loader image

श्रमण शतकम्

श्रमण शतकम्

जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।
‘गागर में सागर’ कृति विद्या,
जयतु श्रमण शतकम् ।।

ठगी जिन्होंने ठगनी माया ।
आ देवों ने शीश झुकाया ।।
वर्तमान शासन नायक वे,
मेंटे फेर जनम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।१।।

जिनके श्री चरणों के नख में ।
होड़ लगी नृप देखूँ मुख मैं ।।
रिद्ध सिद्ध दें, भद्रबाहु वे,
श्रुत केवलि पंचम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।२।।

धर्म ध्वजा ले चले अगारे ।
भू समता, व्रत नभ ध्रुव तारे ।।
कुन्द कुन्द वे पार करा दें,
शिव सीढ़ी परथम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।३।।

निस्पृह पाछी पवन सरीखे ।
जब देखे, घर भीतर दीखे ।।
ज्ञान सिन्धु जल पाप ग्रीष्म ऋत,
आपद‌ तृषा प्रशम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।४।।

जल संसार लगाऊँ गोते ।
करुणामयी आपके होते ।।
करो विलम्ब न, माँ जिनवाणी,
कीजो रक्षा मम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।५।।

साधु वचन ले साधु जनों से ।
मुड़ दुर्जनता, जुड़ सुमनों से ।।
गुण जल निर्मल साधु साधुता,
कहूँ ख्यात आगम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।६।।

हृदय मान से करके खाली ।
करनी होगी ज्ञान जुगाली ।।
चिच्-चैतन्य सरोवर में यदि,
न्हवन चाहते हम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।७।।

जब तक क्रिया काय, मन, वाणी ।
झलकन आतम तत्व न प्राणी ।।
समोशरण में छिड़ी मधुर यह,
सरगम सर्वांगम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।८।।

जिसने विषय वासना छोड़ी ।
प्रीत निजात्म भावना जोड़ी।।
कोई और न शिव राधा का,
एक यही प्रीतम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।९।।

दीन पाप फल, फल ‘पुन’ दम्भा ।
हाथ सिर्फ श्रम भज आरम्भा ।।
सम-दर्शन हा ! जल मंथन सा,
बालवत् उप‌क्-क्रम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।१०।।

निज रुचि सदा, न संध्या लीना ।
तप ‘अपना’ तन कृश कर लीना ।।
वह मुमुक्षु, न और दूसरा,
साक्षी परमागम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।११।।

निन्दनीय मन नष्ट किया ना ।
वन्दनीय मन इष्ट किया ना ।।
विमोहान्ध वह देख सका कब,
सूरज परमातम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।१२।।

डट के खड़े, परीषह आगे ।
राग-द्वेष लख कर्मज त्यागे ।।
वे वैरागी हाथ बढ़ाकर,
करें प्राप्त स्वातम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।१३।।

कान बड़े ढ़क शश सी आँखें ।
जो मनमाना परिग्रह राखें ।।
उन्हें दिखे ना, गृहस्थ जैसे,
आत्म बिम्ब अकृतिम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।१४।।

जाल तरंग विकल्प रहित जो ।
कमल-नाल सद्-धर्म सहित वो ।।
सम्यक् ज्ञान सरोवर केवल,
सरवर सार्थ सुरम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।१५।।

जिसने भरसक जोर लगा के ।।
कीं वश में इन्द्रियाँ चला के ।।
गत रागादि विकार आतमा,
उसे दिखे हरदम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।१६।।

आत्म सुधा रस चखने वाला ।
गट-गट पिये ज्ञान श्रुत प्याला ।।
क्या चाहेगा ? रुचि से विषयन,
सर-वर जल कटु-तम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।१७।।

जो संज्ञान रूप बल पा के ।
स्वात्म रमे, जड़ मोह मिटा के ।।
पल-पल प्राप्त उसे खुद संवर,
आस्रव तत्व विषम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।१८।।

सुदूर मिथ्या, निदान, माया ।
व्रति जिनने शिव कदम बढ़ाया ।।
और न, वही करें बस अनुभव,
आतम शुद्ध परम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।१९।।

अनुचित, उचित जान सब लीना ।
चित चेतन चिंतन वश कीना ।।
उत्पथ कदम बढ़ाने की हा !
रखे न वह दम-खम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।२०।।

