दोहा=
देव-देव, गुरु, शास्त्र के,
चरणन बैठ समीप ।
पापों की निन्दा करूँ,
होने वजनी सीप ।।
हहा ! बन पड़े सारे पाप ।
भगवन् शरण मुझे अब आप ।।
इक, वे, ते, चौ, इन्द्रिय दीव ।
घाते रहित सहित मन जीव ।।१।।
प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान ।
संज्वल, नन्त चतुष्क प्रमाण ।।
षोडश जे कषाय नो और ।
विध पन-बीस पाप सिर-मौर ।।२।।
योग-रंभ कृत कारित मोद ।
शत वसु पाप चतुष्टय क्रोध ।।
कुगुरु सेव, अज्ञान, विनीत ।
अघ इकान्त, संशय विपरीत ।।३।।
चोरी, झूठ, गाँठ सिर भार ।
हिंसा, पर-वनिता दृग् चार ।।
भोगे भोग परस, रस, घ्राण ।
भोगे भोग मनस्, दृश, कान ।।४।।
भखे उदम्बर, मय, मधु, मांस ।
आये कहाँ मूल-गुण रास ।।
कर भक्षण अभक्ष्य दुइ-बीस ।
पेट भरा ज्यों त्यों निश-दीस ।।५।।
शयन नींद वश, खोया होश ।
हुए सुपन बिच ढ़ेरों दोष ।।
मुख रख ली बिन शोधे चीज ।
रखी, उठाई आंखें मींच ।।६।।
पल आहार, विहार, निहार ।
हन्त ! भुलाया यत्नाचार ।।
बहु विकल्प, वश-भूत प्रमाद ।
खो सुध-बुध खोई मर्याद ।।७।।
पवन बिलोली, जोते खेत ।
ढ़ोला जल, चिन लिया निकेत ।।
हरी चबाई साबुत काच ।
अग्नि जलाई हा ! बिन जांच ।।८।।
घुनो पिसायो, रात अनाज ।
धूप सुखायो प्रात अनाज ।।
झाड़ा घर, ले झाडू हाथ ।
जीव विदारे चिंवटी आद ।।९।।
छानि जिवाणि किरिया हान ।
हाय ! न पहुँचाई जल-थान ।।
मोरिन जल-मल भांत प्रपात ।
झोरिन पल-पल कृमि-कुल घात ।।१०।।
चीर धुवाये नदियन छोर ।
कोस जीव जीवन यम दोर ।।
हिंसा साध बहुत आरंभ ।
द्रव्य कमाया अंधा-धुंध ।।११।।
इत्यादिक जे पाप अनेक ।
बने, राख न सका विवेक ।।
हा ! नाना विध मोहि सताय ।
फल ताको भुंजत नहीं जाय ।।१२।।
तुम दयाल ! आगिन जल धार ।
तुम कृपाल ! नागिन गुल क्यार ।।
त्रुटि न चितारो मोहि जिनेश ।
जश सम्हार निज, करो स्वदेश ।।१३।।
दोहा=
अहा ! ‘निरा-कुल’ सुख जहाँ,
ले चालो उस पार ।
बड़ी तुम्हारी पनडुबी,
अधिक न म्हारो भार ।।
दोहा=
साक्ष सिद्ध, अरिहत प्रभो,
सूरि, पाठका, सन्त ।
पापों की निन्दा करूँ,
करके नमन अनन्त ।।
जितने, बन पड़े सब दोष ।
रह-रह हो रहा अफसोश ।।
शरणा अब मुझे थारी ।
करुणा दया अवतारी ।।१।।
इन्द्रिय एक, जुग, त्रिक, चार ।
जीव असंज्ञि, संज्ञि प्रकार ।।
तिनकी दया ना धारी ।
शरणा अब मुझे थारी ।।२।।
बन्धन-नन्त, प्रत्याख्यान ।
चउ संज्वल, अप्रत्याख्यान ।।
कृत नुकषाय अघ भारी ।
शरणा अब मुझे थारी ।।३।।
सम-रम्भाद, मन, वच, काय ।
कृत-कारित नुमोद कषाय ।।
इक सौ आठ दुरिता ‘री ।
शरणा अब मुझे थारी ।।४।।
संशय, विनय, अज्ञ, इकान्त ।
हा ! विपरीत मत विभ्रान्त ।।
सेवा कुगुरु बन चाली ।
शरणा अब मुझे थारी ।५।।
हिंसा निरत, बोला झूठ ।
परिग्रह रखा, पर धन लूट ।।
जोड़ी आँख पर-नारी ।।
शरणा अब मुझे थारी ।।६।।
सेवन विषय रसना, घ्राण ।
सेवन विषय नयना, कान ।।
सेवन विषय परसा ‘री ।
शरणा अब मुझे थारी ।।७।।
आये उदम्बर फल रास ।
चाहे शहद, मदिरा, मांस ।।
अभख दुबीस आहारी ।
शरणा अब मुझे थारी ।।८।।
निद्रा वश शयन कर हाथ ।
रत अघ स्वप्न सारी रात ।।
उठ मृग भाँत दौड़ा ‘री ।
शरणा अब मुझे थारी ।।९।।
खाई वस्तु शोध वगेर ।
रख दी, उठा ली बिन हेर ।।
गमन, निहार अविचारी ।
शरणा अब मुझे थारी ।।१०।।
पन-दश लग कतार प्रमाद ।
विकलप रहट घटिका भाँत ।।
मति मोरी गई मारी ।
शरणा अब मुझे थारी ।।११।।
लीनी आप ढ़िग मर्याद ।
पालन की, न कीनी बाद ।।
परिणति काग सी कारी ।
शरणा अब मुझे थारी ।।१२।।
जल अनछना आया ढ़ोल ।
मारुत बीजनान बिलोल ।।
कुटिया हा ! चिना डाली ।
शरणा अब मुझे थारी ।।१३।।
खाई हरी साबुत काच ।
आई जीव शामत साँच ।।
खोदी व्यथा वसुधा ‘री ।
शरणा अब मुझे थारी ।।१४।।
अगनी दी लगा बिन देख ।
हा ! जल चले जीव अनेक ।।
अन घुन चला पीसा ‘री ।
शरणा अब मुझे थारी ।।१५।।
झाडू हाथ ले घर द्वार ।
आया प्रात-रात बुहार ।।
चीं-वटी आदि संहारी ।
शरणा अब मुझे थारी ।।१६।।
किरिया जिवाणी अनजान ।
छोड़ी जा कहाँ जल-थान ।।
ले पातर कड़े वाली ।
शरणा अब मुझे थारी ।।१७।।
आया मोरि जल-मल डार ।
कृमि-कुल घात हाथ अपार ।।
पन-घट वस्त्र धोया ‘री ।
शरणा अब मुझे थारी ।।१८।।
बहु आरंभ हिंसा साध ।
देवि लक्ष्मी धन आराध ।।
लज्जा बेच दी सारी ।
शरणा अब मुझे थारी ।।१९।।
ले इन आदि पाप अनन्त ।
मुझसे बन पड़े भगवन्त ! ।।
हा ! तिन उदय आया ‘री ।
शरणा अब मुझे थारी ।।२०।।
बदले फूल माला नाग ।
जल में दी बदल तुम आग ।।
महिमा अगम पविधारी ।
करुणा दया अवतारी ।।२१।।
मेरी भी भुला दो भूल ।
निधि सुख ‘निरा-कुल’ भव कूल ।।
लागे हाथ इस बारी ।
करुणा दया अवतारी ।।२२।।
दोहा=
क्षमा करो भगवन् मुझे,
कहने भर की देर ।
गिर ‘गिर’ पाप छुये धरा,
भले ढ़ेर गिर मेर ।।
दोहा=
पाद मूल में आपके,
जोड़ हाथ नत माथ ।
पापों की निन्दा करूँ,
जयतु जयतु जिननाथ ।।
दोहा=
जाने कैसे बन पड़े,
कर आया सब पाप ।
माफीनामा लिख रहा,
मुझे शरण अब आप ।।१।।
इन्द्रिय ए, वे, ते, चऊ,
रहित-सहित मन जीव ।
आया तिन्हें विघात मैं,
रखी न दया करीब ।।२।।
नन्त, अप्रत्याख्यान चौ,
संज्वल, प्रत्याख्यान ।
नो-कषाय नौ मिल सभी,
पाप बीस-पन जान ।।३।।
समरंभाद, कषाय चौ,
कृत, कारित, अनुमोद ।
जोग, एक सौ आठ जे,
मेंटो पापन स्रोत ।।४।।
विनइ, इकान्ती, संशयी,
अज्ञानी, विपरीत ।
पाप विनाशो और भी,
कुगुरु-देव-वृष प्रीत ।।५।।
रत चोरी, परिग्रह रखा,
दृग् जोरी पर नार ।
हन्त ! हाथ हिंसा रॅंगे,
कहा झूठ अविचार ।।६।।
कर्ण विषय सेवन छुआ,
सेवन विषयन पर्श ।
घ्राण विषय सेवन जुबां,
सेवन विषयन दर्श ।।७।।
फल पन भखे उदम्बरा,
रति मधु, मदिरा, मांस ।
अष्ट मूल गुण जे सभी,
एक ना आये रास ।।८।।
वेद चार वर्णित हहा !,
अभख नाम बाबीस ।
जिह्वा इन्द्रिय के वशी,
भखा तिन्हें निशि-दीस ।।९।।
बेसुध होकर सो चला,
निद्रा के वशीभूत ।
दोष स्वप्न में बन पड़े,
वे सब होवें झूठ ।।१०।।
पल आहार, निहार में,
हा ! रख सका न बोध ।
बिन देखे रख दी उठा,
वस्तु भखी बिन शोध ।।११।।
फिर के उठे विकल्प हा !,
पीछे पड़ा प्रमाद ।
बनी साध, फिर तोड़ दी,
हाय उठा मर्याद ।।१२।।
खोद चला पृथ्वी विथा,
जल ढ़ोला बिन छान ।
जगह चिना डाली बनी,
दी बिलोल पवमान ।।१३।।
सुध-बुध दी मैंने गवा,
परख न कीनी जाँच ।
नाम सार्थ लख मन-हरी,
निगली साबुत काच ।।१४।।
बिन सोधे ईंधन उठा,
लगा चला मैं आग ।
भुला हाय ! मैंने दिया,
कथा कमठ जुग नाग ।।१५।।
पिसा दिया बिन शोध के,
मैंने घुना अनाज ।
उसे सुखाया धूप क्या ?
गिरी जीव सिर गाज ।।१६।।
झाडू लेकर हाथ में,
आया जगह बुहार ।
चिंवटी आदिक जीव जे,
निर्दय दिये विदार ।।१७।।
इधर उधर जल छान के,
दीनी डाल जिवाण ।
गैर कड़े के पात्र से,
पहुँचाई जल-थान ।।१८।।
जल मल मोरिन फेंक के,
कृमि कुल दिया विघात ।
जीव मर चले कोस के,
धो कपड़े जल घाट ।।१९।।
हिंसा बहु आरंभ से,
द्रव्य कमाया खूब ।
गोंच-गृद्ध मुझको कहाँ,
सुलभ भीतरी डूब ।।२०।।
बने पाप इत्याद ले,
शरणा सिर्फ तिहार ।
सुना विरद क्या ? आ चला,
तुम करुणा अवतार ।।२१।।
आग नीर, माला फणी,
सिर मेंढ़क सुर ताज ।
बढ़ा चीर द्रोपद सती,
रखी आपने लाज ।।२२।।
दोहा=
दृष्टि विरद निज राख के,
दोष न मोर चितार ।
कर करुणा, कर दीजिए,
सहज ‘निरा-कुल’ पार ।।
दोहा=
देव, शास्त्र, गुरु भक्ति की,
हृदय जगा संजोत ।
पापों की निन्दा करूँ,
ले विशुद्धि नव-कोट ।।
पाप कीने सारे ।
खड़े अब तुम द्वारे ।।
चरण इक दे कोना ।
शरण में रख लो ना ।।१।।
असंज्ञी संज्ञी वा ।
विकल, थावर जीवा ।।
दया ना रख पाया ।
दुख उन्हें ? दे आया ।।२।।
नन्त, प्रत्याख्याना ।
चउ अप्रत्याख्याना ।।
संज्वलन, नुकषाया ।
बीस-पन अघ भाया ।।३।।
कषाय व समरंभा ।
समारंभा, रंभा ।।
कृताद, जोग तीनों ।
पाप शत-वसु कीनों ।।४।।
संशयी, विपरीता ।
अज्ञानी व विनीता ।।
इकान्त, कुगुरु सेवा ।
कुधर्म नुति कुदेवा ।।५।।
झूठ हिंसा चोरी ।
नार पर दृग् जोरी ।।
बाँध गठरी बैठा ।
सलंगर नव खेता ।।६।।
विषय सेवन घ्राणा ।
विषय सेवन कर्णा ।।
‘परस’ नयना विषया ।
परस रसना विषया ।।७।।
उदम्बर फल खाये ।
मांस, मय, मधु भाये ।।
अभख जे बाबीसा ।
हा ! भखे निशि-दीसा ।।८।।
वशी निद्रा सोया ।
पाप सपने बोया ।।
जाग फिर बन घोड़ा ।
विषय पीछे दौड़ा ।।९।।
निहारा, आहारा ।
भूल यत्ना-चारा ।।
रख उठाईं चीजें ।
हन्त ! आँखें मींचें ।।१०।।
प्रमादों का डेरा ।
विकल्पों ने घेरा ।
साक्ष तुम मर्यादा ।
तोड़ चाला वादा ।।११।।
खोद भूतल डारा ।
चिन दिया घर द्वारा ।।
ढ़ोल जल अनछाना ।
बिलोली पवमाना ।।१२।।
काच साबुत खाई ।
सार्थ ‘हरि’ मन भाई ।।
जलाई बिन देखे ।
अग्नि ईंधन ले के ।।१३।।
पिसाया अन बींधा ।
किया उल्लू सीधा ।।
बुहारे घर द्वारे ।
जीव सब यम प्यारे ।।१४।।
जिवाणी मनमानी ।
जीव पीड़ित पानी ।।
फेंक जल-मल मोरी ।
खून कृमि-कुल होरी ।।१५।।
चीर पन-घट धोये ।
जीव कोसन रोये ।।
धूप सूखन डाले ।
जीव झुलसे सारे ।।१६।।
पुन गमाया मैंने ।
धन कमाया मैंने ।
साध हिंसा भारी ।
गई मति ही मारी ।।१७।।
भूल यह सब कीनी ।
शरण अब तुम लीनी ।।
कीर्ति तुमरी फैली ।
दया विरली तेरी ।।१८।।
आग जल बन चाली ।
नाग लर फुलवा ‘री ।।
चीर जो बढ़ चाला ।
तुहीं तो रखवाला ।।१९।।
चितारो मत खामी ।
सम्हारो जश स्वामी ।।
‘निरा-कुल’ कर लो ना ।
दे निराकुल जोना ।।२०।।
दोहा=
तरु से कब करनी पड़े,
छाया की फरियाद ।
बिन माँगे झोली भरे,
दर-मन्दर दिन-रात ।।
दोहा=
भगवन् आप समक्ष में,
कर छल कपट किनार ।
पापों की निंदा करूॅं,
खेव लगा दो पार ।।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।१।।
विकल थावरा ।
जीव मन-धरा ।।
जीव बिन-मना ।
की विराधना ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।२।।
नौ नुकषाया ।
भव जु बढ़ाया ।।
आतमा कसा ।
नन्त षोडशा ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।३।।
रंभ आदि औ’ ।
क्रोध आदि चौ ।।
योग कृतादिक ।
अष्ट शताधिक ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।४।।
हा ! एकान्ती ।
संशय भ्रान्ती ।।
हा ! विपरीता ।
अज्ञ, विनीता ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।५।।
कुगुरुन सेवा ।
सेव कुदेवा ।।
सेव कुधर्मा ।
इ मिथ्यातमा ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।६।।
झूठ व हिंसा ।
लूट प्रशंसा ।।
नव-नव फेरा ।
पर-तिय हेरा ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।७।।
