सिद्ध-चक्र मंडल विधान
प्रथम वलय
*श्री वर्धमान मंत्र*
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रि-सहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, वि-वाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्-भणे वा, मो-हणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अव-राजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
नव देवता संस्तवन
दोहा
सिद्ध, स्वर्ग-शिव सारथी,
सूरि, पाठि, निर्ग्रन्थ ।
जैन धर्म, जिन-भारती,
जिन-गृह, चैत्य-जिनन्द ।।
कर्म घातिया घात जे,
नन्त चतुष्टय वन्त ।
हितु शिशु दीनानाथ वे,
जयतु जयतु अरिहन्त ।।१।।
कर्म अघात विनाश जे,
मण्डित गुण अगणन्त ।
स्वर्णाक्षर इति…हास वे,
जय जय सिद्ध अनन्त ।।२।।
मण्डित गुण छत्तीस जे,
प्रद दीक्षा निर्ग्रन्थ ।
सजल-सजग निश-दीस वे,
सार्थ सूर जयवन्त ।।३।।
मण्डित गुण पच्चीस जे,
चल श्रुत-निलय भदन्त ।
सजल-सजग निश-दीस वे,
उपाध्याय जयवन्त ।।४।।
मण्डित गुण अठ-बीस जे,
आत्म ध्यान रत गन्थ ।
सजल-सजग निश-दीस वे,
जयतु दिगम्बर सन्त ।।५।।
वीर हिमाचल झिर चली,
पड़ गणि गौतम कुण्ड ।
ज्ञान गंग माँ सरसुती,
जय जय जयतु जयन्त ।।६।।
सम-दृष्टि, दृष्टि निरी,
परहित करुणा-वन्त ।
तरणी वैतरणी तिरी,
जय जिन-धर्म जयन्त ।।७।।
लहरे पचरंगी ध्वजा,
शिव-रथ भद्र-समन्त ।
शिखर छुये आकाश जा,
जिन मन्दिर जयवन्त ।।८।।
अस्त्र-शस्त्र बिन वस्त्र वे,
मूरत स्वर्ण सुगन्ध ।
छव सुन्दर शश वक्त्र वे,
धन ! जिन-बिम्ब जयन्त ।।९।।
ॐ ह्रीं श्री नव देवता भगवन् !
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कथा पुण्य पाप की
श्री-पाल
चम्पापुर रजधानी थी ।
कुन्द-प्रभा पटरानी थी ।
नृप अरि-दमन शरण-अरहन,
मातेश्वरी जिनवाणी थी ॥ ०1 ॥
एक नहीं दो दो सपने ।
हुये कुन्द-प्रभ माँ अपने ।
दिखा स्वर्ण-गिरि, कल्पद्रुम,
उठ नवकार लगी जपने ॥ ०2 ॥
नृप बोले हम बढ़भागी ।
सुत होगा दय-अनुरागी ।
सत् शिव-सुन्दर, दृग्-अविचल,
शिव अधिपति, परिणति जागी ॥ ०3 ॥
छाया उत्सव भारी है ।
गूँज उठी किलकारी है ।
पा तेजो-रवि कुल-दीपक,
छटी रात्रि अंधियारी है ॥ ०4 ॥
जिन-मन्दिर ले जा करके ।
नयनन खुशी अश्रु भर के ।
पालित-जिन श्री-पाल अतः,
खुश माँ-पिता नाम धर के ॥ ०5 ॥
शिशु बढ़ चला दूज चन्दा ।
शिशु पढ़ चला नीति ग्रंथा ।
जान योग्य, दे राज-पिता,
नाप चले दिव-शिव पंथा ॥ ०6 ॥
न्याय-निष्ठ नृप श्री पाला ।
पुण्य बरफ सा गल चाला ।
कुष्ठ बहाने पूर्व पाप ने,
अपना रंग दिखा डाला ॥ ०7 ॥
अपने वीर-दमन काका ।
मुकुट माथ उनके राखा ।
क्यों दुर्गन्ध सहे पिरजा,
बाहर नगर पंथ ताँका ॥ ०8 ॥
मैना सुन्दरी
नगर उज्जैनी सुहाना ।
प्रतापी पहुपाल राणा ॥
नाम निपुण सुन्दर रानी ।
लाज रखती आँख पानी ॥ ०1 ॥
सुता इक सुर सुन्दरी है ।
सुन्दरी मैना निरी है ॥
शैव गुरु के पास जा के ।
खूब पढ़ लिख मन लगा के ॥ ०2 ॥
आ चली सुर सुन्दरी है ।
स्वयं…वर के खुश बड़ी है ॥
सार्थ ‘मैं… ना’ सुन्दरी भी ।
पास श्रमणी जो पढ़ी थी ॥ ०3 ॥
सुता मैना, पिता बोले ।
भाग तू भी स्वयं गो ले ॥
बता किससे ब्याह कर दूँ ।
नाम सार्थक आज ‘वर’ दूँ ॥ ०4 ॥
खड़ी मैना झुका नयना ।
लाज बहना, एक गहना ॥
पिता ने फिर पूँछ डाली ।
भू अँगूठे खोद चाली ॥ ०5 ॥
मौन स्वीकृति मान लें ना ।
खोल चाली मौन मैना ॥
ज्ञात ही होगा पिता जी ।
पिता निर्णय सुता राजी ॥ ०6 ॥
भाग जो हम लिखा लाते ।
और कब ? बस वही पाते ॥
आप चाहे जिस किसी से ।
ब्याह दें राजी खुशी से ॥ ०7 ॥
उसे पति मैं मान लूँगी ।
सुमर जन्म विमान लूँगी ॥
क्रोध से भर पिता बोले ।
कह रही क्या ? बिना तोले ॥ ०8 ॥
‘री कृतघ्नी है बड़ी तू ।
जमीं पर मेरी खड़ी तू ॥
पले छैय्या में हमारी ।
‘भाग’ विरथा तरफदारी ॥ ०9 ॥
बोलती मैना पिता से ।
मोह वशि विपरीत भासे ॥
बने हम तुम बस निमित्ता ।
कर्म की लीला विचित्रा ॥ 10 ॥
रह ठगे-से बाद जाना ।
फोड़ सिर क्यों ? शिला आना ॥
बात मैना सुनी जैसे ।
पिता दृग कुछ लोहु वैसे ॥ 11 ॥
सभासद् बोले दयाला ! ।
दो क्षमा नादान बाला ॥
बात ‘के गरमा न पाये ।
मंत्रि जोड़े हाथ आये ॥ 12 ॥
बात काटी और बोले ।
सैर हित तैयार घोड़े ॥
कोटि भट श्री पाल ओ ‘री ।
सात सौ मिल मित्र कोढ़ी ॥ 13 ॥
आन ठहरे जिस बगाना ।
जा पहुँचते वहाँ राणा ॥
पूछते नृप सहजता से ।
आप आ ठहरे कहाँ से ॥ 14 ॥
बोलते श्री पाल राया ।
मुझे कर्मों ने सताया ॥
फल उसी का पा रहा हूँ ।
‘भाग’ पीछे जा रहा हूँ ॥ 15 ॥
गीत कर्म सुनाई दीना ।
चुन जमाई इसे लीना ॥
सोचते पुहुपाल मन में ।
भाग-वादि साम्य इनमें ॥ 16 ॥
जचेगी यह खूब जोड़ी ।
हटी मैना, गलित कोढ़ी ॥
बिठा कर रथ पे बगल में ।
नृप उसे लाये महल में ॥ 17 ॥
और मैना को पुकारा ।
कहा, है यह पति तुम्हारा ॥
शपथ मैना ने उठाई ।
इन सिवा सुत, तात, भाई ॥ 18 ॥
होश माँ के उड़ चले हैं ।
पिता ये क्या कर चले हैं ॥
दुखी अम्बर, दुखी धरती ।
रो चली, क्या ? प्रजा करती ॥ 19 ॥
बेसुरी बांसुरी आँसे ।
सार्थ शह-ना…ई अभासे ॥
आ चली बेला विदाई ।
बहिन रोती-फूट माई ॥ 20 ॥
अन्त-अन्त पिता पसीजे ।
नैन भीतर, बाह्य भींजे ॥
हाय ! हावी कुमति सिर थी ।
टाल भी, होनी न टलती ॥ 21 ॥
कोसते सब भाग मैना ।
आमरण संजोग रैना ॥
कोटि भट पति किन्तु कोढ़ी ।
दया कर्म रखे न थोड़ी ॥ 22 ॥
कहे मैना, मौन धारो ।
और अब ताने न मारो ॥
मोर पति परमेश दूजा ।
विदा कर दो, करूँ पूजा ॥ 23 ॥
घाव पोंछूँ, दवा दे के ।
गांव पहुँचूँ, दुआ ले के ॥
चले सेवक उठा डोली ।
सताई दुर्दैव भोली ॥ 24 ॥
दूज…सिद्ध-पूज
बाद घर, पहले आ मंदर ।
खड़ी सविनय मैना सुंदर ॥
दिखे निर्ग्रंथ संत बैठे ।
ध्यान कछु…आ भीतर पैठे ॥ ०1 ॥
तीन दे प्रदक्षिणा मैना ।
लीन मुनि चरण टिका नैना ॥
ध्यान फिर ज्ञान लीन संता ।
स्वस्ति पढ़ते नम दृग-वंता ॥ ०2 ॥
सजल मैना बोली स्वामी ! ।
छुपा क्या ? तुम अंतर्यामी ! ॥
पुण्य गाढा हो, वर दीजे ।
पाप दिखला यम घर दीजे ॥ ०3 ॥
स्वपर हित साधन अनुरागी ।
संत मुख झिर अमरित लागी ॥
माड़ना सिद्ध चक्र माड़ो ।
भक्ति सिद्धों की उर धारो ॥ ०4 ॥
माह कार्तिक, फागुन, षाढ़ा ।
पर्व सिद्ध अष्टाह्निक न्यारा ॥
धार श्री सिद्ध-यंत्र कर के ।
माथ धारो श्रद्धा धर के ॥ ०5 ॥
छटेगी पाप रात्रि काली ।
मानेगी होली दिवाली ॥
सिद्ध सुमरण साबुन सोडा ।
आत्म दामन कर लो धौरा ॥ ०6 ॥
साध नवकार सिद्ध पूजा ।
सुंदरी मैना सति गूँजा ॥
कुष्ठ झर, कामदेव काया ।
हास मुख दुख-पीड़ित आया ॥ ०7 ॥
बाद श्रीपाल अग्नि ध्याना ।
कर्म सब झुलसा निर्वाणा ॥
आर्यिका बन मैना रानी ।
स्वर्ग अधिपत शिव रजधानी ॥ ०8 ॥
दोहा
‘सहज निराकुल’ सुख जहाँ,
और न वह शिव धाम ।
यही प्रार्थना वह कभी,
लिखे हमारे नाम ॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
सिद्ध-चक्र मंडल विधान पूजन
जय जयकारा जय जयकारा ।
सिद्ध यंत्र को नमन हमारा ॥
आगे पीछे रेफ, मध्य सह,
बिन्दु हकारा ।
कमलाकृति-दल कर्णि पूर्व सिध,
स्वर दश चारा ॥
फिर कवर्ग, फिर चवर्ग नीचे ।
फिर टवर्ग, फिर तवर्ग पीछे ॥
फिर पवर्ग अंतस्थ-ऊष्म यूँ,
साथ अनाहत मन्तर न्यारा ।
अंत ह्रीम् बेढ्यो अति प्यारा ॥
मंत्र णमो अरिहंताणं मध,
पाँखन विस्तारा ।
सिद्ध यंत्र को नमन हमारा ।
जय जयकारा जय जयकारा ॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं
श्री सिद्ध यंत्र
अत्र अवतर अवतरण संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
सिद्ध मंत्र आलापता,
असि-आ उसा प्रसिद्ध ।
सिद्ध यंत्र को थापता,
हित सरवारथ सिद्ध ॥
इति यन्त्रस्-थापनार्थं पुष्पांजलिं क्षिपेत्
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् ‘पूर्वर स्वर-चौदह वर्णा ॥१॥
ॐ ह्रीं अर्हं अ आ इ ई उ ऊ
ऋ ॠ ऌ ॡ ए ऐ ओ औ अं अः
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
पूर्व-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् आग्ने-यर, वर्ण कवर्गा ॥२॥
ॐ ह्रीं अर्हं क ख ग घ ङ
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
आग्नेय-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् दक्षिण-अर, वर्ण चवर्गा ॥३॥
ॐ ह्रीं अर्हं च छ ज झ ञ
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
दक्षिण-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् नैऋत्-त्यर, वर्ण टवर्गा ॥४॥
ॐ ह्रीं अर्हं ट ठ ड ढ ण
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
नैऋत्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् पश्चिम-अर, वर्ण तवर्गा ॥५॥
ॐ ह्रीं अर्हं त थ द ध न
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
