सिद्ध-चक्र मंडल विधान
पंचम वलय
*श्री वर्धमान मंत्र*
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रि-सहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, वि-वाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्-भणे वा, मो-हणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अव-राजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
नव देवता संस्तवन
नव देवता ।
शिव दें सटा, भव दें हटा ।
दुख दें मिटा, सुख दें भिंटा ।
नव देवता ।।
झिर नन्द सुमन ।
जल गन्ध पवन ।
सिंह वृन्द हिरण ।
सुख नन्त परम ।
अरिहन्ताणम् अरिहन्ताणम् ।।१।।
सिर लोक गमन ।
वधु मोख रमण ।
दुख शोक शमन ।
शिव सौख अगम ।
श्री सिद्धाणम् श्री सिद्धाणम् ।।२।।
प्रद दीक्ष नगन ।
अध्यक्ष श्रमण ।
जित अक्ष यतन ।
संरक्ष धरम ।
आयरियाणम् आयरियाणम् ।।३।।
फिर ध्यान मगन ।
फिर ध्यान लगन ।
निर्-मान यतन ।
सरधान ब्रहम ।
उवझायाणम् उवझायाणम् ।।४।।
चल ग्रन्थ-सदन ।
जप मंत्र शरण ।
निर्ग्रन्थ श्रमण ।
सद्-पन्थ कदम ।
सव साहूणम् सव साहूणम् ।।५।।
अनुयोग चरण ।
अनुयोग करण ।
अनुयोग अनन ।
अनुयोग प्रथम ।
मॉं जिन आगम, मॉं जिन आगम ।।६।।
पर पीर हरण ।
झिर नीर नयन ।
चिर धीर वरण ।
गंभीर विनम ।
माहन्त धरम, माहन्त धरम ।।७।।
बिन इत्र सुमन ।
बिन वस्त्र नगन ।
बिन शस्त्र मदन ।
शश वक्त्र सुरम ।
प्रतिबिम्ब जिनम् प्रतिबिम्ब जिनम् ।।८।।
पचरंग गगन ।
गत संग लखन ।
मिर्-दंग झनन ।
भवि भृंग पदम ।
धन ! जिनालयम् धन ! जिनालयम् ।
शिव दें सटा, भव दें हटा ।
दुख दें मिटा, सुख दें भिंटा ।
नव देवता ।।९।।
ॐ ह्रीं श्री नव देवता भगवन् !
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिद्ध चक्र महा मण्डल विधान वंदना
सिद्ध चक्र मण्डल विधान को,
शत शत बार प्रणाम ‘जी ।
सति मैना पति कुष्ठ रोग का,
रहा न नाम निशान भी ॥
बनता बिगड़ा काम ‘जी ।
दुखड़ा काम तमाम ‘जी ।
यह सुर-तरु, जग घाम ‘जी ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान को,
शत शत बार प्रणाम ‘जी ॥१॥
पुत्री इक सुर सुन्दरी ।
मैना सुन्दर दूसरी ।
नृप पहुपाल पिता सिरी ।
साम-दाम निध, दण्ड-भेद विद,
दिश्-दश चर्चित नाम ‘जी ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान को,
शत शत बार प्रणाम ‘जी ॥२॥
सुर सुन्दर मत-‘ही’ पढ़ी ।
ज्ञान विवर्जित भीतरी ।
‘वर-वर’ सार्थक ‘धी वरी’ ।
कहें पिता ‘भी’-तर मैना से,
ले वर, वर अभिराम ‘री ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान को,
शत शत बार प्रणाम ‘जी ॥३॥
कहती मैना जनयिता ।
कर न सकूँगी यह खता ।
लिखा भाग का कब मिटा ।
आप चुनेंगे जिसे, उसे चुन,
होऊँगी कृतकाम ‘जी ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान को,
शत शत बार प्रणाम ‘जी ॥४॥
हो क्रोधित नृप ने कहा ।
ढीठ, कृतग्नी तू महा ।
छत्र-छाँव दे मैं रहा ।
और सुनाते हुये भाग जश,
ना ले रही विराम भी ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान को,
शत शत बार प्रणाम ‘जी ॥५॥
इक कोढ़ी दे दी सुता ।
करो, कहें मैना विदा ।
करें खेद अब माँ-पिता ।
पति-सेवा कर, दृग-रेवा वर,
साधूँ सुमरण शाम त्री ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान को,
शत शत बार प्रणाम ‘जी ॥६॥
जा मैना जिन मन्दिरा ।
देख विराजे मुनिवरा ।
दुख कहती दृग-जल झिरा ।
कहाँ आपसे छुप रहता कुछ,
हो जो अन्तर्याम ‘जी ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान को,
शत शत बार प्रणाम ‘जी ॥७॥
मुनि कहते ‘री पुन बढ़ा ।
सिद्ध-चक्र मण्डल मढ़ा ।
सिद्ध-यंत्र पर जल ढुरा ।
पर्व-अठाई साध बरस ‘वस’,
पा अभीष्ट परिणाम ‘री ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान को,
शत शत बार प्रणाम ‘जी ॥८॥
सिद्धो-दक पति सिर लगा ।
कुष्ठ दबाये दुम भगा ।
भाग सात-सौ कुठ जगा ।
सति मैना सुन्दर जयकारा,
गूँजा अहि-सुर धाम भी ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान को,
शत शत बार प्रणाम ‘जी ॥
बनता बिगड़ा काम ‘जी ।
दुखड़ा काम तमाम ‘जी ।
यह सुरतरु, जग घाम ‘जी ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान को,
शत शत बार प्रणाम ‘जी |
सति मैना पति कुष्ठ रोग का,
रहा न नाम निशान भी ॥९॥
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
सिद्ध-चक्र मंडल विधान पूजन
जय जयकारा जय जयकारा ।
सिद्ध यंत्र को नमन हमारा ॥
आगे पीछे रेफ, मध्य सह,
बिन्दु हकारा ।
कमलाकृति-दल कर्णि पूर्व सिध,
स्वर दश चारा ॥
फिर कवर्ग, फिर चवर्ग नीचे ।
फिर टवर्ग, फिर तवर्ग पीछे ॥
फिर पवर्ग अंतस्थ-ऊष्म यूँ,
साथ अनाहत मन्तर न्यारा ।
अंत ह्रीम् बेढ्यो अति प्यारा ॥
मंत्र णमो अरिहंताणं मध,
पाँखन विस्तारा ।
सिद्ध यंत्र को नमन हमारा ।
जय जयकारा जय जयकारा ॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं
श्री सिद्ध यंत्र
अत्र अवतर अवतरण संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
सिद्ध मंत्र आलापता,
असि-आ उसा प्रसिद्ध ।
सिद्ध यंत्र को थापता,
हित सरवारथ सिद्ध ॥
इति यन्त्रस्-थापनार्थं पुष्पांजलिं क्षिपेत्
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् ‘पूर्वर स्वर-चौदह वर्णा ॥१॥
ॐ ह्रीं अर्हं अ आ इ ई उ ऊ
ऋ ॠ ऌ ॡ ए ऐ ओ औ अं अः
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
पूर्व-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् आग्ने-यर, वर्ण कवर्गा ॥२॥
ॐ ह्रीं अर्हं क ख ग घ ङ
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
आग्नेय-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् दक्षिण-अर, वर्ण चवर्गा ॥३॥
ॐ ह्रीं अर्हं च छ ज झ ञ
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
दक्षिण-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् नैऋत्-त्यर, वर्ण टवर्गा ॥४॥
ॐ ह्रीं अर्हं ट ठ ड ढ ण
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
नैऋत्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् पश्चिम-अर, वर्ण तवर्गा ॥५॥
ॐ ह्रीं अर्हं त थ द ध न
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
पश्चिम-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् बायव्-व्यर वर्ण पवर्गा ॥६॥
ॐ ह्रीं अर्हं प फ ब भ म
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
वायव्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् उत्तर अंतस्थ सुवर्णा ॥७॥
ॐ ह्रीं अर्हं य र ल व
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
उत्तर-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् ईशा-नर ऊष्मक वर्णा ॥८॥
ॐ ह्रीं अर्हं श ष स ह
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
ईशान-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अथ सिद्ध भक्ति कायोत्सर्ग
॥ प्राकृत पद्यानु-वाद ॥
॥ दोहा ॥
सिद्ध, ज्ञान, दर्शन-मयी,
जीव-घणा, अशरीर ।
अनाकार, साकार भी,
कुछ कम देह-अखीर ॥१॥
॥ चौपाई ॥
बंधोदय सत्-कर्म अराती ।
प्रकृति मूल-उत्तर संघाती ॥
मंगल-भूत अष्ट गुण-वन्ता ।
जल-संसार तीर अगणंता ॥२॥
सिद्धी-भूत निरंजन, नित्या ।
विकल कर्म विध-वस कृत-कृत्या ॥
सार्थ सिद्ध लोकाग्र निवासी ।
अष्टक प्रमुख शगुन गुण-राशी ॥३॥
नष्ट अष्ट मल-कर्म विशुद्धा ।
सिद्ध, बुद्ध नव-लब्धि समृद्धा ॥
