(मुनि श्री अजय सागर जी)
संसार में धर्म की आराधना श्रेष्ठ है। धर्म की आराधना से जीवो का जीवन सुखी-समृद्ध होता है। विषय विकारो वश संसार में पतित आत्मा, धर्म साधना से अपने को विशुद्ध बनाकर पावन परमात्म पद पा लेती है।
प्यासे को पानी मिल जाये तो प्यास बुझ जाती है। रास्ते पर बढ़ने के लिए पधिक को प्रकाश मिल जाये तो अपनी मंजिल तक पहुंच जाता है। पानी, पानी है.. प्रकाश, प्रकाश है। पानी ने कभी भेद नहीं किया कि मैं मनुष्य की प्यास बुझाऊँगा, पशु-पक्षियो, जानवर की नहीं। चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम, सिख हो या ईसाई समान रूप से सबकी प्यास बुझाई। प्रकाश ने नहीं सोचा कि में महलों को प्रकाश दूंगा. झोपड़ियों को नहीं।
धर्म भी ऐसा ही है। जो जाति, धर्म, पंथ, समुदाय से परे है, वो सबका है। जो पाले उसका है। नाव बैठने वाले को पार कराती है, देखने वाले को नहीं। वैसे ही धर्म, दर्शक या विचारक का नहीं। यह आस्था, श्रद्धा, आचरण वालों का है, जो धारण करें वह धर्म है। “धारयती इति धर्मः” ऐसा संतो का मत है।
वस्तु का स्वभाव धर्म है (वस्तु स्वभावो धर्मः) दशलक्षण इति धर्मः धर्म एक है इसके लक्षण धर्म है। जिस रत्नत्रय से हम दशलक्षण एवं आत्म-तत्व को प्राप्त करते हैं यही दशलक्षण एवं आत्म-तत्व वस्तु का परम स्वभाव है। वैसे देखा जाये धर्म दश भेद वाला नहीं अपितु इन दश रूप धर्म है; उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव,
शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य यह धर्म है।
हम इन धर्मों को बीज से वृक्ष से लकड़ी तक की यात्रा से समझ सकते हैं-
क्षमा रूपी धरती पर जब बीज अपने मान को गलाकर नम्र होकर अपने को नम्र बनाकर मार्दव रूप मिट्टी में अपना समर्पण करता है। तब अपने कठोर कवच को गलाकर अपना सर्वस्व समर्पण कर सरल आर्जवित हो जाता है। अंकुरण होने पर अपने को स्वच्छ, साफ़ वातावरण में अपने को निर्लोभ वृद्धि से पाता है। सत्य रूपी सूर्य के दर्शन कर अपने को विकसित करता हुआ है संयम रूपी बाड़ (बंधन) से अपने को सुरक्षित कर विकसित होता है। तप की अग्नि (सूर्य की तपन) में अपने को तपाता हुआ फूल फल के रूप में परिवर्तित करता है। फलदार होने पर फलों का त्याग करके अपने को हल्का महसूस करता है। सारे फल-पत्ते जीव-जंतुओं को देकर, त्यागकर एक आकिंचन्य योगी के समान निर्लिप्त एकांकी हो जाता है। आकिचन्य कुछ भी नहीं है उसके पास। अंत में सूखे ठूंठ (सूखी लकड़ी) की अवस्था में पहुंच ऐसा लगता है कि एक योगी की भांति अपने आत्म ब्रह्म में लीन- अपने आत्मा ब्रम्ह में चर्या करने वाले योगी के समान हो जाता है। यही है दस धर्मों की साधना जो एक जीव को आत्म ब्रह्म तक पहुंचा देती है।
