क्षमा धार, नैय्या बहुतों की पार ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।
गुस्से में घर से निकली है ।
बाहर नंगे पैर चली है ।।
बिना विचारे पीछे-आगे ।
आंख बंद करके बस भागे ।।
काँटे चुभे, खून की फूटी धार ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।१।।
नदी एक आई रस्ते में ।
बहिन मृत्यु की ही रिश्ते में ।।
कूदीं, पर न तैरना जाने ।
जलचर दौड़े ग्रास बनाने ।।
बहते वृक्ष सहारे लगी किनार ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।२।।
दिखा पहाड़ एक नभ छूता ।
करते पार, पसीना छूटा ।।
पीछे सर्प भयंकर भारी ।
भाग चली बेसुध बेचारी ।।
फिसला पैर, लुड़कते पार उतार ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।३।।
जंगल घना, भील मिल चाले ।
न सिर्फ तन, मन के भी काले ।।
और फूल नाजुक यह नारी ।
तोड़ मसलने, हा ! तैयारी ।।
बच पाई, वन देवी दीन दयाल ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।४।।
वन बाहर क्या पैर बढ़ाई ।
चेहरा पढ़, इक ठग फुसलाई ।।
बिटिया कह, घर अपने ले जा ।
और बेंच दी इक रॅंग-रेजा ।।
हाय ! स्वार्थ साधे सारा संसार ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।५।।
खूब खिलाता, खूब पिलाता ।
हर हफ्ते इक गोंच मंगाता ।।
और निकाल खून वह काफी ।
कपड़े रॅंगता था, यह पापी ।।
क्या करती ? रह जाती थी मन मार ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।६।।
कभी, वहाँ से निकला भाई ।
राम कहानी सुन, अकुलाई ।।
पैसे देकर उसे छुड़ाया ।
क्रोध न करना, नियम दिलाया ।।
बहना, गहना उत्तम क्षमा हमार ।
क्षमा धार, नैय्या बहुतों की पार ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम क्षमा प्रदीव ।।
साधो ! उत्तम मार्दव धर्म महान ।
रावण पछताया करके अभिमान ।।
मुनि बाली चढ़ गिर कैलाशा ।
आतप तपें दृष्टि रख नासा ।।
रानी मन्दो-दरी समेता ।
निकला तीन खण्ड अभिजेता ।।
आगे बढा़ न, पुष्पक नाम विमान ।
रावण पछताया करके अभिमान ।।१।।
कर अपनी आंखें अंगारा ।
बोला किसे ना जीवन प्यारा ।।
खड्ग उठाऊॅं, लाश बिछाऊॅं ।
खून बहाऊॅं प्यास बुझाऊॅं ।।
देखा नीचे, दिखे साधु रत ध्यान ।
रावण पछताया करके अभिमान ।।२।।
इसने बहिन न मुझसे ब्याही ।
बात याद यह रावण आई ।।
बोध क्रोध ने तत्क्षण क्षीणा ।
मजा चखाने का प्रण कीना ।।
लखन पतन गुरु-देव-शास्त्र अपमान ।
रावण पछताया करके अभिमान ।।३।।
इक विद्या को तुरत बुलाया ।
चीर धरा, आदेश सुनाया ।।
हूॅं किससे कम, मैं शक्ति में ।
ले अट्टाहस जा धरती में ।।
गिरि पलटा, मेंटे अरि नाम निशान ।
रावण पछताया करके अभिमान ।।४।।
मुनि बाली मन विचार आया ।
भरत चक्रि निर्माण कराया ।।
वे जिन धाम बहत्तर सारे ।
मिल ना जावें मिट्टी गारे ।।
छिंगरी पैर दबाते दया निधान ! ।
रावण पछताया करके अभिमान ।।५।।
अट्टाहस बदला क्रंदन में ।।
रावण नाम ख्यात त्रिभुवन में ।।
मन्दो-दरी दौड़ती आई ।
मुनि से सविनय क्षमा मंगाई ।।
भूल भूल प्रतिक्रमण निरत भगवान् ।
साधो ! उत्तम मार्दव धर्म महान ।।६।।
रावण मुनि पद तीरथ पाई ।
कस वीणा नस कीरत गाई ।।
ढ़ोल अश्रु जल चरण पखारे ।
भिजा गगन श्रीगुरु जयकारे ।।
पुनि दर्शन मुनि एक हृदय अरमान ।
