब ।।२।।
मुख प्रभा-पद्म लख वीतराग ।
जा पाप खड़े हों, दूर भाग ।।३।।
दर्शन जिन-सूर, चूर भव तम ।
मन कमल प्रफुल्ल पदार्थ सुगम ।।४।।
दर्शन जिन इन्दु सिन्धु-सुख-कर ।
झिर-धर्मामृत भव-दाह-विहर ।।५।।
गुण-सागर ! नगन-प्रशान्त-रूप ।
वन्दन प्रतिपादक तत्त्व-नूप ।।६।।
सिद्धात्म रूप इक चिदानन्द ।
जिन बुध-परमात्म नमन अनन्त ।।७।।
नहिं और, शरण तुम पद्म चरण ।
कर कृपा करो मेरा रक्षण ।।८।।
था रक्षक और न होगा कल ।
जिन वीतराग ! इक बल निर्बल ।।९।।
जिन भक्ति मिले, जिन भक्ति मिले ।
जब तक न मुझे भव-मुक्ति मिले ।।१०।।
निधि रतन व्यथा जिन-धर्म रहित ।
दारिद्र भला जिन-धर्म सहित ।।११।।
क्षय आमय-त्रय, जिन-दर्श आप ।
संचित विनष्ट भव-कोटि-पाप ।।१२।।
=दोहा=
धन्य नेत्र मम हो गये,
जिन दर्शन से आज ।।
चुलुक जन्म-जल रह गया,
जयतु-जयतु जिनराज ।।१३।।
(१५)
करते ही जिन-दर्शन ।
यम प्यारे अघ तत्क्षण ।।
जिन-दर्शन रथ दिवि का ।
जिन-दर्शन शिव शिविका ।।१।।
दर्शन से जिनवर के ।
वन्दन से मुनिवर के ।।
टिकते न पाप त्यों पल ।
अंजुल सछिद्र ज्यों जल ।।२।।
लख पद्म-राग मनहर ।
मुख वीतराग जिनवर ।।
कृत जन्म-जन्म कल्मष ।
जाये खुदबखुद विहँस ।।३।।
जिनवर सूरज दर्शन ।
भवि ! मन पंकज विकसन ।।
रोशन पदार्थ सारे ।
हारे भव अँधियारे ।।४।।
जिन-देव इन्दु दर्शन ।
सुख रूप सिन्धु वर्धन ।।
सद् धर्मामृत बरसा ।
गुम जन्म दाह सहसा ।।५।।
जीवादि-तत्व चर्चा ।
गुण समकितादि अर्चा ।।
छवि दिव्य प्रशान्त नगन ।
देवाधिदेव वन्दन ।।६।।
चिच्-चिदानन्द चिन्मय ।
सिद्धात्म नन्त-छिन-मय ।।
परमात्म-प्रकाशक जिन ! ।
नम नैन नमन निश-दिन ।।७।।
इक सिवा आप चरणा ।
नहिं और मुझे शरणा ।।
कर दया, न कर देरी ।
कीजो रक्षा मेरी ।।८।।
त्राता तुम सा ना था ।
है तुम सा ना त्राता ।।
त्राता जगत् प्रभावी ।
त्राता तुम ही भावी ।।९।।
जिन भक्ति मिले छिन- छिन ।
जिन भक्ति मिले दिन दिन ।।
जिन भक्ति मिले नव-भव ।
जिन भक्ति मिले भव-भव ।।१०।।
पद-चक्र खुद सरीखा ।
बिन-दया धरम फीका ।।
जिन धर्म सहित भगवन् ! ।
है भला जन्म निर्धन ।।११।।
अघ संचित जन्मान्तर ।
कृत पाप भव-भवान्तर ।।
जिन दर्शन से झट क्षय ।
यम-जनम-जरा आमय ।।१२।।
=दोहा=
कर दर्शन जिन देव के,
लोचन आज निहाल ।
चुलुक जन्म जल रह गया,
पुनि पुनि नुति नत भाल ।।१३।।
(१६)
दर्शन जिनवर ।
पन-पाप विहर ।।
रथ स्वर्ग अपर ।
शिव हेत प्रवर ।।१।।
जिन दर्शन फल ।
क्षय पाप सकल ।।
सछिद्र अंजुल ।
कब ठहरे जल ।।२।।
लख प्रभा पदम ।
मुख विराग तुम ।।
कृत जनम-जनम ।
झट कल्मष गुम ।।३।।
जिन सूर्य दरश ।
श्रुत गूढ़ परस ।।
मन कमल हरष ।
क्षय भव-तम-निश ।।४।।
जिन शशि दर्शन ।
भव-दाह हरण ।।
अमि वृष वर्षण ।
सुख जल वर्धन ।।५।।
विबुध-गुण भूप ।
दिगम्बर रूप ।।
प्रशांत अनूप ।
नमन चिद्रूप ।।६।।
सुवर्ण सुगंध ।
इक चिदानन्द ।।
परमात्म पंथ ।
जिन नुति अनन्त ।।७।।
तुम छोड़ चरण ।
नहिं और शरण ।।
अर हृदय-करुण ।
कीजो रक्षण ।।८।।
भावि-भूत कल ।
वर्तमान पल ।।
बस बल-निर्बल ।
तुम चरण जुगल ।।९।।
जिन भक्ति मिले ।
जिन भक्ति मिले ।।
इस-भव अगले ।
जिन भक्ति मिले ।।१०।।
पद-चक्र भार ।
जिन-धर्म छार ।।
जिन-धर्म धार ।
दारिद बहार ।।११।।
जिन सदय हृदय ।
कहते ही जय ।।
कल्मष संचय ।
क्षय आमय त्रय ।।१२।।
=दोहा=
दृग् निहाल जिन दर्श से,
भव जल चुलुक प्रमाण ।
सर्वग हित उपदेश जै,
वीतराग भगवान् ।।१३।।
(१७)
दर्शन जिनेश ।
निरसन कलेश ।।
सोपान स्वर्ग ।
शिविका पवर्ग ।।१।।
दर्शन शिरीष ।
अर्चन ऋषीश ।।
छल छिद्र अस्त ।
जल-छिद्र-हस्त ।।२।।
लख पद्म-राग ।
मुख वीतराग ।।
भव कोटि पाप ।
क्षय आप-आप ।।३।।
जिन सूर्य-दर्श ।
मन पद्म हर्ष ।।
भव-तम विनाश ।
त्रिभुवन प्रकाश ।।४।।
जिन-शशि निहार ।
अमि धर्म धार ।।
गुम जन्म-दाह ।
सुख-जल अथाह ।।५।।
गुण युक्त आठ ।
बुध तत्त्व सात ।।
अरु-शान्त रूप ।
तरु ! जगत् धूप ।।६।।
आनन्द कन्त ।
सिद्धात्म नन्त ।।
परमात्म दीव ।
वन्दन सदीव ।।७।।
जुग चरण तोर ।
इक शरण मोर ।।
इक त्राहि माम् ।
रट आप नाम ।।८।।
त्राता न और ।
रत होड़ दौड़ ।।
रक्षक-भविष्य ।
अर खुद सदृश्य ।।९।।
जिन-देव भक्त ।
त्रिक साँझ वक्त ।।
पाऊँ सदैव ।
अय ! देव-देव ।।१०।।
जिन धर्म भूल ।
पद-चक्र धूल ।।
पन-दरिद केत ।
जिन-कुल समेत ।।११।।
लख आप चर्ण ।
भव जरा-मर्ण ।।
खुद-ही विनष्ट ।
चिर पाप कष्ट ।।१२।।
लख पद तिहार ।
धन ! दृग् हमार ।।
भव-जल वितान ।
अंजुल प्रमाण ।।१३।।
(१८)
किया दर्शन वीतराग देव का ।
करे निरसन पाप रूप कुटेव का ।।
वन्दना जिन-देव सीढ़ी स्वर्ग की ।
वन्दना जिन-देव नौ अपवर्ग की ।।१।।
की हृदय से देव अर्हन् वन्दना ।
की हृदय से सेव मुनि-गण जितमना ।।
पाप भावों की विनाशे श्रृंखला ।
देख अंजुली छेद पानी रिस चला ।।२।।
वीतरागी आप-के मुख की कथा ।
पद्म-राग मणी प्रभा कुछ-कुछ यथा ।।
बार-एक जिसे रखा क्या आँख में ।
पाप ईधन आप बदला राख में ।।३।।
हेत मन भवि-जन कमल आनन्द का ।
किया दर्शन आप सूर्य जिनेन्द्र का ।।
अंधेरा संसार मेरा खो चला ।
उजेला श्रुत-सार मेरा हो चला ।।४।।
दृष्टि आनन चन्द्र क्या तुम टिक गई ।
जन्म रूपी दाह मेरी मिट गई ।।
अमृत-करुणा-धर्म बरसे जोर से ।
उमड़ता सुख-सिन्धु चारों ओर से ।।५।।
गुण सभी सम्यक्त्व आदिक पा लिये ।
जीव आदिक तत्व प्रतिपादित किये ।।
रूप नूप प्रशान्त छवि अविकार है ।
देव-देव नमन तुम्हें शत-बार है ।।६।।
आप चित् आनन्द एक स्वरूप हैं ।
प्रकाशक आतम परम जिन भूप हैं ।।
सिद्ध सरवारथ हुये आकर तुम्हें ।
कोटि कोटिक वन्दना सादर तुम्हें ।।७।।
सिवा तेरे और नहिं शरणा मुझे ।
एक शरणा आपके चरणा मुझे ।।
इसलिये जिन-देव करुणा कीजिये ।
कीजिये रक्षा, शरण में लीजिये ।।८।।
वीतरागी देव रक्षक सर्वदा ।
वीतरागी देव थे रक्षक सदा ।।
और रक्षक कौन भावी दे-बता ।
एक रक्षक वीतरागी देवता ।।९।।
मुझे छिन-छिन भक्ति जिन मिलती रहे ।
मुझे दिन-दिन भक्ति जिन मिलती रहे ।।
मुझे नव-भव भक्ति जिन मिलती रहे ।
मुझे भव-भव भक्ति जिन मिलती रहे ।।१०।।
अहिंसा सद्धर्म जो करुणा मयी ।
रहित उससे भार पद वसुधा जयी ।।
सहित उससे भली निर्धनता मुझे ।
सहजता पर्याप्त सज्जनता मुझे ।।११।।
दूर होते पाप कृत-कारित सभी ।
नूर खोते पाप अनुमोदित सभी ।।
वन्दना करते ही जिन-वर भाव से ।
नाव लगती जन्म-जल शिव-गाँव से ।।१२।।
=दोहा=
कर दर्शन जिन बिम्ब के,
धन्य हो गये नैन ।
चुलुक जन्म जल रह गया,
जय जय संस्कृति जैन ।।१३।।
(१९)
कल्मष मेंटे जिन दर्शन ।
दिव-शिव भैंटे जिन दर्शन ।।१।।
जिन दर्शन पाप हरे सब ।
जल छिद्र-हस्त ठहरे कब ।।२।।
मुख वीतराग रख लोचन ।
कृत भव-भव पाप विमोचन ।।३।।
हित भवि मन पंकज विकसन ।
तमहर, जिन सूरज दर्शन ।।४।।
धर्मामृत झिर-आनन्दा ।
दाता, दर्शन जिन चन्दा ।।५।।
जिन ! रूप-प्रशान्त ! गुणाकर ।
नुति नगन-दिगम्बर सादर ।।६।।
परमातम सिद्ध स्वरूपा ।
नुति चिदानन्द इक रूपा ।।७।।
जग त्राता तारण-तरणा ।
इक शरणा भगवन् शरणा ।।८।।
जिन देव सिवाय न कोई ।
रक्षण समर्थ जग दोई ।।९।।
नहिं मुक्ति जब तलक पाऊँ ।
जिन भक्ति तब तलक पाऊँ ।।१०।।
पद-चक्र व्यथा जिन-कुल बिन ।
दारिद्र भला युत कुल-जिन।।११।।
यम-जनम-जरा आमय त्रय ।
करते ही जिन दर्शन क्षय ।।१२।।
दोहा
कर जिन दर्शन आपके,
सफल आज दृग्-मोर ।
चुलुक जन्म-जल रह गया,
पुनि-पुनि नुति कर-जोर ।।१३।।
(२०)
पाप मिटाता है ।
स्वर्ग भिंटाता है ।
प्रभु जिनेन्द्र दर्शन,
मोक्ष पठाता है ।।१।।
दर्शन भगवन का ।
वन्दन मुनिगण का ।
छिद्र-हस्त जल त्यों,
निरसक अघपन का ।।२।।
मुख वीतराग तुम ।
प्रभ पद्म-राग सम ।
लखा, ’कि दूर दिखा,
कल्मष जनम जनम ।।३।।
दर्शन जिन दिनकर ।
फुल्ल पद्म मन-सर ।
विश्व प्रकाशक यक,
सहे न तम छिन-भर ।।४।।
दर्शन जिन चन्दा ।
दाह-भव निकन्दा ।
धर्मामृत वर्षण,
हित जल-आनन्दा ।।५।।
आठ-गुण समन्दर ।
तत्त्व विद् दिगम्बर ।
ढ़ोक सतत् शत-शत,
शिव सत् अर सुन्दर ।।६।।
अक्ष पन विजेता ।
सिद्ध ऊर्ध्व रेता ।
चिदानन्द चिन्मय,
प्रनुत श्रुत-प्रणेता ।।७।।
है नहिं अन्य शरण ।
आप अनन्य शरण ।
करुणा-कर करुणा,
कर, कीजे रक्षण ।।८।।
एक आप त्राता ।
भावि-भूत गाता ।
सिवा तुम न रक्षक,
दाता सुख साता ।।९।।
मिले भक्ति अरहत् ।
मिले भक्ति अरहत् ।
न पाऊँ जब-तलक,
अरहत् गुण सम्पद् ।।१०।।
रहित धर्म माहन ।
वृथा-चक्र का धन ।
दारिद पन अच्छा,
सहित धर्म माहन ।।११।।
थिर, सिंचित सारे ।
चिर संचित हा’रे ।
तुम्हें देखते ही,
हों यम को प्यारे ।।१२।।
देख आप चरणा ।
सफल आज नयना ।
चुलुक मोर भव जल,
इक शरण्य शरणा ।।१३।।
(२१)
दर्शन वीतराग भगवान् ।
करता पापों का अवसान ।।
किसी ना और इसी के नाम ।
स्वर्ग-शिव पहुँचाने का काम ।।१।।
वन्दन देव-देव अरिहन्त ।
चरणन सेव सदैव महन्त ।।
करे पापों का पूर्ण विनाश ।
टिके कब छिद्र हस्त जल राश ।।२।।
भा-मणि-पद्म-राग मानिन्द ।
आनन वीत-रागी जिनन्द ।।
हृदय करते ही नैनन पन्थ ।
पाप परिपाटी पाती अन्त ।।३।।
दर्शन करते ही जिन-सूर ।
तत्क्षण तिमिर-मोह काफूर ।।
फुल्ल मन-भवि जन कमल प्रसून ।
आप रोशन पदार्थ सम्पून ।।४।।
दर्शन करते ही जिन चन्द ।
वर्धन सागर सहजानन्द ।।
अमृत सद्धर्म अनवरत धार ।
तुरत उपशमत दाह संसार ।।५।।
भवि जीवादि तत्त्व उपदेश ।
शान्त स्वरूप ! दिगम्बर भेष ।।
चिन्मय चिदानन्द इक रूप ।
आतम-परम शुद्ध चिद्रूप ।।६।।
प्रकाशक परमातम गुण धाम ।
हृदय से बारम्बार प्रणाम ।।
सिन्धु गुण अपूर्व सम्यक्त्वाद ।
वन्दना जोड़ हाथ नत माथ ।।७।।
चरणा, साधु सन्त शिर मौर ।
शरणा, आप सिवाय न और ।।
कीजिये कृपया करुणा नाथ ।
शिव तलक निभा दीजिये साथ ।।८।।
रक्षक जग दोई तो आप ।
रक्षक था कोई तो आप ।।
आप ही भावी रक्षक एक ।
कहे कोने-कोने अभिलेख ।।९।।
छिन-छिन मिले भक्ति जिन देव ।
दिन-दिन मिले भक्ति जिन देव ।।
जन्म-भर मिले भक्ति जिन-देव ।
जन्म-हर मिले भक्ति जिन-देव ।।१०।।
वृष-माहन आराधन भूल ।
पदवी चक्रवर्ती भी धूल ।।
भला दारिद वाला भव-भ्रात ।
रात-दिन धर्म अहिंसा साथ ।।११।।
संचित-सिंचित पाप अशेष ।
पहुँचे दर्श-आप यम-देश ।।
रोग यम-जनम-जरा निर्मूल ।
योग सिर-मम, तुम-पाँवन-धूल ।।१२।।
=दोहा=
धन्य आज दृग् हो गये,
कर दर्शन अनिमेष ।
चुलुक जन्म जल रह गया,
जय जय जयतु जिनेश ।।१३।।
(२२)
देव दर्शन करने से रोज ।
पाप-पन उतरे काँधे बोझ ।।
द्वार दिखने लगता दिव-धाम ।
दूर नहीं रह जाता शिव-धाम ।।१।।
दिगम्बर मुद्रा आप निहार ।
पाप लग जाते एक किनार ।।
छेद वाली अंजुली में नीर ।
टिके कब अंजुली भले गभीर ।।२।।
प्रभा मण पद्म राग मानिन्द ।
देख मुख वीतराग जिन चन्द ।।
जन्म इह जन्मान्तर कृत पाप ।
नष्ट हो जाते अपने आप ।।३।।
देखते ही जिन रूपी सूर ।
अंधेरा मानस पैठा दूर ।।
चित्त पंकज पा चले विकास ।
पदारथ सब पा चलें प्रकाश ।।४।।
चन्द्रमा रूपी देख जिनेश ।
जन्म आताप विनष्ट अशेष ।।
वृद्धि दुख रूपी पारावार ।
अमृत सद्धर्म रूप झिर न्यार ।।५।।
तत्त्व प्रतिपादक सत् जीवाद ।
सिन्ध सम्यक्त्व आद गुण आठ ।।
दिगम्बर शान्त प्रशान्त स्वरूप ।
जयतु जिन देव-देव जगभूप ।।६।।
प्रकाशक आत्म तत्व-अध्याम ।
रूप इक चिदानन्द परमात्म ।।
कर्म परिकर अभिजित स्वयमेव ।
सिद्ध आतम नुति तिन्हें सदैव ।।७।।
शरण नहिं कोई आप सिवाय ।
एक निष्पाप तुम्हीं अकषाय ।।
हमारी रक्षा कीजे नाथ ।
दया करुणा की कर बरसात ।।८।।
सिवा इक वीतराग जिनराज ।
कौन कल रक्षक, रक्षक आज ।।
हो तुम्हीं रक्षक भावी एक ।
वज्र अंकित स्वर्णिम अभिलेख ।।९।।
भक्ति जिन भव भव लागे हाथ ।
भक्ति जिन कभी न छोड़े साथ ।।
कभी छूटे न भक्ति जिन धर्म ।
हाथ जब तक न लगे शिव-शर्म ।।१०।।
बिना सद्धर्म दया पद चक्र ।
किसे बन सका हेत भव फक्र ।।
भला दारिद सद्धर्म समेत ।
भक्त जिन लहराते शिव केत ।।११।।
पाप कृत भवनान्तर भव कोट ।
धरासाई लग कीर्तन चोट ।।
रोग अंतक जर जन्म विनष्ट ।
हुये क्या दूर भले जिन दृष्ट ।।१२।।
=दोहा=
जाग चला पुन नेत्र का,
देखत ही जिनराज ।
रहा लिधु भव चुलुक सा,
बलि-बलि जाऊँ आज ।।१३।।
(२३)
दर्शन देव जिनेन्द्र का,
करे पाप का अवसान |
अर्चन देव जिनेन्द्र का,
स्वर्ग, मोक्ष सोपान ॥१।।
दर्शन से जिनदेव के,
पाप मेर भी ढ़ेर |
सछिद्र अंजुल जल टिके,
जग ज़ाहिर कब देर ।।२।।
वीतराग मुख देख के,
पद्मराग मण कान्त ।
भवनान्तर इस भाव सभी,
आतप पाप प्रशान्त ।।३।।
दर्शन जिनबर सूर का,
भव तम करे विनाश ।
मन पयोज खिल खुल उठे,
जगमग तत्त्व प्रकाश ।।४।।
दर्शन जिनवर चन्द्र का,
मेंटे भव भव ताप ।
अमृत धर्म वर्षण सदा,
सुख जल वृद्धि अमाप ।।५।।
जल गुण सम्यक्त्वाद जे,
प्रतिपादक जीवाद ।
शान्त प्रशान्त दिगम्बरा,
जयतु जयतु जिन नाथ ।।६।।
अरि जितेन्द्र परमात्मा,
चिदानन्द एक रूप ।
परम प्रकाशक आत्मा,
जयतु जयतु चिद्रूप ।।७।।
शरण अलावा आपके,
और नाहिं तिहुलोक ।
रक्षा मेरी कीजिए,
करके स्वीकृत ढ़ोक ।।८।।
रक्षक केवल आप हैं,
वीतराग अरिहन्त ।
भूत, भविष्यत, वर्तमां,
रक्षक तुम्हीं जिनन्द ।।९।।
लाभ मुझे जिन भक्ति का,
हो भव-भव जिन देव ।
मुझे भक्ति जिनराज की,
मिलती रहे सदैव ।।१०।।
चक्रवर्ती पदवी विथा,
विरहित करुणा धर्म ।
भला दयाल दरिद्र भी,
प्रत्याशी शिव-शर्म ।।११।।
जन्म जनम कृत पाप जे,
संचित जन्म करोड़ ।
मिटें रोग भव यम जरा ।
जिन समक्ष कर जोड़ ।।१२।।
=दोहा=
धन्य हमारे दृग् हुये,
कर दर्शन जिनराज ।
सिन्धु जन्म मेरा अहा,
रहा-चुलुक भर आज ।।१३।।
मुनि मूलगुण पाठ
*पञ्च महावत*
।। इक साचा, गुरुवर का द्वारा ॥
पूरण मंशा ।
नूर अहिंसा ॥
सन्मत हंसा ।
नभ धुव तारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।१।।
दूर तबाही ।
रुतबा शाही ॥
सत् पथ राही ।
दृग् जल धारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।२।।
चित्त चुराते ।
वित्त न नाते ॥
चरित्र गाते ।
हम सब थारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।३।।
हया दृगों में ।
दया रंगों में ॥
आते गो में ।
विरद निराला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।४।।
मूर्च्छा त्यागी ।
परिणत जागी ॥
इक बढ़ भागी ।
बाहर कारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।५।।
*पञ्च समिति*
देख चालते ।
एक साधते ॥
नेक-साध, ते-
नमोऽतु न्यारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।६।।
धीरे बोले ।
मिसरी घोले ॥
राज न खोले ।
उदर विशाला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।७।।
नम जाते हैं ।
गम खाते हैं ॥
रम जाते हैं ।
पा श्रुत धारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।८।।
पीछि सँभाली ।
निधि निज पाली ॥
मनी दिवाली ।
टला दिवाला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।९।।
जीव बचाते ।
दीव जगाते ॥
करीब लाते ।
दिव-शिव द्वारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।१०।।
*पंचेन्द्रिय रोध*
गजस्-नान ना ।
गहल श्वान ना ॥
मद-गुमान ना ।
