परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
रक्षाबंधन विधान
*पूजन*
सूरि अकम्पन आद |
नगन सप्त-शत साध॥
हंस विवेकी खूब ।
सहज निराकुल डूब॥
हित पल-अन्त समाध |
नमन, हाथ रख माथ॥
नगन सप्त-शत साध |
सूरि अकम्पन आद॥
ॐ ह: श्री अकंपनादि सप्तशतक ऋषीश्वर समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वानम् ।
ॐ ह: श्री अकंपनादि सप्तशतक ऋषीश्वर समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम् ।
ॐ ह: श्री अकंपनादि सप्तशतक ऋषीश्वर समूह अत्र मम सन्निहतो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्
हन तरंग मन एक ।
क्षान्त, दान्त अभिलेख॥
प्रासुक सागर क्षीर ।
भेंटूँ गागर नीर॥
हित पल-अन्त समाध |
नमन, हाथ रख माथ॥
नगन सप्त-शत साध |
सूरि अकम्पन आद॥
ॐ ह्रः श्री अकंपनादि सप्तशतक ऋषीश्वेरेभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाथ जलं निर्वाणमीति स्वाहा।
इन्द्रिय भोग विराग ।
विनत-इन्द्र, बढ़भाग॥
हत-प्रभ छव कस्तूर |
भेंटूँ चन्दन चूर॥
हित पल-अन्त समाध |
नमन, हाथ रख माथ॥
नगन सप्त-शत साध |
सूरि अकम्पन आद॥
ॐ ह्रः श्री अकंपनादि सप्तशतक ऋषीश्वेरेभ्यो संसार ताप विनाशनाथ चंदनम् निर्वाणमीति स्वाहा।
हाथ कमण्डल पीछ ।
कमल भाँत जग कीच॥
सुरभित आप समान |
भेंटूँ शालिक धान॥
हित पल-अन्त समाध |
नमन, हाथ रख माथ॥
नगन सप्त-शत साध |
सूरि अकम्पन आद॥
ॐ ह्रः श्री अकंपनादि सप्तशतक ऋषीश्वेरेभ्यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतान् निर्वाणमीति स्वाहा।
नासा दृष्टि अडोल ।
नपे-तुले से बोल॥
वन नन्दन, मनहार |
भेंटूँ पुष्प पिटार॥
हित पल-अन्त समाध |
नमन, हाथ रख माथ॥
नगन सप्त-शत साध |
सूरि अकम्पन आद॥
ॐ ह्रः श्री अकंपनादि सप्तशतक ऋषीश्वेरेभ्यो कामबाण विध्वंशनाय पुष्पम् निर्वाणमीति स्वाहा।
जागी अन्तर् ज्योत ।
फूटे भीतर स्रोत॥
मिसरी, अमृत समान ।
भेंटूँ घृत पकवान॥
हित पल-अन्त समाध |
नमन, हाथ रख माथ॥
नगन सप्त-शत साध |
सूरि अकम्पन आद॥
ॐ ह्रः श्री अकंपनादि सप्तशतक ऋषीशवेरेभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाथ नैवेद्यम् निर्वाणमीति स्वाहा।
जग व्यवहार प्रवीण ।
ज्ञान-ध्यान-तप-लीन॥
पार्श्व खचित मण-मोत |
भेंटूँ अनबुझ ज्योत॥
हित पल-अन्त समाध |
नमन, हाथ रख माथ॥
नगन सप्त-शत साध |
सूरि अकम्पन आद॥
ॐ ह्रः श्री अकंपनादि सप्तशतक ऋषीश्वेरेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् निर्वाणमीति स्वाहा।
रसिक मुण्ड-दश सर्व |
रक्षा-बन्धन पर्व॥
और न ‘जगत’ अनूप ।
भेंटूँ सुरभित धूप॥
हित पल-अन्त समाध |
नमन, हाथ रख माथ॥
नगन सप्त-शत साध |
सूरि अकम्पन आद॥
ॐ ह्रः श्री अकंपनादि सप्तशतक ऋषीश्वेरेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धपम् निर्वाणमीति स्वाहा।
वस माँ प्रवचन गोद ।
अनुक्षण आतम शोध॥
अपने अपने भाँत |
भेंटूँ ऋत फल-पात॥
हित पल-अन्त समाध |
नमन, हाथ रख माथ॥
नगन सप्त-शत साध |
सूरि अकम्पन आद॥
ॐ ह्रः श्री अकंपनादि सप्तशतक ऋषीश्वेरेभ्यो मोक्ष फल प्राप्ताय फलं निर्वाणमीति स्वाहा।
जल, चन्दन, धाँ-शाल |
गुल-नन्दन, चरु-थाल॥
दीप, धूप, फल दिव्य |
भेंटूँ अष्टक-द्रव्य॥
हित पल-अन्त समाध |
नमन, हाथ रख माथ॥
नगन सप्त-शत साध |
सूरि अकम्पन आद॥
ॐ ह्रः श्री अकंपनादि सप्तशतक ऋषीश्वेरेभ्यो अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घम् निर्वाणमीति स्वाहा।
*जयमाला*
*दोहा*
नग्न, दिगम्बर देह से,
आप प्रकट शिव-पन्थ ।
त्यून-कोटि-नव साध वे,
वन्दन तिन्हें अनन्त॥
जय जय कार, जय जय कार |
महिमा सद्-गुरु अपरम्पार॥
गुरु चरणोदक ले सिर-माथ |
पंख जटायू स्वर्णिम पाँत॥
देखें ‘लछ-मन’ दृग् विस्फार ।
महिमा सद्-गुरु अपरम्पार॥
जय जय कार, जय जय कार |
महिमा सद्-गुरु अपरम्पार॥
गुरु कर-कमल भेंट सद्ग्रन्थ ।
ग्वाल-बाल अक्षर जशवन्त॥
भगवन् कुन्द-कुन्द अवतार ।
महिमा सद्-गुरु अपरम्पार॥
जय जय कार, जय जय कार |
महिमा सद्-गुरु अपरम्पार॥
कर आहार दान अनुमोद ।