साधो ! उत्तम मार्दव धर्म महान ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम मार्दव दीव ।।
महिमा उत्तम आर्जव धर्म अपार ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।
शकुनी हाथ थमा के गादी ।
पिता निभा परिपाट अनादी ।।
पट उतार देते जा वन में ।
लट उखाड़ लेते इक छिन में ।।
साधा सुमरण सुमर मंत्र नवकार ।
महिमा उत्तम आर्जव धर्म अपार ।।१।।
राजा बन शकुनी हुंकारा ।
कहो शत्रु जग कौन हमारा ।।
मंत्री-गण बोले इक सुर में ।
चुभें फॉंस कुरु-वंशी उर में ।।
कल नासूर बनें, दो फेंक उखाड़ ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।२।।
बे-लगाम मति रूपी घोड़ा ।
‘दीना’ नृप शकुनी ने दौड़ा ।।
वह जा रुका जगह अनजानी ।
मन मानी हिस्से मनमानी ।।
बुन चाला मकड़ी के जैसा जाल ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।३।।
कुरु वंशी धृत-राष्टर राजा ।
दिशा दिशा जश जिनका गाजा ।।
पर न आँख में उनके ज्योती ।
भेंट रहे प्रभु-पद दृग मोती ।।
उन्हें बहिन दे, क्यूँ न करूँ उपकार ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़।।४।।
अर मैना सुन्दर, गांधारी ।
प्रतिभारत प्रति-भारत नारी ।।
ना अधिकांगन, मैं अर्धागंन ।
बांध चली कह पाटी आँखन ।।
शकुनी आया साथ बहिन ससुराल ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।५।।
प्यारा भांजा, मामा प्यारे ।
रहा न ‘बच्चा’ विष घोला ‘रे ।।
भरसक पट्टी उलट पढ़ाई ।
भाई-भाई ठान लड़ाई ।।
युद्ध महाभारत उतरे बन काल ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।६।।
सौ भांजे सोये चिर निद्रा ।
मामा मन उमडे़ आनन्दा ।।
अहा ! शत्रु जड़ मूल मिटाया ।
छला किसे ? पर, समझ न आया ।।
खुश जो अपने पैर कुल्हाड़ी मार ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम आर्जव दीव ।।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।
साधो ! उत्तम शौच धर्म बेजोड़ ।।
गई रात आधी, थी लेटा ।
रही रात आधी, उठ बैठा ।।
रात अमावस, बिजुरी पानी ।
नंगे पैर, चाल मनमानी ।।
बढ़ा जा रहा इक नाले की ओर ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।१।।
पहुंचा सके न बाधा आंधी ।
नाले पहुँच कमर थी बांधी ।।
बहती लकड़ी उसे पकड़नी ।
जान डाल जोखिम में अपनी ।।
उतर चला बहती धारा में दौड़ ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।२।।
रानी साथ निकलते राणा ।
लख यह दृश्य हुआ थम जाना ।।
राजा से तब बोली रानी ।
दुखी बड़ा लगता ये प्राणी ।।
ला इसके जीवन में दीजे मोड़ ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।३।।
हाथ इशारे उसे बुलाया ।
सिर के बल वह दौड़ा आया ।।
ले दृग खुशी, विनय भावों में ।
अपनी पगड़ी रख पांवों में ।।
ढ़ोक दे चला, विनय दुशाला ओढ़ ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।४।।
गले लगा फिर राजा बोले ।
दुख अपना बोलो, ओ ! भोले ।।
लुब्धक कहे, कमी बस थोड़ी ।
पाने फिरूॅं बैल इक जोड़ी ।।
नृप बोले, चल बैल दिया, दुख छोड़ ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।५।।
राजा उसे गुशाला लाई ।
बोले, बैल खोज लो भाई ।।
लुब्धक बोला वह ना इसमें ।
राजा बोले देखूॅं चल मैं ।।