पश्चिम-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् बायव्-व्यर वर्ण पवर्गा ॥६॥
ॐ ह्रीं अर्हं प फ ब भ म
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
वायव्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् उत्तर अंतस्थ सुवर्णा ॥७॥
ॐ ह्रीं अर्हं य र ल व
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
उत्तर-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजूँ स्वर्गा ।
हित अपवर्गा ।
दिश् ईशा-नर ऊष्मक वर्णा ॥८॥
ॐ ह्रीं अर्हं श ष स ह
अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः
ईशान-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अथ सिद्ध भक्ति कायोत्सर्ग
॥ प्राकृत पद्यानु-वाद ॥
॥ दोहा ॥
सिद्ध, ज्ञान, दर्शन-मयी,
जीव-घणा, अशरीर ।
अनाकार, साकार भी,
कुछ कम देह-अखीर ॥१॥
॥ चौपाई ॥
बंधोदय सत्-कर्म अराती ।
प्रकृति मूल-उत्तर संघाती ॥
मंगल-भूत अष्ट गुण-वन्ता ।
जल-संसार तीर अगणंता ॥२॥
सिद्धी-भूत निरंजन, नित्या ।
विकल कर्म विध-वस कृत-कृत्या ॥
सार्थ सिद्ध लोकाग्र निवासी ।
अष्टक प्रमुख शगुन गुण-राशी ॥३॥
नष्ट अष्ट मल-कर्म विशुद्धा ।
सिद्ध, बुद्ध नव-लब्धि समृद्धा ॥
शेखर-मुकुट भुवन-तिहुँ माथा ।
श्री-मद्-भट्टारक जग-त्राता ॥४॥
॥ दोहा ॥
गमना-गमन विमुक्त जे,
प्रकृति कर्म संघात ।
शाश्वत सुख संयुक्त वे,
सिद्ध विमुक्त-उपाध ॥५॥
॥ चौपाई ॥
मंगल-भूत दुभू पाताला ।
निर्मल परिणत बहती धारा ॥
दर्शन, अवगम, चारित सहिता ।
द्रव्य कर्म, नो-कर्म वि-रहिता ॥६॥
केवल दर्शन, चारित, ज्ञाना ।
निध-सम्यक्त्व, वीर्य-अप्रमाणा ॥
सूक्ष्म, अगुरुलघु, अव्या-बाधा ।
अवगाहन गुण अष्टक साधा ॥७॥
तप से सिद्ध, सिद्ध संयम से ।
नय से सिद्ध, सिद्ध अवगम से ॥
दर्शन, ज्ञान, सिद्ध आचरणा ।
हों प्रसन्न, वे तारण-तरणा ॥८॥
॥ दोहा ॥
कीना कायोत्सर्ग है,
भक्ति सिद्ध जिन नाथ ।
आलोचन उसका करूँ,
हाथ जोड़ नत माथ ॥९॥
॥ चौपाई ॥
भूषण-भू-वस, कल्मष-क्षीणा ।
चरित, ज्ञान, दर्शन समिचीना ॥
सिद्ध भूत, वर्तमान, भावी ।
नन्ता-नन्त काल अप्रभावी ॥१०॥
बुध-प्रतेक ! बुध-बोधित ! बुद्धा !।
बुध-अनेक, बुध-स्वयं ! विबुद्धा !॥
उनका पूजन, वन्दन करता ।
मन, वच, तन अभिनन्दन करता ॥११॥
कर्म क्षीण हो, दुख विलीन हो ।
संगत-साध, सुगति अधीन हो ॥
बोधि ‘निराकुल’ समाधि पाऊँ ।
धन ! जिन-गुण-सम्पद् पा जाऊँ ॥१२॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
अकृत्रिम जिनालय अर्घ्यं
आठ करोड़ लाख छप्पन ।
सन्त्यानवे हजार धन ! धन ! ॥
इक्यासी ऊपर सौ चार ।
अखर जिनालय जय जयकार ॥
ॐ ह्रीं आठ करोड़, छप्पन लाख,
सन्त्यानवे हजार, चार सौ इक्यासी
श्री अकृत्रिम जिनालयेभ्यो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
अकृत्रिम जिन बिम्ब अर्घ्यं
कोटिक नव सौ पच्चीसा ।
लाख तिरेपन सत-बीसा ॥
हजार, नव सौ अड़तालीस ।
नुति जिन-बिम्ब अखर निशिदीस ॥
ॐ ह्रीं नौ सौ पच्चीस करोड़,
तिरेपन लाख, सत्ताईस हजार,
नव सौ अड़तालीस
श्री अकृत्रिम जिन बिम्बेभ्यो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
प्रथम वलय पूजन
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।
पूजन सिद्ध अनन्त रचाओ ।।
मैना सुन्दर पूज रचाई ।
काया पति कंचन सी पाई ।।
कर्म निधत्त-निकाच नशाओ ।
पूजन सिद्ध अनन्त रचाओ ।।
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं
सिद्ध परमेष्ठिन्
अत्र अवतर अवतरण संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
(पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
हिंसा से मोड़ा मुंह अपना ।
सिद्ध शिला अब रहा न सपना ।।
गागर जल गंगा भर लाओ ।
मैना सुन्दर पूज रचाई ।।
काया पति कंचन सी पाई ।
पूजन सिद्ध अनन्त रचाओ ।
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।।
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
वचन सिद्ध ! धन, झूठ न बोला ।
मोक्ष महल दरवाजा खोला ।।
घिस चन्दन मलयागिर लाओ ।
मैना सुन्दर पूज रचाई ।।
काया पति कंचन सी पाई ।
पूजन सिद्ध अनन्त रचाओ ।
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।।
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।
करे न मन, ‘के कर लूँ चोरी ।
रीझ चली लो शिवपुर गोरी ।।
दाने साबुत चाउर लाओ ।
मैना सुन्दर पूज रचाई ।।
काया पति कंचन सी पाई ।
पूजन सिद्ध अनन्त रचाओ ।
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।।
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
टिका रखी नासा पे आंखें ।
सुख निर्बाध अन-वरत चाखें ।।
सुरभित पुष्प बाग-सुर लाओ ।
मैना सुन्दर पूज रचाई ।।
काया पति कंचन सी पाई ।
पूजन सिद्ध अनन्त रचाओ ।
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।।
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
रखा न परिग्रह, मूर्च्छा त्यागी ।
उठे, जा लगे शिव बड़भागी ।।
गो-घृत व्यंजन पातर लाओ ।
मैना सुन्दर पूज रचाई ।।
काया पति कंचन सी पाई ।
पूजन सिद्ध अनन्त रचाओ ।
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।।
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
पा निमित्त भी क्रोध न कीना ।
कर्मों से वैभव निज छीना ।।
मनहर जोत जगाकर लाओ ।
मैना सुन्दर पूज रचाई ।।
काया पति कंचन सी पाई ।
पूजन सिद्ध अनन्त रचाओ ।
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।।
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
कहाँ मान को मान दिया है ।
युगपत् तिहुजग जान लिया है ।।
अर कस्तूर चूर कर लाओ ।
मैना सुन्दर पूज रचाई ।।
काया पति कंचन सी पाई ।
पूजन सिद्ध अनन्त रचाओ ।
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।।
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
डोरे डाल न पाई माया ।
मंजिल आई, कदम बढ़ाया ।।
ऋत-ऋत के मीठे फल लाओ ।
मैना सुन्दर पूज रचाई ।।
काया पति कंचन सी पाई ।
पूजन सिद्ध अनन्त रचाओ ।
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।।
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
झांसे लालच लोभ न आए ।
सौख्य निराकुल पा हर्षाये ।।
जल चंदन अक्षत गुल लाओ ।
मैना सुन्दर पूज रचाई ।।
काया पति कंचन सी पाई ।
पूजन सिद्ध अनन्त रचाओ ।
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।।
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
अष्ट मूल गुण अर्घ
प्रथम सोपान चढ़े ।
भाँत दिनमान बढ़े ॥
ज्ञान सम्यक् रिश्ता ।
नाप संयम रस्ता ॥
अछर समकित पाया ।
नजर आतम आया ॥
हाथ शिव ठकुराई ।
नार-दिव परिणाई ॥
साथ श्रद्धा नन्ता ।
नमन नित अगणन्ता ॥
सिद्ध अनगिन जै जै ।
बुद्ध त्रिभुवन जै जै ॥ १ ॥
ॐ नमः
सम्यक्-त्वा-यस्-स्वाहा ।
अहा क…छुआ भीतर ।
कहा कछु…आ भीतर ॥
आइने वत् झलका ।
और युगपत झलका ॥
जगत् सार्थक नामा ।
जगत सुबहो शामा ॥
ज्ञान आवरण हटा ।
भान आभरण छटा ॥
साथ श्रद्धा नन्ता ।
नमन नित अगणन्ता ॥
सिद्ध अनगिन जै जै ।
बुद्ध त्रिभुवन जै जै ॥ २॥
ॐ नमः
अनंत ज्ञाना-यस्-स्वाहा ।
चक्षु दर्शन ऊना ।
दर्श अचक्षु शूना ॥
अवधि दर्शन भागा ।
दर्श केवल जागा ॥
मान, अनबन क्षीणा ।
जान कण-कण लीना ॥
दिख चला जग सारा ।
पुण्य जग से न्यारा ॥
साथ श्रद्धा नन्ता ।
नमन नित अगणन्ता ॥
सिद्ध अनगिन जै जै ।
बुद्ध त्रिभुवन जै जै ॥ ३ ॥
ॐ नमः
अनंत दर्शना-यस्-स्वाहा ।
अन्तराया विध नश ।
हन्त माया, निध जश ॥
नन्त वीरज स्वामी ।
पन्थ नीरज नामी ॥
तीव्र पुरुषार्थ जगा ।
पीर दुख आर्त भगा ॥
स्वानुभूती झोरी ।
चुनर नूठी कोरी ॥
साथ श्रद्धा नन्ता ।
नमन नित अगणन्ता ॥
सिद्ध अनगिन जै जै ।
बुद्ध त्रिभुवन जै जै ॥ ४ ॥
ॐ नमः
अनंत वीर्या-यस्-स्वाहा ।
अरुपी ! मन इन्दिय ।
गम्य कब मन पर्यय ॥
सूक्ष्म बन चाले हैं ।
अदृश्य नजारे हैं ॥
नाम अर निशाँ मिटा ।
साँझ घर कदम टिका ॥
न कहलाये भूले ।
बने वधु-शिव दूल्हे ॥
साथ श्रद्धा नन्ता ।
नमन नित अगणन्ता ॥
सिद्ध अनगिन जै जै ।
बुद्ध त्रिभुवन जै जै ॥ ५ ॥
ॐ नमः
सूक्ष्-मत्वा-यस्-स्वाहा ।
क्षेत्र इक अवगाही ।
मैत्र-जग मग राही ॥
रूठ छत्तीस चले ।
तिरेसठ मिले गले ॥
ज्योत में ज्योत मिली ।
खिली वात्सल्य कली ॥
आप में मगन अहा ! ।
लौट आगमन कहा ? ॥
साथ श्रद्धा नन्ता ।
नमन नित अगणन्ता ॥
सिद्ध अनगिन जै जै ।
बुद्ध त्रिभुवन जै जै ॥ ६ ॥
ॐ नमः
अवगाह-नत्वा-यस्-स्वाहा ।
ऊँच पद नीच मिटा ।
ऊर्ध्व रेतस प्रकटा ॥
सदा निज पद रमना ।
विदा पर पद भ्रमणा ॥
हान षट-गुण वृद्धि ।
गुण अनंत समृद्धि ॥
सिवा तुम से तुम हो ।
क्षमा मय दृग्-नम हो ॥
साथ श्रद्धा नन्ता ।
नमन नित अगणन्ता ॥
