छठवां रंग
लो पुनः लागीं खोजने जै अपना,
दृग्… सुलोचना ।।१।।
क्या करूॅंगा ? ‘जो पाया हार’
सोच में पड़े कुमार ।।२।।
चाली धी-देवी,
दाहिनी ‘ओर’ बाँयी चाला कंचुकी ।।३।।
कराने लागी परि’चै’
‘धी’-खोजे’ पै सुलोचना जै ।।४।।
‘वो धी’ बढ़ के,
कहने लगी न ‘कि बढ़-चढ़ के ।।५।।
ये विद्याधर कुमार,
पार सागर विद्या अपार ।।६।।
आकाशगामी,
ये उत्तर-दक्षिण दो-पक्ष स्वामी ।।७।।
सुन, आ रहा जो किसी पे मन,
तो ले उसे चुन ।।८।।
बँधी जै स्नेह धागे,
लो सुलोचना सो बढ़ी आगे ।।९।।
मुख कमल विद्याधर,
मुर्झाये खो प्रभाकर ।।१०।।
पा जुन्हाई,
भू-पत-मुख कुमुद रौनक छाई ।।११।।
करती गुण-गान,
धी-देवी हल्की सी ले मुस्कान ।।१२।।
सबके भाग विधाता,
ये इनका चक्री से नाता ।।१३।।
इन्हीं के डर से,
‘सूर’ यहाँ-वहाँ भागे तिरछे ।।१४।।
जश इनका आया हंस बन,
न समा ‘भुवन’ ।।१५।।
सार्थक नाम
‘अर्क कीर्ति’ राजीव प्रमोद-धाम ।।१६।।
चल, जै तक पहुँचना,
कहती धी-सुलोचना ।।१७।।
बढ़ाती पग,
भू जाती ‘अर्ककीर्ति’ पैर खिसक ।।१८।।
धी-देवी पुनः,
कहने लगी सुन ‘री सुलोचना ।।१९।।
ये कलिंगिन, सुन इन आवाज,
सुन्न जांबाज़ ।।२०।।
झोली इन,
हैं गज मोती, न जेते तारे गगन ।।२१।।
हैं प्रत्युत्पन्न मति,
विराजीं कण्ठ माँ सरसुति ।।२२।।
बने विषय न किनके मन का,
जश इनका ।।२३।।
पै सुलोचना ‘जी’
‘कि लगाये नाम-जै रटना ही ।।२४।।
‘हवा-सुगंधी’
त्यों ही सुलोचना ले चाला कंचुकी ।।२५।।
पश्चात्… साह्लाद…
धी-देवी बोली कर संकेत हाथ ।।२६।।
काम-देश में जाये पूजे,
ये काम-देव ही दूजे ।।२७।।
यही यशस्वी,
और कौन तेजस्वी, यही मनस्वी ।।२८।।
इनके बिना,
‘री मान किमिच्छिक दान सपना ।।२९।।
अटका जै में जिया,
और कुल-वंती बिटिया ।।३०।।
कंगन कर चपल,
इशारे-से कहा ‘कि चल ।।३१।।
कम्मर जर्रा-सी झुकी,
वो ले चाला उसे कंचुकी ।।३२।।
बोली धी-देवी,
‘कि कम सुन्दर न कुमार ये भी ।।३३।।
काँची देश से आया,
भाँति कंचन जिसकी काया ।।३४।।
सूर दिखा के पीठ भागे,
इनके तेज के आगे ।।३५।।
हंस उदास,
‘पयस्’ पा…यश जिसका जल-राश ।।३६।।
प्रक्षाले रज-रण,
ले शत्रु नार-दृग् जल धार ।।३७।।
सुलोचना ने अरुचि जताई,
लो मिस जंभाई ।।३८।।
देख कंचुकी ने शीशे जिसे,
आगे बढ़ाया उसे ।।३९।।
बढ़के एक कदम,
कहा फिर भर के दम ।।४०।।
धी-देवी ने
‘रे सुलोचने
‘काविल’-‘इन’ से मिल ।।४१।।
अरी-अयश-जमुना, और गंगा,
इसका जश ।।४२।।
साध सुभट डूब,
ख्यात प्रयाग संगम रुप ।।४३।।
तिनके जश इनके जीमे,
शशि-हिरण जीवे ।।४४।।
इनके देश में,
न वो चीज कौन, जो विदेश में ।।४५।।
नगरिया में
सारे ‘सुमन’ इस की बगिया में ।।४६।।
इन्हें सुन,
दृग् सुलोचना, निरत उधेड़-बुन ।।४७।।
कंचुकी चाला बढ़,
सुलोचना का चेहरा पढ़ ।।४८।।
लागी बताने,
धी-देवी उसे, लक्ष्य तक भिंजाने ।।४९।।
ये राजा देश अंग,
‘रख दृग्’ बगले झाँके अनंग ।।५०।।
जाते हैं, हार
ये अपनों से तभी पाते हैं हार ।।५१।।
विनयवान् हैं,
सर्व गुण सम्पन्न, ये दयावान् हैं ।।५२।।
भाँत तुषार,
थमाई बैरिंयों को इन्होंने हार ।।५३।।
सुलोचना ने आँखें मींच,
ली यादें यूँ जै की खींच ।।५४।।
कंचुकी गया भाप,
इसे जश ये, पंचमा ऽऽलाप ।।५५।।
पद बढ़ाया, इक और दे’वि-धी’
विरद गाया ।।५६।।
गंभीर समां सिन्धु,
ये सिन्धु देश आसमाँ इन्दु ।।५७।।
इसके जैसे घोड़े,
हैं ‘जहाँ-दो’ वे बहुत थोड़े ।।५८।।
लिक्खें आँसूओं से अरि स्त्री,
इसकी यश प्रशस्ति ।।५९।।
दृग् भींगे रहें इसके हर वक्त,
समाँ दरख़्त ।।६०।।
पै सुलोचना तो जै चाहती,
लाज़मी भी, भावी सती ।।६१।।