जैन परंपरा के दशलक्षण धर्म भाद्र, माघ और चैत्र के महीने में शुक्ल पक्ष पंचमी से चतुर्दशी तक वर्ष में तीन बार आते हैं। दिगंबर और श्वेतांबर समाज में बड़े उल्लास से भाद्रपद के पर्युषण मनाते हैं। श्वेतांबर समाज भाद्र कृष्ण पक्ष बारस से भाद्र शुक्ल चतुर्थी तक 8 दिन का मानते हैं। दिगंबर समाज में दस दिन का प्रचलन है। तिथि का क्षय होने पर एक दिन पूर्व याने भाद्र शुक्ल चतुर्थी से शुरू हो जाते हैं (ग्यारह दिन के हो सकते हैं पर दस दिन से कम दिन के नहीं होते) दशलक्षण धर्म का नाम पर्युषण के नाम से चल पड़ा है। पर्युषण शब्द की व्याख्या परिउष्ण समन्तात् भावाः इति पर्युषण जो सब तरफ से आत्मा में रहने वाले कर्मों को तपापे, जलाए, वह पर्युषण। वर्षाकाल में जीवों की उत्पत्ति अधिक मात्रा में होने से मुनि साढ़े तीन माह तक एक स्थान पर चतुर्मास करते हैं। जिससे आहार, विहार, निहार में जीवों की हिंसा कम हो। यह चातुर्मास आषाढ़ शुक्ल 14 से कार्तिक कृष्ण अमावस्या तक होता है। परिस्थिति वश श्रवण कृष्ण पंचमी तक स्थापना हो जाती है। आगम के परिप्रेक्ष्य में एक बात और समझ में आती है कि काल गणना में छठे काल का अंत सदा आषाढ़ पूर्णिमा को होता है। नए युग का प्रारंभ(उसमें लगी) तिथि श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को अभिजित नक्षत्र से होता है। काल के भेद से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल है। अवसर्पिणी काल में भरत ऐरावत क्षेत्र में अंतिम छटवें काल खंड के अंतिम सात सप्ताह तक कुवृष्टियों होती है। जो सृष्टि का का प्रलय करती है।
त्रिलोक पण्णत्ति ग्रंथ में लिखा है अवसर्पिणी के छठवें कालदुःखमा के अंत के 49 दिन याने ज्येष्ठ कृष्ण बारस से आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा तक महा भयंकर प्रलय होता है। सर्वप्रथम महा गंभीर भीषण संवर्तक वायु चलती है, जो वृक्ष, पर्वत, शीला आदि को चूर्ण कर देती है। वृक्षों, पर्वतों के टूटने से मनुष्य तिर्यंच महा दुःख प्राप्त करते हैं। शरण योग्य स्थान की अभिलाषा करते हुए प्रलाप करते हैं। इस समय पृथक-पृथक संस्थात एवं संपूर्ण 72 युगलों को गंगा, सिंधु नदियों की वेदी और विजयार्च पर्वत के मध्य प्रवेश कराते हैं। देव-विद्याधर भी (दया) होकर मनुष्य और तिर्यंचों में से संख्यात जीव राशि को उन प्रदेशों में जाकर सुरक्षित रखते हैं। उस समय गंभीर गर्जना सहित मेघ अत्यंत शीतल जल, क्षार जल तथा तीक्ष्ण भीषण जल में से प्रत्येक को सात-सात दिन तक बरसाते हैं। इसके अतिरिक्त वह मेघ समूह (धूम धूली) वज्र एवं जलते हुए दुष्पेक्षय ज्वाला समूह सात-सात दिन तक बरसाते हैं।
इस प्रकार क्रमशः भरत क्षेत्र के मध्य आर्य खंड में (चित्रा) पृथ्वी के ऊपर स्थित एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जाती है। इस समय आर्यखंड शेष भूमियों के समान दर्पण तक के सदृश्प कांति से युक्त और भूति कीचड़ से आदि कलुषता से रहित हो जाता है। तदनंतर उत्सर्पिणी के प्रारंभ के प्रथम दिन याने श्रावण कृष्था प्रतिपदा से भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तक सुवृष्टियां होती है। सात-सात दिन तक श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से पुष्कर मेध सात दिन