उत्तम संयम धर्म विधान
*समर्पण भावना*
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
टूट चली चिर निद्रा,
जुड़ चली अपूर्व जाग ।
चीर घना अंधकार,
एक जग उठा चिराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
हाथ लगी कस्तूरी,
दूर दिखी दौड़-भाग ।
यादें अवशेष द्वेष,
चित् खाने चार राग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
भँवरे-सा पहर-पहर,
पिऊँ स्वानुभव पराग ।
अहा ! साँझ से पहले,
प्रकट हो चला विराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
व्रत सुगन्ध दशमी पूजन
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
पाप घटाओ ।
पुण्य बढ़ाओ ।
आओ ‘री आओ ॥
व्रत सुगन्ध दशमी गुण गाओ ।
पूजन शीतल नाथ रचाओ ॥
दुगंधा की मनी दिवाली ।
देह सुगंधी से भर चाली ॥
और न बस यह व्रत था पाला ।
पाप निधत्त निकाचित टाला ॥
मत घबड़ाओ ।
व्रत दुहराओ ।
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
श्रीफल लाओ ।
दुख कह जाओ ॥
व्रत सुगन्ध दशमी गुण गाओ ।
पूजन शीतल नाथ रचाओ ॥
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
छाया दृग आगे अंधियारा ।
आन विपत ने द्वार निहारा ॥
हाथ जोड़ की आंख पनीली ।
पट खुल स्वयं सिद्ध सति नीली ॥
जल भर लाओ ।
जिनवर ध्याओ ।
मत घबड़ाओ ।
दुख कह जाओ ।
व्रत सुगन्ध दशमी गुण गाओ ।
पूजन शीतल नाथ रचाओ ॥
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्राय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आँख तरेरे संकट भारी ।
दृश्य भयंकर हृदय विदारी ॥
हाथ जोड़ बस अश्रु झिरा है ।
घट था साँप, हार निकला है ॥
घिस कर लाओ ।
गंध चढ़ाओ ।
मत घबड़ाओ ।
दुख कह जाओ ।
व्रत सुगन्ध दशमी गुण गाओ ।
पूजन शीतल नाथ रचाओ ॥
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्राय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
विघ्नों के बादल छाये हैं ।
हा ! अपनों ने अत ढ़ाये हैं ॥
हाथ जोड़ जिनवर जश साधा ।
बढ़ता गया चीर बिन बाधा ॥
अक्षत लाओ ।
पत रखवाओ ।
मत घबड़ाओ ।
दुख कह जाओ ।
व्रत सुगन्ध दशमी गुण गाओ ।
पूजन शीतल नाथ रचाओ ॥
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्राय
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।
हाय ! घड़ी संकट की आई ।
बेढ़ी डाल, मूड़ मुड़वाई, ॥
धार अश्रु दृग चन्दन लागी ।
सन्मत दर्शन दृग बड़भागी ॥
सु…मन बनाओ ।
सुमन चढ़ाओ ।
मत घबड़ाओ ।
दुख कह जाओ ।
व्रत सुगन्ध दशमी गुण गाओ ।
पूजन शीतल नाथ रचाओ ॥
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्राय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
झोरी हा ! दुर्दिन की छाया ।
जंतर मंतर मोहन माया ॥
सत सुलोचना अकाशवाणी ।
पाप भावना पानी पानी ॥
चरु घृत लाओ ।
अमृत मिलाओ ।
मत घबड़ाओ ।
दुख कह जाओ ।
व्रत सुगन्ध दशमी गुण गाओ ।
पूजन शीतल नाथ रचाओ ॥
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्राय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हृदय फटे दुख भारी ऐसा ।
अधम करम हा ! ऐसा कैसा ॥
तनिक न भयभीता सति सीता ।
आग बनी पानी सत् जीता ॥
ज्योति जगाओ ।
मोति भिंटाओ ।
मत घबड़ाओ ।
दुख कह जाओ ।
व्रत सुगन्ध दशमी गुण गाओ ।
पूजन शीतल नाथ रचाओ ॥
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्राय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
विघ्न उपद्रव संकट कम ना ।
आँख बनी जग गंगा जमुना ॥
श्रद्धा सत् मैना बेजोड़ी ।
कामदेव बढ़ छव पति कोढ़ी ॥
कपूर लाओ ।
धूप चढ़ाओ ।
मत घबड़ाओ ।
दुख कह जाओ ।
व्रत सुगन्ध दशमी गुण गाओ ।
पूजन शीतल नाथ रचाओ ॥
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्राय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
असहनीय हा ! पीर घनेरी ।
जीवन निशि घनघोर अंधेरी ॥
भक्ति अंजना सत बस संगी ।
चूर चूर शिल सुत बजरंगी ॥
फल द्रुम लाओ ।
नम्र चढ़ाओ ।
मत घबड़ाओ ।
दुख कह जाओ ।
व्रत सुगन्ध दशमी गुण गाओ ।
पूजन शीतल नाथ रचाओ ॥
