(१)
*मंगलाचरण*
णमो णमो अरिहन्त जिनन्द ।
णमो णमो जिण सिद्ध अणन्त ।।
वन्दण आ-यरीय उवझाय ।
सव्व साहूणं मण वच काय ।।
एक मेक ज्यों पानी दूध ।
कर्म जुड़े स्वयमेव अटूट ।।
भक्ति विनाशे कर्म निकाच ।
आया आश लिये दर सॉंच ।।१।।
जिनके पास मोति श्रुत रूप ।
कहें तुम्हें वे ज्योति-स्वरूप ।।
नापे राह अंधेरा पाप ।
मन जो आन विराजे आप ।।२।।
हर्ष अश्रु ले, गदगद बोल ।
भजा तुम्हें थव मन्त्र अडोल ।।
निकल रोग अहि वामी देह ।
दिखें भागते निस्संदेह ।।३।।
पूर्व गर्भ तुम कंचन भूम ।
पुण्य प्रताप मनस् मासूम ।।
आप विराजे मन जब आन ।
क्या अचरज ? तन स्वर्ण समान ।।४।।
इक निर्बाध तुम्हीं सर्वेश ।
बन्धु अकारण ! जगत् हितेश ।।
सेज चित्त मम आप निवास ।
कर ही दोगे दुक्ख विनाश ।।५।।
भटक भटक अटवी संसार ।
अमृत सरित् नय कथा तिहार ।।
पा साधूॅं जब भीतर डूब ।
दबना दव-दुख, कहॉं अजूब ।।६।।
पल विहार पा पाँवन पर्श ।
कमल कतार स्वर्ण भा-दर्श ।।
मन सर्वांग पर्श पा तोर ।
श्रेय न कौन बढ़ा मुझ ओर ।।७।।
काम विराम ! अमृत ! सुन वैन ।
शिव स्वरूप रख तुमको नैन ।।
रोग रूप कॉंटे विकराल ।
किस विध आंख करेंगे लाल ।।८।।
पाहन ही इक मानस्-तम्भ ।
चूर चूर पर मानस् दम्भ ।।
कारण आप निकटता एक ।
यथा न कहीं और उल्लेख ।।९।।
संस्पर्शित तुम देह पहाड़ ।
अपहरती रज रोग बयार ।।
ध्यान द्वार तुम हृदय प्रविष्ट ।
‘सहजो’ सिद्ध समस्त अभीष्ट ।।१०।।
भव भव प्राप्त दुक्ख तुम ज्ञात ।
शस्त्र घात वत् जिनकी याद ।।
तुम सर्वग, तुम दया निधान ।
क्या करतब अब तुम्हीं प्रमाण ।।११।।
मरण समय सुन कर नवकार ।
स्वर्ग श्वान रत पापाचार ।।
ले मणमाल जाप तुम नाम ।
क्या संदेह ? विभव सुर स्वाम ।।१२।।
निर्मल चरित भले संज्ञान ।
बिन तुम भक्ति रूप श्रद्धान ।।
बन्धन मुहर विमोह किवाड़ ।
किस विध उद्-घाटित शिव द्वार ।।१३।।
अघ अंधयार ढ़का शिव-पन्थ ।
गहन गहन दुख गर्त अनन्त ।।
अगर अगार न तुम धुन दीव ।
होता कौन विमुक्ति करीब ।।१४।।
ढ़की कर्म निधि आतम ज्योत ।
विमत अलब्ध, सुदृष्ट बपौत ।।
भक्त आप ले थवन कुदाल ।
करे हस्तगत वह तत्काल ।।१५।।
स्याद् वाद गिर हिम अवतार ।
सिन्ध अमृत शिव तक विस्तार ।।
तुम पद भक्त गंग अवगाह ।
गत रज कर्म, विगत भवदाह ।।१६।।
आप भाँत मैं सुख संपन्न ।
सन्मति निर्विकल्प उत्पन्न ।।
मिथ्या यदपि तृप्ति अहसास ।