मन अविकारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।११।।
तृषा विदाई ।
सुधा सगाई ॥
‘रस…ना’ भाई ।
अर्थ विचारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।१२।।
गहल न भौंरी ।
परिणत गौरी ॥
गला न दो…’री ।
ओ’ री बाला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।१३।।
पल न हाँप लें ।
पलक झाप लें ॥
फलक नाप लें ।
कद कुछ न्यारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।१४।।
दूर फना-फन ।
नूर सना-तन ॥
तूर जिना-धन ।
सम्प्रति काला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।१५।।
=षट् आवश्यक=
समता, बोधी ।
ममता खो दी ॥
रमता जोगी ।
दरिया धारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।१६।।
पल-पल सुमरण ।
शान्त सरित् मन ॥
अपूर्व सुख क्षण ।
वश जग सारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।१७।।
संध्या, प्रातः ।
प्रभु से नाता ॥
हे ! जग त्राता ।
शिशु मैं थारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।१८।।
शील शिरोमण ।
पनील लोचन ॥
स्वयं अलोचन ।
हा ! मन काला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।१९।।
कषाय छोड़ी ।
गुण बेजोड़ी ॥
धुन-जिन जोड़ी ।
प्रीत अपारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।२०।।
निस्पृह नेही ।
देह विदेही ॥
सहजो ये ही ।
तरण शिवाला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।२१।।
*सप्त शेष गुण*
केश उखाडें ।
द्वेष संहारें ॥
शेष न यादें ।
विस्मृत सारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।२२।।
नगन दिगम्बर ।
बिन आडम्बर ॥
निर्जर, संवर,
शिखर हिमाला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।२३।।
निज अवगाहैं ।
न्हवन न चाहें ॥
सजल निगाहें ।
दुखी निहारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।२४।।
छेद न पातल ।
सेज धरातल ॥
खेद न हासिल ।
इक, इक ग्यारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।२५।।
दन्त न धोना ।
सुगन्ध सोना ॥
कहें न, दो…ना ।
दीन दयाला ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।२६।।
खड़े जीमना ।
बड़े धी-मना ॥
खड़े श्री-मना,
विनत कतारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।२७।।
भुक्ति अकेली ।
सूक्ति सहेली ॥
मुक्ति पहेली ।
अब ना यारा ॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।।२८।।
चौसठ ऋद्धिधारी पाठ
करुणा, क्षमा भण्डारी ।
ऋषि, मुनि, यती, अनगारी ।।
करके महर्षि का ध्यान ।
मनचाहा मिला वरदान ॥
महिमा महर्षि न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥
*बुद्धि ऋद्धि*
वैसा काम, जैसा नाम ।
औ’-धी धारते, निष्काम ॥
वाणी स्वर्ग-शिव-कारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥१।।
मन की जान लेते बात ।
मन ना मान देते भ्रात ॥
‘मनके’ फिरें णवकारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥२।।
जानें जगत् सब इक-साथ ।
‘जीवन मुक्त’ हाथ उपाध ॥
केवल ज्ञान रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥३।।
छोटा बीज, वृक्ष महान ।
रखते बीज-पद का ज्ञान ॥
बुद्धी बीज भव हारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥४।।
भवि ! धानाद कोष्ठ अधार ।
धारण रूप ज्ञान अपार ॥
बुद्धी कोष्ठ शिव कारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥५।।
पद अनुशरण कार अशेष |
ईहा-वाय ज्ञान विशेष ॥
रिध पद-अनुशरण न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥६।।
युगपत् सुनें भाष-विभिन्न ।
‘बहु’-विध क्षिप्र ज्ञाँ सम्पन्न ॥
धन ! संभिन्न श्रोता ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥७।।
चाखें दूर योजन संख ।
जे जे स्वाद भूम, निकंख ॥
धन ! रिध दूर स्वादा ‘री।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥८।।
पर्सें दूर योजन संख ।
जे जे पर्श भूम, निकंख ॥
धन ! रिध दूर-पर्शा ‘री |
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥९।।
सूँघें दूर योजन संख ।
जे जे गन्ध भूम, निकंख ॥
धन ! रिध दूर-धाणा ‘री |
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥१०।।
सुन लें दूर योजन संख ।
जे जे शब्द भूम, निकंख ॥
धन ! रिध दूर-श्रवणा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥११।।
देखें दूर योजन संख ।
जे जे वर्ण भूम, निकंख ॥
धन ! रिध दूर-दर्शा ‘री ।।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥१२।।
पढ़ कर अंग- ग्यारह सर्व ।
पढ़ लें पूर्व दश, गतगर्व ॥
धन ! रिध पूर्व दश धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥१३।।
पाठी सर्व चौदह पूर्व ।
अर्चा-महा देव अपूर्व ॥
धन ! रिध पूर्व चौदा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥१४।।
जानें फल शुभाशुभ लोक ।
आठ निमित्त द्वारा, ढ़ोक ॥
अंगठ निमित महतारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥१५।।
कर्मज, वैनयिक, परिणाम |
उत्पत, चार प्रज्ञा नाम ॥
प्रज्ञा श्रमण दृग्-धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥१६।।
बिन उपदेश ही वैराग |
बुद्ध निमित्त इक, बड़-भाग ॥
बुध प्रत्येक जय थारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥१७।।
परमत-वादि अभिजित एक ।
‘भी’तर डूब, हंस विवेक ॥
बुध वादित्व जय थारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥१८।।
*विक्रिया ऋद्धि*
अणु से अणू कर लें देह ।
रहते भले देह, विदेह ॥
अणिमा विक्रिया न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥१९।।
मह से महत् कर लें देह ।
रहते भले देह, विदेह ॥
महिमा विक्रिया न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥२०।।
लघु से लघू कर लें देह ।
रहते भले देह, विदेह ॥
लघिमा विक्रिया न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥२१।।
गुरु से गुरू कर लें देह ।
रहते भले देह विदेह ॥
गरिमा विक्रिया न्यारी |
करुणा, क्षमा भण्डारी॥२२।।
बैठे धरा अम्बर पार |
जपते अनवरत णवकार ॥
प्रापति विक्रिया धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥२३।।
तैरें भूम, नीर विहार ।
जपते अनवरत णवकार ॥
धन ! प्राकाम्य रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥२४।।
आज्ञा मानता संसार |
जपते अनवरत णवकार ॥
धन ! ईशत्व रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥२५।।
वश में नाग, नर, सुर-चार ।
जपते अनवरत णवकार ॥
रिध वशि-विक्रिया धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥२६।।
सहज प्रवेश वृक्ष-पहाड़ ।
जपते अनवरत णवकार ॥
अप्-प्रति घात रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥२७।।
लेते आप सब को देख ।
देते दिखाई कब, लेख ॥
अन्तर्धान रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥२८।।
मन चाहा बना लें रूप ।
लखते अनवरत चिद्रूप ॥
सिध-रिध कामरूपा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥२९।।
चारण क्रिया ऋद्धिधारी
हिंसा हेत रञ्च न सन्ध |
सहजो गमन नभ निष्पन्द ॥
चारण क्रिया नभ धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥३०।।
हिंसा हेत रञ्च न सन्ध ।
सहजो गमन जल निष्पन्द ॥
चारण क्रिया जल धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥३१।।
हिंसा हेत रञ्च सन्ध ।
करते गमन अविचल जंघ ॥
चारण क्रिया जंघा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥३२।।
हिंसा हेत रञ्च न सन्ध ।
फल पुष्परु गमन निष्पन्द ॥
धन गुल पत्र फल चारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥३३।।
हिंसा हेत रञ्च न सन्घ ।
सहजो गमन घन निष्पन्द ॥
चारण क्रिया घन धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥३४।।
हिंसा हेत रञ्च न सन्घ ।
सहजो गमन मकड़ी-तन्त ॥
चारण तन्तु रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥३५।।
हिंसा हेत रञ्च न सन्घ ।
धूमानल गमन निष्पन्द ॥
चारण अगनी धूमा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥३६।।
हिंसा हेतु रञ्च न सन्ध ।
सहजो गमन रवि रिख चन्द ॥
चारण ज्योति रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥३७।।
हिंसा हेत रच न सन्घ ।
मारुत गमन धन ! निष्पन्द ॥
चारण मरुत् रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥३८।।
*तप ऋद्धिधारी*
घट में जब तलक है श्वास ।
क्रमश: बढ़ा एक उपास ॥
धन ! धन ! उग्र तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥३९।।
जब-तब साधना उपवास ।
देह प्रदीप्त शशि उपहास ॥
धन ! धन ! दीप्त तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥४०।।
भोजन कम नहीं, पर्याप्त ।
कब नीहार आप समाप्त ॥
धन ! धन ! तप्त तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥४१।।
केवल ज्ञान छोड़ समस्त |
रिध सिध तप महत्त्व विशिष्ट ॥
धन ! धन ! महातप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥४२।।
द्वादश तप तपें दिन-रात ।
साधें योग मूल-तराद ॥
धन ! धन ! घोरतप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥४३।।
सार्थक नाम ‘गिर’ निश्वास ।
छवि-रवि, दें सुखा जल-राश ॥
ना-मनु-रूप तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥४४।।
अक्षर ब्रह्म आप प्रभाव ।
ईत्यादिक लगे यम गाँव ॥
ब्रह्मा-घोर तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥४५।।
*बल ऋद्धिधारी*
लागा बस मुहूरत एक ।
चिन्तन सकल-श्रुत, अभिलेख ॥
धन ! बल-रिद्ध मन धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥४६।।
बार अनेक श्रुत संपाठ ।
माथे-शल न खेद, विषाद ॥
धन ! रिध वचन बल धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥४७।।
पशु लख शिल खुजावत खाज ।
चिर-गिर खड़े, मोख-जहाज ॥
धन ! रिध-काय बल धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥४८।।
*औषधि ऋद्धिधारी*
‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
पद रज-पर्श, अपहर-रोग ॥
औषध रिध अमर्शा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥४९।।
‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
पर्श कफाद, अपहर रोग ॥
औषध खेल्ल रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥५०।।
‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
पर्श-पसेव अपहर रोग ॥
औषध जल्ल रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥५१।।
‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’।
तन-मल पर्श अपहर रोग ॥
धन ! रिध मलौषध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥५२।।
‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
‘विष्ठा-पर्श, अपहर रोग ॥
औषध-विष्ठ रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥५३।।
‘बल’ आता-पनादिक ‘योगे’ ।
सर्वस्-पर्श, अपहर रोग ॥
औषध सर्व रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥५४।।
‘बल आता-पनादिक ‘योग’ |
निर्विष श्रवण-वच संजोग ॥
रिध निर्-विषौ-षध घारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥५५।।
‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ |
निर्विष पात-दृग संजोग ॥
दृग् निर्विषौधष धारी |
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥५६।।
*रस ऋद्धिधारी*
मुँह से निकलते ही बात |
प्रतिफल आ लगे झट हाथ ॥
रस रिध आशि-बिष धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥५७।।
ले, जे भाव दृष्टी पात ।
प्रतिफल आ लगे झट हाथ ॥
रस रिध दृष्टि विष धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥५८।।
भो ! जन-पाण, भोजन पान ।
‘लागे हाथ’ दुग्ध समान ॥
क्षीरस्-स्रावि रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥५९।।
भो ! जन पाण, भोजन पान ।
‘लागे हाथ’ मधुः समान ॥
रस मधु-स्रावि रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥६०।।
भो ! जन पाण, भोजन पान ।
‘लागे हाथ’ अमृत समान ॥
अमृरस् स्रावि रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥६१।।
भो ! जन पाण, भोजन-पान ।
‘लागे हाथ’ घिरत समान ॥
सर्पिस् स्रावि रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥६२।।
*अक्षीण ऋद्धिधारी*
घर जिस महर्षिन् आहार ।
जीमे सैन्य चक्रि अपार ॥
अक्षत महानस धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥६३।।
कुटि जिस, थमें ‘पाणी पात्र’ ।
बैठें ‘सहज’ प्राणी मात्र ॥
अक्षत महालय धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ॥६४।।
*गणधर वलय स्तोत्र पद्यानुवाद*
इन्द्रिय गोपन सीखा कछुआ ।
जिनके वश में आया मनुआ ।।
णमो जिणाणं, णमो जिणाणं ।
मन्त्र मनोरथ पूर्ण प्रधानं ।।१।।
पलकें पल के लिये उघाड़ीं ।
कह निधियाँ निज भीतर सारीं ।।
णमो णमो रिसि ओहि जिणाणं ।
मन्त्र अक्ष संरक्ष प्रधानं ।।२।।
स्वर्ग सुदूर, न शिव अभिलाषा ।
दृष्टि टिकाई इकटक नासा ।।
णमो णमो परमोहि जिणाणं ।
मन्त्र विघ्न विध्वंस प्रधानं ।।३।।
पलक न बढ़ा कदम मन माने ।
पुद्गल, जीव समस्त पिछाने ।।
णमो णमो सव्वोहि जिणाणं ।
मन्त्र भीतरी ज्योति प्रधानं ।।४।।
ज्ञान अवधि मर्याद उलॉंघी ।
परिणति नित प्रति जागी जागी ।।
णमो णमो णंतोहि जिणाणं ।
मंत्र अपूरब शांति प्रधानं ।।५।।
यथा प्रकोष्ठ सुरक्षित धाना ।
तथा सुरक्षित समस्त ज्ञाना ।।
णमो कोट्ठ बुद्धीय जिणाणं ।
मंत्र कण्ठ सरसुती प्रधानं ।।६।।
खसखस भॉंत बीज वट जैसे ।
जानें सहज बीज पद वैसे ।।
णमो बीय बुद्धीय जिणाणं ।
मन्त्र सिद्ध वच-रिद्ध प्रधानं ।।७।।
पद अक्षर समूह कहलाता ।
पद इक जान, सकल श्रुत ज्ञाता ।।
णमो पदनु सारीय जिणाणं ।
मन्त्र शोष स्वर दोष प्रधानं ।।८।।
युगपत् सेन-चक्र बतयाये ।
इन्हें सहज सुनने में आये ।।
णमो सोद संभिण्ण जिणाणं ।
मंत्र हरण त्रुटि श्रवण प्रधानं ।।९।।
काषायिक परिणत के त्यागी ।
बिन उपदेश स्वयं वैरागी ।।
णमो सयं बुद्धाय जिणाणं ।
मंत्र वंश मत हंस प्रधानं ।।१०।।
मिला निमित्त एक भी काफी ।
झटपट राह विकट वन नापी ।।
णमो बुद्ध पत्तेय जिणाणं ।
मन्त्र साक्ष सिध दीक्ष प्रधानं ।।११।।
अंजुल कर्ण देशना भींजे ।
चाले वन खुल्ले दृग् तीजे ।।
णमो बुद्ध बोहीय जिणाणं ।
मन्त्र छार सर भार प्रधानं ।।१२।।
फौरन मन-औरन पढ़ लेते ।
शरणागत पनडुबिया खेते ।।
णमो णमो उजु मदिय जिणाणं ।
मन्त्र विहँस मन कलुष प्रधानं ।।१३।।
मन तरंग उठते ही मारी ।
मन भविष्य-पर पंथ विहारी ।।
णमो णमो मदि विउल जिणाणं ।
मन्त्र निराकुल मनस् प्रधानं ।।१४।।
लाँघ प्रलोभन विद्या घाटी ।
ग्यारह अंग पूर्व दश पाठी ।।
णमो णमो दस पुव्व जिणाणं ।
मन्त्र चोट मन खोट प्रधानं ।।१५।।
देख पीर-पर दृग् झिर आये ।
सिन्धु पूर्व चौदह तिर आये ।।
णमो चउद्-दस, पुव्व जिणाणं ।