भले भीत संसार सिंध से ।
यदपि न उठा प्रमाद नींद से ।।
हाय ! जिनागम अभिसिंचित वह,
वंचित आत्म स्वयम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।२१।।

सहज किया ‘मैं’ दूर जिन्होंने ।
कब तैयार ज्ञान घन खोने ।।
नाच उठे मन मयूर उनका,
छमा छमा छम छम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।२२।।

तीर्थ सिन्धु संसार तिराता ।
मित्र, पवित्र, मुक्त सुख दाता ।।
आत्म चरित्र भजो, सयुक्त जो,
समदर्शन अवगम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।२३।।

फ़ीकीं जिस आगे उपमाएं ।
बस पवित्र सब संत बताएँ ।।
भोगे स्वानुभवी बस वह जो,
लक्ष्मी अगम्य यम ।।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।२४।।

राग द्वेष न विमोह उपाधी ।
लगते ही इस विधी समाधी ।।
मुनि प्रसन्न, पा नदी सिन्धु ज्यों,
निर्धन हाथ रकम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।२५।।

मुख सुरसा संसार बढ़ाता ।
देह नेह तज, उससे नाता ।।
सुख दाता निज आत्म उसी में,
आओ चालो रम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।२६।।

राग द्वेष की जहाँ गन्ध ना ।
साध तत्त्व परमात्म वन्दना ।।
बचा और प्राप्तव्य कहो क्या ?
ऊर्ध्व अधो मध्यम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।२७।।

पर, रागादि भाव निज माने ।
मूढ, न वस्तु स्वरूप पिछाने ।।
निज को निज, पर को पर लख बुध,
मेंटे मिथ्यातम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।२८।।

जिसने क्या ? विधि लेख पिछाना ।
विधि सम्पन्न आत्म कल्याणा ।।
वह संज्ञान खजाना विरला,
साधक सर्वोत्तम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।२९।।

मूर्ति शुद्ध चैतन्य विभूती ।
प्रकट विशुद्ध आत्म अनुभूती ।।
भोग रोग तब चाहेगा क्या ?
साधक बेच शरम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।३०।।

भोग सम्पदा पा प्रसन्न ना ।
योग आपदा खेद खिन्न ना ।।
धन ! धन ! रखें साधु जन समता,
मेह, शीत, ग्रीषम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।३१।।

जिसका दुख देने से नाता ।
वह मिथ्यात्व कुगति जामाता ।।
निधि सम्यक्त्व रिझाने उसको,
जड़‌ से करो खतम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।३२।।

भज प्रमाद भव व्यर्थ न खोओ ।
भवि ! विषयों से उपरत होओ ।।
अनुभव करो भिन्न जल-जड़ से,
अपना आत्म पदम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।३३।।

मृणमय विनाशीक यह काया ।
चिन्मय कहें, मुझे जिन राया ।।
पृथक-भूत तन मैं जाने क्यूं,
तन का करूँ अहम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।३४।।

वही कर सके आत्म विहारा ।
जिसने मन से पाप निकाला ।।
पंख झड़ा माखी घाटी पे,
छेड़ चले सरगम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।३५।।

सुनो ! प्रशम गुण सिर्फ जगाना ।
ओढ़ नगन दैगम्बर वाना ।।
दूर निर्जरा फिर ना वह जो,
प्रकटित शुद्धातम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।३६।।

क्षण भंगुर धन असार सारे ।
समय-सार धन एक अहा’रे ।।
चक्रवर्ती सम्पद जिस आगे,
जीर्ण-शीर्ण तृण सम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।३७।।

स्वानुभूति जो ले वह पानी ।
विषयानल की मेंट निशानी ।।
वायु भांत निःसंग उसी की,
रानी मोक्ष पुरम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।३८।।

जग-जल भिन्न कमल जो दीखे ।
सार्थ नाम ‘सर’ पास उसी के ।।
वह मुनि मीन, ध्यान पानी बिनु,
मनु आकाश कुसुम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।३९।।

जनम मरण संसार मूल जे ।
पाप रूप आमूल चूल वे ।।
आर्त-रौद्र तज ध्यान, साधु-जन-
भजते शुक्ल धरम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।४०।।

