==दोहा==
साँची सामायिक जुडूँ,
ले मन में अभिलाष ।
मन करने एकाग्र मैं,
बैठूँ आतम पास ।।
दुनिया हो मित्र हमारी ।
खुश होऊँ लख गुणधारी ।।
मैं हूँ ना’ दुखिया कह दूँ ।
दुर्जन के ताने सह लूँ ।।
बस यही भावना भाऊँ ।
अब भीतर अपने आऊँ ।।१।।
ज्यों भिन्न म्यान तलवारी ।
त्यों देह आतमा न्यारी ।।
ना सिर्फ लिखूँ, लख पाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।२।।
इक शत्रु-मित्र वन-भवना ।
सुख दुख इक मिलन बिछुड़ना ।।
इक समता हृदय बसाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।३।।
तुम चरण दीप के जैसे ।
मम हृदय विराजें ऐसे ।।
मिट सकें न, भले मिटाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।४।।
छूँ करके प्रमाद दामन ।
जीवों का किया विराधन ।।
हो मिथ्या, अरज लगाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।५।।
वश इन्द्रिय और कषाया ।
हा ! उत्पथ कदम बढ़ाया ।।
दो हटक, कदम लौटाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।६।।
पढ़ मन्त्र वैद्य विष हरता ।
त्यों निन्दा गर्हा करता ।।
सिर पाप न और चढ़ाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।७।।
अति क्रम व्यतिक्रम स्वीकारा ।
व्रत अनाचार अतिचारा ।।
उर तिस प्रतिक्रमण भिंजाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।८।।
क्षति मन विशुद्ध अतिक्रमणा ।
व्यति-क्रम हद शील उलंघना ।।
विषयन प्रवृत्ती अतिचारा ।
अति आ-सक्ती नाचारा ।।९।।
वाक्यार्थ भूल मात्रा, पद ।
भूलो देवी माँ शारद ।।
दृग् डब-डब क्षमा मँगाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।१०।।
मण चिन्ता ! परिणति शुद्धी ।
निध आत्म, सौख्य शिव सिद्धी ।।
हित बोध समाध रिझाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।११।।
मुनि सुर नर खड़े विनीता ।
गुण जिनके गाये गीता ।।
अर्हन् वह हृदय बिठाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।१२।।
परमात्म नाम अविकारी ।
दृग् ज्ञान गम्य सुखधारी ।।
दो टूक जन्म दुख कारा ।
झलका युगपत् जग सारा ।।१३।।
मग स्वर्ग मोक्ष दिखलाया ।
निकलंक निरामय काया ।।
तन ज्ञान, अखर अख-जेता ।
गत राग-द्वेष लहु श्वेता ।।१४।।
बुध ! व्यापक जगत हितेषी ।
सिध ! मूरत अपने जैसी ।।
अर्हन् वह हृदय बिठाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।१५।।
तम रवि त्यों दोष अछूते ।
नित् एक अनेक अनूठे ।।
वे आप्त शरण तिन पाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।१६।।
भा भान न यथा बपौती ।
जग जगमग नग संज्योती ।।
लख जिन्हें आत्म भिन दीखे ।
बन्धन दो टूक विधी के ।।१७।।
भय, चिन्ता, मूर्च्छा, निन्द्रा ।
क्षय काम, शोक, दुख, तन्द्रा ।।
वे आप्त शरण तिन पाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।१८।।
संस्तर तृण फलक न धरनी ।
संस्तर शुद्धातम अपनी ।।
अख-जित अकषाय कहाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।१९।।
न समाधि हेत लोकेषण ।
न समाधि संघ सम्मेलन ।।
तज विकल्प, स्वातम ध्याऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।२०।।
पर रूप न मैं परिणमता ।
है होगा, पर कब मम था ।।
ऐसा श्रद्धान बनाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।२१।।
मैं केवन ज्ञाता दृष्टा ।
जड़ से न हमारा रिश्ता ।।
बन सके प्रमाद भगाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।२२।।
मम आतम नित्य, अकेली ।
क्षत कर्मज बाहिर केली ।।
चादर से रंग मिटाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।२३।।
जब तन न तिया कब हमरी ।
क्या रोम-छिद्र बिनु चमड़ी ।।
सुत, मित्र, नेह विघटाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।२४।।
कारण संजोग दुखी मैं ।
वैसे नीरोग, सुखी मैं ।।
चढ़ स्वा-रथ कर्म छकाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।२५।।
फिर फिर विकल्प यह तातां ।
भव वन में हमें गिराता ।।
मन उठे तरंग बिठाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।२६।।
जो बोया हमने काटा ।
दाता सुख दुख न विधाता ।।
दृग् वस्तु स्वरूप टिकाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।२७।।
जग भोगे फल कर्मों का ।
भव मानस फिर इक मौका ।।
मन बगुला भक्ति हटाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।२८।।
जो भगवत लगन लगाता ।
वह सौख्य ‘निराकुल’ पाता ।।
मति सूर अमित गति पाऊँ ।
बस यही भावना भाऊँ ।।२९।।
==दोहा==
जो इन पद बत्तीस से,
ध्याये आतम राम ।
साँची सामायिक जुड़े,
साधे सु…मरण शाम ।।३०।।
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