मंत्र बिन्दु भव-सिन्धु प्रधानं ।।१६।।
विद् निमित्त स्वर, व्यंजन, सुपना ।
लक्षण, अंग, भौम, छिन, गगना ।।
णमो णिमित अट्-ठंग जिणाणं ।
मन्त्र सुप्त भय सप्त प्रधानं ।।१७।।
काम-रूप, वशि, अणिमा, महिमा ।
ईश, प्राप्ति, प्राकाम्यरु लघिमा ।।
णमो इड्ढि वीउव्व जिणाणं ।
मंत्र हस्तगत इष्ट प्रधानं ।।१८।।
जात पक्ष-माँ, कुल पित पक्षा ।
सद्या तप विद्या अध्यक्षा ।।
णमो पत्त विज्जाय जिणाणं ।
मंत्र सद्य विद् विद्य प्रधानं ।।१९।।
बीज, पुष्प, फल, नभ, जल जंघा ।
श्रेणिन्, तन्तु गमन सानन्दा ।।
णमो चारणा इड्ढि जिणाणं ।
मंत्र विवर्धक विभव प्रधानं ।।२०।।
विनय, औत्पत्तिक, परिणामी ।
नाम कर्मजा प्रज्ञा स्वामी ।।
णमो समण पण्णाय जिणाणं ।
मन्त्र सर्व कल्याण प्रधानं ।।२१।।
घेर मानुषोत्तरन पहाड़ा ।
मन वांछित आकाश विहारा ।।
णमो गमण आगास जिणाणं ।
मन्त्र पंथ निष्कण्ट प्रधानं ।।२२।।
जिन्हें एक विरदावलि गाली ।
वचन निकल मुख, जाय न खाली ।।
णमो आसीविस सव्व जिणाणं ।
मन्त्र भूल उन्मूल प्रधानं ।।२३।।
जैसा सोच उठाते आंखें ।
लाज देवता आकर राखें ।।
णमो दिट्ठिविस सव्व जिणाणं ।
मन्त्र हृदय दृग् सदय प्रधानं ।।२४।।
कमश: एक उवास बढ़ाते ।
प्रण जीवन पर्यन्त निभाते ।।
णमो णमो तव उग्ग जिणाणं ।
मन्त्र नन्त बलवन्त प्रधानं ।।२५।।
भॉंत दूज शशि तेज विकासा ।
बेला, तेला यदपि उपासा ।।
णमो णमो तव दित्त जिणाणं ।
मन्त ओज तेजस्व प्रधानं ।।२६।।
लुप्त तप्त लोहा जल-धारा ।
विगत निहार यदपि आहारा ।।
णमो णमो तव तत्त जिणाणं ।
मन्त्र जुदा गद-क्षुधा प्रधानं ।।२७।।
रिद्धि सिद्धि विद्या सब जेतीं ।
ढ़ोक चरण में आकर देतीं ।।
णमो णमो तव महा जिणाणं ।
मन्त्र छार गत-चार प्रधानं ।।२८।।
यथा शक्ति तप तपते बारा ।
योग, अभ्र, तरु, आतप धारा ।।
णमो णमो तव घोर जिणाणं ।
मन्त्र मूर्ति जग-कीर्ति प्रधानं ।।२९।।
सार्थ नाम’ गुन’ लख चौरासी ।
शगुन सातिशय पुन अधिशासी ।।
णमो णमो गुण घोर जिणाणं ।
मन्त्र सातिशय पुण्य प्रधानं ।।३०।।
‘सहजो’ शंख फूॅंकते नासा ।
‘गिर’ गिर पड़ता वशि बल श्वासा ।।
णमो परक्कम घोर जिणाणं ।
मन्त्र आश विश्वास प्रधानं ।।३१।।
ब्रह्म बाढ़ नव राखन वारे ।
ईति-भीति-हर तारण हारे ।।
णमो घोर गुण बंभ जिणाणं ।
मन्त्र रक्ष प्रण ब्रह्म प्रधानं ।।३२।।
पर्श मात्र जिनका हो जाता ।
नामो-निशाँ व्याधि खो जाता ।।
णमो आम ओ-सही जिणाणं ।
मन्त्र चूर सिर शूल प्रधानं ।।३३।।
खेल पर्श जिनका हो जाता ।
नामो-निशाँ व्याधि खो जाता ।।
णमो खेल ओ-सही जिणाणं ।
मन्त्र चूर रद शूल प्रधानं ।।३४।।
जल्ल पर्श जिनका हो जाता ।
नामो-निशाँ व्याधि खो जाता ।।
णमो जल्ल ओ-सही जिणाणं ।
मन्त्र चूर उर शूल प्रधानं ।।३५।।
विट्ठ पर्श जिनका हो जाता ।
नामो-निशाँ व्याधि खो जाता ।।
णमो विट्ठ ओ-सही जिणाणं ।
मन्त्र चूर कुछि शूल प्रधानं ।।३६।।
सर्व पर्श जिनका हो जाता ।
नामो-निशाँ व्याधि खो जाता ।।
णमो सव्व ओ-सही जिणाणं ।
मन्त्र चूर मन शूल प्रधानं ।।३७।।
निशि दिन श्रुत मंथन में लागे ।
पर, न खेद मन-बल बड़भागे ।।
णमो णमो मण बलिय जिणाणं ।
मन्त्र तन्त्र मन शान्त प्रधानं ।।३८।।
निशि दिन श्रुत वाचन में लागे ।
पर, न खेद वच-बल बड़भागे ।।
णमो णमो वच बलिय जिणाणं ।
मन्त्र तन्त्र वच क्षान्त प्रधानं ।।३९।।
निशि दिन श्रुत साधन में लागे ।
पर, न खेद तन-बल बड़भागे ।।
णमो णमो बल काय जिणाणं ।
मन्त्र तन्त्र तन कान्त प्रधानं ।।४०।।
अंजुली पुट में आया विष भी ।
बदल क्षीर में जाता झट ही ।।
णमो खीर रस सविय जिणाणं ।
मन्त्र अरिंजय विरद प्रधानं ।।४१।।
अंजुली पुट में आया विष भी ।
‘फिर’ गौ’ घृत में जाता झट ही ।।
णमो सप्पि रस सविय जिणाणं ।
मन्त्र निरंजन विरद प्रधानं ।।४२।।
अंजुली पुट में आया विष भी ।
‘फिर मधु-रस में जाता झट ही ।।
णमो महुर रस सविय जिणाणं ।
मन्त्र अनुत्तर विरद प्रधानं ।।४३।।
अंजुली पुट में आया विष भी ।
बदल अमृत में जाता झट ही ।।
णमो अमिय रस सविय जिणाणं ।
मन्त्र स्वानुभव विरद प्रधानं ।।४४।।
साधु महानस जिस आहारा ।
जीमे सहज चक्र-बल सारा ।।
णमो महानस अछर जिणाणं ।
मन्त्र हान अपमान प्रधानं ।।४५।।
वर्धमान चारित अधिकारी ।
दया, क्षमा, करुणा अवतारी ।।
णमो वड्ढमाणीय जिणाणं ।
मन्त्र भिन्न जल कमल प्रधानं ।।४६।।
चलते फिरते सिद्ध सरीखे ।
जब देखा तब भीतर दीखे ।।
णमो सिद्ध आ-यदण जिणाणं ।
मन्त्र सार्थ सिद्धार्थ प्रधानं ।।४७।।
धार कटार अडिग बढ़ चाले ।
सहज-निराकुल भोले भाले ।।
णमो महदि महवीर जिणाणं ।
मन्त्र तीर भव-नीर प्रधानं ।।४८।।
=दोहा=
पनडुबी मोक्ष विठार लो,
मोर न ज्यादा भार ।
‘सहज-निराकुल’ लो बना,
हो विनती स्वीकार ।।
श्री योगि-भक्ति पद्यानुवाद
(१)
सद्गुरु अपने जैसे एक
नरक दुख डर जो’वन चाले,
जगा अन्तर्मन हंस विवेक ।
सद्गुरु अपने जैसे एक
आन तरु तल आसन माड़ा,
देख बिजुरी नभ काले मेघ ।।
सद्गुरु अपने जैसे एक
दोपहर गीषम चढ़ पर्वत,
सूर सन्मुख ठाड़े अनिमेष ।
सद्गुरु अपने जैसे एक
तुषारी ठण्ड निश गुजारी,
ओढ़ धृति कम्बल चतुपथ बैठ ।
सद्गुरु अपने जैसे एक
(२)
कोई न सन्तों के जैसा
नरक दुख डर जो’वन चाले,
छोड़ के घर रुपया पैसा ।
कोई न सन्तों के जैसा
आन तरुतल आसन माड़ा,
लगा ज्यों बरसा अन्देशा ।।
कोई न सन्तों के जैसा
दोपहर गीषम चढ़ पर्वत,
सूर, तप तपें कहें कैसा ।
कोई न सन्तों के जैसा
तुषारी ठण्ड निश गुजारी,
ढ़क धृति कंबल तन अशेषा ।।
कोई न सन्तों के जैसा
(३)
पाणी पातर ।
जय पद यातर ।
शिश वस मातर ।
जयतु जयतु जय ।
दुख नारक डर ।
जो’वन तज घर ।
कच लुंचन कर ।
विचरण निर्भय ।।
जयतु जयतु जय ।
बिजुरी बादल ।
धारा मूसल ।
ठाड़े तरुतल ।
हित सुख अक्षय ।।
जयतु जयतु जय ।
गीष्म दोपहर ।
चढ पर्वत पर ।
तकें सूर खर ।
इक टक दृग् द्वय ।।
जयतु जयतु जय ।
शीत लहर पल ।
धर धृति कम्बल ।
आ चतुपथ चल ।
थित हित अघ क्षय ।।
जयतु जयतु जय ।
पाणी पातर ।
जय पद यातर ।
शिश वस मातर ।
जयतु जयतु जय ।
(४)
सन्तों की बात निराली है
देख नरकों की वेदना,
जो’वन राह निहारी है ।
सन्तों की बात निराली है
सुनते ही मेघ गर्जना,
जोग तरुतल तैयारी है ।।
सन्तों की बात निराली है
सूर्य का करते सामना,
गिर शिखर गीष्म दुपारी है ।
सन्तों की बात निराली है
ओढ़ धृति कम्बल बैठना,
चतुपथ ठण्ड तुषारी है ।।
सन्तों की बात निराली है
(५)
जय पीछि कमण्डल धारी
वन जो’वन राह निहारी ।
डर नरक पतन दुख भारी ।।
जय पीछि कमण्डल धारी
झिर मूसल धारा काली ।
तरतले खड़े अविकारी ।।
जय पीछि कमण्डल धारी
चढ़ पर्वत गीष्म दुपारी ।
ठाड़े सम्मुख तिमिरारी ।।
जय पीछि कमण्डल धारी
पवमान शीत निशि कारी ।
धृति कम्बल ओढ़ गुजारी ।।
जय पीछि कमण्डल धारी
(६)
सन्त सन्तोषी वन्दना
जो’वन घर से निकल पड़े,
देख नरकों की वेदना ।
सन्त सन्तोषी वन्दना
जोग तरुमूल साध बैठे,
सुनते ही मेघ गर्जना ।।
सन्त सन्तोषी वन्दना
चढ़ पर्वत ग्रीष्म दोपहर,
सूर्य का करते सामना ।
सन्त सन्तोषी वन्दना
आन चौराहे ठण्ड में,
ओढ़ धृति कम्बल बैठना ।।
सन्त सन्तोषी वन्दना
(७)
मैंने साधू देखे वन में
नरक पतन दुख से डरकर जो,
निकल पड़े जो’वन में ।
मैंने साधू देखे वन में
खड़े ग्रीष्म ऋतु, चढ़ पर्वत पर,
दुपहर सूर्य तपन में ।।
मैंने साधू देखे वन में
वृक्ष तले ठाड़े बरसा में,
उठे तरंग न मन में ।
मैंने साधू देखे वन में
ओढ़ धीर कम्बल गुजरे निशि,
बहती शीत पवन में ।।
मैंने साधू देखे वन में
(८)
साधु दिगम्बर मेरे
जो’वन निकल पड़े हैं घर से,
डर दुख नरक घनेरे ।
साधु दिगम्बर मेरे
साध जोग तरुमूल खड़े हैं,
बरसा सांझ सबेरे ।।
साधु दिगम्बर मेरे
ग्रीष्म खड़े चढ़ गिर रवि सम्मुख,
खा लू लपट थपेड़े ।
साधु दिगम्बर मेरे
ओढ़ कबरिया धीर शिशिर निशि,
चतुपथ खड़े अकेले ।।
साधु दिगम्बर मेरे
(९)
धन धन
साधु जीवन धन धन
जर, जन्म, मरण ।
दुख नरक पतन ।
भयभीत श्रमण ।
वन ओर गमन ।।
धन धन
साधु जीवन धन धन
बादल गर्जन ।
झिर जल वर्षण ।
माड़े आसन ।
तरुतल मुनिगण ।।
धन धन
साधु जीवन धन धन
ऋत ग्रीषम क्षण ।
चढ़ गिर शिखरन् ।
खर सूर किरण ।
सहते सिरमण ।।
धन धन
साधु जीवन धन धन
धृति कम्बल तन ।
चतुपथ थिर मन ।
गुजरी तपधन ।
निशि शीत पवन ।।
धन धन
साधु जीवन धन धन
(१०)
दैगम्बर गुरू हमारे
दुःसह नरक पतन दुख से डर,
जो’वन राह निहारे ।
दैगम्बर गुरू हमारे ।।
खड़े योग तरु मूल साध कर,
बिजुरि देख घन कारे ।
दैगम्बर गुरू हमारे ।।
ग्रीष्म दोपहर, चढ़ पर्वत पर,
सूर सामने ठाड़े ।।
दैगम्बर गुरू हमारे ।।
ओढ़ शीत ऋतु धीरज कम्बल,
चतु-पथ आन पधारे ।।
दैगम्बर गुरू हमारे ।।
(११)
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
दुख जरा, जनम मरन ।
भीत गति नरक पतन ।
हंस मत लगा लगन ।
वन गमन, वन गमन, वन गमन
मेघ बिजुरी से चपल ।
भोग विष विषय सकल ।
मार सो तरंग मन ।
वन गमन, वन गमन, वन गमन
क्षण क्षयी जल बुदबुदा ।
जिन्दगी चपल तथा ।
जोड़ सुख अखर नयन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
व्रत समिती गुप्ति भज ।
झर चले ‘कि कर्म रज ।
ध्यान, जिन वचन रमन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
मल पटल कतार लग ।
नग्न-दिगम्बर सजग ।
विगत-राग, गत-मदन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
शिला तप्त रवि प्रखर ।
पाँव नाप गिरि शिखर ।
सूर मुख तपश्चरण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
अमृत ज्ञान पान नित ।
क्षमा, छत्र-तोष धृत ।
सहज परीषह सहन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
इन्द्र धनुष श्याम घन ।
बिजुरी जल, नम-पवन ।
योग मूल तरु शरण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
ताड़ित शर धार जल ।
धीर वीर दृग्-सजल ।
विचलित कब आचरण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
धृति कम्बल ओढ़ तन ।
निश व्यतीत शीत क्षण ।
चतुस्-पथ तले गगन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
धारक इमि योग त्रय ।
पुण्य तन, सदय हृदय ।
दें तैरा वैतरण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण
(१२)
रोग पीड़ित जर जन्म मरण ।
भीत दुख दुःसह नरक पतन ।।
मेघ बिजुरी से भोग चपल ।
देख जल बुद-बुद जीवन पल ।।
जोड़ मति हंस एक नाता ।
सिर्फ बन दृष्टा अर ज्ञाता ।।
ले चले वन के मध्य शरण ।
सुख अलौकिक रख चाह श्रमण ।।
महाव्रत समिति गुप्ति धारी ।
सुरत स्वाध्याय ध्यान न्यारी ।।
धाम शाश्वत निवास करने ।
तपें तप कर्म नाश करने ।।
विगत मद-मोह, दृग् पनीले ।
क्यों न हों कर्म बंध ढ़ीले ।।
मल पटल आभूषण तन पे ।
लगा रक्खी लगाम मन पे ।।
सूर्य किरणन संतप्त शिला ।
सुखा चाली लू-लपट गला ।।
शिखर पर्वत पग रखते तब ।
घोर तप तपते कँपते कब ।।
पान संज्ञानामृत क्षण क्षण ।
क्षमा जल अभिसेचित पुन तन ।।
छत्र छाया संतोष वरण ।
क्यों न परिषह हो चलें सहन ।।
श्याम घन कण्ठ मोर जैसे ।
भ्रमर-कज्जल कुछ कुछ ऐसे ।।
इन्द्र ले धनुष निकल आया ।
भयंकर घन-गर्जन माया ।।
हवा ठण्डी ओला-पानी ।
हाय ! मौसम की मनमानी ।।
तपोधन ! निर्भय वे विरले ।
आ विराजे तब वृक्ष तले ।।
बाण बौछार धार जल की ।
धीर-धर ! फिकर कहाँ कल की ।।
जीत परिषह ! भयभीत जनन ।
नृसिंह ! कब विचलित सदाचरण ।।
जम चली हिम रस्ते-रस्ते ।
झिर चले वृक्ष-वृक्ष पत्ते ।।
शब्द हा ! साँय-साँय होता ।
सब्र का उड़ चाले तोता ।।
लहर ठण्डी जा फिर आती ।
शुष्क लकरी तन इक भॉंती ।।
गुजारें ओढ़ धीर कम्बल ।
चतुष्पथ खड़े शिशिर निश पल ।।
योग त्रय धारक वे ऋषिगण ।
सकल तप साधक ये ऋषिगण ।।
सातिशय-पुन, अन-सुख रशिया ।
मुझे कर देवें शिव पुरिया ।।
(१३)
साँचा श्री गुरु का द्वारा
जय कारा जय जयकारा
जर जनम मरण ।
डर नरक पतन ।
मत हंस नेह विस्तारा ।
जय कारा जय जयकारा
अख-विषय चपल ।
लख जीवन पल ।
वन भेष दिगम्बर धारा ।
जय कारा जय जयकारा
व्रत गुप्त समित ।
श्रुत ज्ञान सुरत ।
रत जप-तप हित क्षय ‘कारा’ ।
जय कारा जय जयकारा
मल पटल कोश ।
तन, विकल दोष ।
गिर कर्म-बन्ध हिल चाला ।
जय कारा जय जयकारा
शिल तप्त भान ।
गिर शिखर आन ।
खड्गासन सूर निहारा ।
जय कारा जय जयकारा
झिर अमृत अखर ।
सन्तोष छतर ।
पुन तन ! सहिष्णु अवतारा ।
जय कारा जय जयकारा
सुर धनु दर्शन ।
झिर घन गर्जन ।
आ तरुतल आसन माड़ा ।
जय कारा जय जयकारा
जल धार बाण ।
अर धैर्य वान ।
नग चरित भीत संसारा ।
जय कारा जय जयकारा
हिम-थर रस्ते ।
पतते पत्ते ।
स्वर साँय-साँय विकराला ।
जय कारा जय जयकारा
कम्बल धीरज ।
निश शिशिर सहज ।
चतुपथ व्यतीत ‘तर’-तारा ।
जय कारा जय जयकारा
त्रय योग वन्त ।
रूख-सुख भदन्त ।
दें धरा, धरा सिर भारा ।
जय कारा जय जयकारा
(१४)
संत्रस्त जन्म जर मरणा ।
दृग् भी’तर गंगा जमना ।।
दुख नरक पतन भयभीता ।
हित मानस तरंग रीता ।।
चल बिजुरी मेघ समाना ।
विष विषय भोग तज नाना ।।
जल बुद-बुद जीवन धारा ।
मुनि जो’वन राह निहारा ।।
व्रत, समिति गुप्ति संयुक्ता ।
स्वाध्याय, ध्यान अनुरक्ता ।।
गत मोह, मोख अभिलाषा ।
साधा निज निलय निवासा ।।
तन मल पटलों की माला ।
गिर कर्म बन्ध हिल चाला ।।
अम्बर, आडम्बर रीते ।
अरि मदन, मोह, मद जीते ।।
शिल तप्त किरण दिनमाना ।
लू लपट घर्म पवमाना ।।
डग डग गिर शिखर निरखते ।
सूरज सन्मुख तप तपते ।।
सन्तोष छत्र सिर छाया ।
जल क्षमा सिंच पुन काया ।।
ज्ञानामृत पान हमेशा ।
क्यों परिषह करें परेशाँ ।।
गल मोर, भ्रमर काजर से ।
‘घन’ घोरे गरजते बरसे ।।
ले इन्द्र धनुष निकला है ।
ढ़ा रही कहर चपला है ।।
ठण्डी चल रहीं हवाएँ ।
लग ताँता खड़ीं बलाएँ ।।
तरु मूल योग तब साधा ।
नवकार मंत्र आराधा ।।
संसार भीत, वनवासी ।
जलधार बाण बरसा सी ।।
अरि परिषह घात प्रवीरा ।
कब चारित ढ़िगें गभीरा ।।
हिम परतें रस्ते रस्ते ।
झर चाले तरु-तरु पत्ते ।।
हा ! सांय-सांय आवाजें ।
डर, सिहरन, भीति नवाजे ।।
पवमान नजर काली है ।
तन यष्टि सूख चाली है ।।
धृति ओढ़ कवरिया कारी ।
थित चतुषथ रात गुजारी ।।
त्रैविध जोगी बड़भागी ।
सुख अविनश्वर अनुरागी ।।
पुन जोड़ तपोधन न्यारे ।
शिव तक बन चलो सहारे ।।
(१५)
नरक पतन भयभीता ।
परिणति हंस विनीता ।।
विष विषयों में पाया ।
लगी न देर भुलाया ।।
जीवन बुद-बुद पानी ।
ठानी सरित् रवानी ।।
दुख जम जन्म बुढ़ापा ।
मुनि रस्ता वन नापा ।।
समिति गुप्त व्रत धारी ।
अध्ययन ध्यान विहारी ।।
मानस सुख अभिलाषा ।
तापस रख दृग् नासा ।।
तन मल पटल निकेता ।
गत-रत ऊरध-रेता ।।
गाँठ कर्म वस ढ़ीली ।
निस्पृह ! आँख पनीली ।।
तप्त शिला तप भाना ।
चढ़ गिर शिखर सुजाना ।।
सन्मुख सूर निवसते ।
घोर तपस्या करते ।।
क्षमा शील पुन काया ।
तरु सन्तोषी छाया ।।
संज्ञानामृत धारा ।
इक सहिष्णु अवतारा ।।
इन्द्रधनुष अभिरामा ।
काग भ्रमर घन श्यामा ।।
गर्जन वज्र कराली ।
मारुत शीतल चाली ।।
झिर मूसल थारा सी ।
तब मुनिगण वनवासी ।।
योग मूल तरु साधें ।
असि आउसा आराधें ।।
झिर बरसा बाणों की ।
धन ! रक्षा रत्नों की ।।
धीरा ! नृसिंह ! प्रवीरा !