पूरण पुण्य-सातिशय गोद॥
नाग, नकुल, कपि भव-जल पार ।
महिमा सद्-गुरु अपरम्पार॥
जय जय कार, जय जय कार |
महिमा सद्-गुरु अपरम्पार॥
*दोहा*
नजरें श्री गुरु उठ चलीं |
दुम दाबो अँधियार॥
सार्थ नाम ‘मण-सूर’ जे,
अगम राहु मुख, न्यार॥
ॐ ह्रः श्री अकंपनादि सप्तशतक ऋषीश्वेरेभ्यो अनर्घ्य पद प्राप्ताय महाअर्घम् निर्वाणमीति स्वाहा।
*पञ्च महावत*
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
पूरण मंशा ।
नूर अहिंसा॥
सन्मत हंसा ।
नभ धुव तारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं अहिंसामहाव्रत सहित साधु परमेष्ठिभ्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
दूर तबाही ।
रुतबा शाही॥
सत् पथ राही ।
दृग् जल धारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं सत्यमहाव्रत सहित साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
चित्त चुराते ।
वित्त न नाते॥
चरित्र गाते ।
हम सब थारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं अचौर्य महाव्रत सहित साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
हया दृगों में ।
दया रंगों में॥
आते गो में ।
विरद निराला॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं ब्रहम्चर्य महाव्रत सहित साधु परमेष्ठिम्य:
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
मूर्च्छा त्यागी ।
परिणत जागी॥
इक बढ़ भागी ।
बाहर कारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं परिग्रह त्याग महावृत सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
*पञ्च समिति*
देख चालते ।
एक साधते॥
नेक-साध, ते-
नमोऽतु न्यारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं ईर्या समिति सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
धीरे बोले ।
मिसरी घोले॥
राज न खोले ।
उदर विशाला॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं भाषा समिति सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
नम जाते हैं ।
गम खाते हैं॥
रम जाते हैं ।
पा श्रुत धारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं एषणा समिति सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
पीछि सँभाली ।
निधि निज पाली॥
मनी दिवाली ।
टला दिवाला॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं आदान निक्षेपण सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
जीव बचाते ।
दीव जगाते॥
करीब लाते ।
दिव-शिव द्वारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं व्युत्सर्ग समिति सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
*पंचेन्द्रिय रोध*
गजस्-नान ना ।
गहल श्वान ना॥
मद-गुमान ना ।
मन अविकारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं स्पर्शन इन्द्रिय जय निरत साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
तृषा विदाई ।
सुधा सगाई॥
‘रस…ना’ भाई ।
अर्थ विचारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं रसना इन्द्रिय जय निरत साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
गहल न भौंरी ।
परिणत गौरी॥
गला न दो…’री ।
ओ’ री बाला॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं घ्राण इन्द्रिय जय निरत साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
पल न हाँप लें ।
पलक झाप लें॥
फलक नाप लें ।
कद कुछ न्यारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं चक्षु: इन्द्रिय जय निरत साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
दूर फना-फन ।
नूर सना-तन॥
तूर जिना-धन ।
सम्प्रति काला॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं कर्ण इन्द्रिय जय निरत साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
=षट् आवश्यक=
समता, बोधी ।
ममता खो दी॥
रमता जोगी ।
दरिया धारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं सामायिक आवश्यक सहित साधु परमेष्ठिम्य:अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
