श्रावक प्रतिक्रमण
*संकल्प*
दोष बने आभरण हमारे ।
करे तिन्हें प्रतिक्रमण किनारे ।।
ले विशुद्धि अभिलाष नाथ ! मैं,
प्रकट करूँ दिन दुष्कृत सारे ।।१।।
मानी हम मायावी-पापी ।
बन अपराध पड़े हा ! काफी ।।
खड़े आप दर, हाथ जोड़ कर,
दे दो अपराधों की माफी ।।२।।
क्षमा कर रहे हम सब जन को ।
क्षमा करें सारे जन हमको ।।
वैर किसी से नहीं मित्र सब,
कहो पराया कह दें किसको ।।३।।
बन्ध शोक भय त्याग रहा हूँ ।
उत्सुकता परित्याग रहा हूँ ।।
हर्ष भावना दीन, द्वेष तज,
विसर अरति रति-राग रहा हूँ ।।४।।
दुष्कृत-दुःचिन्त्वन तन-मन से ।
छोड़े बाण-विषाक्त वचन से ।।
करूँ खेद भीतर ही भीतर,
अश्रु बहाऊँ अब नैनन से ।।५।।
द्रव्य निमित्त विराधन सारी ।
क्षेत्र, काल आसादन सारी ।।
मन, वच, तन से करूँ त्याग मैं,
भाव निमित्त विराधन सारी ।।६।।
ले इक से इन्द्रिय पन जीवा ।
पृथ्वी, पवन, हुताशन जीवा ।।
जीव वनस्पति काय, जीव जल,
त्रस, मन रहित, सहित मन जीवा ।।७।।
इनका किया विराधन होवे ।
दिया ताप, बध, बन्धन होवे ।।
कर अनुमोदन पाप कराया,
उसका शीघ्र विसर्जन होवे ।।८।।
दर्शन, व्रत, सामायिक प्रतिमा ।
प्रोषध, सचित्, रात्रि-भुक् प्रतिमा ।।
ब्रह्मा-रम्भ, परिग्रह, अनुमत,
उद्-दिठ् त्याग नाम इक प्रतिमा ।।९।।
प्रतिमा ये एकादश नामी ।
हित जल भिन्न कमल अभिरामी ।।
कृत प्रमाद तिन भूल भूल मम,
छेदो-पस्थापन हो स्वामी ।।१०।।
सिद्ध साक्षि पूर्वक अरिहंता ।
सूरि साक्षि पाठी भगवन्ता ।।
समकित सहित व्रतों की दृढ़ता,
मुझे प्राप्त हो साक्षि महन्ता ।।११।।
शुद्धि सर्व-अतिचार परसने ।
दिन प्रतिक्रमण दोष परिहरने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
सिद्ध-भक्ति का, कर्म विनशने ।।१२।।
नमन नन्त-नित् अरिहन्तों को ।
सिद्ध, सूरि, पाठक वृन्दों को ।।
नापे बिन वैशाखी शिव पथ,
उन समस्त साधु सन्तों को ।।१३।।
मंगल उत्तम शरण चार हैं ।
अरिहत जामन-मरण हार हैं ।।
सिद्ध-साधु-गण धर्म-अहिंसा,
एक जलधि भव करण-धार हैं ।।१४।।
सागर-जुगल सुद्वीप अढ़ाई ।
पनदश कर्म-भूमि शिव-दाई ।।
अरिहत जितने जिन परि-निर्वृत,
तीर्थक, सिद्ध, बुद्ध जिन राई ।।१५।।
धर्माचार्य, धर्म ध्वज धारी ।
चमु चतु-रङ्ग धर्म अधिकारी ।।
देव-देव, दृक्, ज्ञान, चरित कृति-
कर्म करुँ बनने अविकारी ।।१६।।
प्रभु ! अब समता भाव धर रहा ।
त्याग सर्व सावद्य कर रहा ।।
जब तक करता पर्यु-पासना,
करने से दुश्चरित डर रहा ।।१७।।
*कायोत्सर्गम्*
संस्तवन जिनवर आदरता हूँ ।
जिन अनन्त वन्दन करता हूँ ।।
पुरुषोत्तम ! जग महित, रहित रज-
हृदय तीर्थ-कर पद धरता हूँ ।।१८।।
जग जगमग जगमग उजियारा ।
वन्दन ज्ञान अलौकिक धारा ।।
आद-आद भव तीर वीर जिन,
वन्दन धर्म तीर्थ करतारा ।।१९।।
वृषभ प्रणुत, जित-शत्रु-नन्दना ।
नुत सम्भव, अभिनन्द वन्दना ।।
सुमत प्रणुत, नुत पद्म-सुपारस,
नमन चन्द्र-प्रभ विहर-क्रन्दना ।।२०।।
प्रणुत सुविध, नुत शीतल स्वामी ।
श्रेयस प्रणुत, पूज्य-जिन नामी ।।
प्रणुत विमल जिन नन्त धर्म नुत,
प्रणुत शान्ति जिन अन्तर्यामी ।।२१।।
प्रणुत कुन्थ जिन अर भगवन्ता ।
मल्लि, सुव्रत मुनि प्रणुत अनन्ता ।।
नमि नुत, नेमि, पार्श्व नुत सन्मति,
बनने निरति-चारी निर्ग्रन्था ।।२२।।
मैं अनन्य इक आप पुजारी ।
विगत रजो-मल पाप-प्रहारी ।।
मरण विहीन, क्षीण-जर जिनवर !