परसन घ्राणा ।
‘परसन’ कर्णा ।।
विषयन नयना ।
सेवन रसना ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।८।।
फल उदम्बरा ।
मांस, मधु, सुरा ।।
मूल गुण बिना ।
फूल कब गिना ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।९।।
अभख बीस-दो ।
निशी-दीस ओ ! ।।
जीमता गया ।
‘जी ! ठगा गया ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।१०।।
नींद ले चला ।
स्वप्न श्रृंखला ।।
होश गवाया ।
दोष लगाया ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।११।।
शोध बिन भखीं ।
उठाईं रखीं ।।
हा ! हा ! चीजें ।
आँखें मींचें ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।१२।।
ढ़ेर विकल्पा ।
मेरु मन कॅंपा ।।
बल परमादा ।
चल मरजादा ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।१३।।
खोद भू दिया ।
घर चिना लिया ।।
ढ़ोला जल वा ।
बिलोली हवा ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।१४।।
साबुत, काची ।
शामत साँची ।।
जीव जीवना ।
हरी जीमना ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।१५।।
आग जलाई ।
देख न पाई ।
जीव जल चले ।
नींव पुन हिले ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।१६।।
हा ! पुन पतला ।
नाज घुन चला ।।
धूप सुखाया ।
रात पिसाया ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।१७।।
द्वार अटारी ।
जगह बुहारी ।।
बेशुध घाती ।
चिंवटी आदी ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।१८।।
डारि न पानी ।
छानि जिवाणी ।।
फेंक दी कहीं ।
सुध रखी नहीं ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।१९।।
ले जा छोड़ी ।
जल-मल मोरी ।।
घात कृमि-कुला ।
हाथ लग चला ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।२०।।
तीर नदी के ।
चीर धो रखे ।।
कोसन जीवा ।
बुझा प्रदीवा ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।२१।।
हिंसा-रंभा ।
धंधा अंधा ।
दया लापता ।
हाय ! गृद्धता ।
पाप बन पड़े ।
दर तिरे खड़े ।।
मेरे ! परमात्मा ।
मुझे कीजिये क्षमा ।।२२।।
भूल ये सभी ।
अभी के अभी ।।
होवें मिथ्या ।
टेकूॅं मत्था ।
नमो-नमः ।
ॐ नमो-नमः ।।
मेरे ! परमात्मा ।
जरा कीजिये कृपा ।।२३।।
यूँ दयाल तू ।
तू कृपाल यूँ ।।
पानी ज्वाला ।
फनी जु माला ।
नमो-नमः ।
ॐ नमो-नमः ।।
मेरे ! परमात्मा ।
जरा कीजिये कृपा ।।२४।।
‘निरा-कुल’ करो ।
हाथ सिर धरो ।।
सिर्फ चाहता ।
राध-शिव पता ।
नमो-नमः ।
ॐ नमो-नमः ।।
मेरे ! परमात्मा ।
जरा कीजिये कृपा ।।२५।।
दोहा=
क्षमा मांगना बस हमें,
रख अटूट श्रद्धान ।
माँ, महात्मा, परमात्मा,
साधें शिशु कल्याण ।।
दोहा=
सिद्ध साक्ष अरहत प्रभो,
सन्त साक्ष जिन-वैन ।।
पापों की निन्दा करूँ,
सविनय डब-डब नैन ।।१।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।
मन सपना ।
मन अपना ।।
थावर वा ।
त्रस जीवा ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।२।।
नो कषाय ।
औ कषाय ।।
नन्त आद ।
बन्ध नाद ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।३।।
नव कोटिक ।
रंभादिक ।।
कुप् चतुष्ट ।
शतक अष्ट ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।४।।
कुगुरु सेव ।
रति कुदेव ।।
विगत मर्म ।
रत कुधर्म ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।५।।
चरित टूट ।
झूठ, लूट ।।
हिंसा हा !
परिग्-ग्रहा ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।६।।
‘परस’ घ्राण ।
परस कान ।।
विषय रसन ।
विषय नयन ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।७।।
उदम्-बरा ।
मधु, मदिरा ।।
तथा मांस ।
कथा रास ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।८।।
निशी दीस ।
दुई बीस ।।
हा ! अभक्ष्य ।
खा अभक्ष्य ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।९।।
शयन रात ।
सुपन हाथ ।।
गवा होश ।
हहा ! दोष ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।१०।।
आँख मींच ।
चाख चीज़ ।।
बिन देखी ।
उठा रखी ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।११।।
दुख अनल्प ।
रख विकल्प ।।
भज प्रमाद ।
फँस विवाद ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।१२।।
मरजादा ।
कब ज्यादा ।।
देर हाथ ।
ढ़ेर हाथ ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।१३।।
खोद खेत ।
चिन निकेत ।।
ऽनिल बिलोल ।
नीर ढ़ोल ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।१४।।
गवा लाज ।
चबा काच ।।
वश कषाय ।
हरित काय ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।१५।।
बिना जाग ।
लगा आग ।
जीव घात ।
लगा हाथ ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।१६।।
घुन लागी ।
अन दागी ।।
दिया पीस ।
भावि ईश ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।१७।।
दर बुहार ।
दी विदार ।।
हा ! चींटी ।
बिन भीती ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।१८।।
मोरी मल ।
छोरी जल- ।।
धार घात ।
कृमी आद ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।१९।।
धोय चीर ।
नदी तीर ।।
कोस जीव ।
बुझा दीव ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।२०।।
हिंसा भा ।
आ-रम्भा ।।
जोड़-तोड़ ।
दौड़ होड़ ।।
पाप जमा ।
मेरु समां ।।
क्षमा क्षमा ।
नमो नमा ।।२१।।
भूल सभी ।
भूलों भी ।।
प्रजापाल ! ।
तुम दयाल ! ।
विगत तमा ।
निरत क्षमा ।।
नमो नमा ।
नमो नमा ।।२२।।
आग धार ।
नाग हार ।।
दिव चन्दन ।
शिव अंजन ।।
‘निरा-कुलम्’ ।
धरा कुटुम ।।
कर दीजो ।
वर दीजो ।।२३।।
दोहा=
मुख से क्या निकला क्षमा,
संचित पाप सुमेर ।
पलक झपक पाती नहीं,
आप-आप ही ढ़ेर ।।२४।।
दोहा=
पंच परम गुरु वन्दना,
तीर्थकर चौबीस ।
पापों की निन्दा करूँ,
हाथ जोड़ नत शीश ।।
कहाँ तुमसे छुपता स्वामी |
तुम्हें कहते अन्तर्यामी ।।
पाप बन पड़े सभी जेते ।
शरण अब हम तुमरी लेते ।।१।।
सहित विरहित मानस जीवा ।
विराधे थावर, त्रस जीवा ।।
पाप समरंभ, समारंभा ।
हाय ! आरंभ सुभारंभा ।।२।।
क्रोध, अभिमान, लोभ, माया ।
कृतादिक त्रिक मन, वच, काया ।।
एक सौ आठ भेद न्यारे ।
बन पड़े क्षमा करो सारे ।।३।।
अज्ञ, विपरीत, विनय, संशय ।
पाप एकान्त सभी हों क्षय ।।
सेव कुगुरुन, कुधर्म सेवा ।
सेव हो मिथ्या अन-देवा ।।४।।
नन्त बन्धन, प्रत्याख्याना ।
संज्वलन, अप्रत्याख्याना ।।
भेद षोडश कषाय नो नौ ।
पाप पन-बीस सब विनाशो ।।५।।
झूठ, हिंसा, परिग्रह चोरी ।
आंख पर-नारिन् सों जोरी ।।
विषय सेवन घ्रानन रसना ।
परस इन्द्रिय कानन नयना ।।६।।
उदम्बर फल पांचों खाये ।
मांस, मदिरा, मधु मन भाये ।।
मूल-गुण अष्ट नहीं धारे ।
हाय ! परिणाम रखे काले ।।७।।
बीस-दो अभक्ष्य मन दीना ।
उदर ज्यों त्यों कर भर लीना ।।
नींद वशभूत हुआ सोना ।
पाप लख सुपन बने रोना ।।८।।
जतन कब पल निहार राखा ।।
अलस पल-पल विहार चाखा ।
वस्तु बिन देख धर उठाईं ।
चीज शोधे वगैर खाईं ।।९।।
भाव परमाद पड़ा पीछे ।
उठे विकलप खींचें नीचे ।।
यम, नियम जो तुम ढ़िग लीने ।
बने पाले, किनार कीने ।।१०।।
ले कुदाली पृथिवी खोदी ।
घर चिनाया, खेती जोती ।।
बिना गालन जल ढ़ोला है ।
पवन बीजनन बिलोला है ।।११।।
जाप हरि कभी न मुख कीना ।
काच, साबुत हरि मुख लीना ।।
अग्नि बिन देख जला आया ।
जीव तन, मन झुलसा आया ।।१२।।
पिसाया नाज घुना मैंने ।
चीखना कहॉं सुना मैंने ।।
द्वार-घर ले झाड़ू झाड़े ।
जीव चिंवटी आदिक मारे ।।१३।।
जिवाणी यहाँ वहाँ डाली ।
न मत सन्मत किरिया पाली ।।
मोरि जल-मल गिरवाया है ।
घात कृमि-आद कराया है ।।१४।।
चीर धोये साबुन सोड़ा ।
पाप कह दूँ कैसे थोड़ा ।।
सुखाने धूप डाल आया ।
जीव सब झुलस चली काया ।।१५।।
बहुत आरंभ साध हिंसा ।
कमाया द्रव्य क्या प्रशंसा ? ।।
पाप इत्याद जे अनन्ता ।
बन पड़े मुझसे भगवन्ता ! ।।१६।।
उदय अब इनका आकर के ।
सताये मुझे रुलाकर के ।।
सहारा मुझे सिर्फ तेरा ।
भरोसा तुझपे बस मेरा ।।१७।।
नीर तुमने कीनी, ज्वाला ।
नाग, तुमने कीनी माला ।।
सिंहासन में बदली शूली ।
जटायू स्वर्ण ‘पाय’ धूली ।।१८।।
भूल म्हारी भूलो सारी ।
तिहारो विरद बड़ो भारी ।।
बिठा लो अपनी नैय्या में ।
मोक्ष जा पहुॅंचूॅं छैय्या में ।।१९।।
दोहा=
शक्र, चक्र, पदवी लहूॅं,
इत्यादिक न चाह ।
सौख्य ‘निरा-कुल’ पा सकूॅं,
बस शिव-राधा ब्याह ।।
दोहा=
नमो नमः असि, आ, उसा,
तीर्थंकर भगवान् ।
पापों की निन्दा करूँ,
होने आप समान ।।
बन पड़े अपराध काफी,
अब शरण तेरी मुझे ।।
आप मुख कुछ गिनाऊँ मैं,
पता वैसे सब तुझे ।।१।।
जीव इक, वे, अक्ष ते, चौ,
मन रहित, मन सहित जे ।
विघाते बन निर्दयी हा !,
होंय मिथ्या दुरित वे ।।२।।
चउ अनन्त, अप्रत्याख्यान,
प्रत्याख्यान, संज्वलौ ।
पाप सब पन-बीस मेंटो,
नो-कषाय मिलाय नौ ।।३।।
समारम्भा-रम्भ अरु समरंभ,
मन, वच, तन तथा ।
क्रोध आद चतुष्क, त्रिक कृत-
आद अघ होवें वृथा ।।४।।
विनय, संशय, अज्ञ, विपरी-
तरु कुनय एकान्त जे ।
सेव कुगुरु-कुवृष-कुदेवा,
पा चलें पापान्त वे ।।५।।
दिल दुखाया, झूठ बोला,
नार ‘पर’ माया तकी ।
कर बहुत आरंभ मैंने,
गाँठ परि-ग्रह सर रखी ।।६।।
विषय सेवन परस, रसना,
विषय सेवन कान का ।
विषय सेवन मनस्, नयना,
विषय सेवन घ्राण का ।।७।।
मांस, मधु, मदिरा लुभाये,
भखे पंच उदम्बरा ।
मूल-गुण धारे न आठों,
गया भव हीरा हिरा ।।८।।
बीस-दो जे अभख सारे,
खा चला दिन-रात मैं ।
बाँध मुट्ठी अवतारा हा !
अब धरा क्या हाथ में ।।९।।
शयन निद्रा वश किया है,
दोष सुपने लग चले ।
जाग फिर वह विषय नागिन,
ली लगा मैंने गले ।।१०।।
पल निहार, अहार पूरब-
कृत-करम सुध-बुध हरी ।
बिना सोधी वस्तु खाई,
उठा बिन देखी धरी ।।११।।
हुआ हावी भाव आलस,
मन कई विकलप उठे ।
आप ढ़िग मर्याद लीनी,
मनु मरे, जो प्रण नटे ।।१२।।
खोद डाली प्रचुर पृथ्वी,
चिनाया घर-द्वार वा ।।
गैर गालन ढ़ोल पानी,
बिलोली पंखा हवा ।।१३।।
देखे बिना अगनी जलाई,
हरित-काय विदार दी ।
बीच तिस जाने न जाने,
जीव राशि संहार दी ।।१४।।
नाज घुन चाला पिसाया,
हा ! सुखाया धूप में ।
जिवाणी विधि दोष लागे,
जा न छोड़ी कूप में ।।१५।।
हाय ! आंगन क्या बुहारा,
जीव चिंवटादिक मरे ।
मोरियन जल-मल गिराया,
आह ! कृमियन-कुल भरे ।।१६।।
चीर धो साबुन व सोड़ा,
पाप ना थोड़ा लगा ।
हाय ! अंधा किया धंधा,
न जाने, किसको ठगा ? ।।१७।।
पाप इतने और कितने ?
