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मेरे वैराग्य गीत "आचार्य श्री प्रसंग "

एक माँ जी
आचार्य श्री जी से कहतीं हैं
भगवन् !
क्या जादू कर दिया आपने
मेरा बच्चा रोज रात मेरे पैर दबाने के बाद
माँ निद्रा की गोद पाता है
आचार्य श्री जी बोले
आप अपने बच्चे से ही पूछ लीजियेगा
बच्चा आँखों में पानी लेकर बोलता है
भगवन् !
मेरे यह पूछने पर
‘कि गौशाला कब और क्यों जाना चाहिये
आपने कहाँ था
सुबह सुबह
शुभ शगुन रूप माँ गाय
अपने प्यारे से बछड़े को
जो अमृत पान कराती है
बस भगवन् !
मुझे अपना बचपन
और माँ का अपने बच्चे के प्रति समर्पण
याद आ चला

एक बार की बात है
आचार्य श्री जी
भगवान् आदि ब्रह्मा ऋषभ देव जी के
मंदिर जी की एक वेदी में
अकेले बैठे हुए थे
पण्डित रतन लाल जी बैनाड़ा जो थे
‘के अचानक उनका आना हुआ
आचार्य श्री देख नहीं पाये उन्हें
और अपने हाथों से
अपने दोनों कानों को खींचते हुए
पण्डित जी ने उन्हें देख लिया
रतन लाल जी बोले
भगवन् !
यह मैं क्या देख रहा हूँ
सन्तों का न्यायाधीश,
अपने कान पकड़ रहा है
तब आचार्य भगवन् बोले
हाँ पण्डित जी साहब
तात्कालिक प्रतिक्रमण है यह
आचार्य ज्ञान सागर जी कहते थे
सबसे छोटा प्रतिक्रमण है यह
‘के जब कभी भूल से भी भूल
याद आ चले
तो अपने दोनों कान पकड़ लेना चाहिए

बड़े बाबा के दरबार की बात है
छोटे बाबा के पास एक दिन
दो पण्डित जी साहब
कुछ उलझन सुलझाने के लिए आये थे
तब आचार्य महाराज थोड़ा सा जोर से
मंत्र नवकार उच्चारित कर रहे थे
णमो अरिहंताणं
णमो सिद्धाणं
‘के उनमें से एक पंडित जी ने
दूसरे पण्डित जी से पूछा
आचार्य भगवन्
यह क्या कर रहे हैं ?
दूसरे पण्डित जी बोलते हैं
जनसंपर्क
विसंवाद का कारण जो माना है
सो हम आप से संवाद के लिए भी
तिलाञ्जली रूप
सारा उपक्रम है यह
तब श्री मद् आचार्य देव
जोर से हँस पड़े
फिर ?
फिर क्या
मोन हो चला गौण

एक बार
आचार्य श्री जी का स्वास्थ्य
कुछ ज्यादा ही नरम गरम था
महाराज लोग बोले
भगवन् !
आप लेट करके ही
सुन लीजियेगा प्रतिक्रमण
तब वर्तमान कुन्द-कुन्द भगवन्
बोलते हैं
आचार्य ज्ञान सागर जी ने कहा था
लेटकरके तो अतिक्रमण हो चलेगा
हाँ
लेट-लतीफ हो जाओ कभी तो
जरूर
व्रतों की पाँच-पाँच भावनाओं वाली
बड़ी जाप के साथ
प्रतिक्रमण कर लेना
लेकिन लेट करने प्रतिक्रमण करना
तो आवश्यक के लिये
एक लतीफा बना देगा