राग-द्वेष से दृष्टि हटाई ।
जिनने स्वानुभूति प्रकटाई ।।
देह छूटने से डरता क्या ?
वह युग पुरुषोत्तम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।४१।।

कमल दूसरा सम-दर्शन है ।
सूर्य सरीखा आतम धन है ।।
बनती कोशिश स्वानुभवन से,
करो दूरियाँ कम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।४२।।

पाप शत्रु जैसा मुख मोड़ो ।
पांच व्रतों से नाता जोड़ो ।।
न पूछ क…छुआ, भीतर कछु…आ,
छू लो आत्म अगम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।४३।।

तज भू, जिसे क्षमा भी कहते ।
वीर क्षमा धारण कर रहते ।।
काय…रता कायरता, चिन्मय-
चुनो, बनो स’क्षम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।४४।।

चित्-चेतन चिंतन में रत जो ।
और न सिर्फ एक चारित वो ।।
निश्चय यह चारित्र इसी में,
रमो आतमा तुम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।४५।।

पर पदार्थ चिन्तन में लागा ।
तोड़े हार-रतन, हित धागा ।।
रहने स्वस्थ्य स्व…स्थ ना रहता,
तले प्रदीवा तम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।४६।।

यथा पुष्प आकाश खिले ना ।
सिवा आतमा ज्ञान मिले ना ।।
ज्ञानी सुखी, नन्त सुख पाने,
भज निज, खोओ गम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।४७।।

भले पास नय विशुद्ध नाहीं ।
धर संयम निज ‘सर’ अवगाहीं ।।
परम्परा से मुक्त, किन्तु ना,
विमुक्त बिन संयम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।४८।।

मान कषाय चलाकार त्यागी ।
परिणति जिनकी पल-पल जागी ।।
अविरल रत शुद्धात्म, विरल वे,
मेंटे सकल भरम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।४९।।

बिना भीति संसार, न मुक्ती ।
मुक्ति, वगैर न अरहत भक्ती ।।
दृष्टि न सम्यक्, मुक्ति न जब तक,
मार्ग न सहज सुगम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।५०।।

आत्म रमण मग पग जिन राखा ।
दूर उठा दृग् शिव वधु झांका ।।
बढ़ते एक कदम हम, शिव वधु-
बढ़े कदम गुण क्रम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।५१।।

पाप पुण्य से मौन लिया है ।
देह नेह को गौण किया है ।।
राग-द्वेष ना उठे पौन वह,
‘अन-तरंग’ अनुपम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।५२।।

भावन‌ यदि विमुक्त संसारा ।
मुक्त-जिनेन्द्र ! भेंट दृग् धारा ।।
भरे न ‘म…न’ तल वगैर बर्तन,
पलटा आखर न.. म ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।५३।।

और न, एक वही अज्ञानी ।
जिसने अपनी आत्म न जानी ।।
शिव रानी क्या चाहेगी वह,
देवानाम् प्रियम् ? ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।५४।।

यथा नाम गुण तथा समेता ।
शब्द श्रमण खुद परिचय देता ।‌।
‘रे मन के व्यापार रूप वह,
श्रमण करीब न श्रम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।५५।।

भला लाभ क्या? समदर्शन से ।
यहि हो पाप, उद‌य कर्मन से ।।
मुक्ति रमा वह किसे वरेगी ?
तुम ही कहो ‘कलम’ ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।५६।।

निधन कह रहा धन चेतन है ।
विधि बन्धन ‘नंबर वन’ धन है ।।
‘जोवन’ जो वन ओर चले वो,
साध माथ कुमकुम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।५७।।

मृग वह चमके रेत, न पानी ।
सुख न जगत् में दुनिया छानी ।।
दूर नहीं कस्तूरी हिरणा,
हिल…ना जा भी थम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।५८।।

सम-समता धारी ‘जिन्-होंने’ ।
मचले ‘समय-आत्म’ रत होने ।।
पथिक रसिक सामायिक उस सा,
भुवि पाताल न खम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।५९।।

पलकें पल के लिये खोलते ।
आओ, जाओ मुनि न बोलते ।।
बाद आत्म-सर डूब साध के,
चखें अमृत मधुरिम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।६०।।

