सिद्ध-चक्र मंडल विधान
सप्तम वलय
*श्री वर्धमान मंत्र*
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रि-सहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, वि-वाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्-भणे वा, मो-हणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अव-राजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
नव देवता संस्तवन
जयवन्तो नव देवा ।
नन्तों नमन सदैवा ।
पड़े कर्म पे भारी ।
सेना मोह पछाड़ी ।
सम शरणा बलहारी ।
नन्त चतुष्टय जेबा ।
जयवन्तो नव देवा ।।१।।
कर्म छोड़ रण भागा ।
एक समय बस लागा ।
भाग मुक्ति वधु जागा ।
मुक्त इकौर परेवा ।
जयवन्तो नव देवा ।।२।।
अपने भांति बनाते ।
संयम नियम निभाते ।
दया ध्वजा फहराते ।
खेवटिया शिव खेवा ।
जयवन्तो नव देवा ।।३।।
हरें मोह अंधियारा ।
भव जल पतित सहारा ।
‘चित’ चित कोने चारा ।
शिशु गुनाह सिर लेवा ।
जयवन्तो नव देवा ।।४।।
ज्ञान ध्यान लवलीना ।
जागृत संध्या तीना ।
सुना, कहे क्या ‘सीना’ ।
लख पर दुख दृग रेवा ।
जयवन्तो नव देवा ।।५।।
क्षमा अहिंसा करुणा ।
मानस हंसा चरणा ।
सेतु प्रशंसा तरणा ।
मातृ भक्ति जन-सेवा ।
जयवन्तो नव देवा ।।६।।
बोधि समाधि निधाना ।
अगणित गणित पुराणा ।
संयम ताना बाना ।
पोथी सुध स्वयमेवा ।
जयवन्तो नव देवा ।।७।।
दृग नासा अनुरागी ।
आडम्बर परित्यागी ।
दैगम्बर बड़-भागी ।
दर्शन विहर फरेवा ।
जयवन्तो नव देवा ।।८।।
ध्वज नभ से जा लागे ।
मंदिर मंदिर आगे ।
भाग ढ़ोक दे जागे ।
चकनाचूर कुटेवा ।
जयवन्तो नव देवा ।।९।।
ॐ ह्रीं श्री नव देवता भगवन् !
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिद्ध-चक्र की आराधना
सिद्ध-यंत्र जल धार ढुराओ, आओ ।
आओ, सिद्ध चक्र का पाठ रचाओ ॥
जश सिद्धों का गाया ।
पति का कुष्ठ मिटाया ।
उभय लोक फल पाया ।
सति मैना-से श्रद्धा सुमन चढ़ाओ ।
आओ, सिद्ध चक्र का पाठ रचाओ ॥१॥
पुत्री इक सुर सुन्दर ।
इक मैना मुख चंदर ।
नृप पहुपाल पिता, जश जिनका,
छाया धरती अम्बर ॥
‘पुण्य फला अरिहन्ता’, पुण्य कमाओ ।
आओ, सिद्ध चक्र का पाठ रचाओ ॥२॥
कर मत-शैव पढ़ाई ।
सुर सुन्दर घर आई ।
चेहरे क्यों ना ? छाये सुर्खी,
मन का वर परणाई ॥
‘बढ़ चिन्तामण’, रट ‘जय-सिद्ध’ लगाओ ।
आओ, सिद्ध चक्र का पाठ रचाओ ॥३॥
स्याद्वाद क्या कहना ? ।
पढ़ घर आई मैना ।
कहें पिता सोने से दिन कर,
‘वर-वर’ चाँदी रैना ॥
‘मंशा पूरण पूजन’, द्रव्य सजाओ ।
आओ, सिद्ध चक्र का पाठ रचाओ ॥४॥
किस्मत पूर्व लिखाती ।
रंग भले कल लाती ।
सार्थ आप ‘वर-दो होगा वह,
मेरा जीवन साथी ॥
अश्रु सार्थ ‘मुक्ताफल’ चरण चढ़ाओ ।
आओ, सिद्ध चक्र का पाठ रचाओ ॥५॥
चढ़ा पिता का पारा ।
खाती अन्न हमारा ।
विरद भाग का पढ़े, करे मनु,
हा ! अपमान हमारा ॥
सार्थक ‘सु-मरण’, बनता शीश झुकाओ ।
आओ, सिद्ध चक्र का पाठ रचाओ ॥६॥
निकले रचने जोड़ी ।
मिला पिता को कोढ़ी ।
विदा करें, रोते-रोते कह,
गई मारी मत मोरी ॥
‘दूज पूज सिध’, कर्म निकाच नशाओ ।
आओ, सिद्ध चक्र का पाठ रचाओ ॥७॥
मैना मन्दिर आई ।
देख श्रमण हर्षाई ।
चरण धुला बिनु परात पानी,
बीती आप बताई ॥
‘आरति आरत मैंटे’, ज्योत जगाओ ।
आओ, सिद्ध चक्र का पाठ रचाओ ॥८॥
पर्व अठाई न्यारा ।
कार्तिक, फाग, असाढ़ा ।
मुनि बोले, रच सिद्ध-चक्र का-
पाठ, साध नवकारा ॥
सुनते प्रभु, मन से जयकार लगाओ ।
आओ, सिद्ध चक्र का पाठ रचाओ ॥९॥
गन्धोदक तर माथा ।
भागा कर्म असाता ।
कोढ़ी सब नीरोग, शीलव्रत,
सिरपुर स्वर्ग प्रदाता ॥
पुलकन रोम, ओम् मनके सरकाओ ।
सिद्ध-यंत्र जल धार ढुराओ, आओ ॥
आओ, सिद्ध चक्र का पाठ रचाओ ।
जश सिद्धों का गाया ।
पति का कुष्ठ मिटाया ।
उभय लोक फल पाया ।
सति मैना-से श्रद्धा सुमन चढ़ाओ ।
आओ, सिद्ध चक्र का पाठ रचाओ ॥१०॥
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
सिद्ध-चक्र मंडल विधान पूजन
जय जयकारा जय जयकारा ।
सिद्ध यंत्र को नमन हमारा ॥
आगे पीछे रेफ, मध्य सह,
बिन्दु हकारा ।
कमलाकृति-दल कर्णि पूर्व सिध,
स्वर दश चारा ॥
फिर कवर्ग, फिर चवर्ग नीचे ।
फिर टवर्ग, फिर तवर्ग पीछे ॥
फिर पवर्ग अंतस्थ-ऊष्म यूँ,
साथ अनाहत मन्तर न्यारा ।
अंत ह्रीम् बेढ्यो अति प्यारा ॥
मंत्र णमो अरिहंताणं मध,
पाँखन विस्तारा ।
सिद्ध यंत्र को नमन हमारा ।
जय जयकारा जय जयकारा ॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं
श्री सिद्ध यंत्र
अत्र अवतर अवतरण संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
सिद्ध मंत्र आलापता,
असि-आ उसा प्रसिद्ध ।
सिद्ध यंत्र को थापता,
हित सरवारथ सिद्ध ॥
इति यन्त्रस्-थापनार्थं पुष्पांजलिं क्षिपेत्
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् ‘पूर्वर स्वर-चौदह वर्णा ॥१॥
ॐ ह्रीं अर्हं अ आ इ ई उ ऊ
ऋ ॠ ऌ ॡ ए ऐ ओ औ अं अः
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
पूर्व-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् आग्ने-यर, वर्ण कवर्गा ॥२॥
ॐ ह्रीं अर्हं क ख ग घ ङ
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
आग्नेय-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् दक्षिण-अर, वर्ण चवर्गा ॥३॥
ॐ ह्रीं अर्हं च छ ज झ ञ
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
दक्षिण-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् नैऋत्-त्यर, वर्ण टवर्गा ॥४॥
ॐ ह्रीं अर्हं ट ठ ड ढ ण
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
नैऋत्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् पश्चिम-अर, वर्ण तवर्गा ॥५॥
ॐ ह्रीं अर्हं त थ द ध न
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
पश्चिम-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् बायव्-व्यर वर्ण पवर्गा ॥६॥
ॐ ह्रीं अर्हं प फ ब भ म
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
वायव्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् उत्तर अंतस्थ सुवर्णा ॥७॥
ॐ ह्रीं अर्हं य र ल व
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
उत्तर-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् ईशा-नर ऊष्मक वर्णा ॥८॥
ॐ ह्रीं अर्हं श ष स ह
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
ईशान-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अथ सिद्ध भक्ति कायोत्सर्ग
॥ प्राकृत पद्यानु-वाद ॥
॥ दोहा ॥
सिद्ध, ज्ञान, दर्शन-मयी,
जीव-घणा, अशरीर ।
अनाकार, साकार भी,
कुछ कम देह-अखीर ॥१॥
॥ चौपाई ॥
बंधोदय सत्-कर्म अराती ।
प्रकृति मूल-उत्तर संघाती ॥
मंगल-भूत अष्ट गुण-वन्ता ।
जल-संसार तीर अगणंता ॥२॥
सिद्धी-भूत निरंजन, नित्या ।
विकल कर्म विध-वस कृत-कृत्या ॥
सार्थ सिद्ध लोकाग्र निवासी ।
अष्टक प्रमुख शगुन गुण-राशी ॥३॥
नष्ट अष्ट मल-कर्म विशुद्धा ।
सिद्ध, बुद्ध नव-लब्धि समृद्धा ॥
शेखर-मुकुट भुवन-तिहुँ माथा ।
श्री-मद्-भट्टारक जग-त्राता ॥४॥
॥ दोहा ॥
गमना-गमन विमुक्त जे,
प्रकृति कर्म संघात ।
शाश्वत सुख संयुक्त वे,
सिद्ध विमुक्त-उपाध ॥५॥
॥ चौपाई ॥
मंगल-भूत दुभू पाताला ।
निर्मल परिणत बहती धारा ॥
दर्शन, अवगम, चारित सहिता ।
द्रव्य कर्म, नो-कर्म वि-रहिता ॥६॥
केवल दर्शन, चारित, ज्ञाना ।
निध-सम्यक्त्व, वीर्य-अप्रमाणा ॥
सूक्ष्म, अगुरुलघु, अव्या-बाधा ।
अवगाहन गुण अष्टक साधा ॥७॥
तप से सिद्ध, सिद्ध संयम से ।
नय से सिद्ध, सिद्ध अवगम से ॥
दर्शन, ज्ञान, सिद्ध आचरणा ।
हों प्रसन्न, वे तारण-तरणा ॥८॥
॥ दोहा ॥
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सिद्ध जिन नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ॥९॥
॥ चौपाई ॥
भूषण-भू-वस, कल्मष-क्षीणा ।
चरित, ज्ञान, दर्शन समिचीना ॥
सिद्ध भूत, वर्तमान, भावी ।
नन्ता-नन्त काल अप्रभावी ॥१०॥
बुध-प्रतेक ! बुध-बोधित ! बुद्धा !।
बुध-अनेक, बुध-स्वयं ! विबुद्धा !॥
उनका पूजन, वन्दन करता ।
मन, वच, तन अभिनन्दन करता ॥११॥
कर्म क्षीण हो, दुख विलीन हो ।
संगत-साध, सुगति अधीन हो ॥
बोधि ‘निराकुल’ समाधि पाऊँ ।
धन ! जिन-गुण-सम्पद् पा जाऊँ ॥१२॥
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