बात उस समय की है
जब हम चौबीस मुनिराजों की
नई नई दीक्षा हुई थी
हम लोग आचार्य श्री जी के करीब ही
रात्रि में विश्राम लेते थे
अचानक मेरी नींद खुल चली
सामने ही रेडियम वाली घड़ी में देखा
करीब सवा बज रहा था
और किसी की सिसकिंयाँ
सुनाई दे रहीं थीं
मैंने थोड़े ध्यान से सुना
आचार्य भगवन्
प्रतिक्रमण कर रहे थे
स्पष्ट शुद्ध एक-एक शब्द
धीरे-धीरे से उनके
मुखारबिन्द से झिर रहा था
मैंने पास लेटे हुये निर्मोह,
निर्भीक सागर जी को
जगाकर के कहा
क्यों अपन लोग कब करेंगे ऐसा
प्रतिक्रमण

एक बार आचार्य भगवन् को
खूब जोरों का ज्वर आ चला
समय सामायिक का हो चला था
मुनि श्री निर्भीक सागर जी ने
आचार्य श्री की तरफ अपनी माला बढ़ा दी
चन्दन की
आचार्य भगवन् बोलते है
निर्भीक
तुम्हारे पास सिर्फ एक माला है
मेरे पास मेरा हाथ ही माला है
और एक नहीं दो दो
दो बार पढ़ो मालामाल
हाँ हाँ बिलकुल तुम भी
बन सकते हो
निर्भीक सागर जी ने तुरंत
कायोत्सर्ग कर लिया
‘के स्वामिन् प्रयास करूँगा

एक दफा
मुनि श्री निर्मोह सागर जी महाराज साब ने
आचार्य भगवान् से पूछा
स्वामिन् !
आप अपने हाथों को जोड़ करके
बार-बार माथे से लगा रहे हैं
और मुख से
उच्चारण भी कर रहे हैं
यदि मन ही मन में पढ़ा जाये स्वयंभू
तो क्या कोई कमी रह जाती है
आचार्य श्री जी बोलते हैं
हाँ…
मेरे भगवन् गुरुदेव ज्ञान सागर जी ने
एक बार बतलाया था
आवश्यक करते वक्त
मन, वचन और काय तीनों लगाना चाहिये
मन पटल पर कुछ गुद चले
अंगुली पन्ने पर मिले
और जिह्वा हिल-ढुल ले
सो बनती कोशिश हमें
तनिक भी न अलसाना चाहिए

विहार चल रहा था
चलते-चलते गुरुदेव
एक पत्थर पर बैठ चले
जाने क्या हुआ
बोलियाँ लग चलीं
हजार छोड़
लाख, करोड़ रूपये तक
लगा दिये सेठों ने
तब वह गरीबा
जिसकी यह चाय की दुकान थी
वह बोला भैय्या
हमें नहीं बेचना
चाय पी रहे
एक दिमागदार व्यक्ति को
ठसका लग चला
वह बोला
रे ! गरीबा
पागल तो नहीं हो चला
घर आई लक्ष्मी को ठुकरा रहा है तू
तब गरीबा बोलता है
मेरे भगवान् आकर के बैठ चले हैं इस पर
अब यह पत्थर नहीं रहा
बन चला है मेरा ईश्वर
और तुम्हीं कहो
माँ को
महात्मा को
परमात्मा को
क्या कोई बेचता है
जयकारा गूॅंज उठा
जय जय गुरुदेव

एक दिन आचार्य श्री
जंगल जा रहे थे
सुबह-सुबह बाल सूर्य के दर्शन कर
बड़े खुश लग रहे थे
साथ में मेरे निर्मोह सागर जी महाराज भी थे
वे बोलते हैं स्वामिन्
आपने मेरा नाम
मेरे नगर दमोह से
निर्मोह रक्खा है
क्या ऐसा ही कुछ
इन निराकुल सागर जी के
साथ भी है क्या
आचार्य भगवन्
बोलते हैं
हाँ हाँ
अक्षर पलट लीजिए
न…इ…र…कु…ल
अब अंतस्थ
य, र, ल, व में
जो अक्षर ‘ल’
पीछे से दूसरा है
वह कहता है
‘के ‘क’ वर्ग का दूसरा अक्षर रक्खो
अर्थात्
खु… र.. ई
और न मतलब नगर
बस फिर क्या
पीछे चल रही भीड़ एक सुर से
बोल पड़ती है
वाह आचार्य श्री जी वाह
जवाब नहीं आपका

