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श्रुत धारा

श्रुत धारा

गुरु महिमा

=दोहा=
गुरु धरती के देवता,
दया क्षमा अवतार ।
गुरु किरपा बिन मोक्ष का,
अब तक खुला न द्वार ।।

अश्रु ढारती माटी देखी ।
गुरु डालें दरिया, कर नेकी ।।
मारी चोट, ओट दे हाथन ।
खोट निकाली बातन-बातन ।।
सिर दी बिठा, बना के गगरी ।
कहे मांगलिक दुनिया सबरी ।।

सर्व अमंगलहार हैं,
श्री गुरु मंगलकार ।
गुरु किरपा बिन मोक्ष का,
अब तक खुला न द्वार ।।

बड़ा परेशाँ नन्हा पौधा ।
प्यार न जग को प्यारा सौदा ।।
मचली पवन चटाने धूरा ।
पर्श आसमाँ स्वप्न अधूरा ।।
गुरु बन बाँस लगे निस्वास्थ ।
आया विरख पाँत प्रतिभा…रत ।।

नजर उठा गुरु मेंटते,
अन्तरंग अंधियार ।
सर्व अमंगलहार है,
श्री गुरु मंगलकार ।।
गुरु धरती के देवता,
दया क्षमा अवतार ।
गुरु किरपा बिन मोक्ष का,
अब तक खुला न द्वार ।।

।। भूतकाल तीर्थंकर ।।

वन्दन कोटि प्रमाण ।
भगवन् श्री निर्वाण ।।
भूतकाल तीर्थेश ।
सागर नाम जिनेश ।।
महासाधु भगवान् ।
वन्दन कोटि प्रमाण ।।१।।

वन्दन नन्त सदैव ।
नाथ विमल-प्रभ देव ।।
भूतकाल तीर्थेश ।
श्रीधर नाम जिनेश ।।
बुध सुदत्त स्वयमेव ।
वन्दन नन्त सदैव ।।२।।

बारम्बार प्रणाम ।
नाथ अमल-प्रभ स्वाम ।।
भूतकाल तीर्थेश ।
उद्-धर नाम जिनेश ।।
भगवन् अंगिर नाम ।
बारम्बार प्रणाम ।।३।।

सविनय नमन अनन्त ।
सन्मति नाम जिनन्द ।।
भूतकाल तीर्थेश ।
प्रसिद्ध सिन्धु जिनेश ।।
कुसुमांजलि भगवन्त ।
सविनय नमन अनन्त ।।४।।

नुति मस्तक रख हाथ ।
शिवगण नाथ-अनाथ ।।
भूतकाल तीर्थेश ।
प्रभु ! उत्साह जिनेश ।।
ज्ञानेश्वर जिननाथ ।
नुति मस्तक रख हाथ ।।५।।

पुनि पुनि झुक झुक ढ़ोक ।
परमेश्वर प्रद मोख ।।
भूतकाल तीर्थेश ।
वि-मलेश्वर गत-द्वेष ।।
सार्थ यशोधर लोक ।
पुनि पुनि झुक झुक ढ़ोक ।।६।।

संस्तुति सर अवगाह ।
कृष्ण-मती जिन-नाह ।।
भूतकाल तीर्थेश ।
ज्ञान-मती सर्वेश ।।
शुद्ध-मती गत-चाह ।
संस्तुति सर अवगाह ।।७।।

नुति धरणी सर टेक ।
कृति श्री-भद्र प्रतेक ।।
भूतकाल तीर्थेश ।
जय अति-क्रान्त जिनेश ।।
शान्त चरण गज रेख ।
नुति धरणी सर टेक ।।८।।

।। भविष्यत काल तीर्थंकर ।।

जय जय भव जलधि जहाज ।
श्री महा-पद्म जिनराज ।।
तीर्थेश भविष्यत काल ।
सुर-देव अगम गुण-माल ।।
जय जय सुपार्श्व जिनदेव ।
मन, वच, तन नमन सदैव ।।१।।

जिनराज स्वयं-प्रभ एक ।
नुति पुनि पुनि भुवि सर टेक ।।
तीर्थेश भविष्यत काल ।
सर्वात्म-भूत जगपाल ।।
जय देवपुत्र भगवन्त ।
वन्दन नत-भाल अनन्त ।।२।।

इक करुणा दया निधान ।
कुल-पुत्र नाम भगवान् ।।
तीर्थेश भविष्यत काल ।
जिन-नाथ उदंक कृपाल ।।
जय जय प्रोष्ठिल जिननाह ।
जल-गंग वचन भव दाह ।।३।।

गत राग ! वि-वर्जित द्वेष ! ।
भगवन् जय-कीर्ति जिनेश ।।
तीर्थेश भविष्यत काल ।
मुनि सुव्-व्रत हृदय विशाल ।।
अर संज्ञा अप्तम दूज ।
जय जयतु जयतु जग पूज ।।४।।

जय जय जिनेश निष्पाप ।
दर्शन निरसन भव-ताप ।।
तीर्थेश भविष्यत काल ।
नुति निष्कषाय नत भाल ।।
भगवान् विपुल जगदीश ।
सविनय वन्दन निशि-दीस ।।५।।

परिणत निर्मल शिशु भॉंत ।
नुति जोड़ हाथ, नत माथ ।।
तीर्थेश भविष्यत काल ।
जित चित्र-गुप्त अघ-जाल ।।
भगवन् श्री गुप्त-समाध ।
नुति मन, वच, काया साध ।।६।।

जिन-देव स्व-यं-भू नाम ।
नित बारम्बार प्रणाम ।।
तीर्थेश भविष्यत काल ।
अ-निवर्-तक कर्म निढ़ाल ।।
‘जय’ सार्थ नाम तिहुलोक ।
योगत्-त्रय विशुद्ध ढो़क ।।७।।

जिन विमल विमल परिणाम ।
नुति हित सु…मरण भव-शाम ।।
तीर्थेश भविष्यत काल ।
जिन देवपाल दृग् बाल ।।
नुति नन्त वीर्य प्रद मोख ।
नजदीक ‘निराकुल’ सौख ।।८।।

।। वर्तमान काल तीर्थंकर ।।

आदि-नाथ भगवन्त ।
सविनय ढो़क अनन्त ।।
वर्तमान तीर्थेश ।
अजित विजित रत-द्वेष ।।
भगवन् संभव नाथ ।
नुति मस्तक रख हाथ ।।१।।

अभिनन्दन जिन-देव ।
ढो़क अनन्त सदैव ।।
वर्तमान तीर्थेश ।
सुमत विगत-संक्लेश ।।
पदमप्-प्रभ भगवान् ।
संस्तुति प्रद वरदान ।।२।।

जय सुपार्श्व जिनराज ।
इक भव जलधि जहाज ।।
वर्तमान तीर्थेश ।
छव बढ़ चन्द्र विशेष ।।
सुविधि जेय विधि-बन्ध ।
जय जय जयतु जिनन्द ।।३।।

शीतल शीतल छांव ।
नुति हित तट शिव गांव ।।
वर्तमान तीर्थेश ।
थानक श्रेय अशेष ।।
सार्थक वासव-पूज ।
नमन वन्दना दूज ।।४।।

विमल विमल परिणाम ।
सविनय नन्त प्रणाम ।।
वर्तमान तीर्थेश ।
नन्त सिद्ध निज-देश ।।
धर्म अहिंसा केत ।
नमन त्रियोग समेत ।।५।।

मूरत शान्त अनूप ।
छाँव भक्ति, जग धूप ।।
वर्तमान तीर्थेश ।
दया कुन्थ सन्देश ।।
अर दाता दिव मोख ।
लग धरती सर ढ़ोक ।।६।।

मल्ल दल्ल-शल तीन ।
नुति त्रुटि सकल विहीन ।।
वर्तमान तीर्थेश ।
सुव्-व्रत मुनिन् दिनेश ।।
दृग् नम नमि जिननाह ।
जय जय शाहन-शाह ।।७।।

नेम क्षेम करतार ।
जयतु जयतु जयकार ।।
वर्तमान तीर्थेश
बढ़ मण पार्श्व जिनेश ।।
जय सन्मत अतिवीर ।
नुति हित भव-जल तीर ।।८।।

।। नमस्कार गुरु पञ्च हमारा ।।

अब बँधने वाली शिव पगड़ी ।
जाने, जानें दुनिया सगरी ।।
अरिहन्तों का हमें सहारा ।
नमस्कार गुरु पञ्च हमारा ।।१।।

स्वप्न कहाँ अब स्वप्न सरीखा ।
लगा माथ अधिपति शिव टीका ।।
शरण हमें सिद्धों का द्वारा ।
नमस्कार गुरु पञ्च हमारा ।।२।।

लिये धर्म ध्वज सबसे आगे ।
संघ पतंग हाथ इन धागे ।।
थवन सूरि भव जलधि किनारा ।
नमस्कार गुरु पञ्च हमारा ।।३।।

स्वार्थ विसर श्रुत सुधा पिलाते ।
आते उन्हें बिठाते जाते ।।
त्रिजग भक्त उवझाय तिहारा ।
नमस्कार गुरु पञ्च हमारा ।।४।।

फिरके में आते कब मन के ।
फिर नवकार रहे कर ‘मनके’ ।।
‘जयतु श्रमण’ जप किन्हें न प्यारा ।
नमस्कार गुरु पञ्च हमारा ।।५।।

(१)
*दोहा*
गुरु गुण कीर्ति से बड़ा,
आमद पुण्य न स्रोत ।
आ पल दो पल के लिये,
बालें उर गुरु ज्योत ।।
गुरु सम्मेद शिखर मिरे,
पुर-चंपा-गिरनार ।
पुर-पावा गुरु जी मिरे,
दिवि-शिव के भी द्वार।।१।।

ग्राम सदलगा अवतारी जै ।
जन्म शरद निशि उजयारी जै ।।
जै गुण-आगर संकटहारी ।
जै निर्दोष महाव्रत-धारी ॥१।।
सकल विघ्न-विध्वंसक जै जै ।
मत्त मदन मद मर्दक जै जै ।।
जै जै श्री मति मात दुलारे ।
जै जै शिष्य ज्ञान गुरु न्यारे ।।२।।
जगत भगत-वत्सल जै,जै जै ।
भव-जल बीच कमल जै,जै जै ।।
जै जै,जै किल्विष-मति रीते ।
जै जै,जै मति-मराल तीते ॥३।।
तीर्थोधारक जै जै,जै जै ।
पाप-विदारक जै जै,जै जै ।।
जै जै, जै जै ऋषि-मुनि-स्वामी ।
जै जै,जै जै अन्तर्-यामी ॥४।।
दीन-बन्धु जै,जै जै,जै जै ।
कृपा-सिन्धु जै,जै जै,जै जै ।।
जै जै,जै जै,जै सुखकारी ।
जै जै,जै जै,जै दुखहारी ॥५।।
शिव-कर जै जै,जै जै,जै जै ।
भव-हर जै जै,जै जै,जै जै ।।
जै जै,जै जै,जै जै,ज्ञानी ।
जै जै,जै जै,जै जै,ध्यानी ॥६।।
==दोहा==
विघन हरण गुरुदेव हैं,
शगुन करण गुरुदेव ।
तरण चरण गुरुदेव हैं,
सेवा साध सदैव ।।८।
इस तन में गुरुदेव जी,
जब तक जीवित प्राण ।
यूँ ही मैं करता रहूँ,
निशि-दिन तव गुण गान ॥

(२)
*दोहा*
दुखहारी गुरु देव हैं,
सुखहारी गुरु देव ।
उपकारी गुरु देव हैं,
वन्दन नंत सदैव ।।

।। जय जय माहन धर्म प्रचारी ।।
संकट हर ! जय त्रिभुवन त्राता ।
दीन बन्धु जय जग विख्याता ।।
एक भक्त ! वत्सल ! मनहारी ।
जय गुरु ज्ञान सिन्धु सुत थारी ।।१।।
धीर वीर ! पन अक्ष विजेता ।
जय जय चउ विध संघ विनेता ॥
बाल वैद्य ! जय करुणा धारी !
जय गुरु ज्ञान सिन्धु सुत थारी ।।२।।
सदय-हृदय ! इच्छा वरदानी ।
जय कृपालु जय सम-रस सानी ।।
विघ्न विनाशक ! पाप प्रहारी ।
जय गुरु ज्ञान सिन्धु सुत थारी ।।३।।
दया सिन्धु ! जय गुण गम्भीरा ।
जय ऋषि मुनि सन्तन इक हीरा ।।
जय भविकन मिथ्यात्व विदारी |
जय गुरु ज्ञान सिन्धु सुत थारी ।।४।।
विरहित वैर भाव ! निष्कामी ! ।
जय जय तीर्थो-द्धारक नामी ।।
गौ संरक्षक आत्म विहारी !
जय गुरु ज्ञान सिन्धु सुत थारी ।।५।।
जय जय धुनि जल भाँति प्रवासी !
विगत सँग ! कलि इक विश्वासी ।।
जतन-रतन धर ! जय अविकारी ! ।
जय गुरु ज्ञान सिन्धु सुत थारी ।।६।।
कवि कुल गुरु ! विरहित वैशाखी ! ।
जय कलि जुग सत्-जुगीन झाँकी ।।
जय जय दिन-दुर्दिन सहकारी ! ।
जय गुरु ज्ञान सिन्धु सुत थारी ।।७।।
जय अध्यात्म सुधा-रस-रसिया ! ।
भुवन तीन जन-जन मन वसिया ।।
कलि पद-चरित-चक्री अधिकारी ! ।
जय गुरु ज्ञान सिन्धु सुत थारी ।।८।।
निष्प्रमादी जय सजग सिपाही ! ।
अपर गुणाकर त्रिभुवन माहीं ।।
गुण अगम्य ! निस्पृह उपकारी ! ।
जय गुरु ज्ञान सिन्धु सुत थारी ।।
==दोहा==
यही प्रार्थना आपसे,
कलि जुग इक निष्काम ।
रहूँ न तेली बैल सा,
सुबह, वहाँ ही शाम ॥

(३)
==दोहा==
नभ छूते जिन-गृह शिखर,
पा जिनका सँग आज ।
हेत प्रबल सम्यक्तव वे,
भव जल-तरण जहाज ।।

जन्म सदलगा ग्राम नमस्ते ।
दीन बन्धु निष्काम नमस्ते ।।
श्रीमति मात प्रसूत नमस्ते ।
श्री मल्लप्पा पूत नमस्ते ।।१।।
सिंधु ज्ञान आशीष नमस्ते ।
जप तप संयम शीश नमस्ते ।।
श्रमण संघ सरताज नमस्ते ।
पन पापन सिर गाज नमस्ते ।।२।।
सम्यक् दायक वीर नमस्ते ।
विध्वंसक पर पीर नमस्ते ।।
रन्तत्रय संलीन नमस्ते ।
गुरु आज्ञा आसीन नमस्ते ।।३।।
समय सार सम्पन्न नमस्ते ।
भक्त ज्ञान गुरु नन्य नमस्ते ।।
करुणा धन संयुक्त नमस्ते ।
वसु विध मद निर्मुक्त नमस्ते ।।४।।
धर्म अहिंसा केतु नमस्ते ।
कलि भव सागर सेतु नमस्ते ।।
मूकमाटी कृतिकार नमस्ते ।
शिष्यन चरिताधार नमस्ते ।।५।।
शत्रु मित्र सम भाव नमस्ते ।
भावी पत शिव गाँव नमस्ते ।।
निजानन्द घन पिण्ड नमस्ते ।
विगत शल्ल गत दण्ड नमस्ते ।।६।।
निर्विकार निर्भीक नमस्ते ।
जिन, श्रुत, गुरु नजदीक नमस्ते ।।
संकट समय सहाय नमस्ते ।
दीक्षा नगन प्रदाय नमस्ते ।।७।।
सकल प्रमाद विहीन नमस्ते ।
थुति-रत संध्या तीन नमस्ते ।।
कथनी करनी एक नमस्ते ।
विरचित कविता नेक नमस्ते ।।८।।
गुरु विद्याष्टक सुध-बुध धर के,
जो उर में धरते हैं ।
विघ्न उपद्रव सहज किनारा,
झट उनसे करते हैं ।।
==दोहा==
अरज जरा सी आपसे,
कलि जुग इक विश्वास ।
एक बार ही दो दिखा,
गुण अनंत जिन राश ॥

