भूपाल चतुर्विंशति स्तवन
…पद्यानुवाद…
छुये जो भगवन् के चरणा ।
सुबह उठ, ले श्रद्धा सुमना ।।
आ पड़े सुख-सुरगन झोरी ।
उसी की शिव राधा गोरी ।।१।।
हहा ! संसार मरुस्थल सा ।
तुम घनी छाया के विरछा ।।
पाप-संताप ताप पाया ।
आप द्वारे न कौन आया ।।२।।
आज तुम दर्शन क्या पाये ।
कूप माँ गर्भ बहिर आये ।।
पा गई आँख रोशनी ‘नौ’ ।
आज भव सफल हुआ मानो ।।३।।
कहाँ यह वैभव सम-शरणा ।
और निस्पृहता आभरणा ।।
चरित महिमा अगम्य थारी ।
सर्व-दर्शी ओ ! त्रिपुरारी ! ।।४।।
किया मर्दन विमोह मल का ।
ज्ञान दर्पन तुम जग झलका ।
राज्य छोड़ा जैसे माटी ।
न यूँ अर अचरज परिपाटी ।।५।।
सुभग लगने वाले मन को ।
तुम्हें देखा जिसने क्षण को ।।
नाम सार्थक दीना दाना ।
तप तपा, की पूजा नाना ।।६।।
किये बस कान न गुण थारे ।
अमिट थापे उर गुण सारे ।।
पार श्रुत वह अपने जैसा ।
गुण रतन भूषण ! ना वैसा ।।७।।
ढुराते जिन्हें देव वृन्दा ।
गौर हूबहू किरण चन्दा ।।
लसित चितवन शिव वधु तरुणा ।
चॅंवर जिन जयन्त भू गगना ।।८।।
छत्र, दुन्दुभ, सुर-तरु, गीता ।
चॅंवर, झिर गुल, भावृत, पीठा ।।
अष्ट ये प्रातिहार्य धारी ।
करो जिनवर रक्षा म्हारी ।।९।।
दन्त-गज वन कमलन थिरकी ।
मण्डली देवी सुरपुर की ।।
बजे बाजे युगपत् जेते ।
दिव्य देवागम जै जै ते ।।१०।।
आँख अमृत झरना जिसमें ।
तेज अनुपम ऐसा किसमें ।।
चन्द्र मुख आप देखते ही ।
नेत्र कृतकृत, दृग्-धर मैं ही ।।११।।
मल्ल पै जगत् इन्हें बोला ।
ग्रसित मनमथ मोहन भोला ।।
मल्ल वैसे हो तुम एका ।
उर्वशी, रम्भा, सिर टेका ।।१२।।
आप दर्शन इच्छा ज्यों की ।
पल्लवित पुण्य वृक्ष त्यों ही ।।
फुल्ल नजदीक आप पहुंचे ।
लखा मुख लागे फल गुच्छे ।।१३।।
शमन कामानल जल धारा ।
करण गटगट प्रवचन धारा ।।
मेघ थिरकत सुरपत मोरा ।
और नहिं जश जिन सा धौरा ।।१४।।
प्रदक्षिण जिनगृह त्रय कीनी ।
अंजलि मुकुलित सिर लीनी ।।
आप चरणन पाई छाया ।
उन्होंने विघटाई माया ।।१५।।
आप नख मण्डल आईना ।
जिन्होंने देखा मुख अपना ।।
कान्ति, लक्ष्मी, धीरज पाई ।
कीर्ति उनकी मंगलदाई ।।१६।।
अमृत झिर गिर श्री नृप देवा ।
गेह लक्ष्मी दिव-शिव खेवा ।।
पताका धर्म तर विराजी ।
जैन मन्दिर जय नभगाजी ।।१७।।
देव, नर, नाग करें पूजा ।
तरण तारण न और दूजा ।।
पिण्ड छूटा जो कर्मों से ।
नाथ मैं सिर्फ तुम भरोसे ।।१८।।
सुबह सोकर जैसे उठते ।
वस्तु मंगल दृग् जा तकते ।।
आपके मुख जैसा कोई ।
न मंगलकर अर जग दोई ।।१९।।
कीर सद्धर्म तपोवन के ।
कोकिला काव्य नन्द वन के ।।
हंस सरवर पंकज गाथा ।
मुकुट गुणमण नुति जग त्राता ।।२०।।
स्वर्ग शिव सुख रख अभिलाषा ।
तपे तप, जप भज वनवासा ।।
भक्त तुम वचन भावना भा ।
व्याह लेते दिव-शिव राधा ।।२१।।
देवि मंगल, जश गन्धर्वा ।
न्हवन सुरपत नियोग सर्वा ।।
सोच, अब करतव क्या हमरा ।
दोल बन दोलायित हिवरा ।।२२।।
जन्म कल्याणक आराधा ।
नृत्य ताण्डव सुरपत साधा ।।
देवि झण-झण झंकृत वीणा ।
विवर्णन हो सकता ही ना ।।२३।।
देख प्रतिमा तुम मनहारी ।
हमें आनन्द बड़ा भारी ।।
देव अपलक लखने वाले ।
धरण सुख वर्णन कर हारे ।।२४।।
आज मन्दिर श्री जी देखा ।
सदन चिन्तामण ही देखा ।।
रसायन का घर देखा है ।
सिद्ध-रस कब अनदेखा है ।।२५।।
आप थुति जल अवगाहूँ मैं ।
पाप पन कषाय दाहूँ मैं ।।
निराकुल सुख इक आसामी ।
पुन: दर्शन होवे स्वामी ।।२६।।
(२)
सुबह सुबह भगवान् के,
जो उठ छूता पाँव |
स्वर्गों के सुख भोग के,