कुण्डलपुर वाले
बड़े बाबा की प्रतिमा का
स्थानान्तरण होना था
पर बड़े बाबा थे
‘के टस से मस न हो रहे थे
सारा संघ मौजूद था
जन सैलाब भी
मंत्र णमोकार मन में ही नहीं
वचनों में भी आना जाना कर र‌हा था
तभी सभी ने आशा विश्वास भरी
एक नजर गुरुदेव पर डाली
मेरे भगवन् ने
अपनी पीछी उठा करके
आसमान से अपनी दृष्टि टिका करके
आचार्य भगवन्
श्री ज्ञान सागर जी के लिये
दो नहीं एक ही दृग् मोती की बूँद
थी चढ़ाई
‘कि बड़े बाबा की मूर्ति
फूल सी उठ आई
सच
पुरुदेव को मनाने
काफी गुरुदेव के तराने

मुनि श्री निस्सीम सागर जी के पिता जी
एक बार आरोन समाज के साथ
आचार्य श्री जी के पास
चातुर्मास के लिए निवेदन करने आये
वह बोले आचार्य भगवन्
एक अरजी लगाने के लिए आये हैं
तभी दुर्लभ स्वर्ग विमान
वह मन्द-मन्द मुस्कान
चेहरे पर बिखरते हुये
गुरुजी बोले
चौबीस तीर्थंकर हैं जो
उनमें से प्रत्येक के नाम के बाद
जब हम ‘जी’ लगाते हैं
जैसे ऋषभ जी
अजित जी
तब एक भगवान्
आते हैं
जो ‘अर जी’ सुनने में खूब चर्चित है
ऐसा शब्द ही कह रहा है
और आरोन में ही तो है वह
हाँ…हाँ…आपके गॉंव के मूलनायक
वहीं श्रीफल भेंटिये
और सातिशय पुण्य समेटिये
चारण ऋद्धिधर उतरेंगे
और की बात छोड़िये

भारतीय संस्कृति को
पूर्व सभ्यता क्यों कहते है
क्या अपूर्व है यहाँ
यह देखने के लिए
पश्चिम के लोग आते हैं जहाँ
वह पर्यटन स्थल खजुराहो
वहाँ पर
गुरु जी का चातुर्मास संपन्न हो रहा
एक विदेशी जोड़ा आया
जिसके चेहरे पर अनुभवों की झुर्रियां
आमरण संजोग लिखा कर आ चलीं थीं
उन्होंने आचार्य श्री जी का दर्शन
अपना हैट मतलब टोपी
उतार करके
उसे अपने हाथ मे लिये-लिये ही
हृदय के समीप
हाथ ले जाकर के
सिर झुकाकर किया
आचार्य भगवन् ने
मुस्कान के साथ
आशीर्वाद दिया
वह सज्जन
गदगद स्वर लेकर के बोल पड़े
‘के हमनें आज से पहले सुन हो रक्खा था
‘कि भगवान् होते हैं
पर आज
देख लिया मैंने उन्हें साक्षात्
मेरा जीवन धन्य हो गया आज
बारम्बार प्रणाम महाराज

बात
उन दिनों की है
जब आचार्य भगवन् ने
बुन्देलखण्ड की धरा पर
अपने मोक्ष मार्ग पर बढ़ते हुये
कदम रक्खे थे
एक श्री मन्त
जो आचार्य भगवन्त को
बाल-वय में दीक्षित हुये देखकर
खूब प्रभावित थे
एक दिन वह बोलते हैं
स्वामिन् !
आपको कोई चीज लगती हो, तो बोलिये
तेल, नैपकिन, औषधि वगैरह वगैरह
तब श्री मद् आचार्य देव
बोलते हैं
हाँ भाई लगती तो है
मुझे किसी से कुछ माँगते वक्त
बड़ी शरम लगती है
वह सज्जन साष्टांग झुक चलें
कोटि कोटि नमोस्तु कहते हुए