अविचल चरित गभीरा ।।
हिम कण रस्ते-रस्ते ।
पत चाले तर पत्ते ।।
सांय-सांय स्वर भारी ।
सूख यष्टि तन चाली ।।
धीरज क़मरी ओढ़ी ।
चौराहे दृग् जोड़ी ।।
रातरि शिशिर गुजारें ।
कर्मों को ललकारें ।।
लगन योग त्रय लागी ।
सुख सन्मुख बड़भागी ।।
धन्य तपोधन सारे ।
मेटें मन अंधियारे ।।
(१६)
धरती के देवता जय
दया, करुणा, क्षमा, निलय
आमय जर जनम मरण ।
दुख दुःसह नरक पतन ।
मति जागृत पानीय पय ।
धरती के देवता जय
जल बुदबुद जीवन पल ।
बिजुरी से विषय चपल ।
जो’वन लीना आश्रय ।
धरती के देवता जय
व्रत समिति गुप्ति संबल ।
स्वाध्याय ध्यान पल पल ।
जप तप हित कर्मन क्षय ।
धरती के देवता जय
मल पटल देह शोभा ।
गत गहल, विगत लोभा ।
दैगम्बर सदय हृदय ।
धरती के देवता जय
शिल तप्त सूर किरणन ।
गिरि शिखर नाप चरणन ।
थित सूर जोड़ दृग् द्वय ।
धरती के देवता जय
संज्ञानामृत क्षण क्षण ।
जल क्षमा सिञ्च पुन तन ।
तर-तोष परिषह विलय ।
धरती के देवता जय
शिखि कण्ठ, भ्रमर काजर ।
सुर धनु गर्जन बादर ।
तरु मूल प्रावृट् समय ।
धरती के देवता जय
शर ताड़ित जल धारा ।
मन अन-तरंग न्यारा ।।
अविचल चरित हिमालय ।
धरती के देवता जय
झिर हिमकण मिश्रित जल ।
स्वर सांय-सांय अविरल ।
मनु मारुत परुष प्रलय ।
धरती के देवता जय
तन ढ़ाक धीर कम्बल ।
चौराह शिशिर निशि पल ।
सहजो व्यतीत निर्भय ।
धरती के देवता जय
इमि योग त्रय अनूठे ।
आशा झिर सुख फूटे ।
वे सन्त भर दें विनय ।
धरती के देवता जय
दया, करुणा, क्षमा, निलय
धरती के देवता जय
(१७)
त्रस्त यम जनम बुढ़ापा रोग ।
हृदय जल-पय विवेक संजोग ।।
नदारत घन बिजुरी पल बाद ।
भोग विष विषय देर कब हाथ ।।
क्षण क्षयी जैसे बुद-बुद नीर ।
जिन्दगानी क्षण क्षयी शरीर ।।
घोर दुख नरक पतन भयभीत ।
जागा ली जो’वन कानन प्रीत ।।
सतत स्वाध्याय ध्यान संलीन ।
पंच व्रत समिति गुप्तियाँ तीन ।।
मोह चकचूर हूर शिव हेत ।
आसमाँ तप बहिरन्तर केत ।।
लिप्त अवलिप्त मल पटल देह ।
शिथिल बन्धन भव निस्संदेह ।।
गत विगत रत नित निरत समाध ।
निष्पृही नगन दिगम्बर साध ।।
शिला संतप्त खर प्रखर शूर ।
लू लपट रूप बनाया क्रूर ।।
गिर शिखर दुपहर दृग् रख पन्थ ।
सूर सन्मुख तप तपें भदन्त ।।
सतत सत् ज्ञानामृत रस पान ।
छत्र संतोष मित्र कल्याण ।।
क्षमा जल सिंचमान पुन-काय ।
न कहते, सहते धन ! मुनिराय ।।
भ्रमर स्याही कज्जल मानिन्द ।
यथा कुछ-कुछ मयूर गल-कण्ठ ।।
इन्द्र ले धनुष हुआ तैयार ।
सघन घन गर्जन हाहाकार ।।
कहर बिजुरी, शीतल पवमान ।
मूसला धारा स्वयं समान ।।
तापसी देख यथा आकाश ।
आन करते तरुमूल निवास ।।
धार जल मानो बरसा तीर ।
नृसिंह ! सहते सहजो धर धीर ।।
शत्रु परिषह जय, माथ गुलाल ।
अविचलित चरित सुमेर पहार ।।
समिश्रित हिम कण जल बरसात ।
पाँत लग झिर तरु पात प्रपात ।।
शब्द हा ! साँय साँय विकराल
वन्य पशु रव रौरवी मिशाल ।।
परुष पवमान शिशिर दिनरात ।
सूख चाला तन लकरी भॉंत ।।
ओढ़ कम्बल धीरज मुनिराज ।
गुजारें निशि चौराह विराज ।।
योग साधा आतापन चूल ।
जोग अभावकाश तरुमूल ।।
आश आनन्द निराकुल छांव ।
सन्त वे ले चालें शिव गाँव ।।
(१८)
दर्शन साधु बलिहारी ।
करुणा दया अवतारी ।।
मरना जनमना आवर्त ।
दुख संत्रस्त नारक गर्त ।।
परिणति श्याह संहारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
बुद-बुद-नीर जीवन लेख ।
क्षणिक विभूत बिजुरी, मेघ ।।
जो’वन राह दृग्-धारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
धृत व्रत समित गुप्त विभूत ।
नित स्वाध्याय, डूब अनूठ ।।
तापस इक निरतचारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
‘गुण’-मण पटल-मल अनुस्यूत ।
बन्धन कर्म शिथली भूत ।।
निर-हंकार ब्रम-चारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
शिल सन्तप्त उन्मुख सूर ।
चढ़ गिरि शिखर सन्मुख सूर ।।
तप संप्रीत विस्तारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
तर सन्तोष ‘शोष कषाय’ ।
सिञ्चित क्षमा जल, पुन काय ।।
अमरित ज्ञान आहा’री ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
कज्जल-भ्रमर कण्ठ-मयूर ।
धन ! धनु-इन्द्र गर्जन भूर ।।
तरु तल योग निशिकारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
ताड़ित धार जल मनु बाण ।
दुख भवभीत, धीरज वान् ।।
नृसिंह ! सहिष्णु ! अविकारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
हो स्वर साँय-साँय कराल ।
डग-डग बिछ चला हिम जाल ।।
शोषित यष्टि तन सारी ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
चाले ओढ़ कम्बल धीर ।
रातरि शिशिर नग्न शरीर ।।
थित चतुपथ गुजर चाली ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
इमि त्रय योग धार भदन्त !
जप-तप हेत परमानन्द ।।
दे लिख नाम सरना’री ।
दर्शन साधु बलिहारी ।।
(१९)
=दोहा=
पुण्य सातिशय मानिये,
दर्शन गुरु महाराज ।
चरणों से लग चालिये,
बनता बिगड़ा काम ।।
हमें नरकों में ना जाना ।
जिन्होंने अबकी यह ठाना ।।
त्रस्त जय, जनम, मरण, ओ ‘री ।
हंस मत प्रीत अमिट जोड़ी ।।
क्षण क्षणी घन बिजुरी जैसे ।
विष विषय-जर रुपये पैसे ।।
ओंस मानिन्द जिन्दगानी ।
चले वन, लिये आँख पानी ।।
समित, व्रत, गुप्ति केत लहरे ।
सतत श्रुत रत, उतरे गहरे ।
निरत जप तप विशुद्धि पाने ।
नाम सिद्धों में लिखवाने ।।
मल पटल आभूषण धारी ।
दिगम्बर निष्पृह अविकारी ।।
कर्म बन्धन गिर हिल चाला ।
विनिर्गत मोह मदिर हाला ।।
शिला संतप्त सूर्य रश्मी ।
लू लपट खो आई नरमी ।।
गिर शिखर पाँव पाँव आते ।
खड़े रवि सन्मुख हो जाते ।।
ज्ञान अमरित धारा फूॅंटी ।
देह तर क्षमा जल अनूठी ।।
छत्र संतोष पुण्य काया ।
नाम सहजो सहिष्णु आया ।।
कण्ठ शिखि से काले काले ।
भ्रमर कज्जल प्रतिछवि वाले ।।
घन सघन गर्जन विकराला ।
वायु शीतल मूसल धारा ।।
ले दिखे इन्द्र धनुष अपना ।
देख तापस ऐसा गगना ।।
तरु तले बैठ चले देखा ।
मेंटने श्याह कर्म लेखा ।।
धार जल मनु बाणन बरसा ।
सहर्षित सहन विघन सहसा ।।
धीर ! पर हेत दृग् भिजोते ।
चरित से विचलित कम होते ।।
बर्फ रस्ते रस्ते छाई ।
पात तरु मनु शामत आई ।।
शब्द हा ! साँय साँय भारी ।
ठण्ड खा शुष्क देह सारी ।।
लगा राखा अंकुश मन पे ।
धीर कम्बल ओढ़ा तन पे ।।
खड़े चौराहे निशि ठण्डी ।।
गुजर चाली धन ! शिव पंथी ।।
योग त्रय धारक बड़भागी ।
‘निराकुल’ सुख इक अनुरागी ।।
हेत सुमरण सु’मरण कीना ।
जाग भी’तर संध्या तीना ।।
(२०)
गुणगान अचिन्त्य अनूप ।
श्री गुरु भगवंत स्वरूप ।।
कौड़ी न पास रखते ।
नत नम नजरें तकते ।।
चिच्-चिदानंद चिद्रूप ।
श्री गुरु भगवंत स्वरूप ।।१।।
बोलें मिसरी घोलें ।
पलकें पल को खोलें ।।
नित निमग्न निज-रस कूप ।
श्री गुरु भगवंत स्वरूप ।।२।।
क्या कहे, ज्ञात रस…ना ।
आता मन को कसना ।।
कलि काल चतुर्-थस्-तूप ।
श्री गुरु भगवंत स्वरूप ।।३।।
दिवि लाभान्वित धरती ।
बेवजह दया झिरती ।।
बरगदी छांव जग धूप ।
श्री गुरु भगवंत स्वरूप ।।४।।
गिन सका कौन तारे ।
सुनते सुर-गुरु हारे ।।
लो साध निरा-कुल चूप ।
श्री गुरु भगवंत स्वरूप ।।५।।
(२१)
।। जयतु जयतु गुरुदेव ।।
नगन दिगम्बर देह ।
यद्यपि देह वैदेह ।।
सार्थक ‘जगत’ सदैव ।
जयतु जयतु गुरुदेव ।।
हाथन लुंचन केश ।
विगत राग, गत द्वेष ।।
रत मां प्रवचन सेव ।
जयतु जयतु गुरुदेव ।।१।।
वृक्ष मूल चौमास ।
आतप अभ्रवकाश ।।
भांत स्वयं स्वय-मेव ।
जयतु जयतु गुरुदेव ।।२।।
परहित नैन पनील ।
चुन उत्तर गुण शील ।।
पुण्य सातिशय जेब ।
जयतु जयतु गुरुदेव ।।३।।
सु…मरण संध्या तीन ।
ज्ञान ध्यान लवलीन ।।
शिशु मन विगत फरेब ।
जयतु जयतु गुरुदेव ।।४।।
अगम वचन गुण गाथ ।
सहज नमन नत माथ ।।
हित उत्-तारण खेव ।
जयतु जयतु गुरुदेव ।।५।।
(२२)
किसी से नफरत नहीं जिन्हें ।
किसी से मतलब नहीं जिन्हें ।
वे मुनि हैं ।।
रहते अपने में मगन ।
किसी से होती नहीं जलन ।
किसी को देते नहीं वचन ।
सुन लेते हैं दो, पकड़ाने की चार
फुर्सत नहीं जिन्हें ।
वे मुनि हैं ।।१।।
बरसात में छतरी ।
धूप में छाँव बरगदी ।
जो ठण्डी में धूप गुनगुनी हैं ।
वे मुनि हैं ।।
किसी से लेना नहीं जिन्हें ।
किसी का देना नहीं जिन्हें ।
वे मुनि हैं ।।
रहते अपने में मगन ।
किसी से होती नहीं जलन ।
किसी को देते नहीं वचन ।
सुन लेते हैं दो, पकड़ाने की चार
फुर्सत नहीं जिन्हें ।
वे मुनि हैं ।।२।।
जग जल से भिन्न कमल
मन निर्मल गंगा जल
सार्थ नाम गुणकार जो गुणी हैं ।
वे मुनि हैं ।।
जोड़ना जुड़ना नहीं जिन्हें ।
झुक चले, भिड़ना नहीं जिन्हें ।
वे मुनि हैं ।।
रहते अपने में मगन ।
किसी से होती नहीं जलन ।
किसी को देते नहीं वचन ।
सुन लेते हैं दो, पकड़ाने की चार
फुर्सत नहीं जिन्हें ।
वे मुनि हैं ।।३।।
(२३)
।। मुनिराज चले वन को ।।
कच घुंघराली हाथ खींच के ।
प्रीत पुरानी बेलि सींच के ।।
वश में करने मन को ।
मुनिराज चले वन को ।।१।।
वस्त्र उतार, उतारी पगड़ी ।
तजी साज-सामग्री सगरी ।।
‘रे छोड़ छाड़ वन को ।
मुनिराज चले वन को ।।२।
हाथ चार दृग् रखकर धरती ।
हाथ कमण्डलु पीछी फबती ।।
शिव राधा ब्याहन को ।
मुनिराज चले वन को ।।३।।
(२४)
।। जयतु दैगम्बर श्रमण ।।
हाथ कमण्डलु पीछी है ।
रीझ चली दृग् तींजी है ।।
समर्पित श्रद्धा सुमन ।
जयतु दैगम्बर श्रमण ।।१।।
लगन लगी बेला तेला ।
सम सोना माटी ढ़ेला ।।
एक कल भव जल तरण ।
जयतु दैगम्बर श्रमण ।।२।।
आशा दृष्टि हटाई है ।
नासा दृष्टि टिकाई है
सुरत शिव राधा रमण ।
जयतु दैगम्बर श्रमण ।।३।।
(२५)
।। नमोस्तु ते ।।
दया दुशाल ओढ़ के ।
विमोह जाल छोड़ के ।।
चल पड़े जंगल के रास्ते ।
नमोस्तु ते, नमोस्तु ते, नमोस्तु ते ।।१।।
उखाड़ केश हाथ से ।
उतार भेष गात से ।।
चल पड़े निःश्रेयस वास्ते ।
नमोस्तु ते, नमोस्तु ते, नमोस्तु ते ।।२।।
निहार हाथ चार भू ।
सुधार साध चार-सू ।।
चल पड़े आहिस्ते-आहिस्ते ।
नमोस्तु ते, नमोस्तु ते, नमोस्तु ते ।।३।।
(२६)
।। सन्तों की बात निराली है ।।
जग रात जगाना नीरज को ।
उठ प्रात उठाना सूरज को ।।
निशि रोजाना उजियाली है ।
सन्तों की बात निराली है ।।१।।
कर ज्ञान, ध्यान में लग जाना ।
फिर-ध्यान, ज्ञान में लग जाना ।
इक जिन्हें कबाली-गाली है ।
सन्तों की बात निराली है ।।२।।
पल-पल नासा दृष्टि रखना ।
दिल मुट्टी खिल सृष्टि रखना ।।
दृग्-परिणति भोली भाली है ।
सन्तों की बात निराली है ।।३।।
डग भरें बाद, देखें पहले ।
संकल्प शक्ति लख दिल दहले ।।
लख नजर उतरती काली है ।
सन्तों की बात निराली है ।।४।।
आंखों से सब कुछ कह देना ।
ना लेना कुछ, दिल रख लेना ।।
मन बच्चों जैसा खाली है ।
सन्तों की बात निराली है ।।५।।
(२७)
मृग पाथर समझ खुजावत खाज ।
जय जयत जयत, जय जय मुनिराज ।।
वन जोवन सुन शिव तिय आवाज ।
सेवक न किसी के खुद सरताज ।
कल चिन्ता विसर सम्हारत आज ।।
मृग पाथर समझ खुजावत खाज ।
जय जयत जयत, जय जय मुनिराज ।।१।।
मां प्रवचन समित गुप्ति वस नाज ।
तरु-मूल अभ्र आतप इक काज ।।
पड़ दृष्ट अष्ट अरकुल सर गाज ।
कुछ उदर बड़ा सा राखत लाज ।।
मृग पाथर समझ खुजावत खाज ।
जय जयत जयत, जय जय मुनिराज ।।२।।
कलि कोई एक गरीब नवाज ।
भवि ! भव सागर उत्तरण जहाज ।।
मन चाह निराकुल-पुर साम्राज ।
बह धारा विधि सुख साधत साज ।।
मृग पाथर समझ खुजावत खाज ।
जय जयत जयत, जय जय मुनिराज ।।३।।
(२८)
चल पड़े जोवन देखो ना ।
बनाने आत्म खरा सोना ।।
खड़े बरसा विरछा नीचे ।
आंख कुछ खोले, कुछ मीचे ।।
सलोना जिन्हें इक अलोना ।
बनाने आत्म खरा सोना ।
चल पड़े जोवन देखो ना ।।१।।
खड़े जा पर्वत के ऊपर ।
सूर जब दिखलाये तेवर ।।
लिये दौना न कहे दो ना ।
बनाने आत्म खरा सोना ।
चल पड़े जोवन देखो ना ।।२।।
तुसारी ठण्ड, पड़ा पाला ।
आ चुराहे आसन माड़ा ।।
अगम गुण कीर्त शरण मोना ।
बनाने आत्म खरा सोना ।
चल पड़े जोवन देखो ना ।।३।।
(२९)
।। सन्त ये ऐसे कैसे हैं ।।
पोंछते मिलते हैं आंसू ।
धकाते बन पाछी वायू ।
सन्त खुद अपने जैसे हैं ।।१।।
धूप खा, खड़े तान छाते ।
बदल पत्थर फल बरसाते ।।
कुछ कुछ तरुवर ऐसे हैं ।
सन्त खुद अपने जैसे हैं ।।२।।
दाग़ धब्बे धो डालें हैं ।
तृप्त कर देने वाले हैं ।।
कुछ कुछ दरिया ऐसे हैं ।
सन्त खुद अपने जैसे हैं ।।३।।
(३०)
सन्त सिवा, क्या शिव सुन्दर सत् ।
है सन्तों का मन बालक वत् ।।
हँसते, हँसी न कभी उड़ाते ।
कभी न मुंह लग के बतियाते ।।
गम खाते, गुस्सा पी जाते ।
चुगल चपाती कभी न खाते ।।
रहते अपनी दुनिया में रत ।
है सन्तों का मन बालक वत् ।।१।।
फिकर न कल की, आज सहेजें ।
दूर बैठ अपनापन भेजें ।।
जले, कुड़े न किसी पर खींचें ।
देख दीन दुखिया दृग् भींजे ।।
चल तीरथ, इक करुणा मूरत ।
रहते अपनी दुनिया में रत ।
है सन्तों का मन बालक वत् ।।२।।
भूल न अपनी सिर उस मड़ दी ।
रूठ मान जाते हैं जल्दी ।।
बना काम पर परणत चल दी ।
डाला पंक, रंग इक हल्दी ।।
पैसा सिर चढ़ सका न स्वारथ ।
रहते अपनी दुनिया में रत ।
है सन्तों का मन बालक वत् ।।३।।
(३१)
।। सन्त साधजन बहती धारा ।।
रज कण राग द्वेष से रीते ।
परहित मर मिटते, दृग् तीते ।।
दृष्टि उठा हरते अंधियारा ।
सन्त साधजन बहती धारा ।।१।।
आते जाते मार थपेड़े ।
शंकर, कंकर टेड़े मेड़े ।।
बनता साधें परोपकारा ।
सन्त साधजन बहती धारा ।।२।।
ग्रीषम गर्म न शीतल ठण्डी ।
मार्ग न बना, चले पगडण्डी ।।
आश निरा-कुल सुख इस बारा ।
सन्त साधजन बहती धारा ।।३।।
(३२)
बात कुछ हटके सन्तान की ।
राह रख ली बीहड़ वन की ।।
और का लौटाया कर जोड़ ।
लुटाया अपना भी दिल खोल ।।
तिसना छोड़ छाड़ धन की ।
राह रख ली बीहड़ वन की ।
बात कुछ हटके सन्तान की ।।१।।
आ सका कब फैलाना हाथ ।
खड़े बाहें पसार दिन-रात ।।
समझ परिभाषा जोवन की ।
राह रख ली बीहड़ वन की ।
बात कुछ हटके सन्तान की ।।२।।
यहां तक रखा न जोड़ा एक ।
निरा-कुल सुख अब सपना देख ।।
पकड़ हट शिव तिय ब्याहन की ।
राह रख ली बीहड़ वन की ।
बात कुछ हटके सन्तान की ।।३।।
(३३)
महिमा साधुजन न्यारी ।
भीतर ज्ञान भण्डारी ।।
जोवन चल पड़े वन ओर ।
खनखन नेह तज, घर छोड़ ।।
तन मल पटल श्रृंगारी ।
भीतर ज्ञान भण्डारी ।
महिमा साधुजन न्यारी ।।१।।
पूरे हुये नहिं दो मास ।
लुंचन आ चला फिर रास ।।
परिषह जय, निरतिचारी ।
तन मल पटल श्रृंगारी ।
भीतर ज्ञान भण्डारी ।
महिमा साधुजन न्यारी ।।२।।
निवसे गुफा कोटर शून ।
दें कम, काम लें तन दून ।।
शिव तिय ब्याह तैयारी ।
परिषह जय, निरतिचारी ।
तन मल पटल श्रृंगारी ।
भीतर ज्ञान भण्डारी ।
महिमा साधुजन न्यारी ।।३।।
(३४)
साधु जीवन अपने जैसा ।
न बोले सिर चढ़कर पैसा ।।
बिछाने धरती मनमानी ।
चादरा गगन आसमानी ।।
हाथ कच लोंच स्वाभिमानी ।
नाम ही है पातर पाणी ।।
भांत पहरी सजग हमेशा ।
न बोले सिर चढ़ के पैसा ।
साधु जीवन अपने जैसा ।।१।।
क्रोध गुस्सा पीना आता ।
गम्म खाने मन ललचाता ।।