करें दृष्टि अब ओर हमारी ।।२३।।
कीर्तन मैंने किया वचन से ।
पूजन तन से, वन्दन मन से ।।
करें विभूषित सिद्ध नन्त वे,
हमें समाध-बोध जिन-गुण से ।।।२४।।
चन्दा दागदार, तुम बढ़ के ।
सूरज आग, न्यार तुम बढ़ के ।।
निर्मल, तेजोमय, गभीर तुम,
सागर झाग क्षार तुम बढ़ के ।।२५।।
गो-खुर सा जग जिन्हें झलकता ।
जिन ढ़िग अरि कब टिका पलक था ।।
श्री मत वीर करें करुणा वे,
नीर-नैन-निर्झरन छलकता ।।२६।।
*लघु सिद्ध भक्ति*
सिद्ध हुये जे तप संयम से ।
नय, सम-दृक्, चारित, अवगम से ।।
अभिनन्दित जग सिद्ध अपरिमित,
करें सुशोभित शम-यम-दम से ।।२७।।
*दोहा*
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सिद्ध जिन नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ।।२८।।
सम-दृक्, ज्ञान, चरित अधिशासी ।
विगत-कर्म शिव-शैल निवासी ।।
तप, नय, संयम-सिद्ध चरित-सम,
भूत-भावी-सम्प्रति अविनाशी ।।२९।।
सिद्ध अनन्त करूँ सुमरण भो ।
लाभ-रतन-त्रय, सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण अरहत्-
सम्पद वरण, समाधि मरण हो ।।३०।।
सँभल-सँभल कर कदम बढ़ाते ।
रस्ते काई फिसलन पाते ।।
अन्तर्यामी आप, तदपि हम,
मुख अपने कुछ दोष गिनाते ।।३१।।
*दर्शन प्रतिमा*
पंच उदम्बर फल परित्यागी ।
त्यागी सप्त व्यसन बड़भागी ।।
मति विशुद्ध सम्यक्त्व भविक वह,
श्रावक प्रतिमा दर्श विरागी ।।३२।।
*व्रत प्रतिमा*
पाँच-तीन अणु-व्रत-गुण न्यारे ।
चौ शिक्षाव्रत द्वादश सारे ।।
‘पाल’ पाल श्रावक व्रत प्रतिमा,
खेव लगे भव जलधि किनारे ।।३३।।
*सामायिक प्रतिमा*
अर्हन्, सिद्ध, सूर, गुरु, श्रमणा ।
धर्म, ‘चैत्य-आलय’ जिन वयना ।।
श्रावक प्रतिमा सामायिक वह,
संध्या-संध्या इन्हें सुमरना ।।३४।।
*प्रोषध प्रतिमा*
प्रोषध प्रकृष्ट औषध माना ।
उत्तम, मध्य जघन्य पिछाना ।।
यथाशक्ति इक माह पर्व चउ,
साधा दे प्रतिफल मनमाना ।।३५।।
*सचित्त त्याग प्रतिमा*
वस्तु जिनागम सचित बखानी ।
हरित, प्रबाल, अप्रासुक पानी ।।
कन्द, बीज, फल, नाहिं सेवना,
सचित् त्याग प्रतिमा गुणधानी ।।३६।।
*रात्रिभोजन त्याग प्रतिमा*
तन, मन, वचन मिला गुणकारा ।
कृत, कारित, अनुमोदन द्वारा ।।
प्रतिमा छटी, छटी नव कोटिक,
त्याग चतुर्विध निश आहारा ।।३७।।
*ब्रह्मचर्य प्रतिमा*