पल-पल सुमरण ।
शान्त सरित् मन॥
अपूर्व सुख क्षण ।
वश जग सारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं स्तवन आवश्यक सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
संध्या, प्रातः ।
प्रभु से नाता॥
हे ! जग त्राता ।
शिशु मैं थारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं वन्दना आवश्यक सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
शील शिरोमण ।
पनील लोचन॥
स्वयं अलोचन ।
हा ! मन काला॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं प्रतिक्रमण आवश्यक सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
कषाय छोड़ी ।
गुण बेजोड़ी॥
धुन-जिन जोड़ी ।
प्रीत अपारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यान आवश्यक सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
निस्पृह नेही ।
देह विदेही॥
सहजो ये ही ।
तरण शिवाला॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं कायोत्सर्ग आवश्यक सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
*सप्त शेष गुण*
केश उखाडें ।
द्वेष संहारें॥
शेष न यादें,
विस्मृत सारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं कच लुंचन गुण सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
नगन दिगम्बर ।
बिन आडम्बर॥
निर्जर, संवर,
शिखर हिमाला॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं वस्त्रत्याग मूलगुण सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
निज अवगाहै ।
न्हवन न चाहें॥
सजल निगाहें,
दुखी निहारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं अस्नान मूलगुण सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
छेद न पातल ।
सेज धरातल॥
खेद न हासिल ।
इक, इक ग्यारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं भूमिशयन गुण सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
दन्त न धोना ।
सुगन्ध सोना॥
कहें न, दो…ना ।
दीन दयाला॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं दन्तधावन रहित गुण सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
खड़े जीमना ।
बड़े धी-मना॥
खड़े श्री-मना,
विनत कतारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं स्थितिभुक्ति “गुण सहित, साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
भुक्ति अकेली ।
सूक्ति सहेली॥
मुक्ति पहेली,
अब ना यारा॥
जय जय कारा, जय जय कारा ।
इक साचा, गुरुवर का द्वारा॥
ॐ ह्रीं एकभुक्ति गुण सहित साधु परमेष्ठिम्य: अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
…कायोत्सर्गम्…
*पूजन श्री मुनि विष्णु कुमार जी*
एक सहारा हमें तिहारा ।
जयतु जयतु मुनि विष्णु कुमारा॥
साँचा इक निर्ग्रन्थ दुवारा ।
जय जय कारा, जय जय कारा॥
ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण सहिताय श्री साधु परमेष्ठी समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वानम् ।
ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण सहिताय श्री साधु परमेष्ठी समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण सहिताय श्री साधु परमेष्ठी समूह अत्र मम सन्निहतो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्
कलशी लाकर ।
जल की सादर॥
भेंट हेत रत्नत्रय धारा ।
साँचा इक निर्ग्रन्थ दुवारा॥
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जयतु जयतु मुनि विष्णु कुमारा॥
ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण सहिताय श्री साधु परमेष्ठी जन्म जरा मृत्यु विनाशनाथ जलं निर्वाणमीति स्वाहा।
चन्दन गागर ।
चन्द न ‘भा’ कर॥
भेंट हेत भव जलधि किनारा ।
साँचा इक निर्ग्रन्थ दुवारा॥
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जयतु जयतु मुनि विष्णु कुमारा॥
ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण सहिताय श्री साधु परमेष्ठी संसार ताप विनाशनाथ चंदनम् निर्वाणमीति स्वाहा।
अक्षत पातर ।
अपर क्षपाकर॥
भेंट हेत सिध रिध परिवारा ।
साँचा इक निर्ग्रन्थ दुवारा॥
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जयतु जयतु मुनि विष्णु कुमारा॥
ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण सहिताय श्री साधु परमेष्ठी अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतान् निर्वाणमीति स्वाहा।
भा रतनारी ।
पुष्प पिटारी॥
भेंट हेत दिव कुंज विहारा ।
साँचा इक निर्ग्रन्थ दुवारा॥
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जयतु जयतु मुनि विष्णु कुमारा॥
ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण सहिताय श्री साधु परमेष्ठी कामबाण विध्वंशनाय पुष्पम् निर्वाणमीति स्वाहा।
अमृत, निराली ।
चरु घृत वाली॥
भेंट हेत क्षुद-बाध निवारा ।
साँचा इक निर्ग्रन्थ दुवारा॥
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जयतु जयतु मुनि विष्णु कुमारा॥
ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण सहिताय श्री साधु परमेष्ठी क्षुधा रोग विनाशनाथ नैवेद्यम् निर्वाणमीति स्वाहा।
गो घी वाली ।
नव दीवाली॥
भेंट हेत भीतर उजियारा ।
साँचा इक निर्ग्रन्थ दुवारा॥
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जयतु जयतु मुनि विष्णु कुमारा॥
ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण सहिताय श्री साधु परमेष्ठी मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् निर्वाणमीति स्वाहा।
दश विध गन्धा ।
स्वर्ण सुगन्धा॥
भेंट हेत निरसन भव-कारा ।
साँचा इक निर्ग्रन्थ दुवारा॥
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जयतु जयतु मुनि विष्णु कुमारा॥
ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण सहिताय श्री साधु परमेष्ठी अष्टकर्म दहनाय धपम् निर्वाणमीति स्वाहा।
दिव्य नवेले ।
श्रीफल भेले॥
भेंट हेत दिव-शिव अवतारा ।
साँचा इक निर्ग्रन्थ दुवारा॥
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जयतु जयतु मुनि विष्णु कुमारा॥
ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण सहिताय श्री साधु परमेष्ठी मोक्ष फल प्राप्ताय फलं निर्वाणमीति स्वाहा।
दिव पुर नाता ।
द्रव्य पराता॥
भेंट हेत पल अन्त सहारा ।
साँचा इक निर्ग्रन्थ दुवारा॥
एक सहारा ।
हमें तिहारा ।
जयतु जयतु मुनि विष्णु कुमारा॥
ॐ ह्रीं अष्टाविंशति मूलगुण सहिताय श्री साधु परमेष्ठी अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घम् निर्वाणमीति स्वाहा।
*जयमाला*
*दोहा*
सद्-गुरु क्रिया प्रतेक से,
अखर-ढ़ाइ दे सीख |
पीडा औरन देख के,
फौरन पड़ते चीख॥
सद्-गुरु कृपा अनन्त ।
ग्रन्थ कहें भगवन्त॥
पर हित आतुर एक ।
पीर न सकते देख॥
लोचन सजल तुरन्त ।
सद्-गुरु कृपा अनन्त॥
‘धी’ वर मछली त्याग ।
मांस त्याग कर-काग॥
व्याध महर्धिक इन्द ।
सद्-गुरु कृपा अनन्त॥
दृढ़ बन्धन दो टूक ।
चन्दन भक्ति अटूट॥
ठग अञ्जन निर्ग्रन्थ ।
सद्-गुरु कृपा अनन्त॥
ज्ञान चरण आदर्श ।
‘दर्श मान’ सम-दर्श॥
‘सहज निराकुल’ नन्द ।
सद्-गुरु कृपा अनन्त॥
*दोहा*
यही प्रार्थना आखरी,
सिर ले पग-तुम धूल ।
संभल संभल भी बन पड़ीं,
भुला दीजिये भूल॥
*बुद्धि ऋद्धि*
करके महर्षि का ध्यान ।
मनचाहा मिला वरदान॥
महिमा महर्षि न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
वैसा काम, जैसा नाम ।
औ’-धी धारते, निष्काम॥
वाणी स्वर्ग-शिव-कारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं अवधिज्ञान बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः
मन की जान लेते बात ।
मन ना मान देते भ्रात॥
‘मनके’ फिरें णवकारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं मन:पर्ययज्ञान बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
जानें जगत् सब इक-साथ ।
‘जीवन मुक्त’ हाथ उपाध॥