भोगा-कांक्ष निदान न करता ।
भोगे भोग न साधु सुमरता ।।
रमे न पुण्य सुलभ भोगों में,
काटे पूर्व करम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।६१।।

करते ही सुमिरन जिन-राजा ।
कीलित खुले मोक्ष दरवाज़ा ।।
पल-पल मरण समय कर सु’मरण,
करो जन्म स्वर्णिम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।६२।।

की जिनने संस्तुति जिन देवा ।
चरित धार तट उनकी खेवा ।।
कब बिछुड़ी सरिता जुड़ सागर,
कुछ-कुछ भू अष्टम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।६३।।

सुन आ…हार रखें संतोषा ।
चुन आहार करें निर्दोषा ।।
शिव वधु-वर वह, गले हार जिस-
रत्नत्-त्रय चम-चम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।६४।।

सुखी इन्द्र-चक्री ना उतना ।
सुखिया स्वानुभवि है जितना ।।
आत्म सिवा ध्याये पदार्थ सब,
देते सुख कृत्रिम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।६५।।

आत्म स्वानुभव जल तो ले ‘री ।
इच्छा अग्नि बुझे बिन देरी ।।
सार्थ नाम ईधन ई…धन मन !
साधो शम, यम, दम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।६६।।

सिर्फ न काले अक्षर साधो ।
जुड़ो भाव श्रुत माटी माधो ! ।।
सार्थ मातृका वस प्रवचन बस,
हेत सिद्धि सर्वम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।६७।।

व्यय, उत्पाद, धर्म पर्याया ।
त्रैकालिक नित द्रव्य बताया ।।
और न यह, सत् लखन द्रव्य का,
चुनो, गुनो आतम ! ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।६८।।

कितना हृदय बराबर मुट्ठी ।
राग समाया, फिर तो छुट्टी ।।
कहॉं समाये सुख अब बोलो,
आतम क्यों गुमसुम ? ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।६९।।

जिसने भेष दिगम्बर धारा ।
मॉं…ना जान मान संहारा ।।
जान लिया अविनश्वर आतम,
पाया सुख निरुपम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।७०।।

‘पा’ कह पहले पाप बुलाते ।
अक्षर पलट ‘पिपा’स बढ़ाते ।।
भला सुनें, पा ‘आ’प और लें,
लौटा बढ़े कदम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।७१।।

पा वसंत ऋत कोकिल झूमे ।
झूम रहा शुद्धातम छू मैं ।।
कुशल क्षेम क्या हेम पूछना ?
भले बीच कर्दम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।७२।।

दुखी छत्रपति, खेचर, राणा ।
सुखी न मिथ्या-दृष्टि विमाना ।।
सुख अनन्त दाता न और बस,
समकित कल्पद्-द्रुम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।७३।।

भान मेघ आच्छादित जैसे ।
हम रज कर्म तिरोहित वैसे ।।
उड़े कर्म घन पवन चाहिए,
भाव ‘बनें मर-हम’ ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।७४।।

आशा दृष्टि न सुख दे पाई ।
नासा दृष्टि टिका ‘रे भाई ।।
निकला सूरज सदा पूर्व से,
कब निकला पश्चिम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।७५।।

चिंता हेत समय क्यों देना ।
चिंतामणि स्वानुभव है ना ।।
मन तरंग मारी, छवि न्यारी,
दिखी शिव सुन्दरम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।७६।।

कह के सागर जिसे पुकारा ।
दुख अपार जल जिसमें खारा ।।
वह संसार पिण्ड उस से अब-
छूटे, उठा कसम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।७७।।

साधन मोक्ष न नागन भेषा ।
मोक्ष न ‘नागन नाग’ हमेशा ।।
शिव हित गंग-जमुन-सुरसुति वत्
योग योग संगम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।७८।।

भाव स्वभाव नाव उस तीरा ।
भा विभाव भव सिन्धु गभीरा ।।
रख हाथों पर हाथ बैठना,
यही ‘साधु’ उद्यम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।७९।।

जिसे न शब्दों ने छू पाया ।
आत्म-दर्श वो अब तक माया ।।
चरित मुकुट ना रखा माथ जो,
खचित सुदृग् नीलम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।८०।।

राग रूप काजल है छोड़ा ।
वीतराग से नाता जोड़ा ।।
दौड़ा दौड़ा करीब आता,
लक्ष्य भले दुर्गम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।८१।।