अकृत्रिम जिनालय अर्घ्यं
आठ करोड़ लाख छप्पन ।
सन्त्यानवे हजार धन ! धन ! ॥
इक्यासी ऊपर सौ चार ।
अखर जिनालय जय जयकार ॥
ॐ ह्रीं आठ करोड़, छप्पन लाख,
सन्त्यानवे हजार, चार सौ इक्यासी
श्री अकृत्रिम जिनालयेभ्यो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
अकृत्रिम जिन बिम्ब अर्घ्यं
कोटिक नव सौ पच्चीसा ।
लाख तिरेपन सत-बीसा ॥
हजार, नव सौ अड़तालीस ।
नुति जिन-बिम्ब अखर निशिदीस ॥
ॐ ह्रीं नौ सौ पच्चीस करोड़,
तिरेपन लाख, सत्ताईस हजार,
नव सौ अड़तालीस
श्री अकृत्रिम जिन बिम्बेभ्यो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
सप्तम वलय पूजन
प्रीत, मीत ! इक लागी तुझसे ।
कितनी दूर जा बसे मुझसे ॥
मन रथ भी मनरथ ना पाऊँ ।
आओ आओ तुम्हें बुलाऊँ ।
रहे न बैठे काल भरोसे,
ओ ! शिव राधा कंत ॥
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्ध अनन्ता-नन्त ।
वन्दन तुम्हें अनंत ॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन्
अत्र अवतर अवतरण संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
(पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
जाने पुण्य कौन से पिछले ।
एक साथ हम निगोद निकले ॥
तुमने बुना न मकड़ी जाला ।
सिद्ध शिला का बढ़ा उजाला ।
मैं फँस चला बुने जाले में,
पछताऊँ अब अन्त ॥
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्ध अनन्ता-नन्त ।
वन्दन तुम्हें अनंत ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाने पुण्य कौन से पिछले ।
एक साथ हम निगोद निकले ॥
तुमने हाथ न मटकी फाँसे ।
सुलट चले हैं उल्टे पाँसे ।
कर्मों के झाँसे में आ मैं,
नाप चला उत्पंथ ॥
पछताऊँ अब अन्त ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्ध अनन्ता-नन्त ।
वन्दन तुम्हें अनंत ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाने पुण्य कौन से पिछले ।
एक साथ हम निगोद निकले ॥
कमल साँझ से पहले छोड़ा ।
पुण्य सातिशय तुमने जोड़ा ।
दौड़ा मैं मृग भांत हाथ कब,
सुख कस्तूर सुगंध ॥
पछताऊँ अब अन्त ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्ध अनन्ता-नन्त ।
वन्दन तुम्हें अनंत ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाने पुण्य कौन से पिछले ।
एक साथ हम निगोद निकले ॥
होड़ न बैल तेलि तुम कीनी ।
छुआ केन्द्र, निधि अपनी छीनी ।
मैं, भूसूँ लाठी के ऊपर,
छोड़ वृत्ति सिंह हन्त ॥
पछताऊँ अब अन्त ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्ध अनन्ता-नन्त ।
वन्दन तुम्हें अनंत ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाने पुण्य कौन से पिछले ।
एक साथ हम निगोद निकले ॥
आया तुम्हें आँख भर रखना ।
दुखिया देख झला दी करुणा ।
कीनी मैंने छीना झपटी,
लगते दाँव तुरंत ॥
पछताऊँ अब अन्त ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्ध अनन्ता-नन्त ।
वन्दन तुम्हें अनंत ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाने पुण्य कौन से पिछले ।
एक साथ हम निगोद निकले ॥
रुची न बगुला भक्ति खोटी ।
तुमने चुगे हंस बन मोती ।
ज्योती दीप बुझाई मैंने,
श्वास स्वयं पड़ द्वन्द ॥
पछताऊँ अब अन्त ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्ध अनन्ता-नन्त ।
वन्दन तुम्हें अनंत ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाने पुण्य कौन से पिछले ।
एक साथ हम निगोद निकले ॥
सूत्र समेत सुई तुम राखी ।
रख मर…याद न मृतु तक नाँकी ।
बाँकी मेरी परिणति लख लख,
झेंपे बंकिम चन्द ॥
पछताऊँ अब अन्त ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्ध अनन्ता-नन्त ।
वन्दन तुम्हें अनंत ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाने पुण्य कौन से पिछले ।
एक साथ हम निगोद निकले ॥
झुक चाले बेंत लकरिया से ।
तुम मुख तक भरे गगरिया से ।
मैं खाली रहूँ, न क्यूँ उखड़ूँ,
अकड़ूँ बरगद मानन्द ॥
पछताऊँ अब अन्त ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्ध अनन्ता-नन्त ।
वन्दन तुम्हें अनंत ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाने पुण्य कौन से पिछले ।
एक साथ हम निगोद निकले ॥
शश भाँत न कान ढकी आँखें ।
तुमने नभ छुआ झड़ा पाँखें ।
तोते न उड़ें क्यूँ कर मेरे,
आँखें मेरी स्वच्छन्द ॥
पछताऊँ अब अन्त ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्ध अनन्ता-नन्त ।
वन्दन तुम्हें अनंत ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
पाँच सौ बारह में से
दो सौ बासठ अर्घ
अरिहंत पञ्चाशती
द्रव्य केवल उत्तम ।
भव्य त्रै लोचन नम ।
अहिंसा इक भावन,
दिव्य निर्दोष परम ॥ ५१ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-
केवल-द्रव्या-यस्-स्वाहा ।
उत्तम केवल अर्हत् ।
उत्तम नय-बल जिन मत ।
जयतु जयतु जय, जयतु जयतु जय,
उत्तम त्रै चल भगवत् ॥ ५२ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-
केवला-यस्-स्वाहा ।
केवल महिमा ।
त्रै चल प्रतिमा ।
द्रव स्वरूप वर,
जै ज्वल गिर्-माँ ॥ ५३ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-
केवल-द्रव्य-स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
ध्रुव भाव उत्तमम् ।
दिव पाँव उत्तमम् ॥
उत्तमम् शिव नाव ।
उत्तमम् भुव छाँव ॥ ५४ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-
ध्रुव-भावा-यस्-स्वाहा ।
मरहम भाव परम ।
उत्तम अभाव तम ॥
दृग नम ! गाँव कुटम ।
‘सरगम’ नाव शिवम् ॥ ५५ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-
भावा-यस्-स्वाहा ।
भाव अविचल ।
नाव तट जल ।
उत्तमम् अ, सि, सा,
ठाव तरु-तल ॥ ५६ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-
स्थिर-भावा-यस्-स्वाहा ।
शरण अरिहन्ता ।
तरण शिव नन्ता ॥
करण दिव ग्रन्था ।
चरण निर्ग्रंथा ॥ ५७ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-शरणा-यस्-स्वाहा ।
अरिहंत ।
सिध पंथ ॥
जयवंत ।
निर्ग्रन्थ ॥ ५८ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-शरण-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
गुण अर्हत् शरणा ।
धुन अर्हत् शरणा ॥
पुन अर्हत् शरणा ।
मुन अर्हत् शरणा ॥ ५९ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-गुण-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
बोध समाध निधान ।
चरण अप्रमाद ध्यान ॥
शरणा अबाध ज्ञान ।
पोथी साध विधान ॥ ६० ॥
ॐ नमः
अर्हत्-ज्ञान-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् दर्शन ।
शिवपत सुरगण ।
शरणा तरणा,
जिनमत दर्पण ॥ ६१ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-दर्शन-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् वीरज ।
धारत धीरज ।
शरणा तरणा,
भारत नीरज ॥ ६२ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-वीर्य-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
द्वादशांग श्रुत ।
उत्तमांग नुत ।
विगत माँग शिव,
वधु अपांग युत ॥ ६३ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-द्वादशाङ्ग-
श्रुत-शरणा-यस्-स्वाहा ।
अभिनिबोध अरिहन्ता ।
अविनि गोद सिध नन्ता ।
किरणा शरण्य शरणा,
तरणि पोथ निर्ग्रंथा ॥ ६४ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-अभि-निबोधक-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
नमन अरिहन्त श्रुत ।
शरण तरि नंत नुत ॥
श्रमण हरि मन्त्र युत ।
करुण सिरि ग्रन्थ शुध ॥ ६५ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-श्रुत-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
अवध बोध तरणा ।
सुनिध स्रोत झरना ॥
सुविध गोद शरणा ।
विविध शोध किरणा ॥ ६६ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-अवधि-बोध-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
धन ! पर्यय ।
मन-पर्यय ।
अर्हत् शरणा,
मुनि निर्भय ॥ ६७ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-मनः पर्यय
शरणा-यस्-स्वाहा ।
सेवक बिन ।
केवल जिन ।
अर्हत् शरणा,
जेवत दिन ॥ ६८ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-केवल-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