केवल ज्ञान रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं केवलज्ञान बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
छोटा बीज, वृक्ष महान ।
रखते बीज-पद का ज्ञान॥
बुद्धी बीज भव हारी । करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं बीजबुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
भवि ! धानाद कोष्ठ अधार ।
धारण रूप ज्ञान अपार॥
बुद्धी कोष्ठ शिव कारी।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं कोष्टबुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
पद अनुशरण कार अशेष |
ईहा-वाय ज्ञान विशेष॥
रिध पद-अनुशरण न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं पादानुसारिणी बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।
युगपत् सुनें भाष-विभिन्न ।
‘बहु’-विध क्षिप्र ज्ञाँ सम्पन्न॥
धन ! संभिन्न श्रोता ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं संभिन्न श्रोतृत्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
चाखें दूर योजन संख ।
जे जे स्वाद भूम, निकंख॥
धन ! रिध दूर स्वादा ‘री।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं दूरस्वादित्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नम:।
पर्सें दूर योजन संख ।
जे जे पर्श भूम, निकंख॥
धन ! रिध दूर-पर्शा ‘री |
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं दूरस्पर्शत्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
सूँघें दूर योजन संख ।
जे जे गन्ध भूम, निकंख ॥
धन ! रिध दूर-धाणा ‘री |
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं दूरघ्राणत्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
सुन लें दूर योजन संख ।
जे जे शब्द भूम, निकंख॥
धन ! रिध दूर-श्रवणा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं दूरश्रवणत्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
देखें दूर योजन संख ।
जे जे वर्ण भूम, निकंख॥
धन ! रिध दूर-दर्शा ‘री ।।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं दूरदर्शित्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
पढ़ कर अंग- ग्यारह सर्व ।
पढ़ लें पूर्व दश, गतगर्व॥
धन ! रिध पूर्व दश धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
पाठी सर्व चौदह पूर्व ।
अर्चा-महा देव अपूर्व॥
धन ! रिध पूर्व चौदा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं चतुर्दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
जानें फल शुभाशुभ लोक ।
आठ निमित्त द्वारा, ढ़ोक॥
अंगठ निमित महतारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं अष्टांग निमित्त बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः
कर्मज, वैनयिक, परिणाम |
उत्पत, चार प्रज्ञा नाम॥
प्रज्ञा श्रमण दृग्-धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं प्रज्ञाश्रमणत्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
बिन उपदेश ही वैराग |
बुद्ध निमित्त इक, बड़-भाग॥
बुध प्रत्येक जय थारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं प्रत्येक बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
परमत-वादि अभिजित एक ।
‘भी’तर डूब, हंस विवेक॥
बुध वादित्व जय थारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं वादित्व बुद्धि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।
*विक्रिया ऋद्धि*
अणु से अणू कर लें देह ।
रहते भले देह, विदेह॥
अणिमा विक्रिया न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं अणिमा विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।
मह से महत् कर लें देह ।
रहते भले देह, विदेह॥
महिमा विक्रिया न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं महिमा विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।
लघु से लघू कर लें देह ।
रहते भले देह, विदेह॥
