उत्तम तप धर्म विधान
*समर्पण भावना*
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
टूट चली चिर निद्रा,
जुड़ चली अपूर्व जाग ।
चीर घना अंधकार,
एक जग उठा चिराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
हाथ लगी कस्तूरी,
दूर दिखी दौड़-भाग ।
यादें अवशेष द्वेष,
चित् खाने चार राग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
भँवरे-सा पहर-पहर,
पिऊँ स्वानुभव पराग ।
अहा ! साँझ से पहले,
प्रकट हो चला विराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
पंच मेरु पूजन अर्घ
प्रथम सुदर्शन नाम,
विजय, अचल, मंदर तथा ।
विद्युन्-माल ललाम,
पंच मेरु हरते व्यथा ॥
वन इक-इक दिश चार,
वन-वन जिन गृह एक ।
षोडश अकृतिम न्यार,
नुति सविनय सर टेक ॥
जल दो, ढाई द्वीप,
मिल अस्सी जिन धाम ।
होने वजनी सीप,
डबडब नैन प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनप्रतिमा-समूह !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
जल, गन्धा-क्षत, पुष्प, चर,
दीप, धूप, फल, अर्घ ।
भेंटूँ, मेंटूँ अघ-तिमर,
भेंटो स्वर्ग-पवर्ग ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
सोलह कारण भावना पूजन
भावना षो-डसि अनूठी ।
प्रकृति तीर्थंकर विभूती ॥
आन पड़ती आप झोरी ।
पूजते आ सखी ओ ‘री ॥
करें सविनय आह्-वानन ।
हृदय वेदी करें थापन ॥
और सन्निधिकरण न्यारा ।
करें, ले जुग नयन धारा ॥
रोम पुलकित गात ले के ।
बोल गदगद साथ ले के ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
दूसरे सब काम छोड़ी ।
पूजते आ सखी ओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणानि !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
दिल दुखाना खूब आता ।
जुड़े क्यों कर डूब नाता ॥
डूब विरली हाथ आये ।
गंग गगरी साथ लाये ॥
है मुझे विश्वास पूरा,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाथ
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
झूठ जब तब बोल आता ।
रहे रूठी क्यों न साता ॥
निराकुलता हाथ आये ।
गंध कलशा साथ लाये ॥
है मुझे पूरा भरोसा,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
संसार ताप विनाशनाथ
चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा ॥
चीज इस उस चुरा लाता ।
लगे क्यों ना दुक्ख ताँता ॥
सौख्य शाश्वत हाथ आये ।
सार्थ अक्षत साथ लाये ॥
आश है विश्वास मुझको,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
अक्षयपद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥
आँख वश में रख न पाता ।
हाय ! मुँह की खा लजाता ॥
आत्म गौरव हाथ आये ।
सुमन सौरभ साथ लाये ॥
और मन कह रहा मेरा,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
कामबाण-विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥
शब्द ‘परि-ग्रह’ मौन बोले ।
सुन, समझ हम बने भोले ॥
हंस बुद्धी हाथ आये ।
नव्य चरु घी साथ लाये ॥
कई बारी कहा माँ ने,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
क्षुधारोग-विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
शब्द जब तब गरम बोलूँ ।
नीर कम, मैं अधिक खौलूँ ॥
सीप अद्भुत हाथ आये ।
दीप अनबुझ साथ लाये ॥
मुख सुना हर-बोल मैंने,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
बर्फ बनता, जल दबाता ।
ऊँट नीचे ‘गिर’ दिखाता ॥
नूप सरगम हाथ आये ।
धूप अनुपम साथ लाये ॥
वेद, शास्त्र, पुराण कहते,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
अष्टकर्म-दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
मुखौटे ऊपर मुखौटा ।
तन अनोखे मनस् खोटा ॥
सरलता चित हाथ आये ।
फल सभी ऋत साथ लाये ॥
वचन दैगम्बर न झूठे,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
महा मोक्षफल-प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥
लोभ लालच गृद्धता मन ।
रहे कैसे स्वच्छ दामन ॥
भव्य पगड़ी हाथ आये ।
द्रव्य शबरी साथ लाये ॥
सभा शच-पत साँच खोले,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
सोलह कारण भावना
विधान अर्घ
दोहा
सोलह कारण भावना,
भाये बिना न मोख ।
गाढ़ा पुण्य कि हो चले,
अलग अलग दूं धोक ॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
भजो भावना सोलह कारण ।
भव का होता नाश है ॥
दरश विशुद्धि भावना भाई ।
झोरी प्रकृति तीर्थ-कर आई ।
शचि-पति होता दास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धि भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
भा…वन सम्पन्-नता विनय चुन ।
चुनर सितार जड़े सतिशय पुन ।
कर्मन होता ह्रास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नता भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
भा…वन निरति-चार व्रत शीला ।
कर्म निरंकुश पाँव नकीला ।