सभी मुझसे बन पड़े ।
तकाजा करने करम अब,
आन मेरे दर खड़े ।।१८।।
शरण बस मुझको तिहारी,
लगन जो तुझसे लगी ।
कहॉं बन्दर-बांट होती,
यहाँ कब होती ठगी ।।१९।।
चीर द्रोपदि का बढ़ाया,
आग पानी हो चला ।
हार नागों का बनाया,
टूक चन्दन श्रृंखला ।।२०।।
दोष ना चित रखो म्हारे,
विरद राखो आपनो ।
बार म्हारी भी दयालू,
आप उतने ही बनो ।।२१।।
दोहा=
रबर पाठ आलोचना,
फेरा बस इक बार ।
कोरा कागज आत्मा,
सहज ‘निरा-कुल’ पार ।।
दोहा=
चार-बीस जिन वन्दना,
पंच परम गुरु-देव ।
पापों को निन्दा करूॅं,
पार कीजिये खेव ।।
पाप सभी बन पड़े |
जोड़ हाथ अब खड़े ।।
ज्ञात नहीं क्या तुम्हें ।
क्षमा कीजिये हमें ।।१।।
जीव त्रसस्-थावरा ।
रहित मनस् मन-धरा ।।
दया रखी हाथ ना ।
बन पड़ी विराधना ।।२।।
अप्रत्याख्यान, संज्वलौ ।
नन्त, प्रत्याख्यान चौ ।।
और नौ कषाय नो ।
पाप बीस-पन हनो ।।३।।
सं-रम्भा-रम्भ से ।
किये समा-रंभ से ।।
कृत-कारित-मोदना ।
कषाय, मन, वच, तना ।।४।।
शतक और आठ भी ।
पाप माफ हों सभी ।।
हन्त कुगुरु सेव की ।
सेव नाम देव की ।।५।।
विनयी, एकान्त हा ! ।
संशय, अज्ञान वा ।।
उत्पथ विपरीत जे ।
पाप चलें रीत वे ।।६।।
की हिंसा, लूट की ।
जुबाँ रसिक झूठ की ।।
और नार दृग् रखा ।
नाम आप जग लिखा ।।७।।
आंख, जीभ, कान के ।
विषय परस, घ्राण के ।।
बने भोगता गया ।
हाय ! मैं ठगा गया ।।८।।
पंच उदम्बर भखे ।
मांस, मद्य, मधु तके ।।
भोग में रचे-पचे ।
कहॉं मूल-गुण रुचे ।।९।।
अभख बीस-दो हहा ! ।
भरा उदर कह अहा ! ।।
वश निद्रा सो चला ।
स्वप्न पाप हो चला ।।१०।।
बस कदम दिये बढ़ा ।
कब रखा जतन जरा ।।
इधर उधर दृग् टिका ।
शोध बिन उठा, रखा ।।११।।
हा ! प्रमाद के वशी ।
पात्र बन चला हंसी ।।
बहु विकल्प मन उठे ।
न्याय-नीति से हटे ।।१२।।
आप ढ़िग नियम लिया ।
तोड़-ताड़ फिर दिया ।।
पृथ्वी खोदना रुचा ।
नभ-चुम्बी घर रचा ।।१३।।
जल ढ़ोला अनछना ।
पवन बिलोला घना ।।
साबुत ही सॉंच ‘री ।
भखी हरी काच ही ।।१४।।
आग क्या लगा चला ।
जीव ही जला चला ।।
नाज पिसाया घुना ।
कहाँ चीखना सुना ।।१५।।
घर बुहार क्या लिया ।
दीं विदार चींटियाँ ।।
दोष जिवाणी लगे ।
हाथ पाप से रॅंगे ।।१६।।
जल-मल मोरिन गिरा ।
हाथ घात कृमि-कुला ।।
घाट वस्त्र क्या धुले ।
कोस जीव मर चले ।।१७।।
रच हिंसा-रंभ में ।
कर धंधा अंध मैं ।।
अंधा ही बन चला ।
हाय ! अब रुँधा गला ।।१८।।
सिर गठरी पाप की ।
शरण मुझे आपकी ।।
नाग हार बन चले ।
आग जल कमल खिले ।।१९।।
भूल भुला दीजिए ।
घुला मिला लीजिये ।।
चाह सुख ‘निरा-कुलम्’ ।
ब्याह राधिका शिवम् ।।२०।।
दोहा=
सोड़ा-साबुन मिल चला,
कपड़ा होता साफ ।
कपड़ा हूँ भगवान् मैं,
सोड़ा-साबुन आप ।।
दोहा=
देव, शास्त्र, गुरु-देव को,
करके कोटि प्रणाम ।
पापों की निंदा करूॅं,
करने सु-मरण शाम ।।
दोष सारे बन पड़े हैं ।
द्वार थारे हम रहे हैं ।।
है हमें शरणा तुम्हारी ।
दया, करुणा, क्षमा-धारी ।।१।।
एक, वे, ते, चवन्द्री वा ।।
मन रहित, मन सहित जीवा ।।
घात इनका बन पड़ा है ।
हाय ! मन निरदइ बड़ा है ।।२।।
नन्त-बन्ध, अप्रत्याख्याना ।
संज्जलन, चौ प्रत्याख्याना ।।
नो-कषा-यरु नौ मिला दो ।
पाप पच्चीसी मिटा दो ।।३।।
समा-रम्भा रम्भ, काया ।
मन, वचन सम-रंभ भाया ।।
कुप् चतुष्क कृताद तीनों ।
पाप इक सौ आठ छीनों ।।४।।
विनइ, अज्ञानी, इकान्ती ।
संशयी, विपरीत भ्रान्ती।।
सेव-कुगुरु-कुवृष-कुदेवा ।
बने प्यारी यम कुटेवा ।।५।।
दिल दुखाया जिस किसी का ।
सत्य कहना ही न सीखा ।।
नार पर-धन आँख जोरी ।
लगा भरने में तिजोरी ।।६।।
विषय सेवन घ्राण रसना ।
हा ! परस, मन, कान नयना ।।
फल उदम्बर पंच खाये ।
मांस, मधु, मदिरा लुभाये ।।७।।
मूल गुण आठों न पाले ।
मुख अभख दो-बीस डाले ।।
गोद निद्रा नींद लीनी ।
ढ़ेर त्रुटियाँ स्वप्न कीनी ।।८।।
हा ! निहार, विहार साधा ।
जतन ना मैंने अराधा ।।
रखी बिन देखे उठाई ।
वस्तु सोधे बिना खाई ।।९।।
आ प्रमाद पड़े गले हैं ।
ढ़ेर विकलप उठ चले हैं ।।
आप ढ़िग लेकर प्रतिज्ञा ।
हाय ! मैंने की अवधा ।।१०।।
भूमि विरथा खोद दीनी ।
महल कोठी चिना लीनी ।।
गैर गालन नीर ढ़ोला ।
पवन पंखा तैं बिलोला ।।११।।
हाय ! सुध-बुध ही गवाई ।
काच-साबुत हरि चबाई ।।
आग क्या हम लगा आये ।
जीव जीवित ही जलाये ।।१२।।
चींख दर्दिल सुन न पाया ।
हाय ! नाज धुना पिसाया ।।
घर बुहारा, ले बुहारी ।
जीव राशी बहु विदारी ।।१३।।
क्रिया से ना प्रीत जोड़ी ।
कब जिवाणी कूप छोड़ी ।।
मोरियन जल मल गिराया ।
घात कृमि-कुल हाथ आया ।।१४।।
वस्त्र धोकर के सुखाये ।
जीव झुलसे, धूप खाये ।।
साध बहु आरंभ हिंसा ।
धन कमाया क्या प्रशंसा ।।१५।।
पाप यह सब हुये मुझसे ।
छुपा वैसे कहाँ तुझसे ।।
उदय कर्मों का सताये ।
हाय ! रह रह के रुलाये ।।१६।।
फूलमाला नागदानी ।
आपने की आग पानी ।।
चीर द्रोपदि का बढ़ाया ।
चोर अंजन तट लगाया ।।१७।।
मत चितारो भूल म्हारी ।
जश तिहारो बड़ो भारी ।।
‘निरा-कुल’ खुद सा बना लो ।
रंग केशरिया रॅंगा लो ।।१८।।
दोहा=
देर मांगने की क्षमा,
क्षमा करें भगवान् ।
आ दो आँसू ढ़ोलते,
भगवन् दया निधान ।।
दोहा=
भगवत् चरणन छाँव में,
लेकर भींगे भाव ।
पापों की निंदा करूँ,
नाव लगे शिव गाँव ।।
सुनिये भगवन् अरज हमारी,
दोष बन पड़े भारी ।
ले-देकर अब मुझे शरण है,
भगवन् सिर्फ तुम्हारी ।।
थावर विकलत्रय वा ।
संज्ञि असंज्ञी जीवा ।
दया न तिनकी धारी ।
जब तब घात विचारी ।
दोष बन पड़े भारी ।
ले-देकर अब मुझे शरण है,
भगवन् सिर्फ तुम्हारी ।।१।।
बन्ध-अनन्त कषाय चौकड़ी,
हा ! हा ! प्रत्याख्याना ।
हा ! कषाय संज्वलन षोडशी,
मिला अप्रत्याख्याना ।।
हास, अरति, रति, शोगा ।
ग्लानि, वेद, भय, जोगा ।
अघ पन-बीस प्रकारी ।
दोष बन पड़े भारी ।
ले-देकर अब मुझे शरण है,
भगवन् सिर्फ तुम्हारी ।।२।।
समा-रंभ सम-रंभा-रंभा,
जोग, वचन, मन, काया ।
कृत, कारित, अनुमोदन हा ! हा !,
क्रोध, लोभ, मद, माया ।।
दुठ परिणाम हमारे ।
आठ अधिक शत सारे ।
पाप रहें नित जारी ।
दोष बन पड़े भारी ।
ले-देकर अब मुझे शरण है,
भगवन् सिर्फ तुम्हारी ।।३।।
हा ! संशय, हा ! हा ! एकान्ता,
हा ! हा ! हा ! विपरीता ।
हा ! हा ! हा ! अज्ञान और हा !,
हा ! मिथ्यात्व विनीता ॥
सेवा कुगुरु कुदेवा ।
हा ! हा ! कुधर्म सेवा ।
बना कुगति अधिकारी ।
दोष बन पड़े भारी ।
ले-देकर अब मुझे शरण है,
भगवन् सिर्फ तुम्हारी ।।४।।
दुखा जिस किसी का दिल आया,
झूठा कहा, रत चोरी ।
खूब जमा कर रखा परिग्रह,
पर-गोरी दृग् जोरी ।।
विषय घ्राण, रस भोगे ।
विषय कान, दृश भोगे ।
विषय भोग परसा ‘री ।
दोष बन पड़े भारी ।
ले-देकर अब मुझे शरण है,
भगवन् सिर्फ तुम्हारी ।।५।।
हा ! फल पंच उदम्बर खाये ।
मद्य, मांस, मधु भाये ।
अष्ट मूल-गुण धार न पाये,
अभख दुबीस लुभाये ।।
थक निद्रा ले आया ।
सुपने पाप कमाया ।
जाग पुनः दौड़ा ‘री ।
दोष बन पड़े भारी ।
ले-देकर अब मुझे शरण है,
भगवन् सिर्फ तुम्हारी ।।६।।
हा ! आहार, निहार, विहारा,
अंगुलि प्रमाद थमाई ।
हा ! बिन देखी धरी उठाई,
वस्तु शोध बिन खाई ।।
प्रण तुम साक्ष उठाये ।
तिनमें दोष लगाये ।।
मनस् विकल्प पिटारी ।
दोष बन पड़े भारी ।
ले-देकर अब मुझे शरण है,
भगवन् सिर्फ तुम्हारी ।।७।।
हा ! पृथिवी बहु खोद कराई,
बिन छाने जल ढ़ोलो ।
नभ-चुम्बी घर द्वार चिनाई,
पंखा पवन बिलोलो ।।
ईधन अग्नि जगाई ।
जीवित जीव जलाई ।
हरि बन सकी विदारी ।
दोष बन पड़े भारी ।
ले-देकर अब मुझे शरण है,
भगवन् सिर्फ तुम्हारी ।।८।।
हा ! जल-मल मोरिन् गिरवायो,
कृमि-कुल घात करायो ।
नाज घुन चला धूप दिखायो,
बींध्यो नाज पिसायो ।
सहसा जिवाण कीनी ।
डारि कहीं भी दीनी ।
निर्दय जगह बुहारी ।
दोष बन पड़े भारी ।
ले-देकर अब मुझे शरण है,
भगवन् सिर्फ तुम्हारी ।।९।।
हा ! हा ! द्रव्य कमावन काजे,
साजे हिंसा-रंभा ।
करुणा रंच विचारी नाहीं,
कियो और हा ! दम्भा ।।
पन-घट चीर धुवाये ।
कोस जीव दुख पाये ।
हा ! मैं अदयाचारी ।
दोष बन पड़े भारी ।
ले-देकर अब मुझे शरण है,
भगवन् सिर्फ तुम्हारी ।।१०।।
धिक् ! इत्यादिक पाप अनन्ता,
भगवन्ता ! हम कीने ।
नाना-विध तिन उदय सताये,
देय न सुख से जीने ।।
छुपा न तुमसे स्वामी ।
हो जो अन्तर्यामी ।।
और दया अवतारी ।
दोष बन पड़े भारी ।
ले-देकर अब मुझे शरण है,
भगवन् सिर्फ तुम्हारी ।।११।।
सति द्रोपदि को चार बढ़ायो,
अंजन कियो अकामी ।
सति सीता प्रति कमल रचायो,
दुखिया में भी स्वामी ।।
औ’गुण नाहिं चितारो ।
अपनो विरद सम्हारो ।
मेंटो कुमति हमारी ।
दोष बन पड़े भारी ।
ले-देकर अब मुझे शरण है,
भगवन् सिर्फ तुम्हारी ।।१२।।
दोहा=
रख विशुद्धि परिणाम की,
पाऊँ अन्त समाध ।
सौख्य ‘निरा-कुल’ तट लगूॅं,
तके राह शिव-राध ।।
दोहा=
साँझ-सॉंझ कर जोड़ के,
समक्ष श्री भगवान् ।
पापों की निन्दा करूँ,
हेत आत्म कल’याण ।।
लगी पापों की ढ़ेरी ।
मुझे अब शरणा तेरी ।।
अरज मेरी सुन लीजे ।
क्षमा मुझको कर दीजे ।।१।।
विकल इन्द्रिय थावर वा ।
सहित मन विरहित जीवा ।।
दया तिनकी ना धारी ।
क्रूर बन घात विचारी ।।२।।
नन्त, अप्रत्याख्याना ।
संज्वलन, प्रत्याख्याना ।।
चौकड़ी कषाय नो नौ ।
हुये अघ कषाय दोनों ।।३।।
काय, मन, वच, समरंभा ।
समारंभा आरंभा ।।
चतुष्टय क्रोध कृतादिक ।
हुये अघ अष्ट-शताधिक ।।४।।
अज्ञ, संशय, विपरीता ।
कुनय एकान्त विनीता ।।
कुधर्मा सेव कुदेवा ।
हा ! हहा ! ! कुगुरु सेवा ।।५।।
दिल दुखाया, की चोरी ।
आँख पर वनिता जोरी ।।
राख ली बटोर माया ।
झूठ बोला, बुलवाया ।।६।।
फरस, कर्णेन्दिय, घ्राणा ।
विषय सेवन मनमाना ।।
विषय दृश इन्द्रिय भोगे ।
विषय रस इन्द्रिय भोगे ।।७।।
फल उदम्बर भाये मन ।
मांस, मधु, मदिरा सेवन ।।
मूल गुण अष्ट न धारे ।
रखे मुख अभक्ष्य सारे ।।८।।
शयन निद्रा वश कीना ।
दोष सुपनाश्रय दीना ।।
गमन आगमन निहारा ।
जतन न तनिक विचारा ।।९।।
वस्तु बिन शोधे खाई ।
रखी बिन देख उठाई ।।
पड़ा पीछे परमादा ।
कब निभाई मरजारा ।।१०।।
खेत जोते, भू खोदी ।
चिनाई ऊंची कोठी ।।
नीर ढ़ोला बिन छाना ।
हा ! बिलोली पवमाना ।।११।।
‘साग’ कह खा ली काची ।
जलाई आग न जाँची ।।
धूप में डाल सुखाया ।
नाज घुन चला पिसाया ।।१२।।
हा ! बुहारे घर द्वारे ।
जीव चिंवटादिक मारे ।।
दोष पे दोष जिवाणी ।
न छोड़ी थानक पानी ।।१३।।
मोरियन जल-मल ड़ाला ।
घात कृमि कुल हो चाला ।।
चीर पन-घट धो डाले ।
जीव कोसन मर चाले ।।१४।।
पन्थ हिंसा अराध के ।
बहुत आरंभ साध के ।।
कमाया रुपया पैसा ।
हृदय हा ! निरदइ ऐसा ।।१५।।
पाप इत्याद अनन्ता ।
बन पड़े श्री भगवन्ता ! ।।
उदय ताको अब आयो ।
मोहि विध नन्त सतायो ।।१६।।
छुपा क्या तुमसे स्वामी ।
दयालू ! अन्तर्-यामी ! ।।
द्रोपदी चीर बढ़ायो ।
आग खों नीर बनायो ।।१७।।
मेंट दीजो दुख म्हारो ।
हूॅं मैं जैसो भी थारो ।।
कुल मिलाकर इक सपना ।
हो ‘निरा-कुल’ सुख अपना ।।१८।।
दोहा=
पार चोर अंजन कियो,
अपनो विरद सम्हार ।
चरणों में रख लीजियो,
दोष न मोहि चितार ।।
दोहा=
साक्षि माँ, महात्मा तथा,
परम-ब्रह्म परमात्म ।
पापों की निन्दा करूँ,
शोधन हेतु निजात्म ।।
हुये पाप कम ना ।
अय ! निधान करुणा ।।
शरणा तुम चरणा ।
लाज भक्त रखना ।
भगवन् ! लाज भक्त रखना ।।१।।
स्थावर पन ।
विकलत्रय गण ।
रहित सहित मन ।
जीव राशि हनना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।२।।
अनन्त बन्धन ।
अन्त संज्वलन ।
नौ नुकषायन ।
अघ पचीस करणा ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।३।।
संरम्भादिक ।
योग, कृतादिक ।
मद, क्रोधादिक ।
अघ शत वसु गणना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।४।।
रति विपरीता ।
अज्ञ, विनीता ।
संशय तीता ।
वा इकान्त भ्रमणा ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।५।।
हिंसा, चोरी ।
झूठ, ति’जोरी ।
पर-तिय मोरी ।
कम विषयन रति ना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।६।।
फल उदम्बरा ।
मांस, मधु, सुरा ।
मूल-गुण गिरा ।
भख अभख हरखना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।७।।
थक कर सोना ।
सपने खोना ।
उठ देखो ना ।
दौड़ा मन हिरना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।८।।
सुध विसराई ।
वस्तु जु खाई ।
रखी, उठाई ।
कीना शोधन ना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।९।।
वश परमादा ।
धृत मरजादा ।
विस्मृत वादा ।
विकल्प अनगणना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।१०।।
भूमि खुदाई ।