(४)
*दोहा*
कोकिल से मिश्री घुले,
बोल आप अनमोल ।
कौन झुलायेगा नहीं,
बिठा नैन निज-दोल ।।

जयवन्तो गुरुदेव हमारे ।
जयवन्तो गुरु ज्ञान दुलारे ।।
जयवन्तो श्री मति माँ नन्दन ।
जयवन्तो भव ताप निकन्दन ॥१।।
जयवन्तो स्वातम रस रसिया ।
जयवन्तो शिष्यन मन वसिया ।।
जयवन्तो रत्नत्रय धारी ।
जयवन्तो त्रिभुवन मनहारी ॥२।।
जयवन्तो विरहित वैशाखी ।
जयवन्तो सत् जुगीय झाँकी ।।
जयवन्तो अघ-नाशन हारे ।
जयवन्तो गुण रतन पिटारे ।।३।।
जयवन्तो अनवरत विहारी ।
जयवन्तो करुणा धन धारी ॥
जयवन्तो अमरित वच स्वामी ।
जयवन्तो भावी शिव गामी ।।४।।
जयवन्तो कलि शिव पथ नेता ।
जयवन्तो पन अक्ष विजेता ॥
जयवन्तो जिन-लिङ्ग प्रदाता ।
जयवन्तो भवि भाग्य विधाता ।।५।।
जयवन्तो शम-यम-दम-दक्षः ।
जयवन्तो गुरुकुल अध्यक्षः ॥
जयवन्तो वसु याम जगैय्या ।
जयवन्तो संरक्षक गैय्या ।।६।।
जयवन्तो शिव वधु अभिलाषी ।
जयवन्तो परमाद विनाशी ॥
जयवन्तो अरि मित्र समाना ।
जयवन्तो विरचक थुति नाना ।।७।।
जयवन्तो कंचन तन धारी ।
जयवन्तो जिन धर्म प्रचारी ॥
जयवन्तो निस्पृह वैरागी ।
जयवन्तो कवि-वर बड़भागी ।।८।।
==दोहा==
आये न आये भले,
गुरु गुण महिमा पार ।
सर-सुदूर आने लगे,
ठण्डी नहीं बयार ।।

(५)
==दोहा==
गुरु चरणों में रख दिया,
जिनने अपना माथ ।
मरण समाधि आ गया,
समझो उनके हाथ ॥

शशि पून शरद अभिराम ।
गौरव सदलगा प्रणाम ।।
माँ श्री मति राज दुलार ।
मल्लप्पा नयन सितार ।।१।।
चित् चोर दल कमल नैन ।
अलि, मिसरी कोकिल वैन ।।
चिकने घुँघराले केश ।
तेजोमय माथ प्रदेश ।।२।।
तर करुणा हृदय विशाल |
मति प्रत्युत्पन्न मराल ।।
ब्रमचर मुनि भूषण-देश ।
साक्षी पूर्वक गोम्टश ।।३।।
दीक्षा दैगम्बर धूम |
अजमेर नगर पुन-भूम ।।
विद्याधर दीक्षा पात्र ।
गुरु ज्ञान-सिन्ध पद-यात्र |।४।।
विद्यासागर नव नाम ।
साँझन सुमरण इक काम ।।
गुरु विद्या साक्षी समाधी ।
लागी ‘गुरु’-ज्ञान उपाध ।।५।।
चर्या जुग चतुर्थ देख ।
दी ढ़ोक, लोक सर टेक ।।
हो चले नेक निर्ग्रन्थ ।
रख भावन भद्र समन्त ।।६।।
दीक्षित बालाएँ नेक ।
स्वर्णिम वज्रांकित लेख |।
कृति काल जेय अगणीत ।
खुद समाँ जिया नवनीत ।।७।।
हित सहज निराकुल सौख ।
युत वचन काय मन ढ़ोक ।।
शशि पून शरद अभिराम ।
गौरव सदलगा प्रणाम ।।८।।
==दोहा==
और नहीं कुछ चाहिये,
सिर्फ यही फरियाद ।
मरण-समाधि का मुझे,
दीजे आशीर्वाद ।।

(६)
*दोहा*
आये जब कोई नहीं,
आयें तब गुरु काम ।
आ,पल दो पल के लिये,
लेते गुरु का नाम ।।

।।गुरु विद्या भव तारण-हार ।
संकट-हर ! भव जलधि जहाज ।
दया-सिन्धु ! सन्तन सरताज ।।
ज्ञान-सिन्धु-गुरुकुल आधार ! ।
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।१।।
त्रिगद हारि औषध अकसीर !
मदन पंच शर निरसक ! धीर ! ।।
कलि भावी शिव वधु भरतार ! ।
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।२।।
विरहित आर्त-रौद्र-दुर्ध्यान ! ।
मण्डित शिवद ध्यान गुण खान ।।
श्रमणाधिप ! अविचल ! अविकार !
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।३।।
मति मराल धर ! त्रिभुवन मीत !
ज्ञान ध्यान रत ! सदय ! विनीत !
पन विध पापन वज्र प्रहार ! ।
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।४।।
संयत तन मन वचन कृपाल ! ।
तीर्थो-द्धारक ! हृदय विशाल ! ।।
अद्भुत मूकमाटि कृतिकार ! ।
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।५।।
अतिथि ! धर्म नेकान्त प्रदीप ! ।
सम कन-कनकरु चाँदी सीप ! ।।
दिव्य रूप विरहित श्रृँगार ! ।
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।६।।
बाल वैद्य ! शिव सारथवाह ! ।
विमोहान्ध कलि अपर पनाह ! ।।
गुण अगम्य ! निर्दोष उदार ! ।
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।७।।
हत-करघा, पूर्णायु प्रकल्प ।
धन धन जन हित कार्य अनल्प ।।
दीन-बन्धु ! गौ-पालन-हार ! ।
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।८।।
==दोहा==
गुरु से माँगें तब मिले,
ऐसी ही कब बात ।
गूँगे भी वो देखिये,
जाते ले कुछ हाथ ।।

(७)
*दोहा*
करुणा के अवतार है,
विद्या के भण्डार |
शिष्य ज्ञान गुरु वे तिन्हें ,
वन्दन बारम्बार ॥

इति हास नाम ।
सदलगा ग्राम ।।
जन्मा-भिराम ।
शशि कला धाम ।।१।।
पद-पद्म लाल ।
घुँघराल बाल ।।
मन मोह चाल ।
शिशु मत मराल ।।३।।
दृग् नीर नन्त ।
पर पीर हन्त ।।
इक दरद मन्द ।
‘इक साध’ वन्त ।।३।।
साँझन तमाम ।
सुमरण सुदाम ।।
दीखा मुकाम ।
गीता प्रणाम ।।४।।
श्री मन्त नन्द ।
वैराग वन्त ।।
शिख ज्ञान सिन्ध ।
शिरमण मुनिन्द ।।५।।
पर निन्द दूर ।
मंशा प्रपूर ।।
जिन धर्म सूर ।
शिव सुख अदूर ।।६।।
गुरु कुन्द-कुन्द ।
गुरुकुल सुगंध ।।
वच अमृत इन्द ।
कल जुग गुविन्द ।।७।।
धारा विराग ।
अजमेर भाग ।।
भीतर चिराग ।
अठ-पहर जाग ।।८।।
==दोहा==
मात पिता तुम देवता,
बन्धु भगिनी तुम मीत ।
धड़क रहा कुछ और ना,
धड़कन मिस तुम गीत ॥

(८)
*दोहा*
सुनते गुरु-गुण-गान से,
सधते सारे काम ।
आ रग-रग लेवें बसा,
श्री गुरु जी का नाम ।।

माँ श्री मन्ति मुस्कान वन्दना ।
‘दा’ मलप्पा अरमान वन्दना ।।
शरद पूर्णिमा इन्दु वन्दना ।
खिल वसुन्धरा बन्धु वन्दना ।।१।।
जन्म सदलगा ग्राम वन्दना ।
नेक-नेक शुभ नाम वन्दना ।।
धनिक मन्द मुस्कान वन्दना ।
गत गुमान संज्ञान वन्दना ।।२।।
आभूषण मुनि देश वन्दना ।
गत दूषण व्रति भेष वन्दना ।।
नसिया जी सोनि जी वन्दना ।
दीक्षा-थलि, बिनौलि वन्दना ।।३।।
सूरि ज्ञान नव किरण वन्दना ।
नूर भान शिव तरण वन्दना ।।
मॉं प्रवचन नवजात वन्दना ।
भा जग जल जलजात वन्दना ।।४।।
संस्थली प्रतिभा नींव वन्दना ।
हत-करघा संजीव वन्दना ।।
पाहन जिन-गृह, जान वन्दना ।
जुँवा हिन्दी, सम्मान वन्दना ।।५।।
मूक माटि, कृतिकार वन्दना ।
मूक-प्राणि, हितकार वन्दना ।।
श्रमण संघ सरताज वन्दना ।
सूत्र ग्रंथ विद्-राज वन्दना ।।६।।
सतर-पीर-पर नैन वन्दना ।
जागृत छिन दिन-रैन वन्दना ।।
गोशाला गोपाल वन्दना ।
आयुर्वेद निहाल वन्दना ।।७।।
बोधि समाधि निधान वन्दना ।
सहज निराकुल ध्यान वन्दना ।।
सार्थ नाम गुरु आप वन्दना ।
साध चुप, न अर हांप वन्दना ।।८।।
।।दोहा।।
भटक रहा संसार में,
रह कर तुमसे दूर ।
आस-पास रख लीजिये,
विद्या सागर सूर ।।

(९)
==दोहा==
होने तुम से हम सभी,
आये तुम दरबार ।
कृपया दो बरसा कृपा,
गुरु विद्या इस बार ।।

वर्तमान भगवन्त ।
विद्यासागर सन्त ।।
नन्दन ज्ञान-महन्त ।
वन्दन कोटि अनन्त ।।१।।
मल्लप्पा कुल दीप ।
मोती श्री मति सीप ।।
ग्राम सदलगा सन्त ।
वन्दन कोटि अनन्त ।।२।।
फेर निन्यानव फेर ।
जिन दीक्षा अजमेर ।।
कुन्द-कुन्द लघुनन्द ।
वन्दन काटि अनन्त ।।३।।
संघ बालयति एक ।
दीक्षित भविजन नेक ।।
सत्य अहिंसा पन्थ ।
वन्दन कोटि अनन्त ।।४।।
जाप सतत नवकार ।
वस्तु स्वरूप विचार ।।
चलते फिरते ग्रन्थ ।
वन्दन कोटि अनन्त ।।५।।
पलक निरख पर-पीर ।
झलकत जुग दृग्-नीर
अनन्त-करुणा-वन्त ।
वन्दन कोटि अनन्त ।।६।।
जनहित ढ़ेर प्रकल्प ।
कलजुग कायाकल्प ।।
हवा पश्चिमी अन्त ।
वन्दन कोटि अनन्त ।।७।।
अगणित गगन सितार ।
सिन्धु कौन भुज पार ।।
अगम आप गुण नन्त ।
वन्दन कोटि अनन्त ।।८।।
*दोहा*
गुरुवर विद्या सिन्धु जी,
कर दीजे इक काम ।
लिख भक्तों में लीजिये,
मेरा भी इक नाम ।।

(१०)
*दोहा*
गुरुवर विद्या सिन्धु का,
जीवन नामनु-रूप ।
मण-मोति ‘कछु-आ’ चुनें,
गुरु भक्ति में डूब ।।

बाग अहिंसा सौरभ जय ।
ग्राम सदलगा गौरव जय ।।
जयतु शरद्-पूनम अवतार ।
उत्सव पिता मलप्पा द्वार ।।१।।
धन धन गोद मात श्री मन्त ।
शिशु विद्याधर करुणा-वन्त ।।
कलि जल जामन मरण जहाज ।
सूरि देश भूषण महाराज ।।२।।
प्रतिमा सप्तम ब्रहचर नाम ।
ज्ञान ललक गुरु ज्ञान मुकाम ।।
दीक्षा दैगम्बर अजमेर ।
ज्ञान आदरश चरित सुमेर ।।३।।
गुरु कर कमलन सूरि उपाध ।
सहज ज्ञान गुरु-देव समाध ।।
देख मनस मानस मासूम ।
रखा कदम बुन्देली भूम ।।४।।
गैय्यन वर्तमान गोपाल ।
दृग् पनील इक हृदय उदार ।।
कृति प्रतिभा-थलि जगत् हितैश ।
ख्यात प्रकल्प पूर्णायु विशेष ।।५।।
श्रमण प्रदीक्षित विगत गुमान ।
संघ चतर्विध आप समान ।।
जप नवकार सतत लवलीन ।
डूब भीतरी संध्या तीन ।।६।।
आलोड़ित नित वस्तु स्वरूप ।
नित आलोकित निध चिद्रूप ।।
सहज-निराकुल चर्चित लोक ।
स्वर्ग उतर सुर देते ढ़ोक ।।७।।
बाबा कुण्डलपुर पुरुदेव ।
जाप जुड़ी विद्या गुरुदेव ।।
कुछ न कुछ तो होगा मित्र ।
कहूँ कहाँ तक अगम चरित्र ।।८।।
==दोहा==
यही अरज इक आपसे,
कञ्चन काँच समान ।
कण-कण वसुधा के सभी,
हो जायें गुणवान ॥

(११)
*दोहा*
बढ़ जिनके जुग चरण से,
और न कलि शिवधाम ।
गुरु विद्या सविनय तिन्हें,
बारम्बार प्रणाम ॥

पिता मल्लप्पा जाँ ।
तुम्हारी श्री मति माँ ।।
सदलगा गौरव तुम ।
जैन कुल सौरभ तुम ।।
शारदी मनहारी ।
पूर्णिमा अवतारी ।।
सूर तेजा माथा ।
नूर आसमां नाता ।।१।।
की पढ़ाई न्यारी ।
अखर, ढ़ाई वाली ।।
भोग कब पग बाधा ।
योग अरहत साधा ।।२।।
आश ब्रमचर पूरी ।
देश-भूषण सूरी ।।
ज्ञान गुरु, गुरु शिक्षा ।
ज्ञान गुरु, गुरु दीक्षा ।।३।।
पुण्य भू अजमेरा ।
लगा भक्तन मेला ।।
गुरु उपाधी छोड़ी ।
रति समाधी जोड़ी ।।४।।
नसीराबाद नगर ।
नसीबा हाथ अमर ।।
हाथ संयम खुशबू ।
बाद बुन्देली भू ।।५।।
दिगम्बर दीक्षाएँ ।
आर्यिका बालाएँ ।।
ब्रह्म प्रतिभा मंडल ।
ब्राह्म आश्रम संदल ।।६।।
ब्रह्मचारी ग्वाला ।।
दयोदय गोशाला ।।
प्राणदा वायू है ।
खुली पूर्णायू है ।।७।।
काल अभिजित सुन्दर ।
लाल पत्थर मन्दर ।।
अचिन्त्य गौरव गाथा |
अन्त्य ‘नाता’ माथा ।।८।।
‘निरा-कुल’ बन पाऊँ ।
भावना इक भाऊॅं ।।
सदलगा गौरव तुम ।
जैन कुल सौरभ तुम ।।
==दोहा==
यही विनय अनुनय यही,
नासा-दृष्टि सुमीत ।
यूँ ही नित गाता रहूँ,
गुरुवर थारे गीत ।।