शरण केवल अरिहन्ता ।
शरण हैं सिद्ध अनंता ।
ग्रन्थ, दय-पन्थ शरण हैं,
शरण त्रै-विध निर्ग्रन्था ॥ ६९ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-केवल-शरण-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
केवल धरम ।
क्षय मल-करम ॥
श्रमण हैं शरण ।
भय जल-तरण ॥ ७० ॥
ॐ नमः
अर्हत्-केवल-धर्म-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् केवल मंगल गुण ।
सन्मत देवल मंगल गुण ।
इक शरण, इक शरण, इक शरण,
सरसुत के बल मंगल गुण ॥ ७१ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-केवल-मंगल-गुण-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
मंगल धुन ।
मंगल गुण ।
अर्हत् शरणा,
मंगल मुन ॥ ७२ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-मंङ्गल-गुण-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
मंगल थान ।
मंगल ज्ञान ।
अर्हत् शरणा,
मंगल ‘वाण’ ॥ ७३ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-मंङ्गल-ज्ञान-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
मंगल अर्जन ।
मंगल दर्शन ।
अर्हत् शरणा,
मंगल अर्चन ॥ ७४ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-मंङ्गल-दर्शन-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
मंगल जोध ।
मंगल बोध ।
अर्हत् शरणा,
मंगल शोध ॥ ७५ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-मंङ्गल-बोध-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
दंगल जै पल ।
मंगल केवल ।
अर्हत् शरणा,
‘मंगल-मै’ चल ॥ ७६ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-मंङ्गल-केवल-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
सत्यम् मोख ।
उत्तम लोक ।
अर्हत् शरणा,
‘गत-तम’ धोक ॥ ७७ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
लोकोत्तम गुण ।
भागो तम धुन ।
अर्हत् शरणा,
मोखोद्यम पुण ॥ ७८ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-गुण-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
उत्तम वीरज ।
करम नहीं, अज ! ॥
अर्हत् शरणा,
‘भरम नहीं’ गज ॥ ७९ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-वीर्य-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
गत यम निर्गुण ।
उत्तम बल गुण ।
अर्हत् शरणा,
‘सुत्तम’ ‘शश’गुण ॥ ८० ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-वीर्य-गुण-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् द्वादश अंग हैं,
शरणा उत्तम लोक ।
सिद्ध अनन्त निसंग हैं,
चरणा उत्तम धोक ॥ ८१ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-द्वादशाङ्ग-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
अभिनिबोध जिन उत्तमा,
सिद्ध साध संवाद ।
नमो नमः नित-प्रत नमः,
नमो नमः दिन-रात ॥ ८२ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम
अभि-निबोधका-यस्-स्वाहा ।
अवध शरण लोकोत्तमा,
अर्हत्, सिध, बुध, पाथ ।
नमो नमः नित-प्रत नमः,
नमो नमः दिन-रात ॥ ८३ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-अवधि-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
मन पर्यय जिन उत्तमा,
शरण सिद्ध-वच साध ।
नमो नमः नित-प्रत नमः,
नमो नमः दिन-रात ॥ ८४ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-मनःपर्यय-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
साध, सिद्ध, जिन उत्तमा,
शरणा ज्ञान अगाध ।
नमो नमः नित-प्रत नमः,
नमो नमः दिन-रात ॥ ८५ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-केवल-ज्ञान-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
‘वर-विभूत’ जिन उत्तमा,
शरण साध गिर्-स्यात् ।
नमो नमः नित-प्रत नमः,
नमो नमः दिन-रात ॥ ८६ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-विभूति-प्रधान-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् विभूत ।
वृष शरण भूत ॥
चारित अनूठ ।
सिद्धान्त सूत ॥ ८७ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-विभूति-धर्म-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
शरणा भदन्त ।
तरणा जिनन्द ॥
दृग, ज्ञान नन्त ।
सुख, बल जयन्त ॥ ८८ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-अनन्त-चतुष्टय-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
सुख, दृग प्रधान ।
बल नन्त ज्ञान ॥
अपने समान ।
अर्हत् महान ॥ ८९ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-अनन्त-गुण-
चतुष्टया-यस्-स्वाहा ।
न बैठे काल भरोसे ।
जुड़े तीनों रत्नों से ॥
स्वयंभू अर्हत् दूजे ।
भौन तिहुँ कौन न पूजे ॥ ९० ॥
ॐ नमः
अर्हत्-निज-ज्ञान-
स्वयं-भुवे-स्वाहा ।
रखा अन्तर्मन कोरा ।
सातिशय पुण्य बटोरा ॥
स्वयंभू भोले भाले ।
करम धू धू जर चाले ॥ ९१ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-सातिशय-
स्वयंभुवे-स्वाहा ।
दया थाती, भय विघटे ।
घाति क्षय, अतिशय प्रकटे ॥
‘सहज’ दश अतिशय धारी ।
जयतु जय अर्हत् थारी ॥ ९२ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-घाति-क्षय-
दशाति-शया-यस्-स्वाहा ।
पुण्य तीर्थंकर पौधा ।
देव कृत अतिशय चौदा ॥
फूल झूले फल लागे ।
भक्त अर्हत् बढ़-भागे ॥ ९३ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-देवकृत-
चतुर्-दशाति-शया-यस्-स्वाहा ।
आचरण कब उन्नीसा ।
नाज अतिशय चौंतीसा ॥
दिव खड़ा समवशरण में ।
आ पड़ा विभव चरण में ॥ ९४ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-चतुस्-त्रिंशत-अतिशय-
विराजमाना-यस्-स्वाहा ।
नन्त गुण अर्हत् ज्ञाना ।
मंत्र-धुन भगवत् ध्याना ॥
सन्त मुन लगे मनाने ।
छन्द चुन नये पुराने ॥ ९५ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-ज्ञानानन्त-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
तपा तप बढ़ शक्ती से ।
जपा जप जुड़ भक्ती से ॥
आज तप अनन्त पाया ।
नाग, नर, सुर सर नाया ॥ ९६ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-तपोऽनन्ता-यस्-स्वाहा ।
बनाया ध्येय अनंता ।
रिझाया शिव अरहन्ता ॥
महन्ता सविनय ठाड़े ।
जयन्ता ! बारे न्यारे ॥ ९७ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-ध्यानानन्त-
ध्येया-यस्-स्वाहा ।
कर्म ढिग निकले नम के ।
नन्त गुण झग-झग चमके ॥
भूल ना अब होती है ।
खोलना क्यूँ पोथी है ॥ ९८ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-अनन्त-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
मान पर-आत्म पराया ।
मान परमात्म बढ़ाया ॥
जयतु अरिहन्त दयाला ।
उठा दो दृग, तम काला ॥ ९९ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-परमात्मने-स्वाहा ।
सुप्त पन जागृत कीनो ।
गुप्त मन, वच, तन तीनों ॥
गुप्त अरिहन्त स्वरूपा ।
मुक्त परिणत विद्रूपा ॥ १०० ॥
ॐ नमः
अर्हत्-स्वरूप-
गुप्ता-यस्-स्वाहा ।
सिद्ध पञ्चाशती
प्रकट अष्ट गुण राश ।
जगत समस्त प्रकाश ।
सिद्ध चक्र जयकार,
भरे हृदय उल्लास ॥ १५१ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्गलाष्ट-
प्रकाश-केभ्यो-स्वाहा ।
सिद्ध मंगल धरम करुणा ।
बुद्ध मंगल प्रथम करणा ॥
द्रव्य, चरणा ग्रन्थ मंगल ।
सूर, गुरु, निर्ग्रन्थ मंगल ॥ १५२ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्गल-धर्मेभ्यो-स्वाहा ।
लोकोत्तम गुण आप से,
सिर्फ आपके पास ।
नक्षत्रों में कब दिखा,
सूरज भाँत प्रकाश ॥ १५३ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-लोकोत्तम-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
खड़ी चढ़ाई मोक्ष की,
जा बैठे सिर लोक ।
हाथ विदाई मोह की,
बढ़ देते आ धोक ॥ १५४ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-लोकोत्तमा-यस्-स्वाहा ।
सिध अनन्त निध केवली,
लोकोत्-तमम् स्वरूप ।
सूरीश्वर गुरु देव ‘री,
श्रमण रमण चिद्रूप ॥ १५५ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-लोकोत्तम-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
मर्म-धर्म करुणा-क्षमा,
सिध लोकोत्तम ज्ञान ।
यति अधिपति केवल रमा,