सिद्ध अनगिन जै जै ।
बुद्ध त्रिभुवन जै जै ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं नमः
अगुरु लघुत्वा-यस्-स्वाहा ।
आधि नम हार चली ।
व्याधि यम द्वार चली ॥
सुख अबाधित झोरी ।
दुख विराधित ‘ओ’ री ॥
कुल मिला निराकुलम् ।
गुल खिला निरा…कुलम् ॥
यानि गुम बाधाएँ ।
विदिश् दिश् जश गाएँ ॥
साथ श्रद्धा नन्ता ।
नमन नित अगणन्ता ॥
सिद्ध अनगिन जै जै ।
बुद्ध त्रिभुवन जै जै ॥ ८ ॥
ॐ नमः
अव्या-बाधा-यस्-स्वाहा ।
महा-अर्घ
ढाल राखी, शस्त्र फेंके ।
हार, घुटने कर्म टेके ॥
जा लगे शिव, समय लागा ।
भाग शिव राधिका जागा ॥
नीर, चन्दन, अछत दाने ।
पुष्प-नन्दन, चरु सुहाने ॥
दीप, सुरभी, फल अनूठे ।
भेंट हित झिर अमृत फूटे ॥
आश होगी पूर्ण म्हारी ।
मनेगी होली दिवाली ।
है मुझे विश्वास पूरा,
रहेगी झाली न खाली ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
सप्तम वलय के
दो सौ पचास अर्घ
अरिहंत पञ्चाशती
अर्हत् यानी पूज हैं,
मानव, दानव, देव ।
सिध परमेष्ठी दूज हैं,
साधो साध सदैव ॥ ०१ ॥
ॐ नमः
अर्हते-स्वाहा ।
अर्हत् अर्हत् लें बना,
बस जपना सिध नाम ।
भगवत् अर्हत वन्दना,
सिद्ध अनन्त प्रणाम ॥ ०२ ॥
ॐ नमः
अर्हज्-जाता-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् जैसा रूप है,
मैं वैसा चिद्रूप ।
भेड़ न सींह अनूप मैं,
लगा झाँक सिध-कूप ॥ ०३ ॥
ॐ नमः
अर्हच्-चिद्रूपा-यस्-स्वाहा ।
गुण अनंत अरिहन्त के,
चित् स्वरूप इक खास ।
चिच्-चिदेव सिध मंत्र के,
निवसूँ क्यूँ ना पास ॥ ०४ ॥
ॐ नमः
अर्हच्-चिद्रूप-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
झलके अर्हत् ज्ञान में,
दर्पणवत् तिहुलोक ।
क्यूँ न करूँ सम्मान मैं,
दे सिद्धों को ढोक ॥ ०५ ॥
ॐ नमः
अर्हज्-ज्ञाना-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् दर्शन दे चले,
सम्यक् दर्शन हाथ ।
भेंट हाथ कुछ ना भले,
चलो झुका ही माथ ॥ ०६ ॥
ॐ नमः
अर्हद्-दर्शना-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् सक्षम देख के,
अरि चित् कोने चार ।
स…क्षम घुटने टेक के,
लाखन बेड़ा पार ॥ ०७ ॥
ॐ नमः
अर्हद्-वीर्या-यस्-स्वाहा ।
अब घटना बढ़ना नहीं,
गुण अर्हत् इक ज्ञान ।
सिद्धों सी शरणा नहीं,
छाना तीन जहान ॥ ०८ ॥
ॐ नमः
अर्हज्-ज्ञान-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् गुण दर्शन निरा,
दर-सन्मत दृग् चार ।
सिद्ध दया बर्षण त्वरा,
भेंटत ही जयकार ॥ ०९ ॥
ॐ नमः
अर्हद्-दर्शन-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
तन प्रदीप्त अरिहन्त का,
भोजन बिन आराम ।
गुण वीरज सिध नन्त का,
कैसा ? जाने राम ॥ १० ॥
ॐ नमः
अर्हद्-वीर्य-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
गुण दृग् अर्हत् देशना,
समकित शिव सोपान ।
सिद्ध अठारह दोष ना,
सौख्य निराकुल पान ॥ ११ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-सम्यक्त्व-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
पंक लोभ-लालच झरा,
अर्हत् गुण शुचि नीर ।
सिद्ध जाप पारस निरा,
सुवर्ण आत्म गभीर ॥ १२ ॥
ॐ नमः
अर्हद्-शौच-
गुणायस्-स्वाहा ।
अर्हत् मुख वाणी झिरी,
द्वादश अंग अनूठ ।
पुर विमुक्त नारी वरी,
सिध सुख धार अटूट ॥ १३ ॥
ॐ नमः
अर्हद्-द्वा-दशाङ्-
गायस्-स्वाहा ।
बिन इन्द्रिय मन के बिना,
विद् युगपत् तिहु काल ।
अभिनिबोध अर्हत् जिना,
हित सिद्धि नत भाल ॥ १४ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-अभिन्न-
बो-धका-यस्-स्वाहा ।
सीमा श्रुत की हो भले,
अर्हत् ज्ञान असीम ।
ज्योत भक्ति सिध हृद जले,
भागत विपद गनीम ॥ १५ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-श्रुत-अवधि-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
मत अर्हत् गज पाँव है,
अवगाहित सब ज्ञान ।
जप सिध बरगद छाँव है,
ज्ञान अवध वरदान ॥ १६ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-अवधि-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् से कब छुप सकी,
किसके मन की बात ।
बदल चली किस्मत लिखी,
पद-सिध कर प्रणिपात ॥ १७ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मनः पर्यय-
भावा-यस्-स्वाहा ।
माया मोह विनाश के,
गुण केवल अरिहंत ।
हस्ताक्षर विश्वास के,
सुनते सिद्ध तुरंत ॥ १८ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-के-वल-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
भाव सभी विद्रूप क्षै,
केवल सार्थ स्वरूप ।
स्वयं सिद्ध चिद्रूप जै,
ढोक शिला सिध भूप ॥ १९ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-के-वलस्-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
दर्श आवरण घात के,
केवल दर्शन वान ।
नमन दिवस के रात के,
स्वीकारो भगवान् ॥ २० ॥
ॐ नमः
अर्हत्-केवल-
दर्शना-यस्-स्वाहा ।
ज्ञान आवरण घात के,
अर्हत् ज्ञान अपार ।
वचन, काय, मन साध के,
वन्दन बारम्बार ॥ २१ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-के-वल-
ज्ञाना-यस्-स्वाहा ।
अन्तराय अरि घात के,
अनंत वीर्य प्रपूर ।
अर्जित पाप अनाद के,
सिध सुमरत ही दूर ॥ २२ ॥
ॐ नमः
अर्हत्-के-वल-
वीर्या-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् मंग-उमंग ला,
भरते मन उत्साह ।
साँची श्रद्धा संग ला,
वन्दन शाहनशाह ॥ २३ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्-गला-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् दर्शन मात्र से,
गल चाले ममकार ।
मन से, वच से, गात्र से,
वंदन बार हजार ॥ २४ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गल-
दर्शनायस्-स्वाहा ।
ज्ञान शब्द अर्हत् हुआ,
दूर न मंगल साध ।
पल सुमरण भगवत छुआ,
लगती हाथ समाध ॥ २५ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गल-
ज्ञाना-यस्-स्वाहा ।
सयत्न भव जल तैर के,
अर्हत् मंगलकार ।
बार तीन सिध घेर के,
नमन अनन्तों बार ॥ २६ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गल-
वीर्या-यस्-स्वाहा ।
वर्णित द्वादश अंग में,
इक मंगल अरिहंत ।
भाव द्रव्य ले संग में,
वन्दन कोटि अनंत ॥ २७ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गलद्-
द्वादशाङ्-गायस्-स्वाहा ।
अभिनिबोध अर्हत् निरा,
एक अमंगल-हार ।
हित मेंटन भव-यम-जरा,
सिद्ध जयतु जयकार ॥ २८ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गल-अभि-
निबो-धका-यस्-स्वाहा ।
निर्गत मुख अरिहन्त जो,
श्रुत वो मंगल एक ।
वन्दन सिद्ध अनन्त को,
हाथ जोड़ सिर टेक ॥ २९ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्-गलश्-
श्रुता-यस्-स्वाहा ।
बोल अवध अर्हत् निरे,
मंगल रूप अनूप ।
मंगल सिध गुण-गण घिरे,
वन्दन हित चिद्रूप ॥ ३० ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्-गल-
अव-धये-स्वाहा ।
अर्हत् मंगलकार हैं,
पढ़ लेते मन और ।
साधु अमंगलहार हैं,
नमन सिद्ध सिर मौर ॥ ३१ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गल-
मनः पर्यया-यस्-स्वाहा ।
मांगलीक अरिहन्त हैं,
मंगल केवल ज्ञान ।
सिद्ध सिद्ध गुण नन्त हैं,
वन्दन कोटि प्रमाण ॥ ३२ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गल-
के-वल-ज्ञाना-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् सिद्ध अनन्त हैं,
मंगल केवल सार्थ ।
कल केवल निर्ग्रंथ हैं,
नमन, सधे परमार्थ ॥ ३३ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गल-के-वलस्-
स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
केवल दर्शन मण्डिता,
अर्हत् मंगल सिद्ध ।
सूर ‘सुदर्शन’ पण्डिता,
मंगल साध प्रसिद्ध ॥ ३४ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गल-
के-वल-दर्शना-यस्-स्वाहा ।
मंगल अर्हत् देव हैं,
जिन मुख निर्गत धर्म ।
मंगल सिध स्वयमेव हैं,
साध साध शिव शर्म ॥ ३५ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गल-
के-वला-यस्-स्वाहा ।
अर्हत्, संस्थित सिध शिला,
मंगल वृष माहन्त ।
नमन महन्तन सब मिला,
हित विमुक्ति बासन्त ॥ ३६ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गल-
के-वल-रूपायस्-स्वाहा ।
अर्हत् सिध मंगल मयी,
क्षयी-अमंगल साध ।
जिन मत निध मंगल मयी,
भवि ! पल पल आराध ॥ ३७ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गल-
धर्मा-यस्-स्वाहा ।
धर्म अवध अरिहन्त का,
मंगल चर्चित लोक ।
जयकारा सिध नन्त का,
साधो पाओ मोख ॥ ३८ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गल-
धर्मस्-स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
मंगल उत्तम अरिहन्ता ।
मंगल उत्तम सिध नंता ॥
धर्म अहिंसा जयवन्ता ।
