“आद्य-अष्टक”
राखें, राखी लाज हमेशा ।
नमन तिन्हें वे वृषभ जिनेशा ।।
अभिनन्दित शत इन्द्र समाजा ।
आदि एक भव-जलधि जहाजा ।।
लोकालोक एक अधिशासी ।
ज्ञान-दीप जग-तीन प्रकाशी ।।१।।
बेड़ा पार करें जिन पूजा ।
मुक्ति हेत न जिन सा दूजा ।।
नाभि-राय नृप-नैन सितारे ।
मनुज, नाग, सुर तारण-हारे ।।२।।
जपे नाम तुम पाप पलाया ।
आया सूरज तिमिर बिलाया ।।
थे आने को भू, द्यु-पुर से ।
बरसे रत्न कोटि अम्बर से ।।३।।
जन्म जान शचि मंंगल गाया ।
न्हवन सुमेर सुरेन्द्र कराया ।।
आदि प्रजा पालक कहलाये ।
जिन्होंने षट्-कर्म सिखाये ।।४।।
फिर असार संसार जान के ।
ली जिन दीक्षा विपिन आन के ।।
पाया केवल-ज्ञान अनोखा ।
देखा युगपत् लोक-अलोका ।।५।।
आठ-प्राति-हारज आभरणा ।
समव-शरण अशरण इक शरणा ।।
निर्मल जैसा गंगा-पानी ।
वाणी स्याद्वाद कल्याणी ।।६।।
खोल-खोल निधि आप दिखाई ।
पाई सिद्ध शिला ठकुराई ।।
आप आप सम करने वाले ।
पाप ताप अप-हरने वाले ।।७।।
धरा स्वर्ग भवि धरने वाले ।
शिव-वधु इक भरतार निराले ।।
भाग जिन्हें पा गणधर जागे ।
‘सोम से…न जी’ जिनके आगे ।।८।।
राखें, राखी लाज हमेशा ।
नमन तिन्हें वे वृषभ जिनेशा ।।
।।पुष्पांजलिं क्षिपामि।।
“पूजन”
सुखी-नन्त ! सुख देने वाले ।
आदि पोत शिव खेने वाले ।।
आओ आओ भगवन् मेरे ।
और कौन मेरा बिन तेरे ।।
ॐ ह्रीं ‘भी’ बीजाक्षर मण्डिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्र !
अत्र अवतर-अवतर संवौषट्
इति आह्वानन ।
देव-देव में आने वाले ।
दिव-शिव-पुर ले जाने वाले ।।
हृदय पधारो भगवन् मेरे ।
और कौन मेरा बिन तेरे ।।
ॐ ह्रीं ‘भी’ बीजाक्षर मण्डिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः
इति स्थापनम् ।
अभी सुमंंगल करने वाले ।
सभी अमंंगल हरने वाले ।।
ओ अपना लो भगवन् मेरे ।
और कौन मेरा बिन तेरे ।।
ॐ ह्रीं ‘भी’ बीजाक्षर मण्डिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
इति सन्निधिकरणम् ।
सुर सरिता पानी भर लाया ।
छान जतन प्रासुक कर लाया ।।
आप चरण में पाने शरणा ।
करुँ समर्पित कीजे करुणा ।।
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अद्भुत चन्दन, सुरभी न्यारी ।
‘कर’ घिस कर भर कञ्चन झारी ।।
आप चरण में पाने शरणा ।
करुँ समर्पित कीजे करुणा ।।
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
भवाताप विनाशनाय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रभा चाँद तारे जिस हारे ।
शालि सुगन्धित तण्डुल न्यारे ।।
आप चरण में पाने शरणा ।
करुँ समर्पित कीजे करुणा ।।
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अक्षय पद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।
सोच-लोच, लोचन सुख कारी ।
दिव्य नव्य यह पुष्प पिटारी ।।
आप चरण में पाने शरणा ।
करुँ समर्पित कीजे करुणा ।।
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
कामबाण विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अनुपमेय अमि पेय सरीखे ।
सरस नवल-नव व्यन्जन घी के ।।
आप चरण में पाने शरणा ।
करुँ समर्पित कीजे करुणा ।।
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