गेह चिनाई ।
अग्नि जलाई ।
दी बिलोल पवना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।११।।
द्वार बुहारे ।
जेते सारे ।
जन्तु विदारे ।
काची हरि भखना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।१२।।
धूप सुखायो ।
रात पिसायो ।
देख न पायो ।
नाज हुआ घुनना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।१३।।
ढ़ोलो पानी ।
दोष जिवाणी ।
किरिया हानी ।
भेजी जल-झिर ना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।१४।।
निदई छोड़ी ।
जल मल मोरी ।
कृमि कुलवो ‘री ।
तुरत छुओ मरणा ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।१५।।
तीर किनारे ।
झट-पट सारे ।
पट धो डाले ।
बचे जीव इक ना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।१६।।
बहु-आरंभा ।
हिंसा नन्दा ।
अंधा-धंधा ।
वशीभूत तिसना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।१७।।
अघ इत्यादिक ।
‘रे हा ! मा ! धिक् ! ।
मेरे मालिक ! ।
कथन अगम वचना ।।
हुये पाप कम ना ।
अब शरणा तुम चरणा ।।१८।।
गुण आसामी ।
अन्तर्-यामी ।
त्रिभुवन स्वामी ! ।
ओ ! तारण तरणा ।।
लाज भक्त रखना ।
भगवन् ! लाज भक्त रखना ।।१९।।
फनी जु माला ।
पानी ज्वाला ।
ज्ञानी ग्वाला ।
ओ ! शरण्य-शरणा ।।
लाज भक्त रखना ।
भगवन् ! लाज भक्त रखना ।।२०।।
दोष विडारो ।
त्रुटि न चितारो ।
विरद सम्हारो ।
भगवन् तुम अपना ।।
लाज भक्त रखना ।
भगवन् ! लाज भक्त रखना ।।२१।।
दोहा=
और न कोई कामना,
इन हाथों को जोड़ ।
सौख्य ‘निरा-कुल’ डाल दो,
खाली झोली मोर ।।
दोहा=
बैठ देव, गुरु, शास्त्र के,
पंकज पाँव करीब ।
पापों की निन्दा करूँ,
रहने सजग सदीव ।।१।।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।
इक, वे, तिय वा ।
चउ इन्द्रिय वा ।
मन बिन मनुवा, जीवा छेड़े ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।२।।
अनंत बन्धन ।
अन्त संज्वलन ।
आद कषायन, नो नौ भेले ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।३।।
सम-रंभादिक ।
जोग, कृतादिक ।
अघ क्रोधादिक, शत’ठ अछेरे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।४।।
अघ विपरीता ।
संशय प्रीता ।
अज्ञ, विनीता, इकान्त प्रेरे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।५।।
सीनाज़ोरी ।
अलीक, चोरी ।
पर-तिय मोरी, नव-नव फेरे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।६।।
भोग घ्राण, रस ।
भोग कर्ण, दृश ।
भोग मन, परस, घने अंधेरे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।७।।
फल उदम्बरा ।
मांस, मधु, सुरा ।
गये गुण हिरा, दुर्गुण हेरे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।८।।
अभख दुबीसा ।
भाँत खबीसा ।
खा निशि-दीसा, उदर भरे ‘रे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।९।।
सपने माया ।
दोष लगाया ।
उठ फिर धाया, साँझ-सबेरे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।१०।।
आखें मींचें ।
ले लीं चीजें ।
रख दीं नीचें, जीव पिचे ‘रे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।११।।
भज परमादा ।
तज मरजारा ।
विकल्प तांता, रहट घड़े ‘रे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।१२।।
कुटी चिनाई ।
हरी चबाई ।
अग्नि जलाई, जोते खेरे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।१३।।
पानी ढ़ोलो ।
पवन बिलोलो ।
विष ही घोलो, वच कड़वे ‘रे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।१४।।
धूप सुखायो ।
रात पिसायो ।
अनाज खायो, घुनो अरे ‘रे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।१५।।
आंगन द्वारे ।
सांझ बुहारे ।
जीव विदारे, हा ! बहुतेरे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।१६।।
छानि जिवाणी ।
डारि न पानी ।
किरिया हानी, भुला कड़े ‘रे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।१७।।
जल-मल छोड़ी ।
पल-पल मोरी ।
कृमि कुल’वो ‘री, यम के घेरे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।१८।।
नदियन तीरा ।
धोये चीरा ।
जीवन पीड़ा, कोसन के ‘रे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।१९।।
धन, भज हिंसा ।
कहाँ प्रशंसा ।
अघ मति कंसा, हाथ रॅंगे ‘रे ।
पाप घनेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।२०।।
अघ इत्यादिक ।
‘रे हा ! मा ! धिक् ! ।
आ उदयादिक, आंख तरेरे ।
घने अंधेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।२१।।
केवल-ज्ञानी ! ।
शिव सुख थानी ! ।
दया-निधानी !, नैन भरे ‘रे ।।
घने अंधेरे ।
भगवन् मेरे ! ।
चरणन तेरे, शरण अकेले ।।२२।।
ज्वाला सरवर ।
माला अजगर ।
ग्वाला ऋषि-वर, हम भी चेरे ।।
नहीं तूल दो ।
भुला भूल दो ।
‘निरा-कूल’ दो, दुख बहु झेले ।।२३।।
दोहा=
मॉं, महात्मा, परमात्मा,
करुणा दया निधान ।
बस कर देते हैं क्षमा,
सिर्फ पकड़ने कान ।।२४।।
दोहा=
नमन देव, गुरु, शास्त्र को,
हाथ माथ पे राख ।
पापों की निंदा करूँ,
पाने ‘भी’-तर आँख ।।१।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।
इकल इन्द्रीय ।
विकल इन्द्रीय ।
सकल इन्द्रीय ।।
सताये जीव ।
निरदइ अतीव ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।२।।
नन्त अनु-बन्ध ।
संज्वलन अन्त ।
बीस-पन हन्त ।।
मिल नो कषाय ।
पाप दुखदाय ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।३।।
रंभाद तीन ।
कृतादिक लीन ।
योग संलीन ।।
गुणित क्रोधाद ।
पाप शत आठ ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।४।।
विनय, विपरीत ।
संशय, विनीत ।
अज्ञान प्रीत ।।
सेवा कुदेव ।
हा ! कुगुरु सेव ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।५।।
हिंसा व झूठ ।
धन और लूट ।
तिसना अटूट ।।
हा ! आँख चार ।
पराई नार ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।६।।
विष विषय घ्राण ।
विष विषय कान ।
भोग अप्रमाण ।।
विषय रस, पर्श ।
विषय अख दर्श ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।७।।
उदम्बर पांच ।
मद्य, मधु, मांस ।
आये न रास ।।
मूल गुण अष्ट ।
इतना निकृष्ट ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।८।।
अभख बाबीस ।
माह दिन तीस ।
भखे निशि-दीस ।।
न भेदा-भेद ।
भर लिया पेट ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।९।।
कर चला शैन ।
दिवस क्या रैन ।
स्वप्न बेचैन ।।
लग चले हाथ ।
दोष लग पॉंत ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।१०।।
रखा न विवेक ।
हहा ! बिन देख ।
वस्तुएं नेक ।।
रखीं, लीं गोद ।
भखीं बिन शोध ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।११।।
हा ! वश प्रमाद ।
विनश मर्याद ।
विकल्प अगाध ।।
जतन न विचार ।
विहार, निहार ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।१२।।
बो चला खेत ।
विरचे निकेत ।
मुख हरी लेत ।।
बिलोलि समीर ।
ढ़ोलियो नीर ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।१३।।
जलाई आग ।
जीव बेदाग ।
जीवन चिराग ।।
बुझा तत्काल ।
अत्त विकराल ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।१४।।
पिसाओ शाम ।
सुखायो घाम ।
जु खायो, राम ! ।।
बींध्यो अनाज ।
सिर जीव गाज ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।१५।।
आँगन बुहार ।
जीवन निछार ।
हा ! लग कतार ।।
जीव चिंवटाद ।
हाथ के हाथ ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।१६।।
नाहिं जल-थान ।
भेजी जिवाण ।।
हा ! क्रिया हान ।।
झोरी हमार ।
जन्म भू भार ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।१७।।
मोरि जल ढ़ोल ।
मोरि मल ढ़ोल ।
गोरि दिल झोल ।।
कृमि-कुल विघात ।
कालिख विधात ! ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।१८।।
ताल, नद-तीर ।
धुवाये चीर ।
असहनी पीर ।।
जीव कोसेक ।
श्याह अभिलेख ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।१९।।
गवाई लाज ।
कमावन काज ।
कृत हिंस साज ।।
बहुत आरंभ ।
पाप अक्षम्य ।।
दोष पे दोष ।
इतना मदहोश ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।२०।।
हा ! असंख्यात ।
पाप इत्याद ।
बन पड़े नाथ ! ।।
उदय तिन घोर ।
सताये मोर ।।
विगत रत-रोष ।
अय ! आशुतोष ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।२१।।
हो तुम दयाल ।
नाग गुल-माल ।
आग जल ताल ।।
बढ़ायो चीर ।
सिंह महावीर ।।
गुण नन्त कोष ।
अय ! आशुतोष ।।
अब मुझे शरण ।
सिर्फ तुम चरण ।।२२।।
मैं भी तुम्हार ।
भूल न चितार ।
जश निज सम्हार ।।
‘निरा-कुल’ सौख ।
भेंटियो मोख ।।२३।।
दोहा=
मुख से क्या निकला क्षमा,
क्षमा करें तत्काल ।
माँ, महात्मा, परमात्मा,
रखते हृदय विशाल ।।२४।।
दोहा=
समक्ष असि-सा, आउ-सा,
और मात जिनवाण ।
पापों की निन्दा करूँ,
क्षमा करो भगवान् ।।१।।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
थारे द्वारे खड़ा ।।
ले लो अपनी शरण ।
लागी तुझसे लगन ।।
जीव इन्द्रीय विकल ।
जीव इन्द्रीय सकल ।
तिनका जीवन हरा ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।२।।
पाप नन्त-नुबंधन ।
षो-डसन्त संज्वलन ।
नौ नो कषाय मिला ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।३।।
किरत, कारित, मोदन ।
कषा-यरु मन, वच, तन ।
सम-रंभादिक जुड़ा ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।४।।
अघ एकान्त, संशय ।
अज्ञ, विपरीत, विनय ।
या विध मिथ्यात् बढ़ा ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।५।।
चोरी झूठा कथन ।
जोरी पर-तिय नयन ।
हिंसा परि-ग्रह बुरा ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।६।।
अख, रस भोगे विषय ।
सपरस भोगे विषय ।
घ्राण, कर्ण, मन छला ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।७।।
क्रीत फल उदम्बरा ।
मीत मांस, मधु, सुरा ।
दिये मूल-गुण हिरा ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।८।।
कहाँ रात-दिन गिना ।
अभख ग्यारह दुगुना ।
पेट बन सका भरा ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।९।।
कर निद्रा वश शयन ।
दोष लग चले सुपन ।
जागा ‘कि दौड़ पड़ा ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।१०।।
बिन शोधे ही भखीं ।
वस्तु उठाईं रखीं ।
रक्खा न जतन जरा ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।११।।
हा ! वशी परमादा ।
खो चली मरजादा ।
हा ! विकल्प श्रृंखला ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।१२।।
अनछना ढ़ोला जल ।
हाय ! चिनाया महल ।
खोदी नाहक ‘धरा’ ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।१३।।
हाय ! बिलोली पवन ।
हरित-काय विराधन ।
आया अगिनी जला ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।१४।।
हहा ! रात पिसाया ।
हहा ! धूप सुखाया ।
वो जु नाज घुन चला ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।१५।।
घर द्वारे बुहारे ।
जीव जां से मारे ।
कब काँपा जीयरा ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।१६।।
जल छानि जिवाणी ।
भेजी झिर न पानी ।
भुलाया पात्र कड़ा ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।१७।।
मोरी जल मल ढुला ।
हाथ घात कृमि कुला ।
काल, ताल पट धुला ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।१८।।
साध हिंसा रंभा ।
पाँत धंधा अंधा ।
भारी तिसना घिरा ।
मैं हूँ पापी बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।१९।।
पाप इत्याद सभी ।
कर आया मैं कुधी ।
कर्मोदय सर चढ़ा ।
हूं मैं दुखिया बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।२०।।
अन्तर्-यामी तुम्हीं ।
त्रिभुवन स्वामी तुम्हीं ।
तुम्हीं भक्त वत्सला ।
तू कृपालू बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।२१।।
नागिनी गुल माला ।
बन चली जल ज्वाला ।
चीर द्रोपद अक्षरा ।
तू दयालू बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।२२।।
चितारो दुरित न ‘जी ।
सम्हारो विरद निजी ।
कीजियो ‘निरा-कुला’ ।
होगा अहसां बड़ा ।
लागी तुझसे लगन ।।
ले लो अपनी शरण ।
थारे द्वारे खड़ा ।।२३।।
दोहा=
पाद-मूल में आपके,
पाऊँ मरण समाध ।
अर’जी छोटी सी यही,
स्वीकारो जिन-नाथ ।।२४।।
दोहा=
देव शास्त्र गुरु-देव को,
करके कोटि प्रणाम ।
पापों की निन्दा करूँ,
हित विशुद्ध परिणाम ।।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