मंगल उत्तम निर्ग्रंथा ॥ ३९ ॥
ॐ नमः
अर्हन्-मङ्गलोत्-तमा-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् लोकोत्तम ।
जिन मत चोखो द्रुम ॥
लोकोत्तम मुनिराज ।
नुति सिध मोख जहाज ॥ ४० ॥
ॐ नमः
अर्हल्-लोकोत्-तमा-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् गुण अगणन्त ।
जिनमत धन ! सिध नन्त ॥
उत्तम लोका लोक ।
ढोक साध निर्ग्रंथ ॥ ४१ ॥
ॐ नमः
अर्हल्-लोकोत्-तम-
गुणा-यस्-स्वाहा ।
अर्हत् ज्ञान ।
जिनमत भान ।
सिद्ध उत्-तमम्,
सरसुत प्राण ॥ ४२ ॥
ॐ नमः
अर्हल्-लोकोत्-तम-
ज्ञाना-यस्-स्वाहा ।
‘दर्शन’ अरिहन्ता ।
अर्चन सिध नन्ता ।
उत्तम लोकोत्-तम,
दर्शन निर्ग्रंथा ॥ ४३ ॥
ॐ नमः
अर्हल्-लोकोत्-तम-
दर्शना-यस्-स्वाहा ।
मोह मल्ल घाता ।
बल अर्हत् नाता ॥
उत्तम सिध स्वयमेव ।
‘साध’ पार भव खेव ॥ ४४ ॥
ॐ नमः
अर्हल्-लोकोत्-तम-
वीर्या-यस्-स्वाहा ।
हनन क्रोध ।
अभि-निबोध ।
जिनोत्-तमम्,
‘साध’ पोथ ॥ ४५ ॥
ॐ नमः
अर्हल्-लोकोत्-तम-
अभि-निबो-धकायस्-स्वाहा ।
धर्म अवध अरिहन्त ।
कर्म विविध हरि नन्त ॥
लोकोत्तम जयवंत ।
मर्म विदित विध संत ॥ ४६ ॥
ॐ नमः
अर्हल्-लोकोत्-तम-
अवधि-ज्ञाना-यस्-स्वाहा ।
मनः पर्यय ज्ञाना ।
ज्ञान अर्हत् ‘भाना’ ॥
सिद्ध उत्तम लोका ।
‘साध’ नुत, हित मोखा ॥ ४७ ॥
ॐ नमः
अर्हल्-लोकोत्-तम-
मनः पर्यय-ज्ञाना-यस्-स्वाहा ।
ज्ञान केवल उत्तम ।
भान त्रै-थल उत्तम ।
उत्तमम् सिद्ध ‘साध’,
‘भान’-त्रै-कल उत्तम ॥ ४८ ॥
ॐ नमः
अर्हल्-लोकोत्-तम-
के-वल-ज्ञाना-यस्-स्वाहा ।
केवल ज्ञान स्वरूप ।
अर्हत् त्रिभुवन भूप ।
सिद्ध ‘साध’ जिन धर्म,
उत्तम लोकस्-तूप ॥ ४९ ॥
ॐ नमः
अर्हल्-लोकोत्-तम-
के-वल-ज्ञानस्-स्वरूपा-यस्-स्वाहा ।
पर्याय केवलम् ।
अकषाय क्षै करम ॥
उत्तमम् सुसाध ! ।
साध हित-समाध ॥ ५० ॥
ॐ नमः
अर्हल्-लोकोत्-तम-
के-वल-पर्याया-यस्-स्वाहा ।
सिद्ध पञ्चाशती
नाम सिद्ध ही कह रहा,
सिद्ध हुये सब काम ।
कहे न मन, सब सह रहा,
किरपा आप, प्रणाम ॥ ०१ ॥
ॐ नमः
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
सोऽहं सोऽहं रट लगा,
सार्थक सिद्ध स्वरूप ।
भीतर कछु…आ पट लगा,
लख इक टक चिद्रूप ॥ ०२ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-स्वरू-पेभ्यो स्वाहा ।
गुणा शब्द ‘गुण’ बन चले,
आ कहने की देर ।
डग ‘डग मग’ कण्टक भले,
पलट न देखा हेर ॥ ०३ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-गुणेभ्यो स्वाहा ।
उठते ही बैठा चले,
जे संकल्प विकल्प ।
कर्म चोर लौटा चले,
निधि संज्ञान अनल्प ॥ ०४ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-ज्ञानेभ्यो स्वाहा ।
दर्शन आत्म स्वरूप का,
घना घना ‘इति-हास’ ।
हो दर्शन चिद्रूप का,
और न बस अभिलाष ॥ ०५ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-दर्शनेभ्यो स्वाहा ।
समकित अब ना छूटना,
दिखा जलधि भव तीर ।
सुमरत सिध झिर फूटना,
भज लो, लो दृग नीर ॥ ०६ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-सम्यक्-त्वेभ्यो स्वाहा ।
भरा मात्र डग जा दिखे,
अथाह भव जल पार ।
भाग आप सा मम लिखे,
धोक, लगा जयकार ॥ ०७ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-वीर्येभ्यो स्वाहा ।
चल प्रतिमा दैगम्बरी,
प्रतिमा अविचल आज ।
विनत, छटे दुख शर्बरी,
आ झुक, राखें लाज ॥ ०८ ॥
ॐ नमः
अचल-पद-प्राप्त-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
अंगुली, पोर, रोम-सिर नीचे ।
निकले आगे, संख्या पीछे ॥
पहुँचे इतने जीव स्वदेशा ।
माथ झुकाकर नमन हमेशा ॥ ०९ ॥
ॐ नमः
संख्या-तीत-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
गणना करें पसीना छूटे ।
‘असंख्यात सिध’ वच ये झूठे ॥
कर्म नाश, शिवपुर अधिशासी ।
कितने ? तो ‘रे अक्षत राशी ॥ १० ॥
ॐ नमः
असंख्यात-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
गंगा के जल कण चुक चाले ।
कम गंगा आकाश सितारे ॥
सिद्ध भूत, वर्तमान, भावी ।
अनन्त चित्-चैतन्य स्वभावी ॥ ११ ॥
ॐ नमः
अनन्त-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
द्वीप अढाई, दो सागर ।
जल स्रोतों में जो लाकर ॥
मुनि क्षेपें, सुर हत-भागे ।
मोक्ष वहीं से जा लागे ॥ १२ ॥
ॐ नमः
जल-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
द्वीप अढाई, दो सागर ।
वन, पर्वत, नगरी आकर ॥
साध साधना निर्वाणा ।
नमन तिन्हें हित कल्याणा ॥ १३ ॥
ॐ नमः
स्थल-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
द्वीप अढाई, दो सागर ।
गगन मध्य में जो लाकर ॥
खचर अमर नागन धारे ।
सिद्ध वहीं से वे सारे ॥ १४ ॥
ॐ नमः
गगन सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
थिति अघात कर्मन तीनी ।
आयु बराबर कर लीनी ॥
पर्श लोक सब बलिहारी ।
समुद्घात सिध जय थारी ॥ १५ ॥
ॐ नमः
समुद्घात-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
थिति अघात कर्मन चारा ।
समान स्वाभाविक धारा ॥
असमुद्घात बिन शिव पाया ।
शीश झुकाने दिव आया ॥ १६ ॥
ॐ नमः
असमुद्घात-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
साधा…रण ।
बाधा हन ।
सिध साधारण, आराधन ॥ १७ ॥
ॐ नमः
साधारण-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
गुण अन्यत्र न ऐसे पाये ।
सिद्ध असाधारण कहलाये ॥
दर्शन, ज्ञान, चरित्र, विशेषा ।
लगे स्वदेश घात रति-द्वेषा ॥ १८ ॥
ॐ नमः
असाधारण-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
पा तीर्थंकर पदवी ।
पाई अष्टम पृथ्वी ॥
अष्टम पृथ्वी पाऊँ ।
अष्टक द्रव्य चढ़ाऊँ ॥ १९ ॥
ॐ नमः
तीर्थंकर-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
तीर्थंकर के तीर्थ में,
जिनका बेड़ा पार ।
गाऊँ उनकी कीर्ति मैं,
भिंजा गगन जयकार ॥ २० ॥
ॐ नमः
तीर्थंकर-अन्तर-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
धनुष पाँच सौ पच्चीसा ।
आ ठहरे त्रिभुवन शीषा ॥
निशि-दीसा वन्दन मेरा ।
तोड़ सकूँ कर्मन घेरा ॥ २१ ॥
ॐ नमः
उत्कृष्ट-अवगाहन-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
जघन बीच उत्कृष्टा ।
तन धर कर्म विनष्टा ।
शिव जा लगे समय में,
धोक करूँ सविनय मैं ॥ २२ ॥
ॐ नमः
मध्यम-अवगाहन-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
साढ़े तीन हाथ शरीर ।
पाया सिन्धु भव जल तीर ॥
बाँधा पाल विध बन्धन ।
हाथन बाहु बल श्रम कण ।
वन्दन सिद्ध अभिनन्दन ॥ २३ ॥
ॐ नमः
जघन्य-अवगाहन-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
रख परिणत भद्रा ।
कर्म भूम पन्द्रा ॥
जे पहुँचे शिव धाम ।
सविनय नम्र प्रणाम ॥ २४ ॥
ॐ नमः
तिर्यक्-लोक-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
काल चतुर्थ श्रमण राया ।
दैव निमित्त देव पाया ॥
काल सभी छह मुक्ति सुनो ।
बनती कोशिश भक्ति चुनो ॥ २५ ॥
ॐ नमः
षड्-विधि-काल-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
उपसर्ग घोर सह के ।
अपवर्ग ओर बह के ॥
नैय्या लाखों की पार ।
छैय्या राखो जयकार ॥ २६ ॥
ॐ नमः
उपसर्ग-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
उपसर्ग शून दृग नासा ।
अपवर्ग पून अभिलाषा ॥
जय जयतु सिद्ध अगणन्ता ।
नत स्वर्ग दून उल्लासा ॥ २७ ॥
ॐ नमः
निरूपसर्ग-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
आखर ढ़ाई ।
साध पढ़ाई ॥
जयतु सिद्ध जय,
दीप अढ़ाई ॥ २८ ॥
ॐ नमः
अन्तर्दीप-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
सागर दो ।
आकर धो ॥
पाप सकल ।
आँख सजल ।
क्यूँ न हो ॥ २९ ॥
ॐ नमः
उदधि-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
दीक्षा ले जो आसन माड़े ।
हिले न ग्रीषम, बर्षा, जाड़े ॥
पिंना चली शिव वधु वरमाला ।
टूक टूक ‘चिर’ कर्मन कारा ॥ ३० ॥
ॐ नमः
स्वस्-थिति-आसन-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
माड़ पालथी थिर भये,
निरखा आतम राम ।
अविचल दूजे गिर भये,
पा ही लिया मुकाम ॥ ३१ ॥
ॐ नमः
पर्यंकासन-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
अलस विसारा ।
पौरुष धारा ।
पुरुष वेद सिध,
जय जयकारा ॥ ३२ ॥
ॐ नमः
पुरूष-वेद-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
प्रकृति कर्म सात सब ।
मोहनीय घात अब ॥
क्षपक श्रेणि माड़ ली ।
धूल-कर्म झार ली ॥ ३३ ॥
ॐ नमः
क्षपक-श्रेण्यारूढ-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
अधि से अधि शत ऊपर आठ ।
कम से कम इक शिव सम्राट ॥
एक समय में, ‘धारा जैन’ ।
करें नमन ला धारा नैन ॥ ३४ ॥
ॐ नमः
एक-समय-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
सम-यन्तर द्वय भो ! ।
पर्यन्त समय दो ॥
धारा प्रवाह,
शिव वधु विवाह,
जय हो ! जय हो ! ॥ ३५ ॥
ॐ नमः