घर तेरे, वह तेरा बैल अमोल ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।६।।
लुब्धक वैभव बने देखते ।
रत्न स्वर्ण के पशु अनेक थे ।।
देख बैल कम, नृप फ़रमाई ।
कर न सकूॅंगा, यह भरपाई ।।
क्षमा मांगता हूॅं, हाथों को जोड़ ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम शौच प्रदीव ।।
महिमा सत्य धर्म की बड़ी अनूठ ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।
सिंह सेनिन सिंहपुर रजधानी ।
नाम रामदत्ता पटरानी ।।
कहूँ झूठ तो जिह्वा काटूॅं ।
फिरे जनेऊ लटका चाकू ।।
राज पुरोहित पूर्व नाम श्रीभूत ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।१।।
नाम समुद्र-दत्त व्यापारी ।
रत्न दीप सुन, रत्न पिटारी ।।
रत्न पुरोहित को दे अपने ।
चढ़ा जहाज पूरने सपने ।।
लौट रहा, तब डूबा जहाज टूट ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।२।।
लगा किनारे, ठूठ सहारे ।
बोला आन पुरोहित द्वारे ।।
मेरे रत्न मुझे लौटा दो ।
विप्र कहे ओ ! माटी माधो ।।
लगता पगलाया, या लागे भूत ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।३।।
वणिक चला नृप न्याय कराने ।
राम कथा निज लगा सुनाने ।।
आन पुरोहित नृप से बोला ।
यह झूठा, प्रभू हूॅं मैं भोला ।।
चाकू और जनेऊ रहे सबूत ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।४।।
वणिक साॅंच अब पागल होके ।
तरु चढ़ कथा कहे यह रो के ।।
दया रामदत्ता को आई ।
चौसर विप्र बुलाय खिलाई ।।
छुरी, जनेऊ जीते, जीत अंगूठ ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।५।।
दासी को भेजा रानी ने ।
पत्नी-विप्र रत्न दे दीने ।।
और रत्न मण मिला दिखाये ।
पांच रत्न निज वणिक उठाये ।।
पानी पानी, हुआ दूध का दूध ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।६।।
विप्र दण्ड भज गोबर खाया ।
मुक्के खाया, सह नहिं पाया ।।
सम्पत छीन, किया मुँह काला ।
हर कोई थू थू कह चाला ।।
काल अनिश्चित चाली कीरत रूठ ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम सत्य प्रदीव ।।
महिमा उत्तम संयम धर्म अपार ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।
पाण्डव पांच दुपद इक छोरी ।
खण्ड-प्रस्थ था आया झोरी ।।
मेहनत रंग ला चली इनकी ।
रचना चोर नयन की, मन की ।।
इन्द्र-प्रस्थ कह कर जन रहे पुकार ।
महिमा उत्तम संयम धर्म अपार ।।१।।
सुनी प्रशंसा कौरव आये ।
तले दांत अंगुलियां दबाये ।।
पानी कहाँ, जहाँ था पानी ।
पानी वहॉं, जहॉं ना पानी ।।
मायामयी फर्श, द्वार, दीवार ।
महिमा उत्तम संयम धर्म अपार ।।२।।
आशंका पानी की होती ।
पाण्डव चलें, उठा कुछ धोती ।।
फिर भी गिर इक जगह भिंजो ली ।
देख द्रोपदी हँसकर बोली ।।
अंधों के अंधे ही बाल गुपाल ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।३।।
रात रात ना आती निद्रा ।
चुभे द्रोपदी मजाक भद्दा ।।
चौसर पाण्डव बुला खिलाई ।
पासें शकुनी हाथ थमाई ।।
पाण्डव राज चिन्ह भी चाले हार ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।४।।
झुका नजर पाण्डव उठ चाले ।
कौरव बोले, क्या सब हारे ।।
सुन पत्नी भी धन कहलाई ।
बची खुची भी नाक कटाई ।।
हाय ! द्रोपदी भी कर चले निछार ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।५।।
गूंजे कौरव कान मजाका ।