वन्दन हित कल्…यान ॥ १५६ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-लोकोत्तम-
ज्ञाना-यस्-स्वाहा ।
सिध बुध दर्शन मात्र से,
सम्यक् दर्शन हाथ ।
तभी एक लोकोत्तमा,
जगत झुकाये माथ ॥ १५७ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-लोकोत्तम-
दर्शना-यस्-स्वाहा ।
ऊरध रेतस नाम से,
प्रसिद्ध लोक अलोक ।
जुड़ने सुमरण शाम से,
आ मनुआ दें धोक ॥ १५८ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-लोकोत्तम-
वीर्या-यस्-स्वाहा ।
झोरी शरणागत भरी,
करके स्वार्थ किनार ।
सिद्ध शरण लोकोत्तमा,
वन्दन बारम्बार ॥ १५९ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-लोकोत्तम-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
हम जैसे कल सिद्ध थे,
शुद्ध स्वरूपी आज ।
अष्ट कर्म से बद्ध थे,
मुक्त, मुक्त-वधु नाज ॥ १६० ॥
ॐ नमः
सिद्ध-स्वरूप-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
सुदूर दर्शस्-मरण भी,
करता पाप विनाश ।
दूर सूर रह गगन ही,
कमलन भरे विकास ॥ १६१ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-दर्शन-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
शरण ज्ञान लाठी बिना,
घाटी सिद्ध न पार ।
ढाई आखर निशि-दिना,
पढ़ो, गढ़ो संस्कार ॥ १६२ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-ज्ञान-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
सिध-शिल लें पहरा ध्वजा,
धीर, वीर, गंभीर ।
बाँध पाल भगवत् रजा,
लाखन भव जल तीर ॥ १६३ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-वीर्य-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
लेते ही सम्यक्त्व शरण ।
बैठे धरती पार गगन ॥
नमन सिद्ध, सम्यक्त्व नमन ।
शुद्ध कोटि नव मन, वचन, तन ॥ १६४ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-सम्यक्त्व-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
राख नेक परिणाम ।
भवि अनेक शिव धाम ॥
शरणा सिद्ध अनन्त ।
करुणा-धर्म, महन्त ॥ १६५ ॥
ॐ नमः
सिद्धानन्त
शरणा-यस्-स्वाहा ।
क्षरण न व्यतीत काल ।
नन्त नन्त गुणकार ॥
सिद्ध अनंतानन्त ।
शरण दया निर्ग्रन्थ ॥ १६६ ॥
ॐ नमः
सिद्धा-नन्तानन्त
शरणा-यस्-स्वाहा ।
भूत भावी भवन ।
सिद्ध ‘केवल’ शरण ।
दया करुणा धरम,
सूर पाठक श्रमण ॥ १६७ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-त्रिकाल
शरणा-यस्-स्वाहा ।
जगत् जगत् ।
जगत सतत् ।
सिध अरहत,
शरण जयत ॥ १६८ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-त्रिलोक-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
असंख्यात प्रदेशी ।
लोक शरण हितैषी ॥
सर्वज्ञ वीतराग ।
निर्ग्रन्थ प्रीत जाग ॥ १६९ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-संख्यात-लोक-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
चित् चैतन्य ध्रौव्य गुण गाया ।
‘चित्’ चित् धन्य ! ध्रौव्य पद पाया ॥
लोक शिखर पर आन विराजे ।
पा कतार ध्रुव तारक साजे ॥ १७० ॥
ॐ नमः
सिद्ध-ध्रौव्य-गुण-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
पर्यय संसार विलानी ।
जा पहुँचे शिव रज-धानी ॥
आनी जानी से छूटे ।
खींचा तानी पल झूठे ॥ १७१ ॥
ॐ नमः
सिद्धोत्-पाद-गुण-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
राग द्वेष विघट ।
साम्य भाव प्रकट ।
निकट भव्य बनूँ,
रखूँ द्रव्य निकट ॥ १७२ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-साम्य-गुण-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
भज जतन ।
रज रतन ।
क्षत क्षयी,
गज-न्हवन ।
सिध जयी ॥ १७३ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-स्वच्छ-गुण-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
स्वयं सिद्ध हैं, स्वस्थ्य हैं ।
शगुन ! स्वगुण, संस्थित्य हैं ॥
कोन कौन ना देगा धोक ।
विनत खड़ा है लोकालोक ॥ १७४ ॥
ॐ नमः
सिद्धस्-थित-गुण-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
बन अप्रमादी ।
भजी समाधी ।
आज यूँ हि ना,
चाँदी चाँदी ॥ १७५ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-समाधि-गुण-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
अष्ट मूल गुण शरण ।
सिद्ध व्यक्त इन गुणन ॥
भान ज्ञान श्रुत मति ।
नुति विभिन, नुति प्रति ॥ १७६ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-व्यक्त-गुण-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
इन्द्रिय मनस् न जान सके ।
गुण प्रसिद्ध अव्यक्त सखे ! ॥
वह भी शरण सहारे हैं ।
भवि भव जलधि किनारे हैं ॥ १७७ ॥
ॐ नमः
सिद्धा-व्यक्ता-व्यक्त-गुण-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
सुन ‘गुन’ भज लिये ।
औ-गुण तज दिये ॥
अमृत अनूप झिरा ।
सिद्ध स्वरूप निरा ॥ १७८ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-गुण-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
पर आत्म रुची विघटी ।
परमात्म विधि प्रगटी ॥
धन ! गंध कुटी आगे ।
छिन मुक्ति पुरी लागे ॥ १७९ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-परमात्म-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
लगन अखण्ड लगाई ।
क्षरण घमण्ड ! सहाई ॥
अरहत, सिद्ध, अचारज ।
सुत सरसुत चरणा रज ॥ १८० ॥
ॐ नमः
सिद्धा-खण्ड-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
भीतर डूब साधना आया ।
कहीं नदारद ठगनी माया ॥
पाया चित् आनंद स्वरूप ।
महिमा सिद्ध अचिन्त्य अनूप ॥ १८१ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-चिदानन्द-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
सहज निराकुल कोई ।
एक सिद्ध जग दोई ॥
खोई निज निध पाई ।
सहजानन्द सगाई ॥ १८२ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-सहजानन्दा-यस्-स्वाहा ।
है ही संध नहीं ।
पर की गंध नहीं ॥
तब ही सिद्ध अछेद्य,
अगम अचिन्त्य अवेद्य ॥ १८३ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-अच्छेद्य-
रूपा-यस्-स्वाहा ।
सिद्ध अभेद, न भेदे जाते ।
भाँत प्रकाश समाते जाते ॥
महिमा सिद्ध अचिन्त्य महान ।
गुण अभेद्य गुण-नन्त प्रधान ॥ १८४ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-अभेद्य-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
सूरज आग, चंदा दाग ।
दरिया झाग, चन्दन नाग ।
अनुपम सिद्ध, निरुपम सिद्ध,
खूनी फाग, हिरणा भाग ॥ १८५ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-अनुपम-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
अमिट सत्त्व ।
अमृत तत्त्व ॥
सिद्ध नन्त ।
बुद्ध ! सन्त ॥ १८६ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-अमृत-
तत्त्वा-यस्-स्वाहा ।
प्राप्त पर्याप्त हुआ ।
अरहत पद प्राप्त हुआ ॥
प्राप्त श्रुत अनेकान्त ।
सिद्ध स्वयमेव कान्त ॥ १८७ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-श्रुत-
प्राप्ता-यस्-स्वाहा ।
ध्यान के बल, अघात घाती ।
ज्ञान केवल विघात घाती ॥
मुक्ति राधा परिणय सपना ।
कब अधूरा सहजो अपना ॥ १८८ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-केवल-
प्राप्ता-यस्-स्वाहा ।
तन अंतिम कुछ कम आकार ।
निराकार वर्णित श्रुत चार ।
प्रथमं, करणं, चरणं, द्रव्यं,
महिमा सिद्ध अचिन्त्य अपार ॥ १८९ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-साकार-
निराकारा-यस्-स्वाहा ।
धुन ! ‘सः’ यानी वह हारा ।
सुन, बह चाले विध धारा ॥
सिध निरालंब जय वन्ता ।
बुध गिरा-अम्ब निर्ग्रंथा ॥ १९० ॥
ॐ नमः
सिद्ध-निरा-लम्बा-यस्-स्वाहा ।
क्रोध, मान, मद, माया ।
कृश हो चली कषाया ।
दुर्मति-पापन रूठे ॥
सिध अकलंक अनूठे ॥ १९१ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-निष्-कलङ्का-यस्-स्वाहा ।
अठ-दश दोष विदाई ।
आतम शुद्ध दिखाई ॥
सिद्धातम सम्पन्न जै ।
जय जय जयतु जयन्त जै ॥ १९२ ॥
ॐ नमः
सिद्धात्म-
सम्पन्-ना-यस्-स्वाहा ।
कोटि सूर्य मिल तेज समाया ।
सौम्य सोम सी कांति बताया ॥
प्रथमं, करणं, चरणं, द्रव्यं,
तेजोमय सिध अचिन्त्य माया ॥ १९३ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-तेजः
सम्पन्ना-यस्-स्वाहा ।
सिर्फ गर्भ वास ना ।
