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परीषह जय शतकम्

परीषह जय शतकम्

।। जय जयतु परीषह जय शतकम् ।। 

सत्संग, पदम सद्-ध्यान खिले ।
सुख ‘निराकुलम्’ सद्-ज्ञान मिले ।।
जड़ से समाप्त हो मिथ्यातम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।१।।

झलका दर्पण-वत् जग सारा ।
हल्का न ज्ञान, वृत ध्रुव तारा ।।
युत नन्त चतुष्टय नुत अर्हम् ।।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।२।।

कब कहते हैं, सब सहते हैं ।
सम सुख-दुख ! दरिया बहते हैं ।।
जय साधो ! इक साधें हरदम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।३।।

अख विषय लता मृदु बन तुषार ।
क्षण मात्र किया झुलसा निसार ।।
माँ रखें कृपा, वह जिन-आगम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।४।।

क्षुधा परीषह जय

माना अनुभूति क्षुधा होती ।
पर पीछे पलक स्वयं खोती ।।
परिवर्तन जैन अकाट्य नियम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।५।।

बुध क्षुधा परीषह सहते हैं ।
‘सुर सेज उठे’ पुरु कहते हैं ।।
नृप चार हजार कतार अधम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।६।।

पड़ आगन, स्वर्ण स्वर्ण पाहन ।
सह क्षुधा परीषह मन पावन ।।
लहरा न सके मन्मथ परचम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।७।।

‘मुनि’ चन्द्र गुप्त आदर्श मान ।
आगम सम्मत आहार पाण ।।
पड़ चले अकाल भले दुर्गम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।८।।

वह पाप जो न कर सके सहन ।
बन सके परीषह करे सहन ।।
बस धन्य उसी का मनुज जनम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।९।।

तृषा परीषह जय

क्या तृषा बिगाड़ेगी श्रमणा ।
फूटा उर ज्ञानामृत झरना ।।
ममता शरीर कर चुके खतम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।१०।।

हो कुपित तृषा तिय खीज चली ।
मुनि मुक्ति रमा जो रीझ चली ।।
कब ईर्ष्या काला जादू कम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।११।।

व्रत निरतिचार जो रहे पाल ।
कर सके तृषा बाँका न बाल ।।
गज चले, भूस चुप श्वान स्वयम् ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।१२।।

आ कण्ठ भले वस चलें प्राण ।
अवगाहें मुनि जल शशि समान ।।
सत्-चिच्-चैतन्य स्वयं आतम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।१३।।

भव नारक थी कम कहाँ पीर ।
मिल रहा न केवल यहाँ नीर ।।
यूँ सोच, रखें मुनि भाव प्रशम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।१४।।

शीत परीषह जय

कपि मद गल चले शीत ऐसी ।
लग रही अग्नि पानी जैसी ।।
मुनि स्वप्न न चाहे ‘परस’ गरम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।१५।।

जग उठा ‘भान’ पर, कहाँ भान ।
अणु दिन-निशि मुख सुरसा समान ।।
पर चलित कदापि न ‘साध धरम’ ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।१६।।

तप अग्नि जगा रक्खी भीतर ।
क्या चिन्ता ? बर्फ झिरे बाहर ।।
पड़ भरम न, यत रत रमण ब्रहम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।१७।।

धनश्याम शाम करते निनाद ।
‘गिर’ सार्थ नामधर वज्र-पात ।।
‘पानी’ राखें मुनि ध्या स्वातम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।१८।।

ग्रीष्म परीषह जय

मुनिराज आत्म विजयी ठहरे ।
रवि ग्रीष्म उष्णता क्या कर ले ? ।।
‘गुल’ सार्थ नाम, पर ‘इतर’ पदम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।१९।।

‘रे मुश्किल मीना का जीना ।
पानी न राख दुनिया दीना ।।
मुनि कह न चलें पर, बस ग्रीषम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।२०।।

अभिलाष न मन मुनि चन्दन की ।
जल-गंग न शश, शश-छव-मण की ।।
रवि छुये प्रखरता भले चरम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।२१।।

कर सका न सूरज से रक्षा ।
पत्ते जो गिरा चला वृक्षा ।।
गुण आत्म रक्ष ! मुनि भीति न यम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।२२।।

झांके पताल, न दरार कहाँ ।
दृग रवि उगले अंगार हहा ! ।।
गत नेह देह ! रत शम-यम-दम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।२३।।

दंशमशक परीषह जय

भिन-भिन करती माखी आई ।
धुन दंशमशक जिनको भाई ।।
धन ! सार्थ ‘साध’ आतम सरगम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।२४।।