भाषा नैन ली कंचुकी ने जान,
लो किया प्रयाण ।।६२।।
वर खोजने लगी,
धी-देवी फिर बोलने लगी ।।६३।।
पाना इसका संग सौभाग,
देश बंग चिराग ।।६४।।
वीर…द
किसी का इसी का विरद
और वि… रद ।।६५।।
सपने,
न ये सिर्फ देखे, ‘री कर भी ले अपने ।।६६।।
दुश्मन त्राहि-माम् आलापें,
इसके नाम से काँपे ।।६७।।
प्राप्त न इसे पल-पल,
वो ऐसे कौन से फल ।।६८।।
तन से,
यहाँ, ‘कुमारी सुलोचना’ कहाँ मन से ।।६९।।
जान कंचुकी, सो बढ़ चला,
बढ़ा पग अगला ।।७०।।
बोली धी-देवी ले मन्द हाँस,
राजा ये कुछ खास ।।७१।।
दिल दरिया,
जन काश्मीर देश मन वसिया ।।७२।।
इन्होंने चाँद सितारे हैं लिये छू,
खड़े-खड़े भू ।।७३।।
केशर वाला,
राजा ये राजाओं में केशरी न्यारा ।।७४।।
न लुभा पाई,
‘बढ़ाई’ सुलोचना को तो जै ‘भाई’ ।।७५।।
बढ़ा कंचुकी धीरे से,
सुलोचना भी चली पीछे से ।।७६।।
लो… छेड़ी एक और तान,
धी देवी ने ले मुस्कान ।।७७।।
इन वैरिन स्मृतियाँ शेष,
दीप ये कुरु देश ।।७८।।
गो’री इनका चन्दन वन,
जोड़ी नन्दन-वन ।।७९।।
जहाँ की नाम-धेन,
इनके यहाँ भी काम-धेन ।।८०।।
सिर्फ यहाँ तो श्वास थी,
सुलोचना तो जै के पास ही ।।८१।।
बढ़ाता पाँव,
कंचुकी वगैर ही ताव… तनाव ।।८२।।
वार्ता रूप,
धी-देवी बढ़ाती आगे यात्रा अनूप ।।८३।।
तुझ ‘सा ये जी’ विराट,
दृग् तारक देश कर्नाट ।।८४।।
दृग् शत्रु नार,
बना राखीं इसके हहा ! पनाल ।।८५।।
कामदेव न इस सदृश्य,
दृश्य यह, वह अदृश्य ।।८६।।
हाथ इस के चाँद सितारे,
चूँकि दुश्मन हारे ।।८७।।
‘हुई जै कब की’
सुलोचना हो तो कैसे सब की ।।८८।।
कंचुकी चाला फिर,
सुलोचना ने जो नाया सिर ।।८९।।
पुनः बिखेरी दन्त प्रभा,
धी देवी ने बीच सभा ।।९०।।
गौरव देश मालव ये कुमार,
पृथ्वी श्रृंगार ।।९१।।
रक्खे खबर,
मित्रों की ये, शत्रुओं की ले खबर ।।९२।।
इनके आगे,
अन्य लावण्य, भाँत लवण मात्र ।।९३।।
कोई…
‘महिमा-हिमालय’ तो यही है जग दोई ।।९४।।
पे सुलोचना,
न ही हाँ, करें किसी को न ही मना ।।९५।।
करती गई पार,
इसी प्रकार, कई कुमार ।।९६।।
होने को शाम
पै मुकाम, ले ही न आने का नाम ।।९७।।
बढ़ती जाती सुलोचना,
लगता हाथ सोचना ।।९८।।
और…
कोकिल सुलोचना, पा गई लो आम मौर ।।९९।।
सो ‘जै हो’ बोल के,
गाये गुण देवी धी ‘जी’ खोल के ।।१००।।
गिनती शूर आगे बढ़े,
हों जहाँ राजा जै खड़े ।।१०१।।
अनेक,
गुण पास इनके सभी के सभी नेक ।।१०२।।
इसका ध्वज कीरत,
दुश्मनों के लिये तीरथ ।।१०३।।
ऽरी प्राण वायु पी,
जै खड्ग ऽही, छोड़े जश काँचली ।।१०४।।
यमुना खड्ग, इनका गंगा जश,
संगम सदृश ।।१०५।।
जग जाहिर,
चित्-चुराने में, यह एक माहिर ।।१०६।।
कुलीनों वाला कुल,
कुल मिला के जै ‘निरा-कुल’ ।।१०७।।
मात शारदे का आशीष,
चक्री का ये सेनाधीश ।।१०८।।
छोड़े ये क्षमा,
तो अरी हरी-भरी छोड़े स्वयं क्ष्मा ।।१०९।।
चाँद यही,
ए ! चकोर-लोचने न जा और कहीं ।।११०।।
यात्रा युद्धों की नापी,
सखि ! इसने बिन वैशाखी ।।१११।।
ऐसा पायेगी न वर,
ले दीप भी खोजेगी गर ।।११२।।
आगे तू स्वयं समझधार,
कक्षा दूजी जो पार ।।११३।।
मंजिल पाई,
पे करना क्या, सुध-बुध गवाई ।।११४।।
तके, टकेक जै अपना,
करके बन्द नयना ।।११५।।
गहना लाज ‘नारी भारत’
तभी प्रतिभा…रत ।।११६।।
पै हाय ! विश्व विजेता जो मदन
खोले नयन ।।११७।।
फिर दृग् नीचे लिये कर,
तुरंत ही लज्जा से भर ।।११८।।
समाल ‘कर’
थाम सखी उसको सँभाल कर ।।११९।।
हूबहू साँझ समां,
लाई पास जै मुख-चन्द्रमा ।।१२०।।
दी सुलोचना ने काँपते हाथों से डाल,
‘जै माल’ ।।१२१।।
ये दृश्य,
मुदे नैन भी, न हो पाने वाला अदृश्य ।।१२२।।