लघिमा विक्रिया न्यारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं लघिमा विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।
गुरु से गुरू कर लें देह ।
रहते ‘भले देह विदेह॥
गरिमा विक्रिया न्यारी |
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं गरिमा विक्रिया रुद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
बैठे धरा अम्बर पार |
जपते अनवरत णवकार॥
प्रापति विक्रिया धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं प्राप्ति विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
तैरें भूम, नीर विहार ।
जपते अनवरत णवकार॥
धन ! प्राकाम्य रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं प्राकाम्य विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
आज्ञा मानता संसार |
जपते अनवरत णवकार॥
धन ! ईशत्व रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं ईशत्य विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वत्राषिभ्यो नमः ।
वश में नाग, नर, सुर-चार ।
जपते अनवरत णवकार॥
रिध वशि-विक्रिया धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं वशित्व विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वत्राषिभ्यो नमः ।
सहज प्रवेश वृक्ष-पहाड़ ।
जपते अनवरत णवकार॥
अप्-प्रति घात रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं अप्रतिघात विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
लेते आप सब को देख ।
देते दिखाई कब, लेख॥
अन्तर्धान रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं अंतर्धान विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
मन चाहा बना लें रूप ।
लखते अनवरत चिद्रूप॥
सिध-रिध कामरूपा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं कामरूपित्व विक्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।
हिंसा हेत रञ्च न सन्ध |
सहजो गमन नभ निष्पन्द॥
चारण क्रिया नभ धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं नभस्तल गामित्वचारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।
हिंसा हेत रञ्च न सन्ध ।
सहजो गमन जल निष्पन्द॥
चारण क्रिया जल धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं जल चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
हिंसा हेत रञ्च सन्ध ।
करते गमन अविचल जंघ॥
चारण क्रिया जंघा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं जंघा चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
हिंसा हेत रञ्च न सन्ध ।
फल पुष्परु गमन निष्पन्द॥
धन गुल-पत्र – फल चारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं फल पुष्प पत्र चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
हिंसा हेत रञ्च न सन्घ ।
सहजो गमन घन निष्पन्द॥
चारण क्रिया घन धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं मेघ चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
हिंसा हेत रञ्च न सन्घ ।
सहजो गमन मकड़ी-तन्त॥
चारण तन्तु रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं तन्तु चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
हिंसा हेत रञ्च न सन्घ ।
धूमानल गमन निष्पन्द॥
चारण अगनी धूमा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं अग्निधूम चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
हिंसा हेतु रञ्च न सन्ध ।
सहजो गमन रवि रिख चन्द॥
चारण ज्योति रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं ज्योतिश्चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
हिंसा हेत रच न सन्घ ।
मारुत गमन धन ! निष्पन्द॥
चारण मरुत् रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं मरुच्चारण क्रिया ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
घट में जब तलक है श्वास ।
क्रमश: बढ़ा एक उपास॥