शेखर-मुकुट भुवन-तिहुँ माथा ।
श्री-मद्-भट्टारक जग-त्राता ॥४॥
॥ दोहा ॥
गमना-गमन विमुक्त जे,
प्रकृति कर्म संघात ।
शाश्वत सुख संयुक्त वे,
सिद्ध विमुक्त-उपाध ॥५॥
॥ चौपाई ॥
मंगल-भूत दुभू पाताला ।
निर्मल परिणत बहती धारा ॥
दर्शन, अवगम, चारित सहिता ।
द्रव्य कर्म, नो-कर्म वि-रहिता ॥६॥
केवल दर्शन, चारित, ज्ञाना ।
निध-सम्यक्त्व, वीर्य-अप्रमाणा ॥
सूक्ष्म, अगुरुलघु, अव्या-बाधा ।
अवगाहन गुण अष्टक साधा ॥७॥
तप से सिद्ध, सिद्ध संयम से ।
नय से सिद्ध, सिद्ध अवगम से ॥
दर्शन, ज्ञान, सिद्ध आचरणा ।
हों प्रसन्न, वे तारण-तरणा ॥८॥
॥ दोहा ॥
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सिद्ध जिन नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ॥९॥
॥ चौपाई ॥
भूषण-भू-वस, कल्मष-क्षीणा ।
चरित, ज्ञान, दर्शन समिचीना ॥
सिद्ध भूत, वर्तमान, भावी ।
नन्ता-नन्त काल अप्रभावी ॥१०॥
बुध-प्रतेक ! बुध-बोधित ! बुद्धा !।
बुध-अनेक, बुध-स्वयं ! विबुद्धा !॥
उनका पूजन, वन्दन करता ।
मन, वच, तन अभिनन्दन करता ॥११॥
कर्म क्षीण हो, दुख विलीन हो ।
संगत-साध, सुगति अधीन हो ॥
बोधि ‘निराकुल’ समाधि पाऊँ ।
धन ! जिन-गुण-सम्पद् पा जाऊँ ॥१२॥
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
अकृत्रिम जिनालय अर्घ्यं
आठ करोड़ लाख छप्पन ।
सन्त्यानवे हजार धन ! धन ! ॥
इक्यासी ऊपर सौ चार ।
अखर जिनालय जय जयकार ॥
ॐ ह्रीं आठ करोड़, छप्पन लाख,
सन्त्यानवे हजार, चार सौ इक्यासी
श्री अकृत्रिम जिनालयेभ्यो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
अकृत्रिम जिन बिम्ब अर्घ्यं
कोटिक नव सौ पच्चीसा ।
लाख तिरेपन सत-बीसा ॥
हजार, नव सौ अड़तालीस ।
नुति जिन-बिम्ब अखर निशिदीस ॥
ॐ ह्रीं नौ सौ पच्चीस करोड़,
तिरेपन लाख, सत्ताईस हजार,
नव सौ अड़तालीस
श्री अकृत्रिम जिन बिम्बेभ्यो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
पंचम वलय पूजन
सिद्धों की जय बोलो ।
अंतस् पुण्य भिंजों लो ॥
पुण्य फला अरिहंता ।
कहें ग्रन्थ-निर्ग्रन्था ॥
पुण्य हुआ क्या गाढ़ा ।
सार्थ पाप ‘गिर’ चाला ॥
दोनों हाथों को जोड़ ।
सब काम दूसरे छोड़ ।
चूनर पचरंगी ओढ़ ।
जब कभी मौन खोलो ।
सिद्धों की जय बोलो ॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं
सिद्ध परमेष्ठिन्
अत्र अवतर अवतरण संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
(पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
तुम धन्य बनाई आँख ।
नासा के ऊपर राख ।
मैं हृदय करूँ गंदला,
हा ! नार पराई ताँक ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
उस भाँत भात दुर्गन्ध ।
तुमको जिस भाँत सुगन्ध ।
हा ! वस्तु स्वरूप भुला,
मैं भागदार भव बन्ध ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।
तुमको सा, रे, गा, मा ।
पा, धा, नी अभिरामा ।
रत राग द्वेष हूँ मैं,
क्यों मिले मुक्ति धामा ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।
सुन कहती क्या ? रस…ना ।
की विदा आप तृष्णा ।
अन्वर्थ ‘दवा…खाना’,
मेरी जिह्वा वश ना ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
‘बो लो’ कुछ अच्छा आज ।
सुन रखी आपने लाज ।
कल पलट लौट आना,
मैंने न सुनी आवाज़ ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
लख हाथन जीव विघात ।
तुम राखा हाथन हाथ ।
कब ध्यान दिया हा ! हा !!,
बस स्वार्थ रहा मैं साध ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
जग जीवन पग बाधा ।
तुम खड़गासन साधा ।
मिस सैर, जीव रौंदूँ,
क्यूँ रीझे शिव राधा ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
अंगुलियाँ बराबर देख ।
तुम ढके कान अभिलेख ।
दीवार कान रख मैं,
हा ! बना बाबड़ी भेक ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
इक भाँत पर्श विध आठ ।
तुम पढ़े दूसरा पाठ ।
‘प’ प्रेम पढ़ाई थी,
पढ़ नफ़रत बारा-वाट ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
एक-सौ-अट्ठाईस गुण
अर्घ
प्रथम सीढ़ी शिव पद राखा ।
पलट मुड़ कब पीछे झाँका ॥
कहा मंजिल ने रुक भाई ।
खड़ी मैं यहाँ, कहाँ जाई ॥ १ ॥
ॐ नमः
सम्यग्-दर्शना-यस्-स्वाहा ।
वानरी मन अपना चंचल ।
रमाया श्रुतस्-कंध पल पल ॥
उठी क्या ? मन तरंग मारी ।
पाप मति चित् कोने चारी ॥ २ ॥
ॐ नमः
सम्यग्-ज्ञाना-यस्-स्वाहा ।
ढेर पीछी न लगे फिर से ।
हुये इस बार नगन मन से ॥
केन्द्र रख स्वात्म रेख खींची ।
बन चला वृत वधु शिव रीझी ॥ ३ ॥
ॐ नमः
सम्यक् चारित्रा-यस्-स्वाहा ।
लाज बनती कोशिश राखी ।
किसी की मान-हान ना की ॥
धर्म आस्तित्व सिद्ध न्यारा ।
न देना भुला भाइ-चारा ॥ ४ ॥
ॐ नमः
अस्तित्व धर्मा-यस्-स्वाहा ।
काम की चीज हरिक साधो ! ।
भार जो नाक, वो हटा दो ॥
धर्म वस्तुत्व सिद्ध न्यारा ।
जीत ले ढाल, न तलवारा ॥ ५ ॥
ॐ नमः
वस्तुत्व धर्मा-यस्-स्वाहा ।
और न नाप, पलक झँप ना ।
झाँक लो गरेवान अपना ॥
धर्म अ-प्रमेय सिद्ध न्यारा ।
बिना दस्तक पलटे पाला ॥ ६ ॥
ॐ नमः
अप्रमेयत्व धर्मा-यस्-स्वाहा ।
बड़ा इस उसे न लघु बोला ।
हाथ शिव उसके, जो भोला ॥
अगुरु-लघु धर्म सिद्ध न्यारा ।
‘नाव-नाविक’ तारण हारा ॥ ७ ॥
ॐ नमः
अगुरुलघुत्व धर्मा-यस्-स्वाहा ।
सुना, चेतनता क्या कहती ? ।
चेत ! नत बेत गगन फबती ॥
नव चले, गिरा न सका करम ।
सांझ पहले घर रखा कदम ॥ ८ ॥
ॐ नमः
चेतनत्व धर्मा-यस्-स्वाहा ।
मूर्ति जड़, जीव कहाँ दिखता ।
श्वान लाठी भूसे पिटता ॥
वृत्ति सिंह अपनाई तुमने ।
देख रवि दुम दाबी तम ने ॥ ९ ॥
ॐ नमः
अमूर्तित्व धर्मा-यस्-स्वाहा ।
जीव प्रत्येक सिद्ध माना ।
स्वप्न आया न दिल दुखाना ॥
शोध चीजें रखीं उठाईं ।
समिति मिल गुप्ति आठ माईं ॥ १० ॥
ॐ नमः
सम्यक्त्व धर्मा-यस्-स्वाहा ।
किसी को मूढ़ न कह चाले ।
तैर ले मछली, पिक गा ले ॥
देख गुण हरष चले हो तुम ।
धरा सारी ही मान कुटुम ॥ ११ ॥
ॐ नमः
ज्ञान धर्मा-यस्-स्वाहा ।
क्षमा धर सक्षम बन चाले ।
प्राण अपने ना किसे प्यारे ॥
दिया संबल ‘सम-बल’ पाके ।
खड़ी वधु मुक्ति दृग् झुका के ॥ १२ ॥
ॐ नमः
जीव धर्मा-यस्-स्वाहा ।
सूक्ष्म से सूक्ष्म दोष उगला ।
चला के तजी भक्ति बगुला ॥
धर्म सूक्षम हथियाया है ।
खो चली बाधा माया है ॥ १३ ॥
ॐ नमः
सूक्ष्म धर्मा-यस्-स्वाहा ।
बिन मटर गस्ती ढेर मटर ।
सिकुड़ चाले, न चले पसर ॥
धर्म अवगाह हाथ आया ।
नेक राजे इक सिध, माया ॥ १४ ॥
ॐ नमः
अवगाहन धर्मा-यस्-स्वाहा ।
खो चली सभी विघ्न बाधा ।
सध चला सभी, एक साधा ॥
मुक्ति राधा दौड़ी आई ।
भाग लिक्खी शिव ठकुराई ॥ १५ ॥
ॐ नमः
अव्याबाध धर्मा-यस्-स्वाहा ।
पास जो जिसके वो देता ।
तेल-सुख कब दे जड़-रेता ॥
स्वयं संवेदन अनुरागी ।
माथ टिकली विजयी लागी ॥ १६ ॥
ॐ नमः
स्वसंवेदन ज्ञान
धर्मा-यस्-स्वाहा ।
कालिमा किट्ट अग्नि जारे ।
पाप मन चला चला काड़े ॥
तेज तप स्वरूप अनमोला ।
विनय चाबी शिव दर खोला ॥ १७ ॥
ॐ नमः
स्व स्वरूप
ध्याना-यस्-स्वाहा ।
चतुस् परिणति कषाय छोड़ी ।
चतुष्टय नन्त सहज झोरी ॥
मुक्ति गोरी क्यों ना रीझे ।
देख पर पीर नैन भीजे ॥ १८ ॥
ॐ नमः
अनन्त चतुष्टया-यस्-स्वाहा ।
ज्ञान, दर्शन, चरिता चारा ।
साध तप वीरज आचारा ॥
मुक्ति तय, रत्नत्रय धारी ! ।
ढोक स्वीकार करो म्हारी ॥ १९ ॥
ॐ नमः
सम्यक्त्वादि
गुणा-यस्-स्वाहा ।
वस्तु फितरत जाननहारे ।
सह चले दुख संकट सारे ॥
उतर गहरे पैठे पानी ।
दिख चली मुक्ति राजधानी ॥ २० ॥
ॐ नमः
पंचाचार
चरणा-यस्-स्वाहा ।