जा लगता शिव गॉंव ।।१।।
मरुथल यह संसार है,
छाँव दार तरु आप ।।
कौन ना भागा आ रहा,
तप्त पाप संताप ।।२।।
गर्भ कूप माँ नीसरा,
सफल जन्म मम आज ।
नेत्र पा गया तीसरा,
कर दर्शन जिनराज ।।३।।
महिमा अगम्य आपकी,
सर्व-दर्शी बड़भाग ।
विभव समव-शरणी कहाँ,
कहाँ आप नीराग ।।४।।
तृणवत् छोड़ा राज्य है,
मोह मल्ल को जीत ।
दर्पन-वत् झलका सभी,
और न ऐसी रीत ।।५।।
श्रद्धा से देखा तुम्हें,
अधिक न क्षण एकाध ।
दान दिया, तप भी किया,
समेत पूजा-पाठ ।।६।।
गुण तुम सुन के कान से,
किया हृदय श्रृंगार ।
गुण-मण भूषण धन्य वे,
जल स्कंध-श्रुत पार ।।७।।
देव ढ़ोरते हैं जिन्हें,
किरण चन्द्रमा भाँत ।
मण्डित चॅंवर जिनन्द वे,
जयवन्ते दिन-रात ॥८।।
छत्र, चॅंवर, धुन, वृत्त-भा,
सुर-तरु, दुन्दुभि-देव ।
पीठ, पुष्प, झिर पुन-धरा,
रक्षा करें सदैव ।।९।।
निरत नृत्य दिव देवियाँ,
वन कमलन गज दन्त ।
बाज देव बाजे रहे,
देवागम जयवन्त ।।१०।।
आँख अमृत झिर, शश प्रभा,
निरुपम मुख तुम देख ।
दृग् कृतार्थ मैंने किये,
दृग्-धर मैं ही एक ।।११।।
मोहन मोहित हो चले,
बस भोला शिव नाम ।
आप रहे जागृत सदा,
लागा दाव न काम ॥१२।।
तुम दर्शन अभिलाष से,
पल्लव पुन विरवान ।
फुल्ल पाय नजदीकता,
मुख देखत फलवान ।।१३।।
कामानल ‘के बुझ चले,
प्रवचन तुम जल धार ।
इन्द्र मोर लख झूमते,
धन ! जिनन्द जयकार ।।१४।।
भक्त भ्रमर तरु चैत्य की,
दे प्रदक्षिणा तीन ।
हाथ जोड़ चरणन खड़ा,
मनु ‘शिव’ दाता-दीन ।।१५।।
नख दर्पण में आपके,
मुख देखा चिरकाल ।
पाय, कान्ति, धृति, जश, रमा,
उसका उन्नत भाल ।।१६।।
निर्झर अमि नृप-इन्द्र श्री,
पर्वत, लक्ष्मी गेह ।
केत धर्म तरु जयत जै,
गृह-जिन देह विदेह ।।१७।।
कर्म शत्रु क्षण-मात्र में,
किये चित्त चउ-कोन ।
जयतु जयतु जिन-देव जै,
अर्चनीय तिहु भौन ।।१८।।
दर्शनीय हैं वस्तु जे,
सुबहो मंगलकार ।
अथ-इति शशि मुख आपका,
अंगुलि अनाम कतार ।।१९।।
शुक तप-वन सद्धर्म-भो,
पिक वन नन्दन छन्द ।
हंस पद्य सरवर कथा,
गुण-मण मौल जयन्त ।।२०।।
और दाह तन दे चलें,
स्वर्ग-मोक्ष रख चाह ।
भक्त आप जा शिव लगे,
ले धुन दिव्य पनाह ।।२१।।
न्हवन इन्द्र, गन्धर्व जै,
मंगल तिय-सुर अन्य ।
किं कर्तव्य विमूढ़ मैं,
साध बनूँ क्या ? धन्य ।।२२।।
नृत्य नाम ताण्डव किया,
सुरपति पल अभिषेक ।
झण-झण धुन वीणा शची,
वचन अगम अभिलेख ।।२३।।
रख प्रतिमा दृग् आपकी,
इतना जब आनन्द ।
अपलक देव निहारते,
सुख वर्णन कब सन्ध ।।२४।।
आज देख जिन धाम को,
देखा गृह रस-सिद्ध ।
देखा घर चिन्ता-मणी,
गेह रसायन रिद्ध ।।२५।।
तव थव सरित् निमग्न मैं,
मेंटूॅं तापज खेद ।
चित्त लगाता आपमें
‘दर्शन पुनः’ समेत ।।२६।।
(३)
करुणा क्षमा भण्डारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।
उठ के ले सुमन श्रृद्धान ।
छूते पॉंव श्री भगवान् ।।
वे शिव-स्वर्ग अधिकारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१।।
मरुथल भाँत यह संसार ।
भगवन् वृक्ष छायादार ।।
गुम अघ-धूप दृग् लाली ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२।।
दर्शन किये क्या जिनराज ।
निकला गर्भ माँ मनु आज ।।
धन भव ! बना दृग्-धारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।३।।
वैभव समशरण बड़भाग ।
अचरज ! और यह वैराग ।।
महिमा तुम अगम भारी ।।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।४।।
जीरण तृण समां तज राज ।
हन भट-मोह सिर शिव-ताज ।।
