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मुनि श्री १०८ अजय सागर जी महाराज

प्रस्तावना

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

संस्कारो के शंखनाद का पुणे २०१५ में, लिखने का मन बना डाला ।
शिरगुप्पी  में १७ जुलै से २७ अगस्त , तक  इसको  मूर्त रूप दे डाला ॥
गुरूओ से जो कुछ सुना पढ़ा, वो सब इसमें समाहित कर डाला ।
संस्कारो  के  माध्यम  से  ही  मैंने  अपना  जीवन  बदल डाला ॥

         पाश्‍चात्य संस्कृति वर्तमान में इतनी हावी हो गई हैं कि भारतीय संस्कारो का लोप होता जा रहा है, इसमें कारण और है, संस्कारो का लोप होने का, वो है- शिक्षा प्रणाली जिसमें गुरूकुलों का स्थान अंग्रेंजी शिक्षा प्रणालि ने ले लिया । जीवन में संस्कार कर्ता तीन गुरू हुआ करते है ।

     प्रथम गुरू जो बच्चो की जननी जन्मदात्री संस्कार कृत्री दूसरा शिक्षा गुरू जो लौकिक शिक्षा व संस्कार देते हैं तीसरे दीक्षा गुरू जो पारालौकिक शिक्षा, से संस्कारित करतें है, और संसारसागर से पार कराने का संस्कार देते हैं

      इस शरीर का जन्म भी दो प्रकार का है । पहला जन्म इस शरीर का जन्म माँ की कुक्षी से होता है जो जन्म देव वाली संस्कार देने वाली माँ होती है

      दूसरा जन्म देने वाले दीक्षागुरू – जो.. इस वीतराग मुद्रा का संस्कार कर, शिक्षा दीक्षा देकर संसार सागर से पार कराने वाले, नया जन्म दाता होते है जो नयी मुद्रा, नया नाम दिया जाता माँ अपने बच्चो का प्रथम गुरू होने से, अपने बच्चेको गर्भ में आने से पूर्व, अपने आप को मानसिक रूप से तैयार कर बच्चे को गर्भ संस्कार कैसे दे ? अशुध्दि (रजस्वला) ऋतु धर्म में कैसे रहे ? नही तो क्या परिणाम होते हैं बच्चे कैसे होते हैं ?

         जन्म के बाद बच्चो को कैसे संस्कार दे  बाल संस्कार- बच्चे बड़े होनेपर कैसे संस्कार दे ? पुत्र कितने प्रकार के होते हैं, कैसे हैं ? वे ५० वर्ष की उम्र के बाद क्या करे,? जीवन के चार चरण क्या है ? इसमें समाहित करने का प्रयास किया है ।

     प्रथम पाठशाला माँ होती है. अतः माता-पिता अपने बच्चो कों प्रोत्साहित कर उन्हें पाठशाला भेजें. पाठशाला भेजकर उन्हें धार्मिक संस्कारों से संस्कारित कराये, जिससे कि वो जान जाये – कि जैनत्व क्या है ? जैन धर्म क्या है ?  इसके सिध्दांन्त क्या है ? पाठशाला के माध्यम से अष्टक पूजन अभिषेक करने के संस्कार आयेंगे । जिस लड़की (मुलगी) ने अष्टक शीख ली वो दोनो कुलों की लाज बचायेंगी, जिस बच्चे (मुलगा) ने अभिषेक का कलश पकड़ लिया ओ कभी शराब की बोतल नही पकडेगा , बल्कि अंत समय में आपको गन्दोधक देगा ओ दादी, ओ दादु गंधोधक लगा लो । आपके हाथ पकड़कर मंदिर लायेगा , दर्शन करायेगा आपको णमोकार मंत्र सुनायेगा । आपका अंत सुधर जायेगा, अंत सुधरा तो आगे का भविष्य धार्मिक, संस्कारों से सुधरकर परम्परा से मोक्ष प्राप्त करेगा आज का मानव एवं माता बहिने अपनी शक्‍ति सामर्थ का जाल बुनने में, लम्बे पैकेज, पाश्‍चात्य संस्कृति, शहरी हवा, हावी होने के कारण भूल जाते हैं, कि हमारे माध्यम से जो जीव आ रहा है, या आया है उसे हम कैसे संस्कार दे , जिससे वह इस देश का समाज का‌ परिवार – के उत्थान का कारण बनें, एवं जीवन का उत्थान कर अपना कल्याण करें ।