कार्य करने का संकल्पा ।
कहें संरम्भ निर्विकल्पा ! ॥
किया मन क्रोध, बोध खोया ।
वही काटे जग, जो बोया ॥ २१ ॥
ॐ नमः
क्रोध कृत मनः संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
और काँधे दुनाल दागूँ ।
फटाखे आग लगा भागूँ ।
क्रोध मन और जगा आया ।
कालिमा आत्म लगा आया ॥ २२ ॥
ॐ नमः
क्रोध कारित मन: संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हाय ! हूँ बड़ा खुरापाती ।
मिलानी हाँ में हाँ आती ।
क्रोध-मन किया समर्थन है ।
गुजरता विरथा नर तन है ॥ २३ ॥
ॐ नमः
क्रोधा-नुमत मनः संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
कार्य अनुकूल वस्तु चुनना ।
है समारम्भ अरे ! सुन ‘ना’ ।
क्रोध मन भर के करता हूँ ।
हाथ मलता, सिर धुनता हूँ ॥ २४ ॥
ॐ नमः
क्रोध कृत मनः समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
योग-मन क्रोध भाव छाया ।
पराया समारम्भ भाया ।
हाथ आई ना ‘पाई’ है ।
कमाई पुण्य भॅंजाई है ॥ २५ ॥
ॐ नमः
क्रोध कारित मनः समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
कमाऊँ खूब बैठ घर पे ।
पाप अनुमोद भार सर पे ।
क्रोध मन और सराहा है ।
हित अमरता, विष चाहा है ॥ २६ ॥
ॐ नमः
क्रोधा-नुमत मनः समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
शब्द आरम्भ सार्थ नामा ।
इष्ट-कृत देना अंजामा ।
क्रोध मन ही मन आराधूँ ।
साधना सुरग, नरक साधूँ ॥ २७ ॥
ॐ नमः
क्रोध कृत मनः आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
करूँ प्रेरित हित आरम्भा ।
मनाऊँ खुशी, सहित दम्भा ।
आर्त हा ! रौद्र ध्यान ध्याता ।
धर्म ना शुक्ल ध्यान नाता ॥ २८ ॥
ॐ नमः
क्रोध कारित मनः आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
देख आरम्भ सराहूँ मैं ।
मच्छ तन्दुल पछियाहूँ मैं ।
क्रोध मन और लुभाता है ।
भक्ति बगुला भव जाता है ॥ २९ ॥
ॐ नमः
क्रोधा-नुमत मनः आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
दोहा
परिभाषा संरम्भ की,
आर्य ! कार्य संकल्प ।
मन से करता मान हूँ,
क्यूँ ना उठें विकल्प ॥ ३० ॥
ॐ नमः
मान कृत मनः संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
औरों के मन में हहा !,
आऊँ उठा गुमान ।
रत नारद नीति मुझे,
क्यों हो केवल ज्ञान ॥ ३१ ॥
ॐ नमः
मान कारित मनः संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
लख गिर मद औरन चढ़ा,
पहिना आऊँ हार ।
चित कलुषित क्यों ना बढ़े,
हा ! मेरा संसार ॥ ३२ ॥
ॐ नमः
माना-नुमत मनः संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
समारम्भ, अनुकूल जे,
वस्तु जुटाना मित्र ।
मन भर करता मान हूँ,
कैसे बनूँ पवित्र ॥ ३३ ॥
ॐ नमः
मान कृत मनः समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
समारम्भ हित और को,
प्रेरित करूँ तुरंत ।
मत्त बना मन, मद जगा,
करूँ पाप का बंध ॥ ३४ ॥
ॐ नमः
मान कारित मनः समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
समारम्भ अनुमोदना,
करूँ स्वप्न भी हाथ ।
भला बुरा समझूँ नहीं,
मोक्ष ले चलो साथ ॥ ३५ ॥
ॐ नमः
माना-नुमत मनः समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
चला चला कर कर चलूँ,
पाप रूप आरम्भ ।
खा ठोकर सँभलूँ कहाँ,
भजूँ और मन दम्भ ॥ ३६ ॥
ॐ नमः
मान कृत मनः समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
प्रेरित कर लूँ जोर दे,
हित आरम्भ तुरंत ।
मान करा लूँ मानसी,
छुपा कहाँ अरिहंत ॥ ३७ ॥
ॐ नमः
मान कारित मनः आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
पापारंभ सराहना,
रस ले करता रोज ।
मान सराहूँ मन हहा !,
क्यूँ उतरे सिर बोझ ॥ ३८ ॥
ॐ नमः
माना-नुमत मनः आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
पाप कार्य संकल्प उठाना ।
जैनागम संरम्भ विधाना ॥
भरी ही रहे माया मन में ।
रहें न क्यों संकट जीवन में ॥ ३९ ॥
ॐ नमः
माया कृत मनः संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
माया मन औरन उपजाऊँ ।
पशु पर्याय नाम गुदबाऊँ ॥
हा ! संरम्भ प्रेरणा देता ।
धूल फेंक सूरज ढक लेता ॥ ४० ॥
ॐ नमः
माया कारित मनः संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हा ! हा ! पीठ थपथपा आता ।
मायावी का मान बढ़ाता ॥
पापी एक सहाई-पापी ।
मन संरम्भ कीर्ति आलापी ॥ ४१ ॥
ॐ नमः
माया-नुमत मनः संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जोड़ तोड़ करता हित माया ।
पाप कमाता पुण्य गवाया ॥
मनस् रंग बदलू गिरगिट भो ! ।
क्यूँ न आत्म चउ कोने चित् हो ॥ ४२ ॥
ॐ नमः
माया कृत मनः समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जोड़ तोड़ बुद्धी दूँ औरन ।
ऊपर से खुश होऊॅं फौरन ॥
फन मायाचारी मन बाँटूँ ।
शिव तुम, फसल पाप मैं काटूँ ॥ ४३ ॥
ॐ नमः
माया कारित मनः समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
समारंभ मन मायाचारी ।
करूँ प्रशंसा, बेशुध भारी ॥
आप न निकले बाहर घर से ।
बन वर आज मुक्ति वधु विलसे ॥ ४४ ॥
ॐ नमः
माया-नुमत मनः समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
‘अन-तरंग’ सार्थक जग नेका ।
सुन, अप्रमाद ‘जगत्’ जगने का ॥
पै माया झाँसे में आऊँ ।
नर भव भज आरंभ गवाऊँ ॥ ४५ ॥
ॐ नमः
माया कृत मनः आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
और हाथ आरंभ थमाता ।
फल आपद विष वृक्ष उगाता ॥
बना और का मन मायावी ।
करूँ गमन पशु गति बेताबी ॥ ४६ ॥
ॐ नमः
माया कारित मनः आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
मन माया आरंभ सराहूँ ।
ध्यान रौद्र दलदल अवगाहूँ ॥
हट तुम फूँक फूँक के चाले ।
छटे कर्म वसु बादल काले ॥ ४७ ॥
ॐ नमः
माया-नुमतः मनः आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
कार्य संकल्प उठाना ।
आर्य ! संरम्भ पुराणा ॥
लोभ मन भर करता हूँ ।
पाप से कब डरता हूँ ॥ ४८ ॥
ॐ नमः
लोभ कृत मनः संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
और मन लोभ भिंजाता ।
डूब आनंद मनाता ॥
और संरम्भ सिखाऊँ ।
पाप पोटर भर लाऊँ ॥ ४९ ॥
ॐ नमः
लोभ कारित मनः संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
लोभ मानस सराहता ।
मोख साहस विराधता ॥
लुभाये पर संरम्भा ।
विमोहन पाटी अंधा ॥ ५० ॥
ॐ नमः
लोभा-नुमत मनः संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
समाई जोड़ तोड़ है ।
छकाये दौड़ होड़ है ॥
लोभ लालच मनमानी ।
कर किनारे जिनवाणी ॥ ५१ ॥
ॐ नमः
लोभ कृत मनः समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
दे समारम्भा पंथा ।
करूँ औरन मन गंदा ॥
करा के लालच पर से ।
हा ! मनस् मेरा हरषे ॥ ५२ ॥
ॐ नमः
लोभ कारित मनः समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
रुच समारम्भ और का ।
दूर पद चित्त चौर का ॥
लोभ लालच अनुमोदन ।
कर सकूँ अब नम लोचन ॥ ५३ ॥
ॐ नमः
लोभा-नुमत मनः समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
पाप आरंभ निरन्तर ।
हाय ! स्याही अभ्यंतर ॥
लोभ लालच बलिहारी ।
गई मति मोरी मारी ॥ ५४ ॥
ॐ नमः
लोभ कृत मनः आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
और आरम्भ करा लूँ ।
पोटरी पुण्य झरा लूँ ॥
लोभ करवा लूँ औरन ।
नरक सॅंजवा लूँ तोरण ॥ ५५ ॥
ॐ नमः
लोभ कारित मनः आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
सराहूँ पर आरंभा ।
भरूँ डग दुर्गत लम्बा ॥
लोभ अनुमोदन मनुआ ।