‘सिद्ध’ गर्व साधना ।
भूत, भावि, वर्तमाँ,
सिद्ध सर्व वन्दना ॥ १९४ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-गर्भ-
वासा-यस्-स्वाहा ।
रमा रमण आत्म राम ।
छोड़ सभी और काम ।
सिद्ध नन्त जय जयन्त,
दौड़ आ चला मकाम ॥ १९५ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-लक्ष्मी-
संतृप्ता-यस्-स्वाहा ।
अंतरंग भो ! ।
अन-तरंग हो ॥
व्रति तभी सिद्ध ।
नुति सभी सिद्ध ॥ १९६ ॥
ॐ नमः
सिद्धान्-तरङ्गा-यस्-स्वाहा ।
सार रस रसायना ।
आँख चार दृढ़मना ।
बुध महन्त निध दया,
सिध अनन्त वन्दना ॥ १९७ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-सार-रसा-यस्-स्वाहा ।
लेप दूर तुम्बिका ।
भाग तीर तट लिखा ।
सिद्ध नन्त वन्दना,
साध दृष्टि नासिका ॥ १९८ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-शिखर-
मण्डना-यस्-स्वाहा ।
हुआ एकाग्र चित्त ।
छुआ लोकाग्र चित्र ! ।
सिद्ध नन्त वन्दना,
जिया ! वैराग्य मित्र ॥ १९९ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-त्रि-लोकाग्र-
निवासिने-स्वाहा ।
सिंह स्वरूप लीनता ।
स्वान वृत्ति दीनता ।
सिद्ध नन्त वन्दना,
सागरा नदी नता ॥ २०० ॥
ॐ नमः
सिद्ध-स्वरूप-
गुप्तेभ्यो-स्वाहा ।
आचार्य पञ्चाशती
लख खरबूजे रंग बदलना ।
सार्थ सूर पल दर्शन करना ॥
सूर धरम मन्तर स्वरूप हैं ।
नूर परम अन्दर अनूप हैं ॥ २५१ ॥
ॐ नमः
सूरि-धर्म-मन्त्र-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
गुण चैतन्य स्वरूप अनोखा ।
जिसे भुला खाया बहु धोखा ॥
मौका अबकि न खोना कहते ।
चित् चैतन्य निरखते रहते ॥ २५२ ॥
ॐ नमः
सूरि-चैतन्य-गुण-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
भाया चिदानंद अबकी ।
पूरी आज आश कब की ॥
रुक रुक क्यूँ न मकाम कहे ।
अथक अरुक बढ़ शाम रहे ॥ २५३ ॥
ॐ नमः
सूरि-चिदानन्दा-यस्-स्वाहा ।
सहजानंदी बड़-भागी ।
हाथ निराकुलता लागी ॥
जागी जागी परिणति है ।
थाती दिव शिव ऋजु गति है ॥ २५४ ॥
ॐ नमः
सूरि-सहजानंदा-यस्-स्वाहा ।
छा न चले सत् पथ दूबा ।
ज्ञानानंद साध डूबा ॥
चलते और चलाते हैं ।
कहें न, कर दिखलाते हैं ॥ २५५ ॥
ॐ नमः
सूरि-ज्ञानानन्दा-यस्-स्वाहा ।
लोग कहें, कहते रहें,
तप में कष्ट अपार ।
सूर मान आनन्द पै,
तपें शक्ति अनुसार ॥ २५६ ॥
ॐ नमः
सूरि-तपो-
नंदा-यस्-स्वाहा ।
नाम तप गुण बस काफी है ।
रूह कर्मों की काँपी है ॥
सूर आनन्द मना चाले ।
क्यूँ न भर चालें भव छाले ॥ २५७ ॥
ॐ नमः
सूरि-तपो-
गुणा-नन्दा-यस्-स्वाहा ।
सूर पर्याय-वाच तप के ।
पूर हर कार्य नाम जप के ॥
जपो मन आओ पल तुम भी ।
करो पूजा कल…पद…द्रुम की ॥ २५८ ॥
ॐ नमः
सूरि-तपो-गुण-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
जश मानस फिर पाया ।
मोती चुगना आया ॥
बगुला भक्ति छोड़ी ।
सूर हंस बेजोड़ी ॥ २५९ ॥
ॐ नमः
सूरि-हंसा-यस्-स्वाहा ।
नीर क्या क्षीर विवेक जगा ।
वीर कर्मा असि फेंक भगा ॥
जाप जय असि आउसा सदा ।
पाप भावों को करे विदा ॥ २६० ॥
ॐ नमः
सूरि-हंस-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
निकला मुख अक्षर मन्तर है ।
गंगा सा निर्मल अन्तर् है ॥
व्यन्तर आकर धोक लगाते ।
जन्तर मन्तर मुँह की खाते ॥ २६१ ॥
ॐ नमः
सूरि-मन्त्र-
गुणा-नन्दा-यस्-स्वाहा ।
हिंसा मृषा न चौर्या-नन्द ।
न ध्यान रौद्र परिग्रहा-नन्द ॥
धर्म ध्यान फल कल सित ध्यान ।
सूर न दूर अधिक निर्वाण ॥ २६२ ॥
ॐ नमः
सूरि-ध्याना-
नन्दा-यस्-स्वाहा ।
झिरे अमृत मुख सूरी चन्दा ।
सुन धुन सूर टूक भव फन्दा ।
अभिनंदा आनंदा आतम,
सिद्ध बुद्ध केवली जिनन्दा ॥ २६३ ॥
ॐ नमः
सूरि-अमृत-
चन्द्रा-यस्-स्वाहा ।
भव्य कुमुद मन खिलते ।
गुरु शशि दर्शन मिलते ॥
सूर सुधांशु स्वरूपा ।
वन्दन हित चिद्रूपा ॥ २६४ ॥
ॐ नमः
सूरि-सुधा-चन्द्र-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
सूर सुधा गुण जाप से,
आतम स्वस्थ प्रशस्त ।
आ जुड़ते छिन आप से,
कारज छोड़ समस्त ॥ २६५ ॥
ॐ नमः
सूरि-सुधा-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
गुरु घन देख नचे मन मोरा ।
सुधा वच हवाला मन कोरा ॥
थोड़ा थोड़ा दे दो मुझको ।
मजा चखा पाऊँ जर, मृतु को ॥ २६६ ॥
ॐ नमः
सूरि-सुधा-
घना-यस्-स्वाहा ।
भवि ! आह भरी ना ।
भव दाह रही ना ॥
जप अमृत स्वरुपा ।
तप सूर अनूपा ॥ २६७ ॥
ॐ नमः
सूरि-अमृत-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
द्रवण शीलता नदिया भाँती ।
लहर लहर मनु मंजिल आती ॥
सूर द्रव्य जय महिमा न्यारी ।
टिके न निश मिथ्यातम काली ॥ २६८ ॥
ॐ नमः
सूरि-द्रव्या-यस्-स्वाहा ।
गुण द्रव्य पिछाने ।
मुनि भव्य दिवाने ॥
गुण द्रव्य सूर जय ।
हित भाव क्रूर क्षय ॥ २६९ ॥
ॐ नमः
सूरि-गुण-
द्रव्या-यस्-स्वाहा ।
भाव काषाय चूर ।
धन्य ! पर्याय सूर ॥
दूर मोख धाम ना ।
धोक पूर-कामना ॥ २७० ॥
ॐ नमः
सूरि-पर्याया-यस्-स्वाहा ।
द्रव्य दृष्टि रखते ।
भव्य सृष्टि फबते ॥
एक गिट्टि पत्थर,
नोट गिट्टि लखते ॥ २७१ ॥
ॐ नमः
सूरि-द्रव्य-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
शील बाढ़ नव राखें ।
नजर उठा कब ताँकें ॥
गुण चौरासी लाख ।
बढ़ दियु-वासी साख ॥ २७२ ॥
ॐ नमः
सूरि-गुण-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
पर्याय स्वनुभवन ।
धन ! निष्कषाय मन ।
जै सूर गुण स्वरूप,
चिद्रूप अनुशरण ॥ २७३ ॥
ॐ नमः
सूरि-पर्याय-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
गुण गुन माल बनाई है ।
औगुन ‘मार’ विदाई है ।
करना जो श्रृंगार इन्हें,
शिव वधु हृदय वसाई है ॥ २७४ ॥
ॐ नमः
सूरि-गुणोत्-पादा-यस्-स्वाहा ।
ज्ञाता दृष्टा रहते हैं ।
सब सहते, कब कहते हैं ॥
ध्रुव गुण उत्पादन भाया ।
सूर भावि सिरपुर राया ॥ २७५ ॥
ॐ नमः
सूरि-ध्रुव-
गुणोत्-पादा-यस्-स्वाहा ।
सार्थ औगुन व्यथा ।
गुन चले गुण नया ॥
व्यय गुणोत्पाद सूर ।
जय गुणानुवाद सूर ॥ २७६ ॥
ॐ नमः
सूरि-व्यय-
गुणोत्-पादा-यस्-स्वाहा ।
रात हो भले अमा ।
सूर सामने तमा ।
स्वप्न भी न टिका धन !,
जीव तत्त्व आतमा ॥ २७७ ॥
ॐ नमः
सूरि-जीव-
तत्त्वा-यस्-स्वाहा ।
गुण तत्त्व जीव ।
तत्त्वन प्रदीव ।
भू-देव सूर,
वन्दना सदीव ॥ २७८ ॥
ॐ नमः
सूरि-जीव-तत्त्व-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
जीव तत्त्व जान के ।
पात्र स्वाभिमान के ।
सूर भाँत आप से,
दूर न निर्वाण के ॥ २७९ ॥
ॐ नमः
सूरि-जीव विदे-स्वाहा ।
मन वश कीना ।
तन वश कीना ।
सूर वचन वश,
जश जग तीना ॥ २८०
ॐ नमः
सूरि-आस्रव-तत्त्व-
वि-नाशा-यस्-स्वाहा ।
द्वन्द हटाया ।
बन्ध मिटाया ।
सूर-पंकजा-नन्द बढ़ाया ॥ २८१ ॥
ॐ नमः
सूरि-बन्ध-तत्त्व-
वि-नाशा-यस्-स्वाहा ।
सम समता वर संवर सूर ।
तम ममता हर अम्बर नूर ॥
तूर दिगम्बर जैनागम ।
सूर दिगम्बर नैनानम ॥ २८२ ॥
ॐ नमः
सूरि-संवर-तत्त्व-
सहिता-यस्-स्वाहा ।
सम-सम्यक् दर्शन वर ।
तम आस्रव निरसन कर ॥
बढ़ श्रेणी माड़ चले ।
हर जैनी नाज करे ॥ २८३ ॥
ॐ नमः
सूरि-संवर-तत्त्व-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
भावना भव नाशनी ।
साधना जितनी बनी ।
सूर संवर गुण, जयतु जय,
साधते अटवी घनी ॥ २८४ ॥
ॐ नमः
सूरि-संवर-गुणा-यस्-स्वाहा ।
पाल विरत समिति गुप्त ।
नाव लहर ठाव मुक्त ॥
धर्म सूर संवरा ।
जयतु जय दिगम्बरा ॥ २८५ ॥
ॐ नमः
सूरि-संवर-
धर्मा-यस्-स्वाहा ।
तप धरा उर्वरा होती ।
तप वरा निर्जरा होती ॥
सूर निर्जर तत्त्व जय जय ।
दूर कब शिव, कर्म क्षय जय ॥ २८६ ॥
ॐ नमः
सूरि-निर्जरा-
तत्त्वा-यस्-स्वाहा ।
बाध जर्जर ।
साध निर्झर ॥
तत्त्व नूपा ।
धन ! स्वरूपा ॥ २८७ ॥
ॐ नमः
सूरि-निर्जरा-तत्त्व-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
तप सभी द्वादश तपें ।
कर्म क्यों न कँप कँपें ॥
तत्त्व निर्जर गुण स्वरूपी ।
सूर तट रट मैं अरूपी ॥ २८८ ॥
ॐ नमः
सूरि-निर्जरा-गुण-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
विनिर्गत विराधना ।
महा मंत्र साधना ॥
धर्म निर्जरा निरा ।
कर्म झर निराकुला ॥ २८९ ॥
ॐ नमः
सूरि-निर्जरा-धर्म-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
गुण सुमरण संध्या तीना ।
निर्जर अनु-बन्धन कीना ॥
पीले पत्तों से झर झर ।
क्यूँ ना झिरें कर्म बर्बर ॥ २९० ॥
ॐ नमः
सूरि-निर्जरानु-
बन्धा-यस्-स्वाहा ।