तन, मन, वचन मिला गुणकारा ।
कृत, कारित, अनुमोदन द्वारा ।।
प्रतिमा ब्रह्मचर्य नव कोटिक,
जड़ पर द्रव्य रमण परिहारा ।।३८।।
*आरंभ त्याग प्रतिमा*
वणिज, शिल्प, असि, मसि, कृषि, विद्या ।
त्याग सहज आजीवन सद्या ।।
प्रतिमा प्रमुखा-रंभ त्याग वह,
साध ! साध रख अटूट श्रद्धा ।।३९।।
*परिग्रह त्याग प्रतिमा*
वस्त्र मात्र रख परिग्रह छोड़ा ।
नेह न ‘जोड़े’ से भी जोड़ा ।।
प्रतिमा परिग्रह त्याग अनोखी,
लगे हाथ अन्तरंग कोरा ।।४०।।
*अनुमति त्याग प्रतिमा*
भले किसी ने पूछा आ के ।
अथवा पूछा नहीं, भुला के ।।
प्रतिमा अनुमति त्याग विरागी,
अनुमति दे आता ना जा के ।।४१।।
*उद्-दिष्ट त्याग प्रतिमा*
दीन भावना भजता नाहीं ।
सर भिक्षा-वृत्ति अवगाहीं ।।
भोजन करे विशुद्ध कोटि नव,
धन ! उद्-दिष्ट त्याग जग माहीं ।।४२।।
त्या-गुद्-दिष्ट ग्यारवीं प्रतिमा ।
द्विविध बखानी पुरु, गुरु, श्रुत-माँ ।।
खण्ड वस्त्र धर क्षुल्लक, एलक-
बस कोपीन परिग्रह इतना ।।४३।।
नियमा-वश्यक तप व्रत धारी ।
एक भक्त कर, पात्र अहारी ।।
सलोंच, धारक पिच्छ भावना,
द्वादश, धर्म ध्यान श्रृंगारी ।।४४।।
कीनी कर प्रतिक्रमण शरण भो ।
लाभ रतन-त्रय, सुगति गमन होता ।।
क्षय-दुःख, नाश-कर्म, गुण अरिहत-
सम्पद् वरण समाधि मरण हो ।।४५।।
दर्शन, व्रत, सामायिक प्रतिमा ।
प्रोषध, सचित्, रात्रि-भुक् प्रतिमा ।।
ब्रह्मा-रम्भ, परिग्रह, अनुमत,
उद्-दिठ् त्याग नाम इक प्रतिमा ।।४६।।
प्रतिमा ये एकादश नामी ।
हित जल भिन्न कमल अभिरामी ।।
कृत प्रमाद तिन भूल भूल मम,
छेदो-पस्थापन हो स्वामी ।।४७।।
सिद्ध साक्षि पूर्वक अरिहंता ।
सूरि साक्षि पाठी भगवन्ता ।।
समकित सहित व्रतों की दृढ़ता,
मुझे प्राप्त हो साक्षि महन्ता ।।४८।।
शुद्धि सर्व अतिचार परसने
दिन प्रतिक्रमण दोष परिहरने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
भक्ति-प्रति-क्रमण, कर्म विनशने ।।४९।।
*कायोत्सर्गम्*
नित अनन्त नुत अरिहन्तों को ।
नुत अनन्त सिध-भगवन्तों को ।।
आचारज, उवझाय दिगम्बर,
भूत-भावि-सम्प्रति सन्तों को ।।५०।।
करुँ नित्य अरिहन्त वन्दना ।
सतत सिद्ध भगवन्त वन्दना ।।
सदा, सर्वदा आचारज, उव-
झाय साधु निर्ग्रन्थ वन्दना ।।५१।।
नत मस्तक अरिहन्त चरण में ।
नमन सिद्ध भगवन्त चरण में ।।