सहित मन जीवा ।
रहित मन जीवा ।
घात विकलत्रय थावरा ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।१।।
नन्त अनु-बन्धन ।
चतुष्क संज्वलन ।
अघ पचीस नुकषाय मिला ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।२।।
कोटि-नव, रंभा ।
सम-समा-रंभा ।
शत वसु क्रोधाद अघ जुड़ा ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।३।।
संशय, विनीता ।
अज्ञ, विपरीता ।
अर एकान्त मति बावरा ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।४।।
अघ झूठ, चोरी ।
हिंसा, तिजोरी ।
दृग्-चार पर-नार अबला ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।५।।
विषय, दृश भोगे ।
परस, रस भोगे ।
विषय श्रुत, घ्राण, मन, चपला ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।६।।
मूल गुण विसरा ।
मांस, मधु, मदिरा ।
फल भखे पंच उदम्बरा ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।७।।
अभख बाबीसा ।
न गिन निशि-दीसा ।
उदर ज्यों त्यों करके भरा ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।८।।
निद्रा सताई ।
शयन लौं लाई ।
मन सुपन हो चला गंदला ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।९।।
रखीं हा ! ले के ।
वस्तु बिन देखे ।
खा चला कब शोधा भला ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।१०।।
वशी परमादा ।
तजी मरजादा ।
नेक विध विकल्प श्रृंखला ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।११।।
खेत बुबवाया ।
निकेत चिनाया ।
जल ढ़ोल, बिलोली अनिला ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।१२।।
हा ! हरी खाई ।
अगनी जलाई ।
अन घुना पीसने निकला ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।१३।।
घर द्वार झाड़े ।
बहु जीव मारे ।
जिवाण हाथ किरिया भुला ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।१४।।
मोरि मल डाला ।
कृमि-कुल विदारा ।
मरे जीव चीर धो तला ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।१५।।
आरंभ, हिंसा ।
भज, क्या प्रशंसा ।
कमाई लक्ष्मी चंचला ।
पापों का ढ़ेर लग चला ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।१६।।
इत्याद सारे ।
अपराध काले ।
हुये मुझसे जगदीश्वरा ! ।
द्वार तेरे मैं विनत खड़ा ।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।१७।।
उदय तिन आयो ।
मोही सतायो ।
सुनते, तू दयालू बड़ा ।
द्वार तेरे मैं विनत खड़ा ।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे अब तेरा आसरा ।।१८।।
ताल गुल आगी ।
माल गुल नागी ।
चीर खड़ा पांत अक्षरा ।
सचमुच, तू कृपालू बड़ा ।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।१९।।
न भूल चितारो ।
जश निज सम्हारो ।
दो सुख ‘निरा-कुल’ वसुन्धरा ।
मेरा न और अरमां बड़ा ।।
ले लो छत्र छांव में ज़रा ।
मुझे सिर्फ तेरा आसरा ।।२०।।
दोहा=
सुर-गुरु न बतला सके,
शक्ति क्षमा अमाप ।
यहाँ क्षमा माँगी, वहॉं,
आप झर चले पाप ।।
दोहा=
भगवन् आप समक्ष में,
हाथ जोड़ नत माथ ।
पापों की निंदा करूँ,
रख दो सिर पर हाथ ।।१।।
करो क्षमा, करो क्षमा, करो क्षमा
ओ ! अहो ! ! परमात्मा
नमो-नम:, नमो-नम:, नमो-नम:
पाप ढ़ेर मेर समां ।
करो क्षमा, करो क्षमा, करो क्षमा ।।
इकल अक्ष ।
विकल अक्ष ।
सकल अक्ष ।
जीव किये प्रीय यमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।२।।
चौ कषाय ।
औ कषाय ।
नो कषाय ।
पांच बीस पाप द्रुमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।३।।
जु नव कोट ।
रंभ खोट ।
आद क्रोध ।
शतक अष्ट कृत अधमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।४।।
कुगुरु सेव ।
रति कुदेव ।
मत फरेब ।
संशयाद मिथ्या तमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।५।।
चरित टूट ।
झूठ, लूट ।
हा ! अटूट ।
कृत्य हिंस, द्रव्य जमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।६।।
परस, कान ।
परस घ्राण ।
रस, जुबान ।
विषय भोग नयन रमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।७।।
मूल खास ।
गुण न रास ।
मद्य, मांस ।
उदम्बरा व मधुरिमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।८।।
निशी दीस ।
दिवस तीस ।
दुई-बीस ।
भखे अभख मति भिरमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।९।।
शयन रात ।
सुपन पांत ।
त्रुटिन हाथ ।
जाग, भाग नाक दमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।१०।।
उठा राख ।
मींच आंख ।
चीज़ चाख ।
भज प्रमाद तज नियमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।११।।
खोद खेत ।
चिन निकेत ।
हरित भेद ।
रखें भाव क्रूरतमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।१२।।
बिना जाग ।
लगा आग ।
चुनर दाग ।
फिर फिर विकल्प जन्मा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।१३।।
बन अधीर ।
ढ़ोल नीर ।
हा ! समीर ।
दी बिलोल वशी गुमां ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।१४।।
पिसा शाम ।
सुखा धाम ।
भखा, राम ! ।
नाज घुना खो गरिमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।१५।।
गली, द्वार ।
घर बुहार ।
दी विदार ।
जीव राशि होश गुमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।१६।।
क्रिया हान ।
जल जिवाण ।
नीर थान ।
नाहिं भेज सका अमां ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।१७।।
खो विवेक ।
मोरि फेंक ।
जल कुछेक ।
मल, विघात कुल किरमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।१८।।
धोय चीर ।
नदी-तीर ।
जीव पीर ।
पाय हाय ! कोस प्रमां ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।१९।।
हिंस भाज ।
रंभ साज ।
द्रव्य काज ।
कृत पर न रहा शरमा ।
पाप ढ़ेर मेर समां ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।२०।।
आद आद ।
पाप हाथ ।
जगन्नाथ ! ।
दुखद तिन उदय करमा ।
ओ ! अहो ! ! परमात्मा ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।२१।।
तुम दयाल ! ।
आग ताल ।
नाग माल ।
सुर-गुरु अगम्य महिमा ।
ओ ! अहो ! ! परमात्मा ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।२२।।
दे न तूल ।
भूल भूल ।
सुख अमूल ।
करो ‘निरा-कुल’ धरमा ।
ओ ! अहो ! ! परमात्मा ।।
करो क्षमा-करो क्षमा, नमो-नम: ।।२३।।
दोहा=
शब्द अनूठा है क्षमा,
बोलो रख श्रद्धान ।
माँ, महात्मा, परमात्मा,
करुणा, दया निधान ।।२४।।
दोहा=
बैठ निकट जिन-देव के,
रख सिर मुकुलित हाथ ।
पापों की निंदा करूँ,
कारण अन्त समाध ।।१।।
मायावी ।
मैं पापी ।
छलिया भी ।
अब शरणा ।
तुम चरणा ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।।२।।
त्रस, थावर ।
मन बाहर ।
मनवा ‘वर’, गुम करुणा ।।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।३।।
कषाय चौ ।
कषाय औ ।
कषाय नौ, अघ लखना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।४।।
नव कोटिक ।
रंभादिक ।
क्रोधादिक, अघ गणना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।५।।
रीत विलय ।
इकान्त ‘नय’ ।
अग संशय, भव भ्रमणा ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।६।।
हिंस, असत् ।
चौर्य निरत ।
पर-तिय रत, अति तिसना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।७।।
घ्राण, मनस् ।
विषय सरस ।
भोग परस, दृश, श्रवणा ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।८।।
पंच फलम् ।
उदम्बरम् ।
मद्य, मधुम्, ‘पल’ भखना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।९।।
बीस दुयक ।
हहा ! अभख ।
उदर हरख, छक भरना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।१०।।
रात शयन ।
पांत सुपन ।
हाथ त्रुटिन, जग हिरना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।११।।
कीच चरण ।
मींच नयन ।
चीज़ ग्रहण, वा रखना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।१२।।
विकल्प बस ।
नश साहस ।
वश आलस, प्रण डिगना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।१३।।
भूमि खनन ।
खेल पवन ।
जल क्रीड़न, चिन भवना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।१४।।
जला अगन ।
बिन शोधन ।
हरि भक्षण, रात-दिना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।१५।।
पिसा रयन ।
सुखा तपन ।
बींध्यो अन, मुख रखना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।१६।।
दर आंगन ।
झाड़ भवन ।
चींवटियन, जाँ हरना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।१७।।
विधान छल ।
जिवाण जल ।
थानक चल, ना रखना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।१८।।
नदियन तट ।
धोये पट ।
कोसन तक, विष बहना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।१९।।
तिसना जुत ।
रंभ बहुत ।
हिंसा बुत, धन धन ! ना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।२०।।
इत्यादिक ।
हा ! मा ! धिक् ! ।
अघ मालिक !, फल दुगना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
अब शरणा, तुम चरणा ।।२१।।
प्रभाव तुम ।
नाग कुसुम ।
आग जु गुम, क्या कहना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
जग चर्चित तुम करुणा ।।२२।।
तूल न वर ।
भूल बिसर ।
राख अखर, जश अपना ।
ओ ! अहो ! ! दृग् झरना ! ।
मृग हिरणा समशरणा ।।२३।।
दोहा=
सहज-‘निरा-कुल’ता जहां,
ले चालो उस गांव ।
भार बहुत मेरा नहीं,
खाली भी तुम नाव ।।२४।।
दोहा=
पाद मूल में बैठ के,
बन करके जिन-दास ।
पापों की निंदा करूँ,
ह्रदय शुद्धि अभिलाष ।।
पाप गठरिया भारी ।
शरण मुझे अब थारी ।।
इकल विकल इन्द्री वा ।
रहित सहित मन जीवा ।
दया न तिनकी धारी ।
पाप गठरिया भारी ।।१।।
नन्त अप्रत्याख्याना ।
संज्वल प्रत्याख्याना ।।
नो कषाय मति काली ।
पाप गठरिया भारी ।।२।।
त्रिक समरंभ-करोती ।
चउ कषाय नव कोटी ।।
शतक अष्ट दुरिता ‘री ।
पाप गठरिया भारी ।।३।।
हा ! संशय विपरीता ।
अज्ञ, इकान्त विनीता ।।
कुगुरु, कुदेव पुजारी ।
पाप गठरिया भारी ।।४।।
चोरी, सीनाज़ोरी ।
झूठा, भरी तिजोरी ।।
दृग् जोरी पर-नारी ।
पाप गठरिया भारी ।।५।।
विषय कान, रस भोगे ।
विषय घ्राण दृश भोगे ।।
विषय परस परसा ‘री ।
पाप गठरिया भारी ।।६।।
पंच उदम्बर खाये ।
मद्य, मांस, मधु भाये ।।
अभख दुबीस अहारी ।
पाप गठरिया भारी ।।७।।
निद्रा गोद समाया ।
सुपने दोष लगाया ।।
उठ मृग सा दौड़ा ‘री ।
पाप गठरिया भारी ।।८।।
वस्तु शोध बिन खाई ।
सहसा रखी, उठाई ।।
अशन सदोष निहारी ।
पाप गठरिया भारी ।।९।।
विकलप, वश परमादा ।
टूक टूक मरजादा ।
मति मोरि गई मारी ।
पाप गठरिया भारी ।।१०।।
नीर अनछना ढ़ोला ।
पंखा पवन बिलोला ।।
हा ! कोठी चिन डाली ।
पाप गठरिया भारी ।।११।।
काची हरि चबाई ।
सहसा अग्नि जलाई ।।
खोद चला वसुधा ‘री ।
पाप गठरिया भारी ।।१२।।
बींध्यो नाज पिसायो ।
बींध्यो नाज सुखायो ।।
खायो नाज घुना ‘री ।
पाप गठरिया भारी ।।१३।।
ले झाड़ू घर द्वारे ।
सुबहो सांझ बुहारे ।।
चिंवटी आद संहारी ।
पाप गठरिया भारी ।।१४।।
कीनी छानि जिवाणी ।
डारि न थानक पानी ।।
पातर कड़ा विसारी ।
पाप गठरिया भारी ।।१५।।
जल मल मोरि गिरायो ।
कृमि-कुल घात करायो ।।
पट, पन-घट धोया ‘री ।
पाप गठरिया भारी ।।१६।।
हिंसा बहु-आरंभा ।
साधा अंधा-धंधा ।।
बाढ़ द्रव्य मटियारी ।
पाप गठरिया भारी ।।१७।।
ले इन आद अनन्ता ।
बने पाप भगवन्ता ! ।।
उर, तिन उदय विदारी ।
शरण मुझे अब थारी ।।१८।।
नाग बदल, गुल माला ।
बदल चला जल ज्वाला ।।
विरद अगम पविधारी ।
शरण मुझे अब थारी ।।१९।।
भूल भुला दो मोरी ।
सौख्य ‘निरा-कुल’ झोरी ।
आन पड़े इस बारी ।
शरण मुझे अब थारी ।।२०।।
दोहा=
सुनते नैय्या आपकी,
भगवन् बड़ी विशाल ।
म्हारो कमती बोझ है,
शिव ले चलो बिठाल ।।
देव शास्त्र गुरु-देव को,
वन्दन विनय समेत ।
पापों की निंदा करूँ,
निर्मल परिणति हेत ।।
पाप गठरी भारी ।
शरण केवल थारी ।।
अक्ष इक, वे, ते, चौ ।
जीव विरहित मन औ ।।
विघाते मन-धारी ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।१।।
नन्त प्रत्याख्याना ।
नो अप्रत्याख्याना ।।
संज्वल कषाया ‘री ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।२।।
कोटि-नव क्रोधादी ।
योग सम-रंभादी ।।
आठ-शत दुरिता ‘री ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।३।।
विपरीत, एकान्ता ।
अज्ञान, संभ्रान्ता ।।