आम पूर्व कुछ पक चले,
देख जुड़े विध-पाल ।
स्वरूप निर्जर सूर जै,
तट भव जल तत्काल ॥ २९१ ॥
ॐ नमः
सूरि-निर्जरा-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
आत्म प्रतीति हो चले,
हो प्रभु भक्ती साथ ।
नींव महल-भव-भव हिले,
साध एक आराध ॥ २९२ ॥
ॐ नमः
सूरि-निर्जरा-
प्रतीता-यस्-स्वाहा ।
सूर सिवा किसका रहा,
स्वर्ग मोक्ष साम्राज ।
भटकन और सिवा यहाँ,
गुरु जल जलधि जहाज ॥ २९३ ॥
ॐ नमः
सूरि-मोक्षा-यस्-स्वाहा ।
पाप बंध से मोक्ष पा,
गहरे उतरे आन ।
दूर निराकुल सौख ना,
न सुदूर कल्याण ॥ २९४ ॥
ॐ नमः
सूरि-बन्ध-
मोक्षा-यस्-स्वाहा ।
जो पसंद शिव राधिका,
गुण गुन चाले सूर ।
मति बन बैठी साधिका,
अब शिव अधिक न दूर ॥ २९५ ॥
ॐ नमः
सूरि-मोक्ष-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
सोऽहम् रट लागी ।
मोह सुरत भागी ॥
सूर स्वरूप शिवम् ।
जयतु जयतु सिद्धम् ॥ २९६ ॥
ॐ नमः
सूरि-मोक्ष-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
छूट अनंता-नूबंधी ।
अटूट अनुबंधन सिद्धि ॥
सूर मोख अनुबंधन जय ।
चूर मोह भव बन्धन क्षय ॥ २९७ ॥
ॐ नमः
सूरि-मोक्षानु-
बन्धा-यस्-स्वाहा ।
कहे नगन तन, बिन कहे,
अपना अपने पास ।
सूर शिवानु-प्रकाश हे !,
वन्दन हित इति…हास ॥ २९८ ॥
ॐ नमः
सूरि-मोक्षानु-
प्रकाशा-यस्-स्वाहा ।
सार्थ नाम त्रय गुप्ति ले,
कर्मन करें प्रहार ।
जय माला वधु मुक्ति ले,
आन खड़ी शिव द्वार ॥ २९९ ॥
ॐ नमः
सूरि-स्वरूप-गुप्तये-स्वाहा ।
परम इष्ट पद पंच जै,
सूर विराजे बीच ।
परिणत हंस विरंच वे,
लें निकाल जग कीच ॥ ३०० ॥
ॐ नमः
सूरि-परमात्म-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
उपाध्याय पञ्चाशती
रो पड़ते लख दृग आसूँ ।
धन ! ज्ञानाचार पिपासु ॥
सब आठों अंग अनूठे ।
क्यूँ धार न अमरित फूटे ॥ ३५१ ॥
ॐ नमः
पाठक-ज्ञानाचारा-यस्-स्वाहा ।
तप बारा बारा मासी ।
इंद्रियाँ पाँच सब दासी ॥
नुति तपाचार उवझाया ।
हित छाया द्वारे आया ॥ ३५२ ॥
ॐ नमः
पाठक-तप-
साचारा-यस्-स्वाहा ।
इच्छा न स्वर्ग की, शिव की ।
सर अध्यात्म नित डुबकी ॥
निःकांक्ष आदि गुण धारी ।
दर्शनाचार बलिहारी ॥ ३५३ ॥
ॐ नमः
पाठक-दर्शनाचारा-यस्-स्वाहा ।
तामस आखर पलटाये ।
समता पाले में आये ॥
चारित्रा-चार निराला ।
बस टूकन दो भव कारा ॥ ३५४ ॥
ॐ नमः
पाठक-चारित्राचारा-यस्-स्वाहा ।
कब रुचा कदम लौटाना ।
कर्जा चुक चला पुराना ॥
ले ढाल सामना करते ।
पाठक न पलक भी डरते ॥ ३५५ ॥
ॐ नमः
पाठक-वीर्याचारा-यस्-स्वाहा ।
धनवान ज्ञान वृत दृग चोखे ।
पाठक पिटार गुण रत्नों के ॥
लो बना निराकुल आप भाँत ।
कृपया ! शिव तक दो निभा साथ ॥ ३५६ ॥
ॐ नमः
पाठक-रत्नत्रया-यस्-स्वाहा ।
रखा रह जाना जोड़ा ।
सुना, जोड़ा भी छोड़ा ॥
दौड़ यौवन वन आये ।
गुणी एकत्व कहाये ॥ ३५७ ॥
ॐ नमः
पाठक-एकत्व-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
परमात्म तत्व इक ध्याना ।
उवज्ञाय न पड़ा सिखाना ॥
जिन नक्शे कदम बढ़े हैं ।
कद में कुछ आज बड़े हैं ॥ ३५८ ॥
ॐ नमः
पाठक-एकत्व-
परमात्मने-स्वाहा ।
कुछ लाते ना, ले जाते ना ।
नव जोड़ रहे सो नाते ना ॥
बातें ना कीं, कर दिखलाया ।
एकत्व धर्म ध्वज फहराया ॥ ३५९ ॥
ॐ नमः
पाठक-एकत्व-
धर्मा-यस्-स्वाहा ।
लगन चैतन्य एक लागी ।
धन्य ! परिणत जागी जागी ॥
पाठ जय हो, पाठक जय हो ।
पहर अठ सुमरण बड़भागी ॥ ३६० ॥
ॐ नमः
पाठक-एकत्व-
चैतन्या-यस्-स्वाहा ।
चूड़ी न एक बाजी ।
तज घर, हित बा…बाजी ॥
बाबा जी कहत जगत ।
‘के जोवन जगत् जगत ॥ ३६१ ॥
ॐ नमः
पाठक-एकत्व-चेतन्य-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
करे कर्म जो कल ।
वही भोगता फल ॥
जल आँखन लाये ।
चल कानन आये ॥ ३६२ ॥
ॐ नमः
पाठक-एकत्व-
द्रव्या-यस्-स्वाहा ।
है उठा रखी सौगन्द ।
मैं चेतन का आनन्द ॥
पाकर ही लूँगा दम ।
आकर जो…वन दृगनम ॥ ३६३ ॥
ॐ नमः
पाठक-चिदानन्दा-यस्-स्वाहा ।
बुद्ध पाठक ।
सिद्ध साधक ॥
और कौन दूजा ।
कोन कोन खोजा ।
शुद्ध ज्ञायक ॥ ३६४ ॥
ॐ नमः
पाठक-सिद्ध-
साधका-यस्-स्वाहा ।
उदास गृद्धी है ।
ऋद्धी सिद्धी है ।
पाठक हट साधक,
श्वास विशुद्धी है ॥ ३६५ ॥
ॐ नमः
पाठक-ऋद्धि-
पूर्णा-यस्-स्वाहा ।
धन ! गांठ नहीं सिर पे ।
बन ठूंठ खड़े गिर पे ।
जै निर्ग्रंथ पाठका,
पद पढ़ें कभी घर पे ॥ ३६६ ॥
ॐ नमः
पाठक-निर्ग्रन्था-यस्-स्वाहा ।
अर्थ स्वात्म आराध के,
बता चले परमार्थ ।
पाठक स्वर…भी साध के,
दिश् दिश् सुरभी सार्थ ॥ ३६७ ॥
ॐ नमः
पाठकार्थ-निधाना-यस्-स्वाहा ।
नंतानुबंधी तज ।
संयम सुगंधी भज ॥
गजराज चाल चाले ।
‘गज-दूर’ मोक्ष पाले ॥ ३६८ ॥
ॐ नमः
पाठक-संसाराननु-
बन्धा-यस्-स्वाहा ।
कल…यान मान ।
कल्याण ज्ञान ॥
ऽऽराधक तुरंत ।
पाठक जयन्त ॥ ३६९ ॥
ॐ नमः
पाठक-कल्याणा-यस्-स्वाहा ।
देख दुखी औरन ।
लेख, दुखी फौरन ॥
एक नहीं अगणंत ।
गुण उवझाय जयन्त ॥ ३७० ॥
ॐ नमः
पाठक-कल्याण-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
लाभ देख जग तीना ।
मौन गौण कर लीना ॥
छीना मिथ्यात्व चला के ।
सीना क्या कहे बता के ॥ ३७१ ॥
ॐ नमः
पाठक-कल्याण-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
दें खोल नेत्र तीजे ।
रखते हैं दृग भींजे ॥
कल्याण विश्व साधें ।
निस्पृहता आराधें ॥ ३७२ ॥
ॐ नमः
पाठक-कल्याण-
द्रव्या-यस्-स्वाहा ।
तत्त्व मिला पुण्य पाप ।
नव पदार्थ कथन आप ।
पाठ, पाठका जयन्त,
मनोकाम पून जाप ॥ ३७३ ॥
ॐ नमः
पाठक-तत्त्व-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
फिर कषाय कर ।
मन्द मन्दतर ॥
डूब भीतरी ।
पाठ भी…तरी ॥ ३७४ ॥
ॐ नमः
पाठक-चिद्रूपा-यस्-स्वाहा ।
मोक्ष मार्ग भीतर ज्यादा ।
बाह्य न आते बन नादाँ ॥
चित् चैतन्य निरखते हैं ।
फूँक फूँक पग रखते हैं ॥ ३७५ ॥
ॐ नमः
पाठक-चैतन्या-यस्-स्वाहा ।
तन मृणमय ।
भिन चिन्मय ॥
गाँठ पाठ ।
ठाट बाट ॥ ३७६ ॥
ॐ नमः
पाठक-चेतना-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
मोह अँधेरा हरते हैं ।
भोर सवेरा करते हैं ॥
पाठक ज्योति प्रकाश ।
गूंज धरा आकाश ॥ ३७७ ॥
ॐ नमः
पाठक-ज्योतिः
प्रकाशा-यस्-स्वाहा ।
कर चेतन की बातें ।
गुजरें जिनकी रातें ।
काटें वे पुरा करम,
नव करम, न वे बाँधें ॥ ३७८ ॥
ॐ नमः
पाठक-दर्शन-
चेतना-यस्-स्वाहा ।
ज्ञान चेतना अनन्य ।
खेद खिन्न ना प्रसन्न ।
पाठका जयन्त पाठ,
ऊर्ध्व-रेत मूर्धन्य ॥ ३७९ ॥
ॐ नमः
पाठक-ज्ञान-
चेतना-यस्-स्वाहा ।
सिद्ध सा सबको मानें ।
धूप खा, छाता तानें ॥
बुद्ध, प्रतिबुद्ध आप से ।
जीव विद ! डरें पाप से ॥ ३८० ॥
ॐ नमः
पाठक-जीव-विदे-स्वाहा ।
अबकी जोर लगा कर के ।
‘रे भीतर कछु…आ करके ॥
क…छुआ कहना भूल चले ।
बढ़ गुड़ गुंगन पाँत खड़े ॥ ३८१ ॥
ॐ नमः
पाठक-वीर्य-
चेतना-यस्-स्वाहा ।
विश्व हितंकर ।
कल तीर्थंकर ॥
आज देशना ।
राग द्वेष ना ॥
पाठ, पाठका ।
धोक वन्दना ॥ ३८२ ॥
ॐ नमः
पाठक-सकल-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
आचार्य श्रमण ।
उवज्ञाय चरण ।
अध, ऊर्ध्व, मध्य,
सुखदाय शरण ॥ ३८३ ॥
ॐ नमः
पाठक-त्रैलोक्य-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
सम्प्रति, भूत, भविष्य में,
शरण एक उवझाय ।
डाँट लगत शिशि-शिष्य में,
धन ! भविष्य बन जाय ॥ ३८४ ॥
ॐ नमः
पाठक-त्रिकाल-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
ममकार गलाते हैं ।
धन ! उमंग लाते हैं ।
उवझाय शरण, मंगल,
‘हरि-बोल’ बताते हैं ॥ ३८५ ॥
ॐ नमः
पाठक-मङ्गल-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
मोख यतन ।
धोक चरन ।
पाठ, पाठका,
लोक शरण ॥ ३८६ ॥
ॐ नमः
पाठक-लोक-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
आस्रव अशुभ विदाई ।
नुति-पद रटन लगाई ।
पाठ धन्य ! धन ! पाठक,
दूर न शिव ठकुराई ॥ ३८७ ॥
ॐ नमः
पाठक-आस्रव-
अवेदा-यस्-स्वाहा ।
नयन वश में रखते ।
वयन वश में रखते ।
रखते हैं वश में मन,
आस्रव हन ! पाठक धन ! ॥ ३८८ ॥
ॐ नमः
पाठक-आस्रव-
विनाशा-यस्-स्वाहा ।
शशि मुख अमरित झिर चाला ।
कर्णांजुल पीने वाला ॥
मन, वच, काया बस करके ।
पैठे भीतर धस कर के ॥ ३८९ ॥
ॐ नमः
पाठक-आस्रव-
उपदेश-छेद-का-यस्-स्वाहा ।
द्वन्द भुक्त खो गये ।
बन्ध मुक्त हो गये ॥
पाठ धन्य ! पाठका ।
घाट मुक्ति का दिखा ॥ ३९० ॥
ॐ नमः
पाठक-बन्ध-