आगत, नागत, विगत सूरि, उव-
झाय, विनत निर्ग्रन्थ चरण में ।।५२।।
नमन निषिधिका रज-परिहारी ।
अरिहत सिद्ध-बुद्ध-अविकारी ।।
शुभ-सम-मन, सम-जोग-भाव, जिन,
नमन समर्थ ममत्व-प्रहारी ।।५३।।
नुत निर्भय, गुण रतन निधाना ।
निर्गत माया, मोस, गुमाना ।।
मोह-राग-निर्गत, नुत निर्गत-
माया, मिथ्या, शल्य निदाना ।।५४।।
नमन शील सागर निर्ग्रन्था ।
शल्य घट्ट, निर्दोष अनन्ता ।।
वर्धमान ऋषि-बुद्धि प्रभावक,
तप अ-प्रमेय वीर भगवन्ता ।।५५।।
सिद्ध बुद्ध जिन मंगल-कारी ।
वास ब्रह्म-चर, ब्रह्म बिहारी ।।
ज्ञान अवधि-श्रुत केवल, पर्यय-
मन: पूर्व-धर, गुण-गण-धारी ।।५६।।
मंगल तीर्थ, तीर्थकर, ध्यानी ।
ज्ञान, विनय, विनयी, संज्ञानी ।।
तप, तापस, ऋषि, संयम, संयत,
स्व-पर समय-विद्, सम रस सानी ।।५७।।
क्षमा, क्षमा-धर, मंगल दाता ।
क्षपक, विमोह क्षीण, जग त्राता ।।
गुप्ति, गुप्ति-धर, मुक्ति, मुक्ति-धर,
समिति, समिति-धर, चैत्य-विधाता ।।५८।।
मंगलकर, तरु चैत्य ललामी ।
बुद्धि-मन्त बुध-बोधित नामी ।।
प्रवचन-धर, धर-दर्शन प्रवचन,
दर्शन, क्षीण वन्त, निष्कामी ।।५९।।
त्रिजग आयतन सिद्ध प्रणामा ।
गिर सम्मेद शिखर अभिरामा ।।
अष्टा-पद गिरराज मध्यमा,
ऊर्जयन्त परि निर्वृति धामा ।।६०।।
चम्पा ‘पुर’ पावा बड़भागी ।
सिद्ध बुद्ध शिव-थल-अनुरागी ।।
कर्म-पाप-मल वर्जित चउ विध-
संघ प्रवर्तक, थविर, विरागी ।।६१।।
नृजग भरत दश विदेह पञ्चा ।
उपाध्याय गुरु सूरि विरंचा ।।
नमन उन्हें वे पावन मंगल,
करें, विहर लें, नादि प्रपञ्चा ।।६२।।
*दर्शन प्रतिमा प्रतिक्रमण*
निरसन दर्शन रज अभिलाषा ।
ढ़िग प्रशंस, थव कुपथ निवासा ।।
आकांक्षा विष विषय प्रशय हा !
हा ! शंका, विचिकित्स प्रवासा ।।६३।।
*व्रत प्रतिमा प्रतिक्रमण*
विरति थूल हिंसा व्रत न्यारा ।
बन्धन, आरोपण अति-भारा ।।
अन्न-पान प्रतिबन्धन, छेदन,
वध, परिणाम नाम भव-कारा ।।६४।।
व्रत परित्याग असत् इक देशा ।
न्यास-हरण, मिथ्या उपदेशा ।।
भेद मन्त्र साकार रहस उद्-
घाटन लेखन कूट विशेषा ।।६५।।
थूल चौर्य व्रत विरति महाना ।
चौर्य प्रयोग, हरण आदाना ।।
राज-द्रोह, कालाबाजारी,
कम बढ़, तोल मान उनमाना ।।६६।।
थूल कुशील विरति व्रत शरणा ।
सधवा, विधवा, वैश्या गमना ।।
काम तीव्र अभिलाष हहा ! हा !