मोख पर, वर वृति कछुआ ॥ ५६ ॥
ॐ नमः
लोभा-नुमत मनः आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
संरम्भ सिमर ।
आनन्द विसर ॥
वच गुस्सा कर ।
हिस्से दुख डर ॥ ५७ ॥
ॐ नमः
क्रोध कृत वचन संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
संरम्भ भिंटा ।
पुन कुम्भ मिटा ॥
वच क्रोध लता ।
‘पर’ व्योम पता ॥ ५८ ॥
ॐ नमः
क्रोध कारित वचन संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
संरम्भ दूज ।
अनुमोद गूँज ॥
वच क्रोध पूज ।
गुम बोध सूझ ॥ ५९ ॥
ॐ नमः
क्रोधा-नुमत वचन संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
छू समारंभ ।
सिध धिया मन्द ॥
वच क्रोध पन्थ ।
पथ मोख हन्त ॥ ६० ॥
ॐ नमः
क्रोध कृत वचन समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
हा ! समारंभ ।
पर रमा ‘संध’ ॥
वच क्रोध भन्त ! ।
तज महा मंत्र ॥ ६१ ॥
ॐ नमः
क्रोध कारित वचन समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
पर समारंभ ।
अनुमोद दम्भ ॥
वच क्रोध वन्त ।
सच मेंट ग्रंथ ॥ ६२ ॥
ॐ नमः
क्रोधा-नुमत वचन समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
आरंभ भजा ।
भा ग्रंथ तजा ॥
वच क्रोध सँजा ।
दुख गोद सजा ॥ ६३ ॥
ॐ नमः
क्रोध कृत वचन आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
आरंभ भात ।
साधर्म भ्रात ॥
वच क्रोध पाँत ।
संबोध घात ॥ ६४ ॥
ॐ नमः
क्रोध कारित वचन आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
आरंभ योज ।
गत माथ ओज ॥
वच क्रोध खोज ।
सर माथ बोझ ॥ ६५ ॥
ॐ नमः
क्रोधा-नुमत वचन आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
पाप कार्य संकल्प ।
हा ! संरम्भ, विकल्प ॥
वचन-योग अभिमान ।
बाधक मोख विमान ॥ ६६ ॥
ॐ नमः
मान कृत वचन संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
रिझा पाप कृत और ।
सजा अनादृत दौर ॥
हा ! संरम्भ कराल ।
आ धमकाये ‘काल’ ॥ ६७ ॥
ॐ नमः
मान कारित वचन संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
वचन मान परकीय ।
अनुमोदना स्वकीय ॥
नीम चढ़ी गुरबेल ।
मग कल्याण न खेल ॥ ६८ ॥
ॐ नमः
माना-नुमत वचन संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
रखना वस्तु बटोर ।
पाप, सुखा दृग कोर ॥
समारम्भ मद वाक् ।
झोली पुण्य सुराख ॥ ६९ ॥
ॐ नमः
मान कृत वचन समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
समारम्भ वच मान ।
औरन करा गुमान ॥
स्वानुभवन शशि दूज ।
सुदूर भीतर सूझ ॥ ७० ॥
ॐ नमः
मान कारित वचन समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
और गुमान सराह ।
भव भव आपद राह ॥
समारम्भ दुख-कार ।
जन्म दुबारा हार ॥ ७१ ॥
ॐ नमः
माना-नुमत वचन समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जोड़ तोड़ सम्मान ।
दौड़ होड़ वच मान ॥
हा ! निर्वाण सुदूर ।
स्वर्ग स्वप्न चकचूर ॥ ७२ ॥
ॐ नमः
मान कृत वचन आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
दाँव पेंच दे सीख ।
भरी जन्म पशु चीख ॥
हहारम्भ मद बैन ।
नीर नैन दिन रैन ॥ ७३ ॥
ॐ नमः
मान कारित वचन आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
मान मान दे बोल ।
धर्म ध्यान बेडोल ॥
वच माया आरम्भ ।
माटी सपना कुम्भ ॥ ७४ ॥
ॐ नमः
माना-नुमत वचन आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
फाँस लेते वचन माया ।
फासले हो क्यूँ न छाया ॥
हा ! पड़ा संरम्भ पीछे ।
गिर चढ़ूँ, ले खींच नीचे ॥ ७५ ॥
ॐ नमः
माया कृत वचन संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
और फाँसूँ जाल फैला ।
गौर दामन स्याह मैला ॥
वचन माया और सिखला ।
नया कर्ज, न चुका पिछला ॥ ७६ ॥
ॐ नमः
माया कारित वचन संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
कारनामे और काले ।
बजा ताली, ‘बजा डाले’ ॥
छल वचन संरम्भ साधा ।
हा ! भुला शिव गाँव राधा ॥ ७७ ॥
ॐ नमः
माया-नुमत वचन संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
वही टोपी शीष बदलूँ ।
‘राम जाने’ किसे ठग लूँ ॥
समारम्भा ठगी वाणी ।
शून आमद, दून हानी ॥ ७८ ॥
ॐ नमः
माया कृत वचन समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
आ चला वशिकरण करना ।
पाप खुद सिर और धरना ॥
वचन माया समारम्भा ।
दुक्ख पाऊँ, क्या अचंभा ? ॥ ७९ ॥
ॐ नमः
माया कारित वचन समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
दाद देना खूब आती ।
उदय पाप बड़ी खुजाती ॥
समारम्भा वैन कपटी ।
मनु कटारी शहद लिपटी ॥ ८० ॥
ॐ नमः
माया-नुमत वचन समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
फिर मुखौटा फेर लेता ।
कृत्य खोटा, नाव छेदा ॥
कपट वच आरम्भ लीना ।
क्यूँ न खोवें संध्य तीना ॥ ८१ ॥
ॐ नमः
माया कृत वचन आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
ज्ञान देना खूब आता ।
ध्यान से मेरा न नाता ॥
ठग वचन आरम्भ भेंटूँ ।
क्यूँ न भव भव दुख समेंटूँ ॥ ८२ ॥
ॐ नमः
माया कारित वचन आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
ठगों का सम्बल बढ़ाऊँ ।
हाय ! आतम बल घटाऊँ ॥
सराहूँ छल कपट वचना ।
चाहता वधु मुक्ति जँचना ॥ ८३ ॥
ॐ नमः
माया-नुमत वचन आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
लोभ वाणी ।
शोभ ‘मानी’ ।
संरम्भ हा ! क्षोभ पानी ॥ ८४ ॥
ॐ नमः
लोभ कृत वचन संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
और प्रेरा ।
जोड़ घेरा ।
संरम्भ हा ! होड़ फेरा ॥ ८५ ॥
ॐ नमः
लोभ कारित वचन संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
लोभ हा ! हा ! ।
वच सराहा ।
संरम्भ हा ! मोख स्वाहा ॥ ८६ ॥
ॐ नमः
लोभा-नुमत वचन संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
सुर प्रलोभन ।
घुर प्रयोजन ।
समारम्भा, सुदृढ मोहन ॥ ८७ ॥
ॐ नमः
लोभ कृत वचन समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
सिखा लोभा ।
जंग लोहा ।
समारम्भा, करो तौबा ॥ ८८ ॥
ॐ नमः
लोभ कारित वचन समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
गिर् सराही ।
सिर तबाही ।
समारम्भा, चुनर स्याही ॥ ८९ ॥
ॐ नमः
लोभा-नुमत वचन समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
चाह वैना ।
श्याह रैना ।
आरम्भ हा ! दाह नैना ॥ ९० ॥
ॐ नमः
लोभ कृत वचन आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
पिछला खड़ा ।
कर्जा बड़ा ।
आरम्भ हा ! सिखला पढ़ा ॥ ९१ ॥
ॐ नमः
लोभ कारित वचन आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
बोल तृष्णा ।
और रुचना ।
आरम्भ हा ! द्यौ विहॅंसना ॥ ९२ ॥
ॐ नमः
लोभ-नुमत वचन आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
जब तब करूँ काया क्रोध ।
भज संरम्भ, भंज सुबोध ॥
करुणा, क्षमा भण्डारी ।
महिमा नन्त सिध न्यारी ॥ ९३ ॥
ॐ नमः
क्रोध कृत काय संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
प्रेरूँ और क्रोध शरीर ।
हा ! संरम्भ प्रद भव-पीर ॥
ईर्ष्या डाह परिहारी ।
महिमा नन्त सिध न्यारी ॥ ९४ ॥
ॐ नमः
क्रोध कारित काय संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
औरन सराहूँ कुप् देह ।
रत संरम्भ स्वार्थ सनेह ॥
निस्पृह नेह बलिहारी ।
महिमा नन्त सिध न्यारी ॥ ९५ ॥
ॐ नमः
क्रोधा-नुमत काय संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
साधूँ क्रोध काया-योग ।
हा ! हा ! समारम्भ सँयोग ॥
धन्य कुटुंब भू सारी ।