(१२)
गुरु दर्शन अष्टक
आकुलता दिन-अंतिम आया ।
भाव निराकुल हृदय समाया ।
पाप निधत्त-निकाच नशाया ।
तुम दर्शन सुख अपूर्व पाया ।।१।।
चिर खोया निज विभव दिखाया ।
तुम दर्शन दृग् तीजा पाया ।।२।।
मन विकार का हुआ सफाया ।
तुम दर्शन विशुद्धि अर पाया ।।३।।
विघटा चला मिथ्यातम छाया ।
तुम दर्शन सम दर्शन पाया ।।४।।
भाव प्रमाद किनार लगाया ।
तुम दर्शन मत हंसी पाया ।।५।।
गहल वानरी यम घर आया ।
तुम दर्शन निधि अपनी पाया ।।६।।
उत्पथ बढ़ा कदम लौटाया ।
तुम दर्शन सर भार गवाया ।।७।।
छू मन्तर, मन्तर दुठ माया ।
तुम दर्शन मनचाहा पाया ।।८।।
=दोहा=
उर विशाल गुरुदेव का,
कहाँ अपर जग माँहि ।
शरणागत से कब कहें,
जाओ जगहा नाँहि ।।

(१३)
गुरु महिमा अष्टक
शिष्य तकदीर ।
विहर ‘गुरु’ पीर ।।
दरिद दयाल ।
करत निहाल ।।
जन्म जल तीर ।
विहर ‘गुरु’ पीर ।।१।।
भव-करण अंत ।
अपर भगवन्त ।।
ग्रीष्म समीर ।
विहर ‘गुरु’ पीर ।।२।।
‘विघन’-हर एक ।
सुमन उर-नेक ।।
शरण अखीर ।
विहर ‘गुरु’ पीर ।।३।।
गलत लत-चूर ।
भगत हित-पूर ।।
धरणि धर-धीर ।
विहर ‘गुरु’ पीर ।।४।।
पाश-पिशाच ।
पिपास आँच ।।
तृषित नदि नीर ।
विहर ‘गुरु’ पीर ।।५।।
खतम-मातम ।
परम-आतम ।।
त्यौहार अबीर ।
विहर ‘गुरु’ पीर ।।६।।
बन्धु दुखिया ।
सिन्धु सुखिया ।।
सुकृत अमीर ।
विहर ‘गुरु’ पीर ।।७।।
निरत पर-हेत ।
जगत-जल-सेत ।।
हृदय गम्भीर,
विहर ‘गुरु’ पीर।।८।।
डर रहित सात ।
घर-हित प्रणिपात ।।
प्रभु तस्वीर ।
विहर ‘गुरु’ पीर ।।
=दोहा=
गुरु से माँगें तब मिले,
ऐसी ही कब बात ।
गूँगे भी वो देखिये,
जाते ले कुछ हाथ ।।

(१४)
पञ्च गुरु मंगल
मंगलम्, मंगलम्
गुरुवरम्, मंगलम्
वन्दनम्, वन्दनम्
गुरुवरम्, वन्दनम्
तम हरण
सम शरण
गुरु प्रथम, मंगलम् ।।१।।
अवतरण
शिव सदन
गुरु चरम, मंगलम् ।।२।।
आभरण
आचरण
गुरु परम, मंगलम् ।।३।।
नम नयन
अम वयन
गुरु अगम, मंगलम् ।।४।।
तन नगन
मन सुमन
गुरुतरम्, मंगलम् ।।५।।

(१५)
गुरु समर्पण भावना
माँ की अरु गुरुदेव की,
भाँत एक है बात ।
आँखें दोनों की करें,
शिशु खातिर बरसात ।।
नीरज हो, क्या माोति भिंटाऊँ ।
सूरज को क्या ज्योति दिखाऊँ ।।
सन्त शिरोमण ! भगवन् मेरे ! ।
पद-रज तेरी माथ रमाऊँ ।।१।।
अक्षर स्वर अक्षर क्या बाँधूँ ।
अक्षत क्या अक्षत आराधूँ ।।
सन्त शिरोमण ! भगवन् मेरे ! ।
हित सुमरण तुम सुमरण साधूँ ।।२।।
जित मन्मथ क्या सुमन चढ़ाऊँ ।
जगत् जगत क्या भुवन घुमाऊँ ।।
सन्त शिरोमण ! भगवन् मेरे ! ।
ढ़ोल अश्रु जल चरण धुलाऊँ ।।३।।
=दोहा=
हो चाली गुरुवर कृपा,
अब क्या मुझसे दूर ।
दिव शिव दोनों हाथ में,
लड्डू मोती-चूर ।।

चन्द्र गुप्त मौर्य के सपने
चन्द्र गुप्त का पहला सपना ।
दिश् अस्ताचल सूर्य ढुलकना ।।
हुआ काल क्या पंचम आना ।
न्यून हो चलेगा श्रुत ज्ञाना ।।१।।

चन्द्र गुप्त का दूजा सपना ।
टूट कल्पतरु शाखा गिरना ।।
भद्र बाहु मुनि कहने लागे ।
मुनि न बनेगे नृप अब आगे ।।२।।

चन्द्र गुप्त का तीजा सपना ।
छिद्र युक्त शशि-मण्डल गगना ।।
टेड़ी खीर सुदृढ़ श्रद्धाना ।
जिन मत भेद दिखेंगे नाना ।।३।।

चन्द्र गुप्त का चौथा सपना ।
भुजंग फण बारह दिख पड़ना ।।
बारह वर्ष तलक दुखदाई ।
हा ! दुर्भिक्ष पड़ेगा भाई ।।४।।

चन्द्र गुप्त पंचम यह सपना ।
सुर विमान नभ ओर पलटना ।।
खेचर, अमर, श्रमण रिध-धारी ।
क्षेत्र भरत अब नाहिं विहारी ।।५।।

चन्द्र गुप्त का छठवां सपना ।
जल विभिन्न जल पुष्प विकसना ।।
क्षत्रिय, ब्रह्म न संयमधारी ।
धर्म धुरंधर कलि व्यापारी ।।६।।

चन्द्र गुप्त सप्तम यह सपना ।
अति अचरज-कर भूत थिरकना ।
सिर कुदेव श्रद्धान चढ़ेगा ।
जगत् अंध विश्वास बढ़ेगा ।।७।।

चन्द्र गुप्त अष्टम यह सपना ।
अत्र-तत्र खद्योत चमकना ।।
सूत्र ग्रन्थ जन अगम रहेगा ।
मिथ्यातम परचम लहरेगा ।।८।।

चन्द्र गुप्त का नववां सपना ।
सार्थ नाम ‘कम्’ सरवर दिखना ।।
छोड़ कहीं दक्षिणाद देशा ।
खो चालेगा धर्म जिनेशा ।।९।।

चन्द्र गुप्त का दसवां सपना ।
श्वान खीर चट बर्तन स्वर्णा ।।
बड़न रूठ चालेगी माया ।
अधम रीझ चालेगी प्रायः ।।१०।।

चन्द्र गुप्त ग्यारहवां सपना ।
कपि गजराज सवारी करना ।।
निम्न वर्ग सिर पगड़ी ताजा ।
कलि न बनेंगे क्षत्रिय राजा ।।११।।

चन्द्र गुप्त बारहवां सपना ।
सीम उलांघ सिन्धु बढ़ चलना ।।
न्याय उलंघन करने वाले ।
होंगे राजा मन के काले ।।१२।।

चन्द्र गुप्त तेरहवां सपना ।
दे कांधे बछड़े रथ लगना ।।
वृद्ध अगम्य साधना जोगी ।
संयम जोग तरुण वय होगी ।।१३।।

चन्द्र गुप्त चौदहवां सपना ।
राजपुत्र चढ़ ऊंट हरखना ।।
स्वीकारेंगे मारग हिंसा ।
कलि न रहेंगे नृप मत-हंसा ।।१४।।

चन्द्र गुप्त पन्द्रहवां सपना ।
धूसर-धूल रीशि मण-रतना ।।
हन्त ! परस्पर मुनि निर्ग्रन्था ।
बन निर्लज्ज, करेंगे निंदा ।।१५।।

चन्द्र गुप्त सोलहवां सपना ।
काले गजराजों का लड़ना ।।
गरज बाद बादल मुकरेंगे ।
कृषक ‘निराकुल’ कर न सकेंगे ।।१६।।

विरदावली…
प्रतिभा स्थली…
शाने-भू-मण्डल अहो,
बारम्बार प्रणाम ।
निरत ‘कि भारत माथ से,
हटे इण्डिया नाम ।।१।।
चेतन कृतियों में रहा,
प्रतिभा-मण्डल नाम ।
शाने-हिन्दुस्तान वे,
शत-शत तिन्हें प्रणाम ।।२।।
गई हिन्दी सम्मान पा,
पा जिनकी मुस्कान ।
हथकरघा की जान में,
नई आ गई जान |।३।।
प्रतिभा स्थली नाम की,
जिनकी बिटियाँ एक ।
छोटे बाबा वे तिन्हें,
मेरे नमन अनेक ।।४।।
यही विनती आपसे,
बच्चों की मुस्कान ।
चखा हमें भी दो कभी,
स्वानुभूति पकवान ।।५।।
पढ़ प्रतिभा-थलि बेटियाँ,
रखें ओढ़नी ओढ़ ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या शिव-मोड़ ।।६।।
पढ़ प्रतिभा-थलि बेटियाँ,
बनीं अदब आदर्श ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या प्रद-हर्ष ।।७।।
पढ़ प्रतिभा-थलि बेटियाँ,
उड़ा न रहीं मजाक ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या श्रुत आँख ।।८।।
पढ़ प्रतिभा-थलि बेटियाँ,
बोले कोकिल बोल ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या अनमोल ।।९।।
पढ़ प्रतिभा थली बेटियाँ,
रखें सँभल के पाँव ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या मुनि राँव ।।१०।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
रहें नशे से दूर ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या कुहनुर ।।११।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
मुँह लग करें न बात ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या मुनि नाथ ।।१२।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
चेटिंग-डेटिंग दूर ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या सुखपूर ।।१३।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
वृक्ष न तोड़ें पात ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या प्रभु भाँत ।।१४।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
रहें ना कच्चे कान ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या भगवान् ॥१५।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
रखें ऐड़िया साफ ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या निष्पाप ॥१६।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
करें ‘हेट’ सिगरेट ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या उर श्वेत ॥१७।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
करें न टाइम पास ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या भवि खास ।।१८।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
वरें न बंदर बाट ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या सम्राट ।।१९।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
करें न गज स्नान ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या गुणखान ।।२०।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
वरें न गफलत कीर ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या भव-तीर ।।२१।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
चटका रहीं न काँच ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या धर-साँच ।।२२।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
रखें घड़ी सी चाल ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या विद्-भाल ।।२३।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
धरती वत्सल भाव ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या थिर-छाँव ।।२४।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
करें न मंथन नीर ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या धर-धीर ।।२५।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
वरें न म्याऊँ पंथ ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या भगवंत ।।२६।।
पढ़ प्रतिभा थलि बेटियाँ,
रेत न खेती नाव ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या भवि-ठाँव ।।२७।।
पढ़ प्रतिभा-थलि बेटियाँ,
छुयें आसमाँ छोर ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या सिर-मौर ।।२८।।
पढ़ प्रतिभा-थलि बेटियाँ,
विरच रहीं इतिहास ।
रही आपकी ही कृपा,
शिष्य ज्ञान गुरु खास ।।२९।।
पढ़ प्रतिभा-थलि बेटियाँ,
दें औरों को छाँव ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या शिव नाव ।।३०।।
पड़ प्रतिभा-थलि बेटियाँ,
जागे देर न रात ।
रही आपकी ही कृपा,
गुरु विद्या मुनिनाथ ।।३१।।
पढ़ प्रतिभा-थलि बेटियाँ,
पहने-गहने लाज ।
रही आपकी कृपा,
गुरु विद्या महाराज ।।३२।।
=दोहा=
जिन्हें प्रतिक्षा नित रहे,
प्रतिभा आये पास ।
श्री गुरु विद्या सिंधु वे,
दास बना लें खास ॥

(१)
श्री गुरु गाथा

=दोहा=
गौरव दक्षिण प्रान्त के,
नाम तथा गुण-धाम ।
वरद पुत्र माँ सरसुती,
विद्या सिन्धु प्रणाम ।।

माँ श्री मन्ती दृग् तारे ।
मल्लप्पा राज दुलारे ।।
लख शिशु अठखेली इनकी ।
नहिं खुशी सहेली किनकी ।।१।।

माँ संग जिनालय जाये ।
इक दफा द्रव्य जब खाये ।।
माँ ज्यों ही आँख दिखाई ।
त्यों शरमा आँख झुकाई ।।२।।

झट कान खींच हाथों से ।
था लिया मना बातों से ।।
तुतला बोले “मापी दो” ।
गलती माँ विसरा दीजो ॥३।।

माँ ने झट नेह जताया ।
अश्रु पोंछे समझाया ।।
निर्माल्य न खाई जाती,
दुर्गति हो, जिन-श्रुति गाती ॥४।।

चल, कर झट कायोत्सगम् ।
जिन ! जिन-श्रुति ! मुनि ! हर लें गम ।।
बालक त्रुटि इस विसराओ ।
प्रभु ! अन्तर् बोध जगाओ ।।५।।

अब ना ये फेर लगाये ।
मति हंस पॉंत में आये ।।
आशीष मात का सीझा ।
विष विषय न बालक रीझा ।।६।।

गुरु देश भूष-णुपकारी ।
ब्रह्मचारी प्रतिमा धारी ।।
सुन, भट्टारक बन जाओ ।
बोले, गुरु क्षमा पठाओ ।।७।।

पाना है ज्ञान किनारा ।
बतला दो कौन सहारा ।।
गुरु-ज्ञान ज्ञान की खानी ।
ध्यानी, कल केवल-ज्ञानी ।।८।।

जाओ, जा उन्हें रिझाओ ।
मन-माना ज्ञान कमाओ ।।
लख भाव-भक्ति इन भीनी ।
दीक्षा गुरुवर ने दीनी ॥९।।

कुछ बरष अभी बीते थे ।
आ शीघ्र दक्षिणा लेके ।|
सुन, हाथ जोड़ सिर नाया ।
त्रुटि क्या, क्यों निकट बुलाया ।।१०।।

है कुछ भी पास न मेरे ।
क्या रख दूॅं चरणा तेरे ॥
रे ! विद्या न घबड़ाओ ।
पद मिरा सम्भालो आओ ।।११।।

प्रभु ! मैं बालक,पद भारी ।
सो गति बस क्षमा हमारी ॥
रे ! यूँ ना काम चलेगा ।
थामूँगा जब फिसलेगा ।।१२।।

लेना शिवप्रद सन्थारा ।
है तेरा सिर्फ सहारा |।
विद्या बस लागे रोने ।
गुरु-ज्ञान लगे पद खोने ।।१३।।

गुरु लगे रात-दिन जगने ।
अविरल नवकार सुमरने ।।
आया यम इनको लेने ।
ये नाव लगे खुद खेने ।।१४।।

लख विद्या गुरु की चर्या ।
चल पड़ी घर-गली चर्चा ॥
किये मुनि अर्जिका कीनी ।
श्रुत-संवर्धन रुचि लीनी ।।१५।।

श्रृंगारे तीर्थ पुराने ।
करुणा के गाये गाने ।।
धन !धन ! इन सा न दूजा ।
सूर भी आ करते पूजा ।।१६।।

नहीं अन्त गुणों का आये ।
लज्जा रख मौन सुहाये ।।
सो, छूके इनके चरणा ।
अब मुझे मौन बस शरणा ।।१७।।

(२)
श्री गुरु सिमरन

गिल्ली लेने गुफा द्वार इक,
आया बाल सलोना ।
मुखड़ा टुकड़ा चाँद जिसे लख,
कौन चाहता खोना ।।

झुका उठाने गिल्ली ‘कि मुनि,
दीखे सम-रस-सानी ।
आत्म ध्यान संलीन दिगम्बर,
निस्पृह अद्भुत ज्ञानी ॥
जिन्हें माटि-मरकत-मण इक-सी,
इक नमकीन अलोना ।
गिल्ली लेने गुफा द्वार इक,
आया बाल सलोना ।।1।।