काम-केल अन अंगन रमना ।।६७।।
विरति थूल व्रत उभय उपाधी ।
सीम उलंघन सोना, चाँदी ।।
तथा दास दासी खलिहाँ घर,
बर्तन, वस्त्ररु धान्य, गवादी ।।६८।।
दृग्-व्रत श्रावक धर्म पताका ।
सीम उलंघन तिरग् दिशा का ।।
वृद्धि, उलंघन दिश् अध, उरध,
क्षेत्र विस्मरण दिश् विदिशा का ।।६९।।
‘कर’ प्रतिक्रमण देश व्रत कीना ।
रस आयात सीम बहि लीना ।।
शब्द, रूप, प्रक्षेपन पुद्गल,
मन निर्यात सीम बहि दीना ।।७०।।
गुण व्रत नर्थ दण्ड आभरणा ।
आश्रय असमी-क्ष्याधिन् करणा ।।
मोखर, कौत्-कुच्य, कन्-दर्-परु,
अति भोगोपभोग संग्रहना ।।७१।।
शिक्षा व्रत, व्रत-मह सोपाना ।
लंघन रसन भोग परिमाणा ।।
घ्राण भोग परिमाण पर्श, अख,
लंघन करण भोग परिमाणा ।।७२।।
शिक्षा व्रत दूजा आभरणा ।
सीम रसन परिभोग उलंघना ।।
घ्राण, पर्श, परिभोग सीम अख,
सीम करण परिभोग उलंघना ।।७३।।
भवि ! शिक्षा व्रत तृतिय निराला ।
मत्सर भाव, अति-क्रमण काला ।।
सचित् पिधान, सचित् निक्षेपण,
पातरि पात्र द्रव्य-‘पर’ डाला ।।७४।।
व्रत शिक्षा प्रदत्त मत हंसा ।
मित्र सनेह, जीविता शंसा ।।
‘इच्छा-सुख-संसार’ निदानरु,
सुख अनुबन्धन मरणा शंसा ।।७५।।
*सामायिक प्रतिमा प्रतिक्रमण*
सामायिक गुण रतन निधाना ।
वचन, काय, मन दुष्प्रणिधाना ।।
पाठ विस्मरण, सामायिक हा !
सामायिक विरहित बहुमाना ।।७६।।
*प्रोषध प्रतिमा प्रतिक्रमण*
भाव तुरिय प्रतिमा प्रतिक्रमणा ।
आवश्यक-नादर, विस्मरणा ।।
बिन देखे शोधे मल, संस्तर,
उपकरणादि उठाना धरना ।।७७।।
*सचित्त त्याग प्रतिमा प्रतिक्रमण*
सचित् त्याग प्रतिमा शिवदाई ।
पवन असंख्या-संख्या भाई ।।
अग्नि असंख्या-संख्या जल अरु,
जीव पृथवि इतने ही गाई ।।७८।।
नन्ता-नन्त वनस्पत जीवा ।
छिन्न-भिन्न, हरि, अंकुर, बीजा ।।
इन्हें विघाता, दिया त्रास हा !
किया दुखी, पीड़ित भयभीता ।।७९।।
*रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा प्रतिक्रमण*
अनुमत सहित वचन, मन, काया ।
हा ! निशि भोजन किया कराया ।।
दिवस कोटि-नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन राया ।।८०।।
*ब्रह्मचर्य प्रतिमा प्रतिक्रमण*
प्रतिमा सप्त नाम ब्रम-चारी ।
मनहर अंग निरीक्षण नारी ।।
पूर्व रतानुस्-मरण, मंड़नन,
तिरिया कथा, गरिष्ठ अहारी ।।८१।।
*आरंभ त्याग प्रतिमा प्रतिक्रमण*
होके हा ! वशिभूत कषाया ।
मन आरंभ विषै भरमाया ।।
दिवस कोटि-नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन राया ।।८२।।
*परिग्रह त्याग प्रतिमा प्रतिक्रमण*
तजकर भी बहि-रन्तर् माया ।
श्वान भाँति मन ‘मल’ पर आया ।।
दिवस कोटि-नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन राया ।।८३।।
*अनुमति त्याग प्रतिमा प्रतिक्रमण*
हँसी हँसी सम्मति दे आया ।
राग वशी अनुमति दे आया ।।
दिवस कोटि-नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन राया ।।८४।।