प्राणिन प्रति वैर मिटाया है ।
उर करुणा क्षमा बिठाया है ।।
कह ‘मीठा दरद’ सहे मुनि गम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।२५।।

बस रुधिर अकेला पीते हैं ।
हैं परजीवी, यूॅं जीते हैं ।।
क्या गया हमार ? न शरीर हम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।२६।।

भूखे यह जीव जन्तु सारे ।
दुर्गत पशु, कर्मों से हारे ।।
मुनि सोचे, यह भी चले शिवम् ।।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।२७।।

नाग्न्य परीषह जय

प्रद आपद और सभी जग में ।
पद एक दिगम्बर शिव मग में ।।
‘रे तभी वस्त्र से मुनि उपरम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।२८।।

गुण आत्म न इक, नागिन सुनते ।
हित सुध, बुध पन-नागन चुनते ।।
रग दया धरम, दृग् लाज शर‌म ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।२९।।

दू-निया रहा दुनिया न्यारा ।
‘रे किसे आवरण है प्यारा ।।
रवि, शशि, तारक, गिरि, ‘दुविज’ दुरुम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।३०।।

‘रे सिवा नाग्न्य, ना गण्य और ।
धन ! राह देखते छत्र चौंर ।।
वश-विरह, आँख वधु सिरपुर नम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।३१।।

अरति परीषह जय

क्या कहती रस…ना सुन बैठे ।
सह अरति परीषह धस पैठे ।।
निष्तरंग सर-वर अध्यातम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।३२।।

लख मृतक मसान, न भाव ग्लान ।
वन गर्जन वनपत, करिन कान ।।
मुनि रखें भाव समता दृढ़तम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।३३।।

नित सत् शास्त्रों में मन रमता ।
रखते हैं सुख दुख में समता है ।।
विष विषय विरत, रत साध धरम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।३४।।

मन से छोड़ी मनमानी है ।
सम-दरश सुदृढ़ ! संज्ञानी है ।।
वह एक मुक्ति राधा प्रीतम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।३५।।

स्त्री परीषह जय

दृग-हिरणी ! मन हरने वाली ।
गज भांत गमन करने वाली ।।
कब भेद सकी मुनि मनस् अगम ।।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।३६।।

उर्वशी नाम सार्थक हारी ।
भा रम्भा फीकी पड़ चाली ।।
नासिका टिकीं जो मुनि दृग-नम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।३७।।

उतरें रण-चितवन तिय जहान ।
ले काम-देव से पुष्प बाण ।।
चित चार खान, आखर संयम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।३८।।

मुनि झांप उर पहुँच दृग रस्ता ।
देखें न रूप, लख भगवत्ता ।।
पुनि समता रमणी जाते रम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।३९।।

चर्या परीषह जय

क्या सुना वाह…ना वाहन रख ।
धन ! चार हाथ भू आंखन लख ।।
मुनि राह धरें शिव अथक-अथम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।४०।।

सुन आंच-रणा न मोम बनते ।
अग दरिया लोह पुरुष तिरते ।।
रवि शशि फिर, मुनि पद-यात्र प्रथम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।४१।।

धन ! मुनि सुकुमाल कथा गाते ।
सह जाते भले चुभें कांटे ।।
कह, हम भी कहां ? किसी से कम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।४२।।

जब तलक न मोह घरासाई ।
यह राजा, हम पैदल घॉंई ।।
रख याद, ‘साध’ लें बढ़ा कदम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।४३।।

निषद्या परीषह जय

धस जीव ठसाठस भरे यहाँ ।
हम हिले, उन्हें हो कष्ट महा ।।
मुनि डिगें न आसन अहर्निशम् ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।४४।।

चढ़ पर्वत आसन माड़ा मुन ! ।
नदिया का कभी किनारा चुन ।।
जा छोड़ अलस आयें दर-यम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।४५।।

पशुओं ने साज खुजाई है ।
कब मुनि ने देह हिलाई है ।।
जप जपें, बनें मरहम मर…हम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।४६।।

तन चढ़ीं बेल क्या सुना नहीं ।
पर मुनि ने हिलना चुना नहीं ।।
परिपाट रहे यह चिर कायम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।४७।।

शैय्या परीषह जय

सपने में मिलना सोना है ।
उठते ही सब कुछ खोना है ।।
बन पहरी शयन पहर अंतिम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।४८।।

तृण, शिला, फलक पर शयन करें ।
स्वप्-नन न भोग स्मरण करें ।।
कब दिवस शयन, डर दरश करम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।४९।।

तन सुदूर मन न चलें निश में ।
इक पार्श्व शयन जश दश दिश् में ।।
हित वारण श्रुत-रत जप-तप श्रम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।५०।।