पहुँच निकट उसने प्रदक्षिणायें,
गुरु की त्रय कीनी ।
हाथ लिये गिल्ली बैठा मुनि,
चरणन दृष्टि दीनी ॥
टूटा ध्यान,जहाँ बालक,
मुनि ने निरखा वो कोना ।
गिल्ली लेने गुफा-द्वार इक,
आया बाल सलोना ||2||

पास बुला मुनि ने पूछा,
‘रे ! भविक नाम क्या तेरा ।
क्या बस खेले ही,या करता,
अध्ययन निकट बसेरा ।।
मैं कुछ दिन हूँ यहाँ,सीख ले,
थुति,तू बिसर खिलोना ।
गिल्ली लेने गुफा-द्वार इक,
आया बाल सलोना ||3||

नाम हमारा विद्याधर,
माँ रोज धर्म सिखलाती ।
सिर्फ नहीं खेलूँ, विद्या,
विद्यालय मेरा साथी ॥
कृपया कह दीजे किस थुति से,
चाहें हृदय भिगोना ।
गिल्ली लेने गुफा-द्वार इक,
आया बाल सलोना ||4||

भक्तामर का पाठ सिखाना,
चाहूँ कल से आना ।
पाठ सिखाऊँ, कल आ पुनि वो,
करके याद सुनाना ||
बालक बोला कल क्या आज,
अभी थुति सिखला दो ना ।
गिल्ली लेने गुफा-द्वार इक,
आया बाल सलोना ||5||

चलो, सिखाता भक्तामर,
कुछ काव्य ध्यान तुम देना ।
अब जाओ हो चली देर पर,
इसे याद कर लेना ॥
शिशु बोला चाहूॅं मैं अभी,
परीक्षा सम्मुख होना ।
गिल्ली लेने गुफा द्वार इक,
आया बाल सलोना ॥6॥

वाह ! परीक्षा में शत्-प्रतिशत,
तुमने अंक कमाये ।
प्रखर बुद्धि हे ! देख भाग्य तुम,
मन मेरा हरषाये ॥
है आशीष सुराही बनना,
अबकि न सलिल बिलोना ।
गिल्ली लेने गुफा द्वार इक,
आया बाल सलोना || 7 ||

फलित हुआ आशीष, देश-
भूषण-मुनि नगर पधारे ।
बाल यही बन युवा,पहुँच-
उसने गुरु चरण पखारे ॥
कहा आप दर्शन,सम्यक्-भू,
चाहूँ ब्रमचर बोना ।
गिल्ली लेने गुफा-द्वार इक,
आया बाल सलोना || 8 ||

ज्ञान-लगन ने सिन्धु ज्ञान गुरु,
चरण समर्पित कीना ।
मुनि-बोले क्या नाम ? भला क्यों,
मेरा आश्रय लीना ॥
विद्याधर है नाम, चाहता,
अब ना निर्जन रोना ।
गिल्ली लेने गुफा द्वार इक,
आया बाल सलोना ॥9॥

विद्याधर विद्या लेकर कल,
उड़ तो ना जाओगे ।
छोड़े घोड़े गाड़ी प्रभु ! अब,
तो ना ठुकराओगे ।।
धन ! धन ! भो ! देता चारित पर,
सिर्फ काग ना धोना ।
गिल्ली लेने गुफा द्वार इक,
आया बाल सलोना ||10||

इक दिन बोले ज्ञान-गुरु,
दक्षिणा चाहता तुमसे ।
नजर झुकाकर कहा इन्होंने,
लो चाहो जो हमसे ॥
क्षपक बना लो, ले लो पद अब,
ना हो,बोझा ढोना ।
गिल्ली लेने गुफा-द्वार इक,
आया बाल सलोना ॥11॥

ना ना अभी बाल मैं पद की,
कहाँ योग्यता धरता ।
मुझे नहीं सुनना कुछ भी,
निज-पद तेरे ‘कर’ करता ॥
भव-भव खाई मुँह की अब,
सन्मृत्यु सजग सजोना ।
गिल्ली लेने गुफा-द्वार इक,
आया बाल सलोना ॥12॥

अब जाने को हूँ सो बॉंधो,
गाँठ न छल अपनाना ।
वचन न देना,देना प्रवचन,
गुरुकुल संघ बनाना ॥
इक थिर जप नवकार मन्त्र,
तिन तजा शरीर घिनौना ।
गिल्ली लेने गुफा-द्वार इक,
आया बाल सलोना ||13||

विहर-विहर विद्या गुरु ने जग,
माहन अलख जगाया ।
‘देह जीव है भिन्न’ कहा ना,
करके अलग दिखाया ॥
दे मुस्कान एक,जन-बुध-जन,
कीना जादू टोना ।
गिल्ली लेने गुफा-द्वार इक,
आया बाल सलोना ॥14॥

श्रमण किये अर्जिका बनाईं ,
किये व्रति दृग-धारी ।
एक एक कविता है इनकी,
सपने से भी प्यारी ।।
काव्य जगत इन मूक-माटी,
बुध संस्तुत चोखा सोना ।
गिल्ली लेने गुफा-द्वार इक,
आया बाल सलोना ॥15॥

ज्ञानोदय भाग्योदय सर्वो-
दय पर,इनकी छाया ।
कौन पुरा,नव वो जिन-बिम्ब,
नहीं जो इन मन भाया ॥
कहूँ कहाँ तक ‘नन्त-गुणी’ ये,
सो चाहूँ अब मोना ।
गिल्ली लेने गुफा-द्वार इक,
आया बाल सलोना |।
मुखड़ा टुकड़ा चाँद जिसे लख,
कौन चाहता खोना ।।
गिल्ली लेने गुफा द्वार इक,
आया बाल सलोना ॥16॥

(३)
श्री गुरु जीवन वृत्त

पिता मल्लप्पा दुलारे ।
मात श्री मति प्राण प्यारे ।।
पुण्य-भू सदलगा माटी ।
चॉंद पूनम मिला साथी ॥1॥

लख हॅंसी गुल शर्म खाते ।
मॉं-पिता लख कब अघाते ।।
जगत में करने उजाला ।
चल पड़े ये पाठशाला ॥2॥

दो बहिन ये चार भाई ।
कूट कर करुणा समाई ।।
मिल सभी स्वाध्याय करते ।
सोचते जग क्यों विचरते ॥3॥

घना इतना क्यों अंधेरा ।
कौन हूॅं मैं, कौन मेरा ।।
देशभूषण जी पधारे ।
मिल इन्होंने पग पखारे ||4||

बन चले ये ब्रह्मचारी ।
बाद प्रतिमा-सप्त धारी ।।
सिन्धु-श्रुत पाने किनारे ।
चल पड़े गुरु-ज्ञान द्वारे ।।5।।

किया फरसी नमन न्यारा ।
ले दृगों में गंग-धारा ।।
नाम विद्याधर पकड़ के ।
कह पड़े गुरुदेव बढ़-के ।।6।।

ले उड़ेगा ज्ञान जो तू ।।
क्या करूँगा वृद्ध जो हूॅं
ज्यों सुना, त्यों हाथ जोड़े ।
कहा,गाड़ी तजे घोड़े ।।7।।

देख दृढ़ता गुरु पसीजे ।
लिया अपना नैन भींजे ।।
शुक्ल पन आषाढ़ आई ।
तब दया गुरु ने दिखाई ।।8।।

धन ! हुई अजमेर नगरी ।
जैन-दीक्षा बॅंधी पगड़ी ॥
नाम विद्या-सिन्धु दीना ।
जय-दिगम्बर घोष कीना ।।9।।

रूप इनका था सलोना ।
निरख चाहे कौन खोना ।।
आई अगहन कृष्ण दोजा ।
ज्ञान गुरु पद लगा बोझा ॥10।।

तब निकट इनको बुला के ।
“दक्षिणा दो” कहा ला के ।।
आप बोलें झुका माथा ।
माँगिये क्या मन मॅंगाता ।।11।।

त्यागना चाहूँ उपाधी |
चाहता मैं अब समाधी ।।
कृश कषायरु काय कीनी ।
स्वैर वृत्ति जीत लीनी ॥12।।

जेठ बदी हा ! अमा आई ।
स्वास्थ्य पे जो कहर ढ़ाई ॥
तब ये सिन्धु ज्ञान भासा ।
अब अधिक न प्राण आशा ।।13।।

कहा विद्या से उन्होंने ।
जा रहा अब तुम्हें खोने ॥
कह रहा कुछ गाँठ बॉंधो ।
सब न सधता एक साँधो ।।14।।

संघ को गुरुकुल बनाना ।
शिष्य फिर, पहले तपाना ॥
तुम वचन न दिया करना ।
दिया प्रवचन जिया करना ।।15।।

तुम न जाना तम भगाने ।
दीप प्रकटाना सयाने ।।
पालकी वे ज्यों पधारे ।
स्वर्ग त्यों सहसा सिधारे ||16।।

निराकुल जो इन्हें लखता ।
साथ इनके वो निवसता ।।
कहे ओ ! मेरे विधाता ।
बनें मम दीक्षा प्रदाता ॥17।।

स्वप्र गुरु इनने सुमर के ।
श्रमण कीने कृपा करके ।।
निरख भक्ति भाव भीनी ।
अर्जिका दीक्षाएँ दीनी ।।18।।

भविक कीने ब्रह्मचारी ।
व्रति किये सम-दृष्टि-धारी ।।
रची इनने मूक-माटी ।
इक अहिंसा धर्म थाती ।।19।।

लसे प्रतिभा स्थली है ।
दयोदय इन दय पली है ॥
नन्त गुण कैसे गिनाऊॅं ।
क्यूॅं न थम मृग भॉंत जाऊॅं ।।20।।

(४)
श्री गुरु अनूठी यात्रा

शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।
अधिपति जो होने वाला है,
स्वर्ग और शिव धाम का ॥

माँ श्री-मति मरि,पीलू,तोता,
कहतीं जिसको प्यार से ।
गिनी पिता मल्लप्पा जी का,
विषय जिसे हैं खार से |
लगा देश-भूषण मुनि चौखट,
जिसे काम किस काम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।।१।।

ज्ञान ललक ने गुरु-द्वारे की ,
जिन्हें दिखाई राह थी ।
ज्ञान सिन्धु वे श्रमण शिरोमणी,
जिन्हें न फल की चाह थी ॥
जिसे कराया दर्श इन्होंने,
विसरे आतम राम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।।२।।

दीक्षा हुई नाम गुरु मुख से,
विद्या सागर जिन्हें मिला ।
रे ! माध्यस्थ अनोखे जिनको,
राग नाहिं,ना द्वेष-गिला ।
किया सहज निर्वाह जिन्होंने,
ज्ञान-सिन्धु-गुरु शाम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।।३।।

प्रथम शिष्य मुनि समय सिन्धु जी,
आगर आतम ज्ञान के ।
योग सिन्धु आदिक मुनि गण फिर,
एक पात्र निर्वाण के ॥
बीस-दोय परिषह से जिनका,
नाता आठों याम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।।४।।

श्री गुरु-मति जी शिष्या जिनकी,
प्रथम हिमालय शील की ।
फिर श्री दृढ़-मति आदिक माँ,
अवगाहक आतम झील की ।
तीन बाद छैः का है रिश्ता,
जिनका अरु विश्राम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।।५।।

ख्यात, कृति श्री-मूकमाटि जी,
जिनकी देश विदेश में ।
माँ जिन श्रुति टंकोत्कीर्ण कीं,
जिन थुति कविता भेष में ॥
जिन्हें डिगा कब पाया मौसम,
बरषा शीतरु घाम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।।६।।

ज्ञानोदय सर्वोदय सबके,
सिर पर जिनका हाथ है ।
धन्य दयोदय करुणा जिनकी,
जो पाये दिन रात है ।
जिन्हें बुलाने निज आंगन,
आतुर श्रावक हर ग्राम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।।७।।

बालक में गुरु-गुण-रत्नाकर,
पाऊँ कैसे छोर जी ।
चॉंद हाथ कब शिशु के आया,
भले लगा ले दौड़ भी ॥
कर प्रणाम, अब अभिवादन मैं,
करता अतः विराम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।।८।।

(५)
धन ! धन !! श्री गुरु

धन्य सदलगा माटी जिसपे,
गुरुवर रखा कदम तुमने ।
कूख धन्य मॉं श्री-मति जिससे,
गुरुवर लिया जनम तुमने ।।१।।

पिता मलप्पा धन्य जिन्होंने,
उर से प्रथम लगाया है ।
बना दोल हाथों का अपने,
मन-भर तुम्हें झुलाया है ।।२।।

दर्शन मिला प्रथम तुम शारद,
पूनम निशि का क्या कहना ।
धन ! धन ! रस संयम रसिया तुम,
एक न सब भाई बहना ।।३।।

धन ! धन ! भाषा माता मराठी,
जिसमें तुम तुतलाये थे ।
धन ! धन ! कन्नड़ भाषा जिसमें,
पा शिक्षा हरषाये थे ।।४।।

धन्य देशभूषण मुनि जिनसे,
प्रतिमा सप्तम लीनी है ।
ज्ञान-सिन्धु मुनि धन जिन चरणन,
दृष्टि एक थिर दीनी है ।।५।।

धन ! अजमेर जहाँ जिन-दीक्षा,
लेकर निज को श्रृंगारा ।
पल वो धन्य तुम्हें जब गुरु ने,
दिया सूरि-पद अधिकारा ।।६।।

धन ! धन ! तव गुरु भक्ति,कराई-
सन्मृत्यु गुरु की जिससे ।
तव साहित्य साधना धन ! धन !
जग जो आज छुपी किससे ।।७।।

शिष्य धन्य ! तव आप दया से,
जिन्होंने शिव पथ लीना ।
धन ! शिष्याएं आप चरण में,
जीवन निज अर्पित कीना ॥८।।

धन्य ! दयोदय दया-धाम है,
सिर जिसके छाया तेरी ।
धन्य ! तीर्थ सिद्धोदय जिसकी,
सुमरण हरे जगत् फेरी ॥९।।

कहूॅं कहाँ तक कौन गिन सका,
कितने अम्बर मैं तारे ।
मुझे सहायक अंत मौन बस,
सुनते है, सुर गुरु हारे ।।१०।।

(६)
छोटे बाबा

==दोहा==
गुरुवर का गुण गावना,
बड़ा सरल सा काम ।
करनी हो पहचान माँ,
कब शिशु हो नाकाम ॥

सबसे प्यारे, जग से न्यारे,
छोटे बाबा हैं ।
तारण-हारे, पालन-हारे,
छोटे बाबा हैं ॥

धन्य किया माँ श्री-मति पिता,
मलप्पा तारे हैं ।
श्रमण देश-भूषण गुरु ज्ञान सिन्धु ,
सुत प्यारे हैं ॥
जग उजियारे, सजग अहा’ रे,
छोटे बाबा हैं ।
सबसे प्यारे, जग से न्यारे,
छोटे बाबा हैं ॥१।।

पीछे छूटा शतक श्रमण,
निर्ग्रन्थ किये इनने ।
नेक अर्जिका नेक-दिल ‘दिये’,
जला दिये इनने ॥
शरण सहारे, तरण किनारे,
छोटे बाबा हैं ।
सबसे प्यारे, जग से न्यारे,
छोटे बाबा हैं ॥२।।

प्रतिभा-मण्डल, प्रतिभा-संस्थलि,
लखते ही बनती ।
हत-करघों की लगा न सकते,
हाथों पे गिनती ॥
भाग-सितारे, फाग-नजारे,
छोटे बाबा हैं ।
सबसे-प्यारे, जग से न्यारे,
छोटे बाबा हैं ॥३।।

शान्ति दुग्ध धारा है अनुपम,
क्या उसका कहना ।
गो-शाला भाग्योदय धर्म-
अहिंसा, का गहना ॥
कीरत-द्वारे, तीरथ-सारे,
छोटे बाबा हैं ।
सबसे-प्यारे, जग से न्यारे,
छोटे बाबा हैं ॥४।।