विनय मिथ्या-चारी ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।४।।
झूठ, हिंसा, चोरी ।
नार पर दृग् जोरी ।।
तिजोरी बलिहारी ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।५।।
छक कान रस भोगे ।
रस, घ्राण, दृश भोगे ।।
रस परस परसा ‘री ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।६।।
उदम्बर, फल खाये ।
मांस, मधु, मय भाये ।।
न मन तरंग मारी ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।७।।
अभख जे बाबीसा ।
मुख रखे निश-दीसा ।।
फिर भी मनुआ खाली ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।८।।
वशी निद्रा सोया ।
पाप सपने बोया ।।
जाग फिर दौड़ा ‘री ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।९।।
रख उठाई चीजें ।
आंख रखते मींचें ।।
निहार सदोषा ‘री ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।१०।।
वश-भूत परमादा ।
टूक दो मरजादा ।।
पिटार विकल्पा ‘री ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।११।।
खोद भू-तल, हारा ।
चिनाया घर द्वारा ।।
गई मति ही मारी ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।१२।।
ढ़ोल जल अनछाना ।
बिलोली पवमाना ।।
भखी हरि मनहारी ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।१३।।
जलाई बिन देखे ।
अग्नि ईधन लेके ।।
घुना अन पीसा ‘री ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।१४।।
बुहारे घर द्वारे ।
जीव जेते सारे ।।
गोद यम अधिकारी ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।१५।।
डाल जल-मल मोरी ।
घात कृमि-कुल झोरी ।।
जिवाण न जल डाली ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।१६।।
चीर धो नदिया हा ! ।
जीव कोसन स्वाहा ।।
कमाई धन काली ।
पाप गठरी भारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।१७।।
आद ये अघ नन्ता ।
बन पड़े भगवन्ता ।।
उदय तिन दुख-कारी ।
कृपा तुमरी न्यारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।१८।।
चीर सति बढ़ चाला ।
नाग बदले माला ।।
आग जल बन चाली ।
आज मेरी बारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।१९।।
चितारो अवगुन ना ।
सम्हारो जश अपना ।।
‘निरा-कुल’ अविकारी ।
करो रक्षा म्हारी ।।
इक क्षमा भण्डारी ! ।
शरण केवल थारी ।।२०।।
दोहा=
भूल बन पड़ी दो क्षमा,
ज्यों ही किया कबूल ।
मॉं, महात्मा, परमात्मा,
तुरत भुला दे भूल ।।
दोहा=
देव शास्त्र गुरुदेव को,
कोटि अनन्त प्रणाम ।
पापों की निन्दा करूॅं,
कारण सु-मरण शाम ।।
पाप पोटरी ।
आन सिर पड़ी ।
‘धरा’ धरा दो ।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।
जीव असंज्ञी ।
जीविक संज्ञी ।
जीव एक, वे, ते, चौ इन्द्री ।।
हृदय दुखाया ।
इन्हें सताया ।
भूल हो चली ।
दया तुम निरी ।।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।१।।
प्रत्याख्याना- ।
अप्रत्याख्याना ।
बन्ध अनंता, संज्वल नाना ।।
चौ कषाय चौ ।
नो कषाय नौ ।
बीस पन कड़ी ।
भूल हो चली ।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।२।।
लोभ कषाया ।
कुप, मद, माया ।
कारि, मोद, कृत, मन, वच, काया ।।
त्रिक समरंभा ।
पाप प्रसंगा ।
आठ शत गली ।
भूल हो चली ।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।३।।
कुधर्म प्रीता ।
हा ! विपरीता ।
संशय अज्ञ, इकान्त विनीता ।।
सेव कुदेवा ।
कुगुरु सेवा ।
भवद बल्लरी ।
भूल हो चली ।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।४।।
सीनाज़ोरी ।
झूठ तिजोरी ।
औरन गोरी, सों दृग् जोरी ।।
सपरस, काना ।
रस, दृश घ्राणा ।
प्रीति सिर चढ़ी ।
भूल हो चली ।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।५।।
फल उदम्बरा ।
मांस, मधु, सुरा ।
गये कहीं वसु, मूल-गुण हरा ।।
भख निशि-दीसा ।
अभख दुबीसा ।
बनी नर भरी ।
भूल हो चली ।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।६।।
वश निद्रा ई ।
शयन कराई ।
लगा पांत हा ! दोष लगाई ।।
भज परमादा ।
तज मरजादा ।
विकल-पन लड़ी ।
भूल हो चली ।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।७।।
आंखें मीचें ।
रख दी नीचें ।
देखे बिना, उठाईं चीजें ।।
हा ! आहारा ।
हहा ! निहारा ।।
भरी डग हरी ।
भूल हो चली ।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।८।।
महल चिनाई ।
अग्नि जलाई ।
साबुत, काची हरी चबाई ।।
पवन बिलोल्यो ।
हा ! जल ढ़ोल्यो ।
खोद भू धरी ।
भूल हो चली ।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।९।।
घाम सुखायो ।
शाम पिसायो ।
खाओ धुनो, अनाज खिलायो ।।
द्वार बुहारे ।
सांझ सकारे ।
चींवटी मरी ।
भूल हो चली ।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।१०।।
छानि जिवाणी ।
डारि न पानी ।।
पात्र कड़े बिन, किरिया हानी ।।
चीर धुवाये ।
जीव मराये ।
कोस तलक ‘री ।
भूल हो चली ।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।११।।
जल मल छोड़ी ।
पल-पल मोरी ।
जम खों प्यारो, कृमि कुलवो ‘री ।।
हिंसा रंभा ।
अंधा धंधा ।
द्रव्य जोड़ ली ।
भूल हो चली ।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।१२।।
इन्हें आद ले ।
पाप बन पड़े ।
कर्ज माँगने, कर्म आ खड़े ।।
केवल-ज्ञानी ।
तुम शिव-थानी ।
शरण आखरी ।
कृपा तुम निरी ।
क्षमा करा दो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।१३।।
नाग गुल बनी ।
आग जल बनी ।
चित्त ‘चोर’ सुख, निरा’कुल धनी ।।
त्रुटि न चितारो ।
विरद सम्हारो ।
खुद निरक्षरी ।
‘अर-जी’ हमरी ।
बस अपना लो ।।
तेरे सिवा, न कोई मेरा ।
नहीं पराया, मैं भी तेरा ।।१४।।
दोहा=
छै छै बैठीं मॉं, चुनो,
शब्द क्षमा अनमोल ।
माँ, महात्मा, परमात्मा,
रक्खें नम दृग् कोर ।।
दोहा=
शासन नायक वर्तमाँ,
जयतु पंच गुरु-देव ।
पापों की निन्दा करूँ,
रखना कृपा सदैव ।।
*चौपाई*
क्षमा कीजिये भूल हमारी ।
हमें शरण अब सिर्फ तुम्हारी ।।
हा ! इक, वे, ते, चउ इन्द्री वा ।
संज्ञि-असंज्ञि विराधे जीवा ।।१।।
बन्ध अनन्त, अप्रत्याख्याना ।
संज्वल, चतुष्क प्रत्याख्याना ।।
नौ नो कषाय इन वश-भूता ।
किया पाप सब होवे झूठा ।।२।।
समारंभ, संरम्भा-रम्भा ।
पाप वचन, मन, तन प्रारंभा ।।
कृत, कारित, अनुमोद कषाया ।
भेद एक सौ आठ सुहाया ।।३।।
हा ! विपरीत, विनय, एकान्ती ।।
संशय, अज्ञानी, धृत भ्रान्ती ।।
सेव कुगुरु हा ! कुधर्म सेवा ।
होवे मिथ्या सेव कुदेवा ।।४।।
पहुॅंचाई जीवों को बाधा ।
बहु आरंभ परिग्-ग्रह साधा ।।
कहा झूठ, की सपने चोरी ।
हा ! पर-वनिता सों दृग् जोरी ।।५।।
पंच उदम्बर फल खाये हैं ।
मद्य, मांस, मधु मन भाये हैं ।।
हा ! कब अष्ट मूल-गुण धारे ।
भखे अभक्ष्य बीस-दो सारे ।।६।।
परस विषय सेवन मन, रसना |
कर्ण, घ्राण, दृग् इन्द्रिय वश ना ।।
शयन नींद के वश कर आया ।
हा ! सपने में दोष लगाया ।।७।।
पल आहार, निहार, विहारा ।
राख न पाया यत्नाचारा ।।
बिन देखे रख, चीज उठाई ।
वस्तु बिना सोधे ही खाई ।।८।।
हाय ! प्रमाद पड़ा है पीछे ।
उठे विकल्प खींचते नीचे ।।
तुम समीप मर्यादा कीनी ।
देर न लगी, तोड़ झट दीनी ।।९।।
पृथ्वी खोदी, हर्ष मनाया ।
छूता नभ प्रासाद चिनाया ।।
कब छाना, हा ! ढ़ोला पानी ।
वायु बिलोली, की नादानी ।।१०।।
बिन देखी-परखी बिन जांची ।
हरी विदारी साबुत काची ।।
जनत न राखा अग्नि जलाई ।
जीवित जीव-राशि झुलसाई ।।११।।
तपती धूप सुखाने डाला ।
घुना अनाज पिसाने चाला ।।
झाड़ू ले घर-द्वार बुहारे ।
जीव चींवटी आदि विदारे ।।१२।।
हा ! हा ! निरत न क्रिया जिवाणी ।
भूल कड़ा पातर मनमानी ।।
हा ! जल-मल मोरियन गिराया ।
कृमि-कुल घात पाप उपजाया ।।१३।।
चीर धुवाये साबुन सोड़ा ।
दागदार हा ! दामन ओढ़ा ।।
बहु आरंभ साध हिंसा हा ! ।
अर्जन द्रव्य पूर्व-पुन स्वाहा ।।१४।।
किये पाप इत्यादि अनन्ता ।
तुम अन्तर्यामी भगवन्ता ! ।।
मुझे तुम्हारा सिर्फ सहारा ।
मुझे भरोसा सिर्फ तुम्हारा ।।१५।।
आग सरोवर कमलों वाला ।
नाग बनाया तुमने माला ।।
आप न मेरे दोष चितारो ।
विरद राख निज, पार उतारो ।।१६।।
दोहा=
नाव बड़ी है आपकी,
म्हारो थोड़ो भार ।
देश ‘निरा-कुल’ ले चलो,
कर मुझको स्वीकार ।।
दोहा=
जय जिन, जय माँ सरसुती,
सूरि, पाठि, जय साध ।
पापों की निन्दा करूँ,
आत्म शुद्धि आराध ।।
लग चला पापों का अम्बार ।
मुझे अब शरण तुम्हारा द्वार ।।
एक, वे, ते, चौ इन्दिय जीव ।
बुझाया रहित-सहित मन दीव ।।१।।
नन्त अनुबंध, अप्रत्याख्यान ।
चौकड़ी संज्वल, प्रत्याख्यान ।।
षोडसी नौ नो नाम कषाय ।
बीस-पन भेद, पाप दुखदाय ।।२।।
योग समरंभ कारि, कृत, मोद ।
आठ-शत पाप चतुष्टय क्रोध ।।
अज्ञ, संशय, एकांत, विनीत ।
कुगुरु रति, मिथ्यातम विपरीत ।।३।।
खोट मन आँखन, लूट खसोट ।
झूठ, हिंसा, सिर परिग्रह पोट ।।
घ्राण, सपरस, रस भोगे भोग ।
कर्ण, मानस, दृश भोगे भोग ।।४।।
उदम्बर भखे मद्य, मधु, मांस ।
अभख बाबीस आ चले रास ।।
नींद वश-भूत कर चला शैन ।
दोष लागे सपने सब रैन ।।५।।
उठाईं रखीं वस्तु बिन देख ।
रखी मुख वस्तु, हाय ! अविवेक ।।
समय आहार, विहार, निहार ।
रख सका हाय ! न यत्नाचार ।।६।।
ताँत लग विकलप, वशी प्रमाद ।
टूक दो ढ़िग तुम ली मर्याद ।।
चिनाया घर, बिलोल पवमान ।
खोद भू, ढ़ोला जल बिन छान ।।७।।
विदारी हरी, जलाई आग ।
झाड़ घर, खेली खूनी फाग ।
पिसायो रातरि धुनो अनाज ।
सुखायो, घुनो खिलायो नाज ।।८।।
जिवाणी कब भेजी जल-थान ।
कड़े बिन पातर किरिया हान ।।
बहा जल-मल मोरिन दिन रात ।
हहा ! कृमि-कुल झोरिन बहु घात ।।९।।
छुवाये चीर तीर नद, ताल ।
मर चले जीव कोस तत्काल ।।
साध हिंसा, भज बहु-आरंभ ।
कमाया द्रव्य कर चला दंभ ।।१०।।
पाप इत्याद बन पड़े मोर ।
करे तिन प्रतिफल नम दृग् कोर ।।
तरण-तारण ! तुम अन्तर्याम ।
सिर्फ तुम भुवन-भुवन इक स्वाम ।।११।।
नाग गुल माला आप प्रभाव ।
आग विकराला ताप अभाव ।।
चितारो औ’गुन नाहिं हमार ।
मुझे तारो निज विरद सम्हार ।।१२।।
दोहा=
लगन ‘निरा-कुल’ सुख लगी,
अपनी नाव बिठार ।
शिव राधा घर छोड़ दो,
अधिक न म्हारो भार ।।
दोहा=
कर प्रणाम जिन-देव को,
हाथ जोड़ रख भाल ।
पापों की निन्दा करूॅं,
तीनों संध्या काल ।।
संभल-संभल भी दोष बन पड़े,
कर दो मुझे क्षमा ।
शरण, समाधी मरण तलक अब,
अ-सि-सा नमो-नम: ।।
संज्ञी, असंज्ञी विकलत्रय त्रस,
वा थावर जीवा ।
धार न करुणा, फूँक बुझाया,
तिन जीवन दीवा ।।
यद्यपि ‘जिओ और जीने दो’
सन्देशा श्रुत माँ ।
संभल-संभल भी दोष बन पड़े,
कर दो मुझे क्षमा ।।१।।
बन्धन-अनंत, प्रत्याख्याना,
अप्रत्याख्याना ।
मिल संज्वलन चौकड़ी षोडश,
अघ ताना-बाना ।।
नो कषाय, नौ भेद बीस-पन,
करके करूँ गुमाँ ।
संभल-संभल भी दोष बन पड़े,
कर दो मुझे क्षमा ।।२।।
समारंभ, समरंभा-रंभा,
वाणी, मन, काया ।
कृत, कारित, अनुमोद, क्रोध वा,
मान, लोभ, माया ।।
पाप एक सौ आठ सभी मिल,
ढ़ेर सुमेर समां ।
संभल-संभल भी दोष बन पड़े,
कर दो मुझे क्षमा ।।३।।
हा ! विपरीत, विनय, एकान्ती,
संशय, अज्ञानी ।
वशी-भूत कर चला घोर अघ,
सम-दर्शन हानी ।।
सेव कुदेवा, कुगुरु सेवा,
रति हिंसक धर्मा ।।
संभल-संभल भी दोष बन पड़े,
कर दो मुझे क्षमा ।।४।।
बहु आरंभ परिग्रह साधा,
धन औरन चोरी ।
पहुँचाई जीवों को बाधा,
दृग् पर-तिय जोरी ।।
विषय भोग रस, कर्ण, घ्राण, दृश,
मानस, परस रमा ।
संभल-संभल भी दोष बन पड़े,
कर दो मुझे क्षमा ।।५।।
पंच उदम्बर फल खाये हैं,
हा ! हा ! निशि-दीसा ।
मद्य, मांस, मधु मन भाये हैं,
अभक्ष्य बाबीसा ।।
सोया, सपने खोया, जागा-
चकरी भाँत घुमा ।
संभल-संभल भी दोष बन पड़े,
कर दो मुझे क्षमा ।।६।।
बिन देखे रख, चीज उठाई,
हावी परमादा ।
वस्तु बिना शोधे ही खाई,
तोड़ी मरजादा ।।
जतन वगैरे विहार, निहारा,
मनु काँदे कदमा ।
संभल-संभल भी दोष बन पड़े,
कर दो मुझे क्षमा ।।७।।
छूता नभ प्रासाद बनाया,
पानी कब छाना ।
पृथ्वी खोदी हर्ष मनाया,
बिलोल पवमाना ।।
हरी विदारी साबुत काची,
परणति क्रूरतमा ।
संभल-संभल भी दोष बन पड़े,
कर दो मुझे क्षमा ।।८।।
ईंधन जतन न राख, जलाया,
जीवन झुलसाया ।
धूप सुखाया, रात पिसाया,
घुना नाज खाया ।।
झाड़ू ले घर द्वार बुहारे,
प्यारे जीव यमा ।
संभल-संभल भी दोष बन पड़े,
कर दो मुझे क्षमा ।।९।।
चीर धुवाये साबुन सोड़ा,
कोस जीव मारे ।
दागदार हा ! दामन ओढ़ा,
हाथ रॅंगे काले ।।
हा ! जल-मल मोरिन गिरवाया,
विघात कुल-किरमा ।
संभल-संभल भी दोष बन पड़े,
कर दो मुझे क्षमा ।।१०।।
निरत न क्रिया जिवाणी हा ! हा !