तट हट होता पास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं निरतिचार शीलव्रत भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
भा…वन ज्ञान अभीक्ष्ण धारी ।
निकट भव्य ! दिव-शिव अधिकारी ।
अनुभव होता खास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
आ संवेग भावना भाते ।
भव सागर, खुर-गाय बनाते ।
भी…तर होता वास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं संवेग भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
त्याग शाक्तिश: भा…वन सीझी ।
नगरी मुक्ति राधिका रीझी ।
टूकन होता पाश है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्याग भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
भव्य शक्तिश: तप भा…वन भा ।
लो सार्थक अन्-तरंग मनवा ।
झोरी होता पार्स है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्तप भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
साध समाध अनूठी भा…वन ।
गद हर मृतु, ‘जर’-बूटी जामन ।
दल खल होता ग्रास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं साधुसमाधि भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
भा…वन वैय्या-वृत्त कारणी ।
सुख प्रदायनी ! दुख निवारणी ! ।
सुरभित होता श्वास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरण भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
अर्हत् भक्ति भावना साधो ! ।
आती आपद के पग बाँधो ।
नियोग होता रास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं अर्हद् भक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १० ॥
भा आचार्य भक्ति भा…वन तुम ।
माथ धरो शिव राजन् कुमकुम ।
मा…रग होता आर्ष है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं आचार्य भक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११ ॥
बहु श्रुत भक्ति भावना ज्योती ।
पूर्ण-प्रबुद्धि-भावना होती ।
मनहर होता पार्श्व है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं बहुश्रुतिभक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १२ ॥
प्रवचन भक्ति भावना विरली ।
गिरी नारियल सार्थक गिर ली ।
शत्तुर होता ताश है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १३ ॥
भा…वन अपरि-हाणि आवश्यक ।
प्रद संज्ञान, चरित, दृग सम्यक् ।
कभी न होता हास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणि भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १४ ॥
भा…वन मार्ग प्रभावन ध्यायो ।
विभव स्वर्ग मन भावन पाओ ।
‘पर’ धन होता घास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं मार्गप्रभावना भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १५ ॥
प्रवचन वत्सल भा…वन ओ ‘री ।
‘सहज-निराकुल’ परिणति गोरी ।
मिसरी होता भाष है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं प्रवचन-वात्सल्य भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १६ ॥
दोहा
सोलह कारण भावना,
भाने की बस देर ।
हाथ हाथ सौधर्म के,
महाभिषेक सुमेर ॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
दश लक्षण धर्म पूजन
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ ।।
हृदय वेदिका शुद्ध बनाओ ।
धर्म क्षमादिक दश पधराओ ।
आह्वानन संस्थापन सन्-निधी,
करके हरषाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्म !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
कड़वी तुमड़ी भले नहाओ,
कब मीठी होती ।
धर्म क्षमाद सिन्धु अवगाहो,
जगा आत्म ज्योति ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
गंग सिंध नदियों का पानी,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
दिशा दिशा महकाता चन्दन,
पर कड़वा होता ।
दो पाण्डव रख राग जरा सा,
लगा रहे गोता ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
पर्वत मलय सुगंधित चन्दन,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
संसार ताप विनाशनाय
चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा ॥
हटा ललाई, धान हो चली,
अपने सी धौरी ।
दौड़ा मृग कस्तूरी पीछे,
आखिर दम तोड़ी ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
धान कटोरे कण अनटूटे,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
अक्षयपद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥
धन ! कांटों के बीच फूल ये,
हॅंसी खुशी रहते ।
धन्य ! भरत, जल भिन्न कमल जग,
हम भी रह सकते ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
नन्दन-वन से पुष्प अनोखे,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
कामबाण-विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥
आटे ने घी गुड़ से मिल के,
रंग जमा लीना ।
सजग ना रहा, रहा स्वप्न बस,
वर्ष शंख जीना ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