पर्यन्त सुखोत्पादक जल बरसाते है। जिससे वज्राग्नि से जली हुई सम्पूर्ण धरती शीतत हो जाती है। फिर सात दिन पर्यन्त क्षीर मेघ क्षीर जल की वर्षा करते हैं। जिससे क्षीर जल से भरी हुई पृथ्वी उत्तम कांति से युक्त हो जाती है। फिर सात दिन अमृत मेघ अमृत की वर्षा करते है। जिससे अमृत से अभिषिक्त भूमि लता, पुष्प, गुत्त्म आदि उगने लगते हैं। तत् पश्चात रस मेघ सात दिन पर्यन्त रस की वर्षा करते हैं। जिसमे वे लता, गुल्म आदि रस से परिपूर्ण हो जाते है। इम प्रकार विविध रसपूर्ण औषधियों से भरी हुई भूमि सुस्वादु रूप परिणत हो जाती है। पश्चात शीतल गंध मय वातावरण हो जाता है और जो भाद्र शुक्त पंचमी है, उस दिन सृष्टि का सुजन शांति का पहला दिन है। इस दिन जो संख्यात जीव राशि 72 युगल (जोड़े) गंगा सिन्धु की वेदी विजयार्ध पर्वत पर देव विद्याधरो ने सुरक्षित रखा था. उन्हे भाद्र शुक्ल पंचमी पर्युषण का प्रथम दिन को भरत क्षेत्र के आर्य खंड में लाकर छोड़ जाते हैं।
सुख की आशा की किरण जिसमें जन्मीं ऐसी नूतन प्रभात से सृजन/ साधना की शुरुआत हम मानते हैं। यही इस भाद्रपद के पर्युषण का महत्वपूर्ण होने का वैशिष्ट्य है। प्रलय की प्रचंडता के उपशमन के बाद इस पंचमी की तिथि में, राहत की सांस लेकर हमने सुजन सुख का कुछ विचार किया होगा, मार्ग खोजा होगा। यह पंचमी शांति, समृद्धि की प्रथम तिथि रही। इस तिथि से प्रारम्भ होने वाले दशलक्षण रूप धर्म दिवसों को हमने अत्यधिक महत्व दिया। यह भाद्रपद का महिना अनेक व्रतों का खजाना है।
पर्युषण / दशलक्षण के दिनों को पर्व कहा जाता है। पर्व का अर्थ है अवसर, संधि या पोर या किसी के जोड़ने वाला बिंदु जो जीव को धर्म से, आत्मा से जोड़े जो परमात्मा के प्रति प्रेम प्रीति को जन्माता है। जीवों में भाईचारा, प्रेम, वात्सल्य लाता है। यह पर्व है।
पर्व दो प्रकार के हैं। पहला शाश्वत पर्व अष्टानिका, दशलक्षण, सोलह कारण, अष्टमी, चतुर्दशी ये सदा से सदा रहेंगे। दूसरा नैमित्तिक (सामायिक) पर्व दीपावली, रक्षाबंधन, आदिनाथ जयंती, महावीर जयंती, मुकुट सप्तमी आदि। इसके अलावा राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता-दिवस, गणतंत्र दिवस, गांधी जयंती आदि।
दशलक्षण आदि पर्व भले ही जैन समुदाय विशेष मानता है, पर सबका है। जिनमें क्रोधादि विकार/विभाव से सारे प्राणी दुखी है उनमें उन दुःखो से बचने का यही सच्चा उपाय है। यह पर्व जैनो का ही वैसे रहेगा। यह तो सिर्फ जैनों का ना होकर जन-जन का है, जो माने उसका है।
संसार के सारे जीव सुखी रहे. निरोगी हो, सभी अपने क्रोधादि विकारों से रहित होकर आत्म तत्व को पाकर सुख शांति को प्राप्त हो यही भावना से सभी की भला हो। सर्वना सुखिनः भवतु- सभी धर्म धारण करें, सभी जीव सुखी हों।
यदि अवसर चूका तो भव-भव पछत्तायेगा
नर भी कठिन यहाँ किस गति में जायेगा
नर भव भी पाया तो जिन कुल ना पायेगा
अनगिनती जन्मों की अनगिनती विकल्पों में
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