पाँखुड़ी पुष्प होने लगी वर्षा,
लो दिशा-विदिशा ।।१२३।।
देने से लगे कुछ खास,
लो रत्न-दीप प्रकाश ।।१२४।।
सुगंध कुछ और हवा ले,
करे और हवाले ।।१२५।।
साथेक कई,
बाजे लो बजने को ले धुन नई ।।१२६।।
निरत जय सुलोचना गायन,
भाट चारण ।।१२७।।
सभी का लगा थिरकने मन,
लो होके मगन ।।१२८।।
सभी के सभी भाव विभोर,
कुछ लोगों को छोड़ ।।१२९।।
सातवां रंग
तभी… हो खड़ा,
हितैषी-अर्क कीर्ति लो बोल पड़ा ।।१।।
‘रे सरासर, हुआ है पक्षपात,
हमारे साथ ।।२।।
न मैं अकेला,
गया सभी के साथ में खेल खेला ।।३।।
आ अहंकार में,
राजा अकम्पन ने ठगा हमें ।।४।।
थी रक्खी पढ़ा बाला,
डालनी गले राजा जै माला ।।५।।
दिया धी देवी भी पढ़ा,
गाना जश जै बढ़ा-चढ़ा ।।६।।
और तमाशा हुआ खतम,
रहे देखते हम ।।७।।
हम तो ठीक साधारण,
आप पे नृपाभरण ।।८।।
चक्री की आँखों के तारे,
न किस के भाग सितारे ।।९।।
भर हुंकार दें आप,
जाये शत्रु आप ही काँप ।।१०।।
आँखें उठाना
‘पड़े तुम्हें’ शत्रुओं को न भगाना ।।११।।
दिग्गज भले,
‘आप नृसिंह’ रख दृग् मद गले ।।१२।।
आपके ही ये,
क्या कन्या-‘रत्न’ और भी नये-नये ।।१३।।
दे न आपको आप का धन,
किया अपशकुन ।।१४।।
की गुस्ताखी,
‘कि जिसका न जुर्माना, ‘कोई’ न माफी ।।१५।।
सजा… सम्मान,
क्या दिया जाये इन्हें, आप प्रमाण ।।१६।।
हाय ! सुना…
‘कि अर्क कीर्ति ने, लाल-आंखों को चुना ।।१७।।
होठों ने किया अपना,
‘गुण’ पलकों का फड़कना ।।१८।।
आ थमे माथ पर, ‘वगैर-श्रम’
श्रम सीकर ।।१९।।
तन सी गईं,
भृकुटीं दोनों मिल फन सी भईं ।।२०।।
रही मचल,
जिह्वा कुछ कहने को हो चपल ।।२१।।
फिर क्या ? फाड़ फाड़ गला,
जिह्वा ने बिष उगला ।।२२।।
सभी को एक साथ,
उतारती मैं मौत के घाट ।।२३।।
पिघलाती लो समान मोम,
नाथ-वंशज-सोम ।।२४।।
वायु प्रलय काल,
भिजाती किन्हें न, काल गाल ।।२५।।
आ पतझड़ तुरत,
तरु किस न छीने सम्पत् ।।२६।।
पा तुषार क्या न बनता श्रृंगार,
‘वसुधा’ भार ।।२७।।
पा शोर-मोर,
भगाते ही भुजंग चन्दन छोड़ ।।२८।।
आते ही सूर
अंधर गुरुर, क्या न चूर-चूर ।।२९।।
और हाथों को पठाती,
वहाँ, जहाँ… क्षत्रिय थाती ।।३०।।
खड्ग खींचता,
‘कि रोक लेता मित्र एक बीच आ ।।३१।।
थामिये जर्रा सी सबर,
रुकिये राजकुँवर ।।३२।।
हुआ गरम, न मिली, भसम भी
पानी खतम ।।३३।
सो जगाईये बोध,
अनुरोध, न कीजिये क्रोध ।।३४।।
और सेवक की उन्नति,
स्वामी की ही प्रगति ।।३५।।
न जुदा,
सोम ‘वंश’ नाथ, भरत की ही दो भुजा ।।३६।।
जै तो पूर्व ही हमारे,
करना क्या उन्हें किनारे ।।३७।।
दीप ‘भरत’ क्षमाधर,
आप क्यों होते काजर ।।३८।।
नियम स्वयं-वर सभा ये,
कन्या चुने जो भाये ।।३९।।
और जै भी न साधारण,
है चक्री का साधा… रण ।।४०।।
समाँ वृषभ भगवन्,
अकम्पन, जोग वन्दन ।।४१।।
भले जीतना,
पाओगे सुलोचना सति प्रीत ना ।।४२।।
मीठे वचन,
मित्र अर्ककीर्ति दे गये चुभन ।।४३।।
बोला आपा खो,
ज्ञान अपना पास अपने राखो ।।४४।।
क्षमा धारते श्रमण,
क्षत्रिय तो रसिक रण ।।४५।।
रही विनय की बात,
सो लगे वो नीतिज्ञ हाथ ।।४६।।
मार्ग बढ़िया,
स्वयंवर पै काशी राज छलिया ।।४७।।
क्या हाथी, भांति शावक सिंह
भले सेनापति जै ।।४८।।
सुलोचन से न प्रयोजन, ‘मुझे’
छल न रुचे ।।४९।।
भला इसी में,
मित्र आ मिल तू भी हम सभी में ।।५०।।
सेवक मान,
हाँ स्वामी सम्मान,
पै यहाँ गुमान ।।५१।।
कह इतना
पश्चात् दिखाता रौद्र रूप अपना ।।५२।।
जिसको देख,
मिलाने लगे हाँ में हाँ राजा ऽनेक ।।५३।।
केवल नाम अकम्पन !
सामने देख विघन ।।५४।।
शीघ्र पठाये,
मंत्री ऽवर दौड़ते दौड़ते आये ।।५५।।
वे मंतिवर कैसे ?