क्षुधारोग विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जन-त्रिभुवन मन हरने वाली ।
घृत अठ पहरी दिव्य दिवाली ।।
आप चरण में पाने शरणा ।
करुँ समर्पित कीजे करुणा ।।
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लग कतार मड़राते भौंरे ।
धूप अनूप गन्ध-दश छोड़े ।।
आप चरण में पाने शरणा ।
करुँ समर्पित कीजे करुणा ।।
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अष्ट कर्म दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
देेख, प्रदेश जुबाँ खिल गीले ।
ऋत-ऋत मृदु फल दिव्य रसीले ।।
आप चरण में पाने शरणा ।
करुँ समर्पित कीजे करुणा ।।
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
मोक्ष फल प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जल, चन्दन, तण्डुल, गुल प्यारे ।
व्यंजन, दीप, धूप, फल न्यारे ।।
आप चरण में पाने शरणा ।
करुँ समर्पित कीजे करुणा ।।
ॐ ह्रीं श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपदप्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“कल्याणक अर्घ”
शेष मास षट् गर्भ, अजूबा ।
बरसे रत्न अयोध्या डूबा ।।
दिव छप्पन सुकुमारिंयाँ आईं ।
भेंट दिव्य माँ मरु-हित लाई ।।
ॐ ह्रीं आषाढ कृष्ण द्वितीयायां
गर्भ मंगल मंडिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आज पुरी साकेत सजाई ।
द्वार नाभि-नृप बजी बधाई ।।
आदि प्रभु ने जनम लिया है ।
न्हवन मेरु सौ-धरम किया है ।।
ॐ ह्रीं चैत्र कृष्ण नवम्यां
जन्म मंगल मंडिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
विष क्यों आगे ‘विष’य लगाया ।
विसर विषय, ठुकराई माया ।।
बैठ पालकी आये वन में ।
पट फेंके, लट खेंचे छिन में ।।
ॐ ह्रीं चैत्र कृष्ण नवम्यां
तपो मंगल मंडिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
धुनि अन-आखर ‘आखर-ढ़ाई’ ।
दूर नहीं अब शिव ठकुराई ।।
भींजे नयना, तीजे नयना ।
साथ सींह हिरणा सम-शरणा ।।
ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्ण एकादश्यां
केवल ज्ञान प्राप्ताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ह्रश्व पाँच स्वर पढ़ पाते हैं ।।
पार ‘थान-गुण’ बढ़ जाते हैं ।।
‘सहज-निराकुलता’ मनभाई ।
समय मात्र भू-अष्टम् पाई ।।
ॐ ह्रीं माघ कृष्ण चतुर्दश्यां
मोक्ष मंगल मंडिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
==विधान प्रारंभ==
“अष्ट दलकमल पूजा
विधान की जय“
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो जिणाणं*
जिनके नख दर्पण में भाई ।
मुकुट-बद्ध मुख शतक दिखाई ।।
वे जग तीन, अकेले स्वामी ।
सेवक ! बना रखें अनुगामी ।।१।।
ॐ ह्रीं नरक तिर्यंच दुर्गति निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो ओहि-जिणाणं*
शस्त्र सुसज्जित देवों द्वारा ।
जिनका अभिनन्दित जय कारा ।।
पार उतारन भव जल नैय्या ।
करें हमारे ऊपर छैय्या ।।२।।
ॐ ह्रीं छिद्रान्वेष दुर्मति निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो परमोहि-जिणाणं*
ध्यायें बुध मन थिर इक करके ।
पाद-पीठ तुम मस्तक धर-के ।।
ऐसे तुम, मैं बालक नन्हा ।