बन सर्वोदय तीर्थ रहा ,
असहायन वैशाखी ।
तीर्थ दयोदय के गवाक्ष से,
परम दया झाँकी ॥
दीप्त-सितारे, दिव्य-नजारे,
छोटे बाबा हैं ।
सबसे-प्यारे,जग से न्यारे,
छोटे बाबा हैं ।।५।।

कूट सहस्र जिनालय जिनकी,
जन्नत में चर्चा ।
जिन मत दूर मूकमाटी की,
हर मत में अर्चा ॥
सौख्य-पिटारे, सौम्य अहा ‘रे,
छोटे बाबा है ।
सबसे-प्यारे,जग से न्यारे,
छोटे बाबा हैं ॥६।।

आश्रम ब्राह्मी सुन्दरी से ,
इनका गहरा नाता ।
संस्था-नेमावर-समाधि गाये,
गौरव गाथा ॥
सत्सँग द्वारे, मंगल सारे,
छोटे बाबा हैं
सबसे प्यारे, जग से न्यारे,
छोटे बाबा हैं ॥७।।

पूरी मैत्री के क्या कहने,
चर्चे गली गली ।
अनुशासन वो खुशबू फीकी,
लगती खिली कली ॥
खुदा हमारे, सुधा अहा ‘रे,
छोटे बाबा है
सबसे प्यारे, जग से न्यारे,
छोटे बाबा हैं ॥८।।

बने इण्डिया भा…रत, रखी-
सँभाल बाग डोरी ।
गुरुकुल इनके आ हैं लोग,
रहे विदेश छोड़ी ॥
खेवन हारे, ‘सेवन तारे’
छोटे बाबा है ।
सबसे प्यारे, जग से न्यारे,
छोटे बाबा हैं ॥९।।

हवा पश्चिमी देख प्रतिक्षा,
प्रतिभा रुख बदले ।
खड़ी नशा-बन्दी भी अपना,
ऊँचा सा कद ले ॥
सावन न्यारे, छाँव नजारे ,
छोटे बाबा हैं ।
सबसे प्यारे, जग से न्यारे,
छोटे बाबा हैं ॥१०।।

जैविक-कृषि कृपा पा इनकी,
जुगुनु सी चमके ।
हिन्दी बन भारत माँ माथे,
की बिन्दी दमके ॥
शगुन पिटारे, सद्-गुण द्वारे ,
छोटे बाबा है ।
सबसे प्यारे,जग से न्यारे,
छोटे बाबा है ॥११।।

बूचड़ खाने देख आँख,
इनकी थर-थर काँपे ।
माल विदेशी गृह उद्योगन ,
देख राह नापें ॥
निरीह न्यारे, सींह अहा’रे ,
छोटे बाबा है ।
सबसे प्यारे, जग से न्यारे,
छोटे बाबा हैं ॥१२।।

तातो क्यों रोता कविताओं,
के इक प्रस्तोता ।
छन्द हाईकू इन्हें न पाता,
तो रहता रोता ॥
कवि-जग-न्यारे, छवि भगवाँ ‘रे,
छोटे बाबा है ।
सबसे प्यारे, जग से न्यारे,
छोटे बाबा हैं ॥१३।।

और और क्या कहे पार,
उपकार न आता है ।
छोर-क्षितिज आते-आते भी,
कब आ पाता है ॥
शरण सहाई सिर्फ हमें ,
इसलिये मौन स्वामी ।
एक नहीं, जो हुई नेक वो,
होय गौण खामी ॥१४।।
==दोहा==
गुरुवर का गुण गावना,
कहाँ सरल सा काम ।
बड़े-बड़े विद्वान भी,
सुर-गुरु से नाकाम ॥

(७)
श्री गुरु कीर्तन

श्री-मति माँ सदन ।
हुआ बालक रतन ।।
शरद पूनम का था दिन सुहाना ।
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।१।।

बोल मिसरी डली ।
देह नाजुक कली ॥
ठुमक चलता ‘के प्रमुदित जमाना ।
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना ||२।।

मति जिसकी प्रखर ।
पढ़े आलस विसर ।।
और विनयी न ऐसा दिखाना |
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।३।।

दया जिसके हृदय ।
कहाँ रुचते विषय |।
जिया मुनि देश-भूषण रिझाना |
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना ||४।।

विनिर्मल ब्रह्मधर ।
ज्ञान इच्छुक अपर ।।
ज्ञान सागर अब जिसका ठिकाना ।
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।५।।

नग्न तन मन वचन ।
मृषा न, जिन वचन ॥
जिन्हें आज्ञा गुरु नित निभाना |
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।६।।

दुग्ध सा आचरण ।
गुरु सेवा मगन ।।
जिन्हें गुरु चाहें निज पद बिठाना |
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना ।।७।।

देख जिन आचरण ।
सुधि आये शरण ।।
और संघ चतुर् विध ‘जहॉं’ ना |
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।८।।

दया गायें पलीं ।
पाठ-शाला खुलीं ॥
कृपा जिनकी न किन पे बताना ।
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना ||९।।

पाठावलीं रची ।
थुतिंयॉं रस खचीं ।।
मूकमाटी का कीना विधाना ।
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना ।|१०।।

छुये न मद जिन्हें ।
तीर्थ रुचते घने ।।
कौन जिन-बिम्ब नाहिं लुभाना |
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।११।।

गुणवॉं नन्त जो ।
है कब अन्त सो ।।
सकोचूँ बालक सा ये गुन गुनाना ।
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।१२।।

”दोहा”
गुरुवर शिव तक ले चलो,
मेरी अंगुली थाम ।
भूल-भुलैय्या बन चला,
‘सहज-निराकुल’ धाम ।।

(८)
श्री गुरु संस्तवन

सब सन्तों से न्यारे हैं ।
ज्ञान सिन्धु दृग् तारे हैं ।।
माँ श्री मन्ति ‘पिता’ सपने ।
ना दश दिश् किस के अपने ।।१।।

शरद पूर्णिमा शशि न्यारे ।
ग्राम सदलगा उजियारे ।।
जुवाँ मराठी रस रसिया ।
कन्नड़ जुवाँ हृदय वसिया ।।२।।

पढ़े दूसरी ही कक्षा ।
खेल न को ! खेले अच्छा ।।
हाथ दाहिने दीनों के ।
साँझ नुरागी तीनों के ।।३।।

भक्त देश-भूषण मुनि के ।
रहित द्वेष दूषण, गुणि से ।।
अंक खूब लेने वाले ।
रंक खूब देने वाले ।।४।।

निर्ग्रन्थन निर्ग्रन्थ महा ।
आये गुण गण अन्त कहाँ ।।
मौन इस लिये लेता हूँ ।
ढ़ोक बस इन्हें देता हूँ ।।५।।

(१)
सुत श्री मत जय जय जय ।
पत भारत जय जय जय ।।
चल तीरथ जय जय जय ।
ध्रुव कीरत जय जय जय ।।१।।

गोपाला जय जय जय ।
मन बाला जय जय जय ।।
बुध नेता जय जय जय ।
उध रेता जय जय जय ।।२।।

गृह करुणा जय जय जय ।
इह शरणा जय जय जय ।।
शिव तरणी जय जय जय ।
दिव धरणी जय जय जय ।।३।।

सु-मरण रत जय जय जय ।
दर्पण वत् जय जय जय ।।
दृगु नासा जय जय जय ।
विश्वासा जय जय जय ।।४।।

शारद कुल जय जय जय ।
स्वारथ गुल जय जय जय ।।
गुण अनन्त जय जय जय ।
जय जयन्त जय जय जय ।।५।।

(२)
जय जय हृदय विशाला जय जय ।
जय जय दीन दयाला जय जय ।।
जय जय नाज गुशाला जय जय ।
जय जय आज गुपाला जय जय ।।१।।

जय जय श्री मति लाला जय जय ।
जय जय व्रत परिपाला जय जय ।।
जय जय ध्रुव उजियाला जय जय ।
जय जय शुभ तिल काला जय जय ।।२।।

जय जय तारणहारा जय जय ।
जय जय शरण सहारा जय जय ।।
जय जय सन्त निराला जय जय ।
जय जय कन्त शिवाला जय जय ।।३।।

जय जय साधक आला जय जय ।
जय जय पसिध तिखाला जय जय ।।
जय जय दुर्गति टाला जय जय ।
जय जय ऋज गति वाला जय जय ।।४।।

जय जय जगत् निहाला जय जय ।
जय जय चरित हिमाला जय जय ।।
जय जय मन नव बाला जय जय ।
जय जय धन ! गुणमाला जय जय ।।५।।

(३)
।। नगन श्रमण वन्दना ।।

गगन चरण वन्दना ।
चरण शरण वन्दना ।।
करुण सदन वन्दना ।
नगन श्रमण वन्दना ।।१।।

मदन हरण वन्दना ।
हरण विघन वन्दना ।।
क्रुधन क्षरण वन्दना ।
नगन श्रमण वन्दना ।।२।।

अमन रमण वन्दना ।
अब न मरण वन्दना ।
मनन मगन वन्दना ।
नगन श्रमण वन्दना ।।३।।

करण जतन वन्दना ।
जतन नयन वन्दना ।।
सजन सुमन वन्दना ।
नगन श्रमण वन्दना ।।४।।

कथन प्रशन वन्दना ।
प्रसन वदन वन्दना ।।
सुपन तरण वन्दना ।
नगन श्रमण वन्दना ।।५।।

(४)
प्रद सम्यक् दर्शन जय हो ।
दिग्दर्शक सु-मरण जय हो ।
जय जय हो सन्त शिरोमण ।
जय हो संरक्षक गोधन ।।१।।

संकट मोचन जय जय हो ।
घट घट रोशन जय जय हो ।।
जय हो पूर्णायु प्रणेता ।
जय जय हो ऊरध रेता ।।२।।

अख पंच विजेता जय हो ।
ऋषि, मुनि, यति नेता जय हो ।
जय हो चल करुणा पोथी ।
जय जयतु समाधी बोधी ।।३।।

गोदी मां प्रवचन जय हो ।
ज्योति अविचल मण जय हो ।।
जय जय हो नमतर नैना ।
जय सत् शिव सुन्दर वैना ।।४।।

कलि रैना चांदी जय हो ।
भा…रत आजादी जय हो ।।
जय हो गुण अगम अगोचर ।
जय श्री गुरु विद्या-सागर ।।५।।

(५)
दृग् तारक श्री-मन्तो ।
जग पालक जयवन्तो ।।
पुरु कलजुग जयवन्तो ।
गुरु सतजुग जयवन्तो ।।१।।

पावन पग जयवन्तो ।
माहन रग जयवन्तो ।।
करुणा डग जयवन्तो ।
पुरु मारग जयवन्तो ।।२।।

अभिजित अख जयवन्तो ।
सार्थक शिख जयवन्तो ।।
सत् ज्ञायक जयवन्तो ।
यत नायक जयवन्तो ।।३।।

एक सजग जयवन्तो ।
नेक झलक जयवन्तो ।।
औ शिक्षक जयवन्तो ।
गौ रक्षक जयवन्तो ।।४।।

शाश्वत रिख जयवन्तो ।
भास्वत इक जयवन्तो ।।
दृश इक टक जयवन्तो ।
दिश् दश तक जयवन्तो ।।५।।

(६)
।। जय जयन्त ।।

गुण अनंत ।
मन भदन्त ।
दरद मन्द ।
दया वन्त ।।
सुत श्रिमन्त ।
जय जयन्त ।।१।।

अन्य पन्थ ।
कथन मन्त्र ।।
सूर चन्द ।
पूर नन्द ।।
सुत श्रिमन्त ।
जय जयन्त ।।२।।

अक्ष हन्त ।
रक्ष जन्त ।।
सार ग्रन्थ ।
चारु छन्द ।।
सुत श्रिमन्त ।
जय जयन्त ।।३।।

वीत द्वन्द ।
प्रीत कुन्द ।।
ज्ञान नन्द ।
थान सन्ध ।।
सुत श्रिमन्त ।
जय जयन्त ।।४।।

जश बसंत ।
पुन समन्त ।।
मोख कन्त ।
ढ़ोक नन्त ।।
सुत श्रिमन्त ।
जय जयन्त ।।५।।

(७)
नूर सदलगा जय हो ।
सुत सरसुत मां जय हो ।।
सन्त शिरोमण जय हो ।
संकट मोचन जय हो ।।१।।

कलि तीर्थंकर जय हो ।
चल भी अक्षर जय हो ।।
भा अनुशासन जय हो ।
जां जिन शासन जय हो ।।२।।

जय हो करुण निधान ।
जय हो श्रमण प्रधाना ।।
जय हो रक्षक गैय्या ।
जय हो विरक्ष छैय्या ।।३।।

पीछी वायू जय हो ।
जी पूर्णायू जय हो ।।
जय हो क्षमा निकेता ।
जय हो ऊरध रेता ।।४।।

जय हो भाग विधाता ।
जय हो जग इक त्राता ।।
जय हो महज निरा-कुल ।
जय हो सहज मिला कुल ।।५।।

(८)
।। शत अभिनन्दन ।।
श्रीमति नन्दन ।
यतिपति वन्दन ।।
दुरित निकंदन ।
शत अभिनन्दन ।।१।।

।। जय गुरुदेवा ।।
तारक खेवा ।
दृग् जुग रेवा ।।
दुख सिर लेवा ।
जय गुरुदेवा ।।२।।

।। जय-जय गुरुवर ।।
छैय्या तरुवर ।
गैय्या गिरधर ।।
नैय्या सिरपुर ।
जय-जय गुरुवर ।।३।।

।। गुरु जी जय-जय ।।
दिव नायक तय ।
पुण्य सातिशय ।
शिव तिय परिणय ।।
गुरु जी जय-जय ।।४।।

।। साध वन्दना ।।
ज्ञान नन्दना ।
मोह गन्ध ना ।
मोख स्यन्दना ।।
साध वन्दना ।।५।।

(९)
।। शत वन्दना ।।

श्रुत नन्दना ।
यत वन्दना ।।
सानन्दना ।
शत वन्दना ।।१।।

मत द्वन्द ना ।
व्रत बन्धना ।।
सानन्दना ।
शत वन्दना ।।२।।

छव मन्द ना ।
शिव स्यन्दना ।
सानन्दना ।
शत वन्दना ।।३।।

मद गन्ध ना ।
बद सन्ध ना ।।
सानन्दना ।
शत वन्दना ।।४।।

सम चन्द ना ।
रज चन्दना ।।
सानन्दना ।
शत वन्दना ।।५।।

जग फन्द ना ।
गत क्रन्दना ।।
सानन्दना ।
शत वन्दना ।।६।।

(१०)
।। नमन नमन ।।

नूर गगन ।
चूर मदन ।।
दीप रतन ।
सीप शगुन ।।
जेय करण ।
ध्येय शरण ।
नगन श्रमण ।
नमन नमन ।।१।।

प्राप्त मगन ।
आप्त यजन ।।
सार्थ सुमन ।
पार्थ लखन ।।
ध्यान विजन ।
ज्ञान मगन ।।
नगन श्रमण ।
नमन नमन ।।२।।

खत्म भ्रमण ।
आत्म रमण ।।
घात विघन ।
आद चरण ।।
सौख्य सदन ।
सौम्य वदन ।।
नगन श्रमण ।
नमन नमन ।।३।।

चित्त हरण ।
नित्य भजन ।।
हाथ सपन ।
नाथ अपन ।।
सतत जतन ।
विरद प्रशन ।।
नगन श्रमण ।
नमन नमन ।।४।।

(११)
जय जय, जय जय
भा संबोधी ।
माई गोदी ।।
सीपी मोती ।
दीवा ज्योति ।।
जय जय, जय जय ।।१।।