हरो चीर दुश्शासन जाका ।।
हम सब अंधे कहा इसी ने ।
सिद्ध कराया, आज विधी ने ।।
मचा तीन लोकों में हाहाकार ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।६।।
लीन द्रोपदी भगवत ध्याना ।
जान उदय कृत कर्म पुराना ।।
देवों का आसन हिल चाला ।
स्वर्ग उतर सति विघ्न निवारा ।।
चीर बढ़ा जा खड़ा अखण्ड कतार ।
महिमा उत्तम संयम धर्म अपार ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम सयंम दीव ।।
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।
पाल बाल तप पछ्ताया भवदेव ।।
नाम एक भवदत्त रखा है ।
शिशु दूजे भवदेव कहा है ।।
इक दिन आगी घर में लागी ।
बच निकले बच्चे बढ़भागी ।।
छीन चला मां पिता किन्तु दुर्देव ।
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।।१।।
बड़े हुए, मेहनत रॅंग लाई ।
जेबों से ध्वनि खनखन आई ।।
कभी संघ-मुनि नगरी आया ।
उर भवदत्त विराग समाया ।।
नगन हुआ, गुरु चरण धुला दृग रेव ।
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।।२।।
कभी ग्राम इस निकला फिर से ।
मन आया लूॅं भिक्षा घर से ।।
ज़श्न आज भवदेव सगाई ।
खुश था बड़ा अहार कराई ।।
पीछे मुनि कुछ दूर चला स्वयमेव ।
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।।३।।
क्यों भवदत्त ? कहें मुनि नाना ।
क्या इसको भी श्रमण बनाना ।।
मुनि भवदेव बना कहने से ।
जब तब जुड़े प्रिया सपने से ।।
इक दिन मोड़ चला घर तरफी खेव ।
पाल बाल तप पछ्ताया भवदेव ।।४।।
मंदिर दिखा जहॉं कल घर था ।
लख प्रभु सेवारत इक वृद्धा ।।
कहॉं नागवसु ? पूछा उससे ।
चिर यौवन या रूठा उससे ।।
जीवित या बन चाली काल कलेव ।
पाल बाल तप पछ्ताया भवदेव ।।५।।
वृद्धा कहे नागवसु मैं ही ।
तुम्हें जान मुनि, देह विदेही ।।
मंदिर धन तुम खरच रचाया ।
पर न छोड़ पाये तुम माया ।।
साधा मुनि बन बारह बर्ष फरेव ।
पाल बाल तप पछ्ताया भवदेव ।।६।।
हृदय छू चली प्रिया देशना ।
मोक्ष मार्ग बस नगन भेष ना ।।
मन अब नगन बनाऊँगा मैं ।
लगन निजात्म लगाऊॅंगा में ।।
अबकी जिनगुण सम्पद् करने जेब ।
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम तप पिरदीव ।।
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।
दुखी सेठ परिजन ग्रहीत वृत त्याग ।।
उज्जैनी नगरी अति प्यारी ।
सागरदत्त नाम व्यापारी ।।
बच्चे सात विवाहित सारे ।
शशि भा सेठानी शिशु तारे ।।
लिखी कोटि छप्पन दीनारे भाग ।
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।।१।।
कर मुनि दर्श, कहे सेठानी ।
पालन में जिसके आसानी ।।
व्रत वह दीजे, भाग विधाता ! ।
साल साल भर में जो आता ।।
रोट तीज व्रत चौबीसी कर जाग ।
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।।२।।
बच्चे उलट लगे समझाने ।
व्रत वो रखें, न घर जिन खाने ।।
बच्चों की बातों में आई ।
सेठानी प्रण निभा न पाई ।।
कंकर बनी दिनारें, अनरव फाग ।
दुखी सेठ परिजन ग्रहीत वृत त्याग ।।३।।
सुता हस्तिना-पुर थी रहती ।
कहती, मैं न मदद कर सकती ।।
पुर बसंत ससुराल कहाई ।
लखा न उसने आंख उठाई ।।
भगे मित्र घर, लगे न चोरी दाग ।
दुखी सेठ परिजन ग्रहीत वृत त्याग ।।४।।
सेठ समुद्र-दत्त पुर-चंपा ।
लख साधर्मी, रख अनुकंपा ।।
बहना सेठानी को माना ।