छप्पन भोग सजा के थरिया,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
क्षुधारोग-विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
तिल तिल जल के स्वयं दिया ने,
किया उजाला है ।
ग्वाला सरसुत मात माथ रख,
मुनि बन चाला है ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
स्वर्ण दीप कर्पूरी बाती,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
चूरी धूप उन्हीं हाथों में,
खुशबू दे चाली ।
फल आये जैसे, वैसे ही,
झुक चाली डाली ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
चन्दन चूर अगर कस्तूरी,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
अष्टकर्म-दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
सार्थक नाम गिरी सुन श्रीफल,
महंगा हो चाला ।
मृत बिन भंवर कमल बिच भँवरा,
मदिर मोह हाला ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
जगत अकेला श्रीफल भेला,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
महा मोक्षफल-प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥
गंगा जल, मलयागिर चंदन,
अक्षत अनटूटे ।
दिव्य पुष्प, अरु चरु, मण दीपक,
गंध दश अनूठे ।।
श्री फल मिला द्रव्य सब आठों,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
दोहा
हैं स्वभाव अपने सखे,
उत्तम क्षमादि धर्म ।
बनती कोशिश पाल के,
पा लो दिव-शिव शर्म ।।
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
जयमाला
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।
किस ग्रन्थ न विस्तारे हैं ।।
दे क्रोध तसल्ली झूठी ।
है उत्तम क्षमा अनूठी ।।
करबद्ध देव ठाड़े हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
रख मान, ज्ञान सपने सा ।
उत्तम मार्दव अपने सा ।।
जश वांचे ऋषि सारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
छल छीनी शिव रजधानी ।
उत्तम आर्जव वरदानी ।।
नभ गूंजे जयकारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
पड़ लोभ नारकी जोना ।
है उत्तम शौच सलोना ।।
टकते चुनरी तारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
कह झूठ टूक विश्वासा ।
सत्-धर्म पूर्ण मन आशा ।।
प्रद चक्र सहस आरे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
वश आलस निज-निध दूरी ।
उत्तम संयम कस्तूरी ।।
करते वारे न्यारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
व्रत विरत जीव जग डोला ।
उत्तम तप धर्म अमोला ।।
मण अक्षर उजियाले हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
विष ‘विष’य शब्द इठलाता ।
धन ! त्याग धर्म एक त्राता ।।
भव जल तारण हारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
ग्रह परि-ग्रह रिश्तेदारी ।
आकिंचन धर्म प्रभारी ।।
अलकापुर गलियारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
बाहर कछु…आ, बहु धोखा ।
उत्तम ब्रम-चर्य अनोखा ।।
सुख ‘निराकुलम्’ द्वारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
दोहा
दश धर्मों को पाल के,
सूर बनें अरिहन्त ।
सिद्ध शिला फिर जा वसें,
वन्दन कोटि अनन्त ।।
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
दश धर्म अर्घ्य
उत्तम क्षमा धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम क्षमा प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
उत्तम मार्दव धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम मार्दव दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम मार्दव धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
उत्तम आर्जव धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम आर्जव दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम आर्जव धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
उत्तम शौच धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम शौच प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम शौच धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
उत्तम सत्य धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम सत्य प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम सत्य धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
उत्तम संयम धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम सयंम दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम सयंम धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
उत्तम तप धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम तप पिरदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम तप धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
उत्तम त्याग धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम त्याग प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम त्याग धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