द्वि-समय-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
धारा प्रवाह ।
शिव वधु विवाह ॥
इक समय साध,
विय-तिय सराह ॥ ३६ ॥
ॐ नमः
त्रि-समय-
सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
भूत भविष्यत वर्तमान के,
जितने सिद्ध हैं ।
मन, वचन, काय नम लोचन ।
भज कृत, कारित, अनुमोदन ।
उनके प्रति हम भक्ति भाव से,
नित करबद्ध हैं ।
भूत भविष्यत वर्तमान के,
जितने सिद्ध हैं ॥ ३७ ॥
ॐ नमः
त्रिकाल-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
ऊर्ध्व, मध्य, अध लोक से,
सिद्ध, भये जे जीव ।
श्रद्धा से मैं धोक दे,
पूजूँ उन्हें सदीव ॥ ३८ ॥
ॐ नमः
त्रिलोक-सिद्धेभ्यो स्वाहा ।
अरिहन्त मंगलम् ।
सिध नन्त मंगलम् ॥
मंगल धर्म अहिंसा,
निर्ग्रन्थ मंगलम् ॥ ३९ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्-गलेभ्यो स्वाहा ।
दूर दर्श, ले नाम भी,
बनते बिगड़े काम ।
सिध स्वरूप मंगल तभी,
धोक समेत प्रणाम ॥ ४० ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्-गल-
स्वरूपेभ्यो स्वाहा ।
विशुद्ध मम गल दान जै ।
सिद्ध सुमंगल ज्ञान जै ॥
बुद्ध उ…मंगल भान जै ।
प्रसिद्ध जंगल ध्यान जै ॥ ४१ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्-गल-
ज्ञानेभ्यो स्वाहा ।
मंगल-दर्शन नैय्या ।
सिरपुर छैय्या छैय्या ॥
यूँ ही नहीं प्रसिद्ध ।
दर्शन मंगल सिद्ध ॥ ४२ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्-गल-
दर्शनेभ्यो स्वाहा ।
टूट कर्म जंजीर ।
सक्षम धीर गभीर ॥
सिध मंगल वीरज ।
निध केवल नीरज ॥ ४३ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्-गल-
वीर्येभ्यो स्वाहा ।
सम्यक्त्व सिद्ध ।
मंगल प्रसिद्ध ॥
माहन्त पाथ ।
साधक समाध ॥ ४४ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्-गल-
सम्यक्-त्वेभ्यो स्वाहा ।
नाम कर्म संहार,
गुण सूक्ष्मत्व इतर धनी ।
मंगल सिद्ध कतार,
हित भक्तन चिन्तामणी ॥ ४५ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्-गल-
सूक्ष्मत्वेभ्यो स्वाहा ।
आयु कर्म संहार,
इक अवगाहन गुण धनी ।
मंगल सिद्ध कतार,
तक टकेक नासा अणी ॥ ४६ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्-गल-
अवगाहनेभ्यो स्वाहा ।
गोत्र कर्म संहार,
एक अगुरुलघु गुण धनी ।
मंगल सिद्ध कतार,
छोड़ रुदन, निर्जन वनी ॥ ४७ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्-गल-
अगुरु-लघुभ्यो स्वाहा ।
वेदनीय संहार,
अव्याबाधिक गुण धनी ।
मंगल सिद्ध कतार,
प्रीत स्वात्म से रख घनी ॥ ४८ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्-गल-
अव्या-बाधेभ्यो स्वाहा ।
गुण आठों के आठ ।
मंगल रूप विराट ॥
जयतु-जयतु सिद्धम् ।
मन सुमरो संध्या प्रात ॥ ४९ ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्-गल-
अष्ट-गुणेभ्यो स्वाहा ।
वसु गुण अनूप ।
मंगल स्वरूप ॥
छाहरी सिद्ध, जग खरी धूप ॥ ५० ॥
ॐ नमः
सिद्ध-मङ्-गल-
अष्ट-स्वरूपेभ्यो स्वाहा ।
आचार्य पञ्चाशती
भाँत रवि ललाट आँखन घटा ।
द्वार शिव कपाट पाटन भटा ॥
भद-समंत सूर सन्त नायका ।
‘स्वयंभू’ कि पाठ, पाहन फटा ॥ ०१ ॥
ॐ नमः
सूरिभ्यो स्वाहा ।
पून मूल गुण ।
गुण उत्तर चुन ।
सूरि गौतमा,
झेल वीर धुन ॥ ०२ ॥
ॐ नमः
सूरि-गुणेभ्यो स्वाहा ।
आत्म लीन हैं ।
आप्त चीन हैं ।
सूर रतन त्रय,
प्राप्त तीन हैं ॥ ०३ ॥
ॐ नमः
सूरि-स्वरूप-
गुप्तेभ्यो स्वाहा ।
गुण सम्यक्त्व प्रधान ।
शिव-अध्यक्ष विधान ।
जयतु जयतु जय सूर,
तूर अहिंसा प्राण ॥ ०४ ॥
ॐ नमः
सूरि-सम्यक्त्व-
गुणेभ्यो स्वाहा ।
ज्ञान समि-चीन धार ।
मान छवि क्षीण, न्यार ।
जय जयन्त सूर सन्त,
ध्यान संलीन पार ॥ ०५ ॥
ॐ नमः
सूरि-ज्ञान-
गुणेभ्यो स्वाहा ।
मान्य दर्श सुश्रुति भाषित ।
वस्तु सामान्य प्रतिभाषित ।
जयतु जय सूर त्रिभुवन नूर,
शिष्य पालित स्वयं शासित ॥ ०६ ॥
ॐ नमः
सूरि-दर्शन-
गुणेभ्यो स्वाहा ।
शक्ति ना छुपा ।
बना तप तपा ।
नाम सार्थ सूर,
किसने न जपा ॥ ०७ ॥
ॐ नमः
सूरि-वीर्य-
गुणेभ्यो स्वाहा ।
ह्रास छै तीन आकड़े ।
पास छै तीन आ खड़े ।
सूर जय जयत सूर जय,
दास जग तीन नृप बड़े ॥ ०८ ॥
ॐ नमः
सूरि-षट्त्रिंशद्-
गुणेभ्यो स्वाहा ।
आचार पंच ।
‘पाले’ विरंच ।
जय जयतु सूर,
जप पुण्य संच ॥ ०९ ॥
ॐ नमः
सूरि-पञ्चाचार-
गुणेभ्यो स्वाहा ।
द्रव्य तज दिया ।
द्रव्य भज जिया ।
जयतु जयतु सूर,
दिखाया ‘दिया’ ॥ १० ॥
ॐ नमः
सूरि-द्रव्य-
गुणेभ्यो स्वाहा ।
कृश कर चले कषाय ।
वीतराग पर्याय ।
जयतु जयतु जय सूर,
रट तट प्रद सुखदाय ॥ ११ ॥
ॐ नमः
सूरि-पर्याय-
गुणेभ्यो स्वाहा ।
सूर मंगल ।
नूर जंगल ।
अब रही कब, दूर मंजल ॥ १२ ॥
ॐ नमः
सूरि-मङ्गलेभ्यो स्वाहा ।
मान दूरी ।
ज्ञान सूरी ।
मंगल सुर…भी कस्तूरी ॥ १३ ॥
ॐ नमः
सूरि-ज्ञान-
मङ्-गलेभ्यो स्वाहा ।
भूला भगवन् कह क्षमा,
पर हित नमतर नैन ।
सार्थ सूर लोकोत्तमा,
नमो नमः दिन रैन ॥ १४ ॥
ॐ नमः
सूरि-लोकोत्-तमेभ्यो स्वाहा ।
सार्थ ‘पाँव-रज’ कह क्षमा,
निस्पृह मिसरी बैन ।
सूर ज्ञान लोकोत्-तमा,
नमो नमः दिन रैन ॥ १५ ॥
ॐ नमः
सुरि-ज्ञान-
लोकोत्-तमेभ्यो स्वाहा ।
गिर चढ़ना ‘गिर’ कह क्षमा,
संध्या वंशी चैन ।
सूर दर्श लोकोत्-तमा,
नमो नमः दिन रैन ॥ १६ ॥
ॐ नमः
सूरि-दर्शन-
लोकोत्-तमेभ्यो स्वाहा ।
गलती ‘गलती’ कह क्षमा,
अभिजित कषाय सेन ।
सूर वीर्य लोकोत्-तमा,
नमो नमः दिन रैन ॥ १७ ॥
ॐ नमः
सूरि-वीर्य-
लोकोत्-तमेभ्यो स्वाहा ।
बढ़ते आगे बिन वैशाखी ।
फाग दिवाली हो या राखी ॥
पाखी जिसे न पिंजरा भाया ।
बाँध सकेगी कब तक माया ॥ १८ ॥
ॐ नमः
सूरि-के-वल-धर्माय स्वाहा ।
अनशन, ऊनोदर तप तपते ।
अंतरंग तप तपें, न कँपते ।
महावीर के वीर सूर हैं,
देख छिद्र पर पलकें झपते ॥ १९ ॥
ॐ नमः
सूरि-तप्त-तपोभ्यो स्वाहा ।
रस परित्याग सुहाया ।
मानस वश में आया ॥
हंस वंश ठकुराई ।
बगुला भक्ति विदाई ॥ २० ॥
ॐ नमः
सूरि-परम-तपोभ्यो स्वाहा ।
धन ! व्रत सिंह निष्क्रीडित साधा ।
निरतिचार देवता अराधा ।
जयतु सूर, जिन धर्म नूर जय,
भेजे प्रणय पतर शिव राधा ॥ २१ ॥
ॐ नमः
सूरि-तपो-
घोर-गुणेभ्यो स्वाहा ।
गुण अघोर धारी ।
अखर ब्रह्मचारी ।
जयतु सूर जय हो,
हो सूर जय तुम्हारी ॥ २२ ॥
ॐ नमः
सूरि-घोर-गुण-
पराक्रमेभ्यो स्वाहा ।
विनत ऋद्धियाँ त्रेसठ यत ।
पुरुष शलाका त्रेसठ नत ।
जयतु सूर जय, जयतु तूर दय,
कहाँ और सिध चौखट सत् ॥ २३ ॥
ॐ नमः
सूरि-ऋद्धि-
ऋषिभ्यो स्वाहा ।
तन विनीता ।
वचन गीता ।
सूर जय जय,
मनस् जीता ॥ २४ ॥
ॐ नमः
सूरि-सुयोगेभ्यो स्वाहा ।
माया मिथ्या दूर निदान ।
फिर के ध्यान,
फिर के ज्ञान,
गौरव गरिमा सूर महान ॥ २५ ॥
ॐ नमः
सूरि-ध्यानेभ्यो स्वाहा ।
भाग विधाता ।
राग विघाता ।
जयतु सूर जय,
जाग प्रदाता ॥ २६ ॥
ॐ नमः
सूरि-धातृभ्यो स्वाहा ।
यातृ नर्मद ।
पात्र निर्मद ।
जय सूर जय,
मात्र गिर कद ॥ २७ ॥
ॐ नमः
सूरि-पात्रेभ्यो स्वाहा ।
उदर कुछ बड़ा सा रखते हैं ।
इधर की उधर न करते हैं ॥
ऐसे नेक गुणों के धारी ।
जय हो भगवन् सूर तुम्हारी ॥ २८ ॥
ॐ नमः
सूरि-गुण-
शरणा-यस् स्वाहा ।
घिरा परिवार से चन्दा ।
तजा तुमने गोरख धन्धा ॥
मान हानी न सूर ठोकी ।
वृत्ति आगम सम्मत चोखी ॥ २९ ॥
ॐ नमः
सूरि-धर्म-गुण-
शरणा-यस् स्वाहा ।
करुण पूर ।
सुमन तूर ।
जयतु जयतु,
शरण सूर ॥ ३० ॥
ॐ नमः
सूरि-शरणा-यस् स्वाहा ।
पलक पल को खोलीं ।
निधियाँ पलट टटोलीं ॥
शरणा सूर स्वरुपा ।
चित चेतन चिद्रुपा ॥ ३१ ॥
ॐ नमः
सूरि-स्वरूप-
शरणा-यस् स्वाहा ।
स्वयं जलें, दें रोशनी,
सूर दया भण्डार ।
जो…वन आ निरखी वनी,
जाऊँ मैं बलिहार ॥ ३२ ॥
ॐ नमः
सूरि-धर्म-स्वयं-
शरणा-यस् स्वाहा ।
ज्ञान घन मैं, ज्ञान घन मैं ।
रट लगाई बैठ वन में ।
क्यूँ न रीझेगी शिव राधा,
बिठाते, लहर उठी मन में ॥ ३३ ॥
ॐ नमः
सूरि-ज्ञान-
स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
मन जिनका नित रटता ।
हूँ मैं ज्ञाता दृष्टा ।
ढा सके न देर कहर,
उन ऊपर अरि अष्टा ॥ ३४ ॥
ॐ नमः
सूरि-दर्शन-
स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
अखर वी…र पलटा खड़े,
रवि सम्मुख ऋत घाम ।
सूर और औरन भले,
मेरे चारों धाम ॥ ३५ ॥
ॐ नमः
सूरि-वीर्य-
स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
तूर, मंजिल चरण ।
सूर मंगल शरण ।
पाठ करुणा धरम,
नूर जंगल श्रमण ॥ ३६ ॥
ॐ नमः
सूरि-मङ्-गल-
शरणाय स्वाहा ।
अखर पलट त…प, प…त रखते ।
फूँक फूँक कर पद रखते ।
धरा बैठ छूते अम्बर,
कुछ ऊँचा सा कद रखते ॥ ३७ ॥
ॐ नमः
सूरि-तपः शरणा-यस् स्वाहा ।
वस्तु स्वरूप पिछाना ।
आता दुख सह जाना ।
दूर नहीं अब ज्यादा,
राधा मुक्ति ठिकाना ॥ ३८ ॥
ॐ नमः
सूरि-धर्म-शरणा-यस् स्वाहा ।
सूर आचरण ।
सार्थ आँच…रण ॥
तजा मोम पन ।
भजा ओम् धन ! ॥ ३९ ॥
ॐ नमः