बात बीना बारहा जी की है
सभी महाराजों के लिये बुलाकर के
आचार्य भगवन् ने
एक संकल्प कराया
‘के कोई भी
किसी की आँखों में
आँखें डालकर के बात नहीं करेगा
चातुर्मास भर
तब और दूसरे भैय्या तो नहीं थे
विनय भैय्या थे
आचार्य श्री जी से बोल पड़े
भगवन् नैन की
और वैन की तुकबन्दी तो
खूब जमती है
ये तो नाइन्साफी हो जायेगी
वैन के साथ
चूँकि बहुत कुछ शब्द हम
होठों को,
आँखों के इशारों को
पढ़कर समझते हैं
तब आचार्य भगवन् ने
एक हाईकू दिया
सुनियेगा बड़ा लाजवाब है वह
‘इष्ट सिद्धि में
अनिष्ट से बचना
दुष्टता नहीं’
सच आचार्य श्री जी का जवाब नहीं

बात उस समय की है
जब सर्वधर्म समभाव संप्रत नगरी खुरई
जो सार्थक नाम है
खुदा, राम, ईसा के अनुयाई
जहाँ मिल जुल कर रहते हैं
वहाँ गुरु भगवन् की
ग्रीष्मकालीन वाचना चल रही थी
यहां बड़े बाबा पार्श्वनाथ स्वामी का जो दरबार है
सच में वह बड़ा ही मनहार है
आचार्य भगवंत
दिन भर इन्हीं की छत्र छांव में बैठते थे
श्रीमन्त सेठ जी के यहाँ आहार हुआ
धर्म परायण सेठानी जी अपनी सोने की माला
आचार्य श्री जी की तरफ बढ़ाती हुईं बोलीं
भगवन ! आज की सामाजिक
इस सोने की माला के साथ कर लीजियेगा
तब निम्परिग्रही
निगृह नेही
वर्तमान कुन्द-कुन्द भगवन्त बोलते हैं
अच्छा, सोने की
लेकिन मॉं जी सामायिक में
माला सोने के साथ नहीं
जागते हुए करनी होती है
सामायिक में भगवत् भक्ति में खोना होता है
आप अपना सोना
अपने पास ही रखियेगा

बात शुरु शुरु की है
जब आचार्य श्री जी की दीक्षा हुई ही थी
तब जहाँ धर्मशाला थी
उसमें एक औषधालय भी था
वहीं कार्यरत थे एक बाह्मण वैद्य जी,
वे एक दिन आकर के गुरुदेव से बोले
बाबा ! अखबार आता है अपने यहाँ रोज
मैं बारह बजे तक पलटा लेता हूँ पन्ने
यदि आप कहे तो
आपके पास भिजवा दिया करूँगा
तब भगवन बोले
बारह बजे तो हमारे ध्यान का समय हो जाता है
तब हम साधु लोग
अपनी आत्मा की खबर लेते हैं
तब वैद्य जी बोले
अच्छा तो ठीक है
आप ध्यान से कितने बजे उठ जाते हैं
तब भिजवा दूँगा
आचार्य श्री बोले
छ: घड़ी मतलब लगभग ढ़ाई घंटे
लेकिन
फिर हमारे स्वाध्याय का समय
हो जाता है
स्व-अध्याय रूप ज्ञान में
लग जाते हैं हम लोग
तब वैद्य जी बोले
फिर ?
बस यही ज्ञान, ध्यान फिर फिर के
तब वैद्य जी बोले
सिर नहीं दुखता आपका
आचार्य श्री जी बोले
जो दुनिया की खबर रखते हैं
उनकी वे जानें
पर मेरा तो
सिर उठता है गर्व से