छिद्र पूरने में जल जैसे ।।५६।।
जोड़ के हाथ,
वे बोले ‘जि हूजिये प्रसन्न नाथ ।।५७।।
हुई गुस्ताखी,
जाने अनजाने दे दीजिये माफी ।।५८।।
वैसे हम हैं नादाँ,
सन्मत ‘भी’ न रखते ज़्यादा ।।५९।।
हम क्या हम तो जमींभार,
आप हैं जमींदार ।।६०।।
हम पाते न अभी माँ लिख,
और आप मालिक ।।६१।।
था सुना, सब आता
पै आपको गुस्सा न आता ।।६२।।
क्षमा मूरत हैं,
आप इक शुभ मुहूरत हैं ।।६३।।
गुस्ताखी की,
है हमारी,
आदत है थारी माफी की ।।६४।।
सिर्फ आपको भाता यह,
दे माफी दी वेवजह ।।६५।।
एक शरण हमारे,
हैं आप ही पालन हारे ।।६६।।
भगवन् त्राहि माम्,
कहाँ भला युद्ध का परिणाम ।।६७।।
पहले से ही हार,
हम मानते हैं उपहार ।।६८।।
‘कि अर्क कीर्ति बोले,
‘जि बनिये न अधिक भाले ।।६९।।
की ठगी,
मिल करके आप लोगों ने की दिल्लगी ।।७०।।
स्वयंवर तो माया,
गया हमें नीचा दिखाया ।।७१।।
कितना किस में हौंसला,
करेगा युद्ध फैसला ।।७२।।
अब तो होगा वहीं मिलना,
जहाँ चले छल ना ।।७३।।
रणांगन,
वो बच्चों के खेलने का, न ‘कि आँगन ।।७४।।
शेर…
जिसमे उतर सकते हैं सिर्फ़ दिलेर ।।७५।।
बल घुटनों के चले,
‘रुके’, वो न लगाये गले ।।७६।।
वहाँ उसी ने लाज राखी,
चले जो बिन वैशाखी ।।७७।।
जादू से दूर है,
चुने जादूगर मशहूर पै ।।७८।।
और मित्र समेत,
चल पड़ा संग्राम हेत ।।७९।।
जै पहुँचते पास,
‘काशीराज को देख निराश ।।८०।।
बोले तात,
है ही कौन सी इसमें चिन्ता की बात ।।८१।।
क्या नहीं व्याल,
हाथ गरुड़ कमल नाल ।।८२।।
भले न बल,
हाथी, जीती ‘ना’ चींटी रख अकल ।।८३।।
है लगता ये सारे,
चाहते दिन देखना तारे ।।८४।।
पूरी इनकी हो मुराद,
आप दो तो आशीर्वाद ।।८५।।
देख न और चारा,
काशी राज ने किया इशारा ।।८६।।
इक दूजे के विरुद्ध,
होने लगी तैयारी युद्ध ।।८७।।
डरने वाले पाप से
‘जै’ मिले आ आप-आप से ।।८८।।
न कौन-कौन,
पक्ष न्याय नीति का ले कोन-कोन ।।८९।।
जरूर देर,
पै देखा गया, जहाँ में न अंधेर ।।९०।।
सत्य पिट तो सकता,
पै निपट नहीं सकता ॥९१।।
हुये तत्पर,
पहिन बखतर योद्धा अपर ।।९२।।
ढ़ाल ली,
सभी ने एक, ‘हाथ’ दूजे तलवार ली ।।९३।।
दही मिसरी,
लगी खिलाने उन्हें माएँ सबरी ।।९४।।
लगा तिलक मस्तक,
दी बहनों ने ‘जै’ दस्तक ।।९५।।
हो ‘जै’ तुम्हारी,
आरती ले भावना यह, उतारी ।।९६।।
आँसु न आँखों से एक जुदा,
‘किया’ और अल्बिदा |।९७।।
हाथी सवार,
‘था कोई’ रथ साथ साथी सवार ।।९८।।
तेज घोड़े पे,
‘कोई सवार’ घोड़े तेज थोड़े पे ।।९९।।
दिखी, करते ही प्रयाण,
कराती गो दुग्ध-पान ।।१००।।
‘जाते बाँये से दाँया’,
लो हिरणा नजर आया ।।१०१।।
शुभ-शगुन,
यहाँ, विघटे वहाँ अपशकुन ।।१०२।।
झटका खड्ग जबरन,
जा टूटा स्त्री का कंगन ।।१०३।।
मंगल सूत्र छार-छार,
थमाते बीध कटार ।।१०४। में
सुन नगाड़ा,
चौपट लदा ऊँट-सामान सारा ।।१०५।।
रोका नजूमों ने,
पर कहा… माना कहाँ उन्होंने ।।१०६।।
विनाश काले विपरीत बुद्धि,
है कहा ही सही ।।१०७।।
न मान बात,
चल पड़े स्त्रियों से झटका हाथ ।।१०८।।
न दही मिश्री खाया,
लो… न तिलक ही गुदवाया ।।१०९।।
उड़ाते हुये धूल,
करने चले अमिट भूल ।।११०।।
आठवां रंग
समाँ संगम समा जाएँ…
थी चाह रहीं सेनाएँ ।।१।।
छू बचा-खुचा आलस सारा,
सुन बजा नगाड़ा ।।२।।
बुढ़ापा खो वो,
आये जोश में, रहे थे आपा खो जो ।।३।।
लपलपाती पैदल तलवारें भासीं,
ध्वजा सी ।।४।।
‘जै-निजी’
चार ‘चक्र’
उनका एक ही, बोले रथी ।।५।।
ले बुझा प्यास ए ! तलवार,
बोले घुड़सवार ।।६।।
ओ…ले, ले बर्षा शोले
‘के भोले, भाले-भाले ये बोले ।।७।।
दी मोर-बाल केका,
पा द्युति खड्ग बिजुरी रेखा ।।८।।
धूमिल भान,
पा रक्त आसमान साँझ समान ।।९।।
वगैर देरी,
लौटा रही दिशाएँ आवाज भेरी ।।१०।।
लड़े पदाति ही पदाति से,
बड़े न्याय नीति से ।।११।।
हाथी पे चढ़,
परस्पर भालों से, थे रहे लड़ ।।१२।।
करे डमरू का काज,
रसिकों को खड्ग आवाज ।।१३।।
चन्द्र कलंक पीन,
जोधा ज्यों मारें पैर जमीन ।।१४।।
ली गदा ‘किसी ने’ ध्वजा,
पा जै-श्री जाये ‘कि राजा ।।१५।।
खुराश्व पिट ही,
भूमि मणि-शेष-नाग अटकी ।।१६।।
हाथी गुस्से में,
बाँटे एक व्यक्ति को दो हिस्से में ।।१७।।
दाँतों में फाँसा,
हाथी-हाथी गिरि, पै मेघ सा भासा ।।१८।।
हाथी आ विधे असंख्य बाण,
फबें भौंरे समान ।।१९।।
चले आहिस्ता-आहिस्ता,
‘सभी’ गजों ने रोका रस्ता ।।२०।।
श्वेत ध्वजाएँ
निश्छल हो सफल, पाठ पढ़ायें ।।२१।।
कहें केशरी ध्वजा,
पाये निश्चल सुकून संध्या ।।२२।।
नेक अनेक आवाज,
पै नगाड़े पहनें ताज ।।२३।।
था पास… खड्ग चन्द्र हास,
किसी के आस-पास ।।२४।।
गिराने पे न गिर,
उल्टा उसके ही चढ़ा सिर ।।२५।।
होश पा, रक्त सिंचन,
बोला कोई कहाँ दुश्मन ।।२६।।
रॅंगने यम रानी वस्त्र,
थे खुर आरक्त-रक्त ।।२७।।
ध्वज चीथड़े,
‘गगन’, फटे सुन, भट गर्जन ।।२८।।
गिरा युवक,
गिर ध्वज ने ढ़का लज्जित मुख ।।२९।।
विदीर्ण वक्ष मुक्ता राशि,
‘भू’ यम दाँतों सी भासी ।।३०।।
नेक योद्धा ने,
ज्यों ‘सिर उतारा, त्यों एक योद्धा ने ।।३१।।
विष बुझे ये बाण,
लेते थे दम, लेके ही प्राण ।।३२।।
बिन हौंसले मनुष,
है ही काम किस धनुष ।।३३।।
आ गया पुनः भू,
छिदा सिर किसी का आसमां छू ।।३४।।
मानो शत्रु श्री आँसु ही गिरे,
गज मोती बिखरे ।।३५।।
खूनी असि वो, जिह्वा यम,
‘किसी को’ गतिपरम ।।३६।।
समृतांग भू वो भासी,
विश्वकर्मा शिल्प शाला सी ।।३७।।
भू भूसे छत्र,
मानो यम विछाये जीमन-पत्र ।।३८।।
थे पक्षिंयों के मजे,
यम परोसे व्यंजन सँजे ।।३९।।
इतना मद-जल-हस्ती बहा,
जा यमुना कहा ।।४०।।
कटे हाथिंयों के कान,
थे विभूसे पत्र समान ।।४१।।
बिखरे मुख कमल से,
रण भू ‘सर’ सी लसे ।।४२।।
पकड़ा पर-चक्र जोर,
‘कि थामी जै बाग-डोर ।।४३।।
जै कैसे वह ?