महिमा नन्त सिध न्यारी ॥ ९६ ॥
ॐ नमः
क्रोध कृत काय समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
काया क्रोध दूँ उपदेश ।
दुख प्रद समारम्भ अशेष ॥
परिणति जात-नव-बाली ।
महिमा नन्त सिध न्यारी ॥ ९७ ॥
ॐ नमः
क्रोध कारित काय समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
तन कुप् सराहूँ दिन-रात ।
सेवा समारम्भ सुहात ॥
नासा दृष्टि अविकारी ! ।
महिमा नन्त सिध न्यारी ॥ ९८ ॥
ॐ नमः
क्रोधा-नुमत काय समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
काया क्रोध करता दौड़ ।
भज आरम्भ अघ सिरमौर ॥
कुछ हट सोच वैशाली ।
महिमा नन्त सिध न्यारी ॥ ९९ ॥
ॐ नमः
क्रोध कृत काय आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
औरन करा लूँ कुप् गात ।
रत आरंभ बारा-बाँट ॥
प्राणन लाज बढ़ प्यारी ।
महिमा नन्त सिध न्यारी ॥ १०० ॥
ॐ नमः
क्रोध कारित काय आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
काया क्रोध और सराह ।
हा ! आरंभ दुर्गत राह ॥
मंगल शुभ शगुन भारी ।
महिमा नन्त सिध न्यारी ॥ १०१ ॥
ॐ नमः
क्रोधा-नुमत काय आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
बहता रग समरम्भा ।
तन मद गौरख धंधा ॥
स्वाहा पुण्य तमाम ।
बैल-तेल अनुगाम ॥ १०२ ॥
ॐ नमः
मान कृत काय संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
लिखा पढ़ा मद काया ।
तामस मावस छाया ॥
स्वाहा पुण्य तमाम ।
आलस मित्र सुदाम ॥ १०३ ॥
ॐ नमः
मान कारित काय संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
भुला कीर्त चिन सेही ।
गा कीरत मद देही ॥
स्वाहा पुण्य तमाम ।
बुरा पाप अंजाम ॥ १०४ ॥
ॐ नमः
माना-नुमत काय संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
समारम्भ सुख घाता ।
काया मान लुभाता ॥
स्वाहा पुण्य तमाम ।
दिखे न घर, ढ़िग शाम ॥ १०५ ॥
ॐ नमः
मान कृत काय समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
काया मद सिखलाऊँ ।
सिर पर अदद बढ़ाऊँ ॥
स्वाहा पुण्य तमाम ।
पर्वत खड़ा मुकाम ॥ १०६ ॥
ॐ नमः
मान कारित काय समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
वन रोदन मनमाना ।
अनुमोदन तन माना ॥
स्वाहा पुण्य तमाम ।
दौड़ हिरण अविराम ॥ १०७ ॥
ॐ नमः
माना-नुमत काय समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
तन मद डाले डोरे ।
गुद चाले मन कोरे ॥
स्वाहा पुण्य तमाम ।
दूर अभी दिव धाम ॥ १०८ ॥
ॐ नमः
मान कृत काय आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
काँधे और दुनाली ।
दागूँ, गुम दीवाली ॥
स्वाहा पुण्य तमाम ।
‘सिद्ध-हस्त’ लो थाम ॥ १०९ ॥
ॐ नमः
मान कारित काय आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
काया मान सराहा ।
समारम्भ अवगाहा ॥
स्वाहा पुण्य तमाम ।
और स्वप्न शिव ग्राम ॥ ११० ॥
ॐ नमः
माना-नुमत काय आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
तन माया ।
गुण गाया ।
संरम्भा, यम छाया ॥ १११ ॥
ॐ नमः
माया कृत काय संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
छल देहा ।
‘पर’ नेहा ।
संरम्भा, सन्देहा ॥ ११२ ॥
ॐ नमः
माया कारित काय संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
अनुमोदन ।
छल जो तन ।
संरम्भा, वन रोदन ॥ ११३ ॥
ॐ नमः
माया-नुमत काय संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
छल काया ।
तलफाया ।
समारम्भ, फल ‘माया’ ॥ ११४ ॥
ॐ नमः
माया कृत काय समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
स्वीकारी ।
कृति कारी ।
समारम्भ, अतिचारी ॥ ११५ ॥
ॐ नमः
माया कारित काय समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
सराहना ।
मया-तना ।
समारम्भ, जया-जिना ॥ ११६ ॥
ॐ नमः
माया-नुमत काय समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
देह कपट ।
नेह हटक ।
आरंभा, हेय सुभट ! ॥ ११७ ॥
ॐ नमः
माया कृत काय आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
इठलाया ।
सिखलाया ।
आरंभा, ‘जड़’-माया ॥ ११८ ॥
ॐ नमः
माया कारित काय आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
स्व सराही ।
कोताही ।
आरंभा, जश स्याही ॥ ११९ ॥
ॐ नमः
माया-नुमत काय आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
संरम्भ यानि संकल्प काज ।
अनसुनी हहा ! भीतर अवाज ॥
छेड़ूँ तन लोभ साज जब तब ।
हेरूँ मुख और न क्यूँ अब तब ॥ १२० ॥
ॐ नमः
लोभ कृत काय संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
औरों को सिखा पढ़ा आता ।
बन अपने मुँह मिट्ठू जाता ॥
तन योग लोभ से नाता है ।
किस मुख बोलूँ सुख साता है ॥ १२१ ॥
ॐ नमः
लोभ कारित काय संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
कृत खोटा और सराहूँ मैं ।
नित टोटा ‘सर’ अवगाहूँ मैं ॥
तन लोभ छेड़ जाता फिर फिर ।
मन क्षोभ चढ़े क्यूँ ना सिर चिर ॥ १२२ ॥
ॐ नमः
लोभा-नुमत काय संरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
भज समारम्भ कायिक तिष्णा ।
भय भागीदार कहो किस ना ॥
फिर भी न गृद्धता छोड़ रहा ।
लख मृग मरीचिका दौड़ रहा ॥ १२३ ॥
ॐ नमः
लोभ कृत काय समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
पापोपदेश देना आया ।
संक्लेश मोल लेना आया ॥
छूटे न पिण्ड तन लालच से ।
दृग चार हो चलें क्यूँ सच से ॥ १२४ ॥
ॐ नमः
लोभ कारित काय समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
अनुमोदन लालच तन भाई ।
हा ! समारम्भ भव दुखदाई ॥
क्यूँ ? समय न यूँहि व्यर्थ रीते ।
परहित न किये लोचन तीते ॥ १२५ ॥
ॐ नमः
लोभा-नुमत काय समारम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
चाहे जब उमड़े काय-लोभ ।
आरम्भ सरोवर मनस् क्षोभ ॥
पा जश मानस मोती न चुगा ।
क्यूँ कर न कहाऊँ श्यार रंगा ॥ १२६ ॥
ॐ नमः
लोभ कृत काय आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
औरों पर कर आता जादू ।
हा ! ऊपर कर्म कर्म बाँधूँ ॥
आरम्भ लोभ काया भाया ।
क्यूँ कर ना भरमाये माया ॥ १२७ ॥
ॐ नमः
लोभ कारित काय आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
आरम्भ और कर अनुमोदन ।
कब समय कर सकूँ आलोचन ॥
क्यूँ ना मुझको संकट घेरें ।
क्यूँ न पथ मैं कण्टक हेरें ॥ १२८ ॥
ॐ नमः
लोभा-नुमत काय आरम्भ
मुक्ता-यस्-स्वाहा ।
महा अर्घ
जल गंगा, ले मलयज चन्दन ।
अक्षत, दिव्य पुष्प, ले व्यंजन ।
दीप, धूप ले फल वन नन्दन ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
समस्त सिद्धों का अभिनन्दन ॥
साध साध सुमरण हित सु…मरण ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
समस्त सिद्धों का अभिनन्दन ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
अष्टम वलय के
छह सौ इक्यावन से
सात सौ पचहत्तर तक
अर्घ
मोह चित्त अभिलेख ।
आयुध हंस विवेक ।
सर्वा-युधाय नमः,
तज सब साधो ! एक ॥ ६५१ ॥
ॐ नमः
सर्वा-युधा-यस्-स्वाहा ।
सुर जय-जय बोलें ।
मोक्ष द्वार खोलें ।
जय-देवाय नमः,
चल बनता गो लें ॥ ६५२ ॥
ॐ नमः
जय-देवा-यस्-स्वाहा ।
प्रभा न और ऐसी ।
सूर्य तुलना कैसी ।
प्रभा-देवाय नमः,
साधो हित हितैषी ॥ ६५३ ॥
ॐ नमः
प्रभा-देवा-यस्-स्वाहा ।
उद्-उदक, अंक-गोदी दृग राखा ।
अमृत सहजता पल पल चाखा ।
नमो नमः श्री श्री उदंकाय,
अवगुंठित घूंघट वधु झाँका ॥ ६५४ ॥
ॐ नमः
उदङ्-का-यस्-स्वाहा ।
प्रशन सहना आया ।
प्रसन रहना आया ।
प्रश्न-कीर्तये नमः,
रटन ‘बहना’ भाया ॥ ६५५ ॥
ॐ नमः