थव-तव करना काले पन्ना ।।३।।
ॐ ह्रीं निस्वार्थ सहाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वोहि-जिणाणं*
गुण तुमरे गा सका कौन है ।
सुर-गुरु भी जब लिया मौन है ।।
एक भक्त वत्सल तुम जग में ।
संस्थित करो हमें शिव-मग में ।।४।।
ॐ ह्रीं जल जन्तु भय विमोचकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अणंतोहि-जिणाणं*
बचपन से मति मेरी मोटी ।
ऊपर से मति मेरी खोटी ।।
फिर भी गूँथूँ तुम गुण माला ।
कारज पुण्य कराने वाला ।।५।।
ॐ ह्रीं मनोवांछित फल प्रदाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो कोट्ठ-बुद्धीणं*
हँसी उड़ायेंगे बुध मेरी ।
प्रेरित करे भक्ति पर तेरी ।।
तभी करूँ जिनपति तुम पूजा ।
और न भक्त सहाई दूजा ।।६।।
ॐ ह्रीं अल्प बुद्धि निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो बीज-बुद्धीणं*
आये पाप बँधे भव-भव से ।
आप आप छूटें तव-थव से ।।
तभी करूँ बस यजन आप का ।
ताकि न हो आ-गमन पाप का ।।७।।
ॐ ह्रीं पाप फल विनाशकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पदानु-सारीणं*
संस्तुति बेड़ा पार लगाई ।
ऐसा सुन, थुति आप रचाई ।।
आप धाम-शिव नाम किया है ।
तभी शाम तव नाम लिया है ।।८।।
ॐ ह्रीं संकट मोचनयाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जल ले के, चन्दन ले के मैं ।
अक्षत लिये, सुमन ले के मैं ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, दो लगा किनारे ।।
ॐ ह्रीं अष्टदल कमल हृदयस्-थिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“षोडश दलकमल पूजा
विधान की जय”
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सभिण्ण-सोदाराणं*
रहे दूर गुण संस्तव थारा ।
अरुक-अथक सुर-गुरु विस्तारा ।।
व्यथा-कथा भी तुम हर लेती ।
अता पता नहिं लगने देती ।।९।।
ॐ ह्रीं अरिष्ट ग्रह निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सयं-बुद्धाणं*
होता निमिष न तुम्हें सुमरते ।
सुनते तुम समान खुद करते ।।
रस-पारस तुम आगे झूठा ।
तव-थव पारस-पर्श अनूठा ।।१०।।
ॐ ह्रीं दारिद्रय निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पत्तेय-बुद्धाणं*
एक तुम्हारा साँचा द्वारा ।
दर्शन तुम निरसन भवकारा ।।
और दिलाते सिर्फ दिलासा ।
एक आप पूरण अभिलाषा ।।११।।
ॐ ह्रीं तुष्टि पुष्टि करणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो बोहिय-बुद्धाणं*
रूप आपका सुन्दर जैसा ।
कहाँ तीन जग अन्दर वैसा ।।
चन्दर-चन्दन दाग-नाग-से ।
सदा परेशां भान-आग से ।।१२।।
ॐ ह्रीं मनकाम रूप प्रदाय
श्रीवृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो ऋजु-मदीणं*
सुर-नर-नाग मान अपहारी ।
अनुपमेय तुम मुख अविकारी ।।
विरच आप मुख समेत काया ।
बचे द्रव्य से चाँद बनाया ।।१३।।
ॐ ह्रीं स्व शरीर रक्षकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो विउल-मदीणं*
गुण-अनन्त ! जो तुम्हें सुमरते ।
निर्भय देव समान विचरते ।।
देखें उन्हें बलाएँ डरतीं ।
देखें उन्हें कलाएँ वरतीं ।।१४।।
ॐ ह्रीं भूत प्रेतादि भय निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दसपुव्वियाणं*