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
धन ! बह विधि बन्धन धारा ।
टूकन विधि बन्धन कारा ॥
ध्रुव तारा गगन अहिंसा ।
पाठक सर मानस हंसा ॥ ३९१ ॥
ॐ नमः
पाठक-बन्ध-
अन्तका-यस्-स्वाहा ।
देख उठाते रखते चीजें ।
लख पर छिद्र आँखें मींचें ॥
संवर गुणधारी उवझाया ।
परिकर पंच-समिति मन भाया ॥ ३९२ ॥
ॐ नमः
पाठक-संवरा-यस्-स्वाहा ।
भा…वन भव नाशन बतलाते ।
अपना समय न व्यर्थ गवाते ॥
गाते गुण कीर्तन जिनवाणी ।
बस समझो गुम आनी जानी ॥ ३९३ ॥
ॐ नमः
पाठक-संवर-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
व्रतधर, सगुप्त, परिषह जेता ।
चरित-समित-धर, धर्म निकेता ॥
कारण संवर एक अकेला ।
हित वारण संसार झमेला ॥ ३९४ ॥
ॐ नमः
पाठक-संवर-
कारणा-यस्-स्वाहा ।
कंदर्प याद ना आया ।
धन ! कौत्कुच्य विसराया ॥
उवझाया आप सरीखे ।
देखे, तब भीतर दीखे ॥ ३९५ ॥
ॐ नमः
पाठक-कन्दर्पच्-
छेदका-यस्-स्वाहा ।
गिर् सुमरण वज्र प्रहार ।
गिर कर्मन टूकन चार ।
पाठक अपने से एक,
सिरसा वन्दन शत बार ॥ ३९६ ॥
ॐ नमः
पाठक-कर्म-
विस्फोटका-यस्-स्वाहा ।
परम तप स्वाध्याय माना ।
‘निर्जरा तपसा’ विधाना ॥
दिवाना यूँ ही न द्यु-पुर ।
रात दिन झन झनन नूपुर ॥ ३९७ ॥
ॐ नमः
पाठक-निर्जरा-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
प्रणय पाती रोज आती ।
और ना, शिव वधु भिजाती ।
अराती चित् चार कोने,
पाठ जय जय जयतु पाठी ॥ ३९८ ॥
ॐ नमः
पाठक-मोक्षा-यस्-स्वाहा ।
मारग मोक्ष दिखाते हैं ।
माया मोह घटाते हैं ।
शिव स्वरूप पाठी ओ ! भक्ता,
चल दर्शन कर आते हैं ॥ ३९९ ॥
ॐ नमः
पाठक-मोक्ष-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
रसिक पाठ अध्यात्म के,
छाना तीन जहान ।
बैठ निकट परमात्म के,
रत सामायिक ध्यान ॥ ४०० ॥
ॐ नमः पाठक-
आत्म-रतये-स्वाहा ।
साधु पञ्चाशती
असिधारा व्रत पालते ।
नेकी दरिया डालते ॥
धीर, वीर, गंभीर ।
महावीर के वीर ॥ ४५१ ॥
ॐ नमः
साधु-वीर्य-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
मन के जीते जीत है अरे ।
मन के हारे हार कह चले ।
और अड़ा चाले हैं छाती,
खड़े ढाल लें कर्म क्या करे ॥ ४५२ ॥
ॐ नमः
साधु-वीर्यात्म-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
रिसते से रिश्ते ।
काँटे गुलदस्ते ॥
लागे रस्ते से ।
मुनि हँसते हँसते ॥ ४५३ ॥
ॐ नमः
साधु-गुण-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
पाटल पाटल मल गहने हैं ।
पवमान करधनी पहने हैं ॥
दृढ़ लक्ष लक्ष्मी धन दौ…लत ।
छूटी पीछे शानो-शौकत ॥ ४५४ ॥
ॐ नमः
साधु-लक्ष्म्य-
लङ्कृता-यस्-स्वाहा ।
सदी सधी साधो परणत ।
घड़ी घड़ी साधें अरहत ॥
श्री नवकार जप अनोखी ।
निधि अद्भुत तिय रत्नों की ॥ ४५५ ॥
ॐ नमः
साधु-लक्ष्मी-
परिणता-यस्-स्वाहा ।
सहजो श्री देने वाले ।
बदल न कुछ लेने वाले ॥
निष्पृह तुम निष्काम तुम्हीं ।
मेरे चारों धाम तुम्हीं ॥ ४५६ ॥
ॐ नमः
साधु-लक्ष्मी-
रूपा-यस्-स्वाहा ।
उस देश साधुता जाती ।
जड़ देह पड़ी रह जाती ॥
पुद्गल संस्कार मिटाने ।
ध्रुव तत्त्व गा चले गाने ॥ ४५७ ॥
ॐ नमः
साधु-ध्रुवा-यस्-स्वाहा ।
बुनते गुण माल दिवाने ।
सिरपुर राधिका पिंनाने ॥
रत्नत्रय सुमेर अक्षर ।
गूँजे बढ़ नमेर सुन्दर ॥ ४५८ ॥
ॐ नमः
साधु-गुण-
ध्रुवा-यस्-स्वाहा ।
छोड़ नगरिया बढ़ जाते ।
पर दिल में घर कर जाते ॥
लेख वज्र अंकित दूजे ।
साध द्रव्य ध्रुव जय गूँजे ॥ ४५९ ॥
ॐ नमः
साधु-द्रव्य-
ध्रुवा-यस्-स्वाहा ।
और और निर्मल परिणाम ।
पाँव पाँव लग इस उस ग्राम ।
जयतु साध जय जयतु साधुता,
नाम लिखा लें दिव शिव धाम ॥ ४६० ॥
ॐ नमः
साधु-द्रव्योत्-
पादा-यस्-स्वाहा ।
बिषय चोर इत उत फिरें,
कुत्सित भाव निवार ।
दोष विवर्जित तप करें,
तिरने अबकी बार ॥ ४६१ ॥
ॐ नमः
साधु-द्रव्य-
व्यया-यस्-स्वाहा ।
पढ़े दूज कक्षा ।
साध-जीव रक्षा ॥
शिव अध्यक्षा कल ।
वन्दन ले अख-जल ॥ ४६२ ॥
ॐ नमः
साधु-जीवा-यस्-स्वाहा ।
सक्रिय सम दर्शन पालें ।
पीर मिटाने बढ़ चालें ।
साध सुध्यान अपाय विचय,
चिठिया शिव राधा डालें ॥ ४६३ ॥
ॐ नमः
साधु-जीव-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
मरने से पहले मरते ना ।
हाँ भरते ना, ना करते ना ।
निज वंशी चैन बजाते हैं,
गौरख धन्धे में पड़ते ना ॥ ४६४ ॥
ॐ नमः
साधु-चेतन-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
जाननहार-जाननहार ।
जपते रहते बारम्बार ।
क्यों-कर हो चालें गाफिल,
निकले छोड़-छाड़ घर-बार ॥ ४६५ ॥
ॐ नमः
साधु-चेतन-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
चेतन भिन ।
ये तन भिन ।
मुनि लहरायें, केतन जिन ॥ ४६६ ॥
ॐ नमः
साधु-चेतना-यस्-स्वाहा ।
भीतर की सुनते आवाज ।
विश्व नाज ! दृग रखते लाज ।
धन ! परमात्म प्रकाश साध के,
दिव बाँया, शिव एक जहाज ॥ ४६७ ॥
ॐ नमः
साधु-परमात्म-
प्रकाशा-यस्-स्वाहा ।
भरा ज्ञान ही ज्ञान ।
करते कभी न मान ।
साध जयतु जय साधना,
ज्योति स्वरूप जहान ॥ ४६८ ॥
ॐ नमः
साधु-ज्योतिः स्वाहा ।
सीप मोती ।
दीप ज्योति ।
साधो साध,
सदीव पोथी ॥ ४६९ ॥
ॐ नमः
साधु-ज्योतिः
प्रदीपा-यस्-स्वाहा ।
कर सिरमण ‘दिया’ ।
समदर्शन जिया ! ।
भले कँटीला पथ,
तय संमिलन प्रिया ॥ ४७० ॥
ॐ नमः
साधु-दर्शन-
प्रदीपा-यस्-स्वाहा ।
अप्प दीवो भव ।
कहा, छीजो भव ।
सम्यग्ज्ञान ‘दिया’ ।
भले कँटीला पथ,
तय संमिलन प्रिया ॥ ४७१ ॥
ॐ नमः
साधु-ज्ञान-
प्रदीपा-यस्-स्वाहा ।
दुखिया दुरंत ।
भज साध संत ।
सुखिया तुरंत ।
इक शरण साध,
जय जय जयंत ॥ ४७२ ॥
ॐ नमः
साधु-सर्व-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
मन हो जाता हल्का ।
सत्-संग पलक पल पा ।
छलका लो नैन जरा,
सत्-संग पलक पल का ॥ ४७३ ॥
ॐ नमः
साधु-लोक-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
दुख पीड़ा बस कहनी ।
दृग गंग रेव बहनी ॥
चरणों में जग बैठा ।
मनु माँ समीप बेटा ॥ ४७४ ॥
ॐ नमः
साधु-त्रि-लोक-
शरणा-यस्-स्वाहा ।
पर छिद्र समान मुरलिया ।
निज छिद्र मान पनडुबिया ॥
बढ़ चले लगाने डाँट ।
बस लगने वाले घाट ॥ ४७५ ॥
ॐ नमः
साधु-संसार-
छेदका-यस्-स्वाहा ।
इक श्री फल ले चालो ।
दुक्ख बुद-बुदा डालो ॥
साध ! लौट घर अपने ।
पूर्ण सुदामा सपने ॥ ४७६ ॥
ॐ नमः
साधु-शरणा-यस्-स्वाहा ।
सुन डगर धाम शिव सकरी ।
दीनी उतार सिर गठरी ॥
पगड़ी सिर शिव अधिकारी ।
एकत्व भावना न्यारी ॥ ४७७ ॥
ॐ नमः
साधु-एकत्वा-यस्-स्वाहा ।
जाना कब जोड़ा साथ ।
जोड़ा भी छोड़ा साध ॥
आराध गुण इकत्वम् ।
तय परिणय राध-शिवम् ॥ ४७८ ॥
ॐ नमः
साधु-एकत्व-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
आकर जो…वन हाथ बाल तोड़े ।
पीछे धोकर हाथ, काल दौड़े ॥
जोड़े हाथ खड़े हैं गुण सारे ।
साध एक लाखन बारे न्यारे ॥ ४७९ ॥
ॐ नमः
साधु-एकत्व-
द्रव्या-यस्-स्वाहा ।
पत्र-छाँव ना चाहते,
निकले पंथ ततूर ।
धन ! पाणी पातरि छटे,
यातरि फिर शशि सूर ॥ ४८० ॥
ॐ नमः
साधु-एकत्व-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
अन्तर्मुख मुद्रा ।
गत निद्रा तन्द्रा ॥
परं-ब्रह्म निर्ग्रन्थ ।
वन्दन कोटि अनंत ॥ ४८१ ॥
ॐ नमः
साधु-परं-ब्रह्मणे-स्वाहा ।
मुंह मोड़ा ही से ।
गँठ-बन्धन भी से ॥
स्याद्-वाद साधा ।
दुर्मत पग बाँधा ॥ ४८२ ॥
ॐ नमः
साधु-स्याद्वादा-यस्-स्वाहा ।
सुन साधक सन्त वचन ।
गुन ज्ञायक ब्रह्म रमण ॥
सत् शब्द सार्थ सब…दा ।
तिहुॅं भौन करे सजदा ॥ ४८३ ॥
ॐ नमः
साधु-शब्द-ब्रह्मणे-स्वाहा ।
समयसार के सार है,
ऋषि, मुनि, यति, अनगार ।
लाखों तारे…तार हैं,
घट झुक तर जल धार ॥ ४८४ ॥
ॐ नमः
साधु-परमागमा-यस्-स्वाहा ।
मूलाचार पढ़ो ।
या अनगार जुड़ो ।
बात बराबर है,
हित उद्धार बढ़ो ।
आ अनगार जुड़ो ॥ ४८५ ॥
ॐ नमः
साधु-जिनागमा-यस्-स्वाहा ।
सात इह लोक है ।
हाथ पर-लोक है ।
साध धन ! साधना,
माथ नत धोक है ॥ ४८६ ॥
ॐ नमः
साध्व-नेकार्था-यस्-स्वाहा ।
छव कृष्णा झूठी ।
जब तिष्णा छूटी ॥
फूटी अमरित धार ।
साध शौच अनगार ॥ ४८७ ॥
ॐ नमः
साधु-शौचा-यस्-स्वाहा ।
लगा किनारे लालच-लोभ ।
तभी न उठता मानस क्षोभ ॥
खोज लोच से आँखें चार ।
साधो गुण शुचित्व जयकार ॥ ४८८ ॥
ॐ नमः
साधु-शुचित्व-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
ब्रह्मचारी पावन ।
रतन-त्रय पवित्र तन ।
और तो और सुनो,
मन यथा-जात श्रमण ॥ ४८९ ॥