गीत नवकार खूब भाता ।
जोड़ना शिव राधा नाता ।।
राग टूटा, छूटा द्वेषा ।
भांत पहरी सजग हमेशा ।।
न बोले सिर चढ़ के पैसा ।
साधु जीवन अपने जैसा ।।२।।
पोर निज अंगुलियाँ सुमरनी ।
नापते पांव पांव धरणी ।।
व्यथा मण, कान्ति तन सुवरणी ।
अगम महिमा न जाय वरणी ।।
किसी का वैभव ना ऐसा ।
भांत पहरी सजग हमेशा ।।
न बोले सिर चढ़ के पैसा ।
साधु जीवन अपने जैसा ।।३।।
(३५)
और आंखों से नाता है ।
छोड़ तेरा मेरा,
क्या न सन्तों को आता है ।
सुना क्या ? तुंकारी किस्सा ।
तभी से किया नहीं गुस्सा ।।
लटकती सूंड जन्म अगला ।
सुना क्या ? झाड़ा मद पल्ला ।।
सुना क्या ? कल तिरंच नाते ।
छोड़ माया वन आ जाते ।।
धुने सिर, मले हाथ माखी ।
सुना क्या ? यम-दर तिसना की ।।
छोड़ फन्दा घेरा,
क्या न सन्तों को आता है ।
और आंखों से नाता है ।
छोड़ तेरा मेरा,
क्या न सन्तों को आता है ।।१।।
सुना क्या ? कौन पराया है ।
किसी का दिल न दुखाया है ।
प्राण धन क्या दिया सुनाई ।
तभी से चोरी बिसराई ।।
भरोसे-मन्द कहाँ झूठा ।
सुना क्या ? नेह झूठ छूटा ।।
सुना क्या ? भवद गहल श्वानी ।
ब्रह्म-चर, छोड़ मुकत रानी ।।
काल नरकेश्वर राजेश्वर ।
सुना क्या ? त्यागा आडम्बर ।।
छोड़ चेहरे चेहरा,
क्या न सन्तों को आता है ।
और आंखों से नाता है ।
छोड़ तेरा मेरा,
क्या न सन्तों को आता है ।।२।।
(३६)
।। न पूछो बात सन्तों की ।।
रहते अपने में मगन ।
बिछौने है बिछी धरती,
ओढ़ लेते नीला गगन ।।
सन्त खुद जैसे संतोषी ।
न पूछो बात सन्तों की ।।१।।
बहते दरिया हैं श्रमण ।
न फैलाते कभी झोली,
बाँटते खुशियाँ रात-दिन ।।
दया मूरत न और देखी ।
सन्त खुद जैसे संतोषी ।
न पूछो बात सन्तों की ।।२।।
गुरु तरु छैय्या जग तपन ।
पोंछते दुखियों के आंसू,
हरें अंधियारा उठा नयन ।
निरा-कुल वृत्ति सिंह अनोखी ।
दया मूरत न और देखी ।
सन्त खुद जैसे संतोषी ।
न पूछो बात सन्तों की ।।३।।
(३७)
कर मल पाटल श्रृंगार चले ।
मुनि व्याहन शिवपुर नार चले ।।
सिर काँधे भार उतार चले ।
हाथों से केश उखाड़ चले ।।
वन छोड़ छार घर-बार चले ।
मुनि ब्याहन शिवपुर नार चले ।।१।।
गुणधन करने दृग् चार चले ।
अवगुण करने यम द्वार चले ।।
करने जागृति गलहार चले ।
मुनि ब्याहन शिवपुर नार चले ।।२।।
नासा दृष्टी अविकार चले ।
कर वस्तु स्वरूप विचार चले ।।
पाने निज निधि उस पार चले ।
मुनि ब्याहन शिवपुर नार चले ।।३।।
करने निज पर उद्धार चले ।
बहने सहजो विधि-धार चले ।।
हित सौख्य ‘निराकुल’ न्यार चले ।
मुनि ब्याहन शिवपुर नार चले ।।४।।
(३८)
हैं खड़े दया से सटके ।
गुरु खुद जैसे कुछ हटके ।।
पारस को पड़ता छूना ।
लोहा तब जाकर सोना ।।
गुरु दूर, गुरु का ध्याना,
क्या किया हुआ कल्याणा ।।
गुरु रस पारस से बढ़ के ।
गुरु जश पारस-से बढ़ के ।।१।।
रख लिया नाम क्या होता ।
नीचे कब पनपा पौधा ।।
तुम सत्संगति में आके ।
भूला भी खुश, निधि पाके ।।
बोले न स्वार्थ सिर चढ़ के ।
गुरु वट ‘विरक्ष’ से बढ़ के ।।२।।
बस बारी तीन उछाले ।
फिर, चिर निश्चिंत सुला ले ।।
गुरु क्षमा करें, कह ‘गलती’ ।
अहसान गुरू अनगिनती ।।
कब बढ़े, दोष अर मड़ के ।
गुरु-वर दरिया से बढ़ के ।।
हैं खड़े दया से सटके ।
गुरु खुद जैसे कुछ हटके ।।३।।
(३९)
रखते नित हंस विवेक ।
मुनि भीतर बाहर एक ।।
मन बालक सद्या-जात ।
अनुराग जाग दिन रात ।।
रख ध्यान अहिंसा पाथ,
सुलझी सी रखते बात ।।
पीड़ित पर पीड़ा देख ।
मुनि भीतर बाहर एक ।।१।।
रग लहु पुरु वंशी गौर ।
विश्राम हिरणिया दौड़ ।।
दृग् मां प्रतिरूप अमोल,
परिणत जागृत शिर-मौर ।।
चल काल अतीत सुलेख ।
मुनि भीतर बाहर एक ।।२।।
बन्धन विधि आद्योपांत ।
दुर्भाव कषाय प्रशांत ।।
तन लिप्त जल्ल-मल कान्त ।
कृत काम सहज निर्भान्त ।।
मंजिल पहले कब टेक ।
मुनि भीतर बाहर एक ।।३।।
(४०)
।। शिव वधु न यूं हि देखे राहें ।।
मुनि पास न रखते तिनका भी ।
अनुराग रहा ना तन का भी ।।
दो छोड़ स्वर्ग, न मोक्ष चाहें ।
अध्यात्म सरोवर अवगाहें ।।
शिव वधु न यूं हि देखे राहें ।।१।।
कन्दर्प नहीं मन दर्प नहीं ।
मनु मुनिवर दूजे दर्पण ही ।।
कब राग आग आतम दाहें ।
रख चाहत घृत, न नीर भांहें ।।
शिव वधु न यूं हि देखे राहें ।।२।।
जप ‘सत्त्वेषु मैत्रीं’ भाया ।
आया शरणागत अपनाया ।।
हित शत्रु खड़े पसार बाहें ।
मन सुरत अबकि शिव वधु ब्याहें ।
शिव वधु न यूं हि देखे राहें ।।३।।
(४१)
चलते-फिरते तीरथ हैं ।
मुनि समता की मूरत हैं ।।
पर्याप्त प्राप्त कुछ जो भी ।
दिव शिव न चाह निर्लोभी ।।
करते विधि का स्वागत हैं ।
मुनि समता की मूरत हैं ।।
दो पकड़ा जाये कोई ।
या कीर्तन गाये कोई ।।
कब खींझत, कब रीझत हैं ।
मुनि समता की मूरत हैं ।।
अंजुली आया कटु, मीठा ।
खट्टा, कषायला, तीखा ।।
निर्-गृद्ध उदर पूरत हैं ।
मुनि समता की मूरत हैं ।।
(४२)
डर नरक, वन गमन ।
धन ! दिगम्बर श्रमण ।।
ग्रीषम आतापन ।
तरु-तल बरसा क्षण ।।
ठण्डी चौराहे, बिदा माड़ आसन ।
धन ! दिगम्बर श्रमण ।।१।।
भाव मैत्र हरजन ।
क्षमा भाव दुर्जन ।।
दया दीन, मनुआ हरसे लख गुणगण ।
धन ! दिगम्बर श्रमण ।।२।।
राग-द्वेष मुंचन ।
हाथ केश लुंचन ।।
धरा है ही बिछी, ओढ़ लेते गगन ।
धन ! दिगम्बर श्रमण ।।३।।
(४३)
कब द्वेष किया, कब राग किया ।
सन्तों ने सब कुछ त्याग दिया ।।
हाथों से केश उखाड़े हैं ।
वन जाकर वस्त्र उतारे हैं ।।
नख नख नक्षत्र-राज चन्दा,
गहने मल पाटल धारे हैं ।।
बन प्रतियोगी कब भाग लिया ।
सन्तों ने सब कुछ त्याग दिया ।।१।।
बरसा विरछा नीचे ठाड़े ।
ग्रीषम गिर, थिर आसन माड़े ।।
चौराहे गुजर चली ठण्डी,
कर सांय-सांय मारुत चाले ।।
पल-पल अनूठ इक जाग छिया ।
सन्तों ने सब कुछ त्याग दिया ।।२।।
नासा से दृष्टि टिका राखी ।
फिर के न कोई वस्तु तांकी ।।
ठण्डे तुषार से पड़ चाले,
न रहे ‘कि कर्ज़, कर्मन बाकी ।।
बस इनका इक बेदाग जिया ।
सन्तों ने सब कुछ त्याग दिया ।।३।।
(४४)
।। हैं सन्त स्वयं के जैसे ।।
अभिजात बाल वत् मन है ।
जल भिन्न कमल जीवन है ।।
वन चले, छोड़ धन पैसे ।
हैं सन्त स्वयं के जैसे ।।१।।
ना कहना कुछ, सब सहना ।
ना रहना टिक, नित बहना ।।
भुवि, कुछ-कुछ दरिया ऐसे ।
हैं सन्त स्वयं के जैसे ।।२।।
तर हाथ न हाथ करे हैं ।
हाथों पे हाथ घरे हैं ।।
वच अगम, कहूॅं गुण कैसे ।
हैं सन्त स्वयं के जैसे ।।३।।
(४५)
।। साधुजन वन की ओर चले ।।
नरक पतन से डर करके ।
भेष दिगम्बर धर करके ।।
नेह दुनिया से तोड़ चले ।
साधुजन वन की ओर चले ।।१।।
नासा दृग् गीली धर करके ।
विषयाशा ढ़ीली कर करके ।।
ब्याह रति शिव-वधु जोड़ चले ।
साधुजन वन की ओर चले ।।२।।
पाप, पुण्य श्रद्धा कर के ।
ज्ञान, चरित अपनाकर के ।।
सभी आकुलता तोड़ चले ।
साधुजन वन की ओर चले ।।३।।
(४६)
।। कठिन सन्तों की साधना ।।
एक बार भोजन, एक बार पानी ।
न ठहरना कहीं, दरिया सी रवानी ।।
‘रे सबके वश की बात ना ।।
कठिन सन्तों की साधना ।।१।।
पांव पांव अपने, गांव गांव जाना ।
हुये न दो महिने, कच उतार लाना ।
सेज धरा, चादर गगन आसमानी ।
न ठहरना कहीं, दरिया सी रवानी ।।
‘रे सबके वश की बात ना ।।
कठिन सन्तों की साधना ।।२।।
देख मेघ बिजुरी, आ तरु-तल रहना ।
ठण्ड कड़ाके की, बल मुट्ठी सहना ।।
गर्मी भर ‘सहजो’ लू लपटें खानी ।
न ठहरना कहीं, दरिया सी रवानी ।।
‘रे सबके वश की बात ना ।।
कठिन सन्तों की साधना ।।३।।
(४७)
तपस्या सन्तों की कठिन ।
जागना रहता रात-दिन ।।
अपने घर पर पेट भरे ।
नहिं पर घर मनुहार भले ।
और तो और एक बारी,
दिन में वो भी खड़े खड़े ।।
चढ़ना रहता लाठी बिन ।
तपस्या सन्तों की कठिन ।।
बिछौना लो बिछा धरती ।
भले गर्मी, बरसा, सरदी ।।
ओढ़ लो ये नीला गगन,
तलक जब तक श्वास चलती ।।
रहना जल में जल से भिन ।
तपस्या सन्तों की कठिन ।।
पग उठाना देख रखना ।
नाक ऊपर आंख रखना ।।
सभी सहना, न कहना कुछ,
ज़िन्दगी भर नाक रखना ।।
हैं नहिं वैसे नामुमकिन ।
तपस्या सन्तों की कठिन ।।
आचार्य भक्ति पद्यानुवाद
(१)
आचार्य नमन आचार्य नमन
वच सत्य भाव निर्मल पिछान ।
जब-तब छेड़ी गुण सिद्ध तान ।।
रत गुप्त, मुक्त क्रोधाद अगन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।१।।
जिन शासन दीप प्रकाशमान ।
मन भावन गत ऋज शिव प्रयाण ।
रत मूल कर्म रज उन्मूलन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।२।।
व्रत गत प्रमाद, सन्तुष्ट संघ ।
सित समकित अवहित मन तरंग ।।
विरचित तन अंग अंग गुण मण ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।३।।
चित आशा चित, उत्पथ विनष्ट ।
शोभत व्यवहार हृदय प्रशस्त ।।
निष्पाप निलय-प्रासुक तप-धन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।४।।
जित परिषह निष्किरिया प्रमाद ।
बहु दण्ड पिण्ड मण्डल विघात ।।
पद, हस्त, योग इन्द्रिय मुण्डन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।५।।
प्रद-कष्ट दुष्ट लेश्या विहीन ।
उन्निद्र अविचलित सांझ तीन ।।
जित करिन् करण, युत मल पटलन ।।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।६।।
गत शठ, मत्सर, मद, राग, लोभ ।
सद्भावन अतुलित विगत शोक ।।
नवकार अखण्डित श्रुत मन्थन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।७।।
गारव विभिन्न अपध्यान शून ।
गणनीय पुण्य सद्ध्यान पून ।।।
सम्पून निरोधन कुगत गमन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।८।।
तरुमूल योग अभ्राव-काश ।
आताप योग मासोपवास ।।
बहुजन हितकर चर्या धन-धन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।९।।
थिर जोग कलुष प्रतिफल विमुक्त ।
कृत मुकुल हस्त नित सविध भक्त ।।
हित ‘सहज-निराकुल’ सौख्य सदन ।
आचार्य नमन आचार्य नमन ।।१०।।
(२)
जय जयतु जयतु आचारज
सिद्धों का नाम सुमरते ।
व्रत समिति गुप्ति आदरते ।।
काषाय हन्त नन्ता कज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।१।।
जिन शासन दीप अनोखे ।
आसामी गुण रत्नों के ।।
सक्षम जर्जर कर्मारज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।२।।
धन ! गुण मण विरचित देहा ।
षट् द्रव्य विगत सन्देहा ।।
अशरण इक शरण अकारज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।३।।
तप उग्र मोह अपहारी ।
चित चित्त आश अविकारी ।।
जल जगती विभिन्न आपज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।४।।
सह परिषह मुण्डन मण्डन ।
बहु दण्ड पिण्ड मण्डल हन ।।
गत क्रिया प्रमादन तापज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।५।।
बुत तनुत्सर्ग जित निद्रा ।
मल पाटल तन, हत तन्द्रा ।।
जित विजित पंच करणा गज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।६।।
स्वाध्याय सतत चित पावन ।
गत मद-मत्सर जित आसन ।।
सद्भावन, विभावनातज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।७।।
पीछा दुध्यानन छूटा ।
निर्झर सिद्ध्यान अनूठा ।।
गत-कुत्सित भव अब खारज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।८।।
तरुमूल योग बरसा क्षण ।
अभ्रावकाश आतापन ।।
बहुजन हितकर चर्या व्रज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।९।।
अवहित वाणी मन काया ।
परिणाम न कालुष भाया ।।
गल सौरव्य निराकुलता स्रज ।
जय जयतु जयतु आचारज ।।१०।।
(३)
।। सूरि वन्दना ।।
निरतिचार व्रत ।
सिद्ध नाम रट ।।
क्रोध संध ना ।
सूरि वन्दना ।।१।।
दीव जिन धरम ।
नींव शिव सदम ।।
रज अनन्त ना ।
सूरि वन्दना ।।२।।
देह गुण मणिन ।
सहज-नेह गण ।।
दर्श मन्द ना ।
सूरि वन्दना ।।३।।
अनतरंग जप ।
मोह भंग तप ।।
रति कुपन्थ ना ।
सूरि वन्दना ।।४।।
मण्ड मुण्ड दश ।
दण्ड पिण्ड वश ।।
अलस गंध ना ।
सूरि वन्दना ।।५।।
देह लिप्त रज ।
जेय अक्ष गज ।।
निद्र-तन्द्र ना ।
सूरि वन्दना ।।६।।
शिव सुन्दर सत् ।
सुरत श्रुत सतत ।।
सिद्ध आसना ।
सूरि वन्दना ।।७।।
आर्त रौद्र हन ।
धर्म शुक्ल धन ।
कुगत बंध ना ।
सूरि वन्दना ।।८।।
अभ्र शीत पल ।
आतप तरुतल ।।
मन स्व-छन्द ना ।
सूरि वन्दना ।।९।।
भाव कलुष गुम ।
भावना कुटुम ।।
निराकुल मना ।
सूरि वन्दना ।।१०।।
(४)
सूरि सूर्य से आगे
रटना सिद्ध लगाते ।
निरतिचार व्रत नाते ।।
अन्त नन्त अरि लागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।१।।
दिव्य दीव जिन शासन ।
भव्य जीव शिव साधन ।।
दुरित दाब दुम भागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।२।।
गुण-मणि रचित शरीरा ।
निर्णय-तत्व ! गभीरा ।।
टूक न ‘लर’ हित धागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।३।।
जप तप हित हन मोहन ।
चेतस आश निरोधन ।।
सांझन जागे जागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।४।।
दश मुण्डन श्रृंगारी ।
प्रासुक पिण्ड अहारी ।।
सह परिषह मन पागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।५।।
जित अख गज जित निन्द्रा ।
अविचल अभिजित तन्द्रा ।।
लेश्या अशुभ अभागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।६।।
ज्ञान ध्यान अनुरागी ।
आसन-सिद्ध विरागी ।।
मनस् दुनाल न दागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।७।।
ध्यान रौद्र आरत ना ।
धर्म शुक्ल ध्यां गहना ।।
धन्य पुण्य बड़भागे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।८।।
वृक्ष मूल, आतापन ।
जोग अभ्र आराधन ।।
कृत जनहित बिन नांगे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।९।।
भावन कलुष भगाया ।
अचल वचन मन काया ।
धर्मलाभ बिन मांगे ।
सूरि सूर्य से आगे ।।१०।।
(५)
सूर सा तेज टपकता है
णमो सिद्धाणं रट लागी ।
सदा परिणत जागी जागी ।।
नन्त अनुबन्धन कटता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।१।।
अबुझ जिन शासन संदीपा ।
चाह मोति शिव मन सीपा ।।
कर्म विष बिरछा डिगता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।२।।
रचित गुण रूप मणिन देहा ।
द्रव्य षट् रञ्च न संदेहा ।।
निरालस भाव प्रकटता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।३।।
उग्र तप तापस हन मोहन ।
दृष्टि-नासा आशा-रोधन ।।
पाप संताप विघटता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।४।।
न सिर मुण्डित, मुण्डन मण्डन ।
विजित परिषह प्रमाद खण्डन ।।
पिण्ड प्रासुक इक रिश्ता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।५।।
जेय गज-इन्द्रिय जित तन्द्रा ।
देह मल-पटल विजित निद्रा ।।
मन अशुभ लेश्या हटता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।६।।
अतुल ! पुन काय ! सिद्ध आसन ।
सतत स्वाध्याय चित्त पावन ।।
नदारत मत्सर-शठता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।७।।
आर्त दुर्ध्यान रौद्र खो’री ।
धर्म सद्ध्यान शुक्ल झोरी ।।
बन्ध दुर्गतियन टलता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।८।।