प्रश्न-कीर्तये-स्वाहा ।
जय मन, काय ।
वचन, कषाय ।
पंच-प्रपंच,
नमः जयाय ॥ ६५६ ॥
ॐ नमः
जया-यस्-स्वाहा ।
पून सुध धारी हो ।
शून अतिचारी हो ।
पूर्ण-बुद्धाय नमः,
दूनर-प्रचारी हो ॥ ६५७ ॥
ॐ नमः
पूर्ण-बुद्धा-यस्-स्वाहा ।
तुष्ट संतुष्ट निजानन्दी ।
भक्ति बगुला न भक्ति अंधी ।
निजानन्द-संतुष्ट-जिनाय,
नमः सुमरण प्रद तुक-बंदी ॥ ६५८ ॥
ॐ नमः
निजा-नंद-संतुष्टा-यस्-स्वाहा ।
स्याह दामन कोरा ।
लोहू दौड़ा धौरा ।
नमः वि-मलप्-प्र-भाय
साध मनके दौड़ा ॥ ६५९ ॥
ॐ नमः
वि-मलप्-प्रभा-यस्-स्वाहा ।
संबल दे चाले ।
अविचल दृग वाले ।
महा बलाय नमः,
रम, तम-उजियाले ॥ ६६० ॥
ॐ नमः
महाबला-यस्-स्वाहा ।
विभंजन कषाय ।
निरंजन कहाय ।
जय सहाय-एक,
नमः निर्मलाय ॥ ६६१ ॥
ॐ नमः
निर्मला-यस्-स्वाहा ।
चित्र यानी विचित्र ।
गुप्त-वच, काय, चित्त ।
चित्र गुप्ताय नमः,
साध अंतस् पवित्र ॥ ६६२ ॥
ॐ नमः
चित्र-गुप्ता-यस्-स्वाहा ।
समता समाध बोधी ।
ममता उपाध खो दी ।
समाधि-गुप्ताय नमः,
रट मन्त्र मात गोदी ॥ ६६३ ॥
ॐ नमः
समाधि-गुप्तये-स्वाहा ।
स्वयं जग चाले ।
बने अघ टाले ।
स्वयं-भुवे नमः,
रट टूक ताले ॥ ६६४ ॥
ॐ नमः
स्वयं-भुवे-स्वाहा ।
चित चोरी माहिर ।
मनहर जग जाहिर ।
कंदर्पाय नमः,
जय भीतर-बाहिर ॥ ६६५ ॥
ॐ नमः
कन्दर्पा-यस्-स्वाहा ।
रमाने थी आई ।
लौट रम्भा जाई ।
विजय नाथाय नमः,
साध शिव ठकुराई ॥ ६६६ ॥
ॐ नमः
वि-जय-नाथा-यस्-स्वाहा ।
रत्नत्रय पावन ।
दृग ऋत-त्रय सावन ।
वि-मलेशाय नमः,
साध गत विराधन ॥ ६६७ ॥
ॐ नमः
वि-मलेशा-यस्-स्वाहा ।
दिव्य धुन खिर चाली ।
सजल धरती सारी ।
दिव्य-वादाय नमः,
साध बन अविकारी ॥ ६६८ ॥
ॐ नमः
दिव्य-वादा-यस्-स्वाहा ।
मुख सिंह सीखें गिनती ।
मणि खड़ी चूर्ण पंक्ती ।
अनन्त वीर्याय नमः,
साधो कोशिश बनती ॥ ६६९ ॥
ॐ नमः
अनन्त वीर्या-यस्-स्वाहा ।
गुण पुरुषारथ गाये हैं ।
पुरुषोत्तम कहलाये हैं ।
महा पुरुष देवाय नमः,
अखर न किसको भाये हैं ॥ ६७० ॥
ॐ नमः
महा-पुरुष-देवा-यस्-स्वाहा ।
विधि बन्धन वश ।
विधि बन्धन नश ।
नमः सु-विधये,
निधि, चन्दन जश ॥ ६७१ ॥
ॐ नमः
सु-विधये-स्वाहा ।
खींचे भी, न खिंचे परिमाणा ।
अनंत जाना ‘केवल’ ज्ञाना ।
नमः श्री प्रज्ञा-परिमाणाय,
साध साध मन ! निरुपम ध्याना ॥ ६७२ ॥
ॐ नमः
प्रज्ञा-परिमाणा-यस्-स्वाहा ।
सिद्ध पर्याया ।
व्यय न अब भाया ! ।
नमः अव-व्य-याय,
साध शिव राया ॥ ६७३ ॥
ॐ नमः
अव्यया-यस्-स्वाहा ।
लखने लायक लिक्खा ।
लिखते न रहे, लक्खा ।
पुराण-पुरुषाय नमः,
अमि कर्णांजुल चक्खा ॥ ६७४ ॥
ॐ नमः
पुराण-पुरुषा-यस्-स्वाहा ।
नैय्या धर्म खिवैया ।
दिव-शिव छैय्या छैय्या ।
धर्म-सा-रथये नम:,
‘जग-मग’ भाग तरैय्या ॥ ६७५ ॥
ॐ नमः
धर्म-सा-रथये-स्वाहा ।
कब शव हुये, मृत्यु के पहले ।
दहला मार न आये नहले ।
नमः श्री श्री शिव कीर्ति जिनाय,
रम, यम-दूत देख दिल दहले ॥ ६७६ ॥
ॐ नमः
शिव-कीर्ति-जिना-यस्-स्वाहा ।
मोह अंधकार के आप इक विनाशिया ।
मोख उजियार के आप इक प्रकाशिया ।
नमः मो-हांधकार-नाशक जिनाय ई,
मंत्र के जाप से शांति उर समाय ‘री ॥ ६७७ ॥
ॐ नमः
मोहांधकार-वि-नाशक-
जिना-यस्-स्वाहा ।
अब न मनस् इन्द्रिय व्यापारा ।
लोभ हुआ चित् खाने चारा ।
अतीन्-द्रियग्-ज्ञान-रूप जिनाय,
नमः साध समेत परिवारा ॥ ६७८ ॥
ॐ नमः
अतीन्द्रिय-ज्ञान-
रूप-जिना-यस्-स्वाहा ।
ज्ञान में बने न बाधक कल ।
ध्यान में ध्याये साधक हर ।
केवलग्-ज्ञान जिनाय नमः,
जपूँ, यूँ ही बन बालक भर ॥ ६७९ ॥
ॐ नमः
केवल-ज्ञान-
जिना-यस्-स्वाहा ।
भव-भभूति झिर चली ।
दिव विभूति घिर चली ।
विश्व भूतये नमः,
कर नुभूति घर चली ॥ ६८० ॥
ॐ नमः
विश्व-भूतये-स्वाहा ।
तुम्हें गैर ना कोई ।
निरत वैर जग दोई ।
नमः विश्व-ना-यकाय,
साध, बाध पल खोई ॥ ६८१ ॥
ॐ नमः
विश्व-ना-यका-यस्-स्वाहा ।
दिग्-दिशा अम्बरा ।
शिव, सत्य, सुन्दरा ।
नमः दिगम्बराय,
‘सम…वरा’ निर्जरा ॥ ६८२ ॥
ॐ नमः
दिगम्बरा-यस्-स्वाहा ।
थी कब थमी बधाई ।
बाज उठी शहनाई ।
नमः निरन्तर जिनाय,
साधो ! पुण्य कमाई ॥ ६८३ ॥
ॐ नमः
निरन्तर-जिना-यस्-स्वाहा ।
रोग संसार शर्तिया औषध ।
भोग तम निवारक ‘दिया’ चौखट ।
मिष्ट दिव्यध्-ध्वनि जिनाय नमः,
‘धार’ लगत दृग सावन चौषट ॥ ६८४ ॥
ॐ नमः
मिष्ट-दिव्यध्-
ध्वनि-जिना-यस्-स्वाहा ।
भव यानी जन्मा ।
अब न अन्तक-यमा ।
नमः भवांतकाय,
मूरत दया-क्षमा ॥ ६८५ ॥
ॐ नमः
भवान्तका-यस्-स्वाहा ।
अड़ा रखी छाती ।
डटा लख अराती ।
दृढव्-व्रताय नमः,
साध साध साधी ! ॥ ६८६ ॥
ॐ नमः
दृढ़व्-व्रता-यस्-स्वाहा ।
शिखर-नय नापा पग ।
लसें बनकर सर्वग ।
नयात्-तुंगाय नमः,
झन झनन झन रग रग ॥ ६८७ ॥
ॐ नमः
नयोत्-तुङ्-गा-यस्-स्वाहा ।
हाथ क्या कषाय ली ।
आत्म हो कषायली ।
निष्कलंकाय नमः,
साध लो घड़ी घड़ी ॥ ६८८ ॥
ॐ नमः
निष्क-कलङ्-का-यस्-स्वाहा ।
कलाएँ चौंषट झोरी ।
बलाएँ ले शिव गोरी ।
पूर्ण कला-धराय नमः,
साध, भीतर आ थोड़ी ॥ ६८९ ॥
ॐ नमः
पूर्ण-कला-
धरा-यस्-स्वाहा ।
साथी ! हो साँची श्रद्धा ।
हो प्रताप पुण्य समृद्धा ।
नमः सर्वक्-क्लेश-हराय,
साधो ! रख हृदय विशुद्धा ॥ ६९० ॥
ॐ नमः
सर्वक्-क्लेशा-
पहा-यस्-स्वाहा ।
होड़ को छोड़ चले जब ।
गिराने कौन बढ़े अब ।
नमः ध्रौव्य रूप जिनाय,
मंत्र जप किसे खले कब ? ॥ ६९१ ॥
ॐ नमः
ध्रौव्य-रूप-
जिना-यस्-स्वाहा ।
पल्टी मौसम खाना खा ले ।
सिद्ध स्वभाव फिरा न सुना ‘रे ।
अक्षया-नन्तस्-स्व-भा-वात्मक,
जिनाय नमो नमः गुण गा ले ॥ ६९२ ॥
ॐ नमः
अक्षय-अनंतस्-स्व-
भावात्मक-जिना-यस्-स्वाहा ।
हृदयस्-थल श्री वत्स सुसोहे ।
सुर, नर, नाग, खचर मन मोहे ।
नमः जिन श्री-वत्स-लां-छनाय,
साध प्रिया मुक्ति बाट जोहे ॥ ६९३ ॥
ॐ नमः
श्री-वत्स-
लांछना-यस्-स्वाहा ।
आदि ब्रह्म में रमे ।
अन्त ब्रह्म में थमे ।
आदिब्-ब्रह्मणे नमः,
साध, अब तलक भ्रमे ॥ ६९४ ॥
ॐ नमः
आदिब्-ब्रह्मणे-स्वाहा ।
औ प्रतिभा-शाली ।
चौ मुख बलिहारी ।
नमः चतुर्-मुखाय,
रम लाखन बारी ॥ ६९५ ॥
ॐ नमः
चतुर्मुखा-यस्-स्वाहा ।
रमण आतमा ।
करम खातमा ।
नमः ब्रह्मणे,
रम, मँगा क्षमा ॥ ६९६ ॥
ॐ नमः
ब्रह्मणे-स्वाहा ।
ब्रह्म विधाता ! ।
अगम्य ! ज्ञाता ! ।
नमः विधात्रे,
प्रणम्य ! त्राता ! ॥ ६९७ ॥
ॐ नमः
विधात्रे-स्वाहा ।
अंगुल ऊपर चार ।
कमलासन बलिहार ।
कमला-सनाय नमः,
साध बने इस बार ॥ ६९८ ॥
ॐ नमः
कमला-सना-यस्-स्वाहा ।
मरण बाद जनन ।
हुआ कहाँ मरण ।
नमः अजन्-मिने,
साध सदा रमण ॥ ६९९ ॥
ॐ नमः
अजन्मिने-स्वाहा ।
परमातम प्रीत ।
रख आत्म प्रतीत ।
आत्म भुवे नमः,
अध्यातम गीत ॥ ७०० ॥
ॐ नमः
आत्म-भुवे-स्वाहा ।
सात पृथ्वियों से बढ़ आगे ।
हाथ आठवीं भू बढ़-भागे ।
श्री श्री लोक-शिखर-नि-वासिने,
नमः साध रहने कल जागे ॥ ७०१ ॥
ॐ नमः
लोक-शिखर-
नि-वासिने-स्वाहा ।
सुमन तज मुकुट इन्द ।
विनत चरणा-रविन्द ।
सुरज्-ज्येष्ठाय नमः,
‘साध’ सोने सुगंध ॥ ७०२ ॥
ॐ नमः
सूरज्-ज्येष्ठा-यस्-स्वाहा ।
गलती विसरा दी ।
किरपा बरसा दी ।
नमः प्रजा पतये,
साध अन्त आदी ॥ ७०३ ॥
ॐ नमः
प्रजा-पतये-स्वाहा ।
स्वर्ण बरसा आसमाना ।
हुआ गर्भ न अभी आना ।
नमः श्री हिरण्य गर्भाय,
साध मन-वच, साध वाणा ॥ ८०४ ॥
ॐ नमः
हिरण्य-गर्भा-स्वाहा ।
भेद अंग वारा ।
चौदा पुव धारा ।
वाणी कल्याणी ।
वो माँ जिनवाणी ।
वेदांगाय नमः,
वेद प्रसिध चारा ।
दुतिय नाम करणा ।
तृतिय नाम चरणा ।
सार्थ नाम प्रथमा,
तुरिय द्रव्य वरणा ॥ ७०५ ॥
ॐ नमः
वेदाङ्-गा-यस्-स्वाहा ।
भेद विज्ञान पूर्व रींझे ।
वेद सबके सब आ सींझे ।
पूर्ण वेदग्-ज्ञानाय नमः,