डर डरे, इन्हें डरना नाहीं ।
जित-निद्र ! आत्म सर अवगाहीं ।।
मंजिल खुद कहे पथिक थम-थम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।५१।।

मनु निशि खुद शयन शयन करता ।
गो भांति जुगाली मन कहता ।
उठ ‘सूर’ कहें जग रश्मि-घरम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।५२।।

आक्रोश परीषह जय

वन्दन से तुष्ट न होते हैं ।
निन्दन से रुष्ट न होते हैं ।।
श्रमणन हैं अपने से अनुपम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।५३।।

कक्षा दूजी पढ़ राखी है ।
इस कान बात उस ‘नाकी’ है ।
मुनि लें मुस्कान मन्द मधुरिम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।५४।।

करना अन-सुना सीख लीना ।
न उतरना अब चढ़ना जीना ।।
यह ठान नाम सार्थक ‘सक्षम’ ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।५५।।

अंगुलियाँ कान दे डालीं हैं ।
इक गालीं जिन्हें कबालीं हैं ।
भूले भगवन् इंसान अधम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।५६।।

माथे न शिकन इक लाई है ।
दृग वस्तु स्वरूप टिकाई है ।।
पापी न बुरा, है पाप करम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।५७।।

वध परीषह जय

प्रत्यूष काल की लाली तन ।
‘वध’ से बस खतम एक जीवन ।।
निध खो स्व-धर्म, वध जनम-जनम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।५८।।

वध का प्रसंग भी सह जाते ।
विध रखे तथा विध रह जाते ।।
कह जाते, बहि वह, भीतर हम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।५९।।

याचना परीषह जय

मुनि गण न याचना करें कभी ।
सुख पराधीनता न स्वप्न भी ।।
स्वाधीन ‘साध’ चर्या खुद सम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।६०।।

पद-साध याचना से सदोष ।
पीछे मद, माया, लोभ, रोष ।।
शशि ग्रहण पंक्ति जश उज्ज्वल-तम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।६१।।

याचक कपास से भी हल्का ।
सुख दुख न आज का कृत कल का ।।
रख तत्त्व दृष्टि यत रत उद्यम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।६२।।

जय परिषह, बड़े साधना है ।
हो ध्वस्त अशुभ, न भावना है ।।
सिंह वृति ‘साध’ चचिर्त भुवि खम् ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।६३।।

अलाभ परीषह जय

मासोप-वास होने पर भी ।
आहार मिले, ना मिले कभी ।।
नॅंच उठें न, बैठें पकड़ करम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।६४।।

घृत आद सभी रस मिल जायें ।
गर कभी, न नीरस भी पायें ।।
दे चलें न मनस्‌ तरंग जनम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।६५।।

भीतर छलके अमरित गगरी ।
बाहर से देह शुष्क लकड़ी ।।
चमके सूरज माथा चम-चम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।६६।।

रोग परीषह जय

आमय मृतु, जन्म, जरा आगे ।
भय-रोग दबा के दुम भागे ।।
रग बहे खून संवेग गरम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।६७।।

लख रोग कॅंपें, तन रोम-रोम ।
तज भोग, जपें जय ओम ओम ।।
घटती कषाय, परिणति शुचितम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।६८।।

कहते ही सार्थ नाम रो…गा ।
पर नया कर्म बंधन होगा ।।
यह सोच भुलाया गम-मातम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।६९।।

औ-षधी कहे ही ओ ! सुध ही ।
सुध रखी, रोग भागें खुद ही ।।
रहना ‘जग’ राखी उठा क़सम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।७०।।

तृणस्-पर्श परीषह जय

पैरों में चुभे राह कांटे ।
कह चले पुराने हैं नाते ।।
मुनि वंश हंस साहसी अदम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।७१।।

फिर शंकर बनूॅं, सुमन पहले ।
मन ‘साध’ बीच कण्टक रह ले ।।
सह ले परिषह, कब च्युत स्व-धरम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।७२।।

‘कं’ पानी राख पुकारे है ।
‘टक’ दे चूनर शश तारे है ।।
सह परिषह, तृण कं…टक न कम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।७३।।

हो कोई भी पथ-तर मुझसे ।
क्या डरना ? पत्थर कं…कर से ।।
वह भले कहे, पर कम कब हम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।७४।।

मल परीषह जय
वह मैल, न मैल देह वाला ।
‘ल’ लाये जो ‘मैं’ ममकारा ।।
बनता, उससे मैं रहूँ विरम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।७५।।

है अशुचि देह संदेह किसे ? ।
वह ‘साध’ कहां ? तन नेह जिसे ।।
दम नाक न, भाई ! मरते दम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।७६।।