धन ! धन ! उग्र तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं उग्र तप ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
जब-तब साधना उपवास ।
देह प्रदीप्त शशि उपहास॥
धन ! धन ! दीप्त तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्री दीप्त तपः ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
भोजन कम नहीं, पर्याप्त ।
कब नीहार आप समाप्त॥
धन ! धन ! तप्त तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्री तप्त तप सद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
केवल ज्ञान छोड़ समस्त |
रिध सिध तप महत्त्व विशिष्ट॥
धन ! धन ! महातप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं महातप ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
द्वादश तप तपें दिन-रात ।
साधें योग मूल-तराद॥
धन ! धन ! घोरतप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्री घोरतप ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
सार्थक नाम ‘गिर’ निश्वास ।
छवि-रवि, दें सुखा जल-राश॥
ना-मनु-रूप तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं घोर पराक्रम तप ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
अक्षर ब्रह्म आप प्रभाव ।
ईत्यादिक लगे यम गाँव॥
ब्रह्मा-घोर तप धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं अघोर ब्रह्मचारित्व तप ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
लागा बस मुहूरत एक ।
चिन्तन सकल-श्रुत, अभिलेख॥
धन ! बल-रिद्ध मन धारी।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं मनोबल ऋद्धिधारी सर्वत्राषिभ्यो नमः ।
बार अनेक श्रुत संपाठ ।
माथे-शल न खेद, विषाद॥
धन ! रिध वचन बल धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं वचन बल ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
पशु लख शिल खुजावत खाज ।
चिर-गिर खड़े, मोख-जहाज॥
धन ! रिध-काय बल धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं काय बल ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
पद रज-पर्श, अपहर-रोग॥
औषध रिध अमर्शा ‘री ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं आमशौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
पर्श कफाद, अपहर रोग॥
औषध खेल्ल रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं खेल्लौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
पर्श-पसेव अपहर रोग॥
औषध जल्ल रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं जल्लौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’।
तन-मल पर्श अपहर रोग॥
धन ! रिध मलौषध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं मल्लौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ ।
‘विष्ठा-पर्श, अपहर रोग॥
औषध-विष्ठ रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं विप्रौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।
‘बल’ आता-पनादिक ‘योगे’ ।
सर्वस्-पर्श, अपहर रोग॥
औषध सर्व रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं सर्वौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।
‘बल आता-पनादिक ‘योग’ |
निर्विष श्रवण-वच संजोग॥
रिध निर्-विषौ-षध घारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं मुख निर्विषौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः।
‘बल’ आता-पनादिक ‘योग’ |
निर्विष पात-दृग संजोग॥
दृग् निर्विषौधष धारी |
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं दृष्टि निर्-विषौषधि ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
मुँह से निकलते ही बात |
प्रतिफल आ लगे झट हाथ॥
रस रिध आशि-बिष धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं आशीर्विष रस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
ले, जे भाव दृष्टी पात ।
प्रतिफल आ लगे झट हाथ॥