काम-काज दे, दिया ठिकाना ।।
ज्वार दिया, कटु तेल ‘कि जगे चिराग ।
दुखी सेठ परिजन ग्रहीत वृत त्याग ।।५।।
आज हमारा व्रत शिवदाई ।
नन्द कहे, इक दिन भौजाई ।।
ननद काल, जो व्रत था तोड़ा ।
निन्दा की, हाथों को जोड़ा ।।
रोट हाथ जा ननन्द, स्वर्ण सुहाग ।
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।।६।।
कंकर, खा पलटी दीनारें ।
अपना रिश्तेदार पुकारें ।।
गूॅंज चली घर में किलकारीं ।
खुश बेटे, खुश बहुयें सारीं ।।
दीक्षित सेठ सिठानी भर वैराग्य ।
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम त्याग प्रदीव ।।
‘भा’ उत्तम आकिंचन बढ़ शश पून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।
नाम सात्यकि साधु पिता का ।
जेष्ठा नाम साधवी माता ।।
पाला पुसा चेलना माँ-सी ।
करता फिरे ठिठोली हॉंसी ।।
कहे चेलना रंग दिखाये खून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।१।।
रुद्र पूछता मांसी मोरी ।
पिता कौन, मां कौन कहो ‘री ।।
कथा चेलना ने कह दीनी ।
वन की राह रुद्र ने लीनी ।।
खिला माँ पिता से मिल हृदय प्रसून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।२।।
बेटा, दुनिया स्वास्थ साधे ।
नर-तन धर तर आये आधे ।।
जोर जरा सा और लगाना ।
दूर न हमसे अधिक ठिकाना ।।
कर सवार लो सर इस बार जुनून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।३।।
रुद्र दिगम्बर मुनि बन चाला ।
बरषा तरु-तल आसन मांड़ा ।।
ठण्डी आन खड़ा चौराहे ।
ग्रीष्म चढ़ा गिरि सूरज दाहे ।।
रात चौगुना तपता तप दिन दून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।४।।
द्वादश अंग कहे श्री जी ने ।
ग्यारह अंग सभी पढ़ लीने ।।
नौ पूरब तक पढ़ता आया ।
दश विद्यानु-वाद फिर गाया ।।
खड़ीं हाथ जोड़े विद्या मन ऊन ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।५।।
विद्या बोलीं बनकर दीना ।
सार्थक नाम ‘आप्’ हम मीना ।।
हमें शरण में ले लो अपनी ।
सधा सभी तो, तजो सुमरनी ।।
रमा रखी क्यों हृदय विरागी धून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।६।।
हाय ! रुद्र बातों में आया ।
बोल पड़ा दिखलाओ माया ।।
भ्रष्ट ज्ञान दर्शन आचरणा ।
मानो जीते जी ही मरना ।।
मंदिर व्रत बिन कलश समाधि अपून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
धर्म अकिंचन दीव ।।
उत्तम ब्रह्मचर्य अपने सा आप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।
बसंत उत्सव झूमें सारे ।
द्वारे द्वारे वन्दन वारे ।।
निकली हाथी राज सवारी ।
राजा नजर पड़ी एक नारी ।।
काम बाण भिद उपजा मन संताप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।१।।
चिड़िया चहक, न उसे सुहाती ।
बगिया महक, न उसे लुभाती ।।
भोजन उसे न अब रुचता है ।
मलमल का अचकन चुभता है ।।
सुमरे मन फिर मिलन मृग-नयन जाप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।२।।
देर रात तक नींद न आई ।
झपकी लग वह हूर दिखाई ।।
भेष भिखारी का रख लीना ।
दीनानाथ, चला बन दीना ।।
कुल मर्याद उलांघ रहा न काँप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।३।।
भिक्षाम् देही, भिक्षाम् देही ।
वह कह रहा, रूप रस नेही ।।
नैन तृप्त रस रूप चुरा के ।
गोरी पर्शित भिक्षा पाके ।।