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्राय
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अँखियन पानी सकृत चन्दन ।
अक्षत पुण्य सगुन गुल नन्दन ॥
स्वर व्यंजन दीपक मृदु वाणी ।
सुर…भी श्रीफल मुकलित पाणी ॥
स्वर्ग रिझाओ ।
अर्घ भिंटाओ ।
मत घबड़ाओ ।
दुख कह जाओ ।
व्रत सुगन्ध दशमी गुण गाओ ।
पूजन शीतल नाथ रचाओ ॥
आओ ‘री आओ ।
सखि ! आओ ‘री आओ ॥
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जयमाला
धन ! सुगन्ध दशमी व्रत पाला ।
तन दुर्गन्धा सुगन्ध वाला ॥
द्वीप द्वीप जम्बू मनहारी ।
शिव मंदिर नगरी इक न्यारी ॥
राजा नाम प्रियंकर नामी ।
रानी मनोरमा अभिरामी ॥
धर्म न जाने, कृत मन-माने ।
भँजा रही कृत पुण्य पुराने ॥
करे घमण्ड रूप-सी काया ।
जब तब बीड़ा पान चबाया ॥
मुनि सुगुप्त इक रोज पधारे ।
मुद्रा हित आहार बना ‘रे ॥
महल अटार खड़ी मतवाली ।
पान-पीक छोड़ी पिचकारी ॥
धिक् अहार अन्तराय डाला ।
लिख डाला कलि ‘पा…तर’ काला ॥
धन ! सुगन्ध दशमी व्रत पाला ।
तन दुर्गन्धा सुगन्ध वाला ॥
कोढ़ फूट चाला ‘रे तन में ।
थू थू हो चाली त्रिभुवन में ॥
ला पटकी वन में, दुख भोगा ।
रोग शोक आमरण संयोगा ॥
पा पर्याय गधी ना मानी ।
लात मार दी ‘पा…तर’ पाणी ॥
बनी शूकरी मैला खाया ।
कहाँ अपहरी ‘मैं’ हा ! माया ॥
भूसे बन कूकर की तिरिया ।
और और करती मन करिया ॥
पाप अभी बाकी है काफी ।
पाप सफाया कब बिन माफी ॥
जग-त्रि ‘गलती’ दृग जल डाला ।
‘भूला’ ओढ़ा क्षमा दुशाला ॥
धन ! सुगन्ध दशमी व्रत पाला ।
तन दुर्गन्धा सुगन्ध वाला ॥
विजय सेन राजा की रानी ।
नाम चित्र लेखा गुणधानी ॥
मरी कूकरी, सुता कहाई ।
सहन न यूँ दुर्गन्ध समाई ॥
यूँ न जानता कोई जग में ।
ख्यात सुता नृप दोई जग में ॥
कह दुर्गन्धा जगत् पुकारे ।
करो न गंदा कृत्य हहा ! ‘रे ॥
नम नैना जागृत दिन रैना ।
श्रमण पधारे सागर-सेना ॥
आ नृप तीन परि-क्रमा दीनी ।
बैठा चरण धूल सिर लीनी ॥
कह डाला दुख अपना सारा ।
टूट न रही सुता दृग धारा ॥
धन ! सुगन्ध दशमी व्रत पाला ।
तन दुर्गन्धा सुगन्ध वाला ॥
मुनि बोले बिटिया मत रोओ ।
जल नवकार पाप रज धोओ ॥
दशमी भादो सुदी अनोखी ।
देनहार सद्गुण रत्नों की ॥
पूजो शीतलनाथ जिनेशा ।
रख उपवास पूर्ण निर्दोषा ॥
हरष बरष दश करना छोरी ।
रख विश्वास भरेगी झोरी ॥
दृढ संकल्पित राज कुमारी ।
दुष्कृत पूर्व आज दिल भारी ॥
पाल चली व्रत, भर श्रद्धा से ।
सुर…भी बढ़ रजनी-गंधा से ॥
गूँजा त्रिभुवन जय जयकारा ।
सांचा प्रभु शीतल इक द्वारा ॥
धन ! सुगन्ध दशमी व्रत पाला ।
तन दुर्गन्धा सुगन्ध वाला ॥
दोहा
गलती सब से बन पड़े,
रोना धोना छोड़ ।
कान खींच, ले दृग भरे,
प्रीत प्रभो से जोड़ ॥
पंच मेरु पूजन विधान
प्रथम सुदर्शन नाम,
विजय, अचल, मंदर तथा ।
विद्युन्-माल ललाम,
पंच मेरु हरते व्यथा ॥
वन इक-इक दिश चार,
वन-वन जिन गृह एक ।
षोडश अकृतिम न्यार,
नुति सविनय सर टेक ॥
जल दो, ढाई द्वीप,
मिल अस्सी जिन धाम ।
होने वजनी सीप,
डबडब नैन प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनप्रतिमा-समूह !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
जल, गन्धा-क्षत, पुष्प, चर,
दीप, धूप, फल, अर्घ ।
भेंटूँ, मेंटूँ अघ-तिमर,
भेंटो स्वर्ग-पवर्ग ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु संबंधी जिन
चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
सोलह कारण भावना पूजन
भावना षो-डसि अनूठी ।
प्रकृति तीर्थंकर विभूती ॥
आन पड़ती आप झोरी ।
पूजते आ सखी ओ ‘री ॥
करें सविनय आह्-वानन ।
हृदय वेदी करें थापन ॥
और सन्निधिकरण न्यारा ।
करें, ले जुग नयन धारा ॥
रोम पुलकित गात ले के ।
बोल गदगद साथ ले के ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
दूसरे सब काम छोड़ी ।
पूजते आ सखी ओ ‘री ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणानि !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
दिल दुखाना खूब आता ।
जुड़े क्यों कर डूब नाता ॥
डूब विरली हाथ आये ।
गंग गगरी साथ लाये ॥