दूजे सूर, टपके सर्वांग नूर ।।४४।।
अलबेले,
लें पछाड़, भट-नेक, एक अकेले ।।४५।।
अतुल,
रखे जाने तलक स्वयं न पायें तुल ।।४६।।
अनोखे, स्वयं ‘लें खा’ धोखे,
खिलायें न पा भी मोके ।।४७।।
अद्भुत,
एक ‘सहज-निराकुल’ करुणा बुत ।।४८।।
दयाल,
गैरों की भी करें, अपनों सी देखभाल ।।४९।।
दें बता,
कोई इंसानों में, यदि तो यही देवता ।।५०।।
जै ने शत्रु पे खींच तलक कान,
चलाये बाण ।।५१।।
गिरी मुकुट अरि मणिंयाँ,
पुष्पों की सी लड़िंयाँ ।।५२।।
आ अर्ककीर्ति गया ‘गय’ पे,
पाने विजय जय पे ।।५३।।
जै ने अपना,
घोड़ा बुलवाया, था जै जो सपना ।।५४।।
वैणी विजय श्री,
अरि सर्पिणी सी, भासी जै असि ।।५५।।
करना जाने शत्रुओं पर कृपा न,
जै ‘कृपा…ण’ ।।५६।।
प्रहार उठे स्फुलिंगे,
जै तेजोग्नि अंगारे लगे ।।५७।।
टूटे गजों के दाँत,
लागे ‘जै’ जश अंकुर भाँत ।।५८।।
विहीन खड्ग ‘कोष’ अरि,
‘हुये’ जै अधिकारी श्री ।।५९।।
देख होती जै-से हार,
हुआ शत्रु हाथी सवार ।।६०।।
चढ़ आया जै भी हाथी पर,
होने हावी ऊ…पर ।।६१।।
नगाड़े मेघ गर्जन,
भासे बर्षा काल सा रण ।।६२।।
लो होने जै श्री राया,
हाथी शत्रु की ओर बढ़ाया ।।६३।।
समाँ तुषार,
आ बीच गये शत्रु ‘और’ कुमार ।।६४।।
मिल सभी ने वार किया,
जिया ! जै ने प्रतिकार ।।६५।।
अब जैं वार,
लो तितर-बितर शत्रु कुमार ।।६६।।
जै का जो हाथी,
पछाड़े उसने शत्रु नौ’हाथी ।।६७।।
अर्क-कीर्ति,
आ गया तभी शीघ्र बनके रथी ।।६८।।
स्वीकारा जै ने भी रथ,
सूर्य ‘सा-ही’ चाँद का पथ ।।६९।।
बुझता दीप दे अति प्रकाश,
त्यों अरि प्रयास ।।७०।।
अर्क कीर्ति ने कहा अबकी बार,
आर या पार ।।७१।।
पाके आदेश,
हुये सजग सभी शत्रु नरेश ।।७२।।
करने लगी अर्क कीर्ति की सेना,
दिनेक-रैना ।।७३।।
सजगता ही कामयाबी चाबी,
लो होने को हावी ।।७४।।
यह है होने क्या जा रहा,
जै सोच नहीं पा रहा ।।७५।।
मूॅंद नयन
करता भगवन्तों का जै स्मरण ।।७६।।
अ नमो नमः, सि नमो नमः
आ, उ, सा नमो नमः ।।७७।।
‘विदेही ‘जय’ ‘ज्ञान-देही’
जय गो-वत्स-सनेही ।।७८।।
मुदा अशेष, जुदा राग-द्वेष,
जै सुधा विशेष ।।७९।।
और छोड़ता शक्ति ऐसी,
ला देने वाली बेहोशी ।।८०।।
आ शत्रु गये बंधन में,
जै-कारे गूँजे रण में ।।८१।।
देख अपनों का विनाश,
पा जै भी, जै उदास ।।८२।।
अर्ककीर्ति को छुये फिकर,
जा क्या कहूँगा घर ।।८३।।
अपनाया,
जै ने इलाज घायलों का करवाया ।।८४।।
न वेवजह,
सुलोचना अर्चना ‘जय वजह’ ।।८५।।
मेंटने पाप संग्राम,
चाले सब ही जिन-धाम ।।८६।।
थी सुलोचना ध्यान में बैठी,
सति अनूठी ।।८७।।
साथ उसके की सभी ने पूजन,
विघ्न-हरण ।।८८।।
धो डाले पाप गन्दगी चुन-चुन,
पूजा साबुन ।।८९।।
अजूबा…
हुआ पूरा, काम अधूरा
थी क्या की पूजा ।।९०।।
सिर चढ़ के,
पाप ‘बो…ले’
तो पूजा से न बढ़के ।।९१।।
साफ गल्तिंयाँ पाप,
रबर पूजा परमेश्वर ।।९२।।
अर्क कीर्ति ने मांगी माफी,
भगवान् हुई गुस्ताखी ।।९३।।
स्वीकारते ही, बड़ी से बड़ी भूल,
आप निर्मूल ।।९४।।
नवमां रंग
जै काशी राज,
पर कुछ कम न चिंतित आज ।।१।।
हा ! चक्री पुत्र पराजित,
ये हुआ नहीं उचित ।।२।।
क्यूँ न उसे दे पुत्री अक्षमाला दूॅं,
और मना लूँ ।।३।।
“शुभस्य शीघ्रं”
भीतर काशी राज, आई आवाज ।।४।।
लो चल पड़ा,
लम्बे-लम्बे कदम अपने बढ़ा ।।५।।
लगी खबर,
अर्क-कीर्ति को होने लगी फिकर ।।६।।
क्या मरे को आ रहा मारने,