परि मतलब चहु-ओर सुनो जी ।
घूमें ग्रह, परिग्रह न चुनो जी ।।
शिव चढ़ाव कब चढ़ पाया है,
मन भारी भरकम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।८२।।

पत्ता झरा, न चाहे वृक्षा ।
तन निरीह ! जे अभिजित अक्षा ।।
अचल ध्यान-धर वे भव संतति,
छेदन इक सक्षम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।८३।।

दर्पण सम दर्शन ले चालें ।
कालिख दिखी तुरन्त मिटा लें ।।
वही अनुभवें, नन्त पदारथ,
ज्ञाता आत्म ब्रहम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।८४।।

सीचें समकित रूप बगाना ।
वश इन्द्रिय गज अंकुश ज्ञाना ।।
कन्दर अन्दर चखें स्वानुभव,
साधक वह उत्तम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।८५।।

मुक्ति राधिका क्षमा सहेली ।
भारी, गुण सब क्षमा अकेली ।।
दस धर्मों में तभी गिनाई,
उतम क्षमा प्रथम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।८६।।

वन्द्य न नय निश्चय सुखदाता ।
शिव सम्यक् पुरुषार्थ दिलाता ।।
पड़ नय चक्र, न भटक यौन नव,
ध्याओ योनि-पदम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।८७।।

परिणति ज्ञान विभाव अछूती ।
उस पल भगवन् भांत अनूठी ।।
वह स्वाभाविक दशा अनुभवो,
कर कषाय उपसम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।८८।।

निरभिमान शुद्धात्म सुमरते ।
केवल-ज्ञान वीर वे वरते ।।
ध्यान कृपाण अघात घात शिव,
लहरा लें परचम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।८९।।

दृष्टि भेद-विज्ञान अनोखी ।
दीख पड़े निधि गुण रत्नों की ।।
शक्ति आत्म परमात्म दर्श की,
रखे न दृष्टि चरम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।९०।।

सम दर्शन बिन भार चरित्रा ।
ऊपर से मद गोत्र पवित्रा ।।
सम्यक् ज्ञान लाभ भवि ! तब, जब-
दृग्नम ! हृदय नरम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।९१।।

मोक्ष हेत रत्नत्-त्रय विसरा ।
अंग संग ऊपर जो फिसला ।।
देखे कैसे मुक्ति अंगना,
आनन शशि पूनम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।९२।।

ऐ ‘री सुन माछी भिन-भिन है ।
छेड़ी धुन भंवरे गुन-गुन है ।।
बनें भ्रमर, आ आत्म कमल के,
दें फेरे घुम-घुम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।९३।।

पुण्यरु पाप उदय में आये ।
ज्ञान स्वभाव विभिन्न पराये ।।
भिन परमातम, पर आतम से,
हो चालो उपरम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।९४।।

कर घमण्ड को एक किनारे ।
गहरे उतर वगैर सहारे ।।
दीखी अनदीखी निधि कहते,
तीर्थंकर अन्तिम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।९५।।

तप तप बाल स्वर्ग पा लेना ।
मानो नाव सलंगर खेना ।।
पंच परावर्तन यूँ हमने,
किये बार नन्तम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।९६।।

जिन को देख-देख जिन होना ।
व्यर्थ न भव-मानव पुनि खोना ।।
मुनि बन पंचम काल उठाई,
कम न बड़ी जोखिम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।९७।।

तम विमोह बाकी यदि रेखा ।
स्वयं सिद्ध रवि स्वात्म न देखा ।।
कह दे, बिना कहे स्वर इक सुर,
क्या ? ज्वर का तरतम ।।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।९८।।

पुनि पुनि मन को बुला, बिठा लो ।
रमा सु-तत्त्व अपूरब पा लो ।।
निधि निजात्म हित विधि यह साधो,
जब तक जान जिसम ।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।९९।।

गुरुकुल कुन्द कुन्द पा छैय्या ।
सिख विद्या, गुरु ज्ञान खिवैय्या ।।
आप आप नैय्या ‘रे दैय्या,
तट सुख ‘निरा…कुलम्’।
जयतु श्रमण शतकम् ।
जयतु श्रमण शतकम् ।।१००।।

Sharing is caring!