*उद्-दिष्ट त्याग प्रतिमा प्रतिक्रमण*
जय न इन्द्रियों पे कर पाया ।
ले उद्-दिष्ट न तनिक लजाया ।।
दिवस कोटि-नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन राया ।।८५।।
*निर्ग्रन्थ पद की वांछा*
पद निर्ग्रन्थ हमें अभिलाषा ।
करुणा क्षमा धर्म परिभाषा ।।
नैकायिक नुत्तर प्रति-पादित,
केवली पूर्ण विशुद्ध प्रकाशा ।।८६।।
सामायिक त्रिक् शल्य विघाता ।
सिद्ध मार्ग श्रेणी जग त्राता ।।
मग निर्याण, प्रमुक्ति मुक्ति मग,
मग निर्वाण, मार्ग शिव-दाता ।।८७।।
उत्तम अवितथ शरण यही है ।
दृक्, श्रुत, अवगम, चरण यही है ।।
हुआ न होगा, आज न कल भी,
इस सा तारण तरण यही है ।।८८।।
जीव इसे पा बुध हो जाते ।
सिद्ध मुक्त कृतकृत हो जाते ।।
दुख का कर विध्वंस निरख जग,
युगपत् परि-निर्वृत हो जाते ।।८९।।
इसे पर्श करता रुचि करता ।
इस प्रतीति श्रद्धा आदरता ।।
करता ग्रहण ज्ञान-दृक व्रत-सम,
मिथ्या-दृक्-व्रत-ज्ञान विहरता ।।९०।।
विषयों से मुख मोड़ रहा हूँ ।
प्रशम दुशाला ओड़ रहा हूँ ।।
श्रमण हो रहा, मद, छल, मूर्च्छा,
उपधि, असत्, रति तोड़ रहा है ।।९१।।
आदि क्रिया इन दोष लगाया ।
कानन निर्जन रुदन मचाया ।।
दिवस कोटि नव आसादन सब,
शीघ्र होय मिथ्या जिन-राया ।।९२।।
दिन अतिचार हन्त ! आभोगा ।
अनाचार हा ! हा ! नाभोगा ।।
कायिक, कृत, मानसिक, वाचनिक-
नुमति, कारितन् पाप-प्रयोगा ।।९३।।
बुरे विचार किये हा ! मन से ।
कीनी दुष्प्रवृत्ति हा ! तन से ।।
देखे कुत्सित-स्वप्न बुझे विष,
प्रक-क्षेपे हा ! बाण वचन से ।।९४।।
प्रतिमा दश-इक, मन, वच, काया ।
आवश्यक षट्, जीव निकाया ।।
गुण, शिक्षाव्रत, ज्ञान, चरित, दृक्,
पल सामायिक दोष लगाया ।।९५।।
क्रिया कर्म हन, छल सिर लादा ।
साधा सब इक आत्म न साधा ।।
अंग-उपांग चलाचल कीने,
दृष्टि चलाचल की बन नादाँ ।।९६।।
खोले मूँदे लोचन भाई ।
लीनी खाँसी, छींक, जंभाई ।।
दोष श्वास उश्वास आदि इन,
क्रिया होय मिथ्या जिनराई ।।९७।।
जब तक गीत आपके गाता ।
विधिवत् संस्तवन आप रचाता ।।
करता पर्युपासना तब तक,
तन, मन, वचन पाप विसराता ।।९८।।
दर्शन, व्रत, सामायिक प्रतिमा ।
प्रोषध, सचित्, रात्रि-भुक् प्रतिमा ।।
ब्रह्मा-रम्भ, परिग्रह, अनुमत,
उद्-दिठ् त्याग नाम इक प्रतिमा ।।९९।।
प्रतिमा ये एकादश नामी ।
हित जल भिन्न कमल अभिरामी ।।
कृत प्रमाद तिन भूल भूल मम,
छेदो-पस्थापन हो स्वामी ।।१००।।
सिद्ध साक्षि पूर्वक अरिहंता ।
सूरि साक्षि पाठी भगवन्ता ।।
समकित सहित व्रतों की दृढ़ता,
मुझे प्राप्त हो साक्षि महन्ता ।।१०१।।
शुद्धि सर्व-अतिचार परसने ।
दिन प्रतिक्रमण दोष परिहरने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
वीर-भक्ति का, कर्म विनशने ।।१०२।।
*कायोत्सर्गम्*
भूत-भावी सम्प्रति पर्यायें ।
जिन्हें द्रव्य गुण सर्व दिखायें ।।
प्रभु सर्वग वे महावीर जिन !