सूरि-तपः स्वाहा ।
पिण्ड छूटा दुर्-ध्यानन ।
धवल गंगा सा दामन ।
मरण आवीच मींच दृग,
सजग नवकार अराधन ॥ ४० ॥
ॐ नमः
सूरि-ध्यान-
शरणा-यस् स्वाहा ।
नूर बुद्ध तरणा ।
सूर सिद्ध शरणा ॥
भूर शुद्ध करुणा ।
दूर रुद्ध चरणा ॥ ४१ ॥
ॐ नमः
सूरि-सिद्ध-
शरणा-यस् स्वाहा ।
जतन विमोख ।
शरण त्रिलोक ।
सार्थ सूर, हित सुमरण धोक ॥ ४२ ॥
ॐ नमः
सूरि-त्रिलोक-
शरणा-यस् स्वाहा ।
रतन सम्भाल ।
शरण त्रिकाल ।
सूर स्वर्ग-शिव,
तरण विशाल ॥ ४३ ॥
ॐ नमः
सूरि-त्रिकाल-
शरणा-यस् स्वाहा ।
जगत जगत जगत ।
‘पत’ निसंग सार्थ ।
शरण मंगलार्थ ।
भगत भगत भगत ॥ ४४ ॥
ॐ नमः
सूरि-त्रि-जगन्-मङ्-गल-
शरणा-यस् स्वाहा ।
बेरोक टोक ।
जै लोक लोक ॥
‘रे शोक-सोख ।
आलोक धोक ॥ ४५ ॥
ॐ नमः
सूरि-त्रिलोक-मङ्-गल-
शरणा-यस् स्वाहा ।
मंगलोत्तम शरण ।
आचार्य भुवन भुवन ॥
अर्हत् सिद्ध अनगण ।
दया उवझाय श्रमण ॥ ४६ ॥
ॐ नमः
सूरि-त्रि-जगन्-मङ्-गलोत्-तम-
शरणा-यस् स्वाहा ।
ऊर्ध्व, मध्य, अध लोक,
सूर मंगलोत्तम शरण ।
विसुध कोटि नव धोक,
सिध, बुध, विद्-आगम, श्रमण ॥ ४७ ॥
ॐ नमः
सूरि-त्रि-लोक-मङ्-गलोत्-तम-
शरणा-यस् स्वाहा ।
गद्दी गृद्धी छोडी भाई
ऋद्धी सिद्धी दौड़ी आई ॥
ठकुराई दिव शिव हाथों में
धस रहती लज्जा आँखों में ॥ ४८ ॥
ॐ नमः
सूरि-ऋद्धि-मङ्-गल-
शरणा-यस् स्वाहा ।
दर्शन मात्र भागती माया ।
मंत्र स्वरूप दिगम्बर काया ।
रुपिया रूप एक दिन खोना,
पाँवन छाया में रख लो ना ॥ ४९ ॥
ॐ नमः
सूरि-मन्त्र-
स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
सूर मंत्र गुण, आनन्दा ।
सिद्ध नन्त धुन अरिहन्ता ।
सिर्फ न संध्या संध्या बस,
पल पल तज गोरख धन्धा ॥ ५० ॥
ॐ नमः
सूरि-मन्त्र-
गुणा-यस् स्वाहा ।
उपाध्याय पञ्चाशती
सुत मातरि जिनवाण के,
निरत सदा श्रुत पाठ ।
पातरि केवल ज्ञान के,
कल सिरपुर सम्राट ॥ ०१ ॥
ॐ नमः
पाठकेभ्यो स्वाहा ।
सिर्फ न जिनने मुण्डन कीना ।
दश मुण्डन मण्डन मन दीना ॥
दूर न अब शिव मण्डन जिनका ।
मैं दासानु-दास हूँ तिनका ॥ ०२ ॥
ॐ नमः
पाठक-मोक्ष-
मण्डनेभ्यो स्वाहा ।
पलकें पल को खोलें ।
निधियाँ बाद टटोलें ॥
पलकें अपनी मींच ।
भाँत स्वर्ण जग कीच ॥ ०३ ॥
ॐ नमः
पाठक-गुणेभ्यो स्वाहा ।
करें जुगाली रात ।
दिन भर माँ के साथ ।
अपने जैसे एक,
नमन झुका के माथ ॥ ०४ ॥
ॐ नमः
पाठक-गुण-
स्वरूपेभ्यो स्वाहा ।
मन तरंग मारें ।
तिरे और तारें ।
अपने जैसे एक,
मात माथ धारें ॥ ०५ ॥
ॐ नमः
पाठक-गुण-
पर्यायेभ्यो स्वाहा ।
दूती शिव चल दी ।
ले चावल हल्दी ।
अपने जैसे एक,
द्रवी-भूत जल्दी ॥ ०६ ॥
ॐ नमः
पाठक-द्रव्या-यस् स्वाहा ।
पढ़ते और पढ़ाते हैं ।
श्रद्धा सुमन चढाते हैं ॥
माँ स्वर श्रुत के चरणों में ।
आ सकने आभरणों में ॥ ०७ ॥
ॐ नमः
पाठक-गुण-
द्रव्या-यस् स्वाहा ।
द्रव्य दृष्टि राख तुम ।
सृष्टि मानते कुटुम ।
जयतु जयतु पाठका,
तुम्हीं आज कल्प-द्रुम ॥ ०८ ॥
ॐ नमः
पाठक-द्रव्य-
स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
पर-आय देख के ।
पर्याय फेंक के ॥
उठा लिया द्रव्य को ।
सुनिश्चित भव्य हो ॥ ०९ ॥
ॐ नमः
पाठक-द्रव्य-
पर्याया-यस् स्वाहा ।
लगन स्वाध्याय लगाई ।
रमण पर्याय पढ़ाई ॥
अखर ढ़ाई प-प्रेमा ।
टंच-सौ ‘पाठी’ हेमा ॥ १० ॥
ॐ नमः
पाठक-पर्याय-
स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
छिन घाटी मंगल ।
बिन लाठी मंगल ।
पुन धुन परिपाटी,
जिन-पाठी मंगल ॥ ११ ॥
ॐ नमः
पाठक-मङ्-गला-यस् स्वाहा ।
घोड़े गज छोड़े ।
मंगल गुण जोड़े ।
जिन दीक्षा जो…वन,
नम लोचन दो ‘रे ॥ १२ ॥
ॐ नमः
पाठक-मङ्-गल-
गुणा-यस् स्वाहा ।
वस्तु स्वरूप पिछान के,
ज्ञाता दृष्टा पाँत ।
पात्र एक निर्माण के,
पाठक अपने भाँत ॥ १३ ॥
ॐ नमः
पाठक-मङ्-गल-गुण-
स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
जंगल, छोड़ मोह माया ।
खाते धूप, खिला छाया ।
पाठी अपने भाँत तभी,
मंगल द्रव्य लिये आया ॥ १४ ॥
ॐ नमः
पाठक-द्रव्य-
मङ्-गला-यस् स्वाहा ।
मंगल पर्याय ।
मम…गल अकषाय ।
पाठ जय नाद,
उमंग…ला सहाय ॥ १५ ॥
ॐ नमः
पाठक-मङ्-गल-
पर्याया-यस् स्वाहा ।
तन रत्नत्रय से पावन है ।
रत सरसुत सेवा में मन है ।
मंगल पर्याय द्रव्य पाठक,
चरणों में शत शत वन्दन है ॥ १६ ॥
ॐ नमः
पाठक-द्रव्य-मङ्-गल-
पर्याया-यस् स्वाहा ।
मंगल पाठक नख शिख शरीर ।
गुण अनगण आगे कर गभीर ॥
परिणाम सरल भोले भाले ।
क्यूँ लगें न दिश् दश जयकारे ॥ १७ ॥
ॐ नमः
पाठक-द्रव्य-गुण-
पर्याय-मङ्-गला-यस् स्वाहा ।
बनता सहते हैं ।
दरिया बहते हैं ।
‘पाठ’ पाल पहले,
फिर कुछ कहते हैं ॥ १८ ॥
ॐ नमः
पाठक-स्वरूप-
मङ्-गला-यस् स्वाहा ।
वैसे ही मंगल पाठ ।
रत पाठक जंगल पाठ ॥
सुमंगलोत्-तम क्या ? संशय ।
होगा ही मिथ्यातम क्षय ॥ १९ ॥
ॐ नमः
पाठक-मङ्-गलोत्-
तमा-यस् स्वाहा ।
जर्रा न बोझ सर ।
माँ पद सरोज सर ।
गुण मंगलोत्-तमम्,
मथ पाठ ओज अर ॥ २० ॥
ॐ नमः
पाठक-गुण-लोकोत्-
तमा-यस् स्वाहा ।
पाठक जिस पाटे बैठे ।
जो पीछि कमण्डल लेते ॥
वह भी जब सुमंगलोत्तम ।
क्या करें देह चर्चा हम ॥ २१ ॥
ॐ नमः
पाठक-द्रव्य-लोकोत्-
तमा-यस् स्वाहा ।
जहाँ मान नहीं है ।
सही ज्ञान वही है ॥
नमः ज्ञान पाठका ।
रमा ज्ञान साधका ॥ २२ ॥
ॐ नमः
पाठक-ज्ञाना-यस् स्वाहा ।
मन मानी नाहीं ।
सर माँ अवगाहीं ॥
लोकोत्तम ज्ञाना ।
पाठक सम-भाना ॥ २३ ॥
ॐ नमः
पाठक-ज्ञान-
लोकोत्-तमा-यस् स्वाहा ।
दर्श प्रभू का होता है ।
हर्ष अनूठा होता है ।
उपाध्याय के दर्शन से,
दर्शन झूठा खोता है ॥ २४ ॥
ॐ नमः
पाठक-दर्शना-यस् स्वाहा ।
लोक उत्तम पाठक दर्शन ।
मोक्ष परचम ज्ञायक पर्शन ।
जयतु जय जय, जयतु जय जय,
धोक दृग नम साधक दर्पण ॥ २५ ॥
ॐ नमः
पाठक-दर्शन-
लोकोत्-तमा-यस् स्वाहा ।
आप दर्शन प्रगाढ़ ।
पाप कर्मन उखाड़ ॥
पुण्य वपन धर्म भूम ।
पाठ जयतु मात जूम् ॥ २६ ॥
ॐ नमः
पाठक-दर्शन-
स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
माथा ना शल खाता ।
मिथ्या न शल्य नाता ।
‘पाठक सम्यक्त्व नमः’
मंतर न किसे भाता ॥ २७ ॥
ॐ नमः
पाठक-सम्यक्-त्वा-यस् स्वाहा ।
दश विध सम्यक् दर्शन है ।
प्रद निध पाठक प्रवचन है ॥
समकित गुण स्वरूप पाठी ।
बिन लाठी, पद छिन घाटी ॥ २८ ॥
ॐ नमः
पाठक-सम्यक्त्व-
गुण-स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
शक्ति छुपाना आता ना ।
बगुला भक्ती नाता ना ॥
पाठक वीर्य अनोखा है ।
पिटार गुण रत्नों का है ॥ २९ ॥
ॐ नमः
पाठक-वीर्या-यस् स्वाहा ।
बड़ा कठिन है दर्शन अपना ।
टूक नामधर सन्तन सपना ॥
पाठक गुण वीरज खुद भाँती ।
थाती स्वानुभूति परिपाटी ॥ ३० ॥
ॐ नमः
पाठक-वीर्य-गुणा-यस् स्वाहा ।
स्वाध्याय सतत् ।
काषाय विरत ।
धन ! पाठ वीर्य,
पर्याय जयत ॥ ३१ ॥
ॐ नमः
पाठक-वीर्य-पर्याया-यस् स्वाहा ।
जाने कैसा शरीर पाया ।
टिकना दिवाल न स्वप्न भाया ॥
माया सब पाठक वीर्य द्रव्य ।
संशय न पाठ आसन्न भव्य ॥ ३२ ॥
ॐ नमः
पाठक-वीर्य-द्रव्या-यस् स्वाहा ।
श्रुत जल बाहु-बल तर आय ।
पाठक वीर्य गुण पर्याय ॥
जय हो पाठका थारी ।
करुणा क्षमा भण्डारी ।
‘रे महिमा ज्ञान बलिहारी ॥ ३३ ॥
ॐ नमः
पाठक-वीर्य-
गुण-पर्याया-यस् स्वाहा ।
सम दर्शन पर्याय प्रकट हो ।
होना बस उवझाय निकट भो ! ॥
आओ पूजन पाठ रचायें ।
गुण सिद्धों के आठ रिझायें ॥ ३४ ॥
ॐ नमः
पाठक-दर्शन-
पर्याया-यस् स्वाहा ।
सम दर्शन के हस्ताक्षर हैं ।
चलते फिरते जिन शास्तर हैं ॥
आओ पूजन पाठ रचायें ।
गुण सिद्धों के आठ रिझायें ॥ ३५ ॥
ॐ नमः
पाठक-दर्शन-पर्याय-
स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
निशि दिन श्रुत मंथन में लागे ।
अंजन मन-रंजन परित्यागे ॥
आओ पूजन पाठ रचायें ।
गुण सिद्धों के आठ रिझायें ॥ ३६ ॥
ॐ नमः
पाठक-ज्ञान-
द्रव्या-यस् स्वाहा ।
जिन नायक चरणा ।
धन ! ज्ञायक तरणा ॥
नुति पाठक शरणा ।
यति, साधक श्रमणा ॥ ३७ ॥
ॐ नमः
पाठक-शरणा-यस् स्वाहा ।
पन-बीस मूलगुण धारी ।
निश दीस सजग बलिहारी ।
जय पाठ पाठका जय हो,
क्षय हो अख विषय खुमारी ॥ ३८ ॥
ॐ नमः
पाठक-गुण-
शरणा-यस् स्वाहा ।
सदा लगा रहता गुंजार ।
जाननहार-जाननहार ।
शरण ज्ञान गुण उवझाया,
निरसन माया जय जयकार ॥ ३९ ॥
ॐ नमः
पाठक-ज्ञान-गुण-
शरणा-यस् स्वाहा ।
नयन पाटी निरसन ।
करुण लाठी बिन धन ! ।
आप भाँत कद काठ,
शरण पाठी दर्शन ॥ ४० ॥
ॐ नमः
पाठक-दर्शन-
शरणा-यस् स्वाहा ।
कर दर्शन उवझाया ।
याद स्वरूप भुलाया ॥
कौन न देगा धोक ।
देख, विनत तिहु लोक ॥ ४१ ॥
ॐ नमः
पाठक-दर्शन-स्वरूप-
शरणा-यस् स्वाहा ।
सुदृग-धर सम-रस-सानी ।
तभी दुनिया दीवानी ।
मुक्ति रानी भी इनकी,
इन्हीं की शिव रजधानी ॥ ४२ ॥
ॐ नमः
पाठक-सम्यक्त्व-
शरणा-यस् स्वाहा ।
दृढ़ निमित्त सम दर्शन ।
पाठक चरणस्-पर्शन ॥
बर्षण सुधा अहा ‘रे ।
विषयन क्षुधा संहारे ॥ ४३ ॥