उत्तम आकिंचन धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
धर्म अकिंचन दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम आकिंचन्य धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा ॥ ९ ॥
उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम ब्रह्म प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १० ॥
तप धर्म धारी
आचार्य छत्तीस अर्घ
बाल तप से मुँह मोड़ा ।
फाँसना भक्तन छोड़ा ।
प्रथम गणधर सन्मत पद,
आ चला दौड़ा दौड़ा ॥
ॐ ह्रीं श्री गणी गौतम मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
भव सागर सुखा दिया ।
दुनिया को सिखा दिया ॥
तप तपना बहि-रन्तर ।
जपना नुति पद मन्तर ॥
पथ-सुधर्मा दिखा दिया ।
भव सागर सुखा दिया ॥
ॐ ह्रीं श्री सुधर्म स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
डर ‘जम से’ जम से तप साधा ।
छोड़ अनेक एक आराधा ॥
मुक्ति राधिका परिणाई है ।
परिणति स्याही शरमाई है ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य जम्बू स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
स्वयं तपस्वी ।
शिष्य मनस्वी ॥
मुहूर्त अन्दर ।
साधित मन्तर ॥
छव तेजस्वी ।
भवि ! ओजस्वी ॥
स्वयं तपस्वी ।
शिष्य मनस्वी ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य धरसेन स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
मंत्र सिद्ध ओ ‘री ।
आ देवी बोली ॥
क्या आज्ञा भगवन् ? ।
निस्वारथ धन ! धन ! ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य पुष्पदंत स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
तपा-राधना ।
जाप साधना ।
भूत बल सजल,
पूर्ण कामना ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भूतबली मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
कहाँ चन्द ।
गुप्ति वन्त ॥
तीन बाह ! ।
भद्र राह ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भद्रबाहु स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
विरचे पाहुड चौरासी ।
लख जोनी मानो नाशी ॥
अधिशासी सुख निराकुलम् ।
रम पम पम तारा रम पम पम ॥
मंगलम् भगवान् वीरो,
मंगलम् गौतमो गणी ।
मंगलम् कुन्दकुन्दार्यो,
जैन धमोऽतु मंगलम् ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य कुंदकुंद मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
तप बाहर अन्तर् दूजे ।
तप सादर अम्बर गूँजे ॥
सार्थ सूत्र रच चाले हैं ।
सूत्र सूत्र शिव द्वारे हैं ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य उमा स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
त्याग तपस्या इक्कीसी ।
विरची थुति जिन चौबीसी ॥
नमन कहा बाबा चंदा ।
बाबा प्रकट विघट पिण्डा ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य समन्त भद्र मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १० ॥
‘सेन-देव’ रीझती ।
नैन रेव भींजती ॥
खींजती न परणती ।
जयतु जयतु संयती ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य देव सेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११ ॥
सोना तप नाता चोखा ।
मानव तप पाता मोखा ।
पूज्य-पाद जिन पूज्य बाद,
ना दिया स्वयं को धोखा ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य पूज्य पाद स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १२ ॥
खा धूप, वृक्ष छाया देता ।
तप नूप जीव ऊरध रेता ।
योगीन्द्र देव तट मोख खेव,
तप तपा, अक्ष-माया जेता ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य योगीन्दु देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १३ ॥
तपता सूर ।
मत्था नूर ।
सिद्ध सेन दिवाकर ॥
तप तप निशि वासर ।
वशि कस्तूर ।
जय जयतु तूर ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य सिद्ध सेन दिवाकर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १४ ॥
सोना पंक ।
रीता जंग ॥
जीता जंग ।
तप ‘अकलंक’ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य अकलंक देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १५ ॥
त्याग तपस्या कठिन ।
जयतु जयतु सेन जिन ॥
ग्रीष्म जा गिरी चढ़े ।
शीत चुराहे खड़े ॥
तरु तल बरसात छिन ।
त्याग तपस्या कठिन ।
जयतु जयतु सेन जिन ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य जिन सेन स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १६ ॥
तपे तपेली दूध गरम ।
तप विरले ‘री डूब परम ।
गुण भद्रा मुद्रा मुनि धर के,
रह ही न जाता दूर शिवम् ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य गुणभद्र स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १७ ॥
पहले तप अनुबंध हो ।
फिर विद्या आनन्द लो ॥