है मुझे विश्वास पूरा,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाथ
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
झूठ जब तब बोल आता ।
रहे रूठी क्यों न साता ॥
निराकुलता हाथ आये ।
गंध कलशा साथ लाये ॥
है मुझे पूरा भरोसा,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
संसार ताप विनाशनाथ
चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा ॥
चीज इस उस चुरा लाता ।
लगे क्यों ना दुक्ख ताँता ॥
सौख्य शाश्वत हाथ आये ।
सार्थ अक्षत साथ लाये ॥
आश है विश्वास मुझको,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
अक्षयपद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥
आँख वश में रख न पाता ।
हाय ! मुँह की खा लजाता ॥
आत्म गौरव हाथ आये ।
सुमन सौरभ साथ लाये ॥
और मन कह रहा मेरा,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
कामबाण-विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥
शब्द ‘परि-ग्रह’ मौन बोले ।
सुन, समझ हम बने भोले ॥
हंस बुद्धी हाथ आये ।
नव्य चरु घी साथ लाये ॥
कई बारी कहा माँ ने,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
क्षुधारोग-विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
शब्द जब तब गरम बोलूँ ।
नीर कम, मैं अधिक खौलूँ ॥
सीप अद्भुत हाथ आये ।
दीप अनबुझ साथ लाये ॥
मुख सुना हर-बोल मैंने,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
बर्फ बनता, जल दबाता ।
ऊँट नीचे ‘गिर’ दिखाता ॥
नूप सरगम हाथ आये ।
धूप अनुपम साथ लाये ॥
वेद, शास्त्र, पुराण कहते,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
अष्टकर्म-दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
मुखौटे ऊपर मुखौटा ।
तन अनोखे मनस् खोटा ॥
सरलता चित हाथ आये ।
फल सभी ऋत साथ लये ॥
वचन दैगम्बर न झूठे,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
महा मोक्षफल-प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥
लोभ लालच गृद्धता मन ।
रहे कैसे स्वच्छ दामन ॥
भव्य पगड़ी हाथ आये ।
द्रव्य शबरी साथ लाये ॥
सभा शच-पत साँच खोले,
रहेगी झोरी न खाली ॥
छटेगी निशि घोर काली ।
मनेगी हो ‘री दिवाली ॥
ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यो
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
सोलह कारण भावना
विधान अर्घ
दोहा
सोलह कारण भावना,
भाये बिना न मोख ।
गाढ़ा पुण्य कि हो चले,
अलग अलग दूं धोक ॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
भजो भावना सोलह कारण ।
भव का होता नाश है ॥
दरश विशुद्धि भावना भाई ।
झोरी प्रकृति तीर्थ-कर आई ।
शचि-पति होता दास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धि भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
भा…वन सम्पन्-नता विनय चुन ।
चुनर सितार जड़े सतिशय पुन ।
कर्मन होता हिरास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नता भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
भा…वन निरति-चार व्रत शीला ।
कर्म निरंकुश पाँव नकीला ।
तट हट होता पास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं निरतिचार शीलव्रत भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
भा…वन ज्ञान अभीक्ष्ण धारी ।
निकट भव्य ! दिव-शिव अधिकारी ।
अनुभव होता खास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
आ संवेग भावना भाते ।
भव सागर, खुर-गाय बनाते ।
भी…तर होता वास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं संवेग भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
त्याग शाक्तिश: भा…वन सीझी ।
नगरी मुक्ति राधिका रीझी ।
टूकन होता पाश है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्त्याग भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
भव्य शक्तिश: तप भा…वन भा ।
लो सार्थक अन्-तरंग मनवा ।
झोरी होता पार्स है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्तप भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