छव ऐसी ना अर न्यारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।५।।
जिसने तुम्हें श्रद्धा साथ ।
रक्खा नैन क्षण एकाध ।।
उसकी मनी दीवाली ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।६।।
मन से किया तुम गुण-गान ।
जिसने किये गुण तुम कान ।।
धन ! इक वही पुनशाली ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।७।।
भासे चन्द्रमा से गौर ।
ढ़ोरें देव चौंषठ चौंर ।।
जय जय शब्द नभ भारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।८।।
गुल, छत, चॅंवर, धुन संगीत ।
धृत वृत्त-प्रभा, सुर-तरु, पीठ ।।
त्राहि-माम् त्रिपुरारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।९।।
सार्थक नाम पन-कल्यान ।
देवी-देव द्युपुर आन ।।
पुन भव एक अवतारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१०।।
तेजोमय अमृत झिर आँख ।
शशि मुख आप यूँ दृग् राख ।।
कृतकृत आंख जुग म्हारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।११।।
सुर तिय डग भरा, भर दम्भ ।
सार्थक नाम उवर्शी, रम्भ ।।
‘राखी नाक’ अधिकारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१२।।
दर्शभि-लाष पल्लव वान ।
पुन-द्रुम फुल समीप प्रयाण ।।
लख अब तुम सफल क्यारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१३।।
जल उपदेश दव रति-वेग ।
इन्द्र मयूर जिनपति मेघ ।।
‘जय’ पुन सातिशय कारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१४।।
जिनगृह प्रदक्षिण दे तीन ।
श्री फल हाथ सुमरन लीन,
शिव मैं, अब न संसारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१५।।
मुख जे तकें भाव विभोर ।
दर्पण रूप नख में तोर ।।
लें टक चुनर शश तारी ।।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१६।।
पर्वत अमृत झिर सिरि स्वाम ।
सार्थक पताका जिन-धाम ।।
जय जिन चैत्य आधारी ।।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१७।।
जिनके भक्त सुर, नर, नाग ।
क्या ले चुरा कर्म, सजाग ।।
जिन वे एक शरणा ‘री ।।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१८।।
दर्शन जोग प्रात सकार ।
कोई वस्तु मंगलकार ।।
बढ़ क्या आप चरणा ‘री ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।१९।।
शुक वन धर्म, पिक वन छन्द ।
मानस हंस ! गाथा ग्रन्थ ।।
तुम गुण ‘सुमन’ श्रृंगारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२०।।
करके लक्ष्य दिव-शिव सौख ।
जप, तप, नियम नियमित लोक ।।
रति तुम यूंहि शिवकारी ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२१।।
मंगल देवि, जश गन्धर्व ।
सुरपत न्हवन रत कृत सर्व ।।
मम किम् कृत विमूढ़ा ‘री ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२२।।
सुरपत नृत्य आप प्रकार ।
वीणा देवि अन झंकार ।
वर्णन जोग वह ना ‘री ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२३।।
प्रतिमा आज राख जिनन्द ।
इतना मुझे जब आनन्द ।।
दिव दृग् गैर टिमकारी ।।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२४।।
चिन्तामण, रसायन, रिद्ध ।
देखा धाम निध रस-सिद्ध ।।
जिनगृह दृष्टि क्या डाली ।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२५।।
सुख सहजो-निराकुल खूब ।।
तव थव सरसि साधो डूब ।।
दर्शन आश पुनि थारी ।।
भगवत् कृपा बलिहारी ।।२६।।
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