मूल-तरु, आतप आराधा ।
जोग अभ्रावकाश साधा ।
चरित घन, मयूर जनता है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।९।।
अविचलित मन काया वाणी ।
रवानी भाँत सरित पानी ।।
कहीं तो यहीं ‘सहजता’ है ।
सूर सा तेज टपकता है ।।१०।।
(६)
जयतु जय सूरीश्वर
सिद्ध रटना ।
शुद्ध चरणा ।
मान हट ना, ज्ञान भी…तर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।१।।
अबुझ ज्योती ।
शिव बपौती ।
उदक मोती, झलक भीतर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।२।।
संदृष्ट धन ।
संतुष्ट गण ।
तन पुष्ट गुण, मण सुधीवर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।३।।
उपवास व्रत ।
वनवास नित ।
चित आश चित, कण्ठ ‘भी’ स्वर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।४।।
गण्य पुन धन ।
मुण्ड मण्डन ।
दण्ड खण्डन, पिण्ड स्वीकर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।५।।
विजित निद्रा ।
विगत तन्द्रा ।
जित गजेन्दा अख, महीतल ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।६।।
सतत श्रुत रत ।
मद विनिर्गत ।
दुरित उपरत, रोशनी अर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।७।।
दुर्ध्यान हट ।
सद्ध्यान पथ ।
सुन ध्यान सत्, दृग तृती’तर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।८।।
वृक्ष प्रावृट् ।
अभ्र चतु पथ ।
आतप निरत, भय सभी हर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।९।।
अविचल अतुल ।
सुख ‘निराकुल’ ।
‘रे मिला कुल, दो यही वर ।
जयतु जय सूरीश्वर ।।१०।।
(७)
जय जयतु सूर जय
सिद्धों का सिमरन ।
धन मूलोत्तर गुण ।।
अनुबन्ध नन्त क्षय ।
जय जयतु सूर जय ।।१।।
जिन शासन दीवा ।
चाह शिव अतीवा ।।
तय कर्म रज विलय ।
जय जयतु सूर जय ।।२।।
गुण मण विरचित तन ।
सन्तुष्टिकर गण ।।
अटल तत्व निर्णय ।
जय जयतु सूर जय ।।३।।
वासा दृग् नासा ।
नाशा चित आशा ।।
जप तप सदय हृदय ।
जय जयतु सूर जय ।।४।।
दण्ड पिण्ड खण्डन ।
दश मुण्डन मण्डन ।।
सकल परिषह विजय ।
जय जयतु सूर जय ।।५।।
जल्ल मल्ल देहा ।
लेश्य शुभ सनेहा ।।
अभिजित इभ इन्द्रिय ।
जय जयतु सूर जय ।।६।।
नित श्रुत आराधन ।
चित चित सिद्धासन ।।
भाव प्रशस्त प्रशय ।
जय जयतु सूर जय ।।७।।
ध्यान शुभ समर्थन ।
ध्यान अशुभ निरसन ।।
गण्य पुण्य संचय ।
जय जयतु सूर जय ।।८।।
जोग अभ्र आतप ।
वृक्ष मूल तर जप ।।
जनहित चरित अभय ।
जय जयतु सूर जय ।।९।।
मन, वच, तन अवहित ।
यम संयम अब हित ।।
सुख ‘निराकुल’ अछय ।
जय जयतु सूर जय ।।१०।।
(८)
आचार्य श्री मेरे ।।
रट सिद्ध नाम लागी ।
यम संयम अनुरागी ।।
अनुबन्ध-नन्त फेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।१।।
दीपक जिन शासन के ।
इच्छुक शिव राधन के ।।
खुद हट चले अंधेरे ।।
आचार्य श्री मेरे ।।२।।
सन्तुष्ट संघ साधो ।
धन दृष्ट श्रवण भादों ।।
षट् द्रव्य न बहुतेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।३।।
तप उग्र मोह नाशी ।
गिर, कन्दर वन-वासी ।।
वश कब आश अछेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।४।।
मुण्डन मुण्डन मण्डन ।
दण्डन पिण्डन खण्डन ।।
जागृत सांझ सवेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।५।।
जित निन्द्रा अविकल ।
कार्योत्सर्ग अचल ।।
मल पटल देह घेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।६।।
नित रत स्वाध्याया ।
उपरत मद माया ।।
झट आसन रीझे ‘रे ।
आचार्य श्री मेरे ।।७।।
दुर्ध्यान निरोधन ।
सध्यान शिरोमण ।।
सुर’ भी पुण्य बिखेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।८।।
जोग अभ्र, तरुतर ।
आतप सूर प्रखर ।।
विरद विदिश् दिश् डेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।९।।
थिर मन, वच, काया ।
दया हाथ दाया ।।
सौख्य ‘निराकुल’ टेरे ।
आचार्य श्री मेरे ।।१०।।
(९)
दर्शन सूरि बलिहारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी ।।
सिमरण सिद्ध आठो याम ।
संयम, यम, नियम निष्काम ।।
परिणत पाप संहारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।१।।
शासन जैन जगमग दीव ।
राधा मुक्ति ब्याह करीब ।।
जड़ तरु कर्म हिल चाली ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।२।।
गुण मण रचित दिव्य शरीर ।
निश्चत द्रव्य षट् जल तीर ।।
शशि बिच रिक्ष अनगारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।३।।
जप तप हेत मोह विनाश ।
विरहित पाप विगलित आश ।।
प्रासुक निलय अविकारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।४।।
परिषह विजित मण्डन मुण्ड ।
वर्जित दण्ड मण्डल पिण्ड ।।
रहित प्रमाद व्रत धारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।५।।
इंद्रिय जित विजित उपसर्ग ।
निन्द्रा रहित कायोत्सर्ग ।।
देह विलिप्त मल वाली ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।६।।
पावन मन, सतत स्वाध्याय ।
आसन सिद्ध मन्द कषाय ।।
मत्सर तिमिर तिमिरारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।७।।
आरत रौद्र दुर्ध्यां हान ।
भावित धर्म शुक्ला ध्यान ।।
गत गारव निरतिचारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।८।।
आतप जोग पादप मूल ।
तप अभ्रावकाश समूल ।।
चरिया लोक हितकारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।९।।
थिर मन, काय थिर, थिर वाक् ।
उपरत मद कलुष परिपाक ।।
‘सहजो’-सौम्य अधिकारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।
करुणा, क्षमा भण्डारी ।
दर्शन सूरि बलिहारी ।।१०।।
(१०)
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।
जय जयकारा, जय जयकारा ।।
फिरें णमो सिद्धाणं मनके ।
धनी मूल-गुण उत्तर-गुण के ।।
क्रोध नन्त अनुबन्ध विडारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।१।।
जिन शासन के दीप निराले ।
राधा मुक्ति चाहने वाले ।।
समरथ उनमूलन भवकारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।२।।
गुण मणि विरचित दिव्य शरीरा ।
सिन्धु द्रव्य षट् विनिश्च तीरा ।।
शशि बिच संघ चतुर्विध तारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।३।।
साध उग्र तप मोह विनाशी ।
गिरि, कन्दर, वन शून निवासी ।।
अबकि चित्त चित् खानन चारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।४।।
मण्डन मुण्डन ऊरध रेता ।
जित परिषह उपसर्ग विजेता ।।
दृग् न चार उद्दिष्ट अहारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।५।।
अभिजित इन्द्रिय रूप गजेन्द्रा ।
तन मल पटल, अचल जित निन्द्रा ।।
दुष्ट कष्ट प्रद लेश्य संहारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।६।।
गत मत्सर निर्लोभ विरागी ।
आसन सिद्ध जगत बड़भागी ।।
‘रे स्वाध्याय अखण्डित धारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।७।।
पीछा आर्त रौद्र ध्यां छूटा ।
धर्म शुक्ल सद्ध्यान अनूठा ।।
पुण्य सातिशय-पांत अगारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।८।।
वृक्षमूल, आतपन जोगा ।
दृढ़ अभ्रावकाश संजोगा ।।
बहुजन हित कर चरित्र निराला ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।९।।
लासानी मन, काया, वाणी ।
भावन कलुष न नाम निशानी ।।
सौख्य ‘निराकुल’ देने वाला ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।
जय जयकारा, जय जयकारा ।
सांचा भगवन् सूरि दुवारा ।।१०।।
(११)
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।
सिद्ध सुमरण ।
बुध क्रोध हन ।।
सत् वचन लखन सुमन ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।१।।
दीप दिव स्वर ।
नींव शिव घर ।।
कर्म कण नुक्षण क्षरण ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।२।।
जेय मन-गण ।
देह गुण मण ।।
स्वनुभवन सदन सजन ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।३।।
तप उग्रतर ।
जप अग्रसर ।।
आश मन विजन गमन ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।४।।
मुण्ड मण्डन ।
पिण्ड शुध धन ।।
जित विघन दुगन दुगन ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।५।।
तन पटल मल ।
उन्निन्द्र पल ।।
वश करण करिन् करण ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।६।।
सतत श्रुत रत ।
विगत अठ मद ।।
जितासन वरन वरन ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।७।।
दुर्ध्यान गुम ।
सद्ध्यान द्रुम ।।
पुण्य तन भुवन भुवन ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।८।।
अभ्र, आतप ।
मूल-तरु तप ।।
हित भुवन चरण वरण ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।९।।
सुख ‘निराकुल’ ।
रुख मिला कुल ।।
कलुष मन हरण शरण ।
अभिनन्दन, सूर भगवन् ।।१०।।
(१२)
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर
सिद्ध वन्दना निरत ।
छिद्र संध ना विरत ।।
दोष रोष कोस दूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।१।।
दीप अहिंसा धरम ।
दक्ष ध्वंस रज करम ।।
चाह ब्याह मुक्ति हूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।२।।
नेह छोड़-स्वार्थ गण ।
देह जोड़ गुण मणिन ।।
द्रव्य षट् विनिश्च तूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।३।।
अस्त मोह उग्र तप ।
मन प्रशस्त प्रणव जप ।।
आश-पाश ध्वंस चूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।४।।
झुण्ड मुण्ड मण्डनन ।
दण्ड पिण्ड खण्डनन ।।
सहन परी-षहन पूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।५।।
तन विलिप्त मल-पटल ।
अलस सुप्त, प्रण अटल ।।
विजित करण करिन् क्रूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।६।।
अखण्ड स्वाध्याय धन ।
खण्ड मद कषाय पन ।।
सिद्धासन दिव्य नूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।७।।
आर्त रौद्र ध्यान हट ।
धर्म शुक्ल ध्यान पथ ।।
धन्य पुण्य गण्य भूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।८।।
ताप अभ्र योग अर ।
वृक्ष मूल योग धर ।।
चर्चा जन हित प्रपूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।९।।
अवहित तन, मन, वचन ।
सुमरण आवीचि क्षण ।।
सौख्य ‘निराकुल’ अदूर ।
नमन सूर, नमन सूर, नमन सूर ।।१०।।
(१३)
सिद्धों का कर थवन रहे हैं ।
कर कषाय उप शमन रहे हैं ।।
गुप्ति मुक्ति जुत परिचय प्राञ्चल,
मन का दे सत् वचन रहे हैं ।।१।।
मुनि पुगंव शिव सुख अभिलाषी ।
देह दीप जिन धर्म प्रकाशी ।।
कुशल बद्ध रज मूल विघातन,
सूरि चरण तिन पाप विनाशी ।।२।।
गुण-मणि रचित देह दृग्-धारी ।
विबुध द्रव्य षट् गण मनहारी ।।
चर्या रहित प्रमाद सूरि तिन,
चरण वन्दना मङ्गल कारी ।।३।।
प्रासुक निलय कुशल व्यवहारा ।
मृग-तृष्णा चित् नाशन-हारा ।।
अनघ-मोह-छिद्-तप, हत-उत्पथ,
सूरि चरण तिन नमन हमारा ।।४।।
लसित मुण्ड दश सजग गभीरा ।
गत बहु-दण्ड-पिण्ड गण, धीरा ।।
अभिजित परिषह सकल सूरि तिन,
‘पद वारिज’ रज भव जल तीरा ।।५।।
विगत अशुभ लेश्या संंज्ञानी ।
तन अलिप्त जिन, अविचल ध्यानी ।।
कायोत्सर्ग वास गिरि, कन्दर,
सूरि जितेन्द्रिय शम-रस सानी ।।६।।
रत स्वाध्याय सतत अभिरामी ।
आसन सिद्ध, सरल परिणामी ।।
अतुल, अमल, अपगत, मद माया,
राग-लोभ भावी शिव गामी ।।७।।
भिन्न पक्ष दुर्ध्यान विरागी ।
पुण्य ! पिधान-कुगति बड़भागी ।।
निरत ध्यान शुभ विगलित गारव,
सूरि चरण तिन मन अनुरागी ।।८।।
विभव समेत पाप भयभीता ।
बहु हितकर चर्या भय-रीता ।।
समय मूल-तरु आतप तप-तप
योग अभ्र अवकाश व्यतीता ।।९।।
नेतृ-श्रमण थिर मन वच काया ।
रहित त्रिगद किल्विष मति जाया ।।
पग दें, पथ-पाथेय मुझे आ-
चार्य हेत इस थवन उपाया ।।१०।।
प्राप्त हृदय श्रुत प्रतिभाशाली ।
प्रशम प्राप्त मति हंस निराली ।।
विदित लोक थिति पूर्व दृशोत्तर,
विहत आश लौकिक वैताली ।।११।।
प्रभो प्रश्न सह पर मनहारी ।
गुण निधि पर निन्दा अपहारी ।।
हित मित वचनस्-पष्ट देव आ-
चार्य विहर लें पीर हमारी ।।१२।।
वृत्ति विशुद्ध वचन, मन, काया ।
हृदय ज्ञान खिल ग्रन्थ समाया ।।
पन्थ प्रवर्तन सद्-विधि रत मन,
जिनका पर प्रतिबोधन आया ।।१३।।
विद् व्यवहार लोक गृह करुणा ।
निस्पृह निर्मद मृदुता-भरणा ।।
यति पति सिंह आचार्य सुजन जन,
गुरु भव जल वे तारण-तरणा ।।१४।।
तप-निधान व्रत, रज विहीन हैं ।
स्वपर मत विभावन प्रवीण हैं ।।
गुण गभीर, ‘गुरु’ पार जलधि श्रुत,
तिन्हें समर्पित साँझ तीन हैं ।।१५।।
निरत पन विधाचार करण में ।
कुशल शिष्य उपकार करण में ।।
गुण छत्तीस निलय संदर्शक,
‘गुरु’ समर्थ भव-पार करण में ।।१६।।
पाप कर्म सारे खिर जाते ।
जन्म किनारा यम कर जाते ।।
कहें कहाँ तक, बन्धु ससंयम,
सिन्धु कृपा ‘गुरु’ भव तिर जाते ।।१७।।
निरत होम व्रत मन्त्र भावना ।
क्रिया साधु नित निरत साधना ।।
ध्यान अग्नि होत्रा-कुल तप-धन,
धनिक कर्म रत षटाराधना ।।१८।।
वसन शील गुण आयुध कर में ।
कहाँ भा यथा, शशि-दिनकर में ।।
मोक्ष द्वार भट कपाट पाटन,
श्री गुरु वर अनुचरा-नुचर मैं ।।१९।।
शिव पथ का करते प्रचार हैं ।
नायक दृक्, अवगम उदार हैं ।।
सिन्धु-चरित गुरु करें कृपा वे,
जोड़ हाथ हम, खड़े द्वार हैं ।।२०।।
*दोहा*
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सूरि मुनि नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़, नत माथ ।।२१
सूरि पञ्च आचारज धारी ।
ज्ञान, चरित्र, दृक्-धर अविकारी ।।
उपदेशक श्रुत ज्ञान भान उव-
झाय साधु गुण मण अधिकारी ।।२२।।
तिन गुरु-देव करूँ सुमरण भो ।
लाभ रतन-त्रय, सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरहत,
सम्पद वरण समाधि मरण हो ।।२३।।
‘श्री तत्त्वार्थ-सूत्र-जी पद्यानुवाद’
प्रथमो अध्याय:
सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञाना ।
सम-चरित मोक्ष मारग माना ।।१।।
श्रद्धान अटल तत्त्वार्थ परम ।
सम-दर्शन, शिव-सोपन प्रथम ।।२।।
सम दर्शन हेत निसर्ग एक ।
अधिगम इक और अनर्घ लेख ।।३।।
चेतन, जड़, आस्रव-बन्ध भ्रात ।
संवर, निर्जर, शिव तत्व सात ।।४।।
निक्षेप-थापना, नाम, द्रव्य ।
निक्षेप-भाव, ध्यातव्य भव्य ।।५।।
जुड़ता प्रमाण नय से नाता ।
अधिगम तत्त्वों का हो जाता ।।६।।
निर्देश, स्वामि, साधन, विधान ।
अधि-करणस्-थिति मार्गणा थान ।।७।।
क्षेत्रन्तर, काल, संख्य, पर्शन ।
बहु अल्प भाव सत्-दिग्दर्शन ।।८।।
मति-ज्ञान, ज्ञान-श्रुत, अवधि-ज्ञान ।
मन-पर्यय, केवल-ज्ञान भान ।।९।।
यह सम्यक् ज्ञान विभेद पञ्च ।
जुग-भेद प्रमाण कथित विरञ्च ।।१०।।
थित-आदि, ज्ञान-मति-श्रुत सुजान ।
पहले परोक्ष नामक प्रमाण ।।११।।
अवधी मन-पर्यय सकल-ज्ञान ।
प्रत्यक्ष नाम दूजे प्रमाण ।।१२।।
मति, मृति, संज्ञा, चिंता साँची ।
अभिनिबोध-एकारथ-वाची ।।१३।।
मति-ज्ञान जन्म इन्द्रिय मन से ।
गुरु-मुख ‘निस्सृत’ मुख-भगवन् से ।।१४।।