शर-कटाक्ष ले सुर-तिय आईं ।
अचल आप मन डिगा न पाईं ।।
घुटने टेक झुका फिर माथा ।
चलीं भक्त भगवन् ले नाता ।।१५।।
ॐ ह्रीं रंगाँगन रक्षणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो चोद्दस-पुव्वियाणं*
जगत प्रकाशित करने वाले ।
आप अलौकिक दीप निराले ।।
नाम न निशाँ धूम का भाई ।
दिया तले न तिमिर दिखाई ।।१६।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्य-वशीकरणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अट्टंग-महा-निमित्त-कुसलाणं*
आखर आप प्रभाकर न्यारे ।
पाप शर्बरी नाशन-हारे ।।
लख भवि पद्म तुम्हें खिल जाते ।
तभी भक्त-वत्सल कहलाते ।।१७।।
ॐ ह्रीं मन्द कषाय करणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउव्व-इड्ढि-पत्ताणं*
आप पूर्णिमा वाले चन्दा ।
सिन्धु-भविक इक प्रद आनन्दा ।।
न सिर्फ छिन, दिन रात अकेले ।
मेंट रहे पन-पाप अंधेरे ।।१८।।
ॐ ह्रीं क्रोध उन्मूलन समर्थाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विज्जा-हराणं*
दूर उठाना-नजर तुम्हारा ।
मुख हरने वाला अँधियारा ।।
कान्ति मान ही भान दूसरा ।
सौम्य सोम भी मान दूसरा ।।१९।।
ॐ ह्रीं मन कालुष्य निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो चारणाणं*
देव ! पास तुम जो प्रभाव है ।
उसका औरों में अभाव है ।।
उर-सर भाँति विराजो हंसा ।
कौन सिवा-तुम पूरण मन्शा ।।२०।।
ॐ ह्रीं व्यापार वृद्धि बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पण्ण-समणाणं*
दर्पण जैसा दर्शन तेरा ।
मेंटे पाप कलंक घनेरा ।।
मन पावन क्या आप समाये ।
भर दामन खुशिंयों से जाये ।।२१।।
ॐ ह्रीं सौभाग्य साधकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आगास-गामीणं*
अद्भुत माँ-बेटे का नाता ।
बड़ी भागशाली वह माता ।।
जिसने जन्म दिया है तुम को ।
तुमने ‘दिया’ दिखाया हम को ।।२२।।
ॐ ह्रीं अकुटुम्ब बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आसी-विसाणं*
आप नाम जो सुमरण करते ।
आप शाम वो सु-मरण वरते ।।
पाप घातने भीतर जाऊँ ।
आप भाँत मैं भी-तर जाऊँ ।।२३।।
ॐ ह्रीं जिन दीक्षा बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दिट्ठि-विसाणं*
बुद्ध, ब्रह्म, क्या विष्णु, महेशा ।
ख्यात नाम अर देश विदेशा ।।
सभी आप गुण तथा नाम हैं ।
सिवा आप क्या चार धाम हैं ।।२४।।
ॐ ह्रीं आजिविका बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भर लाया जल-चन्दन झारी ।
धान-शालि-सित, पुष्प पिटारी ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करुँ यजन, दुख मैंटो सारे ।।
ॐ ह्रीं षोडशदल-कमल
हृदयस्-थिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“चतुर्विंशतिदल कमल पूजा’
विधान की जय”
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो उग्ग-तवाणं*
बुद्ध प्रबुद्ध सु-बुद्धि प्रदाता ।
कृत विधान शिव पन्थ विधाता ।।
शंकर ! कर देते सुखिया हो ।
पुरुषोत्तम, सुनु-मनु मुखिया हो ।।२५।।
ॐ ह्रीं दृष्टि दोष निरोधकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दित्त-तवाणं*