महिमा तुम अचिन्त्य अविनाश ।।१७।।
लहर सिन्ध धुन तुम सत् भंग ।
विरहित मल एकान्त निसँग ।।
कर मन्थन बुध मन मन्दार ।
करे अमृत सेवन चिरकाल ।।१८।।
अस्त्र शस्त्र से रखते प्रीत ।
शत्रु जिन्हें लेते हैं, जीत ।।
देह आप सुन्दर अभिराम ।
क्या वस्त्राभूषण का काम ।।१९।।
इन्द्र आप क्या करता सेव ।
पुण्य सातिशय भरता जेब ।।
तुम शिव पोत लगाते छोर ।
जोग प्रशंसा थुति यह तोर ।।२०।।
वाणी आप अनक्षर रूप ।
अक्षर गम्य न आप स्वरूप ।।
कल्प वृक्ष जैसे फलदार ।
तर अमि भक्ति हृदय उद्गार ।२१।।
द्वेष किसी से तुम्हें न नेह ।
मन तुम परम उपेक्ष विदेह ।।
वैमनस्य मेंटे तुम छांव ।
ऐसा और ना देव प्रभाव ।।२२।।
विरद वाँचते देवी देव ।
ज्ञान मूर्त ! तुम वन्द्य सदैव ।।
किया आपका पल गुण गान ।
प्रद सम चरित ज्ञान श्रद्धान ।।२३।।
दरश, वीर्य, सुख, ज्ञान अनन्त ।
पथि निस्वार्थ आप श्रुति पन्थ ।।
धन्य पुण्य-तन ! शिव-पथ पूर ।
थल निवार्ण बढ़ाये नूर ।।२४।।
तव थव असफल विबुध प्रयास ।
मुझे मति-मन्द कहाँ अवकाश ।।
हित-शिव कल्पद्रुम कल्याण ।
किया बहाने श्रुति सम्मान ।।२५।।
(२)
मंगलाचरण
अरिहंताणं अरिहंताणं ।
सिद्धाणं श्री आयरियाणं ।।
उवझा-याणं उवझा-याणं ।
लोए णमो सव्व साहूणं ।।
एक मेक पय पानी जैसे ।
कर्म बॅंध चले जाने कैसे ।।
भक्ति मेंटती कर्म निकाचा ।
लगा हाथ मेरे दर साँचा ।।१।।
सीप हाथ जिनके श्रुत मोती ।
कहा तुम्हें उन्होंने ज्योती ।।
रह न सकेगा पाप अंधेरा ।
मन मेरे जब आप बसेरा ।।२।।
हर्ष अश्रु ले गदगद वाणी ।
तव थव मन्त्र जाप जप प्राणी ।।
रोग सर्प बिच वामी देहा ।
पकड़ निकालें निस्संदेहा ।।३।।
तव अवतार पूर्व बलिहारी ।
पृथ्वी स्वर्ण मयी हो चाली ।।
हुआ तुम्हें मन-भवन बिठाना ।
क्या अचरज ? तन स्वर्ण समाना ।।४।।
बन्धु अकारण हितु जग तीना ।
जग निर्बाध नेत्र रख लीना ।।
मम मन सेज निवास तुम्हारा ।
अपहर ही लोगे दुख सारा ।।५।।
पग पग भव अटवी चिर नापी ।
पा तुम अमृत कथा नय वापी ।।
साधूॅं नख-शिख उसमें डुबा ।
दबे दाब दुख, कहाँ अजूबा ।।६।।
पल विहार पा तुम पद छाया ।
पद्म कतार स्वर्ण छव आया ।।
मन सर्वांग छुओ तुम मोरा ।
लाभ न कौन श्रेय बेजोड़ा ।।७।।
अमृत वचन झिर तुम मुख चन्दा ।
पिऊॅं भक्ति प्यालन सानन्दा ।।
रोग रूप काँटे भयकारी ।
किस-विध करें आंख नम म्हारी ।।८।।
मानस्-तम्भ यदपि पाषाणा ।