चरणन सविनय शीश झुकाएँ ।।१०३।।
वीर तीर्थ यह बुध जन शरणा ।
अभिहत कर्म महित-सुर-चरणा ।।
कान्ति, कीर्ति, श्री, द्युति, धृति, तप-धर,
वीर जलधि-भव तारण तरणा ।।१०४।।
संयत सतत ध्यान कर करके ।
करें वीर नुति ‘कर’ सर धरके ।।
सघन विषम संसार सिन्धु वे,
करें पार दुख शोक विहर के ।।१०५।।
संयम-कन्ध मूल व्रत सारे ।
बढ़ता यम जल नियम सहारे ।।
शील शाख कलि समिति, गुप्ति-पल्-
लव तप-दल-गुण कुसुम अहा ‘रे ।।१०६।।
शिव सुख फलद छाँव जिस करुणा ।
शुभ जन पथिक बिन्दु-श्रम-हरणा ।।
दुरित रविज संताप विहर तरु-
चरित हरे वह जामन मरणा ।।१०७।।
किया सर्व जिन चरिताचरणा ।
किये शिष्य युत चरिताभरणा ।।
लाभ चरित पञ्चम हित वन्दन,
करुँ भेद पन चरिता-मरणा ।।१०८।।
अपर मित्र ! जिस दया मूल है ।
दिला रहा भव जलधि कूल है ।।
हितकर ! बुध ! सञ्चित शरण्य जिन-
धर्म, शीश तिन चरण धूल है ।।१०९।।
संयम तप आभूषण धारी ।
धर्म अहिंसा मंगलकारी ।।
देव करें नित नमन उन्हें मन,
जिनका अविरल धर्म पुजारी ।।११०।।
भक्ति वीर आलोचन करता ।
मुद्रा, दोषावर्त विहरता ।।
देश, काल, थल-दोष कोटि-नव,
आसन, दोषावश्य विसरता ।।१११।।
स्वर, अक्षर, पद, असत् मिलाये ।
ऊन-मन्द स्वर पञ्चम गाये ।।
पढ़े शीघ्र, हा ! सुने अन्यथा,
दोष सभी मिथ्या हो जाये ।।११२।।
दर्शन, व्रत, सामायिक प्रतिमा ।
प्रोषध, सचित्, रात्रि-भुक् प्रतिमा ।।
ब्रह्मा-रम्भ, परिग्रह, अनुमत,
उद्-दिठ् त्याग नाम इक प्रतिमा ।।११३।।
प्रतिमा ये एकादश नामी ।
हित जल भिन्न कमल अभिरामी ।।
कृत प्रमाद तिन भूल भूल मम,
छेदो-पस्थापन हो स्वामी ।।११४।।
सिद्ध साक्षि पूर्वक अरिहंता ।
सूरि साक्षि पाठी भगवन्ता ।।
समकित सहित व्रतों की दृढ़ता,
मुझे प्राप्त हो साक्षि महन्ता ।।११५।।
शुद्धि सर्व-अतिचार परसने ।
दिन प्रतिक्रमण दोष परिहरने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
भक्ति तीर्थ-कर, कर्म विनशने ।।११६।।
*कायोत्सर्गम्*
नाथ सगण गणधर निष्कामा ।
जीवन मुक्त कन्त शिवरामा ।।
‘आद’ आद जिन सन्मत अंतिम,
तीर्थंकर चौबीस प्रणामा ।।११७।।
लखन हजार आठ विख्याता ।
मथित जाल-भव भाग-विधाता ।।
सुर, नर, नाग महित, जगदीश्वर,
चार-बीस गाऊँ गुण गाथा ।।११८।।
वृषभ सुरासुर नमित वन्दना ।
दीप सर्व-जग अजित वन्दना ।।
जिन सम्भव, सर्वग-अभिनन्दन,
देव-देव नित-अमित वन्दना ।।११९।।
सुमति कर्म शत्रुघ्न वन्दना ।
पद्म-पद्म-प्रभ-गन्ध वन्दना ।।
क्षान्त, दान्त जिन सुपार्श्व वन्दन,
पून चन्द्र-प्रभ चन्द्र वन्दना ।।१२०।।
पुष्प-दन्त जग विदित-वन्दना ।
शीतल भव-भय मथित-वन्दना ।
श्रेय जगाधिप, वासु-पूज्य वर-
शील-कोश बुध-महित वन्दना ।।१२१।।
ऋषि-पति विमल जिनेश वन्दना ।
यति-पति ‘नन्त’ अशेष वन्दना ।।
धर्म-केतु सद्-धर्म शान्ति जिन,
शम-यम निलय विशेष वन्दना ।।१२२।।
कुन्थ लब्ध वधु मुक्त वन्दना ।
भोग-चक्र अर-त्यक्त वन्दना ।।
मल्ल-गोत्र विख्यात खचर-नुत
सौख्य-राशि मुनि-सुव्रत वन्दना ।।१२३।।
महित सुरेन्द्र नमीश वन्दना ।
ध्वज-हरि-कुल नेमीश वन्दना ।।
पार्श्व वन्द्य-नागेन्द्र शरण-इक,
वर्ध-मान जग-दीश वन्दना ।।१२४।।
*दोहा*
कीना कायोत्सर्ग है,
थुति तीर्थक जिन नाथ !