बात तिलवारा घाट जबलपुर की है
आचार्य महाराज का प्रवास चल रहा था
एक नवयुवक जो अभी-अभी
पढ़ाई पूरी करके आया था
‘के अचानक उसकी आँखों से धीरे-धीरे
दिखना बन्द होने लगा
यहाँ तक स्थिति हो चली थी
‘के शाम को उसे अपनी भोजन की थाली में से
रोटी, सब्जी, चावल हाथ से
टटोल करके खाना पड़ता था
वह नौजवान
आचार्य भगवन् के पास आकर के बोला
सभी जगह दिखा लिया
अखीर में पूर्णायु में दिखाने आया हूॅं
आपका आशीर्वाद जो इस संस्थान पर है
भगवन् मेरी आँखें ठीक तो हो जायेगीं ना
तब आचार्य भगवंत ने
माँ के जैसी अपनी सरल आँखें
तरल बनाते हुये
सिर्फ इतना ही कहा
बेटा ! अपना पुण्य बढ़ा
बेटा सम्बोधन सुनते ही
उस बच्चे को खुशी का ठिकाना ना रहा
सच !
माँ, महात्मा परमात्मा
बिठा अपने कांधे
बच्चों को देते ही छुआ आसमां

बात उस समय की है
जब आचार्य श्री जी
मुनि श्री ज्ञान सागर जी के पास
ब्रह्मचारी बन करके रहते थे
दीपावली के अवसर पर
कुछ श्रावक लोग
ब्रह्मचारी विद्याधर के कक्ष में
दीपक लगा के चल दिये
सुबह जब देखा,
तो ब्रह्मचारी विद्याधर
की नजर अपने कक्ष में डली हुई
एक माचिस की सींक पर पड़ी
उन्होंने सोचा
कभी-कभी दाँतों में कुछ फॅंसा रह जाता है
जिसे निकालने में यह सींक मदद करेगी
और इसने किसी दीपक को रोशन करके
परोपकार रूप
अपना जन्म सार्थक कर लिया है
इसलिये मैं इसे उठाकर के रख लेता हूं
लेकिन जैसी ही पास पहुँचते हैं
ब्रह्मचारी विद्याधर जी
‘के देखते हैं
‘कि माचिस की तीली में रोगन लगा हुआ था
उन्होंने
माचिस की तीली को उठा करके
बुझे हुये दीपक में रख दिया
ताकि बागवान जब दिया उठाने आये
तो इस सींक को
आगे उपयोग में लाने के लिए
अपनी माचिस की डिब्बी में रख ले

धन्य है सोच गुरु जी की
‘के अपने काम में आने से पहले चीज
औरों के काम में आ सकती है यदि
तो आ जाये
मेरा काम तो
किसी न किसी तरह बन ही जायेगा
ओम्

 एक श्वेताम्बर दम्पति
जिन्हें कन्या रत्न की प्राप्ति हुई थी
वे आकरके आचार्य श्री जी
कहते हैं
‘के भगवन्त मंगल पढ़ दीजिए
तब भगवान् ने कहा
आपके माता-पिता
आपके साथ रहते हैं क्या ?
आगुन्तक दम्पति कुछ कह पाते
‘के अपने दादी-दादू को
अपने हाथों का सहारा देते हुये
उनका पोता कहता है
हाँ भगवन्,
हम सभी लोग
अपने दादी दादू के साथ में रहते हैं
तब भगवान् के
मुख से सहज ही धर्मवृद्धी निकल चली
भगवान् बोले
ये बुजुर्ग साक्षात् मंगल हैं
आप लोगों के लिये
मंगल पढ़‌वाने की कोई भी
आवश्यकता नहीं है
और जिनके माता-पिता
जिनके साथ में नहीं रहते हैं
उनकी खातिर में ही क्या
साक्षात् तीर्थंकर भी
मंगल पढ़‌के भी
मंगल नहीं कर सकते हैं