लहर लहर पनडूब फिर ।
जा पहुंचेगी ‘पूर-सिर’ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्या नन्द स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १८ ॥
तप माटी सिर सुराह टीका ।
तप के बिन भव मानव फीका ॥
सिंह वादीभ सूर तप तपना ।
अपना चर्या सिंह निर्भीका ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वादीभ सिंह सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १९ ॥
तपता फल अमरित दूजा ।
अमरन चन्द्र अमृत पूजा ॥
गूँजा तप तपसी जयकार ।
त्याग तपस्या नर भव सार ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य अमृत चंद्र सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २० ॥
बनना अगर वीर नन्दन ।
करो त्याग तप अभिनन्दन ॥
और न दूजी कायरता ।
कहे शब्द खुद काय…रता ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वीर नन्दी स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २१ ॥
चुन तप ।
धुन जप ॥
मणहर ।
गुणधर ॥
वन्दन ।
तपधन ॥
धन तप ।
वन्दन ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य गुणधर स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २२ ॥
गोमट जाये सीख तप ।
तप करते गुरू खूब जप ॥
तभी तपस्वी मूर्ति गढ़ी ।
नेमचन्द्र मुनि कीर्ति बड़ी ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य नेमिचंद्र स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २३ ॥
घिरत तप से ।
विरत जप से ॥
वृषभ यत गण ।
परब-रत धन ! ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य यति वृषभ सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २४ ॥
सन्त कैद करने वाला ।
बना नाहिं कारा-ताला ॥
त्याग तपस्या पाया फल ।
नृप नयनन भर लाया जल ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य मानतुंग देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २५ ॥
तप तपसी आधार ।
रचना मूलाचार ।
बिना तपे तप आने वाला,
चेहरे नहीं निखार ।
जय जयकार, जय जयकार, जय जयकार ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वट्टकेर सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २६ ॥
तपे नाज रख पाये लाज ।
वरना घुन लग जाये आज ।
न सुना, गुना, चुना भी,
जयतु नन्द माणिक महाराज ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य माणिक्य नन्दी देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २७ ॥
नाम न यूँ ही मिल चले,
देखा जाता काम ।
गुरु रवि लख भवि मन खिले,
यति रविषेण प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य रविषेण स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २८ ॥
तप में बढ़ चढ़े ।
जपते खड़े खड़े ॥
पर्वत नवकारा ।
आ भर…तर हारा ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य शुभ चंद्र स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २९ ॥
कुष्ठ रोग झर चाला है ।
असर त्याग-तप न्यारा है ॥
आदि आज जय, वादिराज जय ।
गूँजा नभ जयकारा है ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वादि राज सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३० ॥
कम अहार, ज्यादा उपवास ।
जैन समाज न यूँ ही दास ।
चर्चूँ चन्दन चरण शान्ति गुरु,
कर्मन ह्रास, सिर्फ अभिलाष ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य शांति सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३१ ॥
तप तप पंचम काल में ।
दिखा दिया हैं वीर ।
बाँध न क्यूँ नुति पाल मैं,
सहजो लागूँ तीर ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वीर सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३२ ॥
बिन तपे मलाई ना ।
सुन ! खोट विदाई ना ॥
घृत दूर अभी दिल्ली ।
न ‘शिव’, बन भीगी बिल्ली ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य शिव सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३३ ॥
आखर पलटा प…त राखी ।
छोड़ छाड़ ताका झाँकी ॥
की माँ की सेवा मन से ।
जुड़े अखीरी सुमरण से ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य ज्ञान सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३४ ॥
माथे सूरज तेज कह रहा ।
बड़े तपस्वी तुम ।
मूकमाटि प्रति पेज कह रहा,
सन्त मनस्वी तुम ॥
तुम वक्ता ओजस्वी जनहित ।
किये कार्य कहते ।
सुमरण संस्तर सेज कह रहा,
एक यशस्वी तुम ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्या सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३५ ॥
स्वपर साधते गुजर रहे हैं,
आठों पहर तुम्हारे ।
जप तप चर्चा जा पहुंची है,
अलकापुर गलियारे ॥
शान्ति वीर शिव ज्ञान सूर धन !,
धन ! गुरु विद्या सागर ।
शिक्षा-दीक्षा देकर तुमको,
जुग जुग भाग संवारे ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य समय सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३६ ॥