ॐ नमः
साधु-पवित्रा-यस्-स्वाहा ।
तन चिपके रज ।
चिकनाई भज ।
अबकी वश में,
कर इन्द्रिय गज ।
पीछा पिण्ड-कषाय छुड़ाया ।
खिताब बन्धन विविक्त पाया ॥ ४९० ॥
ॐ नमः
साधु-बन्ध-
वि-विक्ता-यस्-स्वाहा ।
याद शेष आशा ।
राग द्वेष ह्रासा ।
धोक मोख-बन्धन,
टिकी दृष्टि नासा ॥ ४९१ ॥
ॐ नमः
साधु-बन्ध-
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
दूर कर प्रमाद सब ।
साध प्रणव नाद अब ॥
किया बंध चूर है ।
जिया नन्द भूर है ॥ ४९२ ॥
ॐ नमः
साधु-बन्ध-
प्रति-बन्धका-यस्-स्वाहा ।
सम-समता वर ।
सार्थक संवर ॥
सत् शिव सुन्दर ।
धरती अम्बर ॥
गत-आडम्बर ।
पीछि कमण्डल ॥
साध दिगम्बर ।
आस पास भर ॥ ४९३ ॥
ॐ नमः
साधु-संवर-
का-रणा-यस्-स्वाहा ।
कब सोये जग भोर ।
तप तपते बल-जोर ॥
द्रव्य निर्जरा साध ।
गूँज गगन जय-नाद ॥ ४९४ ॥
ॐ नमः
साधु-निर्जरा-
द्रव्या-यस्-स्वाहा ।
देख सन्त वैराग्य समाये ।
भूली विसरी निधि मिल जाये ॥
बाद निर्जरा हो लग पाँत ।
जय जयन्त दैगम्बर साध ॥ ४९५ ॥
ॐ नमः
साधु-निर्जरा-
निमित्ता-यस्-स्वाहा ।
देह जर्जर जिया ! ।
नेह निर्जर किया ।
साध जय साधना,
‘दिया’ प्रकटा लिया ॥ ४९६ ॥
ॐ नमः
साधु-निर्जरा-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
घर बाहर कब आते ।
आ, निमित्त बढ़ जाते ।
मेंढक न बाल बाँका,
‘रख-पानी’ अहि गाते ॥ ४९७ ॥
ॐ नमः
साधु-निमित्त-
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
क्रोध से दामन झटका ।
बोध लाखन मुनि-भट का ॥
न भूला भटका साधो ।
साँझ घर, माटी माधो ॥ ४९८ ॥
ॐ नमः
साधु-बोध-
धर्मा-यस्-स्वाहा ।
बोधी रत्नत्रय पाऊँ ।
अन्त समाधी अपनाऊँ ।
भावन कब की,
दामन अब की,
क्यूँ ना मैं बलि-बलि जाऊँ ।
यही प्रार्थना,
साध साधना,
मैं भी तुम पीछे आऊँ ॥ ४९९ ॥
ॐ नमः
साधु-बोध-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
दूर दूर तक पाप न मन में ।
मुनि न भटकना अब भव वन में ॥
पा वन नन्दन गलि कलि आके ।
यति विराजना सिरपुर जाके ॥ ५०० ॥
ॐ नमः
साधु-सुगति-
भावा-यस्-स्वाहा ।
पदवी सिद्ध योग जो भाव ।
साधें साध, घाम हो छाँव ।
बैठे नाव छिद्र ना एक,
बस आने वाला वो गाँव ॥ ५०१ ॥
ॐ नमः
साधु-परम-गति-
भावा-यस्-स्वाहा ।
जा विभाव यम द्वारे छोड़ा ।
रग रग भाव नि-श्वारथ दौड़ा ।
थोड़ा सा शिव पत्तन बाकी,
पाल वस्तु क्या स्वरूप ? खोला ॥ ५०२ ॥
ॐ नमः
साधु-विभाव-
रहिता-यस्-स्वाहा ।
सार्थ स्वभाव सुभावे ।
क्यूँ न नाव शिव आवे ॥
ध्यावे ना, क्यूँ दिव धाम ।
भींजी सुमरण शिव शाम ॥ ५०३ ॥
ॐ नमः
साधु-स्वभाव-
सहिता-यस्-स्वाहा ।
सिद्धों के पास निराकुलता ।
सन्तों के पास ना आकुलता ॥
क्यूँ मोक्ष स्वरूप न कहलायें ।
मिल साध अनेकों रह जायें ॥ ५०४ ॥
ॐ नमः
साधु-मोक्ष-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
‘री बढ़ प्रमाण आराधो ।
मुख निसरी बातें साधो ॥
झूठे न होय मुनि वैना ।
कह रही झूम सति मैना ॥ ५०५ ॥
ॐ नमः
साधु-प्रमाणा-यस्-स्वाहा ।
झाँपे पलक न अरिहंता ।
हाँपे पलक न निर्ग्रन्था ॥
अक्ष विषय जीते हैं जिन ।
साध विनय बीते हैं छिन ॥ ५०६ ॥
ॐ नमः
साधु-अर्हत्-
स्व-रूपा-यस्-स्वाहा ।
आसन सिध सिध शिला जमाया ।
सबने मुनि को पलक उठाया ।
चेहरे मन्द हास इक बिखरा,
ह्रास क्रोध, तिष्णा, मद, माया ॥ ५०७ ॥
ॐ नमः
साधु-सिद्ध-परमेष्ठिने-स्वाहा ।
ले शिशु-शश सूर प्रकाशा ।
दे प्रपूर गुरु अभिलाषा ।
श्रुति पूत-पालने लक्षण,
गुरु आज्ञा रख दृग नासा ॥ ५०८ ॥
ॐ नमः
साधु-सूरि-
प्रकाशिने-स्वाहा ।
ज्ञान ध्यान तप आरक्ता ।
विषयन भोग न आसक्ता ।
निरारंभ रिक्ता परिग्रह,
भेद न यति सारस्वत्ता ॥ ५०९ ॥
ॐ नमः
साधु उपाध्याया-यस्-स्वाहा ।
‘सा’ शरीर धुत सिद्धा ।
‘सा’-आ अरिहत शुद्धा ।
सा ‘आ’ आचारज गण,
‘सा’-शारद धृत श्रद्धा ॥ ५१० ॥
ॐ नमः
साधु अर्हत्-सिद्ध-आचार्य-
उपाध्याय-सर्व-साधुभ्यो-स्वाहा ।
नाम सार्थक करना ।
‘शंख’ सीखा श्रमणा ।
चली गहरे म…छली,
जहाँ शासन यम ना ॥ ५११ ॥
ॐ नमः
साधु-आत्म-रतये-स्वाहा ।
रतन तीन ले आद,
लग कतार गुण के धनी ।
देना शिव तक साथ,
जग दुरूह अटवी घनी ॥ ५१२ ॥
ॐ नमः
साधु अर्हत्-सिद्ध-
आचार्य-उपाध्याय-सर्व-साधु
रत्नत्रयात्मक-अनन्त गुणेभ्यो स्वाहा ।
महा अर्घ
सिद्ध के जैसा ना कोई ।
घूम फिर आया जग दोई ॥
नाग चन्दन लिपटे देखा ।
दाग शश पूनम अभिलेखा ॥
तले अँधियार चिराग भजे ।
आग का गोला सूर्य बजे ॥
नीर, चन्दन, अक्षत, फुलवा ।
चारु चरु, दीप, धूप, फल ला ॥
आपके चरणों में रखता ।
आप चरणों का बन भक्ता ॥
घूम फिर आया जग दोई ।
सिद्ध के जैसा ना कोई ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाप
असि आ उसा
नमः
(मंत्र का 108 जाप करें।)
जयमाला
पाहन सोना बन चले,
कहाँ ? किसे सन्देह ।
पावन होना सिध अरे,
नुति हित देह विदेह ॥१॥
जीव स्वयं कृत कर्म का,
भोगे फल दिन-रात ।
अधिपत भी शिव शर्म का,
कर्मन घात अघात ॥२॥
खड़ग ज्ञान, दृग, वृत उठा,
पाप खबीस विनाश ।
अब तक का कर्जा पटा,
सार्थ लब्धि नव राश ॥३॥
युगपत् दर्पण वत् दिखा,
सु-विदिद लोक अलोक ।
छव हतप्रभ शश-रव सखा !,
कौन न देवे धोक ॥४॥
समय एक लागा लगे,
जा सीधे शिव-धाम ।
तलक न अब सोये जगे,
दृग उन्मील प्रणाम ॥५॥
सिध अकार कुछ कम रहा,
परमौदार शरीर ।
गुण न कौन आ नम रहा,
पाने भव जल तीर ॥६॥
अविनाशी सुख सिद्ध का,
बढ़ अख-विषय अबाध ।
धर न चलूँ पथ रुद्र का,
नुति हित अन्त समाध ॥७॥
भूख प्यास वेदन नहीं,
भोजन का क्या काम ।
रोग काँस वेदन नहीं,
औषध काम तमाम ॥८॥
नय, तप, संयम, सिद्ध जे,
सिध सम्यक्त्व, चरित्र ।
दर्शन, अवगम सिद्ध वे,
मानस करें पवित्र ॥९॥
दुख क्षय, क्षय कर्मन करूँ,
ति-रत्न स्वर्ण सुगन्ध ।
सद्-गति सुमरण आदरूँ,
निध गुण लाभ जिनन्द ॥१०॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
*श्री सरसुति-मंत्र*
ॐ ह्रीम्
अर्हन् मुख कमल-वासिनि
पापात्म क्षयंकरि
श्रुत-ज्ञान
ज्वाला सहस्र प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति !
मत् पापम् हन हन दह दह
क्षाम् क्षीम् क्षूम् क्षौम् क्षः
क्षीरवर-धवले
अ-मृत-संभवे
वम् वम् हूम् फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।१।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।२।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।३।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
आरती
आओ भक्ता आओ ‘रे ।
अपना भाग जगाओ ‘रे ।
दीवा घृत भर लाओ ‘रे ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान की ।
सिद्ध यन्त्र करुणा निधान की ।।
आरति कर हरषाओ ‘रे ।
आओ भक्ता आओ ‘रे ।।
दुखियारिन रानी मैना ।
चैन-करार न दिन-रैना ।
देख-देख पति की पीड़ा,
बस ढोले पानी नैना ।।१।।
जा पहुंची जिन मन्दरिया ।
दिखे साधु जिन मन-दरिया ।
मिल चाला कोई अपना,
झल चाला नयनन दरिया ।।२।।
अपना पुण्य करो गाढ़ा ।
मुनि बोले अशीष म्हारा ।
धारा सिद्ध-यंत्र ढारो
कार्तिक, फागुन, आसाढ़ा ।।३।।
आया पर्व अठाई है ।
पूजन सिद्ध रचाई है ।
गन्धोदक ले सिर माथे,
कर्म निकाच विदाई है ।।४।।
पापोदय पलटी खाया ।
काम-देव कंचन काया ।
गूँजा ‘सति मैना सुन्दर’,
धरती-अम्बर जयकारा ।।५।।
मोती नयन झिराओ ‘रे ।
श्रद्धा सुमन चढ़ाओ ‘रे ।
मिलकर कीरति गाओ ‘रे ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान की ।
सिद्ध यन्त्र करुणा निधान की ।।
आरति कर हरषाओ ‘रे ।
अपना भाग जगाओ ‘रे ।।६।।
सर्व-विघ्न-शान्ति मंत्र
नमोर्-ऽहते भग-वते
प्र(क्)-क्षी-णाशेष दोष कल्-मषाय
दिव्य तेजो मूर्-तये
श्री शान्ति-नाथाय शान्ति-कराय
सर्व विघ्न(प्) प्र-णा-शनाय
सर्व रोगाप मृत्यु वि-ना-शनाय
सर्व पर कृच्-छु(द्)-द्रो-प(द्)-द्रव वि-ना-शनाय
सर्वा-रिष्ट शान्ति-कराय
ॐ ह्राम् ह्रीम् ह्रूम् ह्रौम् ह्रः
अ, सि, आ, उ, सा नमः
मम सर्व विघ्न शान्तिम्
कुरु कुरु
मम सर्व रोगाप-मृत्यु शान्तिम्
कुरु कुरु
मम सर्व पर कृच्-
छु(द्)-द्रो-प(द्)-द्रव शान्तिम्
कुरु कुरु
मम सर्वा-रिष्ट-शान्तिम्
कुरु कुरु
मे तुष्टिम् पुष्टिम् च कुरु कुरु
ते तुष्टिम् पुष्टिम् च कुरु कुरु
ते मे तुष्टिम् पुष्टिम् च कुरु कुरु
स्वाहा, स्वाहा, स्वाहा
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