अव-ग्रह, ईहा, अवाय, धारण ।
मति ज्ञान प्रभेद तरण-तारण ।।१५।।
बहु, बहुविध, अनिसृत, क्षिप्र, उक्त ।
ध्रुव और इतर इनके अनुक्त ।।१६।।
यह बारह मिल कर सभी भेद ।
होते पदार्थ के, कहें वेद ।।१७।।
व्यंजन विख्यात नाम जिसका ।
बस सिर्फ अवग्रह ही उसका ।।१८।।
न ‘अवग्रह-व्यजंन’ मन द्वारा ।
होता न कदापि नयन द्वारा ।।१९।।
श्रुत ज्ञान जन्म मति ज्ञान पूर्व ।
जुग भेद नेक द्वादश अपूर्व ।।२०।।
अधिकारी देव तथा नारक ।
भव प्रत्यय ज्ञान-अवधि नामक ।।२१।।
सविकल्प-षट् क्षयुपशम निमित्त ।
हिस्से तिर्-यञ्च मनुज पवित्र ।।२२।।
ऋजु मति, मन-पर्यय ज्ञान एक ।
मति-विपुल अपर जैना-भिलेख ।।२३।।
इन दोंनो में लायें अन्तर ।
इक विशुद्धि, अप्-प्रति-पात इतर ।।२४।।
वर विशुद्धि, क्षेत्र, विषय, स्वामी ।
अर अवधि, मनः पर्यय नामी ।।२५।।
कुछ ही पर्याय समस्त द्रव्य ।
मतिज्ञान, ज्ञान-श्रुत विषय दिव्य ।।२६।।
अद्भुत अनूप भवि अवधि-ज्ञान ।
जाने पदार्थ बस रूप वान ।।२७।।
सर्वा-वधि विषय अनन्त भाग ।
जानें मन-पर्यय धर-विराग ।।२८।।
जानें युगपत् केवल ज्ञानी ।
पर्याय द्रव्य सब, ’जिनवाणी’ ।।२९।।
युगपत् इक आतम में प्रधान ।
हो सकते इक-लग चार ज्ञान ।।३०।।
मति-ज्ञान-अवधि-श्रुत मिथ्या-भी ।
होते सम्यक् भी, वाँचा-‘भी’ ।।३१।।
गत-हस्त असत्-सत् भंग सात ।
कुग्-ज्ञान ज्ञान उन्मत्त भाँत ।।३२।।
ऋजु सूत्र, शब्द, संग्रह, नैगम ।
व्यवहार, भिरुढ़, भूत-एवम् ।।३३।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
प्रथ-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।१।।
‘द्वितीय अध्याय’
उपशम, क्षय स्व-तत्व जीव राव ।
क्षयु-पशम उदय परिणाम भाव ।।१।।
क्रमश: जुग, नव,’नव-नव’ समेत ।
इक्कीस, ’भाव इन’ तीन भेद ।।२।।
जुग-भाव-औपशम जैन-अखर ।
सम्यक्त्व एक चारित्र अपर ।।३।।
दृग्, चारित ज्ञान-सकल-दर्शन ।
नव भाव क्षायिकन लब्धिन पन ।।४।।
दृग्, चरित मिश्र व्रत लब्धिन पन ।
चउ ज्ञान-अज्ञान तीन दर्शन ।।५।।
औदयिक कषाय लेश्य अविरत ।
दृग्, मिथ्या ज्ञान असिध लिंग गत ।।६।।
भव्यत्व और जीवत्व नाम ।
भवि ! भाव तीन यह पारिणाम ।।७।।
गुरु-देव, देव-पुरु प्रवचन है ।
उपयोग जीव का लक्षण है ।।८।।
उपयोग ज्ञान-इक भेद आठ ।
विध चउ दर्शन औ’ जैन पाठ ।।९।।
संसारी एक मुक्त दूजा ।
जुग भेद जीव ध्वनि जिन गूँजा ।।१०।।
जुग भेद जीव संसारी जन ।
मन सहित दूसरे विरहित मन ।।११।।
थावर संसारी कहलाते ।
त्रस भी संसारी में आते ।।१२।।
भू, वनस्पति, जल, अनिल, अनल ।
थावर यह झलके ज्ञान सकल ।।१३।।
इन्द्रिय दो, तीन, चार, पाँचा ।
त्रस, ‘आगम-जैन’ इन्हें वाँचा ।।१४।।
गर कहो, इन्द्रियाँ कितनी हैं ।
बस पाँच, नहीं अनगिनती हैं ।।१५।।
भो ! भेद इन्द्रियों के कितने ।
सँग बेरी के काँटे जितने ।।१६।।
निर्वृति और उपकरण नाम ।
द्रव्येन्द्रिय भेद-जुगल ललाम ।।१७।।
इक लब्धि नाम उपयोग अवर ।
भावेन्द्रिय भेद कथित जिनवर ।।१८।।
पर्शन इक इन्द्रिय इक रसना ।
इक घ्राण, चक्षु इन्द्रिय श्रवणा ।।१।।
तिन विषय पर्श, रस, गंध, वरण ।
अरु शब्द कथित जिनवर प्रवचन ।।२०।।
विश्रुत ! श्रुत-सुत में आते जो ।
श्रुत, मन का विषय बताते वो ।।२१।।
भू, वनस्पती, जल, अग्नि, पवन ।
थावर इन इन्द्रिय इक पर्शन ।।२२।।
कृमि, पिपीलिका, अलि, मनु-जाये ।
बढ़ती इक-इक इन्द्रिय पाये ।।२३।।
है जीव असंज्ञी मन रीता ।
मन सहित जीव संज्ञी, ’गीता’ ।।२४।।
गति विग्रह कर्म-निमित्त योग ।
तिन कथन वचन जिन सत्य-योग ।।२५।।
अनुसार श्रेणि के होती है ।
गति-विग्रह केवल ज्योति है ।।२६।।
जीवन जिन मनी दिवाली है ।
गति तिन, बिन मोड़े वाली है ।।२७।।
चउ समय पूर्व, मोड़े वाली ।
गति कही जीव-जन संसारी ।।२८।।
इक समय खरचता खाली है ।
ऋजु गति बिन मोड़े वाली है ।।२९।।
रहता गर जीव अनाहारक ।
तो समय इक-‘दु’-या तीन तलक ।।३०।।
सम्मूच्छन इक,वच मात-परम ।
इक गर्भ एक उप-पाद जनम ।।३१।।
चित् शीतल संवृत और इतर ।
सम्मिश्र योनि नव, ’रव-जिनवर’ ।।३२।।
इक गर्भ जरायुज बतलाया ।
अण्डज इक-पोत ‘तोत्र’ गाया ।।३३।।
सुर-नारक जो कहलाते हैं ।
उपपाद जन्म वो पाते हैं ।।३४।।
उपपाद अलावा जन्म गरभ ।
सम्मूर्च्छन जेते जीव सरब ।।३५।।
औदारिक एक वैक्रियिक तन ।
आहारक इक तैजस कार्मण ।।३६।।
तन जो आगे-आगे आते ।
अर और सूक्ष्म होते जाते ।।३७।।
तैजस शरीर तक, तन सारे ।
सुन, गुण असंख्य प्रदेश वाले ।।३८।।
आहारक से तैजस, कार्मण ।
गुण नन्त प्रदेश रखें प्रवचन ।।३९।।
तैजस, कार्मण यह जुगल देह ।
अप्-प्रतिघाती प्रवचन विदेह ।।४०।।
तैजस, कार्मण यह जुगल गात ।
हैं नादि-काल से जीव साथ ।।४१।।
सब के सब ही संसारी जन ।
रखते शरीर तैजस कार्मण ।।४२।।
हो सकते, लग इन देह चार ।
युगपत् जीविक ध्वनि-दिव्य सार ।।४३।।
कार्मण नाम अंतिम शरीर ।
सुनि, निरुपभोग धुनि-मुनि-गभीर ।।४४।।
सम्मूर्च्छन गर्भ जन्म पाते ।
देही औदारिक कहलाते ।।४५।।
शैय्या उपपाद जन्म पाते ।
देही वै-क्रियिक कहे जाते ।।४६।।
वैक्रियिक शरीर अनोखा है ।
सम्भाव्य ऋद्धि भी होता है ।।४७।।
तैजस शरीर भी इसी भाँत ।।
तप-तप-विशेष, है लगे हाथ ।।४८।।
तन आहारक संयत प्रमत्त ।
शुभ अव्-व्याघाती इक विशुद्ध ।।४९।।
सम्मूर्च्छन नारक में आते ।
वे वेद नपुंसक इक पाते ।।५०।।
देवों में वेद नपुंसक ना ।
कहना तिनका जो हिंसक ना ।।५१।।
इन सिवा जीव जे बच जाते ।
वे वेद यथा सम्भव पाते ।।५२।।
सुर नारक, चरमोत्तम देही ।
पूर्णायु असंख्य वर्ष सेवी ।।५३।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
द्विती-यो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।२।।
‘तृतीय अध्याय’
भा रत्न, शर्करा, बालु, पंक ।
तर धूम तमः तम महा बंक ।।
घनु-दधि प्रतिष्ठ घन-तनू-वात ।
स-प्रतिष्ठ स्वयं आकाश बाद ।।१।।
लख तीस, बीस-पन, दश-पन दश ।
बिल तीन, पाँच कम इक, पन-बस ।।२।।
विक्रिया वेदना लेश्या-तन ।
परिणाम अशुभ-तर नारक-जन ।।३।।
हा ! जीव नरक जेते रहते ।
दुख आपस में देते रहते ।।४।।
दुख देते देव असुर-कुमार ।
जा तलक-नरक तीजे कराल ।।५।।
इक, तीन, सात, दश जुग मिल कर ।
वय दुबीस, ’तीस-तीन-सागर’ ।।६।।
जम्बू लग सिन्ध-लवण ललाम ।
सागर असंख्य शुभ द्वीप नाम ।।७।।
आकार-वलय पृथु दुगुण-दुगुण ।
घेरे पुरु द्वीप-समुद्र शगुन ।।८।।
तिन बिच पृथु जोजन इक लाखा ।
जुत नाभि मेरु जम्बू भाखा ।।९।।
इक भरत हैमवत नाम एक ।
हरि इक विदेह धर-नर-विवेक ।।
रम्यक इक हैरण्-यवत भ्रात ।
ऐरावत मिल ये क्षेत्र सात ।।१०।।
विस्तृत समुद्र पूरब पश्चिम ।
ले सिर, इन क्षेत्र विभाग धरम ।।
गिरि हिमवन्, हिमवन्-महा, निषध ।
गिरि नील, रुक्मि, शिखरी पर्वत ।।११।।
सुवरण, अर्जुन, तपनीय स्वर्ण ।
वै-डूर्य, रजत-मय हेम वर्ण ।।१२।।
मणि चित्र-विचित्र पार्श्व गिरवर ।
सम विस्तृत मूल मध्य ऊपर ।।१३।।
‘पद्-मौर’ पद्म तिगिन्छ केसर ।
मह पुण्डरीक-पुण्-डरीक सर ।।१४।।
सर लम्बा इक हजार योजन ।
चौड़ा ‘सौ’ पाँच-बार योजन ॥१५॥
सर, नाम-पद्म जो पहला है ।
भवि ! वह दश योजन गहरा है ॥१६॥
सरवर तिस बीचों बीच अचल ।
इक योजन वाला एक कमल ॥१७॥
सर और कमल अगले-अगले ।
दुगुने लम्बे चौड़े गहरे ॥१८॥
श्री, ही, धृति, लक्ष्मी, कीर्ति, बुद्ध ।
पल्यिक समान परिषद् निबद्ध ।।१९।।
धुनि-गंगा, सिन्धु-नदी, रोहित ।
धुनि-रोहितास्य इक सरित्-हरित ।।
हरि, कान्ता, सीता, सीतोदा ।
नारी,नर-कान्ता जल-स्रोता ।।
धुनि-स्वर्ण-कूल, धुनि-रूप्य-कूल ।
रक्ता, रक्तोदा तोय-मूल ।।२०।।
धुनि-जुगल पूर्व में आतीं जो ।
भवि ! दिशा-पूर्व में जातीं वो ।।२१।।
अवशेष सात धुनि इन चौदा ।
दिश्-पश्चिम बढ़ा रही शोभा ।।२२।।
परिवृत गंगा सिन्ध्वादि-धार ।
परिवार नदी चौदह हजार ।।२३।।
पृथु भरत पाँच-सौ अर छबीस ।
योजन छह भागर-‘भा-गुनीस’ ।।२४।।
गिरि क्षेत्र विदेह तलक आते ।
दुगुने-दुगुने होते जाते ।।२५।।
गिरि क्षेत्र यथा दक्षिण भाषे ।
गिरि क्षेत्र तथा उत्तर भासे ।।२६।।
छह-छह, ’जी उत्सर्पिणी काल ।
छह-छह ही अव-सर्पिणी काल ।।
उनमें भरतै-रावत इन में ।
भवि ! वृद्धि, हास हो छिन छिन में ।।२७।।
इन सिवा भूम जे जे विशाल ।
वे रहें अवस्थित सदा-काल ।।२८।।
है-मवत पल्य हरि वर्ष जुगल ।
कुरु-देव पल्य त्रिक् आयुष बल ।।२९।।
वय कहीं यथा दक्षिण ‘मानौ’ ।
वय रही तथा उत्तर मानो ।।३०।।
जो क्षेत्र विदेह प्रदत्त-हर्ष ।
हो वहाँ आयु संख्यात वर्ष ।।३१।।
इक सौ नब्बे कर जम्बु-भाग ।
इक भाग-भाग बस भरत-जाग ।।३२।।
जो कही द्वीप जम्बू विभूत ।
वो दुगुण खण्ड़-धातकि अकूत ।।३३।।
निधि खण्ड़-धातकी जैसी है ।
भवि ! आधे-पुष्कर वैसी है ।।३४।।
गिरि मानु-षोत्-तरन पहले बस ।
जा सकते धर-शरीर-मानस ।।३५।।
दो भेद मनुज, गिर्-जिन-मुखरित ।
इक आर्य, म्लेच्छ न लव-संस्कृत ।।३६।।
भवि ! विदेह कुरु दे-वुत्तर तज ।
भू-कर्म भरत-ऐरावत रज ।।३७।।
वय तीन पल्य उत्कृष्ट लखन ।
अन्तर्-मुहूर्त वय मनुज जघन ।।३८।।
वय जितनी कही मनुष्यों की ।
वय उतनी रही तिर्यचों की ।।३९।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
तृती-यो(ध्)-ध्यायः नमो नमः ।।३।।
‘चतुर्थ अध्याय’
इक देव भवन-वासी-व्यन्तर ।
ज्योतिष इक वासी-कल्प अमर ।।१।।
आदिन् सुर तीन निकाय मीत ।
होतीं लेश्या पर्यन्त पीत ।।२।।
पन ज्योतिष, दुदश कल्प वासी ।
वसु व्यन्तर, रुदश भवन वासी ।।३।।
दश त्रिदश, इन्द्र इक सामानिक ।
जग-पाल-पारिषद, किल-वीषिक ।।
अभि-योग्य अनी-किक पर-कीर्णक ।
त्रायस-त्रिं-शरु आतम रक्षक ।।४।।
व्यन्तर ज्तोतिष्क निकाय जुगल ।
त्रायस्-त्रिंशरु जग-पाल विकल ।।५।।
पूरब गिनाय जो दो निकाय ।
हैं उनमें दो-दो इन्द्र राय ।।६।।
पर्यन्त स्वर्ग-पुर ऐशाना ।
प्रविचार काय द्वारा माना ।।७।।
होता प्रविचार परस द्वारा ।
फिर रूप शब्द मानस द्वारा ।।८।।
जा सोलह स्वर्गों से ऊपर ।
अप्-प्रवीचार-धर सभी अमर ।।९।।
दश भेद-देव वासी-भवनन ।
भवि ! असुर कुमार, नाग,सुपरण ।।
इक उदधि-कुमार, कुमार-तनित ।
दिक्, द्वीप, वात, अग्निन्, विद्युत ।।१०।।
नामा गन्धर्व, पिशाच त्रिदश ।
इक भूत, यक्ष नामा राक्षस ।।
किम्पुरुष, महोरग अर किन्नर ।
यह आठ प्रभेद देव-व्यन्तर ।।११।।
शशि, सूर्य, नखत, ग्रह, तारा-गण ।
ज्योतिष्क-देव, यह विभेद पन ।।१२।।
नर-लोक देव ज्योतिष तमाम ।
रत मेरु प्रदक्षिण आठ-याम ।।१३।।
गतिमान देव-ज्योतिष द्वारा ।
हो सके विभाग-काल सारा ।।१४।।
बाहिर हैं द्वीप अढ़ाई जे ।
ज्योतिष्क देव संस्थाई वे ।।१५।।
जे जन्म विमानों में पाते ।
वैमानिक देव-कहे जाते ।।१६।।
वैमानिक इक कल्पोप-पन्न ।
वैमानिक कल्पा-तीत अन्य ।।१७।।
ये वैमानिक विमान न्यारे ।
संस्थित ऊपर-ऊपर सारे ।।१८।।
सौधर्म देव ऐशान नाम ।
सानत मा-हेन्द्र विमान नाम ।।
सुर ब्रह्म नाम सुर ब्रह्मोत्-तर ।
नामा लान्तव कापिष्ठ शुकर ।।
सुर महा-शुक्र नामा शतार ।
कल्पोप-पन्न इक सहस्-स्रार ।।
आनत प्राणत आरण अच्युत ।
ग्रै-वेयक नव अनुदिश अद्भुत ।।
सुर विजय वै-जयंतर जयन्त ।
अपराजित सुर सर्वार्थ सिद्ध ।।१९।।
सुख, अवधि-विषय-इन्द्रिय, प्रभाव ।
थिति लिये लेश्य द्युति बढ़त भाव ।।२०।।
सुर ऊपर ऊपर हीन जान ।
गति, देह, परिग्रह’अर गुमान ।।२१।।
जुग स्वर्ग पीत, त्रिक स्वर्ग पद्म ।
लेश्या शुक्ला सुर-शेष-सद्म ।।२२।।
लग स्वर्ग प्रथम, ग्रै-वेय-पूर्व ।
है कल्प-नाम संज्ञा अपूर्व ।।२३।।
नामा जग-ब्रह्म स्वर्ग पंचम ।
सुर लौकान्तिक झूमें परचम ।।२४।।
लौकान्तिक देव प्रकार आठ ।
आदित्य, अरुण इक ‘वह्-नि’ पाठ ।।
इक गर्द तोय, इक सारस्वत ।
इक अरिष्ट, अव्याबाध, तुषित ।।२५।।
विज-यादि विभव भव जे पाते ।
द्वि चरम-शरीरी में आते ।।२६।।
जे नारक नर-सुर अर तमाम ।
संसार जीव तिर्-यञ्च नाम ।।२७।।
वय सागर एक असुर कुमार ।
वय पल्य तीन अहि-सुर कुमार ।।
दो पल्य द्वीप, ढ़ाई सुपरण ।
वय डेढ़-पल्य अवशेष छहन ।।२८।।
उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागर ।
सौधर्म और ऐशान सफर ।।२९।।
माहेन्द्र आयु सानत प्रधान ।
कुछ अधिक सात सागर प्रमाण ।।३०।।
वय ब्रह्मोत्-तर-अर दश सागर ।
जुग-लान्तव वय चौदस सागर ।।
वय शुक्र जुगल-सागर षट्-दश ।
वय जुग-सतार सागर अठ-दश ।।
वय सागर बीस जुगल-आनत ।
सागर बाबीस जुगल-अच्युत ।।३१।।
अर सागर इक-इक वय वैभव ।
कुछ ‘अर’ न मिले ग्रै-वेयक नव ।।
अनुदिश सागर वय और-और ।
बढ़ने विजयादिक और दौड़ ।।
सागर तेतीस जघन वय-अर ।
सर्वार्थ सिद्धि पा रहे अमर ।।३२।।
वय ऐशा-नरु सौधर्म जघन ।
कुछ अधिक पल्य इक जिन प्रवचन ।।३३।।
वय पूर्व-पूर्व उत्कृष्ट-अमर ।
वय जघन स्वर्ग सुर-गण नन्तर ।।३४।।
वय पूर्व-पूर्व उत्कृष्ट नरक ।
वय जघन अनन्तर इष्ट नरक ।।३५।।
हज्जार बरस दश अधिक न कम ।
वय जघन नारकी नरक-प्रथम ।।३६।।
हज्जार बरस दश अधिक न कम ।
वय जघन भ’वन’-वासी आगम ।।३७।।
हज्जार बरस दश अधिक न कम |
वय व्यन्तर जघन जैन-आगम ।।३८।।
उत्कृष्ट आयु व्यन्तर सुर-गण ।
कुछ अधिक पल्य इक जिन प्रवचन ।।३९।।
उत्कृष्ट आयु ज्योतिष सुर-गण ।
कुछ अधिक पल्य इक जिन प्रवचन ।।४०।।
ज्योतिष्क देव गण वय जघन्य ।
‘जिन वचन’ आठवें भाग पल्य ।।४१।।
वय लौकान्तिक उत्कृष्ट जघन ।।
सागर प्रमाण वसु माँ-प्रवचन ।।४२।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
चतुर्-थो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।४।।
‘पंचम अध्याय’
धर्मिक अधर्म अवकाश दाय ।
पुद्-गल यह सभी अजीवकाय ।।१।।
आकाश धर्म पुद्-गल अधर्म ।
यह सभी ‘द्रव्य’ मत जैन धर्म ।।२।।
ध्यातव्य बात यह सदा भव्य ।
है जीव नाम भी एक द्रव्य ।।३।।
यह द्रव्य सभी अद्-भुत अनूप ।
हैं नित्य-अवस्थित, हैं अरूप ।।४।।
इक पुद्-गल नाम द्रव्य इनमें ।
चर्चित वह रूपी ऋषि-गण में ।।५।।
संख्या में एक अधर्म द्रव्य ।
आकाश एक, इक धर्म द्रव्य ।।६।।
ये द्रव्य तीन जे एक-एक ।
निष्-क्रिय वज्रांकित जैन लेख ।।७।।
धर्मरु अधर्म इक जीव ख्यात ।
गणना प्रदेश है असंख्यात ।।८।।
आकाश प्रदेशों की गणना ।
है ‘अनन्त, मत’ संशय करना ।।९।।
पुद्-गल प्रदेश संख्यात, नन्त ।
हैं असंख्यात भी ‘भी’ सुगंध ।।१०।।
जिन जैनागम-संतोप-देश ।
परमाणु न होते हैं प्रदेश ।।११।।
अवगाह द्रव्य धर्मादि नेक ।
बस केवल लोका-काश एक ।।१२।।
खिल लोका-काश अधर्म-धर्म ।
अवगाह नाह-जिन-धर्म मर्म ।।१३।।
लोका-काशेक प्रदेश आद ।
पुद्-गल अवगाह विकल्प साथ ।।१४।।
लोका-काशाद असंख्य भाग ।
अवगाह जीव मत वीतराग ।।१५।।
विस्तार सकोची भाँत दीव ।
अवगाह लोक आकाश जीव ।।१६।।
उपकार धर्म गति में निमित्त ।
संथिति उपकार-अधर्म मित्र ।।१७।।
अद्-भुत महान अवकाश दान ।
उपकार द्रव्य ‘आकाश-वाण’ ।।१८।।
उपकार पुद्-गलों का गाया ।
मन प्राणा-पान वचन काया ।।१९।।
पुद्-गल-पुद्-गल उपकार और ।
सुख-दुख, यम-जीवन, भाग-दौड़ ।।२०।।
भो ! पार एक दूजे लाना ।
उपकार जीव जाना-माना ।।२१।।
परिणाम, क्रिया, वर्तन, परत्व ।