घट जल, चन्दन, अक्षत दाने ।
चुन वन नन्दन पुष्प सुहाने ॥
व्यञ्जन, दीप, धूप, फल भेंटूँ ।
सूर आप जैसा तम मेंटूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सर्वा-चार्य परमेष्ठि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३७ ॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
उत्तम तप धर्म जयमाला
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।
पाल बाल तप पछताया भवदेव ।।
नाम एक भवदत्त रखा है ।
शिशु दूजे भवदेव कहा है ।।
इक दिन आगी घर में लागी ।
बच निकले बच्चे बढ़भागी ।।
छीन चला मां पिता किन्तु दुर्देव ।
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।।१।।
बड़े हुए, मेहनत रॅंग लाई ।
जेबों से ध्वनि खनखन आई ।।
कभी संघ-मुनि नगरी आया ।
उर भवदत्त विराग समाया ।।
नगन हुआ, गुरु चरण धुला दृग रेव ।
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।।२।।
कभी ग्राम इस निकला फिर से ।
मन आया लूँ भिक्षा घर से ।।
ज़श्न आज भवदेव सगाई ।
खुश था बड़ा अहार कराई ।।
पीछे मुनि कुछ दूर चला स्वयमेव ।
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।।३।।
क्यों भवदत्त ? कहें मुनि नाना ।
क्या इसको भी श्रमण बनाना ।।
मुनि भवदेव बना कहने से ।
जब तब जुड़े प्रिया सपने से ।।
इक दिन मोड़ चला घर तरफी खेव ।
पाल बाल तप पछताया भवदेव ।।४।।
मंदिर दिखा जहॉं कल घर था ।
लख प्रभु सेवारत इक वृद्धा ।।
कहॉं नागवसु ? पूछा उससे ।
चिर यौवन या रूठा उससे ।।
जीवित या बन चाली काल कलेव ।
पाल बाल तप पछताया भवदेव ।।५।।
वृद्धा कहे नागवसु मैं ही ।
तुम्हें जान मुनि, देह विदेही ।।
मंदिर धन तुम खरच रचाया ।
पर न छोड़ पाये तुम माया ।।
साधा मुनि बन बारह बर्ष फरेव ।
पाल बाल तप पछताया भवदेव ।।६।।
हृदय छू चली प्रिया देशना ।
मोक्ष मार्ग बस नगन भेष ना ।।
मन अब नगन बनाऊँगा मैं ।
लगन निजात्म लगाऊॅंगा में ।।
अबकी जिनगुण सम्पद् करने जेब ।
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम तप पिरदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम तप धर्माय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-जिंयानज्-ज्वाला
स-ह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ॥
*विसर्जन पाठ*
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ॥
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ॥
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ॥
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ॥
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ॥
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ॥
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ॥
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ॥
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दिस ॥
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
आरती
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।
थाल सजाओ,
ज्योत जगाओ,
नाचो गाओ, धूम मचाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।
क्षमा धर्म की आरती पहली ।
सक्षम जिसने गुस्सा सह ली ।।
बोध जगाओ ।
क्रोध नशाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।१
उत्तम मार्दव आरती दूजी ।
छीने मान ज्ञान की पूँजी ।।
बुध कहलाओ ।
मद विहसाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।२
उत्तम आर्जव आरति तीजी ।
बस माया वश अँखियां भींजी ।
सुभट कहाओ ।
कपट मिटाओ ।।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।३।।
शौच धर्म की आरती चौधी ।
घटा न लोभ, रटी बस पौथी ।
लोभ घटाओ ।
लौं प्रकटाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।४।।
सत्य धर्म की आरती पंचा ।
झूठ बोल पद दूर विरंचा ।
सत कह जाओ ।
चित्त चुराओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।५।।
उत्तम संयम आरति छट्टी ।
आंख असंयम मोहन पट्टी ।
अलस हटाओ ।
दरश रिझाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।६।।
परमोत्तम तप आरति सप्तम ।
कर इच्छा निरोध गढ़ परचम ।
लगन लगाओ ।
तपन मिटाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।७।।
त्याग धर्म की आरति अष्टा ।
परिग्रह पीछे अरि ग्रह दुष्टा ।
राग मिटाओ ।
फाग मनाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।८।।
धर्म अकिंचन आरति नौवी ।
मेरा कुछ ना कह देखो भी ।
आतम ध्याओ ।
तम विघटाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।९।।
धर्म ब्रह्मचर आरति दशमी ।
छव ब्रह्मचर बढ़ सहस्र रशमी ।
भीतर आओ ।
जी’ तर आओ ।।
थाल सजाओ,
ज्योत जगाओ,
नाचो गाओ, धूम मचाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।१०।।
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