संस्कारो के शंखनाद की प्रेरणा श्रोत

           इस कृति की प्रेरणा श्रोत इस शरीर की जन्मदात्री जननी माँ है जिनोने २९ वर्षे तक अपने पति की सेवा के साथ-साथ अपने बेटे को मोक्ष मार्ग मे बढ़ने का बीजारोपण करती रही । मेरे जीवन के ३३ वर्ष उलटे सिक्के के रूप मे रहे, शुरू से पिता का सुबह शाम मंदिर में पूजन स्वाध्याय दोपहर को विश्राम, अत: बचपन से व्यापार धंधा , संगति खेती किसानी के कारण मात्र देवदर्शन तक सीमित रहा ।

        ३ जनवरी १९९६ को अयोध्या जी में वह शुभ दिन आया जब एक भव्य आत्मा की प्रेरणा से अपने मूल अवगुणों का त्यागकर जीवन का प्रथम संयम लिया, उन्होंने पग पग-पर प्रेरणा दी ज्ञान दिया, जिससे मैं आज यहाँ तक आ पाया ।

         ६ जून १९९६ को परम पूज्य १०८ मुनिश्री समता सागरजी, प्रमाण सागरजी, ऐलक निश्‍चय सागर का नगर मे आगमन हुआ । तब माँ ने कहा जाओ महाराज को लेने जाओ, मैं दुकान पर बैठी हूँ । पूज्य समता सागरजी जंगल के लिए सुबह निकले, माँ ने कहा महाराज के साथ जंगल जाओ मैं दुकान पर बैठी हूँ । तब से लेकर जनवरी २०१८ तक मुझे आचार्य श्री, समता सागरजी / प्रमाण सागरजी/ आर्यिकाओं के पास भेजती । पर्युषण पर्वों मे, एवं नगर में कोई भी साधु संत आने पर , संघ आते थे । तब स्वाध्याय क्लास के समय , आहार चर्या, एवं मंदिर में पढाने के समय, समय पर आकर दुकान खोलति मुझे भेजती । पर कोई अकेली महिला आने पर खुद बैठ जाती । कहती मैं बैठी हूँ इसे पढाओ । २०१७ में आंख की आपरेशन हुआ , अस्पताल में ही महाराज के संकेत आने पर कहा जाओ महाराज की सेवा करो, बहु मुझे सम्हाल लेगी । ऐसी थी माँ उससे प्रभावित होकर इसका संकल्प किया । रचनाकाल- संस्कारों का शंखनाद , पुणे मे २०१५ में ४९ दिन के प्रवास के दौरान लिखने का मन बनाया । बचपन से आज तक गुरूओ से जो सुना पढ़ा – संकलन कर कुछ रचनाये १९८० की कुछ पुणे मे रचना कर इसे तैयार किया – लेकिन इसको मूर्तरूप शिरगुप्पी चातुर्मास मे १७ जुलाई से २७ अगस्त तक किया इसमें शिरगुप्पी की रचनाये चिन्तन, कथानको को जोड़कर इसे इस रूप मे दिया ।

संस्कारो के शखनाद का आधार

           इस कृति को तैयार करने में, पूज्य सु. सहजानंद जी वर्णीजीने १९७०-७५ मे जो पाठशाला के संस्कार, एवं उनके वचनामृत शब्द आचार्य पुष्पदंत जी १९८२ में उनके प्रवचन गीत, १९८९ से परम – पूज्य आ. विद्यासागर १९९६ में प.पू. मुनिश्री समता सागरजी का , पर्युषण के दस दिन अन्य साहित्य, परम पूज्य प्रमाण सागरजी का दिव्य जीवन का व्दार , पर्युषन संबंधी प्रवचन, अंतस की आखें, चार बातें , उनका २०१५ जयपुर के प्रवचन, २००४ मे प.पू. मुनि श्री पुलक सागर जी के माँ के संस्कारो के उपर दिये चार दिन के प्रवचन गोटेगांव में, माँ र्‍‍हदय की पीडा पुलकवाणी, को मैंने अपनी लेखनी से सुरक्षित रखा. परम पूज्य प्रमाण सागर जी के प्रवचन / पुत्रो के चार प्रकार/ पांच शून्य, प्रशम सागर की माँ मदालसा, आचार्य पूज्यवर जी की इष्टोपदेश की गाथाये, प.पू. आचार्य विद्यासागर – महाराज की मूकमाटी, सुक्‍तियाँ, अमृत वाणी, २००६ मे प.पू. मुनि प्रशांत सागर, निर्वेग सागरजी व्दारा बतायी गयी बातें, प्रशांत सागर‌जी की कथोदय , पुज्य मुनिश्री निर्वेग सागरजी की पाठशाला संबंधी साहित्य, बृहत कथा कोष, पूज्य मुनि विमल सागरजी की लय , इन सब का आधार लेकर , मुझ मंद ‌बुध्दि के व्दारा यह प्रयास किया गया । इममें मेरी कुछ नई पुरानी रचनाये समाहित है ।