मल पटल न ये श्रृंगार साध ! ।
वधु सिरपुर व्याहन गुण बरात ।।
हो पूरण आश, कहो ‘सिद्धम्’ ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।७७।।

मल कहाँ भले है कमल नाम ।
तन में कब तन्मय ? अमल धाम ।।
हे…मा बस रहना बिच कर्दम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।७८।।

सत्कार-पुरस्कार परीषह जय
मैं अगर बिन्दु घृत होऊँगा ।
उठ आऊँगा, या खोऊँगा ।।
कृत कर्म शत्रु-सख और भरम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।७९।।

प्रभु ज्ञान समान चुरास जोन ।‌
लघु कौन ? कौन गुरु ? कहे कौन ?
‘जग’ गाल बजाने में पिरथम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।८०।।

क्या बुराइ में ? क्या भलाइ में ? ।
जब देता ही ना दिखाइ मैं ।।
‘जग’ सचाइ कम, ज़्यादातर भ्रम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।८१।।

अख अभिजेता ! ऊरध रेता ! ।
मुनि गणधर नमोऽस्तु पा बैठा ।।
अब क्या ? औचित्य प्रणाम अधम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।८२।।

प्रज्ञा परीषह जय
कुछ कुछ कहती कलि प्रज्ञा है ।
कम आत्म ज्ञान बहु पर का है ।।
गुरु-तम बनने, बनना लघु-तम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।८३।।

कह रहा स्वयं केवल-ज्ञाना ।
जब तक न स्वयं के बल ज्ञाना ।।
जै…ना, चल संभल पन्थ दुर्गम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।८४।।

छद्‌मस्थ ज्ञान कह रहा सुधी ।
छल-छद्म अस्त ना अरे अभी ।।
मृग मरीचि मंज़िल, रख दम-खम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।८५।।

मैं हा ! मेघा तब कहलाये ।
परहित जब दृग मेघा छाये ।।
मिस स्वाभिमान अभिमान न रम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।८६।।

लवलेश ज्ञान सॅंग स्वानुभूत ।
सिर पाप गाज, प्रद शिव विभूत ।।
कण अग्नि विपुल तृण करे भसम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।८७।।

तुष मास विभिन्न समझना है ।
घुन बन अक्षर न निगलना है ।।
कह रही कथा शिव-भूत स्वयम् ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।८८।।

वस माँ प्रवचन सेवा करनी ।
तर चुटकी में भव वैतरणी ।।
आखर ढ़ाई बस पाठ्‌-यक्-क्रम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।८९।।

अज्ञान परीषह जय
‘तू मूर्ख’ वचन यह सुनकर भी ।
हों उत्तेजित ना साध कभी ।।
अपकर्षें काषायिक तरतम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।९०।।

निन्द्रक है भला, न बुरा रञ्च ।
ले अग्नि परिक्षा हित विरंच ।।
फू-फूकर क्या ? न कांच चम-चम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।९१।।

अदर्शन परीषह जय
चिर काल हो चला तापस हूॅं ।
अब तक न बना रस पारस हूँ ।।
दें हवा न मुमुक्षु विचार इम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।९२।।

कीरत मुनि तीरथ से बढ़ के ।
सब झूठ, कहा बुध बढ़ चढ़ के ।।
मुनि शंकित यथा न जैनागम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।९३।।

बस बातें सौख्य अलौकिक की ।
सुख मिला न अब तक लौकिक भी ।।
मुनि करें न यूॅं छव क्षत जैनम् ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।९४।।

धन ! शुचि सम्यक् दर्शन नाता ।
‘धुन’ सार्थ नाम, सागर आता ।।
मण दीप तले टिक सका न तम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।९५।।

आ विपत् कर सकी दुखी नहीं ।
पा सम्पत दृग-धर सुखी नहीं ।।
बस उसे परिषह विजय सुगम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।९६।।

सुरभी जय परीषह चरित फूल ।
बिन सम्यक् दर्शन, ज्ञान धूल ।।
हित चूल, न क्षम्य भूल सूक्षम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।९७।।

चर्या, शय्या या निषद्या ‘जी ।
परिषह शीतोष्ण न साथ सुधी ! ।।
है स्वयं सिद्ध अनुभव, आगम ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।९८।।

यत-पथ में रहते ही रहते ।
क्या हम ? तीर्थकर भी सहते ।।
हो कोई ‘पर…सह’ कहें स्वयम् ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।९९।।

विष छोड़, ज्ञान सागर जाई ।
धन ! विद्या अमि धारा पाई ।।
अब प्यास न, झिरे अमृत कण्ठम् ।
जय जयतु परीषह जय शतकम् ।।१००।।

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