विपदा-हरण आप की जय हो ।
जगदा-भरण आप की जय हो ।।
जय हो जय हो त्रिभुवन शरणा ।
जय हो जय हो तारण तरणा ।।२६।।
ॐ ह्रीं अर्ध शिरः पीडा शामकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो तत्त-तवाणं*
प्रभो आपके सद्-गुण उतने ।
है सागर में जल-कण जितने ।।
दोष कोश हाँ होगा कोई ।
इक निर्दोष जगत् तुम दोई ।।२७।।
ॐ ह्रीं शत्रु उन्मूलन समर्थाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो महा-तवाणं*
पुण्य उदय तरु अशोक आया ।
करे घनी तुम ऊपर छाया ।
यथा नाम गुण तथा हुआ है ।
जब से पद जुग आप छुआ है ।।२८।।
ॐ ह्रीं आक्रन्दन शोक परिहारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-तवाणं*
मनहर सिंहासन सोने का ।
पार्श्व खचित मणि रत्न अनेका ।।
दल सहस्र तिस ऊपर साजे ।
मुद पद्मासन आप विराजे ।।२९।।
ॐ ह्रीं नेत्र पीडा विनाशकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-गुणाणं*
निर्मल जैसे गंगा धारा ।
चौषठ वैसे चँवरों द्वारा ।।
देवों के मिल अधिपति सारे ।
अर्चन करें, लगा जयकारे ।।३०।।
ॐ ह्रीं रिद्धि-सिद्धि प्रदायकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो घोर-परक्-कमाणं*
राज त्रिजग इक छत्र प्रमाणा ।
छत्र-त्रय शशि कान्ति समाना ।।
जिन्हें रत्न झालर-कुल घेरे ।
घूम रहे प्रभु ऊपर तेरे ।।३१।।
ॐ ह्रीं अपकीर्ति निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-गुण-वंभ-यारिणं*
बाजे नभ सुर गभीर भेरी ।
जय जय कार करे इक तेरी ।।
कहे यहाँ शिव नाव खिवैय्या ।
और अभी खाली शिव नैय्या ।।३२।।
ॐ ह्रीं सत्पथ प्रदर्शकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आमो-सहि-पत्ताणं*
बरसे गन्धोदक गद-हारी ।
बहे पवन धीमी गुण-कारी ।।
दिव्य नव्य पुष्पों की बरसा ।
देख जिसे मन कौन न हरषा ।।३३।।
ॐ ह्रीं समस्त ज्वर रोग शामकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो खेल्लो-सहि-पत्ताणं*
अनगिन सूरज भी जिस आगे ।
लगते फीके-से हत-भागे ।।
रुतवा भा-मण्डल का इतना ।
फिर क्या तन-मण्डल का कहना ।।३४।।
ॐ ह्रीं गर्भ संरक्षकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो जल्लो-सहि-पत्ताणं*
नाव स्वर्ग शिव खेने वाली ।
राज हंस मति देने वाली ।।
दिव्य अलौकिक तेरी वाणी ।
सहज जिसे समझें सब प्राणी ।।३५।।
ॐ ह्रीं अतिवृष्टि अनावृष्टि निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विप्पो-सहि-पत्ताणं*
अवसर तव विहार जब आता ।
दल देवों का कमल बिछाता ।।
अंगुल चार अधर पग धरते ।
रख-‘कर-चार’ नजर पग धरते ।।३६।।
ॐ ह्रीं बान्धव बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सव्वो-सहि-पत्ताणं*
विभव आप का अद्भुत जैसा ।
वैभव और न त्रिभुवन वैसा ।।
दिन-तारक में तेज महा जो ।
तारक-गण में तेज कहाँ वो ।।३७।।
ॐ ह्रीं वैभव वर्धन समर्थाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो मण-बलीणं*
मद हाथी का लगता कँपने ।
‘मनके’ नाम आप बस जपने ।।
कर से फूल माल पहरा के ।
करे नमन गज सूड़ उठा के ।।३८।।
ॐ ह्रीं कामानल उपशामकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो वच-बलीणं*