           मुझ अल्पज्ञ के व्दारा यह प्रयास किया गया इसमें मेरा कुछ भी नही है जो भी सब गुरूओं का है बचपन से आज तक आचार्य श्री विद्यासागर जी , मम दिक्षा प्रदाता गुरूवर आचार्य वर्धमान सागराजी निर्यापक श्रमण समयसागरजी , निर्यापक श्री योगसागरजी प. पूज्य श्रमण सुधासागरजी , प. पूज्य श्रमण निर्यापक विद्यासागरजी एवं सभी मुनिराजों व समस्त आर्यिका संघ मुझे स्वाध्याय, अपने संघ के साथ स्वाध्याय, क्लासो में एवं मुझे पग पग पर निर्देशित कर संस्कारित किया यह सब उन सबका है मेरा कुछ भी नही, मैं तो एक अंधा पाषाण था गुरूओ ने मुझे पारस बना दिया । जो कुछ गुरुओं से सीखा पढ़ा लिखा उसी को समाहित किया । यदि मैं अज्ञातवश भुलवश किसी भी परम पूज्य गुरूओं का उल्लेख न कर पाया हूँ तो सबसे क्षमा प्रार्थी हूँ ।

         बचपन से सामाजिक राजनैतिक धार्मिक क्षेत्र में लिखने की, बोलने की आदत  थी । उसी अनुसार टुटा पुटा संग्रहित कर लिखने का प्रयास किया । इसको लिखने में, संस्कारों में, कथाओं में, व्याकरण छंद, आदि में जो भी त्रुटि, कमी हो गई हो, सुधीजन उस कमी, त्रुटि को बताकर सुधारकर मुझे अनुग्रहीत करे, एवं जिनवाणी माता. सभी आचार्यगण मुनिगण मुझे क्षमा कर ,मेरा मार्ग प्रशस्त करने की कृपा करें । मेरे व्दारा पूज्य गुरूओं के प्रति अपनिय अवज्ञा के लिए क्षमा चहाता हूँ ।

संत शिरोमणि गुरू विद्यासागर जी को मेरा शत्‍‍ शत्‍‍ बार नमन ।
आचार्य सन्मति सागर जी गुरूवर को मेरा शत्‍‍ शत्‍‍ बार नमन ॥
आचार्य वर्धमान सागरजी गुरूवर को मेरा शत्‍‍ शत्‍‍ बार नमन ।
चरणो मे यह पुष्प समर्पित है, स्वीकारो ये तुम्हे नमन ॥

अल्पबुध्दि हूँ गुरूवर मै तो, जो कुछ सुना पढा, सो लिख पाया ।
सदा ही आशीष और चरण शरण मिले, यही भाव मै ले आया ॥
ऐसा दो आशीष गुरूवर, सदा ही सतपथ पर बढ़ता जाऊँ ।
सारे कर्मो को काटकर मै शीघ्र ही अपने आत्म स्वरूप को पाऊँ ॥

          अंत मैं परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज, आचार्य वर्धमान सागर जी महाराज एवं सभी गुरूवरों के चरणो बारम्बार त्रिवार नमास्तु करते हुये यह कृति समर्पित करता हुँ । 

नमोस्तु । नमोस्तु । नमोस्तु ।

शिरगुप्पी चातुर्मास 2022                           अनगार श्री १०८ अजयसागर जी महाराज

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