मन शिशु बाला ।
भोला भाला ।।
हृदय विशाला ।
जगत् उजाला ।।
जय जय, जय जय ।।२।।

भक्त खिवैय्या ।
रक्षक गैय्या ।।
धुरुव तरैय्या ।
लाज बचैय्या ।।
जय जय, जय जय ।।३।।

भूषण धरती ।
तट वैतरणी ।।
साख सुमरणी ।
छवि मन हरणी ।।
जय जय, जय जय ।।४।।

दृष्टि नासा ।
विनष्ट आशा ।।
समिष्ट वासा ।
मैं तिन दासा ।।
जय जय, जय जय ।।५।।

(१२)
जल से भिन्न कमल गुरु जी ।
खुद से नैन सजल गुरु जी ।।
एक सजग पल-पल गुरु जी ।
अंगद पग अविचल गुरु जी ।।१।।

गुरु जी दर्शनीय अपलक ।
गुरु जी कलि भगवन्त झलक ।।
गुरु जी ख्यात दिगन्त तलक ।
गुरु जी वन्दित इन्द्र शतक ।।२।।

नन्दन पुष्प महक गुरु जी ।
उपवन आम्र चहक गुरु जी ।।
शिख-शिख दिल धक-धक गुरु जी ।
कुछ कुछ बनकर चरक गुरु जी ।।३।।

गुरु जी साही मुलक मुल्क ।
गुरु जी राही अरुक अथक ।।
गुरु जी जग रोशन चकमक ।
गुरु जी गोधन संरक्षक ।।४।।

प्रतिकृति कुन्द कुन्द गुरु जी ।
दृग् नम दरदमन्द गुरु जी ।।
चल माहन्त ग्रन्थ गुरु जी ।
सहजो सरल सन्त गुरु जी ।।५।।

(१३)
।। जय जय जय, जय जय जय ।।

करुणा क्षमा निधान ।
गुरु पाछी पवमान ।।
चरित ज्ञान श्रद्धान ।
गुरु भवि भक्त गुमान ।।
जय जय जय, जय जय जय ।।१।।

दृग् तारक श्री-मन्त ।
पिता मलप्पा नन्द ।।
शरद पूर्णिमा चन्द ।
कलि गुपाल गोविन्द ।।
जय जय जय, जय जय जय ।।२।।

इक भव जलधि जहाज ।
नग्न श्रमण सरताज ।।
इक सक्षम जांबाज ।
अक्षर लग्न स्वराज ।।
जय जय जय, जय जय जय ।।३।।

बादल पाप समीर ।
आज वर्धमाँ वीर ।।
नाज वर्तमॉं धीर ।
परहित आंखन नीर ।।
जय जय जय, जय जय जय ।।४।।

दृष्टि नासिका श्वास ।
आश प्रथम विश्वास ।।
परमातम अहसास ।
इक सितार आकाश ।।
जय जय जय, जय जय जय ।।५।।

(१४)
प्रतिरूप क्षमा करुणा जै ।
बिन कारण शिख शरणा जै ।।
अब नाम मात्र न भ्रमणा,
जिन शासन आभरणा जै ।।१।।

गैय्या कलि कृष्ण कन्हैया ।
नैय्या शिव स्वर्ग खिवैय्या ।।
गुनगुनी धूप ठण्डी पल,
पल ग्रीष्म बरगदी छैय्या ।।२।।

प्रतिभा संस्थली प्रणेता ।
संचेता अक्ष विजेता ।।
जय जय ऊरध-रेता जै,
सद्-गुरु कलजुग जुग-त्रेता ।।३।।

पाथर क्या मन्दर आखर ।
शर्माया चन्दर आकर ।।
भावी शिव राधा वर जै,
जै किरणा ज्ञान दिवाकर ।।४।।

ऋषि परिपाटी रखवाले ।
बरसा वाले घन काले ।।
सांचे सांचे ढ़ाले जै,
दिवि भुवि पाताल उजाले ।।५।।

(१)
।। वन्दना वन्दना ।।

गोपाल वन्दना ।
त्रैकाल वन्दना ।।
नम नैन वन्दना ।
अमि वैन वन्दना ।।१।।

कलि क्षेम वन्दना ।
जल हेम वन्दना ।।
जित अक्ष वन्दना ।
इक लक्ष्य वन्दना ।।२।।

गत-शोक वन्दना ।
पत मोख वन्दना ।।
चल तीर्थ वन्दना ।
कलि कीर्ति वन्दना ।।३।।

निर्माण वन्दना ।
कलि…यान वन्दना ।।
अनगार वन्दना ।
गुणकार वन्दना ।।४।।

छव सूर वन्दना ।
नव नूर वन्दना ।।
गुण नन्त वन्दना ।
श्री मन्त नन्दना ।।५।।

(२)
।। श्री मन्त नन्दना ।।

गत द्वन्द वन्दना ।
निर्ग्रन्थ वन्दना ।।
नित नन्त वन्दना ।
श्री मन्त नन्दना ।।१।।

शिव स्यंद वन्दना ।
निस्पन्द वन्दना ।।
नित नन्त वन्दना ।
श्री मन्त नन्दना ।।२।।

पुन नन्त वन्दना ।
गुणवन्त वन्दना ।।
नित नन्त वन्दना ।
श्री मन्त नन्दना ।।३।।

सिध मन्त्र वन्दना ।
रिध सन्त वन्दना ।।
नित नन्त वन्दना ।
श्री मन्त नन्दना ।।४।।

दय पन्थ वन्दना ।
चल ग्रन्थ वन्दना ।
नित नन्त वन्दना ।
श्री मन्त नन्दना ।।५।।

(३)
।। सुत श्री मन्तो ।।

गुरु जयवन्तो ।
पुरु जयवन्तो ।।
कवि जयवन्तो ।
भवि जयवन्तो ।।
जय जयवन्तो ।
सुत श्री मन्तो ।।१।।

यति जयवन्तो ।
व्रति जयवन्तो ।।
प्रभु जयवन्तो ।
विभु जयवन्तो ।।
जय जयवन्तो ।
सुत श्री मन्तो ।।२।।

सिध जयवन्तो ।
बुध जयवन्तो ।।
मुनि जयवन्तो ।
गुणि जयवन्तो ।।
जय जयवन्तो ।
सुत श्री मन्तो ।।३।।

जप जयवन्तो ।
तप जयवन्तो ।।
ऋष जयवन्तो ।
जश जयवन्तो ।।
जय जयवन्तो ।
सुत श्री मन्तो ।।४।।

(४)
दृग सितार श्री मन्तो ।
इक दयाल जयवन्तो ।।
भान चन्द जयवन्तो ।
ज्ञान नन्द जयवन्तो ।।१।।

होश पून जयवन्तो ।
रोश शून जयवन्तो ।।
वीतराग जयवन्तो ।
प्रीत जाग जयवन्तो ।।२।।

धन्य डूब जयवन्तो ।
पुण्य खूब जयवन्तो ।।
एक लक्ष्य जयवन्तो ।
जेय अक्ष जयवन्तो ।।३।।

नन्द नेम जयवन्तो ।
पंक हेम जयवन्तो ।।
श्रमण भाल जयवन्तो ।
सगुण माल जयवन्तो ।।४।।

भूम देव जयवन्तो ।
नुति सदैव जयवन्तो ।।
निध अमूल जयवन्तो ।
निरा-कूल जयवन्तो ।।५।।

(५)
सुखकर जयवन्तो ।
दुखहर जयवन्तो ।।
शशि मुख जयवन्तो ।
शिशु रुख जयवन्तो ।।१।।

मन मण जयवन्तो ।
गुण गण जयवन्तो ।।
यति पति जयवन्तो ।
श्रुति रति जयवन्तो ।।२।।

समरस जयवन्तो ।
दिश् दश जयवन्तो ।।
गुरुतर जयवन्तो ।
तरुवर जयवन्तो ।।३।।

अर…नव जयवन्तो ।
गो…रव जयवन्तो ।।
सत्-कृत जयवन्तो ।
जनहित जयवन्तो ।।४।।

जो…वन जयवन्तो ।
लोच…न जयवन्तो
दृग् नम जयवन्तो ।
सर…गम जयवन्तो ।।५।।

(६)
सुत मल्लप्प गुरुदेवा ।
दीवो अप्प गुरुदेवा ।।
शारद पुन गुरुदेवा ।
स्वारथ शून गुरुदेवा ।।१।।

पातर पाण गुरुदेवा ।
आखर वाण गुरुदेवा ।।
सन्मत वंश गुरुदेवा ।
जिन-मत हंस गुरुदेवा ।।२।।

बदरी नैन गुरुदेवा ।
मिसरी वैन गुरुदेवा ।।
पावन पूत गुरुदेवा ।
माहन सूत्र गुरुदेवा ।।३।।

दया निधान गुरुदेवा ।
मन नादान गुरुदेवा ।।
मन्दर प्रीत गुरुदेवा ।
चन्दर जीत गुरुदेवा ।।४।।

पर उपकार गुरुदेवा ।
गुण गुणकार गुरुदेवा ।।
मन मृग ठाम गुरुदेवा ।
सु-मरण शाम गुरुदेवा ।।५।।

(७)
सुत श्रि-मत जय जय जय ।
यति जगत जय जय जय ।।
श्रुत सुरत जय जय जय ।
व्रति महत् जय जय जय ।।१।।

दृग् सजल जय जय जय ।
जग कमल जय जय जय ।।
रग अमल जय जय जय ।
डग अचल जय जय जय ।।२।।

शिख सुनत जय जय जय ।
दुख हरत जय जय जय ।।
हरि विरत जय जय जय ।
कलि भरत जय जय जय ।।३।।

सत सु-मन जय जय जय ।
पत श्रमण जय जय जय ।।
रम वचन जय जय जय ।
तम किरण जय जय जय ।।४।।

दिव मुकत जय जय जय ।
मत सुमत जय जय जय ।।
थिर विरद जय जय जय ।
जय जयत जय जय जय ।।५।।

(८)
।। विद्यासागर जय जय ।।

ज्ञान दिवाकर जय जय ।
गुण रत्नाकर जय जय ।।
कल शिव नागर जय जय ।
अविरल जागर जय जय ।।
विद्यासागर जय जय ।।
जय विद्यासागर जय जय ।।१।।

सत् कृत आगर जय जय ।
दिव छवि भासुर जय जय ।।
पुरु गुरु आदर जय जय ।
गत मरणा जर जय जय ।।
विद्यासागर जय जय ।।
जय विद्यासागर जय जय ।।२।।

दर्पण आचर जय जय ।
दृग् करुणा झिर जय जय ।।
पामरताहर जय जय ।
शिव सुखियाकर जय जय ।।
विद्यासागर जय जय ।।
जय विद्यासागर जय जय ।।३।।

मन्दर पाथर जय जय ।
जन हित आखर जय जय ।।
मनहर माहिर जय जय ।
जश जग जाहिर जय जय ।।
विद्यासागर जय जय ।
जय विद्यासागर जय जय ।।४।।

(९)
।। जय विद्यासागर जय ।।

रित नाम ‘पाप गिर’ क्षय ।
प्रस्तुत आदर्श विनय ।।
अरि अष्टक प्रति निर्दय ।
दृग्-नासा आश विलय ।।
जय विद्यासागर जय ।
जय जय विद्यासागर जय ।।१।।

कल पीछे प्रभा वलय ।
खुद जैसा आज हृदय ।।
दृढ़ निश्च सप्त बस नय ।
भवि ! सप्त विवर्जित भय ।।
जय विद्यासागर जय ।
जय जय विद्यासागर जय ।।२।।

संसाध परस्पर लय ।
अन्तर्-मन अक्ष विजय ।।
पुन सातिशयी संचय ।
पर हित पनील दृग् द्वय ।।
जय विद्यासागर जय ।
जय जय विद्यासागर जय ।।३।।

तय शिव राधा परिणय ।।
सुख सहज निरा-कुल मय ।
इक करुणा क्षमा निलय ।
गुण अगण कीर्त अक्षय ।।
जय विद्यासागर जय ।
जय जय विद्यासागर जय ।।४।।

(१०)
सत् शिव मूक माटि सुन्दर ।
रचना और न जग अन्दर ।।

और न कोई माटी वो ।
हम तुम दोई माटी वो ।।
कसकर बांधो चलो कमर ।
सत् शिव मूक माटि सुन्दर ।।

डरो न अगन परीक्षा से ।
डरो न अगण समीक्षा से ।।
खरा….राख लो पलट अखर ।
सत् शिव मूक माटि सुन्दर ।।

कुछ कुछ कहे पू्र्व मां…थी ।
महात्मा बन परमात्मा भी ।।
सुख निरा-कुल दूर न फिर ।
सत् शिव मूक माटि सुन्दर ।।

(११)
जय जयत जयत
जयत जय जयत जयत ।।

नन्दन श्रीमत ।
इक जगत् जगत ।।
अक्षर श्रुत रत ।
शिव सुन्दर सत ।।
जय जयत जयत
जयत जय जयत जयत ।।१।।

अनगारन पत ।
पत ऋषि मुनि यत ।।
निवसत घट घट ।
रत्नत्रय भट ।।
जय जयत जयत
जयत जय जयत जयत ।।२।।

उपरत तिय गद ।
नभ परशित कद ।।
अरिहन समरथ ।
अभिजित मन्मथ ।।
जय जयत जयत
जयत जय जयत जयत ।।३।।

नत प्रणत विनत ।
रक्षक संस्कृत ।।
संज्ञान अमृत ।
प्रकटत सुमरत ।
जय जयत जयत
जयत जय जयत जयत ।।४।।

दिव पथ सन्मत ।
शिव रथ, गत मद ।।
हित गुण संपद ।
जय जयत जयत ।।
जय जयत जयत
जयत जय जयत जयत ।।५।।

(१२)
जय श्री मति नन्दा जय ।
जय शारद चन्दा जय ।।
शिशु मल-लप्पा जय जय ।
कलि परमप्पा जय जय ।।१।।

जय व्रति संदर्शा जय ।
जय यति आदर्शा जय ।।
भारत गौरव जय जय ।
गुरुकुल सौरभ जय जय ।।२।।

जय प्रमुदित वदना जय ।
जय मर्दित मदना जय ।।
पूरण मंशा जय जय ।
इक मति हंसा जय जय ।।३।।

जय कल गोपाला जय ।
जय बल गोशाला जय ।।
जय जनहित साधन जय ।
जय रहित विराधन जय ।।४।।

जय तारक खेवा जय ।
जय सजग सदैवा जय ।।
चित् अविकारा जय जय ।
पत अनगारा जय जय ।।५।।

(१३)
गुरु नाम गुरू जयवन्तो ।
शिख स्वाम पुरू जयवन्तो ।।
निर्दाम वैद्य जयवन्तो ।
दिव धाम केत जयवन्तो ।।१।।

निष्काम प्रीत जयवन्तो ।
अब नाम जीत जयवन्तो ।।
विश्राम भाग जयवन्तो ।
त्रिक शाम जाग जयवन्तो ।।२।।

जग घाम छांव जयवन्तो ।
रट राम नांव जयवन्तो ।।
गत ताम झाम जयवन्तो ।
पत शाम शाम जयवन्तो ।।३।।

गिर स्वाम नाप जयवन्तो ।
अर क्षाम् जाप जयवन्तो ।।
मद काम चूर जयवन्तो ।
दिव चाम नूर जयवन्तो ।।४।।

गुण आम मौर जयवन्तो ।
परिणाम गौर जयवन्तो ।।
शिव-वाम कन्त जयवन्तो ।
पिरणाम नन्त जयवन्तो ।।५।।