लागा वो विचारने ।।७।।
आ जाओ यम जी…’ना’
घुट-घुट भी जीना क्या जीना ।।८।।
आ काशीराज-अकम्पन
करते स्तुति वन्दन ।।९।।
क्षमा कुमार,
अनादर आप मैं ही सूत्रधार ।।१०।।
ऊपर आप,
उठाई तलवार, क्षमा कुमार ।।११।।
दें ध्यान जै की गल्तियों पे न ज्यादा,
है अभी नादाँ ।।१२।।
मन चला है,
पर अंतरंग का बड़ा भला है ।।१३।।
हम जैसों के,
कल ‘आप ही’ जल हम झषों के ।।१४।।
ग्रस भी,
राहु निन्दें, सूर्य वन्दें, त्यों आप जश भी ।।१५।।
मारी अपने पैर कुल्हाड़ी,
हाय ! हम अनाड़ी ।।१६।।
था गया कहाँ खो जाने वो बोध,
जो किया विरोध ।।१७।।
धूल मोहन,
है लगता, था उसी का सम्मोहन ।।१८।।
अब कीजिये करुणा,
पुत्री अक्ष माला अपना ।।१९।।
सुलोचना ही दूसरी,
बिलकुल हूबहू परी ।।२०।।
शगुन माल,
हंस चाल, हिरन दृग् बेमिशाल ।।२१।।
जुबां मिसरी समाँ,
आत्म विश्वास छुआ आसमाँ ।।२२।।
कक्षा दूसरी पढ़ी,
और मदद करने खड़ी ।।२३।।
अर्क-कीर्ति ने कहा प्रसन्न मन,
अय ! सु…मन ।।२४।।
गिना पराया,
थे आप अपने न समझ पाया ।।२५।।
हमें भी दीजे माफी,
कम हमारी भी न गुस्ताखी ।।२६।।
भूल हमारी ही सारी,
हा ! मति ही गई थी मारी ।।२७।।
सच में,
आया पास गुस्सा देख,
छू हंस-विवेक ।।२८।।
यदपि हितु,
पै लगते गुस्से में अपने शत्रु ।।२९।।
सबकी, पै न गुस्से की दवा,
गुस्सा ऊपरी हवा ।।३०।।
उसी की माया,
जो ‘जी’ आप लोगों का मैंने दुखाया ।।३१।।
आप नीतिवान्,
कीजिये क्षमा, किया जो अपमान ।।३२।।
न सुलोचना ‘चाह’
थी बस बने निर्मल राह ।।३३।।
बधाते धीर,
कहा काशीराज ने सुन के पीर ।।३४।।
लगाते हुये गले,
‘जि छोड़िये भी शिकवे गिले ।।३५।।
सुध आगे की लीजिये कुमार,
हा ! बीती विसार ।।३६।।
और जमाना,
दाग चन्द्रार्क आग देखो जमा…ना ।।३७।।
ये दुर्घटना,
पापादेय हमारा और कुछ ना ।।३८।।
देखिये खड़ा भिंजोये दृग् कोर,
जै भी हाथ जोड़ ।।३९।।
करुणा कीजे,
चरणों में इसे दे शरणा दीजे ।।४०।।
और भगाते,
औरों को सुना आप, गले लगाते ।।४१।।
सुनते आप दें जिन्दगी बना,
लें पेशगी भी ना ।।४२।।
देखो ! हो गुस्सा,
आप जल्दी उतनी ही दें…खो गुस्सा ।।४३।।
बना अपना,
ले आप किस-किस को न अपना ।।४४।।
किसी का रोना,
न बनाया आपने कभी खिलौना ।।४५।।
दया करुणा क्षमा निधान,
कौन आप समान ।।४६।।
और जै झुका जैसे,
अर्क-कीर्ति ने लगाया जी से ।।४७।।
दृग् अश्रु पड़े छूट,
रो पड़े दोनों ही फूट-फूट ।।४८।।
सारा मलाल गया धुल,
आपस में मिल जुल ।।४९।।
पारे बिखरे सो ‘जुड़े’
माटी घड़े कब ठीक’रे ।।५०।।
वाह अनोखा…
छू ‘मान’, बस तू ले स्वयं को छोटा ।।५१।।
और ले आया जिनालय,
हाथी पे बैठा उसे जै ।।५२।।
दर्शन,
‘किया’ लो उन्होंने अपने आगे दर्पण ।।५३।।
कराया श्रीजी न्हवन,
ले प्रासुक नीर नयन ।।५४।।
की पूजा साथ ठाठ-बाट
न एक दिवस आठ ।।५५।।
तत्पश्चात्,
किया ब्याह अक्षमाला का उसके साथ ।।५६।।
दौड़ी खुशियों की लहर,
अन्दर-घर-बाहर ।।५७।।
बुलाया दूत एक,
धर पानीय-पय-विवेक ।।५८।।
पठाया चक्री द्वारे,
काम बिगड़े बनाने सारे ।।५९।।
हो रहे होंगे गरम,
जाओ शीघ्र लेके दृग् नम ।।६०।।
पहले मन पढ़ लेना,
बाद में कुछ कहना ।।६१।।
ले गति भाँति मन,
लो पहुँचा वो चक्री सदन ।।६२।।
गा मुक्त कण्ठ से चक्री गाथा,
मौन झुका के माथा ।।६३।।
आ पड़ीं दूत मुख चन्द्र ओर,
दृग् चक्री चकोर ।।६४।।
नाम क्या ?