साध भींजेंगे, दृग भींजे ॥ ७०५ ॥
ॐ नमः
पूर्ण-वेद-
ज्ञाना-यस्-स्वाहा ।
सुखा जन्म जल,
तप बड़वानल ।
उठाई नजर,
दिखा शिव महल ।
श्री भव सिन्धु पा-रगाय नमः,
‘सहज-निराकुल’ साधो पल पल ॥ ७०६ ॥
ॐ नमः
भव-सिन्धु-
पारगा-यस्-स्वाहा ।
होड़ तृषा अंधी हाना ।
छोड़ मृषानन्दी ध्याना ।
श्री सत्या-नन्दाय नमः,
मन आमरण छेड़ ताना ॥ ७०७ ॥
ॐ नमः
सत्या-नन्दा-यस्-स्वाहा ।
नैना जीते ।
वैना मीठे ।
अ-जयाय नमः,
नैना तीते ॥ ७०८ ॥
ॐ नमः
अ-जया-यस्-स्वाहा ।
आग पानी पानी देखा ।
नाग गुलदानी अभिलेखा ।
मनो-वांछित-फल-दा-यकाय,
नमः जप, छोड़ और नेका ॥ ७०९ ॥
ॐ नमः
मन-वांछित-
फल-दा-यका-यस्-स्वाहा ।
अब ना होना जनम नया ।
नव ना जोना, करम क्षया ।
जीवन मुक्त जिनाय नमः,
तब ना खोना, परम दया ॥ ७१० ॥
ॐ नमः
जीवन-मुक्त-
जिना-यस्-स्वाहा ।
सेव करके थारी ।
इन्द्र शत खुश भारी ।
शतानंदाय नम:,
साधो ! निरति-चारी ॥ ७१२ ॥
ॐ नमः
शता–नन्दा-यस्-स्वाहा ।
जश कण-कण व्यापे ।
दृश अवगुण काँपे ।
श्री विष्णवे नम:,
जन-जन आलापे ॥ ७१३ ॥
ॐ नमः
विष्णवे-स्वाहा ।
खड़ग ज्ञान, दृग-वृत ।
विलग जन्म, जर, मृत ।
त्रि-विक्रमाय नमः,
साध साध ऋत ऋत ॥ ७१४ ॥
ॐ नमः
त्रि-विक्रमा-यस्-स्वाहा ।
नमः मोक्ष्-मार्गप्-प्रकाशका,
दित्य स्वरूप जिनाय ।
दीप जगा, सबको ले चाले ।
सहज निराकुल, भोले-भाले ।
समय लगा शिव आय ।
नमः मोक्ष्-मार्गप्-प्रकाशका,
दित्य स्वरूप जिनाय ।
मन्तर सदा सहाय ॥ ७१५ ॥
ॐ नमः
मोक्ष-मार्गप्-प्रकाशक-
आदित्य-रूप-जिना-यस्-स्वाहा ।
श्री-समव शरणा ।
‘पति’ विपिन हिरणा ।
श्री पतये नमः,
रति भव विहरणा ॥ ७१६ ॥
ॐ नमः
श्री-पतये-स्वाहा ।
पूज पुरुषन कतार फबते ।
‘दूज दुर्जन’ पुकार बढ़ते ।
नमः अर्हं पुरुषोत्-तमाय,
साध मन्तर सोते जगते ॥ ७१७ ॥
ॐ नमः
पुरुषोत्-तमा-यस्-स्वाहा ।
पत वैकुण्ठ साथ पिरिया ।
साँझ उतारे आरतिया ।
वैकुण्ठा-धि-पतये नमः,
साध सुबह संध्या बिरिंया ॥ ७१८ ॥
ॐ नमः
वैकुण्ठाधि-पतये-स्वाहा ।
सर्व लोक श्रेयसी, आपकी देशना ।
वस्तु क्या ? स्वरूप विचार, कर क्लेश ना ।
नमः सर्व लोकश्-श्रेयस्कर-जिनाय ई,
मंत्र के जाप से, पुण्य छिछलाय ‘री ॥ ७१९ ॥
ॐ नमः
सर्व-लोकश्-श्रेयस्कर-
जिना-यस्-स्वाहा ।
जेय इन्द्रियाँ सभी ।
सार्थ हृषीकेश ‘री ।
हृषीकेशाय नमः,
साध वृत्ति केशरी ॥ ७२० ॥
ॐ नमः
हृषी-केशा-यस्-स्वाहा ।
दुक्ख हर्ता ।
सौख्य कर्ता ।
हरये नमः,
साध भक्ता ॥ ७२१ ॥
ॐ नमः
हरये-स्वाहा ।
नरक दुख डर के ।
विरत दृग भर के ।
स्वयं-भुवे नमः,
दिखाया तर के ॥ ७२२ ॥
ॐ नमः
स्वयं-भुवे-स्वाहा ।
पुकारा आ जाते ।
मन भर थमा जाते ।
नमः विश्वम्-भराय,
आ हम भी बुलाते ॥ ७२३ ॥
ॐ नमः
विश्वम्-भरा-यस्-स्वाहा ।
सुर…भी यानि असुर ‘ही’ नाशा ।
किया न कुछ बस रख दृग नासा ।
नमोः श्री श्री असुरध्-ध्वंसिने,
साध, बन चुके इन्द्रिय दासा ॥ ७२४ ॥
ॐ नमः
असुरध्-ध्वंसिने-स्वाहा ।
मा-माया धव-स्वाम ।
मधु वाणी ! निष्काम ! ।
नमः श्री मा-धवाय,
साधो सुबहो शाम ॥ ७२५ ॥
ॐ नमः
मा-धवा-यस्-स्वाहा ।
बलि विमोहन विघात ।
व्रत शिरोमण विधात ।
नमः बलि-बंधनाय,
सजल लोचन सुसाध ॥ ७२६ ॥
ॐ नमः
बलि-बन्धना-यस्-स्वाहा ।
देख-रेख चिर आतम ।
प्रकटित तब परमातम ।
नमः अधीक्षजाय,
साध साधने आगम ॥ ७२७ ॥
ॐ नमः
अधीक्षजा-यस्-स्वाहा ।
वाणी तुम, माँ बात सिखाई ।
आकर सीधे हृदय समाई ।
नमः हित-मित-प्रिय-वचन-जिनाय,
साध, सॅंभालो नर भव भाई ॥ ७२८ ॥
ॐ नमः
हित-मितप्-प्रिय-
वचन-जिना-यस्-स्वाहा ।
केश पाय क्षीर ।
झलाय दृग नीर ।
नमः के-शवाय,
साध हेत तीर ॥ ७२९ ॥
ॐ नमः
केशवा-यस्-स्वाहा ।
आप नाम सिक्का चलता ।
कहो किसे कब क्यों ? खलता ।
नमः श्री विष्टरश्-श्रवसे,
साध खुशी दृग जल झलता ॥ ७३० ॥
ॐ नमः
विष्टरश्-श्रवसे-स्वाहा ।
ज्ञान लक्ष्मी पाई ।
भाग शिव वधु आई ।
नमः कमला-निधये,
साध, जग हरजाई ॥ ७३१ ॥
ॐ नमः
कमला-निधये-स्वाहा ।
श्री-लक्ष्मी ज्ञान ।
विमोही जहान ।
श्री मतये नमः,
साधो कल्…यान ॥ ७३२ ॥
ॐ नमः
श्री-मतये-स्वाहा ।
शील बाढ़ नव राखी ।
लाखन रेख न नाँकी ।
नमो नमः अच्युताय,
भज, तज तांका झाँकी ॥ ७३३ ॥
ॐ नमः
अच्युता-यस्-स्वाहा ।
बहुत आरंभ तजा ।
शगुन संतोष भजा ।
नमः नरकान्-तकाय,
माथ लो मंत्र रजा ॥ ७३४ ॥
ॐ नमः
नरकान्-तका-यस्-स्वाहा ।
अनुगाम सेन भाँत ।
अग्र तुम, विश्व बाद ।
विश्व सेनाय नमः,
यत्न भागरथ साध ॥ ७३५ ॥
ॐ नमः
विश्व-सेना-यस्-स्वाहा ।
चक्र पाणि, गज रेख ।
सहस चिन, यूँ अनेक ।
चक्र पा-णये नमः,
साध चल पल प्रतेक ॥ ७३६ ॥
ॐ नमः
चक्र-पाणये-स्वाहा ।
चंद्रमा, सूर, सितारे ।
छत्र चाँवर ले ठाड़े ।
नमः नक्षत्र नाथाय,
साध चल साँचे द्वारे ॥ ७३७ ॥
ॐ नमः
नक्षत्र नाथा-यस्-स्वाहा ।
सुन, जन अर्दन-पीर ।
कपोल ढुलके नीर ।
नमः सुजनार्-दनाय,
जपत लगत भव तीर ॥ ७३८ ॥
ॐ नमः
जनार्दना-यस्-स्वाहा ।
प्रकट कण्ठ शारद ।
भा…रत हित साधत ।
श्री कण्ठाय नमः
साधो ! निश्वारथ ॥ ७३९ ॥
ॐ नमः
श्री-कण्ठा-यस्-स्वाहा ।
शम-सुख दाता शंकर भोला ।
तुम्हीं त्रिलोकाधिप अनमोला ।
नमः त्रिलोका-धिप-शंकराय,
साध मौन जैसे ही खोला ॥ ७४० ॥
ॐ नमः
त्रि-लोकाधिप-
शङ्-करा-यस्-स्वाहा ।
प्रभु तुम खुद के खुद ।
निराकांक्ष अद्भुत ।
स्वयं प्रभवे नमः,
साध मात सरसुत ॥ ७४१ ॥
ॐ नमः
स्वयं-प्रभवे-स्वाहा ।
साधते हित औरन ।
चींख सुन, बढ़ फौरन ।
लोक पालाय नमः,
साध वैभव चौंरन ॥ ७४२ ॥
ॐ नमः
लोक-पाला-यस्-स्वाहा ।
वाक् धन ! ज्यूँ छुआ ।
बाँक-पन छू हुआ ।
वृषभ के-तवे नमः,
साध हित स्वयं-भुवा ॥ ७४३ ॥
ॐ नमः
वृषभ-के-तवे-स्वाहा ।
कलश व्रत मंदरिया ।
और हित दृग दरिया ।
नमः मृत्युञ्जयाय,
साध निशि-वासरिया ॥ ७४४ ॥
ॐ नमः
मृत्युञ्जया-यस्-स्वाहा ।
वैमनस् भाव घुला ।
तीसरा नेत्र खुला ।
वि-रुपाक्षाय नमः,
साध ! मन कलुष धुला ॥ ७४५ ॥
ॐ नमः
विरूपाक्षा-यस्-स्वाहा ।
तुम सत्-शिव-सुन्दर काया ।
बचा द्रव्य चन्दर जाया ।
नमः श्री श्री काम-देवाय,
साध, गुम अँधेरे साया ॥ ७४६ ॥
ॐ नमः
काम-देवा-यस्-स्वाहा ।
ज्ञान सुदृग चरणा ।
दृग तुम आभरणा ।
नमः त्रि-लो-चनाय,
साध हित सुमरणा ॥ ७४७ ॥
ॐ नमः
त्रि-लो-चना-यस्-स्वाहा ।
उमा-शान्ति स्वामी ।
शिव ! अन्तर्-यामी ।
उमा पतये नमः,
रट उपरत खामी ॥ ७४८ ॥
ॐ नमः
उमा-पतये-स्वाहा ।
पशुओं का कोठा ।
कहे दिल न छोटा ।
श्री श्री पशु पतयेः,
नमः नाद लौटा ॥ ७४९ ॥
ॐ नमः
पशु-पतये-स्वाहा ।
शम्बर यानी मोह ।
कर संवर, गत द्रोह ।
शम्बरा-रये नमः
साध तंत्र-संमोह ॥ ७५० ॥
ॐ नमः
शम्-बरा-रये-स्वाहा ।
यम, जनम, जर नगरी ।
जरी तप-दव सगरी ।
नमः त्रि-पुरान्-तकाय,
साध दिव-शिव पगड़ी ॥ ७५१ ॥
ॐ नमः
त्रि-पुरान्तका-यस्-स्वाहा ।
अर्ध न अरि, ना घाति अराती ।
घात अघाती शिव-वधु साथी ।
नमः श्री अर्ध-नारीश्वराय,
साध भिजाये शिव-वधु पाती ॥ ७५२ ॥
ॐ नमः
अर्द्ध-नारीश्वरा-यस्-स्वाहा ।
रुद्ध, शंकरा ।
अर-भयंकरा ।
नमः रुद्राय,
इक हितंकरा ॥ ७५३ ॥
ॐ नमः
रुद्रा-यस्-स्वाहा ।
उपरत विभाव ।
सुमरत स्वभाव ।
भावाय नमः,
सरसुत प्रभाव ॥ ७५४ ॥
ॐ नमः
भावा-यस्-स्वाहा ।
काल गर्भ कल्याण मनाया ।
हाथ गर्व कल्याणक आया ।
नमः गर्भ कल्याणक जिनाय,
साधो ! एक न जिसे रिझाया ॥ ७५५ ॥
ॐ नमः
गर्भ-कल्याणक-
जिना-यस्-स्वाहा ।
पर से नाता तोड़ा ।
दुख ने पीछा छोड़ा ।
श्री सदा शिवाय नमः,
भज, तज तोरा-मोरा ॥ ७५६ ॥
ॐ नमः
सदा-शिवा-यस्-स्वाहा ।
बनाते बिगड़ी तुम ।
बचाते पगड़ी तुम ।
नमः त्रि-जगत्-कर्त्रे,
साध वृति मकड़ी गुम ॥ ७५७ ॥
ॐ नमः
जगत्-कर्ते-स्वाहा ।