(१४)
।। जयतु जय ।।

स्वर्ग चय ।
श्रमण अय ! ।।
रहित भय ।
दुरित क्षय ।।
जयतु जय ।
जय जयतु जय ।।१।।

थल अभय ।
पुन निलय ।।
उर सदय ।
पृथु हृदय ।।
जयतु जय ।
जय जयतु जय ।।२।।

अख विजय ।
जित विषय ।।
गृह विनय ।
साध लय ।।
जयतु जय ।
जय जयतु जय ।।३।।

भांत पय ।
बद विलय ।।
सिद्ध तय ।
आत्ममय ।।
जयतु जय ।
जय जयतु जय ।।४।।

(१५)
जय जयन्तु जय जयन्तु ।
जय जयन्तु जया ।
जन्तु मात्र दया ।।

कल गोपाला ।
बल गोशाला ।।
हृदय विशाला ।
ध्रुव उजाला ।।
हन्त सप्त भया ।
जन्तु मात्र दया ।
जय जयन्तु जय जयन्तु ।
जय जयन्तु जया ।।१।।

प्रद सम दर्शन ।
अन्तर् दर्पण ।।
ज्ञान समर्पण ।
कषाय तर्पण ।।
शर्म लाजो हया ।
हन्त सप्तक भया ।
जन्तु मात्र दया ।
जय जयन्तु जय जयन्तु ।।
जय जयन्तु जया ।।२।।

ऊरध रेता ।
अक्ष-विजेता ।।
व्रति जुग त्रेता ।
सुकृत प्रणेता ।।
धन्य पुन अक्षया ।
शर्म लाजो हया ।
हन्त सप्तक भया ।
जन्तु मात्र दया ।
जय जयन्तु जय जयन्तु ।।
जय जयन्तु जया ।।३।।

(१)
गुरु विद्या नैया मेरी उस पार करो ।
मरणावीच समय समाध गल हार करो ।

चुभे शूल सी बोली जहर उगलती हो ।
चाहे गज मुनि सी सिर सिगड़ी जलती हो ।।
साध दिगम्बर भाव हृदय श्रृंगार करो ।
मरणावीच समय समाध गल हार करो ।।१।।

चाहे सनत साधु सी कुष्ट वेदना हो ।
अनुकूलताओं की चाहे, गंध ना हो ॥
रग-रग भाव आत्म एक संचार करो ।
मरणावीच समय समाध गल हार करो ।।२।।

चाहे भॉंत पाण्डवन आभूषण ताते ।
भले शत्रु आ के मेरा तन भी घाते ॥
झिर भीतर रस समरस मूसल धार करो ।
मरणावीच समय समाध गल हार करो ।।३।।

भस्मक नाम समंत-भद्र सी बीमारी ।
विमुख हो चले चाहे ये दुनिया सारी ।।
जिन, जिन श्रुत, जिन-श्रुत सुत विनय अपार भरो।
मरणावीच समय समाध गल हार करो ।।४।।

भले उपद्रव सात शतक मुनि सा आये ।
मुनि सुकमाल भांति श्यालनी तन खाये ॥
केवल इक ज्ञायक स्वभाव विस्तार करो ।
मरणावीच समय समाध गल हार करो ।।५।।

भले विघ्न मुनि नंग-अनंग भाँति आवे ।
भले प्यास की तीव्र वेदना तड़फावे ।।
भाव सभी वैभाविक झट निस्सार करो ।
मरणावीच समय समाध गल हार करो ।।६।।

चाहे कोई दुर्जन आ अपकार करे ।
चाहे आ सज्जन कोई सत्कार करे ॥
सहज निराकुल भावन नयन सितार करो ।।
मरणावीच समय समाध गल हार करो ।।७।।

(२)
ऐसा दो वरदान मुझे मेरे गुरुवर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।

चाह नहीं, ना होवे अन्त समय पीड़ा ।
चाह नहीं, दुख हरने का ले लो बीड़ा ॥
सहन कर सकूँ पीर सिर्फ समता धर कर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।१।।

चाह नहीं, सेवक सेवा रत रहें सदा ।
चाह नहीं, आ अन्त समय दें वैद्य दवा | ।
गूॅंजें कानों में केवल वाणी जिनवर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।२।।

चाह नहीं, मित्रों का हो आना जाना ।
चाह नहीं, पुर-परिजन का आदर पाना ।।
आस-पास हो व्रति वो भी प्रतिमा ब्रम-धर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।३।।

चाह नहीं, संयोग अनिष्ट बिछुड़ चालें ।
चाह नहीं, संयोग इष्टतर जुड़ चालें ।।
करें जुबाँ पर नर्तन असि आउसा अखर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।४।।

(३)
गुरुवर वर दो अन्त समय तक,
भेद ज्ञान आराधूँ मैं ।
कहॉं सभी का सभी सध सका,
भन्त ! अन्त इक साधूँ मैं ॥
पर गलियों में भ्रमा अब तलक,
गलि अपनी दृग् रख पाऊॅं ।
ऐसा कुछ कर दो सिद्धों की,
पा कतार में भी जाऊँ ॥१।।

ज्ञान स्वभावी हूॅं मैं मेरा,
नाता क्या पर द्रव्यन से ।
हन्त ! प्रमादी बन लेकिन मैं,
रखूॅं अटूट नेह धन से ॥
जड़ कर्मों के वशीभूत यूॅं,
हा ! स्वतंत्रता खो दीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥२।।

हूँ अनन्त आनन्द स्वरूपी,
दुख से ना नाता मेरा ।
बन गाफिल हा ! बना हुआ हूँ,
हाय ! पाप पंचक चेरा ||
पा निमित्त बन क्रोधी मैंने,
श्वान वृत्ति आश्रय दीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥३।।

सिद्धों की जाति का हूँ मैं,
मुझमें ना विकार स्वामी ।
हन्त ! कुमति वश आठ मदों का,
बना हुआ हूँ आसामी ॥
विसर अछत पद क्षत-विक्षत पद,
जे उन पर दृष्टि दीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥४।।

दर्शन ज्ञान स्वभाव मिरा मैं,
कहाँ रंच उससे रीता ।
फिर भी हन्त ! हन्त ! धन कंचन,
कामिनी ने मुझको जीता ॥
काम भाँति ना मादकता है,
और तदपि चाही पीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥५।।

अरस, अरूपी, अस्पर्शी मैं,
जड़ की ना सत्ता मुझमें ।
मगर तड़फ जाये मन मेरा,
हाय ! लीन होने उसमें ।।
क्षुधा वेदना हरने मैंने,
भक्ष्या भक्ष्य नजर कीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥६।।

वीतराग चैतन्य पिण्ड मैं,
मुझमें कहाँ मोह माया ।
मगर हाय ! मिथ्या श्रद्धा ने,
मुझे जगत् बिच भरमाया ।।
मैंने बन मायावी हा ! हा !
पाप तरफ दृष्टि कीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥७।।

कर्मों से संबंध न मेरा,
हूॅं अखण्ड इक अविनाशी ।
झुक पुद्गल पर हुई दशा मनु,
पानी में मछली प्यासी ।।
हिंसादिक पन पापन की यूं,
गठरी सिर अपने कीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥८।।

शुद्ध-बुद्ध हूॅं , हूॅं मैं ज्ञायक,
मैं हूॅं कहाँ बड़ा छोटा ।
काला-गोरा, हल्का-भारी-
कहॉं, कहॉं दुबला-मोटा ॥
हा ! विमोह वश फिर भी मैंने,
इन सबकी चिंता कीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥९।।

अमृत आत्म निज निर्झर भीतर,
कोने-कोने से फूटें ।
अन्दर लखना शुरु करूँ क्या,
भव-बन्धन तड़-तड़ टूटें ॥
हा ! बाहर लख सुखाभास चख,
अपने सिर आफत कीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥१०।।

(४)
रहे हमारे सिर पर गुरुवर,
सदा हाथ तेरा ।
जागृत रहूँ समाधी अवसर,
आये जब मेरा ॥

घर कुटुम्ब परिवार मोह ना,
मुझको तड़फावे ।
विष समान विषयों की याद न,
रह रह के आवे ।
सिर्फ जुवाँ पे मेरी गुरुवर,
नाम रहे तेरा ।
जागृत रहूँ समाधी अवसर,
आये जब मेरा ॥१।।

एक-एक करके पापों के,
सब चिट्ठे खोलूँ ।
किये गये सत्कृत से कमती,
या ज्यादा तोलूँ ॥
करने पापन निंदा गर्हा,
आश्रय लूँ तेरा ।
जागृत रहूँ समाधी अवसर,
आये जब मेरा ॥२।।

तन मरता, मरता ना चेतन,
हर दम ध्यान रहे ।
मैं नहिं तन, मैं चिदानन्द चेतन,
नित भान रहे ।
प्रवचन सुनूँ समाधी इक सम्राट,
त्रिजग तेरा ।
जागृत रहूँ समाधी अवसर,
आये जब मेरा ॥३।।

ध्यान रखूँ है अन्य सहायक,
करना सब मुझको ।
दोषी मैं, निर्दोषी भी, दूँ-
दोष जगत् किसको ॥
याद रखूँ मैं सूत्र ‘अप्प दीवो भव’,
नित तेरा ।
जागृत रहूँ समाधी अवसर,
आये जब मेरा ॥४।।

चिंतन, पीडा का ना हो,
मैं रहूँ गुप्तियों में ।
अवगाहूँ जिनवर प्रदत्त
अनमोल सूक्तियों में ।।
बिन वैशाखी चलने सा,
आदर्श धरूँ तेरा ।
जागृत रहूँ समाधी अवसर,
आये जब मेरा ॥५।।

सिर्फ मौन ना रहूँ, चपल मन,
चंचलता खोवे ।
होवे कृश न देह मात्र कृश,
कषाय भी होवे ।।
रूठ भले जाये जग नहिं,
छूटे दामन तेरा ॥
जागृत रहूँ समाधी अवसर,
आये जब मेरा ॥६।।

गुरुवर आप प्रमाण मिरे,
हित में जो सो करना ।
अन्त समाधि मरण करा-कर,
दुख से सुख धरना ।
मैं तो बस पद रज पाने बनता,
अनुचर तेरा ।
जागृत रहूँ समाधि अवसर,
आये जब मेरा ।।७।।

(५)
शीश रहे आशीष आपका,
यही भावना है स्वामी ।
दास रहूँ निशि-दीस आपका,
यही भावना है स्वामी ॥
दूर कभी ना जाना मुझसे,
बन आदर्श निकट रहना ।
कालिख बैठी कहाँ-कहाँ छुप,
कृपया उसे प्रकट करना ।।१।।

हूँ मैं इक चैतन्य स्वाभावी,
ज्ञान-दर्श ताना वाना ।
पग स्वभाव विपरीत बढ़ा के,
लगा हुआ आना जाना ॥
मिटे हमारा आना जाना,
यही भावना है स्वामी ।
दुनिया गाये कीरत गाना,
नहीं भावना है स्वामी ।।२।।

सिद्ध शिला अधिशासी सारे,
कल के खास सखा मेरे ।
भाग्य भरोसे बैठ हाय ! मैं-
लगा रहा भव-भव फेरे ।
सार्थक नाम पुरुष कर पाऊँ,
यही भावना है स्वामी ।
ठगूँ एक के दश कर लाऊँ,
नहीं भावना है स्वामी ।।३।।

साथ कौन था आया जग में,
साथ कौन जाने वाला ।
पर मैंने पुर-परिजन सबसे,
नेह प्रगाढ़ विरच डाला ।।
राग लकीर बढ़ चले मेरी,
यही भावना है स्वामी ।
भाग लकीर बड़ चले मेरी,
नहीं भावना है स्वामी ।।४।।

काषायिक भावों से वैसे,
दूर-दूर तक नाता ना ।
छोड़ काँचुली आता जब तब,
जहर छोड़ना आता ना |।
जहर उगलना छोड़ सकूँ मैं ।
यही भावना है स्वामी ।
मुहर मोति मण जोड़ सकूँ मैं,
नहीं भावना है स्वामी ।।५।।

दामन मेरे दाग न कोई,
मैं विशुद्ध मुनि मन जैसा ।
वश प्रमाद कब जान सका हा !
शिव राधा आनन कैसा ॥
कसूँ कमर वरने शिव राधा,
यही भावना है स्वामी ।
बनूँ करम दलने पग-बाधा
नहीं भावना है स्वामी ।।६।।

कहाँ गलूँ, मैं कहाँ जलूँ मैं,
हूँ मैं अखण्ड अविनाशी ।
मृत्यु समय अपनाकर छल हा,
बना चतुर्गत प्रत्याशी ॥
पल मरणावीची हो सुमरण,
यही भावना है स्वामी ।
चल चल कह, बढ़ चालें दुख क्षण,
नहीं भावना है स्वामी ।।७।।

हूँ स्वतंत्र कब मुझको कोई,
बन्धन में रख पाया है ।
हा! गफलत वश लेकिन मैंने,
दुःख में समय बिताया है ॥
रसिक बन सकूँ परमातम का,
यही भावना है स्वामी ।
रसिक बन सकूँ पर आतम का,
नहीं भावना है स्वामी ।।८।।

रोगों की है पहुँच देह तक,
मुझे कहाँ ये छू सकते ।
विसर आत्म बल नैन हमारे,
रहें न बिन औषध तकते ।।
रह कर देह विदेह बन सकूँ,
यही भावना है स्वामी ।
जग भर सनेह पात्र बन सकूँ,
नहीं भावना है स्वामी ।।९।।

रहना चाहूँ सहज-निराकुल,
जीवन भर रह सकता हूँ ।
विसर ज्ञान-दर्शन स्वभाव निज,
पल-पल हाय ! विलखता हूँ ॥
डूब सकूँ आनन्द भीतरी,
यही भावना है स्वामी ।
डूब चले सानन्द भीति ‘री,
नहीं भावना है स्वामी ।।१०।।

(६)
पूँजी लाया था, आया जब,
अब क्या ? खाली हाथ भो !
यहाँ बटोरा दौड़-दौड़ कर,
कब चल चाले साथ वो ॥
जाने वाला साथ हमारे,
गोरा काला काम है ।
करो ‘कि बार न इस विसराऊँ,
अपना आतम राम है ।।१।।

रोज जनाजा देख रहा हूँ,
उठता अपनी आँख से ।
अपनी मौत न देख रहा हूँ,
बैठ दवानल साख पे ।।
शिशु माने जल,जल-जल भी मन,
लेता कहाँ विराम है ॥
करो ‘कि बार न इस विसराऊँ,
अपना आतम राम है ।।२।।

उठा गर्भ सौगंध यहाँ से,
निकल करूँगा साधना ।
चका-चौंध विष-विषय ठग चला,
साधूँ हहा ! विराधना ।
साध असादन आने वाली,
जीवन अन्तिम शाम है ।
करो ‘कि बार न इस विसराऊँ,
अपना आतम राम है ।।३।।

रुला चुका मैं माई लाखन,
पुनः धार वैराग को ।
हृदय धधकती बुझा न पाया,
किन्तु वासना आग को ।
आत्म प्रदेश हरेक हमारा,
रटता त्राही माम् है ।।
करो ‘कि बार न इस विसराऊँ,
अपना आतम राम है ।।४।।

शनै: शनै: मेरे मित्रों के,
मंजिल हुई करीब है ।
मृग कस्तूर भाँत निध अपनी,
वंचित जिया गरीब है ।।
चाह छाहरी लेकिन मन कब,
दे कदमन विश्राम है ।
करो ‘कि बार न इस विसराऊँ,
अपना आतम राम है ॥५।।

पाये कष्ट निगोद माँहिं कब,
आने वाले याद वो ।
विसरा, नरकन मर्म भेदी था,
कीना सींह-निनाद जो ॥
पशु पर्याय प्राप्त दुख निध का,
कहाँ कोई भी ठाम है ।
करो ‘कि बार न इस विसराऊँ,
अपना आतम राम है ।।६।।

श्वान भाँत जा शीशमहल मैं,
गहल सुमर हा ! भूसता ।
नहीं मसूड़े छिलते तब तक,
मुख ले, हड्डी चूसता ॥
पूंछ हिला मुख और ताँकना,
लगा हाय ! अभिराम है ।
करो ‘कि बार न इस विसराऊँ,
अपना आतम राम है ।।७।।

दूजों की चुगली खाने मन,
मचले सुध-बुध छोड़ के ।
करने मनमानी हा ! दौड़े ,
प्रीति धर्म की तोड़ के ॥
यूँ मन बगुले सा बाहिर ही,
श्वेत भीतरी श्याम है ॥
करो ‘कि बार न इस विसराऊँ,
अपना आतम राम है ।।८।।