आप को मुझसे कहते चक्री काम क्या ।।६५।।
सुन चक्री गिर् इन्दु,
उमड़ा दूत का उर सिन्धु ।।६६।।
भगवन्-आप नाम रसिया,
पुरी काशी वसिया ।।६७।।
मैं यायावर,
हूँ ठहरा देखने आप नगर ।।६८।।
ये नगर तो है ही,
‘सुन्दर’ आप भी कम नहीं ।।६९।।
काँपे धी,
कहॉं से शुरू करूँ, आप है गुण निधि ।।७०।।
रक्खो किसकी न खबर,
सबकी तुम्हें फिकर ।।७१।।
माँ ही दूसरी,
‘आप’ कड़ी धूप में घनी छाहरी ।।७२।।
बेवजह आ जाना काम,
‘और-के’ कहाँ ये नाम ।।७३।।
निश्चिन्त्य दीप हम,
आप सूर्य जो मेंटते तम ।।७४।।
रचा राजन् ने म्हारे स्वयंवर,
थे आये कुंवर ।।७५।।
जै ही नहीं ‘जि,
थे पधारे कुमार अर्क-र्कीति भी ।।७६।।
पहना दी जै माला,
थी सुलोचना ठहरी बाला ।।७७।।
अर्क-कीर्ति से को छोड़,
बाँधी जै से जीवन डोर ।।७८।।
कुछ समझ न पाये,
अर्क-कीर्ति बातों में आये ।।७९।।
हो उठे कुद्ध,
जो माया सिर साया, खो बैठे युद्ध ।।८०।।
बोले सम्राट-पुत्री माथ, माँ हाथ,
कौन जै भाँत ।।८१।।
है योग्य निन्दा,
अर्क-कीर्ति ये कृत्य, हूँ मैं शमिन्दा ।।८२।।
दीजिये माफी,
है अर्क-कीर्ति अभी नादान काफी ।।८३।।
थोड़ा चंचल है,
पर मन उस का निश्छल है ।।८४।।
कराने वाली अनहोनी,
होगी धूल-मोहनी ।।८५।।
रो रहा मेरा ‘जी’
माँगता जगह उसकी माफी ।।८६।।
जुदा जो गुमाँ,
दे ही दी होगी, काशी-राज ने क्षमा ।।८७।।
जै की है ही न अहम् मंजिल,
जै भी रहम दिल ।।८८।।
और साम्रज्ञी तृतिया लोचना,
है ही सुलोचना ।।८९।।
बोला दूत, ले दृग् जलधार,
सुन चक्री उद्गार ।।९०।।
है आप सीधे-सादे,
हाय ! दुनिया स्वारथ साधे ।।९१।।
है आप भोले-भाले,
हाय ! छलिया दुनिया वाले ।।९२।।
भाँत माँ भूलें हमारीं,
ले लीं सिर अपने सारीं ।।९३।।
हैं सहृदय,
चुये अंग-अंग से, आप विनय ।।९४।।
और ले धूली चक्री पाँव की,
लेता राह गाँव की ।।९५।।
आ पास काशी नरेश,
देता थमा चक्री सन्देश ।।९६।।
पढ़ चक्री के भाव,
छू था हुआ काशी राज तनाव ।।९७।।
दशवां रंग
जोर-शोर से,
तैयारी शुरू ब्याह चारों और से ।।१।।
यूथ नजूम आया,
मुहुर्त शुभ देख, दिखाया ।।२।।
मंगल गीत
कहा ‘री गाओ, आओ संग संगीत ।।३।।
और आ गये राज सभा में,
भार ब्याह का थामे ।।४।।
शीघ्र ही दूत भिजाया,
ला बुला, जा जहाँ जै राया ।।५।।
कह सुनाया पैगाम,
जै के लिये कर प्रणाम ।।६।।
बोले जैं, आप चालें,
ले चाल-वायू, मैं आता ही हूँ ।।७।।
ओढ़े चुनरी भासी,
तब चाँद भा-सी पूरी काशी ।।८।।
हर ले जाते चित्त जे,
थे उकेरे भित्ति चित्र वे ।।९।।
पाया आसमाँ श्रृंगार,
पा तोरण बंधन-बार ।।१०।।
सुदूर-दूर भी न धूली कण,
था पानी सिंचन ।।११।।
द्वार मोतिंयों की प्रभा से,
हँसते हुये से भासे ।।१२।।
राज भवन भासा,
गुच्छ सुमन पा, चमन सा ।।१३।।
गोकुल भाँत, राज-प्रासाद,
गीत ‘गायें’, रभायें ।।१४।।
मन पे राज करने,
सभी बाजे लगे बजने ।।१५।।
अधिक मेघ से भी,
कर रहे थे शब्द दुन्दुभि ।।१६।।
खो तेरी-मेरी,
मारने बाजी, भेरी बाजी घनेरी ।।१७।।
बाजी वीणा,
न रह पाई, लो झाँझर भी बाजे बिना ।।१८।।
छोड़ पीछे को कोयलिया,
ओ ! बाजी लो मुरलिया ।।१९।।
बाजने लगे ढ़ोल,
करते खेल न, दिल खोल ।।२०।।
हो चली,
भाट चारण,’ध्वनि’ वाद्य अन्य खो चली ।।२१।।
तेल संस्कार
सुलोचना ने पाया, तेज अपार ।।२२।।
सब मन जो भाया,
उबटन वो गया चढ़ाया ।।२३।।
पूरी तैयारी है,
अमृत स्नान की अब बारी है ।।२४।।
लग कतार ‘नौ’ कलश कंचन,
रस चन्दन ।।२५।।
हो चाली स्नान की शुरुआत,
हंसी-ठिठोली साथ ।।२६।।
मन भाईं हैं,
‘सखिंयाँ ‘बचपन की जो आईं हैं ।।२७।।
पहली वर्षा सी,
बार-बार स्नान करती भासी ।।२८।।
पल में किया मण्डित,
थी सखिंयाँ कला पण्डित ।।२९।।
तिलक ‘दिया’ जन्य कज्जल भाँत,
केशी ललाट ।।३०।।
गजरा,
केश ‘पाये सुलोचना के’ नैन कजरा ।।३१।।
साँझ सी,
माथ केश मध्य हाटक पट्टिका लसी ।।३२।।
नग नासिका फूल,
था बना जग मोहन धूल ।।३३।।
लो कण्ठ हार थमाया,
वंश क्रमानु-सार आया ।।३४।।
झुक झूमती झुमकिंयाँ कर्ण,
पा गये सुवर्ण ।।३५।।
सभी मुंदरी वाली,
न थी एक भी अंगुली खाली ।।३६।।
मुख-सा चाँद दे दिखाई ना,
लागा देख आईना ।।३७।।
छनन-छन करतीं,
पायलिंयाँ मन हरतीं ।।३८।।
लगा सिन्दूर स्त्री जहाँ ऽवर,
पाँव का महावर ।।३९।।
इसी प्रकार,
किया गया जै का भी साज श्रृंगार ।।४०।।
माथ तिलक,
त्यों दिखा, न ज्यों दिखा आज तलक ।।४१।।