एक पंडित जी बोले
मेरे भगवन् !
ऐसा क्या है ?
इन शान्ति नाथ भगवान् जी में
जहां देखो वहाँ के मूल नायक है यह
बीना बारहा जी,
रामटेक जी
और शहर शहर
गाँव-गाँव में शान्ति नाथ जिनालय
मिल ही जाता है
तब भगवन् बोलते हैं
अद्‌भुत है
इन भगवान् का चिह्न
हिरण
बस अक्षर ‘ही’ थोड़ा सा दूर पढ़ना है
ही…रण
सच दुनिया में रण-युद्ध ‘ही’ का है
और ‘भी’ अनोखा है
जो जैन दर्शन की नींव है
और किसे न उम्मीद है
ऐसे बाबा शान्ति नाथ जी से
जो स यानि ‘कि समेत
‘नति’ नुति-प्रनुति
रहने की हिदायत देते हैं
सच अकड़ तो उखड़ने की राह है

एक धी-मन्त
जो श्री-मन्त भी थे
एक बार विदेश की यात्रा करके
आचार्य भगवन् के
दर्शनार्थ आये
वह श्रीमंत बोलते हैं
भगवन्
बड़े खेद की बात है
‘कि अपना मूलाचार ग्रन्थ
और उसकी पाण्डुलिपि
एक विदेशी म्यूजियम की
शोभा बढ़ा रही है
अब बोलने की बारी
आचार्य भगवन् की थी
धन्य है उनकी अनेकान्त से भींजी सोच
सच शब्द भींजना ही कह रहा है
‘भी’ जिन:
जिनका उपदेश है
‘के तुम भी सही हो
न ‘कि सिर्फ मैं ही
भगवन् बोलते हैं
भले पाण्डुलिपि विदेश में है
पर मूलाधार की जीवन कृति कहां है
भारत को छोड़कर के कहीं और
दिखलाई देती हो तो बतलाओ ?
तब उन श्रीमंत की आंखों से
झर झर मोती झर चले

बात डोगरगढ़
चन्द्रगिरि तीर्थ क्षेत्र की है
ग्रीष्मकालीन वाचना चला रही थी
सुबह-सुबह जब हम सब साधु-संत
जंगल जाते थे
तब
सबसे पहले
हम छोटे-छोटे मुनिराज निकलते थे
एक महिला जो सफाई कर्मचारी थी
हमें सिर झुका कर
नमस्कार करती थी
फिर श्री समय सागर जी महाराज
श्री योग सागर जी महाराज
निकलते थे
उन्हें वह महिला
बैठकर के ढ़ोक देती थी
और पीछे से
जब जयकारों के साथ
गुरुदेव आते थे तब
साष्टांग नमोस्तु ते
नमोस्तु ते
नमोस्तु ते कहती थी
धन्य है गुरुदेव
जिनकी धवल कीर्ति
दिग्दिगन्त तक अपनी महक छोड़
चलती है
सच
जयकारा गुरुदेव का
जय जय गुरुदेव
जय जय गुरुदेव

एक सब्जी वाला था
एक दिन जंगल जाते समय
गुरुदेव के पैर में कांटा चुभ गया
तब पास में ही खड़े
उस सब्जी के ठेले पर
अपना हाथ टेककर के
अपना पैर कुछ ऊपर उठा करके
आचार्य भगवन् ने
काँटा निकाल लिया
पता है
उस दिन
हर-रोज से ज्यादा बिक्री हुई उसकी
सारी सब्ज़ी बिक चली
वरना हर-दिन
सुबह सुबह वासी हो चली सब्जी
खिलानी पड़ती थी गायों के लिये
लेकिन गुरुजी अपने हाथ,
उसके ठेले पर फिर से रखे
अब यह तो बड़ा मुश्किल था
तब उसने
अपनी बुद्धि लगाई
कि क्या करूॅं ?
और आचार्य श्री जी देखकर के
अपनी ताजी सब्जी ही
गायों को खिलाना शुरू कर दी
तब गुरुजी ने
न सिर्फ अपनी आंखें रखीं
वरन् उसकी प्रशंसा करते हुए कहा
देखो
यह सज्जन गायों के लिए
कितने प्यार से खिला रहा है
और धर्म वृद्धि कहते हुए
आचार्य श्री जी
आगे बढ़ चले