रस रिध दृष्टि विष धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं दृष्टिविष रस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः
भो ! जन-पाण, भोजन पान ।
‘लागे हाथ’ दुग्ध समान॥
क्षीरस्-स्रावि रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं क्षीरस्रावी रस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
भो ! जन पाण, भोजन पान ।
‘लागे हाथ’ मधुः समान॥
रस मधु-स्रावि रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं मधुस्रावी रस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
भो ! जन पाण, भोजन पान ।
‘लागे हाथ’ अमृत समान॥
अमृरस् स्रावि रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं अमृतस्रावी रस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः
भो ! जन पाण, भोजन-पान ।
‘लागे हाथ’ घिरत समान॥
सर्पिस् स्रावि रिध धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं सर्पिस्रावी रस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः
घर जिस महर्षिन् आहार ।
जीमे सैन्य चक्रि अपार॥
अक्षत महानस धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं अक्षीण महानस ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः ।
कुटि जिस, थमें ‘पाणी पात्र’ ।
बैठें ‘सहज’ प्राणी मात्र॥
अक्षत महालय धारी ।
करुणा, क्षमा भण्डारी॥
ॐ ह्रीं अक्षीण महालय ऋद्धिधारी सर्वऋषिभ्यो नमः
* जयमाला *
*दोहा*
वत्सलंग पूर्णांक पा,
जा पहुँचे शिव धाम ।
विष्णु कुमार ऋषीश को,
बारम्बार प्रणाम॥
रक्षा बन्धन पर्व महान ।
अंग वात्सल्य सर्व प्रधान॥
नमुचि, वृहस्पति, बलि, प्रहलाद ।
ज्ञाता वेद, उपनिषद आद॥
नगरी उज्जैनी मनहार |
नृप श्री वर्मा मन्त्री चार॥
सबके सब पुतले अभिमान |
अंग वात्सल्य सर्व प्रधान॥
दर्श ससंघ अकम्पन सूर ।
बढ़ा देख चेहरे-नृप नूर॥
बोल नीसरे ये मुख-‘मन्त’ ।
मूरख सब के सब निर्ग्रन्थ॥
तभी न कीं बातें दो ज्ञान ।
अंग वात्सल्य सर्व प्रधान॥
मुनि श्रुत सागर आते देख ।
बोल पड़ा मन्त्री नृप एक॥
बैल आ गया खा पी खूब ।
हारे मन्त्र-‘वाद’ सर डूब॥
चूँकि चुभी आ मन-मुनि वाण ।
अंग वात्सल्य सर्व प्रधान॥
गुरु ने सुन सारी मुन बात ।
कहा ‘योग-बुत’ साधो रात॥
आ मन्त्री निश किया प्रहार ।
कीलित देख लिये तलवार॥
‘देश-निकाला, नृप फरमान ।
अंग वात्सल्य सर्व प्रधान॥
हस्ति नाग पुर पद्म नरेश ।
जीत-हृदय, बन रक्षक देश॥
वर मुँह माँगा लागा हाथ ।
बाद कभी ले लेंगे नाथ॥
मन्त्री सभी बोले दे मान ।
अंग वात्सल्य सर्व प्रधान॥
नगर ससंघ अकंपन साध ।
मंत्री दिलाई वर नृप याद॥
राज आठ दिन लिया संभाल ।
रचा यज्ञ नर-मेध कराल॥
साथ घोषणा किमिच्छ-दान ।
अंग वात्सल्य सर्व प्रधान॥
पद्म भात मुनि विष्णु कुमार ।
मुख क्षुल्लक सुन हाहाकार॥
माँग तीन डग ली बलि-भूम |
बनकर वटु-वामन मासूम॥
बलि संकल्पित ले जल-पाण ।
अंग वात्सल्य सर्व प्रधान॥
बल विक्रिय डग प्रथम सुमेर ।
नाप मानुषोत्तर बिन देर॥
बलि आदिक से बोले खीज ।
रख लूँ कहाँ ? कहो डग तीज॥
माँगें मन्त्रि अभय वरदान ।
अंग वात्सल्य सर्व प्रधान॥
श्रावण शुक्ला पूरण मास ।
धुन जय-जय गूँजी आकाश॥
फिर प्रायश्चित ले ऋषि राज ।
पुन: बैठ सद्-ध्यान जहाज॥
पहुँचे ‘सहज-निराकुल’ थान ।
अंग वात्सल्य सर्व प्रधान॥
रक्षा बन्धन पर्व महान ।
अंग वात्सल्य सर्व प्रधान॥
*दोहा*
रक्षा बन्धन पर्व पे,
उठा रहा सौगन्ध ।
लगा दाव पे प्राण भी
राखूँगा ‘पत- पन्थ’॥
*आरती*
उपसर्ग विजेता की
ऋषि ऊरध-रेता की
आओ आरती उतारे
अपनी बिगड़ी सवारें
ज्ञान दीपिका प्रजारें
आओ आरती उतारे
लेके हाथों में दिया।
फिर कहाँ, पहले जिया !!
ऐसे निज अध्येता की स्वानुभवी, संचेता की ।
लेके झाँझर मजीरा
निष्तरंग मन, गभीरा
ऐसे इन्द्रिय जेता की
ढाई आखर वेत्ता की ।
बना के आँखें दरिया
गले लगाया दुखिया
ऐसे वत्सल केता की
सहज निराकुल ऐका की ।
नुति-प्रनुति…
माँ-सरसुति…√
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