ॐ नमः
पाठक-सम्यक्त्व-
स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
गोद माँ श्रुत बैठें ।
और भीतर पैठें ॥
समय न लगे पता ।
पाठ धन ! वीरता ॥ ४४ ॥
ॐ नमः
पाठक-वीर्य-
शरणा-यस् स्वाहा ।
भागीरथ पुरुषार्थ ।
आपेक्षित विद्यार्थ ॥
पाठक वीर्य स्वरूप ।
शरण एक चिद्रूप ॥ ४५ ॥
ॐ नमः
पाठक-वीर्य-स्वरूप-
शरणा-यस् स्वाहा ।
जिन होना आसान बड़ा ।
वन रो ना, आशा न बढ़ा ।
शरण वीर्य परमातम पाठ,
छिन खो ना, आ…शान बढ़ा ॥ ४६ ॥
ॐ नमः
पाठक-वीर्य-परमात्म-
शरणा-यस् स्वाहा ।
छोड़-छाड़ संग क्षार ।
उठी मन तरंग मार ।
पाठ जयतु पाठका,
धार द्वादशांग पार ॥ ४७ ॥
ॐ नमः
पाठक-द्वादशाङ्ग-
शरणा-यस् स्वाहा ।
अमिताभ ।
तज लाभ ।
दश पूर्व ।
दिश् पूर्व ।
बढ़ आभ ।
यत पाठ ।
जय नाद ॥ ४८ ॥
ॐ नमः
पाठक-दश-
पूर्वाङ्-गा-यस् स्वाहा ।
पूर्व चार दश पाठी जै ।
सूर्य न्यार कद काठी जै ।
जयतु पाठ जय, जयतु पाठका,
तूर्य, चौंर परिपाटी जै ॥ ४९ ॥
ॐ नमः
पाठक-चतुर्दश-
पूर्वाङ्-गा-यस् स्वाहा ।
धार अंग आचार ।
यति आदर्श कतार ।
जयतु पाठ, जयतु पाठका,
भाँत स्वयं जयकार ॥ ५० ॥
ॐ नमः
पाठका-चाराङ्-गा-यस् स्वाहा ।
साधु पञ्चाशती
बहे करुणा रग में ।
न चाहें सुख मग में ।
साधु जितने जग में ।
उन्हें मेरा वन्दन,
झुका के माथ नयन ॥ ०१ ॥
ॐ नमः
सर्व-साधुभ्यो स्वाहा ।
आठ बीस मूल गुण ।
और चीज धूल, सुन ॥
धन्य साध-साधना,
पुण्य आप सा घना ॥ ०२ ॥
ॐ नमः
सर्व-साधु-
गुणेभ्यो स्वाहा ।
मूल उत्तर गुण पालें ।
भूल, नत क्षमा मँगा लें ।
साध धन ! धन्य ! साधना,
भूल रत गले लगा लें ॥ ०३ ॥
ॐ नमः
सर्व-साधु-
गुण-स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
कमल भिन्न जल फबते हैं ।
पीछि कमण्डल रखते हैं ।
साध साधना निरत सभी वे,
सब-दुख संकट हरते हैं ॥ ०४ ॥
ॐ नमः
सर्व-साधु-
द्रव्या-यस् स्वाहा ।
सातिशयी पुन धनी ।
निरखी जो…वन वनी ।
धन्य ! साध-साधना,
लग कतार गुण गुणी ॥ ०५ ॥
ॐ नमः
सर्व-साधु-
गुण-द्रव्या-यस् स्वाहा ।
ज्ञान गगन छू रहा ।
क्षमा यथा भू कहाँ ॥
धन्य ! साध-साधना,
मान ना गुमान ना ॥ ०६ ॥
ॐ नमः
साधु-ज्ञाना-यस् स्वाहा ।
श्रद्धा अनूठी है ।
झिर खून फूटी है ॥
फिर भी रत लुंचन में ।
तन मृणमय, मैं चिन्मय ॥
धन्य ! साध-साधना ।
विवर्जित विराधना ॥ ०७ ॥
ॐ नमः
साधु-दर्शना-यस् स्वाहा ।
उदर दाढ़ी ।
उमर बाली ॥
वन उतारी ।
घुँघर वाली ॥
जु लट काली ।
धन्य ! साध-साधना ।
कोटि कोटि वन्दना ॥ ०८ ॥
ॐ नमः
साधु-वीर्या-यस् स्वाहा ।
भ्रमता क्रोधी ।
ममता खो दी ।
समता बोधी, राखा पानी ॥
रमता जोगी, बहता पानी ।
कह बढ़ चाले, साधु निराले ।
सिर्फ कमण्डल पीछि वाले ॥ ०९ ॥
ॐ नमः
साधु-द्रव्य-
भावा-यस् स्वाहा ।
कर पर कर रख चाले हैं ।
कर तर कर कब धारे हैं ।
सिर्फ न देह, नगन मन भी,
यूँ ही भगत न तारे हैं ॥ १० ॥
ॐ नमः
साधु-द्रव्य-
स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
पर…आय मान पीछे आये ।
काषाय-भाव खींचे लाये ॥
धन ! द्रव्य दृष्टि से जुड़ चाले ।
पर्याय दृष्टि से मुड़ चाले ॥ ११ ॥
ॐ नमः
साधु-द्रव्य-
पर्याया-यस् स्वाहा ।
द्रव्य पर्याय शुद्ध दृग चार ।
भागीरथ प्रयत्न इस बार ॥
साधना जयतु जयतु जय साध,
शगुण गुण संचय जय जयकार ॥ १२ ॥
ॐ नमः
साधु-द्रव्य-गुण-
पर्याया-यस् स्वाहा ।
साध सुमंगल-कार हैं,
साध अमंगल-हार ।
बनती सेवा साध लो,
साध स्वर्ग शिव द्वार ॥ १३ ॥
ॐ नमः
साधु-मङ्-गला-यस् स्वाहा ।
हमें मार्ग में यह मिले,
मंगल मूरत साध ।
कृष्ण पार्थ से कह चले,
विजय हमारे हाथ ॥ १४ ॥
ॐ नमः
साधु-मङ्-गल-
स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
सिवा साध यमराज से,
कौन बचाये और ।
जुड़े, जोड़ते आज से,
मंगलमय सिर मौर ॥ १५ ॥
ॐ नमः
साधु-मङ्-गल-
शरणा-यस् स्वाहा ।
स्वप्न भी दीख पड़े निर्ग्रन्थ ।
पंक्ति लग खड़े सुमंगल नंत ॥
फेर चाले कब उलटी माल ।
बाल वत् मन मुनि तन सुकमाल ॥ १६ ॥
ॐ नमः
साधु-दर्शन-
मङ्-गला-यस् स्वाहा ।
क्रिया प्रत्येक सिखाते हैं ।
चल मदरसों में आते हैं ॥
मात प्रवचन गोदी पाई ।
पढ़ाई पूर्ण अखर ढ़ाई ॥ १७ ॥
ॐ नमः
साधु-ज्ञान-
मङ्-गला-यस् स्वाहा ।
प्रथम नीति पालते ।
और फिर संभालते ॥
ज्ञान गुण सुमंगला ।
टूक कर्म श्रृंखला ॥ १८ ॥
ॐ नमः
साधु-ज्ञान-गुण-
मङ्-गला-यस् स्वाहा ।
खड़े शीत चौराहे आन ।
चढ़ गिर खड़े तपे जब भान ।
साध सुमंगल वीर्य वन्दना,
बारिश खड़े तले विरवान ॥ १९ ॥
ॐ नमः
साधु-वीर्य-
मङ्-गला-यस् स्वाहा ।
वेला, तेला तप तपें,
चमचम सूर्य ललाट ।
सबका हो मंगल जपें,
साधो ! हृदय विराट ॥ २० ॥
ॐ नमः
साधु-वीर्य-परम-
मङ्ग-गला-यस् स्वाहा ।
खाज खुजा चाले मृगा,
अविचल दूज सुमेर ।
पर दुख कातर नम दृगा,
साध जपत दुख ढेर ॥ २१ ॥
ॐ नमः
साधु-वीर्य-मङ्-गल-
गुणा-यस् स्वाहा ।
रम्भ, तिलोत्तम उर्वशी,
दृष्टि नासिका देख ।
लौटीं, बन पातर हँसी,
साध भाँत-खुद एक ॥ २२ ॥
ॐ नमः
साधु-वीर्य-
द्रव्या-यस् स्वाहा ।
वस्त्र उतारे, केश उखाड़े ।
जो…वन पाँत अलग जग ठाड़े ॥
काय वच मना, साध वन्दना ।
एक साध लोकोत्तम न्यारे ॥ २३ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-
तमा-यस् स्वाहा ।
नाता निद्रा से तोड़ा ।
मुख पर निंदा से मोड़ा ॥
जोड़ा बेजोड़ा अबकी ।
धुन लोकोत्तम गुण कब की ॥ २४ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
गुणा-यस् स्वाहा ।
हित लाभ अखर पलटाये ।
बस करना भला सुहाये ॥
गुण लोकोत्तम अपने से ।
जिन आगे बौने पैसे ॥ २५ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
गुण-स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
तन काने-पौडे समा,
बो चाले भू धर्म ।
साध धर्म लोकोत्तमा,
मात्र पात्र शिव शर्म ॥ २६ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
द्रव्या-यस् स्वाहा ।
तन पावन तीन रतन ।
मन पावन क्षीण मदन ॥
यति द्रव्य लोक उत्तम ।
हित भव्य, धोक दृग-नम ॥ २७ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
द्रव्य-स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
मुफ्त इत्र सा मिल चले,
संतों से सन्तोष ।
बात किसे क्यों कर खले,
चल श्रुत कोश, सहोश ॥ २८ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
ज्ञाना-यस् स्वाहा ।
क्यों न प्रभावित हो धरा,
कथनी करनी एक ।
साध ज्ञान लोकोत्तमा,
तट वैतरनी लेख ॥ २९ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
ज्ञान-स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
ऋषि, मुनि, यति, अनगार का,
दर्शन उत्तम लोक ।
तीर दिखे संसार का,
कौन न देगा धोक ॥ ३० ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
दर्शना-यस् स्वाहा ।
साधु ध्यान लोकोत्तमा,
दूर सुदूर निदान ।
रीझेगी केवल रमा,
कहाँ दूर निर्वाण ॥ ३१ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
ध्याना-यस् स्वाहा ।
रहते सदा स्वभाव में,
टिका नाक पे आँख ।
जा पहुँचूँ शिव गाँव में,
लो नौका निज राख ॥ ३२ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
धर्मा-यस् स्वाहा ।
धर्म कहाँ ? धार्मिक बिना,
सूक्ति ख्यात जग तीन ।
धर्म साधना निश दिना,
साध स्वात्म संलीन ॥ ३३ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
धर्म-स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
सुनते, क्लेश नरेश को,
घर बाहिर क्या पाँव ।
धार दिगम्बर भेष को,
साध चले शिव गाँव ॥ ३४ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
वीर्या-यस् स्वाहा ।
भले पिलें घानी विषैं,
तदपि न निकले चीख ।
भिक्षुक ! ओढ़े दिश् लसें,
माँगत दिखे न भीख ॥ ३५ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
वीर्य-स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
आसामी बड़ सेठिया,
रगड़ें पाँवन नाक ।
श्वास बुझे क्यों कर दिया,
बैठ न काटें साख ॥ ३६ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तमा-तिशय-
सम्पन्-ना-यस् स्वाहा ।
राज हंस में आते ।
परम ब्रह्म कहलाते ।
वज्र बता निज छाती,
शत्रु लात सहलाते ॥ ३७ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
ब्रह्म-ज्ञाना-यस् स्वाहा ।
साध ब्रह्म ज्ञानी ।
रखें बचा पानी ॥
हो हानी कैसे ? ।
स्त्री न पास पैसे ॥ ३८ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
ब्रह्म-ज्ञान-स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
यत यत्नाचारी ।
जित चितवन नारी ॥
लोकोत्तम जिन साध ।
मोख यत्न दिन रात ॥ ३९ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
ज्ञाना-यस् स्वाहा ।
सुन लेते मुनि बात दो,
सुना न आते चार ।
क्यों कर दो दो हाथ भो !