एक पण्डित जी ने
गुरुदेव से कहा
‘के भगवन्
मैंने रात्रि में एक सपना देखा
जिसमें एक सुन्दर सुडौल पुरुष
जंजीरों से बंधा हुआ था
उसके दोनों हाथ, दोनों पैर,
दोनों कांधे, गला, और कम्मर
जंजीर से जकड़े हुए थे
भगवन् बड़ी-बड़ी मूँछें थीं उसकी
बाल घुंघराले काले थे
सहजो मुस्कान थी उस‌की
कान कांधों को छूते थे
भगवन् कौन था वह
और क्यों बंधन में था
तब आचार्य श्री बोले
अच्छा जर्रा बतलाओ तो ?
वह अपनी नाक पर
चश्मे का भार रक्खे था, या नहीं
तब पण्डित जी ने कहा
हा ! भगवन्
यह बताना तो मैं भूल ही गया
के चश्मा भी था
और वह भी रंगीन
तब भगवान् बोलते हैं
बस यही राग-द्वेष के
लैंस वाला चश्मा लगाये
भावी भगवान् आत्मा
आठों कर्मों से बंधा
संसार भ्रमण कर रहा है
अनादि काल से

हम अधिक पढ़े लिखे हैं
कम समझदार’
आचार्य भगवन् का हाई… को ? है यह
इसे चरितार्थ करते हुये
एक नवयुवक आया
और बोला भगवन् मुझे बड़ी जल्दी है
कृपा करे छोटी सी छोटी
मोक्ष-मार्ग की
परिभाषा बतला दीजिए
आचार्य भगवन् बोलते हैं
मुझे आपसे ज्यादा जल्दी है
मेरी सामायिक का समय हो रहा है
फिर भी चलिए
सुन लीजिए
बस अक्षर दूर दूर पढ़ने हैं
मोक्ष मारग
मो… क्षमा…रग
स्वयं शब्द ही कह रहा है
मो मतलब मेरा परिचय
क्षमा बहने लगे
रग मतलब नसों में
लोहू की जगह
बस काफी है इतना यह

आचार्य भगवत्
आप
गो पालन को गोरव कहते हैं
श्वान भी तो शान है वफादारी की
उसे पालने के लिए मना करते हैं
ऐसा क्यों ?
सुनिये तो,
मैं एक बार बुन्देलखण्ड के
एक ग्राम बंडा में था
जो अधिक दिन रुकते ही
मुझसे कहने लगता है

‘के बंधा गंदा होय,
बहता पानी निर्मला

वहाँ मैंने गवाक्ष
मतलब रोशनदार से
बाहर की तरफ झांका
यही आपकी शान
श्वान पैर उठाने वाला ही था
‘कि एक माँ जी बोल पड़ीं
चल हट…
आग लगे, आग लगे आग लगे

तभी वहीं खड़ी
एक सार्थक नाम
माँ…गो ने गोबर दिया
माँ जी बोलती हैं
आ जा झट…
भाग जगे
भाग जगे
भाग जगे
सो हम का कै रय
भैय्या, दुनिया कै रई

एक बार अमरकंटक में
एक सन्त दम्पति युगल
आचार्य भगवन् के दर्शन करने आए

तब आचार्य भगवंत बोलते हैं
ये आपके साथ में यह कौन हैं ?