अब तक आर्त रौद्र दुर्ध्यानन,
कीनी दृढ़ संप्रीत है ।
भव शरीर भोगों से अन्तस्,
रंच कहाँ भय भीत है॥
आस्रव भावन ओत-प्रोत यूँ,
मेरी सुबहो शाम है ॥
करो ‘कि बार न इस विसराऊँ,
अपना आतम राम है ।।९।।

(७)
भला किसी का सोच सकें हा !
इतना समय कहाँ ।
बाँट सकें दुख दर्द किसी का,
इतना समय कहाँ ॥
हाय ! प्रपंचों में ही सारा,
समय मुफत जाता ।
होना हमें आप सा कीजो,
कृपा जगत् त्राता ! ।।१।।

क्रोध हमारी नासिकाग्र का,
आभूषण स्वामी ।
कहे कहाँ तक, नहीं हमारे,
अन्दर क्या खामी ॥
दोष कोष यूँ जीवन नाहक,
है निकला जाता ।
होना हमें आप सा कीजो,
कृपा जगत् त्राता ! ।।२।।

मान-बढ़ाई की खातिर हम,
काम नेक करते ।
स्वार्थ सधे ना जहाँ वहाँ पे,
कदम कहाँ धरते ॥
यूँ संकुचित मान-सिकता में,
भव बीता जाता ।
होना हमें आप सा कीजो,
कृपा जगत् त्राता ! ।।३।।

दस्तक बिना पाप आ धमके,
अंतरंग ऐसे ।
घर दीमक आ ठहर चले हा !
दुठ भुजंग जैसे ।।
काग उड़ाने में यूँ नर भव,
रत्न व्यर्थ जाता ।
होना हमें आप सा कीजो ,
कृपा जगत् त्राता ! ।।४।।

कालिख धर्म आइने में कब,
अपनी देखी है ।
कैसे आँख मिलाये कभी न,
कीनी नेकी है ।
हन्त ! गवारन वृत्ति भाँति यूँ,
स्वर्णिम भव जाता ।
होना हमें आप सा कीजो,
कृपा जगत् त्राता ! ।।५।।

प्रेम-प्रेम चिल्लाते हा ! हम,
ग्राहक नफरत के ।
काबिल ना बन सके आज तक,
पुण्य इबादत के ॥
विमोहान्ध यूँ निर्जन रोते,
समय हाथ जाता ।
होना हमें आप सा कीजो,
कृपा जगत् त्राता ! ।।६।।

स्वप्न बहुत देखे पर आत्म न,
देखा सपनों में ।
जिसे न देखा स्वप्नन कैसे,
आये अपनों में ।
आत्म दर्श बिन यूँ नर भव,
कौड़ी बदले जाता ।
होना हमें आप सा कीजो,
कृपा जगत् त्राता ! ।।७।।

नहीं केकड़े आगे, उनकी,
कला सीख लीनी ।
श्वान रह गये पीछे, उनकी,
गहल छीन लीनी ॥
भव मानस बगुला भक्ति में,
हाय ! व्यर्थ जाता ।
होना हमें आप सा कीजो,
कृपा जगत् त्राता ! ।।८।।

आदत हमें पैर चादर,
बाहर फैलाने की ।
कर प्रतिदिन निन्दन गर्हण,
गज भाँति नहाने की ।
गगन पुष्प चुनते यूँ नर भव,
हा ! नाहक जाता ।
होना हमें आप सा कीजो,
कृपा जगत् त्राता ! ।।९।।

(८)
अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।
क्षमा करो गुरुदेव समय न,
निज आतम को दिया कभी ।
वरण आज-तक मरण समाधि-
हन्त ! ना मैंने किया कभी ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।।१।।

अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।
हन्त ! हन्त ! मैंने सुपात्र को,
दान दिया पर मद करके ।
कीना नित स्वाध्याय किन्तु हा !
समझा ना सुध-बुध धरके ।
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।।२।।

अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।
रटा नाम तेरा तोते सा,
लेकिन हृदय न पधराया ।
क्या ये कीना शून्य भावना-
किरिया ने कब फल पाया ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।।३।।

अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।
की मैंने पर की निन्दा हा !
आत्म प्रशंसा की मैंने ।
खेल खेल में हा ! व्यसनों से,
प्रीत जोड़ लीनी मैंने ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।।४।।

अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।
जान बूझ-कर के मैंने हा !
छुप-छुप के अपराध किया ।
हा ! अपराध कराया मैंने,
अपराधी का साथ दिया ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।।५।।

अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।
कामातुर हो मैंने नैना,
हा ! पर नारी से जोड़े ।
किये भले सत्कृत अंगुली पे,
गिन लो बस उतने थोड़े ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।।६।।

अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।
हिंसा में आनन्द मना हा !
रौद्र ध्यान मन भाया है ।
आरत में नित परिणति व्यापी,
विषयन मन भरमाया है ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।।७।।

अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।
हा ! हा ! की काला बाजारी,
धंधा विसुध कहाँ मेरा ।
हाय ! बनाया मकड़ी जैसा,
पञ्च सभी पापन घेरा ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।।८।।

अपना लो हूॅं भक्त तुम्हारा,
ऐसा वैसा हूॅं जैसा ।
जीवन निकल गया यूँ ही कब,
अष्ट-मूल-गुण अपनाये ।
सुदूर संयम, समकित के भी,
मैंने ना गाने गाये ॥
मरण-समाधि हो चरणन तुम,
कुछ कर दो गुरुवर ऐसा ।।९।।

(९)
यही एक भावन संध्याएं,
तव चरणन बीतें मेरीं ।
आत्म भाव बिन पल पल खिरतीं,
घड़ियाँ ना रीतें मेरीं ।।
मरण समय में, समता परिणत,
ले यम घर न डाल डेरा ।
माथ हमारे, उन घड़ियों में,
रहे हाथ गुरुवर तेरा ।।१।।

सनत चक्री को कुष्ट वेदना,
व्यापी थी सारे तन में ।
धन-धन सहजो सम-रस-सानी,
रखी निराकुलता मन में ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर रोग-जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।२।।

पांव श्यानिती भखे अचल से,
मुनि सुकमाल खड़े, लेखा ।
बड़ी बड़ी थी आंख किन्तु ना,
लाल-लाल करके देखा ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर ! विघ्न जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।३।।

करके गर्म लोह आभूषण,
मुनि-पाण्ड़वन पिना दीने ।
दोष न दे वर्तमाँ निमित कृत,
पूरब कर्म घृणा कीने ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर दुष्ट जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।४।।

श्री मुनि गज कुमार सिर ऊपर,
जलती हुई रखी सिगड़ी ।
लाये शिकन न इक चेहरे पर,
बँध चाली सिरपुर पगड़ी ।।
वर दो सहन करूँ समताधर,
गुरुवर विमुख जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।५।।

हुआ समन्त-भद्र मुनि तन में,
भस्मक नाम रोग भारी ।
रख श्रद्धा कृत कर्म नचायें,
सहज रहे, बाधा हारी ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर क्षुधा जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।६।।

श्रमण सात सौ झुलस चले थे,
बलि आदिक जारी अगनी ।
धीरज धारी सब मुनियों ने,
कह पूरब अपनी करनी ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर ताप जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।७।।

नंग-अनंग-कुमार मुनि पे,
अत्त शत्रुओं ने ढ़ाये ।
नम थे नैन पीर-पर लख, पर,
अश्रु न दृग् बाहर आये ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर शत्रु जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।८।।

बाँध सांकलन मान तुंग मुनि,
था कारागृह में डाला ।
जान विपाक कर्म कृत पूरब,
हँस उपसर्ग सहा सारा ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर विमत जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।९।।

कर चाली उपसर्ग घोर हा !
एक रूष्ट व्यन्तर देवी ।
डिगा न पाई श्रमण सुदर्शन,
झिर भीतर अमृत सेवी ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर दैव जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।१०।।

(१०)
बस एक भावना है ।
दश-एक भाव…ना हैं ।।
सध सका कहाँ सारा ।
लूँ साथ एक न्यारा ।।
मैं नाव लगूॅं खेने ।
यम आये जब लेने ।।

अरिहन्त सिद्ध बोलूॅं ।
परिणाम नित टटोलूॅं ।।
पल पल समाध बोऊॅं ।
पनदश प्रमाद खोऊॅं ।।
बस एक भावना है ।
दश-एक भाव…ना हैं ।।
सध सका कहाँ सारा ।।
लूँ साथ एक न्यारा ।।
मैं नाव लगूॅं खेने ।
यम आये जब लेने ।।

कछु…आ भीतर जाऊँ ।
क…छुआ भीतर गाऊँ ।।
रख नाक, ‘नाक’ पाऊँ ।
दृग् आँख राख पाऊँ ।।
बस एक भावना है ।
दश-एक भाव…ना हैं ।।
सध सका कहाँ सारा ।।
लूँ साथ एक न्यारा ।।
मैं नाव लगूॅं खेने ।
यम आये जब लेने ।।

मन रख पाऊँ कोरा ।
बेदाग रखूँ चोला ।।
हूँ रहूँ निराकुल मैं ।
हूँ कहूँ निरा-कुल में ।।
बस एक भावना है ।
दश-एक भाव…ना हैं ।।
सध सका कहाँ सारा ।
लूँ साथ एक न्यारा ।।
मैं नाव लगूॅं खेने ।
यम आये जब लेने ।।

=दोहा=
कर दो बस इतनी कृपा,
मुनि-दैगम्बर नाथ ।
हो सुमरण अब-तब ‘समै’,
तुम सुमरण के साथ ।।

(१)
थे खुश्बू गुरु-देव हमारी,
अब क्या कागज फूल मैं ।
रो पड़ती थी आंख तुम्हारी,
करता था जब भूल मैं ।।

था पत्थर मैं बड़ा नुकीला,
तुमने बन नदिया धारा ।
आते जाते मार थपेड़े,
बना मुझे उजला न्यारा ।।
कर दिखलाया सिद्ध, नर्मदा
हर कंकर शंकर जैसा ।।
मैं क्या सारी दुनिया कहती,
होगा सन्त न अब ऐसा ।।
छूकर मुझे बनाया चन्दन,
था रस्ते की धूल मैं ।
रो पड़ती थी आंख तुम्हारी,
करता था जब भूल मैं ।।१।।

ठेठ बांस यह जीवन मेरा,
गुजरे था विरथा यूं ही ।
लेकर सर…गम, देने वाला
सरगम मुझे एक तू ही ।
कांटे कंकर देख राह में,
तूमने गोद उठाया है ।
लगे आज भी, आसपास ही
वही तुम्हारा साया है ।
छूकर मुझे बनाया चन्दन,
था रस्ते की धूल मैं ।
रो पड़ती थी आंख तुम्हारी,
करता था जब भूल मैं ।।
थे खुश्बू गुरु-देव हमारी,
अब क्या कागज फूल मैं ।।२।।

दलित पतित माटी था मैं तो,
हाथ लग चला शिल्पी के ।
ली कब तुमने अग्नि परीक्षा,
दी गम खा, गुस्सा पी के ।।
आज सभी के शीर्ष बिठाया,
क्या ? अहसान गिनाऊॅं मैं ।
कण्ठ शारदा, कृपा तुम्हारी,
चरणन बलि बलि जाऊॅं मैं ।।
छूकर मुझे बनाया चन्दन,
था रस्ते की धूल मैं ।
रो पड़ती थी आंख तुम्हारी,
करता था जब भूल मैं ।।
थे खुश्बू गुरु-देव हमारी,
अब क्या कागज फूल मैं ।।३।।

(२)
।। जाने किधर, उड़ गये भाँति विद्याधर ।।
कर्पूर उड़ता नहीं ।
बर्फ पिघलता नहीं ।
इतनी जल्दी,
जी गुरु जी ! इतनी जल्दी,
बादल भी विघटता नहीं ।।
किसी को भी, न लग सकी खबर ।
जाने किधर, उड़ गये भाँति विद्याधर ।।

आंखों के आँसू, अब थम नहीं रहे हैं ।
अहसान तुम्हारे, कुछ कम नहीं रहे हैं ।।
इतना कितना, हा ! मेरा पुण्य पतला,
थी जरूरत तुम्हें, तब हम नहीं रहे हैं ।।
संभालो कहीं, मैं जाऊॅं न बिखर ।
किसी को भी, न लग सकी खबर ।
जाने किधर, उड़ गये भाँति विद्याधर ।।

आ ही तो रहे थे, हम पास तुम्हारे ।
पहले विश्वास !
अन्तिम आश !
ओ ! भगवान् हमारे ।
तुम्हारे आशीष के सहारे ।
आ ही तो रहे थे, हम पास तुम्हारे ।।
बचा के नजर, चल पड़े किस डगर ।
संभालो कहीं, मैं जाऊॅं न बिखर ।
किसी को भी, न लग सकी खबर ।
जाने किधर, उड़ गये भाँति विद्याधर ।।

अब क्या ? पास में,
सिवाय याद के तुम्हारी ।
खुशबू तुम चले गये,
बस नाम की, ये देह क्यारी ।।
चांद तारे हाथ थे,
जब तुम साथ थे ।
अब दिखा आंखें,
बढ़ी आ रही रात अंधियारी ।।
दे दर्शन दो, सही सपने में ही आकर ।
बचा के नजर, चल पड़े किस डगर ।
किसी को भी, न लग सकी खबर ।
जाने किधर, उड़ गये भाँति विद्याधर ।।

(३)
टूटा जैन आसमां तारा ।
छाया जग भर में अंधियारा ।।

था सूरज से भी तेजस्वी ।
साधु मनस्वी, सन्त तपस्वी ।।
भारत रत्न, अहिंसा गौरव,
महाश्रमण, वक्ता ओजस्वी ।।
कुन्द कुन्द गुरु ज्ञान दुलारा ।
टूटा जैन आसमां तारा ।।
छाया जग भर में अंधियारा ।
टूटा जैन आसमां तारा ।।१।।

कहाँ दूसरा और दयालू ।
आज गुपाला बड़ा कृपालू ।।
हिन्दी संवर्धक, संरक्षक,
करघा, संप्रेरक पूर्णायू ।।
छोड़ सिन्धु विद्या जल खारा ।
टूटा जैन आसमां तारा ।।
छाया जग भर में अंधियारा ।
टूटा जैन आसमां तारा ।।२।।

अक्ष विजेता, ऊरध-रेता ।
मण्डल प्रतिभास्थली प्रणेता ।।
मन्दर जीर्णोद्धारक, तारक,
निध वृत, दर्शन ज्ञान समेता ।।
श्रावक, श्रमणी, श्रमण सहारा ।
टूटा जैन आसमां तारा ।।
छाया जग भर में अंधियारा ।
टूटा जैन आसमां तारा ।।३।।

(४)
धरती के देवता प्रणाम ।
ढ़ला सूर भज सु-मरण शाम ।।

सूरज आग, चन्दर दाग ।
दरिया झाग, चन्दन नाग ।।
किन्तु दिवाली निशिदिन फाग,
मन तरंग जो काम तमाम ।।
ढ़ला सूर भज सु-मरण शाम ।
धरती के देवता प्रणाम ।।१।।

शूल बाग, तम तले चिराग़ ।
कब कस्तूर, ‘भाग’ मृग भाग ।।
किन्तु अभूतपूर्व इक जाग,
मुण्डन-दश मण्डन अभिराम ।।
ढ़ला सूर भज सु-मरण शाम ।
धरती के देवता प्रणाम ।।२।।

पन्ना नाम, जनमा काग ।
महिषी राखे कहॉं दिमाग ।।
किन्तु निढ़ाल मशान विराग,
दूर सुरग, न चाह शिव-धाम ।
ढ़ला सूर भज सु-मरण शाम ।
धरती के देवता प्रणाम ।।३।।

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