पातर कड़ा भुला ।
बहु आरंभ साध हिंसा हा !,
‘कर-धन’ कहाँ भला ।।
किये पाप इत्याद अनंता,
दुखद उदय करमा ।
शरण, समाधी मरण तलक अब,
अ-सि-सा नमो-नम: ।।११।।
आग सरोवर कमलों वाला,
तुम दयालु नामी ।
नाग बनाया तुमने माला,
तुम कृपालु स्वामी ।।
त्रुटि न चितारो, विरद सम्हारो,
कर लो स्वयं समां ।
शरण, समाधी मरण तलक अब,
अ-सि-सा नमो-नम: ।।१२।।
दोहा=
अहो ! ‘निरा-कुल’ सुख धनी,
ले चालो शिव गांव ।
धूप यहां सारा जहां,
माँ, महात्मा, बस छांव ।।
दोहा=
माँ, महात्मा, परमात्मा,
साक्षि ग्रन्थ सिद्धांत ।
पापों की निन्दा करूॅं,
हित शुचि आद्योपान्त ।।
माँ, महात्मा, परमात्मा,
पाप सभी कर आया हा ! ।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।
इन्द्रिय इक, वे, ते, चौ, पन ।
रहित-सहित जीवा जे मन ।।
उनका हृदय दुखाया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।१।।
नन्त-बन्ध, प्रत्याख्याना ।
संज्वल, अप्-प्रत्याख्याना ।।
बीस-पन नो कषाया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।२।।
समारंभ, सम-आरंभा ।
पाप कोटि-नव प्रारंभा ।।
क्रोध, लोभ, मद, माया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।३।।
हा ! अज्ञान, विनय, संशय ।
हा ! इकान्त, विपरीत कुनय ।।
धर्म दया झुठलाया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।४।।
परिग्रह पोट, झूठ, चोरी ।
हिंसा, दृग् पर-तिय जोरी ।।
विषय भोग मन भाया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।५।।
पंच उदम्बर पल खाये ।
मद्य, मांस, मदिरा भाये ।।
उदर अभक्ष्य भराया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।६।।
गोद नींद जा लेटा था ।
सपने में उठ बैठा था ।।
जाग विषय वन धाया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।७।।
मुख रख लिया आँख मींचे ।
सहसा उठा रखा नीचे ।।
पल-मार्जन अलसाया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।८।।
बहु विकल्प, वश परमादा ।
टूकन-टूकन मरजादा ।।
फणि लख चाल लजाया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।९।।
पवन बिलोला, जल ढ़ोला ।
पट धो, पन-घट विष घोला ।
अनगिन जीव सताया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।१०।।
हरी चबाई, भू खोदी ।
अग्नि जलाई बिन शोधी ।।
नभ लग महल चिनाया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।११।।
नाज पिसायो घुन लागो ।
धूप सुखायो अन दागो ।।
खिला, घुना अन खाया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।१२।।
घर बुहार आँगन द्वारे ।
चिंवटी आद जीव मारे ।।
पन-शूना अपनाया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।१३।।
जान जिवाण फेंक दीनी ।
कब जल-थानक तक कीनी ।।
पातर कड़ा भुलाया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।१४।।
जल मल मोरिन गिरवायो ।
कृमि कुल घात हाथ आयो ।।
चूनर दाग लगाया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।१५।।
काला द्रव्य कमाया हा ! ।
पूरब पुण्य भॅंजाया हा ! ।
ऊपर से हरषाया हा ! ।
पाप सभी कर आया हा ! ।।
करो क्षमा, करो क्षमा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।१६।।
पाप आदि ये, जे नन्ता ।
बन चाले श्री भगवन्ता ।।
प्रतिफल तीन सिर आया हा ! ।
दृग् क्या उर भर आया हाँ ! ।।
करो कृपा, करो कृपा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।१७।।
तुम दयाल पानी ज्वाला ।
तुम कृपाल फणि गुल माला ।।
चोरन भी अपनाया हाँ ! ।।
मैं भी नहीं पराया हाँ !
करो कृपा, करो कृपा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।१८।।
न चितारो मेरे अवगुण ।
विरद सम्हारो निज भगवन् ।।
सुना, ‘निरा-कुल’ सुख आहा ! ।
तभी शरण तुम आया हाँ ! ।
करो कृपा, करो कृपा ।
नमो नमः, नमो नमः ।।१९।।
दोहा=
चरणों में रख लीजिये,
दुनिया तपती धूप ।
आप अकेले छाहरी,
मीठे जल के कूप ।।
दोहा=
देव-देव गुरु-देव के,
चरणन कोटि प्रणाम ।
पापों की निन्दा करूँ,
भजने आतम राम ।।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।
जीव विकलेन्द्री ।
जीव सकलेन्द्री ।
जाने अनजाने उन सबका,
घात बन पड़ा ।।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।१।।
नन्त अनुबन्धन ।
अन्त संज्वलनन ।
षोडश कषाय ओ कषाय नो,
पाप सिर मढ़ा ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।२।।
कारि, कृत, मोदन ।
काय, वच, औ मन ।
रंभादिक, क्रोधादिक शत-वसु,
पाप श्रृंखला ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।३।।
कुनय विपरीता ।
संशय, विनीता ।
अज्ञान, एकान्त या विध,
मिथ्या-तिमिर बढ़ा ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।४।।
हिंसा जु चोरी ।
पर-तिय ठिठोली ।
धिक् झूठा,
सिर पर गॉंठों पे गाँठ रख चला ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।५।।
खो के सुध मनस् ।
भोगे विषय, रस ।
दृश, गन्धस्-परस, शब्द
बनकर भ्रमर बावला ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।६।।
मांस, मधु, मदिरा ।
पाँच उदम्बरा ।
भूल मूल-गुण अठ,
उदर अभख, बीस-दो भरा ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।७।।
थक, हार सोया ।
स्वप्न में खोया ।
जागा फिर मृग-कस्तूरी सा,
होड़ जा खड़ा ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।८।।
लीं, रखीं नीचे ।
वस्तु दृग् मींचे ।
बन परमादी, तज प्रण आदि
विकल्पों से जुड़ा ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।९।।
चिन लिया भवना ।
बिलोली पवना ।
ढ़ोला जल वगैर छाना,
खोदी वसुन्धरा ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।१०।।
ततूर सुखायो ।
अन घुन पिसायो ।
खायो, खिलायो कन्द-मूलरु,
पत्ता, फल हरा ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।११।।
बुहारे द्वारे ।
जीव यम प्यारे ।
क्या जलाई अग्नि,
बीच दिये जीव ही जला ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।१२।।
सहसा जिवाणी ।
हा ! क्रिया हानी ।
ना भेजी जल-थान,
भुलाया ‘रे पात्र कड़ा ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।१३।।
जल-मल प्रपाता ।
कृमि कुल विघाता ।
चीर तीर धोये,
मानो विष नीर घुल चला ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।१४।।
वश-भूत तिसना ।
विस्मरण करुणा ।
बहु आरंभ, हा ! हिंसा भज,
कमाई चंचला ।
हा ! धीरे-धीरे पापों का,
ढ़ेर लग चला ।
सुमेर सा बड़ा ।
कर दो क्षमा,
भगवन् ! कर दो क्षमा ।।१५।।
पाप यह नन्ता ।
हाथ भगवन्ता ।
ताको कर्मोदय,
ना सहा जाये अब जरा ।
कर दो कृपा,
भगवन् ! कर दो कृपा ।।१६।।
नाग गुल माला ।
आग जल धारा ।
तुम दयाल, तुम कृपाल,
तुम ही भक्त वत्सला ।
कर दो कृपा,
भगवन् ! कर दो कृपा ।।१७।।
त्रुटि मत चितारो ।
जश निज सम्हारो ।
सौख्य निराकुल राधा से,
मम ब्याह दो करा ।।
कर दो कृपा,
भगवन् ! कर दो कृपा ।।१८।।
दोहा=
देर खड़े कब रह सकें,
क्षमा सामने पाप ।
वज्र प्रहार न सह सकें,
सार्थ नाम ‘गिर’ कॉंप ।।
दोहा=
ग्रन्थ, पन्थ, निर्ग्रन्थ को,
नुति नव-कोटि समेत ।
पापों की निन्दा करूँ,
निस्तरंग मन हेत ।।
लगा के तार ।
हा ! लगातार ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
झुका के माथ ।
जोड़ के हाथ ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।
विकल इन्द्रीय ।
सकल इन्द्रीय ।
हाथ जीव घात रॅंगे ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।१।।
सोलो कषाय ।
नौ नो-कषाय ।
अघ पाँच बीस जकड़े ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।२।।
योग, रंभाद ।
किरत-क्रोधाद ।
इक सौ आठ अघ जुड़े ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।३।।
अज्ञ, विपरीत ।
संशय, विनीत ।
मत एकान्त सिर मढ़े ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।४।।
हिंसा व झूठ ।
परिग्रह व लूट ।
दृग् पर-नार जुड़ चले ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।५।।
परस, दृश, घ्राण ।
मनस्, रस, कान ।
विषयन भोग सिर चढ़े ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।६।।
आ चले रास ।
मद्य, मधु, मांस ।
फल उदम्बर मुख रखे ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।७।।
हरख निशि-दीस ।
अभख बाबीस ।
भरने उदर पग बढ़े ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।८।।
वश नींद शैन ।
मत्त सब रैन ।
मृगवत् जाग डग भरे ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।९।।
लीं, रखीं चीज ।
रखीं दृग् मींच ।
मुख रख लिया बिन लखे ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।१०।।
हा ! वश प्रमाद ।
टूक मर्याद ।
विकल्प मनु रहट घड़े ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।११।।
बिलोल समीर ।
हा ! ढ़ोल नीर ।
साबुत भखे फल हरे ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।१२।।
भूमि बहु खोद ।
चिनाये कोट ।
जीव अनल झुलस जरे ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।१३।।
सुखाये घाम ।
पिसाये शाम ।
दागी दाने जु घुने ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।१४।।
झाड़ू बुहार ।
आंगन अटार ।
जीव चिंवटादिक मरे ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।१५।।
भुला जल-थान ।
ढ़ोली जिवाण ।
वो भी पात्र बिन कड़े ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।१६।।
जल-मल प्रपात ।
कृमि कुल विघात ।
तट, पट धोय विष घुरे ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।१७।।
हिंसा अराध ।
आरंभ साध ।
सिक्के जेब खनखने ।
सबरे पाप बन पड़े ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।१८।।
पाप इत्याद ।
झोरी विधात ! ।
जायें फल कहॉं सहे ।
हा ! जिया चीख भरे ।।
अश्रु आंख से झिरे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।१९।।
नाग गुल-माल ।
आग जल धार ।
तुम भगत वत्सल बड़े ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।२०।।
दुरित न चितार ।
जश निज सम्हार ।
कर लो ‘निरा-कुल’ मुझे ।
तुमरे द्वार हम खड़े ।।२१।।
दोहा=
आप शब्द गलती कहे,
मैं गल चालूॅं आप ।
क्षमा क्षमा कहते हुए,
किया ‘कि पश्चाताप ।।
दोहा=
नमन कोटि, नव देवता,
श्रृद्धा भक्ति समेत ।
पापों की निन्दा करूँ,
हित व्रत मन्दिर केत ।।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।
शरण मुझे अब चरण तुम्हारे ।।
थावर वे, ते, चउ इन्द्री वा ।
जीव असंझी-संज्ञी जीवा ।।
मैं निमित्त ये स्वर्ग सिधारे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।१।।
बन्ध-अनंत, अप्रत्याख्याना ।
संज्वल, चतुष्क प्रत्याख्याना ।।
नो-कषाय अघ पचीस द्वारे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।२।।
समारंभ, संरम्भा, रंभा ।
कषाय नव-कोटिक प्रारंभा ।।
पाप एक सौ आठ हहा ‘रे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।३।।
अज्ञानी, संशयी, विनीता ।