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ।।१२५।।
प्रातिहार्य वसु पन कल्याणा ।
महित-इन्द्र बत्तीस प्रधाना ।।
युत-अतिशय चउ-तीस चतुर्विध-
संघ-शरण लख थवन निधाना ।।१२६।।
तीर्थक तिन करता सुमरण भो ।
लाभ रतन-त्रय, सुगति मरण हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म गुण अरहत-
सम्पद् वरण, समाधि मरण हो ।।१२७।।
दर्शन, व्रत, सामायिक प्रतिमा ।
प्रोषध, सचित्, रात्रि-भुक् प्रतिमा ।।
ब्रह्मा-रम्भ, परिग्रह, अनुमत,
उद्-दिठ् त्याग नाम इक प्रतिमा ।।१२८।।
प्रतिमा ये एकादश नामी ।
हित जल भिन्न कमल अभिराम ।।
कृत प्रमाद तिन भूल भूल मम,
छेदो-पस्थापन हो स्वामी ।।१२९।।
सिद्ध साक्षि पूर्वक अरिहंता ।
सूरि साक्षि पाठी भगवन्ता ।।
समकित सहित व्रतों की दृढ़ता,
मुझे प्राप्त हो साक्षि महन्ता ।।१३०।।
शुद्धि सिद्ध, प्रतिक्रमण परसने ।
रज तीर्थक, थुति वीर विहॅंसने ।।
कायोत्सर्ग करूँ मैं भगवन् !
भक्ति-समाधिन्, कर्म विनशने ।।१३१।।
*कायोत्सर्गम्*
नमस्कार प्रथमानुयोग श्री ।
नमस्कार करणानुयोग जी ।।
नमस्कार चरणानुयोग नित,
नमस्कार द्रव्यानुयोग भी ।।१३२।।
श्रुताभ्यास सत्संग सुमन का ।
दोष-मौन कीर्तन गुण-धन का ।।
शिव-तक होवे प्राप्त भावना-
आत्म, थवन-जिन, विभव-वचन का ।।१३३।।
शिव सुख नहिं जब तलक चख रहा ।
चरण हृदय तब तलक रख रहा ।।
नाथ ! हृदय मम, चरण आप जुग,
लगा टक-टकी अथक तक रहा ।।१३४।।
कहा हीन पद अर्थ, अखर हो !
विस्मृत मात्रा हुई अगर हो ।।
क्षमा देव-श्रुत ! कर दें, दें वर,
हाथ रतन त्रय मुकति डगर हो ।।१३५।।
*दोहा*
कीना कायोत्सर्ग है,
थुति समाध जिन नाथ !
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ।।१३६।।
सम दर्शन है जिसका वाना ।
स्वरूप सम चारित संज्ञाना ।।
लखन परम ब्रह्मन परमातम,
अविरल निर्-विकल्प तिस ध्याना ।।१३७।।
करता तिस समाधि सुमरण भो ।
लाभ रतन-त्रय सुगति गमन हो ।।
क्षय दुख, नाश कर्म, गुण-अरहत्
सम्पद् वरण, समाधि मरण हो ।।१३८।।
ओम्…
Sharing is caring!