कर धन ! धन्य ! कान सुन वचनालाप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।४।।
घर आया तिष्णा बड़ चाली ।
ले पुनि आश रूप रस प्याली ।।
रोज सुबह बन चले भिखारी ।
वह नारी पर इक दिन हारी ।।
वन फल मांग चला भिक्षुक मुख आप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।५।।
अबला बोली पति विदेश में ।
व्रति स्वदार गर, तो क्षणेक में ।।
आंगन वही वृक्ष लग जाये ।
फल जो भिक्षुक आन मंगाये ।।
और लगे फल, जो मैं सति निष्पाप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।६।।
दाब लगा दूॅं, अब मैं किसको ।
फल पक जायें, दे दूॅं इसको ।।
मन विशुद्ध नृप दाव लगाया ।
नृप समेट कर अपनी माया ।।
जा सीधे घर अपने लागा हांप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम ब्रह्म प्रदीव ।।
*दोहा*
वत्सलंग पूर्णांक पा,
जा पहुँचे शिव धाम ।
विष्णु कुमार ऋषीश को,
बारम्बार प्रणाम॥
रक्षा बन्धन पर्व महान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान॥
नमुचि, वृहस्पति, बलि, प्रहलाद ।
ज्ञाता वेद, उपनिषद आद॥
नगरी उज्जैनी मनहार ।
नृप श्री वर्मा मन्त्री चार॥
सबके सब पुतले अभिमान ।
अंग वात्सल्य सर्व प्रधान॥
दर्श ससंघ अकम्पन सूर ।
बढ़ा देख चेहरे-नृप नूर॥
बोल नीसरे ये मुख-‘मन्त’ ।
मूरख सब के सब निर्ग्रन्थ॥
तभी न कीं बातें दो ज्ञान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान॥
मुनि श्रुत सागर आते देख ।
बोल पड़ा मन्त्री नृप एक॥
बैल आ गया खा पी खूब ।
हारे मन्त्र-‘वाद’ सर डूब॥
चूँकि चुभी आ मन-मुनि वाण ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान॥
गुरु ने सुन सारी मुन बात ।
कहा ‘योग-बुत’ साधो रात॥
आ मन्त्री निश किया प्रहार ।
कीलित देख लिये तलवार॥
‘देश-निकाला, नृप फरमान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान॥
हस्ति नाग पुर पद्म नरेश ।
जीत-हृदय, बन रक्षक देश॥
वर मुँह माँगा लागा हाथ ।
बाद कभी ले लेंगे नाथ॥
मन्त्री सभी बोले दे मान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान॥
नगर ससंघ अकंपन साध ।
मंत्री दिलाई वर नृप याद॥
राज आठ दिन लिया संभाल ।
रचा यज्ञ नर-मेध कराल॥
साथ घोषणा किमिच्छ-दान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान॥
पद्म भात मुनि विष्णु कुमार ।
मुख क्षुल्लक सुन हाहाकार॥
माँग तीन डग ली बलि-भूम ।
बनकर वटु-वामन मासूम॥
बलि संकल्पित ले जल-पाण ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान॥
बल विक्रिय डग प्रथम सुमेर ।
नाप मानुषोत्तर बिन देर॥
बलि आदिक से बोले खीज ।
रख लूँ कहाँ ? कहो डग तीज॥
माँगें मन्त्रि अभय वरदान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान॥
श्रावण शुक्ला पूरण मास ।
धुन जय-जय गूँजी आकाश॥
फिर प्रायश्चित ले ऋषि राज ।
पुन: बैठ सद्-ध्यान जहाज॥
पहुँचे ‘सहज-निराकुल’ थान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान॥
रक्षा बन्धन पर्व महान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान॥
*दोहा*
रक्षा बन्धन पर्व पे,
उठा रहा सौगन्ध ।
लगा दाब पे प्राण भी
राखूँगा ‘पत- पन्थ’॥
महिमा रक्षा बंधन पर्व अपार ।
जयतु सप्त शत मुनि जय विष्णु कुमार ।।