हा ! एकान्ती, हा ! विपरीता ।।
कुगुरु रहे आदर्श हमारे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।४।।
नार-पराई जोरी आंखें ।
बहु आरंभ परिग्रह राखें ।।
हिंसा, झूठ, लूट हा हा ‘रे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।५।।
भोग परस, रस, घ्रानन भोगे ।
भोग मनस्, दृश, कानन भोगे ।।
सांझ सकारे, क्या भुनसारे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।६।।
पंच उदम्बर पल खाये हैं ।
मद्य, मांस, मधु मन भाये हैं ।।
अभख भखे, न मूल-गुण धारे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।७।।
हारा थका नींद ले आया ।
हा ! सपने में दोष लगाया ।।
जाग हिरण कस्तूर नजारे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।८।।
बिन देखे रख चीज उठाई ।
वस्तु बिना सोधे ही खाई ।।
वश प्रमाद यम-नियम विसारे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।९।।
गेह चिनाया, पानी ढ़ोला ।
हा ! पंखा तैं पवन बिलोला ।।
खोदी भूमि कुदाल सहारे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।१०।।
जतन न राखा अग्नि जलाई ।
जीवित जीव राशि झुलसाई ।।
हरी चबाई ले चटखारे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।११।।
तपती धूप सुखाने डाला ।
घुना अनाज पिसाने चाला ।।
जीव विदारे, द्वार बुहारे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।१२।।
हाय ! मोरि जल मल गिरवायो ।
कृमि-कुल घात झोरि बहु आयो ।।
जल-थानक न जिवाणी डारे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।१३।।
बहु आरंभ साध हिंसा हा ! ।
अर्जन द्रव्य, पूर्व पुन स्वाहा ।।
पट, पनघट धो जीव विदारे ।
भगवन् पाप बन पड़े सारे ।।१४।।
किये पाप इत्यादि अनन्ता ।
तुम अन्तर्यामी भगवन्ता ।।
अब जाये तिन फल न सहा ‘रे ।
शरण मुझे अब चरण तुम्हारे ।।१५।।
आग धार-जल तुम्हें पुकारा ।
नाग माल तुम दीन-दयाला ।।
करो मोर भी बारे न्यारे ।
शरण मुझे अब चरण तुम्हारे ।।१६।।
दोहा=
सौख्य ‘निरा-कुल’ पुर वसा,
भगवन् हृदय मंझार ।
बिठा नाव अपनी मुझे,
कर दीजो उस पार ।।
दोहा=
नुति श्रुति, वृष, असि, आ, उसा,
चैत्यालय जिन चैत्य ।
पापों की निन्दा करूॅं,
हित शिव सुन्दर सत्य ।।
संभल संभल भी दोष लग चले सारे ।
मुझे शरण अब केवल चरण तुम्हारे ।।
अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, वनस्पती वा ।
विकलेन्द्रिय वे, ते, चउ इन्द्रिय जीवा ।।
जाने अनजाने सकलेन्द्रि विदारे ।
संभल संभल भी दोष लग चले सारे ।।१।।
अनन्त अनुबन्धन, अप्-प्रत्याख्याना ।
मिला चौकड़ी संज्वल, प्रत्याख्याना ।।
नो-कषाय नौ पाँच-बीस अघ द्वारे ।
संभल संभल भी दोष लग चले सारे ।।२।।
सम-रंभादिक, क्रोध, लोभ, मद, माया ।
कृत, कारित, अनुमोदन, मन, वच, काया ।।
आस्रव पाप एक सौ आठ हहा ‘रे ।
संभल संभल भी दोष लग चले सारे ।।३।।
हा ! एकान्त, संशयी, हा ! विपरीता ।
कुगुरु सेव, अज्ञानी, कुनय विनीता ।।
या विध छाये मनस् पटल अंधियारे ।
संभल संभल भी दोष लग चले सारे ।।४।।
चोरी, सीनाज़ोरी, भरी तिजोरी ।
पर गोरी दृग् जोरी, झूठ कहो ‘री ।।
विषय भोग भोगे होके मतवारे ।
संभल संभल भी दोष लग चले सारे ।।५।।
मद्य, मांस, मधु, पंच उदम्बर भाये ।
अष्ट मूल-गुण एक न कभी सुहाये ।।
भखे अभख बाबीस वगैर विचारे ।
संभल संभल भी दोष लग चले सारे ।।६।।
निद्रा माई गोद नींद वश सोया ।
दोष लग चले ढ़ेरों ऐसा खोया ।।
उठ भागा, कुछ मृग कस्तूर नजारे ।
संभल संभल भी दोष लग चले सारे ।।७।।
सहसा बिन देखे रख, चीज उठाई ।
वस्तु बिना सोधे-बीने ही खाई ।।
बहु विकल्प, वश आलस नियम विसारे ।
संभल संभल भी दोष लग चले सारे ।।८।।
गेह चिनाया, खोदी भू, जल ढ़ोला ।
मनमाना पंखा तैं पवन बिलोला ।।
साबुत-काच भखी हरि ले चटखारे ।
संभल संभल भी दोष लग चले सारे ।।९।।
बिन जांचे ईंधन ले अग्नि जलाई ।
छानि जिवाणी कब जल-थान भिजाई ।।
जीव विदारे, आंगन द्वार बुहारे ।
संभल संभल भी दोष लग चले सारे ।।१०।।
रात पिसायो, अन घुन चलो सुखायो ।
कृमि कुल घातो, जल मल मोरि गिरायो ।।
तीर चीर धो कोसन जीव विदारे ।
संभल संभल भी दोष लग चले सारे ।।११।।
हिंसा साध, अराध बहुत आरंभा ।
पाप कमाया, या धन बनकर अंधा ।।
इत्यादिक अनगिनत पाप हो चाले ।
मुझे शरण अब केवल चरण तुम्हारे ।।१२।।
आग नीर बदली, सति चीर बढ़ाया ।
तुम दयाल, नागों का हार बनाया ।।
पापोदय अब दिखलाये दिन तारे ।
मुझे शरण अब केवल चरण तुम्हारे ।।१३।।
प्रभु ! निर्दोष, न दोष हमार चितारो ।
अहो ! भक्त वत्सल ! निज विरद सम्हारो ।।
सार्थ नाम पायें कृत ‘गलत’ हमारे ।
मुझे शरण अब केवल चरण तुम्हारे ।।१४।।
दोहा=
जाना पुरम् ‘निरा-कुलम्’,
नैय्या भंवर मंझार ।
ओ ! पाछी पवना मुझे,
धका, लगा दो पार ।।
दोहा=
नमन विरागी जिन, भले-,
हरि, हर, ब्रह्मा नाम ।
पापों की निन्दा करूॅं,
रहने जागृत शाम ।।
एक फिर दूजा पाप किया ।
दूर तक उत्पथ नाप लिया ।।
भक्त वत्सल ! शरण्य शरणा ! ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।१।।
एक इन्द्रिय जुग, त्रिक, चउ, पन ।
विघाते जीव विगत-युत-मन ।।
रखी लव-लेश न उर करुणा ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।२।।
नन्त, संज्वल, प्रत्याख्याना ।
कषाय-नो, अप्-प्रत्याख्याना ।।
भेद पन-बीस पाप गणना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।३।।
रंभ, समरंभ, समारंभा ।
कोटि-नव कषाय प्रारंभा ।।
एक सौ आठ दुरित लखना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।४।।
सेव कुगुरुन, कुधर्म सेवा ।
अज्ञ, विपरीत, रत कुदेवा ।।
विनय, संशय, इकान्त भ्रमणा ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।५।।
झूठ, हिंसा, परिग्रह, चोरी ।
आँख पर वनिता सों जोरी ।।
विषय इन्द्रिय पन, मन रमना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।६।।
उदम्बर फल पांचों खाये ।
मांस, मदिरा, मधु मन भाये ।।
अभख बाबीस भख हरखना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।७।।
नींद वश-भूत शयन कीना ।
दोष आश्रय सुपनन दीना ।।
जाग वन-विषय दौड़ पड़ना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।८।।
रख, उठाई सुध-बुध खोके ।
वस्तु खाई वगैर सोधे ।।
प्रमाद वशि मर्यादा डिगना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।९।।
ढ़ोल जल, बहु पृथ्वी खोदी ।
चिनाया घर, खेती जोती ।।
बिलोली पंखा तैं पवना ।।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।१०।।
बिना देखे अगनी जारी ।
जर चली जीव राशि सारी ।।
काच-साबुत हरि मुख रखना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।११।।
उठा झाड़ू झारे द्वारे ।
जीव चिंवटी आदिक मारे ।।
पिसाया नाज हुआ घुनना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।१२।।
मोरियन जल-मल गिरवाया ।
हाथ कृमि-कुल विघात आया ।।
जिवाण भेजी जल थानक ना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।१३।।
चीर जा तीर नदी धोये ।
विष घुला तड़फ जीव रोये ।।
सुखाये तपे सूर्य गगना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।१४।।
साध बहु आरंभी हिंसा ।
कमाया धन, हन मति हंसा ।।
हाय ! ऐसी भी क्या तिसना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।१५।।
पाप इत्याद जो अनन्ता ।
बन पड़े मुझसे भगवन्ता ! ।।
उदय तिन होय अब सहन ना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।१६।।
नाग फुलवारी गुल माला ।
आग बन चाली जल धारा ।।
कृपा तुम भक्तों पर कम ना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।१७।।
चितारो नाहिं दोष मोरो ।
सम्हारो विरद आप धौरो ।।
‘निरा-कुल’ करो, मुझे अपना ।
शरण अब मुझे आप चरणा ।।१८।।
दोहा=
कहना और न कुछ मुझे,
अब तक राखी लाज ।
आगे भी यूॅं राखना,
जब जब दूॅं आवाज ।।
(1)
सिद्ध अनन्ता ।
नुति अरिहन्ता ।।
नुति आचारज, पाठक सन्ता ।।1।।
प्रथमम्-करणम् ।
चरणम्-द्रव्यम् ।।
ले नम-नैना, नुति जैनागम ।।2।।
भाई चारा ।
सब से धारा ।।
नहीं किसी से, वैर हमारा ।।3।।
नीर मथा हो ।
पर-अर खुद-पर, क्रोध किया हो ।
पाप क्षमा हो ।।4।।
झूठ कहा हो ।
शील दृगों से, लूट लिया हो,
पाप क्षमा हो ।।5।।
अहम् छुआ हो ।
मेरे द्वारा, हृदय दुखा हो ।
पाप क्षमा हो ।।6।।
कम तोला हो ।
बिना काम के, जल ढ़ोला हो ।
पाप क्षमा हो ।।7।।
की ईष्या हो ।
दीन-दुखी पर, की न दया हो ।
पाप क्षमा हो ।।8।।
की निंदा हो ।
संध्याओं में, ली निद्रा हो ।
पाप क्षमा हो ।।9।।
किया नशा हो ।
पानी भो-जन, लिया निशा हो ।
पाप क्षमा हो ।।10।।
दिया दगा हो ।
अपना बन कर, कभी ठगा हो ।
पाप क्षमा हो ।।11।।
नहिं देखा हो ।
धरा-उठाया, नहिं शोधा हो ।
पाप क्षमा हो ।।12।।
गगन-जमीं से ।
क्षमा सभी से ।।
क्षमा सभी को,
सहज, खुशी-से ।।13।।
(2)
उत्पथ धावी ।
हूँ मायावी ॥
पाप सभी मिल, पाँचों हावी ॥१।।
आत्म प्रशंसा ।
की हो हिंसा ।।
भूल भुला, कीजो मति हंसा ॥२।।
कूट विहारा ।
झूठ उचारा ।।
तुुरत फुरत हो यम को प्यारा ।।३।।
तोरी-मोरी ।
की हो चोरी ॥
भूलो भूल, विनय कर-जोरी ।।४।।
चुगली भाई ।
नैन बुराई ।।
गलें गलतियाँ, आँख भिंजाई ।।५।।
हाँपी, दौड़ा ।
काफी ‘जोड़ा’ ।।
पाप परिग्रह, जानूँ थोड़ा ।।६।।
क्रोध सँगाती ।
क्षमा विजाती ।।
वर दो, लगे गगन कद-काठी ।।७।।
मान हिमाला ।
‘मनुआ’ काला ।।
रीझ चले गुर कछुये-वाला ।।८।।
ठगना पेशा ।
सब कुछ पैसा ।।
करो ‘कि, पहुँचूँ अपने देशा ।।९।।
कृपण बड़ा हूॅं ।
हा ! बिगड़ा हूॅं ।।
करो ‘कि, शिव मग, कदम बढ़ा लूँ ।।१०।।
भूलें काफी ।
की, बन पापी ।।
भूल भुला-के, दे दो माफी ।।११।।
(3)
दोहा=
एक-एक कर आ जुड़े,
सारे पाँचों पाप ।
क्या करना सो कीजिये,
मुझे शरण अब आप ।।
नब्ज दुखती दबाया हो ।
किसी का दिल दुखाया हो ।।
पाप विष बेल यह, इसका,
प्रभो ! जड़ से सफाया हो ।।१।।
झूठ सर पर बिठाया हो ।
सत्य कड़वा सुनाया हो ।।
पाप विष बेल यह, इसका,
प्रभो ! जड़ से सफाया हो ।।२।।
तलक तिनका चुराया हो ।
चुराया धन हथियाया हो ।।
पाप विष बेल यह, इसका,
प्रभो ! जड़ से सफाया हो ।।३।।
दाग दामन लगाया हो ।
वासना मन भिंगाया हो ।।
पाप विष बेल यह, इसका,
प्रभो ! जड़ से सफाया हो ।।४।।
दौड़, दीमक छकाया हो ।
‘कि धन इतना कमाया हो ।।
पाप विष बेल यह, इसका,
प्रभो ! जड़ से सफाया हो ।।५।।
लहू अँखियन रँगाया हो ।
होंठ कंपन झुलाया हो ॥
पाप विष बेल यह, इसका,
प्रभो ! जड़ से सफाया हो ।।६।।
हुनर गिरगिट लजाया हो ।
गगन गर्दन टिकाया हो ।।
पाप विष बेल यह, इसका,
प्रभो ! जड़ से सफाया हो ।।७।।
मकड़ जाला बिछाया हो ।
कहा ‘कुछ’ कर दिखाया हो ।।
पाप विष बेल यह, इसका,
प्रभो ! जड़ से सफाया हो ।।८।।
हाथ मटकी फँसाया हो ।
लोभ माँखी सिख’लाया हो ।।
पाप विष बेल यह, इसका,
प्रभो ! जड़ से सफाया हो ।।९।।
दोहा=
कहूँ कहाँ तक, बन पड़े,
मुझसे पाप अनेक ।
विनय यही, कीजे क्षमा,
दीजे हंस विवेक ।।
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