लाल लाल दृग् मानो शोला ।
सुन गर्जन मन दिग्-गज डोला ।।
लख ऐसा सिंह बढ़ते आते ।
भक्त तुम्हारे भय नहिं खाते ।।३९।।
ॐ ह्रीं श्वान वृत्ति विधूताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो काय-बलीणं*
झपटे जन-धन ग्रास बनाने ।
लपटें लगी गगन बतियाने ।।
पा यूँ आग नाम तुम पानी ।
रुख ले मोड़, छोड़ मनमानी ।।४०।।
ॐ ह्रीं राग आग परिदाहनाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो खीर-सवीणं*
खड़ा पूँछ-पे फणा उठाये ।
फुन्कारे भू-गगन डुलाये ।।
सम्मुख नाग भयंकर भारी ।
करे-पार तुम नाम-पुजारी ।।४१।।
ॐ ह्रीं विष विषय रति हरणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सप्पि-सवीणं*
तान भृकुटिंयाँ आँख दिखाये ।
हद उलाँघ बढ़ता ही आये ।।
रण अजेय पर-चक्र पलक में ।
आप भक्त के होता हक में ।।४२।।
ॐ ह्रीं रणाँगन रक्षणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो महुर-सवीणं*
शत्रु शक्तिशाली हा ! ज्यादा ।
करने रक्त पात आमादा ।।
भक्त आपका बाजी मारे ।
जोधा देखे दिन में तारे ।।४३।।
ॐ ह्रीं कर्मारि विध्वंसकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अमिय-सवीणं*
पवन-प्रलय जिसको झकझोरे ।
जहाँ न मच्छ-मगर हैं थोड़े ।।
सागर ऐसा अपरम्पारा ।
ले भुजबल तिर भक्त तुम्हारा ।।४४।।
ॐ ह्रीं संसार सागर तारणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अक्खीण-महा-णसाणं*
रोग प्राण-लेवा आ कोई ।
आँखें भिंजा रहा हा ! दोई ।।
लेते ही तुम नाम दवाई ।
लेता अपने आप बिदाई ।।४५।।
ॐह्रीं मारी बीमारी निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो वड्ढ-माणाणं*
नख-शिख बन्धन श्रृंखल वाला ।
छाया तम कारा-गृह काला ।।
नाम आप-भर लेता जाये ।
बाहर कारा आ दिखलाये ।।४६।।
ॐ भव बन्धन विमोचकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सव्व सिद्धा-यदणाणं*
ऐसी और और बाधाएँ ।
देख तुम्हें थर-थर कँप जाये ।।
पग उलटे फिर भागें ऐसे ।
देख मोर अहि-काले जैसे ।।४७।।
ॐ ह्रीं भय सप्तक विनाशकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वसाहूणं*
भक्तामर यह गौरव गाथा ।
कण्ठ इसे भवि जो पधराता ।।
भोग-भोग वो स्वर्गिक सारे ।
करे पहुँच शिव वारे न्यारे ।।४८।।
ॐ ह्रीं निरा’कुल प्रदाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“पूर्णार्घं”
जल पावन, वावन चन्दन ले ।
अक्षत अछत, सुमन मोहन ले ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, टक दो जश तारे ।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशति दल कमल
हृदयस्-थिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“महा-अर्घं”
जल मीठा लें चन्दन नीका ।
तण्डुल, गुल-कुल आप सरीखा ।।
चरु ले, दीप-धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, हित शिरपुर द्वारे ।।
ॐ ह्रीं अष्ट-चत्वारिंशद्-दलकमल
हृदयस्-थिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
:: जाप्य ::
।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अर्हं
श्री वृषभ नाथ तीर्थंकराय नमः ।।
==जयमाला==
“लघु चालीसा”
“दोहा”