नगरी उज्जैनी रजधानी ।
नृप श्रीधर्मा, श्रीमति रानी ।।
नमुचि, वृहस्पति, बलि प्रहलादा ।
मंत्रि मन्त्रणा मद आमादा ।।
सप्त शतक मुनि सहित पधारे ।
सूर अकम्पन तारण हारे ।।
देख भक्त जन आना जाना ।
राजा ने भी जाना ठाना ।।
रोक खड़े मन्त्री चारों के चार ।
लो पीछे, जब चलने नृप तैयार ।।१।।
राजा ने दी ढोक सभी को ।
ध्यान मग्न थे चूँकि सभी वो ।।
तभी न आर्शीर्वाद नवाजा ।
वृत्ति निरीह प्रभावित राजा ।।
झुके न, मन्त्री अड़े खड़े हैं ।
बोले, ये सब मूर्ख निरे हैं ।।
पहले ही चित चारों खाने ।
लाज बचायें, मौन बहाने ।।
चलो यहाँ से चलें शीघ्र सरकार ।
समय कीमती यूँ ही व्यर्थ निछार ।।२।।
देख मार्ग में आते मुनि को ।
मन्त्रि लगे छेड़ने उनको ।।
बैल पेट भरकर आ चाला ।
भैंस बराबर अक्षर काला ।।
उत्तर दे चाले तपाक से ।
मुनि श्रुत सागर सार्थ आप से ।।
वाद विवाद मन्त्रिगण हारे ।
गूंजे दया धर्म जयकारे ।।
साँच कहावत नीचे ऊंट पहाड़ ।
नजर चुरा मंत्री गण नौ दो ग्यार ।।३।।
मुनि ने गुरु से सब कह डाला ।
गुरु ने कहा सुनो यति बाला ।।
आती आफत के पग बांधो ।
प्रतिमा-योग वहीं जा साधो ।।
ठाना कहर संघ पर ढ़ाना ।
निकले मन्त्री लिये कृपाणा ।।
देख सामने अपना वैरी ।
किया प्रहार, न कीनी देरी ।।
कीलित सभी, खड़े बुत से लाचार ।
नृप ने सुबह देश से दिये निकाल ।।४।।
पहुंच हस्तिनापुर अब मन्त्री ।
खड़े पद्म नृप सेवक पंक्ति ।।
सिंहबल नाम शत्रु नृप पदमा ।
ला बलि खड़ा किया नृप कदमा ।।
खुश होकर नृप बोले बलि से ।
मांगो मनचाहा वर मुझ से ।।
बलि बोला, मम दृग पथ गामी !
समझें उसे धरोहर स्वामी ! ।।
हुआ अकम्पन सूर ससंघ विहार ।
कभी हस्तिनापुर लख वर्षा काल ।।५।।
बलि ने नृप वर याद दिलाया ।
सात दिवस का राज मँगाया ।।
घेर संघ जूठन फिकवाई ।
गला रुधा, यूँ धुंआ कराई ।।
दूर न जब तक यह उपसर्ग ।
साध खड़े मुनि कार्योत्सर्ग ।।
अवधि ज्ञान दृग दिया दिखाई ।
शिख ढ़िग विष्णु कुमार पठाई ।
सुन रिध विक्रियधर उपसर्ग निवार ।
हेत परीक्षा मुनि दी बाहु पसार ।।६।।
बलि से बोले विष्णु कुमारा ।
क्या बिगाड़ते साधु तुम्हारा ।।
क्यों ये पाप कार्य करते हो ।
क्या उससे भी ना डरते हो ।।
बलि बोला, ये राज हमारा ।
छोड़ इसे, यह करें विहारा ।।
ऋषि बोले, यह जा नहीं सकते ।
जगह एक बरसात ठहरते ।।
अच्छा सुनो करो इतना उपकार ।
भूमि तीन डग दे दो, बनो उदार ।।७।।
बलि बोला, ना ज्यादा दूँगा ।
बाद खबर इन सबकी लूँगा ।।
फिर क्या ? विष्णु कुंवर हुंकारे ।
बढ़ ज्योतिस्-मण्डल छू चाले ।।
डग पहले सुमेर गिर नाका ।
दूज मानुषोत्तर गिर राखा ।।
डग तीजा नभ में लहराये ।
नर, सुर, नाग धरा थर्राये ।।
निरत भक्ति सौधर्म साथ परिवार ।
मुनि सकोचि विक्रिय सुन धुन रिध-धार ।।८।।
क्षमा संघ से बलि ने मांगी ।
‘धर्म वृद्धि’ कह चले विरागी ।।
श्रावक मुनि पड़गा हरषाये ।
नवधा भक्ति अहार कराये ।।
रक्षा बंधन पर्व मनाया ।
जश मुनि विष्णु कुमार बढ़ाया ।।
प्रायश्चित लेने ऋषि बढ़ चालें ।
कर्म सभी ध्यानानल जारे ।।
समय मात्र परिणाई शिवपुर नार ।
लागी सौख्य ‘निराकुल’ अविरल धार ।।९।।
दोहा
यह रक्षा बंधन कथा, पढ़ें सुन जे जीव ।
उनके जीवन में जगे सम्यक ज्ञान प्रदीव ।।
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