कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
…पद्यानुवाद…
*मंगलाचरण*
नमो जिणवर अरि-हंताणं ।
णमो सिद्धम् आ-यरि-याणं ।।
उवज्झायाणं णमो णमो ।
सव्व साहूणं णमो णमो ।।
जगत कल्याण आप करते ।
दे अभय-दान पाप हरते ।।
आप जलयान जलध जग में ।
निरत तव विरद गान मग में ।।१।।
देव दुर्लभ गुण रत्नाकर ।
थके सुरगुरु तुम गुण गाकर ।।
कमठ से हार जीत चाले ।
पार्श्व वे त्रिभुवन रखवाले ।।२।।
आप गाथा रचना चाहीं ।
मन्द-मत पढ़ा लिखा नाहीं ।।
धृष्टता कर उलूक बाला ।
सूर्य वर्णन मनु कर चाला ।।३।।
मोह क्षय पा केवल ज्ञाना ।
न होगा तुम गुण गा पाना ।।
प्रकट जल रत्न राश दिखती ।
कहो किसने कर ली गिनती ।।४।।
कखहरा भी न मुझे आता ।
सोच यह कीर्तन तुम गाता ।।
भुजाएँ अपनी फैलाकर ।
बताता शिशु सीमा सागर ।।५।।
विफल जब बड़े बड़े जोगी ।
आप थुति क्या मुझसे होगी ।।
कार्य बिन सोच समझ साधा ।
चहक चिड़िया मनु आराधा ।।६।।
दूर थुति आप ऊर्ध्व रेता ।
नाम भी पाप विहर लेता ।।
ग्रीष्म ऋत पथिक भरे हापी ।
हवा झोंका सरवर काफी ।।७।।
आप जिसके मन में रहते ।
पाप “अब हम चलते” कहते ।।
नाग चन्दन लिपटे काले ।
मोर केका सुन झर चाले ।।८।।
नजर बस पड़ जाये तेरी ।
भागती दिखे निश अंधेरी ।।
देख गोस्वामी को आते ।
चोर पशु छोड़ भाग जाते ।।९।।
तुम्हें क्यों तरण कह पुकारें ।
हृदय हम बिठा तुम्हें तारें ।।
मसक तैरे, जादू मन्तर ।
हवा जो है उसके अन्दर ।।१०।।
काम वशीभूत जगत सारा ।
आप आगे मन्मथ हारा ।।
अग्नि बुझ चाली जिस जल से ।
वही जल वडवानल झुलसे ।।११।।
सार्थ गुरु नाम आप भारी ।
तिरें रख उर तुम संसारी ।।
अगम चिन्तन गौरव गरिमा ।
झलकती करुणा, दया क्षमा ।।१२।।
क्रोध परिणाम पूर्व विनशे ।
भिड़ चले कैसे कर्मन से ।।
यदपि शीतल तुषार होता ।
उजड़ वन हरा भरा खोता ।।१३।।
खोजने तुम्हें सन्त चाले ।
हृदय बैठे डेरा डाले ।।
खोज गर कमल बीज ठाना ।
कर्णिका कमल इक ठिकाना ।।१४।।
ध्यान क्या आप लगाया है ।
दशा परमात्म रिझाया है ।।
अग्नि संजोग देर केवल ।
धातु स्वर्णिम तज भाव उपल ।।१५।।
हृदय जिस आश्रम तुम लेते ।
विदेही उसे बना देते ।।
सुमन यूॅं ही स्वभाव है ना ।
हाथ खुशबू से भर देना ।।१६।।
मान के तुम हम इक भाँती ।
तुम्हें ध्या स्वानुभूति थाती ।।
अमृत यह जल विचार ऐसा ।
‘कि निर्विष विष संशय कैसा ।।१७।।
ब्रह्म हरिहर माने दुनिया ।
तुम्हें शंकर माने दुनिया ।।
पीलिया रोग अगम लीला ।
श्वेत भी शंख दिखा पीला ।।१८।।
समय धर्मोपदेश ‘माया’ ।
वृक्ष भी अशोक कहलाया ।।
रखा सूरज ने आद कदम ।
जीव जग जागा साथ पदम ।।१९।।
पॉंखुरी ऊर्ध्व अधो डण्डल ।
वृष्टि सुर पुष्पों की अविरल ।।
सुमन जो तुम समीप आते ।
अधो गति बन्ध-कर्म पाते ।।२०।।
हृदय गम्भीर सिन्ध द्वारा ।
प्रकट तुम वाक् अमृत धारा ।।
पान कर जिसका भवि प्राणी ।
मेंट लेते आनी-जानी ।।२१।।
दूर तक नीचे जाते जो ।
तुरत फिर ऊपर आते वो ।।
चॅंवर जश ऐसा कुछ गाते ।