तदपि विहर चाला अभिमाना ।।
वजह निकटता सिर्फ तुम्हारी ।
धन ! धन ! अचिन्त्य महिमा धारी ।।९।।
तुम तन पर्वत मारुत आई ।
रोग धूल मनु शामत आई ।।
ध्यान मार्ग तुम हृदय पधारे ।
देर न, म्हारे वारे न्यारे ।।१०।।
भव भव दुक्ख प्राप्त जो हमको ।
तुम सर्वेश पता ही तुमको ।।
सिहरन उठी याद क्या कीना ।
क्या करतब अब आप प्रवीणा ।।११।।
नेत्र श्वान ने सुरगन खोला ।
सुन नवकार मन्त्र अमोला ।।
ले मण-माल आप गुण गाना ।
क्या सन्देह राज-दिव पाना ।।१२।।
भले ज्ञान चारित्र अनूठा ।
स्रोत भक्ति तुम हृदय न फूटा ।।
मुहर बन्द मोहन वह ताला ।
शिव दर कैसे ? खुलने वाला ।।१३।।
ढ़का मुक्ति पथ पाप अंधेरे ।
दुख रूपी गड्ढे बहुतेरे ।।
आगे तुम धुन चले न दीवा ।
लगे कौन मंजिल से जीवा ।।१४।।
आत्म ज्योति निधि कर्मन झाँपी ।
दृग् धर नन्द हेत ‘अर’ हापी ।।
ले तुम संस्तव रूप कुदाली ।
सहज भक्त ले मना दिवाली ।।१५।।
स्याद् वाद नय हिमगिर निसरी ।
मोक्ष अमृत सागर तक बिखरी ।।
तुम पद भक्ति गंग नदिया में ।
धुलें पाप कब संशय जा में ।।१६।।
आप हृदय लहरे सुख जैसा ।
निर्विकल्प हूॅं मैं भी ऐसा ।।
यदपि धारणा झूठ हमारी ।
पर महिमा तुम अतिशय कारी ।।१७।।
तुम धुन सिन्ध भंग सत् लहरें ।
मल एकान्त विहरतीं विहरें ।।
मन मन्दर मन्थन करतारा ।
सेवन अमृत तृप्त चिरकाला ।।१८।।
सुन्दर आप छाप शश पूना ।
व्यर्थ वस्त्र आभरण प्रसूना ।।
मित्र सभी जग शत्रु न कोई ।
अस्त्र शस्त्र सो नाहक दोई ।।१९।।
इन्द्र आप सेवा क्या करता ।
झोली आप पुण्य से भरता ।।
भव जल तरण तारने वाले ।
बड़े कीमती ये जयकारे ।।२०।।
तव धुन निरक्षरी ओंकारा ।
अ-स्पष्ट मम थुति उद्गारा ।।
तुम गुण गान समर्थ न माना ।
भॉंत कल्पतर प्रद वरदाना ।।२१।।
आप कभी ना आपा खोते ।
रुष्ट किसी से तुष्ट न होते ।।
सन्निधि आप वैर अपहारी ।
यूँ ही विनत न दुनिया सारी ।।२२।।
गाता स्वर्ग आप गुण गाथा ।
दाता ! ज्ञान मूर्ति, जग त्राता ! ।।
तत्व ग्रन्थ विद् भक्त तिहारे ।
भक्त तुम्हारे दिव शिव द्वारे ।।२३।।
वीर्य नन्त, सुख, दर्शन, ज्ञाना ।
जिसने थुति करना तुम ठाना ।।
तर कल्याण पंच तिस झोरी ।
परिणय मुक्ति राधिका गोरी ।।२४।।
तव गुण सिन्ध पार ना जोगी ।
मुझ मत-मन्द धार दृग् होगी ।।
आदर कीना थवन बहाने ।
‘साध निराकुल सहज’ तराने ।।२५।।
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