कुण्डल गाल लटके,
काम-देव रथ औ’ चके ।।४२।।
भुजा भूषण लाल मणी,
कहें ये प्रताप धनी ।।४३।।
हाथ सजल संकल्पी दान,
भाव समुद्रन-वान् ।।४४।।
पाने भा चन्द्र मुख घेरे खड़ी आ,
मोती की माला ।।४५।।
दे ही दिखाई रूप आभूषणन,
व्यर्थ दर्पण ।।४६।।
साथ राजसी अलंकार,
जै और भी मनहार ।।४७।।
रथ पे चढ़ा, तत्पश्चात्
चल पड़ा, सूर्य की भाँत ।।४८।।
इन्द्र-सा,
तब जै नखत-विभासा घिरे इन्दु सा ।।४९।।
अनेक बाजे,
आगे-आगे
ले धुन अनेक बाजे ।।५०।।
करते ता-था-थैय्या,
आगे-आगे थे नेक नचैय्या ।।५१।।
लम्बा चौड़ा सा पथ,
धीरे-धीरे पै निकला रथ ।।५२।।
नजर भर,
‘न देखा किसने जै’ जिगर धर ।।५३।।
खबर उड़ चली,
छव चन्द्रमा दिखी विरली ।।५४।।
लो पड़े चल नर-नारी,
निकल चार दीवारी ।।५५।।
काली ‘अधर’
की किसी ने तो ‘लाली-वाली’ नजर ।।५६।।
कमर हार,
किसी ने करधनी कण्ठ ली धार ।।५७।।
पहनी किसी ने उतार अंगुली,
पाँव मुंदरी ।।५८।।
था लगाना ना जहाँ पर,
लगाया लो महावर ।।५९।।
मुख में नहीं डाला,
किसी ने लाला कान निवाला ।।६०।।
किसी ने बाली कान वाली,
जल्दी में नाक में डाली ।।६१।।
आया लो सिर उघाड़,
कोई लोक लज्जा विडार ।।६२।।
समझ घड़ा,
दाबे बगल कोई गला लड़का ।।६३।।
आँखों के आगे बना छतरी,
देखे भाँत सबरी ।।६४।।
जन कितनी ही जनी,
अधरोष्ठ रखे तर्जनी ।।६५।।
देख रूप,
न निकला किन-किन मुख अनूप ।।६६।।
अपूर्व देख ये नज़ारे,
वे चित्र लिखित सारे ।।६७।।
लागे गाने, जै दीवाने,
आपस में बुदबुदाने ।।६८।।
अरे क्या चाँद ही ये आया उतर,
जमीन पर ।।६९।।
या देवराज ही,
देखा अद्वितिय इंसां आज ही ।।७०।।
या कामदेव ही,
चित्-चोर दूजा इनसा नहीं ।।७१।।
निर्झरे अंग-अंग नूर,
इन सा न कोहिनूर ।।७२।।
देखो ये भ्रुएँ,
बाँकपन हूबहू धनुषी छुयें ।।७३।।
‘री सुलोचना वह ना,
सु…लोचनों का क्या कहना ।।७४।।
पड़े लजाना,
फूल भी, देखो ‘री, है यूँ मुस्कुराना ।।७५।।
नौ रत्नों वाला,
ये हार, करता दिश् चार उजाला ।।७६।।
देखते ही न कौन बेबाक,
ऐसी शाही पोषाक ।।७७।।
और आहिस्ता-आहिस्ता,
छू चौबारे गलिंयाँ, रास्ता ।।७८।।
उदयाचल को,
चाँद छूता, वैसे जै महल को ।।७९।।
गूँजी जै कार,
जै कुमार करीब आते ही द्वार ।।८०।।
छोड़ के रथ छाँव,
चलने लगा जै पाँव-पाँव ।।८१।।
संग संगाती,
वो राह, जो विवाह मंडप जाती ।।८२।।
उड़ाये विभा स्वर्ग हंसी,
मण्डप भा रत्न राशि ।।८३।।
पद्म कतार वन्दनबार लसी,
सरोवर सी ।।८४।।
स्तंभ हीरक छुये आसमाँ,
वृक्ष पुण्य अंकुर समाँ ।।८५।।
दीखे तस्वीर अपनी,
स्फटिक की दिवालें बनीं ।।८६।।
निर्मित मणी पद्म राग,
तिलक सा मध्य भाग ।।८७।।
चौक बिखरे मुक्ताफल,
हुबहू बीज वत्सल ।।८८।।
आँगन प्रति-बिम्बित दृग्,
विभासे पुष्प सदृश ।।८९।।
थी बनी वेदी एक,
जिसमें श्री जी प्रतिमा नेक ।।९०।।
दृष्टि पड़ी,
जै ‘कि प्रार्थना प्रभो ! दो बना बिगड़ी ।।९१।।
एक सहारा तेरा,
तुम्हारे सिवा न कोई मेरा ।।९२।।
लागी लगन तुम चरण,
मेंटो जन्म मरण ।।९३।।
जल से, छिद्र भरना सीख पाऊँ,
जल चढ़ाऊँ ।।९४।।
फल चढ़ाऊँ, खा पत्थर वृक्ष सा,
फल खिलाऊँ ।।९५।।
दे प्रदक्षिणा वेदिका त्रय,
आगे बढ़ता जय ।।९६।।
आयें, स्त्री जायें समाँ लहर,
अन्त: पुर सागर ।।९७।।
कोई कुमारी,
हाटक वाली, लिये उदक झारी ।।९८।।
कोई कुमारी,
कंंचन वाली, लिये चन्दन झारी ।।९९।।
कोई कुमारी,
धाँ शाली वाली, लिये निराली थाली ।।१००।।
कोई कुमारी,
सुवर्ण वाली, लिये पुष्प पिटारी ।।१०१।।
कोई कुमारी,
गो घृत वाली, लिये नैवेद्य थाली ।।१०२।।
कोई कुमारी,
थाली दीवाली, लिये गो घृत वाली ।।१०३।।
कोई कुमारी,
धूप निराली, लिये सुरभी वाली ।।१०४।।
कोई कुमारी,
रसीले फल वाली, लिये पिटारी ।।१०५।।
‘कि ‘दो’ शब्द ये अमंगलकारी,
न कहे पुजारी ।।१०६।।
बागवाँ तभी, गूंथ पुष्प माल,
ले आया तत्काल ।।१०७।।
आई घटा-सी सुलोचना,
देखे जै चातक बना ।।१०८।।
फबे खूब वो दृग् विशाला,
सहेली संग जै-माला ।।१०९।।
सुलोचना दृग् व्यापार जादू,
सभा अंधकार छू ।।११०।।
लौं सुलोचना अंग-अंग,
पड़ी जै दृष्टि पतंग ।।१११।।
चित् सुलोचना कोकिल छेड़े राग,
जै आम्र बाग ।।११२।।
पा सुलोचना कमल गये बौंरा,
जै नेत्र भौंरा ।।११३।।
एक दूजे के हो गये,
परस्पर दोनों खो गये ।।११४।।
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