नत-विनत गत-ऊरध नाते ।।२२।।
दिव्य धुन श्याम तन सलोना ।
जड़ित मण सिंहासन सोना ।।
स्वर्ण गिर मेर गरजते घन ।
भविक जन मोर थिरते मन ।।२३।।
आप भा-मण्डल अहि-चीना ।
पत्र तर अशोक छवि-छीना ।।
निकटता थारी बड़भागी ।
सचेतन कौन न वैरागी ।।२४।।
देव दुन्दुभि बाजे गगना ।
शब्द करती अँगना-अँगना ।।
निरालस आ, झट इन्हें चुनो ।
यहाँ शिव सारथवाह सुनो ।।२५।।
आप मुख क्षत अँधयार हुआ ।
चन्द्रमा च्युत अधिकार हुआ ।।
सेव हित शश, समेत तारे ।
छत्र मिस देह तीन धारे ।।२६।।
स्वर्ण का कोट प्रताप समां ।
कोट चाँदी कीरत प्रतिमा ।।
कोट इक माणिक दिव पूंजी ।
कान्ति प्रति मूरत ही दूजी ।।२७।।
विनत सुर मुकुटों की माला ।
चरण तुम सेवक तत्काला ।।
सुमन तुम चरण टिके आके ।
लेख लो देख विधि उठा के ।।२८।।
आप पीछे लगना आया ।
तीर भव जल उनने पाया ।।
घड़े से आगे आप कदम ।
तारते शून्य विपाक करम ।।२९।।
नगन तुम जगदीश्वर कैसे ।
न लेखन हो, अक्षर ऐसे ।।
जड़ जिन्हें कहते अज्ञानी ।
उन्हें जानो कैसे ज्ञानी ।।३०।।
क्रोध से भर शठ कमठ चला ।
किया नभ उड़ा धूल धुंधला ।।
न छू पाया छाया तुमरी ।
उलट रज कर्म आत्म जकड़ी ।।३१।।
गरजती भीम मेघ माला ।
चमकती बिजुरी विकराला ।।
धार मूसल पानी दुस्तर ।
कमठ कृत कर्म लेप वज्जर ।।३२।।
मुण्ड माला पहने दौडें ।
प्रेत मुख से ज्वाला छोड़ें ।।
कमठ ने जिन्हें भिंजाया है ।
निकाचित कर्म बुलाया है ।।३३।।
सुमन श्रद्धा, सरगम ओमा ।
हृदय गदगद, पुलकित रोमा ।।
काम सब छोड़ तोर सिमरण ।
उन्हीं का जीवन बस धन-धन ।।३४।।
कान दे अंगुली रख छोड़ी ।
सलंगर द्रोणी कब दौड़ी ।।
मन्त्र तुम नाम न सुन पाया ।
विपद् विषधर दौड़ा आया ।।३५।।
जन्म इस जन्मांतर दूजे ।
आप पद पंकज नहिं पूजे ।।
हा ! पराभव इस भव झोली ।
दिवाली तम, अनरव होली ।।३६।।
बँधी दृग् विमोह अंधियारी ।
दर्श तुम किया न इक बारी ।।
मर्म-भेदी अनर्थ जेते ।
पॉंत लग सभी दुक्ख देते ।।३७।।
जुड़ा तुम श्रुत, यज दर्शन से ।
कहाँ जुड़ सका किन्तु मन से ।।
टूट जो रही ना दुख पंक्ती ।
क्रिया कब भाव शून्य फलती ।।३८।।
भक्त वत्सल ! शरण्य शरणा ।
नाथ हे ! पुण्य भूम करुणा ।।
नत विनत मुझे शरण लीजे ।
दलन दुख अंकुर कर दीजे ।।३९।।
सार भण्डार ! अमंगल हर !
पूर्ण मन भावन ! मंगलकर !
तलक जब सु…मरण ना होवे ।
पलक तव सुमरण न खोवे ।।४०।।
तारने वाले भव जल से ।
दया तुम निस्वारथ बरसे ।।
उठा, रख दो मुझको सुख में ।
नाक तक डूबा जल दुख में ।।४१।।
भक्ति तुम चरण कमल लूटा ।
पुण्य यदि सातिशय अनूठा ।।
तलक जब मैं दूॅं भव फेरे ।
बने रहिये स्वामी मेरे ।।४२।।
भव्य जन जे प्रमाद तज के ।
पुलक, दृग् मुक्ताफल सज के ।।
निरखते अपलक तुम आनन ।
विरचते आप भजन, वे धन ।।४३।।
अहो जन ‘नयन कुमुद चन्द्रा’ ।
पार्श्व हे ! मॉं वामा नन्दा ।।
मैल हाथों का धन पैसा ।
‘निराकुल’ कर लो खुद जैसा ।।४४।।
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