किरण सूरज इक हारा ।
घना रातरि अंधयारा ।
नमः अंध-कारान्-तकाय,
साध, कलि काल सहारा ॥ ७५८ ॥
ॐ नमः
अन्ध-कारान्-
तका-यस्-स्वाहा ।
आदि न अन्त दिखाता ।
काल प्रभाव विघाता ।
नमः अनादि निधनाय,
साध समाधि विधाता ! ॥ ७५९ ॥
ॐ नमः
अनादि-निधना-यस्-स्वाहा ।
धीर भरते ।
तीर धरते ।
नमः हराय,
पीर हरते ॥ ७६० ॥
ॐ नमः
हरा-यस्-स्वाहा ।
सेन-से गुण पीछे ।
ना कर ‘कर’ के नीचे ।
महा सेनाय नमः,
साध आँखें मींचे ॥ ७६१ ॥
ॐ नमः
महा-सेना-यस्-स्वाहा ।
चातक बन ताँकें गणधर ।
पुण्य सातिशय प्रद मन्दर ।
नमः महा गणपति जिनाय,
साध एक सत् शिव सुन्दर ॥ ७६२ ॥
ॐ नमः
महा-गणपति-
जिना-यस्-स्वाहा ।
पीछे गण पाँत बना ।
श्री फल जुग हाथ बना ।
श्री गण-नाथाय नमः,
कृपया दो बात बना ॥ ७६३ ॥
ॐ नमः
गण-नाथा-यस्-स्वाहा ।
विनायक विघन विनाशी ।
विधायक सद्गुण राशी ।
महा विनायकाय नमः,
साध हित शिव अधिशासी ॥ ७६४ ॥
ॐ नमः
महा-वि-ना-यका-यस्-स्वाहा ।
भूला भगवन् कह अपराधी ।
बिन माँगे ही क्षमा पठा दी ।
नमः विरोध-वि-नाशक जिनाय,
साध आज हित काल समाधी ॥ ७६५ ॥
ॐ नमः
विरोध-वि-नाशक-
जिना-यस्-स्वाहा ।
देर बुलाने की बस रहती ।
परिणति माँ ‘मैं हूँ ना’ कहती ।
नमः विपद्-विनाशक-जिनाय,
साध साधना धारा बहती ॥ ७६६ ॥
ॐ नमः
विपद्-वि-नाशक-
जिना-यस्-स्वाहा ।
अंग द्वादश हृदयंगम ।
रंग केशरिया संगम ।
नमः द्वादशांगात्मने,
साध मन रख दृग संयम ॥ ७६७ ॥
ॐ नमः
द्वादशात्मने-स्वाहा ।
तज राग-द्वेष डोरी ।
भ्रमना मथान छोड़ी ।
विभाव रहिताय नमः,
साधो परिणत कोरी ॥ ७६८ ॥
ॐ नमः
विभाव-रहिता-यस्-स्वाहा ।
चित्त चार कोन ।
काम जेय भौन ।
दुर्जयाय नमः,
साध साध मौन ॥ ७६९ ॥
ॐ नमः
दुर्-जया-यस्-स्वाहा ।
बिठा काँधे अपने ।
और पूरे सपने ।
बृहद् भावाय नमः,
बने लागो जपने ॥ ७७० ॥
ॐ नमः
बृहद्भावा-यस्-स्वाहा ।
राहु फॉंसता नहीं ।
मेघ झाँपता नहीं ।
चित्र भा-नवे नमः,
समय नापता मही ॥ ७७१ ॥
ॐ नमः
चित्र-भा-नवे-स्वाहा ।
कभी ना खोते आपा ।
बुढ़ापा भागा हाँपा ।
नमः अजरामर जिनाय,
साध सुर विभिन अलापा ॥ ७७२ ॥
ॐ नमः
अजरामर-जिना-यस्-स्वाहा ।
विनय भज द्विज ठाड़े ।
सदा, न वक्त आड़े ।
नमः द्विजा-राध्याय,
साध आ सिध द्वारे ॥ ७७३ ॥
ॐ नमः
द्विजा-राध्या-यस्-स्वाहा ।
सुधा-अमरित वाणी ।
पूत-शुचि कल्याणी ।
सुधा-शोचिषे नमः,
साध ओ ! भवि प्राणी ॥ ७७४ ॥
ॐ नमः
सुधा-शोचिषे स्वाहा ।
आरोग्य ज्ञान पाय ।
निरोग इक कहाय ।
औषधी-शाय नमः,
साध मन हन कषाय ॥ ७७५ ॥
ॐ नमः
औ-षधीशा-यस्-स्वाहा ।
महा अर्घ
वन्दे तद्-गुण लब्-धये ।
जल, गंधाक्षत, फुलझड़ी ।
थाली घृत व्यंजन भरी ।
दीवा, सुरभी, फल नये ।
भेंटूँ चरण सिद्ध भगवन् ।
वन्दे तद्-गुण लब्-धये ।
हेत अखीर समाध मरण ।
पूजूँ चरण सिद्ध भगवन् ।
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाप
असि आ उसा
नमः
(मंत्र का 108 जाप करें।)
जयमाला
पाथर सोना होना जैसे ।
पामर जोना खोना वैसे ॥
आगे आठ मूल-गुण करके,
गुण सार्थक लक्खन ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्धों को वन्दन ॥ १ ॥
बीज आत्म जैसा कल बोता ।
जीव हाथ वैसा फल होता ॥
रागी बँधे, विरागी खोले,
कर्मों का बन्धन ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्धों को वन्दन ॥ २ ॥
दर्शन, चारित, ज्ञान कटारी ।
घात अघात कर्म इस बारी ॥
क्षायिक लब्धि, अखण्ड अंक नव,
सबका अभिनन्दन ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्धों को वन्दन ॥ ३ ॥
युगपत् जाना त्रिभुवन सारा ।
युगपत् सारा जगत् निहारा ॥
ज्योति न ऐसी सूरज चन्दा,
गण तारा अनगण ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्धों को वन्दन ॥ ४ ॥
अधिक न लगा समय बस एका ।
उठा पाँव जा सिरपुर टेका ॥
ऊर्ध्व-गमन सिध स्वभाव जीवा,
चर्चित ही त्रिभुवन ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्धों को वन्दन ॥ ५ ॥
किंचित न्यून अखीरी देहा ।
कान्त अमूरत निस्सन्देहा ॥
दोष अठारह सन्ध न थोड़ी,
कोरी परिणत धन ! ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्धों को वन्दन ॥ ६ ॥
सुख अनुपम, सहजो अविनाशी ।
भोगें सतत् मुकत-पुर वासी ॥
आगे लगे न चक्र, शक्र सुख,
धरण न ज्योतिष गण ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्धों को वन्दन ॥ ७ ॥
औषध विरथा रोग न काँसा ।
भोजन विरथा भूख न प्यासा ॥
शय्या व्यर्थ, न निद्रा, शुचितर-
व्यर्थ पुष्प चन्दन ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्धों को वन्दन ॥ ८ ॥
तप से सिद्ध, सिद्ध संयम से ।
नय से सिद्ध, सिद्ध अवगम से ॥
सिध सम्यक्त्व, नन्त निध स्वामी,
सिध चारित, दर्शन ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्धों को वन्दन ॥ ९ ॥
कर्म विनाश, दुक्ख क्षय करने ।
सुगति गमन, रत्नत्रय वरने ॥
लाभ जिनेन्द्र देव गुण सम्पत्,
हेत सार्थ सुमरण ।
भूत, भविष्यत, वर्तमान के,
सिद्धों को वन्दन ॥ १० ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
*श्री सरसुति-मंत्र*
ॐ ह्रीम्
अर्हन् मुख कमल-वासिनि
पापात्म क्षयंकरि
श्रुत-ज्ञान
ज्वाला सहस्र प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति !
मत् पापम् हन हन दह दह
क्षाम् क्षीम् क्षूम् क्षौम् क्षः
क्षीरवर-धवले
अ-मृत-संभवे
वम् वम् हूम् फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।१।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।२।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।३।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
आरती
आओ भक्ता आओ ‘रे ।
अपना भाग जगाओ ‘रे ।
दीवा घृत भर लाओ ‘रे ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान की ।
सिद्ध यन्त्र करुणा निधान की ।।
आरति कर हरषाओ ‘रे ।
आओ भक्ता आओ ‘रे ।।
दुखियारिन रानी मैना ।
चैन-करार न दिन-रैना ।
देख-देख पति की पीड़ा,
बस ढोले पानी नैना ।।१।।
जा पहुंची जिन मन्दरिया ।
दिखे साधु जिन मन-दरिया ।
मिल चाला कोई अपना,
झल चाला नयनन दरिया ।।२।।
अपना पुण्य करो गाढ़ा ।
मुनि बोले अशीष म्हारा ।
धारा सिद्ध-यंत्र ढारो
कार्तिक, फागुन, आसाढ़ा ।।३।।
आया पर्व अठाई है ।
पूजन सिद्ध रचाई है ।
गन्धोदक ले सिर माथे,
कर्म निकाच विदाई है ।।४।।
पापोदय पलटी खाया ।
काम-देव कंचन काया ।
गूँजा ‘सति मैना सुन्दर’,
धरती-अम्बर जयकारा ।।५।।
मोती नयन झिराओ ‘रे ।
श्रद्धा सुमन चढ़ाओ ‘रे ।
मिलकर कीरति गाओ ‘रे ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान की ।
सिद्ध यन्त्र करुणा निधान की ।।
आरति कर हरषाओ ‘रे ।
अपना भाग जगाओ ‘रे ।।६।।
सर्व-विघ्न-शान्ति मंत्र
नमोर्-ऽहते भग-वते
प्र(क्)-क्षी-णाशेष दोष कल्-मषाय
दिव्य तेजो मूर्-तये
श्री शान्ति-नाथाय शान्ति-कराय
सर्व विघ्न(प्) प्र-णा-शनाय
सर्व रोगाप मृत्यु वि-ना-शनाय
सर्व पर कृच्-छु(द्)-द्रो-प(द्)-द्रव वि-ना-शनाय
सर्वा-रिष्ट शान्ति-कराय
ॐ ह्राम् ह्रीम् ह्रूम् ह्रौम् ह्रः
अ, सि, आ, उ, सा नमः
मम सर्व विघ्न शान्तिम्
कुरु कुरु
मम सर्व रोगाप-मृत्यु शान्तिम्
कुरु कुरु
मम सर्व पर कृच्-
छु(द्)-द्रो-प(द्)-द्रव शान्तिम्
कुरु कुरु
मम सर्वा-रिष्ट-शान्तिम्
कुरु कुरु
मे तुष्टिम् पुष्टिम् च कुरु कुरु
ते तुष्टिम् पुष्टिम् च कुरु कुरु
ते मे तुष्टिम् पुष्टिम् च कुरु कुरु
स्वाहा, स्वाहा, स्वाहा
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