संत बोले
यह मेरी नारी
फिर थोड़ा-सा जोर देकर के बोले
यह मेरी नाड़ी भगवन्

उनकी सन्त पत्नी ने
एक मन्द मुस्कान के साथ
अपने हाथ जोड़कर
बड़ी श्रद्धा से माथा झुकाया

अब बारी भगवान् के बोलने की थी

वह बोलते हैं
अजी सन्त महात्मन्
कुछ रुककर के बोलिये

यह मेरी ना…री

हॉं हम अकेले आते हैं
और मेला छोड़ अकेले ही जाते हैं
भावी भगवन् आत्मन्
थारी-म्हारी छोड़िये
तब सन्त ने
आजीवन ब्रह्मचर्य धारण कर लिया

आचार्य भगवान् का प्रवचन चल रहा था
भगवन् बोलते हैं
बहुयें जप करें
सासे… साँसे
सासे… साँसे
सासे… साँसे

यदि आप पूछते ही हैं,
क्या मतलब ?
तो अपने घर की बात बताता हूॅं

मॉं सारा घर बुहार करके
कचरा जब दरवाजे के
बाहर निकालती थी
तब दादी माँ
एक बार कचरे का निरीक्षण
करने के लिए पीछे पीछे आती थी

एक दिन दादी माँ
बीमार पड़ गई
उसी दिन माँ की नाक का फूल
गुम हो गया

माँ ने डरते डरते कहा
दादी माँ ने कहाँ
कचरा जहाँ डालकर आई हो
वहाँ जाकर देखा क्या ?
पता है
माँ खुशी खुशी
आई दादी माँ के पास
और चरण स्पर्श किए
सच
सासे… साँसे

एक जगह चांदी की वेदी बननी थी
आचार्य भगवान् का प्रवचन शुरु हुआ

‘के सुनो,
कौन नहीं सुनना चाहता है
चांदी चांदी हो हमारी
मैं सहजो-सरल तरीका बतलाता हूं

मन्दिर की गुम्बद के अन्दर
यदि हम बोलते हैं
एक बार
चांदी
तो प्रतिध्वनि वापस लौटकर आती है
चांदी चांदी
सो मुक्त हस्त से
चांदी की वेदी में
लें हिस्सेदारी
सभी पुजारी
ओम्

आचार्य भगवान् का
प्रवचन चल रहा था

‘के एक दूध से भरा गिलास हो
और कहीं में आकर के
एक मक्खी उसमें गिर जाये
अब,
अब क्या ?
छटपटाती है वह
लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी
बाहर नकल नहीं पाती है
ठीक ऐसी ही स्थिति
बनती है एक गृहस्थ की
और हम लोग
गृह के लिए
ग्रह जो बोलते हैं
बोलचाल की भाषा में
मतलब
ग्रह-स्थित रहते हैं चिपक कर हमसे

तभी एक बालिका उठी
और आचार्य श्री के सामने खड़ी हो गई
आचार्य श्री जी ने कहा
बच्ची क्या बात है
तब वह बोली भगवान् आपने
बच्ची कहा है
मैं बची रहूॅं ग्रह-स्थी से
ऐसा कुछ कीजिए
तब गुरु जी ने एक लम्बी सी मुस्कान
के साथ गहरा सा आशीर्वाद दिया

एक बार एक पहुंचे हुये
ज्योतिषाचार्य गुरुदेव के दर्शनार्थ पधारे
आचार्य श्री का
कछुये की पीठ के जैसा
कुछ कुछ उठा हुआ पैर देख कर के बोले
भगवन् आपके तो वारे न्यारे हैं
ऐसा अद्भुत पैर किसी का
मैंने तो आज तक नहीं देखा
तब आचार्य भगवान् बोलते हैं
पंडित जी महोदय
अभी तो गर्दिश में सितारे हैं
मिथ्यात्व के साथ जन्मा हूॅं
और खुल्ले कहॉं अभी मोक्ष के द्वारे हैं
किसी और के होंगे वारे न्यारे
मेरे तो अभी गर्दिश में सितारे हैं
ज्योतिषाचार्य वाह वाह कहते हुए
चरणों में साष्टांग दंडवत कर चले

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