बैठे कर कर धार ॥ ४० ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
गुण-सम्पन्-ना-यस् स्वाहा ।
लोक विरुद्ध कदम न उठाते ।
यदपि शुद्ध जो कृत अपनाते ।
पौरुष जगा साध जगराता,
सूरज को कह उठो, जगाते ॥ ४१ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
पुरुषा-यस् स्वाहा ।
कहें देखते ही दुखियारा ।
बेटा करो पुण्य निज गाड़ा ॥
झील पनील आँख बलिहारी ।
तभी पुजारी दुनिया सारी ॥ ४२ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
शरणा-यस् स्वाहा ।
सहज निराकुलता घनी,
पीछि कमण्डल हाथ ।
धोक देत बिगड़ी बनी,
शगुन मुहूरत साध ॥ ४३ ॥
ॐ नमः
साधु-लोकोत्-तम-
गुण-शरणा-यस् स्वाहा ।
साध दर्शन, भाँत दर्पन ।
गीड़ निर्सन, नीड़ पर्शन ।
साधु अपने से निराले,
किया अर्पण जिया हर्षण ॥ ४४ ॥
ॐ नमः
साधु-दर्शन-
शरणा-यस् स्वाहा ।
धन ! निर्ग्रन्थ श्रमण ।
चित् चैतन्य शरण ॥
साध द्रव्य गुण एक ।
हाथ मेर अभिषेक ॥ ४५ ॥
ॐ नमः
साधु-गुण-द्रव्य-
शरणा-यस् स्वाहा ।
प्रकटे केवल दीव ।
फिर फिर ज्ञान करीब ।
आत्म ज्ञान संलीन,
साँझन तीन सदीव ॥ ४६ ॥
ॐ नमः
साधु-ज्ञान-
शरणा-यस् स्वाहा ।
अगर जिन दर्शन पढ़ना ।
डगर मुनि दर्शन बढ़ना ॥
तीर्थ चल कहलाते हैं ।
कीर्ति पल सकुचाते हैं ॥
धन्य ! धन ! धन्य ! मुनिगणा ।
वन्दना नन्त वन्दना ॥ ४७ ॥
ॐ नमः
साधु-दर्शन-
स्वरूपा-यस् स्वाहा ।
कर बन्द अक्ष मन दरवाजा ।
पैठे जा भीतर मुनि राजा ॥
इक शरण आतमा जग दोई ।
जग मित्र साध न शत्रु कोई ॥ ४८ ॥
ॐ नमः
साधु-आत्म-
शरणा-यस् स्वाहा ।
लक्ष जिनने पाया ।
पक्ष खोकर माया ॥
हाथ परमात्म शरण ।
राधिका स्वात्म रमण ॥
श्रमण धन ! धन ! श्रमण ॥ ४९ ॥
ॐ नमः
साधु-परमात्म-
शरणा-यस् स्वाहा ।
कीं जिननें वश में आँखें ।
धन ! आँखें पद्मा पाँखें ॥
वे शरण जितात्म जिन्हें हैं ।
हम करते नमन उन्हें हैं ॥ ५० ॥
ॐ नमः
साधु-जितात्म-
शरणा-यस् स्वाहा ।
महा-अर्घ
जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प खिला ।
चरु, दीप, धूप, फल, अर्घ मिला ॥
लाया हूँ प्रभो ! चढ़ाने को ।
सुख सिद्ध ‘निराकुल’ पाने को ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
*जाप*
असि आ उसा
नमः
(मंत्र का १०८ जाप करें।)
जयमाला
पाहन-सोना सोना जैसे ।
पामर पावन होना वैसे ॥
गुण अगणंता, अवगुण हंता ।
जयतु जयतु जय सिद्ध अनंता ॥ ०१ ॥
आतम भोगे फल करनी का ।
मेंट कर्म, तट वैतरनी का ॥
हिरनी सा थमना अभिनंदा ।
जयतु जयतु जय सिद्ध अनंता ॥ ०२ ॥
ले रत्नत्रय खड़ग दुधारा ।
पाप समापन एक प्रहारा ॥
सहसा गुण अष्टक प्रकटन्ता ।
जयतु जयतु जय सिद्ध अनंता ॥ ०३ ॥
जाना युगपत् युगपत् देखा ।
लोकालोक, ढोक अभिलेखा ॥
निराबाध इक हट आनंदा ।
जयतु जयतु जय सिद्ध अनंता ॥ ०४ ॥
स्वभाव ऊ-रध गमन अनोखा ।
लगा समय जा पहुँचे मोखा ॥
लौट बिना, कब घृत पय-पंथा ।
जयतु जयतु जय सिद्ध अनंता ॥ ०५ ॥
किंचित् न्यून शरीर अखीरी ।
यदपि अकार तदपि अशरीरी ॥
सुख अगम्य निर्दोष भदन्ता ।
जयतु जयतु जय सिद्ध अनंता ॥ ०६ ॥
अपने जैसा सुख सिद्धों का ।
आत्म जन्य अविनश्वर चोखा ॥
गुड़ गूंगन अनुभव मानिन्दा ।
जयतु जयतु जय सिद्ध अनंता ॥ ०७ ॥
विरथा अशन क्षुध् निवारण जो ।
विरथा सुमन इतर पावन जो ॥
शैय्या व्यर्थ नींद जयवंता ।
जयतु जयतु जय सिद्ध अनंता ॥ ०८ ॥
व्याह राधिका शिव पथ राही ।
सयत्न मुक्ति राधिका व्याही ॥
वर्तमान शिव राधा कन्ता ।
जयतु जयतु जय सिद्ध अनंता ॥ ०९ ॥
कर्म नाश, दुख क्षय हो स्वामी ।
होऊँ निधि जिन गुण आसामी ॥
साधूँ सु…मरण बन निर्ग्रन्था ।
जयतु जयतु जय सिद्ध अनंता ॥ १० ॥
ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं
अ सि आ उ सा
अप्-प्रति-चक्रे फट्
वि-चक्राय झ्रौं झ्रौं नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
*श्री सरसुति-मंत्र*
ॐ ह्रीम्
अर्हन् मुख कमल-वासिनि
पापात्म क्षयंकरि
श्रुत-ज्ञान
ज्वाला सहस्र प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति !
मत् पापम् हन हन दह दह
क्षाम् क्षीम् क्षूम् क्षौम् क्षः
क्षीरवर-धवले
अ-मृत-संभवे
वम् वम् हूम् फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।१।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।२।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।३।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
आरती
आओ भक्ता आओ ‘रे ।
अपना भाग जगाओ ‘रे ।
दीवा घृत भर लाओ ‘रे ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान की ।
सिद्ध यन्त्र करुणा निधान की ।।
आरति कर हरषाओ ‘रे ।
आओ भक्ता आओ ‘रे ।।
दुखियारिन रानी मैना ।
चैन-करार न दिन-रैना ।
देख-देख पति की पीड़ा,
बस ढोले पानी नैना ।।१।।
जा पहुंची जिन मन्दरिया ।
दिखे साधु जिन मन-दरिया ।
मिल चाला कोई अपना,
झल चाला नयनन दरिया ।।२।।
अपना पुण्य करो गाढ़ा ।
मुनि बोले अशीष म्हारा ।
धारा सिद्ध-यंत्र ढारो,
कार्तिक, फागुन, आसाढ़ा ।।३।।
आया पर्व अठाई है ।
पूजन सिद्ध रचाई है ।
गन्धोदक ले सिर माथे,
कर्म निकाच विदाई है ।।४।।
पापोदय पलटी खाया ।
काम-देव कंचन काया ।
गूँजा ‘सति मैना सुन्दर’,
धरती-अम्बर जयकारा ।।५।।
मोती नयन झिराओ ‘रे ।
श्रद्धा सुमन चढ़ाओ ‘रे ।
मिलकर कीरति गाओ ‘रे ।
सिद्ध चक्र मण्डल विधान की ।
सिद्ध यन्त्र करुणा निधान की ।।
आरति कर हरषाओ ‘रे ।
अपना भाग जगाओ ‘रे ।।६।।
सर्व-विघ्न-शान्ति मंत्र
नमोर्-ऽहते भग-वते
प्र(क्)-क्षी-णाशेष दोष कल्-मषाय
दिव्य तेजो मूर्-तये
श्री शान्ति-नाथाय शान्ति-कराय
सर्व विघ्न(प्) प्र-णा-शनाय
सर्व रोगाप मृत्यु वि-ना-शनाय
सर्व पर कृच्-छु(द्)-द्रो-प(द्)-द्रव वि-ना-शनाय
सर्वा-रिष्ट शान्ति-कराय
ॐ ह्राम् ह्रीम् ह्रूम् ह्रौम् ह्रः
अ, सि, आ, उ, सा नमः
मम सर्व विघ्न शान्तिम्
कुरु कुरु
मम सर्व रोगाप-मृत्यु शान्तिम्
कुरु कुरु
मम सर्व पर कृच्-
छु(द्)-द्रो-प(द्)-द्रव शान्तिम्
कुरु कुरु
मम सर्वा-रिष्ट-शान्तिम्
कुरु कुरु
मे तुष्टिम् पुष्टिम् च कुरु कुरु
ते तुष्टिम् पुष्टिम् च कुरु कुरु
ते मे तुष्टिम् पुष्टिम् च कुरु कुरु
स्वाहा, स्वाहा, स्वाहा
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