अपरत्व, अनुग्रह काल तत्व ।।२२।।
पुद्-गल अद्-द्वितिय फरस वाले ।
अर गन्ध वर्ण अर रस वाले ।।२३।।
थूलातप, शब्द, बन्ध, सूक्षम ।
उद्योत, छाँव, संस्था-नरु तम ।।२४।।
दिश्-दश सुगंध जिन श्रुतस्-कंध ।
पुद्-गल विभाग जुग अणुस्-कंध ।।२५।।
प्रतिकार-सन्ध संघात-भेद ।
अवतार कन्ध संघात-भेद ।।२६।।
सन्देश मनुज केवल ज्ञाना ।
अणु जन्म भेद केवल माना ।।२७।।
मिल-जुल संघात भेद करणी ।
अवतार कन्ध-चाक्षुष धरणी ।।२८।।
प्रवचन निर्गत रति-रोष श्रमण ।
सत् सुनो ! द्रव्य निर्दोष लखन ।।२९।।
उत्पाद युक्त जो व्यय संयुक्त ।
सत्, सत् है वह, वो धौव्य युक्त ।।३०।।
यह वही, यही जो आभाषा ।
साहित्य नित्य की परिभाषा ।।३१।।
सापेक्ष वस्तु इक मुख्य गौण ।
दो धर्म विरोधी सिद्ध मौन ।।३२।।
चिकनापन अथवा रूखापन ।
प्रवचन-निर्ग्रन्थ, बन्ध कारण ।।३३।।
पुद्-गल जघन्य गुण वाले जो ।
नहिं उनका बन्ध निराले वो ।।३४।।
होने पर गुण पुद्-गल समान ।
नहिं बन्ध सदृश भी गुण विधान ।।३५।।
शकत्यंश कहूँ या गुण न भेद ।
दो अधिक चाहिए बन्ध हेत ।।३६।।
गुण अधिक परिणमा ले समूल ।
गुड़ गीला धूल यथा अमूल ।।३७।।
पर्याय और गुण वाला है ।
अद्भुत है, द्रव्य निराला है ।।३८।।
ध्यातव्य, भव्य हे ! मति मराल ।
इक द्रव्य और भी नाम-काल ।।३९।।
सम-शरण अलौकिक उजियाला ।
वह काल अनंत समय वाला ।।४०।।
जे सदा द्रव्य में रहते हैं ।
निर्गुण वे गुण, जिन कहते हैं ।।४१।।
फिर के तद्भाव बना रहना ।
‘परिणाम’ जिनागम का कहना ।।४२।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
पञ्-चमो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।५।।
‘षष्ठम् अध्याय’
तन-क्रिया, क्रिया-मन, क्रिया-वचन ।
यह योग, सयोग दिया प्रवचन ।।१।।
जिन, भाई जिन्हें दृष्टि-नासा ।
तिन योग वही आस्रव भाषा ।।२।।
शुभ योग पुण्य-आस्रव सयोग ।
कारण पापस्रव अशुभ योग ।।३।।
ईर्यापथ आस्रव गत-कषाय ।
आस्रव कषाय-युत साम्पराय ।।४।।
आस्रव कषाय चउ अव्रत पञ्च ।
इन्द्रिय पन क्रिय पन गुणित पञ्च ।।५।।
वर तीव्र-मन्द अज्ञात भाव ।
अर वीर्य अधिकरण ज्ञात भाव ।।६।।
दूजा अजीव विरला वाना ।
अधिकरण जीव पहला माना ।।७।।
त्रिक् कृतादि सं-रम्भा-दिक त्रिक् ।
रु कषाय ‘योग’ तिय वसु सौ इक ।।८।।
ति निसर्ग योग ‘जुग’ निर-वर्तन ।
निक्षेप चउ अजी-वाधि-करण ।।९।।
उपघात, असादन, मात्सर्य ।
निह्-नव प्रदो-षन्-तराय वर्य ।।
आवरण ज्ञान आस्रव वरने ।
दर्शनावरण आस्रव वरणे ।।१०।।
हा ! वेद्य स्व-पर ‘अर’ परि-देवन ।
दुख, शोक, ताप, वध, आक्रन्दन ।।११।।
कर्मास्रव वेदनीय साता ।
अनुकम्पा भूत व्रती ध्याता ।।
दानादि योग संयम सराग ।
अर क्षान्ति शौच प्रवचन विराग ।।१२।।
आस्रव दृग्-मोह अवर्णवाद ।
श्रुत, देव, केवली, धर्म आद ।।१३।।
चरि-तास्रव मोह उदय कषाय ।
परिणाम तीव्र भव-विभव दाय ।।१४।।
नरकाय-आय आरंभ बहुत ।
‘अर’ हाय-हाय-पन परिग्रह बुत ।।१५।।
सम-शरण दिव्य धुन जिनराया ।
तिर्-यञ्च आयु आस्रव माया ।।१६।।
नर आय आय आरम्भ अलप ।
दुख-दाय ! हाय ! पन परिग्रह जप ।।१७।।
नर काय आय अर अधिकारी ।
आ जन्म-गर्भ मृदुता धारी ।।१८।।
व्रत रहित शील विरहित होना ।
आस्रव आयुष्क सकल ‘जो ना’ ।।१९।।
तप बाल ‘संयमा-संयम’ अर ।
संयम-सराग अकाम-निर्जर ।।२०।।
देवाय आय ‘मत साध’ पाठ ।
सम्यक्त्व और लो बाँध गाँठ ।।२१।।
प्रद आस्रव नाम-अशुभ प्रसाद ।
हा ! योग वक्रता विसंवाद ।।२२।।
‘अवि-संवा-दरु’ सारल्य योग ।
शुभ नाम कर्म आस्रव सयोग ।।२३।।
दर्शन विशुद्धि, सम्पन्न विनय ।
अतिचार शून व्रत शीलद्-द्वय ।।
ज्ञानोप-योग संवेग सतत ।
तप त्याग समाधि सु-वैय्या-वृत ।।
अरिहत, आचार्य भक्ति पाठक ।
पन-अपरि-हार षट् आवश्यक ।।
वत्सल-प्रवचन, प्रवचन-भक्ती ।
आस्रव तीर्थक कीर्तक मुक्ती ।।२४।।
परनिन्द असद्-गुण उद्-भावन ।
निज प्रशंस सद्-गुण उच्छादन ।।२५।।
दूजा गोत्रास्रव उच्च लेख ।
भवि ! वृत्ति नम्र इक अनुत्सेक ।।
निज निन्द असद्-गुण उच्छादन ।
पर-प्रशंस सद्-गुण उद्-भावन ।।२६।।
दानादिक विघ्न-करण शुरु-भी । ।
कर्मास्रव अन्तराय ‘सुर-भी’ ।।२७।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
षष्-ठमो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।६।।
‘सप्तम् अध्याय’
व्रत विरत झूठ, हिंसा, चोरी ।
अब्रह्म विरत माया जोड़ी ।।१।।
उपदेश महा-व्रत सर्व-देश ।
हिंसादि ‘विरत’ अणु एक-देश ।।२।।
व्रत रखने थिर सम्मत विरंच ।
भावन प्रतेक व्रत पंच पंच ।।३।।
दिन भोजन आदाँ निक्षेपण ।
समिती ईर्या गुप्ती वच-मन ।।४।।
कुप्-प्रलोभ-प्रत्या-ख्यान हास ।
भय प्रत्या-ख्या-ननु वीचि भाष ।।५।।
शुचि भो-जन वारण ‘रिता’ वास ।
अवि-संवा-दर मोचिता वास ।।६।।
रस त्याग अंग तिय कथा-राग ।
रत पूर्व ‘भोग’ श्रृंगार त्याग ।।७।।
अमनोज्ञ इन्द्रि-यन विषय भोग ।
परि-त्याग रोष अर रति मनोग ।।८।।
हा ! निन्दनीय हिंसादि पाप ।
प्रद इह-अमुत्र संक्लेश ताप ।।९।।
मन साँझ साँझ भावन गूँजे ।
हिंसादि पाप दुख ही दूजे ।।१०।।
माध्यस्थ और प्रिय जगत् तीन ।
अनुराग गुणी, कारुण्य दीन ।।११।।
संवेग और वैराग्य हेत ।
भाई स्वभाव-जग-तन समेत ।।१२।।
बन प्रमत्त, विहँसा मति-हंसा ।
प्राणों का वध करना हिंसा ।।१३।।
बन प्रमत्त विहँसा हंसा मत ।
कहना असत्य विख्यात अनृत ।।१४।।
विहँसा मति हंसा बन प्रमत्त ।
आदान वस्तु चोरी अदत्त ।।१५।।
बन प्रमत विहँसा हंस बुद्ध ।
मैथुन अब्रह्म जगत् प्रसिद्ध ।।१६।।
विहँसा मति हंसा प्रमत्त बन ।
मूर्च्छा परि-ग्रह चर्चित त्रिभुवन ।।१७।।
विरहित माया मिथ्या निदान ।
निःशल्य व्रती इक त्रिक्-जहान ।।१८।।
अनगार दूसरे व्रत धारी ।
गृह-सन्त अगारी बलिहारी ।।१९।।
अधिकारी मरण बाल पण्डित ।
पन अहिंसादि अणु-व्रत मण्डित ।।२०।।
उपभोग भोग परिमाण विरत ।
संविभाग अतिथि महान विरत ।।२१।।
गुरु परम प्रीति पूर्वक सुमरण ।
वर स्वयं प्रीति पूर्वक सु-मरण ।।२२।।
थव-दृष्टि-औ प्रशंसा शंका ।
विचिकित्सा दृगति-चार कांक्षा ।।२३।।
व्रत शील पंच पंचाति-चार ।
क्रम-बार भव्य ! अथ इस प्रकार ।।२४।।
वध, बन्धन, अति-भारा-रोपण ।
छेदन, निरोध-पानी-भोजन ।।२५।।
साकार मंत्र ‘भेदन’ प्रहास ।
वच ‘कूट’ लेख अपहार न्यास ।।२६।।
चोरी प्रयोग क्रय माल लूट ।
हा ! हाट-बाँट नृप-नियम-टूट ।।२७।।
कामातिरेक रत पर-विवाह ।
अर गणिका ‘गमन’ अनंग ग्राह ।।२८।।
घर, खेत, रूप्य, धन, स्वर्ण, धान ।
दासौर कुप्य अतिक्रम प्रमाण ।।२९।।
अध तिर्-यग् व्यति-क्रम ऊर्ध्व ओर ।
अर क्षेत्र वृद्धि विस्मरण-छोर ।।३०।।
आ-‘नयन’-प्रेष्य शब्दानु-पात ।
पुद्-गल क्षेपण रूपानु-पात ।।३१।।
कन्दर्प, मुखर-ता कौत्-कुच्य ।
अस-मीक्ष्य ‘भोग-अर’ अनर्थक्य ।।३२।।
मन-काय-वान दुष्-प्रणि-धान ।
अवधान-हान व्रत मान-हान ।।३३।।
उत्सर्ग शैन बिन-देख शोध ।
आदान, अनादर, लोप-बोध ।।३४।।
आहार सचित् अभि-षवाहार ।
संबंध दुपक मिश्रिता-हार ।।३५।।
निक्षेप सचित् अपि-धान और ।
मात्सर्य, विस्मरण दान और ।।३६।।
आशंस मरण-जीवन निदान ।
अनुराग मित्र सुख-पूर्व ध्यान ।।३७।।
भावन उपकार-स्वपर पवित्र ।
परि-त्याग वस्तु निज दान मित्र ।।३८।।
विधि, द्रव्य, पात्र, दाता विशेष ।
वरदान दान संशय न लेश ।।३९।।
इति मोक्षशास्त्रे
सप्त-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।७।।
‘अष्टम अध्याय’
मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद ।
बन्धन कषाय अर योग-जात ॥१॥
कर कर्म योग पुद्-गल अपने ।
सकषाय जीव लगता बँधने ।।२।।
प्रकृती, संस्थिति, अनुभव, प्रदेश ।
ये भेद-बन्ध प्रवचन जिनेश ॥३॥
आवरण ज्ञान दृग् नाम आय ।
वेदन-मोहन गोत्रन्-तराय ।।४।।
क्रमशः पन नव ब्यालीस चार ।
जुग ‘आठ-बीस’ जुग पन प्रकार ।।५।।
मति-ज्ञान, ज्ञान-श्रुत, अवधि-ज्ञान ।
मन-पर्यय, केवल-ज्ञान-भान ॥६॥
निद्रादि पंच चक्षुस्-दर्शन ।
केवल अवधि अचक्षुस्-द्शन ।।७।।
है पहली साता वेदनीय ।
अर प्रकृति असाता वेदनीय ॥८॥
दो चरित्र ‘मोह’ दर्शन तीनों ।
सोलह कषाय-नौ नौ गीनो ।।९।।
तिर्-यञ्चा-यिक नरकाय एक ।
इक आय देव नर आय एक ॥१०॥
संस्थान नाम संघात जात ।
निर्माण अगुरुलघु वर्ण गात ।।
गति आनुपूर्वी ‘सं-हनन’ फरस ।
उद्यो-तातप पर-घातर रस ॥
तीर्थंकर अंगो-पांग गन्ध ।
गति विहायसी ‘उच्-छ-वास’ बन्ध ॥
त्रस तन प्रत्येक सुभग सुस्वर ।
थावर तनौर दुर्भग दुस्वर ॥
शुभ, अपर्याप्त, बादर, अस्थिर ।
पर्याप्त, अशुभ, सूक्षम, संस्थिर ।।
आदेय और इक यशः कीर्त ।
इक अनादेय अपयशः कीर्त ॥११॥
जो गोत्र कर्म वसु रहा बीच ।
इक उच्च दूसरा कहा नीच ॥१२॥
इक दान लाभ भोगान्-तराय ।
अर वीरज उप भोगान्-तराय ॥१३॥
वेद्यन्-तराय ज्ञाना-वरणर ।
थिति कोटा-कोटि तीस सागर ॥१४॥
उत्कृष्ट मोह थिति श्रुत-सुबोध ।
श्रुति सागर सत्तर कोटि-कोट ॥१५॥
थिति नाम गोत्र वर धुनि शिरीष ।
भवि सागर कोटा कोट बीस ॥१६॥
संस्थिति उत्कृष्ट आयु कर्मन ।
तैतीस साग-रोपम वर्णन ॥१७॥
बारह मुहूर्त भाई भागिनी ।
थिति जघन कर्म वेदन वरणी ।।१८।।
थिति मान्य जघन्य मुहूर्त आठ ।
द्वय नाम गोत्र धुनि-दिव्य पाठ ।।१९।।
थिति जघन कर्म अव-शेष पाँच ।
अन्तर्-मुहूर्त क्या ? साँच आँच ।।२०।।
फल दान शक्ति का पड़ जाना ।
अनुभवियों ने अनुभव माना ।।२१।।
सुप्रसिद्ध नाम जिसका जैसा ।
फल वैसा, फेर-बदल कैसा ।।२२।।
वे अपना-अपना देके फल ।
स्वयमेव कर्म सब देते चल ।।२३।।
थित सूक्ष्म योग अणु नन्त-नन्त ।
क्षेत्राव-गाह-इक आत्म बन्ध ।।२४।।
सद्-वेद्य आयु शुभ गोत्र नाम ।
ये प्रकृति पुण्य संज्ञक तमाम ।।२५।।
अवशेष प्रकृति इनके सिवाय ।
सब पाप रूप फल दुख-प्रदाय ।।२६।।
इति मोक्षशास्त्रे
अष्ट-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।८।।
‘नवम् अध्याय’
जन जन ने माना निर्विरोध ।
‘संवर संज्ञक’, आस्रव-निरोध ।।१।।
वह गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्ष रूप ।
परिषह जय, धर्म चरित अनूप ।।२।।
होती न अकेली निर्जर ही ।
‘तप से’, होता है संवर भी ।।३।।
निग्रह योगों का भली भाँत ।
वह गुप्ति, किसे यह खली बात ।।४।।
उत्सर्-गिक आदाँ-निक्षेपण ।
इक समिति भाष, ईया, ऐषण ।।५।।
मृदु, क्षमा, शौच, ऋजु, सत्, संयम ।
तप, त्याग, अकिंचन, ब्रह्म धरम ।।६।।
अनुपेक्ष अनित्य, अशुचि, निर्जर ।
संसार, लोक, आस्रव, संवर ।।
एकत्व, बोधि, दुर्लभ, अशरण ।
अन्यत्व, धर्म स्वाख्यात अहन ।।७।।
अच्यवन मार्ग संवर शिवार्थ ।
वे सह्य परी-षह निर्जरार्थ ।।८।।
शीतोष्ण, क्षुध्, पिपासा, चर्या ।
नग्नत्व, वध, निषद्या, शय्या ।।
आक्रोश, रोग, मल, तृणस्-पर्श ।
अज्ञान, अरति, प्रज्ञा, अदर्श ।।
सत्कार-समाहित-पुरस्कार ।
दंशक, याँचना, अलाभ, नार ।।९।।
छद्मस्थ-अरति लव साम्पराय ।
दश-चार परी-षह श्रुत गिनाय ।।१०।।
जिन सन्त जैन आगम धारा ।
अरिहन्त जिन परीषह ग्यारा ।।११।।
तर बादर साम्पराय खीसा ।
सम्पूर्ण परी-षह बाबीसा ।।१२।।
प्रज्ञा परिषह अज्ञान जनम ।
सद्-भाव आवरण ज्ञान करम ।।१३।।
परिषह अदर्श दृग्-मोह जाय ।
परिषह अलाभ लाभान्-तराय ।।१४।।
आक्रोश, निषधा, अरति, नार ।
सत्कार-समाहित-पुरस्कार ।।
नग्नत्व और परिषह, याँचा ।
सद्-भाव मोह चारित वाँचा ।।१५।।
अवशेष परी-षह जो नाना ।
सद्-भाव वेद्य ताना-बाना ।।१६।।
सविकल्प एक से ले उनीस ।
सम्भव युगपत् परिषह मुनीश ।।१७।।
परि-हार ‘विशुद्ध’ छेद समता ।
थाख्यात चरित्र, सूक्ष्म ममता ।।१८।।
तन-क्लेश, त्याग-रस, उदर-ऊन ।
परि-संख्य-वृत्ति, उपवास ‘शून’ ।।१९।।
स्वाध्याय, विनय, तप, प्रायश्चित ।
व्युत्सर्ग, ध्यान, तप, वैय्यावृत ॥२०।।
क्रम-बार ‘ध्यान-अर’ पाँच, चार ।
नो, दो, दश तप ‘भी’तर प्रकार ।।२१।।
तप, छेद, प्रति-क्रमण, आलोचन ।
तदुभय, विवेक इक उप-थापन ।।
व्युत्सर्ग और इक परी-हार ।
हैं प्रायश्चित यह नव प्रकार ।।२२।।
चौ विनय ज्ञान, आचार, विनय ।
इक दर्शन अर उपचार विनय ।।२३।।
बुध, सूर, शैक्ष्य, गण, क्लान्त-रोग ।
कुल, साधु, संघ, तापस-मनोज्ञ ।।२४।।
वाचन, स्वाध्याय, धर्म-देशन ।
आम्नाय, पृच्छना, अनु-पेक्षण ।।२५।।
व्युत्सर्ग उपधि इक बाह्य त्याग ।
अभ्यन्तर त्याग उपधि सजाग ।।२६।।
थिर ध्यान वृत्ति, चित् विषय एक ।
अन्तर्-मुहूर्त ‘सं-हनन’ नेक ।।२७।।
इक आर्त रौद्र इक शुक्ल ध्यान ।
औ’ धर्म ध्यान चौ सकल ध्यान ।।२८।।
धर्मौर शुक्ल ये ध्यान द्वेत ।
धुनि दिव्य भव्य ! निर्माण हेत ।।२९।।
अमनोग वियोग योग लाना ।
यह ध्यान आर्त पहला माना ।।३०।।
सुमनोग वियोग योग लाना ।
यह ध्यान आर्त दूजा माना ।।३१।।
चिन्ता पीड़ा घुलते जाना ।
यह ध्यान आर्त तीजा माना ।।३२।।
भाना कल विषय-भोग गाना ।
यह ध्यान आर्त चौथा माना ।।३३।।
सद्-भाव ध्यान आरत अविरत ।
संयत-प्रमत्त अर देश-विरत ।।३४।।
चोरी असत् तिजोरी हिंसा ।
ध्याँ रौद्र पाप देशिक ध्वंसा ।।३५।।
आज्ञा अपाय संस्थान विचय ।
ध्याँ धर्म कर्म-फल-दान विचय ।।३६।।
सवितर्क पृथक-इक शुक्ल ध्यान ।
भर्तार ‘पूर्व’ विद् सकल-ज्ञान ।।३७।।
क्रिय पात सूक्ष्म क्रिय शुकल ध्यान ।
भर्ता अपूर्व विद् सकल ज्ञान ।।३८।।
क्रिय सूक्ष्म पात सवितर्क पृथक् ।
क्रिय पूर्ण घात सह वितर्क यक ।।३९।।
तिय योग पृथक् ‘अर’ एक योग ।
क्रिय काय योग अक्रिय अयोग ।।४०।।
संज्ञा पृथकत्व एकत्व धार ।
सवितर्क इकाश्रय सवी-चार ।।४१।।
पर हाँ…रहना थोड़े सतर्क ।
ध्याँ अवी-चार भाविक वितर्क ।।४२।।
गत ‘तर्क-वितर्क’ वितर्क अर्थ ।
श्रुत सर्व मान्य निर्बल-समर्थ ।।४३।।
संक्रान्ति अर्थ व्यंजन योगन ।
वीचार मान्य बिन आलोचन।।४४।।
सम-दृष्टि निर्जरा गुण असंख्य ।
श्रावक विरत वियोजक अनंत ।।
दृग् क्षपक, उप-शमक मोह शान्त ।
अर क्षपक मोह-बिन जिन प्रशान्त ।।४५।।
‘निर्ग्रन्थ’ पुलाक, वकुश, कुशील ।
निर्ग्रन्थ, सनातक अगम-लील ।।४६।।
संयम श्रुत प्रति-सेवना तीर्थ ।
उप-पाद लेश्य लिंग ‘थान कीर्त’ ।।४७।।
इति मोक्ष-शास्त्रे
नव-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।९।।
‘दशम् अध्याय’
क्षय मोह दर्श आवर्ण ज्ञान ।
क्षय अन्तराय जय पूर्ण ज्ञान ॥ १ ॥
बल निर्जर क्षय कर्मन तमाम ।
जय बन्ध हेत, बस मोक्ष धाम ॥२॥
अर भाव ‘उप-शमा-दिक’ अभाव ।
‘मुक्ती’ अभाव भव्यत्व भाव ॥३॥
सिद्धत्व सिद्ध केवल दर्शन ।
सम्यक्त्व ज्ञान केवल पर्शन ॥४॥
जैसे ही जीव मुक्ति पाता ।
ऊपर लोकान्त तलक जाता ॥५॥
पूरब-प्रयोग, संगिक-अभाव ।
दो-टूक-बंध, कारण स्वभाव ॥६॥
कुम्हार-चक्र, तुम्बी-सजात ।
एरण्ड-बीज, शिख-अग्नि भाँत ॥७॥
धर्मास्तिकाय आगम प्रसिद्ध ।
बस गमन वही तक स्वयं सिद्ध ॥८॥
गति, क्षेत्र, काल, प्रत्येक-बुद्ध ।
लिंग, तीर्थ चरित, बोधित-प्रबुद्ध ॥
अवगाहन, अल्प-बहुत्व ज्ञान ।
संख्या, अन्तर ‘दश-तीन ठान’ ॥९॥
इति मोक्ष-शास्त्रे
दश-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः।।१०।।
॥ इति तत्त्वार्थ-सूत्रम् ।।
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