संचित, सिंचित पाप का,
करने काम तमाम ।
आदिनाथ भगवान् का,
काफी केवल नाम ।।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।
बनें हमारे, शरण सहारे ।।
देश नाम कौशल शुभ कारी ।
मध्य पट्-टनन पुरु मन हारी ।।
नाभिराम नृप नयन सितारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।१।।
कृत कारित से, अनुमोदन से ।
निरत काज शुभ मन वच तन से ।।
पाप ताप हर, पालन हारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।२।।
जन्म हुआ, सुर पति ने आके ।
मंंगल द्रव्य दिव्य शुभ लाके ।।
कीना न्हवन लगा जय कारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।३।।
पहनाये कंकण हाथों में ।
फिर आँजा काजल आँखों में ।।
भासे चाँद देव-गण तारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।४।।
मुख मन-हरण, समुन्नत माथा ।
देख देख हरषायें माता ।।
ताण्डव विस्मित देखें सारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।५।।
विस्तृत क्षितिज राज तज दीना ।
विपिन ओर मुख अपना कीना ।।
वस्त्र उतारे, केश उखारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।६।।
आसन माड़ निजातम ध्याया ।
कर्म घातिया चार खपाया ।।
झलके ज्ञान अपूर्व नजारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।७।।
लगा सम-शरण जन-मन हरणा ।
बैठा सिंह करीब ही हिरणा ।।
वैर-भाव कर एक किनारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।८।।
खिर सर्वांग रही धुनि न्यारी ।
हुये संयमी पशु-नर-नारी ।।
छूने जल-संसार किनारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।९।।
ध्यानानल सित अन्त जला-के ।
कर्म अशेष नाम विथला के ।।
समय एक शिव धाम पधारे ।
आदि नाथ-जग तारण हारे ।।१०।।
ॐ ह्रीं ‘भी’ बीजाक्षर मण्डिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘दोहा’
स्वानुभवन सुमरण लिये,
करने सु-मरण शाम ।
आदि नाथ भगवान् का,
काफी केवल नाम ।।
।।इत्याशीर्वादः।।
“आरती”
अमंगल हर ।
इक मंगल कर ।।
आ उतारें आरति भक्तामर ।।
आदि तीर्थकर यशोगान है ।
भक्तामर अपने समान है ।।
संकट मोचन ।
विघ्न विमोचन ।।
पूरण मंशा ।
तम विध्वंशा ।।
अमंगल हर ।
इक मंगल कर ।।
आ उतारें आरति भक्तामर ।।
भक्तामर पद छठा छटाया ।
पढ़ा, कण्ठ माँ-सरसुति पाया ।।
आदि तीर्थकर यशोगान है ।
भक्तामर अपने समान है ।।
अमंगल हर ।
इक मंगल कर ।।
आ उतारें आरति भक्तामर ।।
आदि तीर्थकर यशोगान है ।
भक्तामर अपने समान है ।।
पद पन चालीसे लौ-लाई ।
जाँ-लेवा भी रोग बिदाई ।।
आदि तीर्थकर यशोगान है ।
भक्तामर अपने समान है ।।
अमंगल हर ।
इक मंगल कर ।।
आ उतारें आरति भक्तामर ।।
आदि तीर्थकर यशोगान है ।
भक्तामर अपने समान है ।।
और करिश्मे कई अनूठे ।
मान तुंग मुनि बन्धन टूटे ।।
आदि तीर्थकर यशोगान है ।
भक्तामर अपने समान है ।।
अमंगल हर ।
इक मंगल कर ।।
आ उतारें आरति भक्तामर ।।
आदि तीर्थकर यशोगान है ।
भक्तामर अपने समान है ।।
संकट मोचन ।
विघ्न विमोचन ।।
पूरण मंशा ।
तम विध्वंशा ।।
अमंगल हर ।
इक मंगल कर ।।
आ उतारें आरति भक्तामर ।।
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