साध समाध अनूठी भा…वन ।
गद हर मृतु, ‘जर’-बूटी जामन ।
दल खल होता ग्रास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं साधुसमाधि भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
भा…वन वैय्या-वृत्त कारणी ।
सुख प्रदायनी ! दुख निवारणी ! ।
सुरभित होता श्वास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरण भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
अर्हत् भक्ति भावना साधो ! ।
आती आपद के पग बाँधो ।
नियोग होता रास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं अर्हंत भक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १० ॥
भा आचार्य भक्ति भा…वन तुम ।
माथ धरो शिव राजन् कुमकुम ।
मा…रग होता आर्ष है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं आचार्य भक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११ ॥
बहु श्रुत भक्ति भावना ज्योती ।
पूर्ण-प्रबुद्धि-भावना होती ।
मनहर होता पार्श्व है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं बहुश्रुतिभक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १२ ॥
प्रवचन भक्ति भावना विरली ।
गिरी नारियल सार्थक गिर ली ।
शत्तुर होता ताश है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्ति भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १३ ॥
भा…वन अपरि-हाणि आवश्यक ।
प्रद संज्ञान, चरित, दृग सम्यक् ।
कभी न होता हास है ।
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है ॥
ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणि भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १४ ॥
भा…वन मार्ग प्रभावन ध्यायो
विभव स्वर्ग मन भावन पाओ
‘पर’ धन होता घास है
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है
ॐ ह्रीं मार्गप्रभावना भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १५ ॥
प्रवचन वत्सल भा…वन ओ ‘री
‘सहज-निराकुल’ परिणति गोरी
मिसरी होता भाष है
भजो भावना सोलह कारण,
भव का होता नाश है
ॐ ह्रीं प्रवचन-वात्सल्य भावनायै नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १६ ॥
दोहा
सोलह कारण भावना,
भाने की बस देर
हाथ हाथ सौधर्म के,
महाभिषेक सुमेर
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
दश लक्षण धर्म पूजन
आओ ‘री आओ,
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ ।।
हृदय वेदिका शुद्ध बनाओ ।
धर्म क्षमादिक दश पधराओ ।
आह्वानन संस्थापन सन्-निधी,
करके हरषाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्म !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
कड़वी तुमड़ी भले नहाओ,
कब मीठी होती ।
धर्म क्षमाद सिन्धु अवगाहो,
जगा आत्म ज्योति ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
गंग सिंध नदियों का पानी,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
दिशा दिशा महकाता चन्दन,
पर कड़वा होता ।
दो पाण्डव रख राग जरा सा,
लगा रहे गोता ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
पर्वत मलय सुगंधित चन्दन,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
संसार ताप विनाशनाय
चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा ॥
हटा ललाई, धान हो चली,
अपने सी धौरी ।
दौड़ा मृग कस्तूरी पीछे,
आखिर दम तोड़ी ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
धान कटोरे कण अनटूटे,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
अक्षयपद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥
धन ! कांटों के बीच फूल ये,
हॅंसी खुशी रहते ।
धन्य ! भरत, जल भिन्न कमल जग,
हम भी रह सकते ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
नन्दन-वन से पुष्प अनोखे,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
कामबाण-विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥
आटे ने घी गुड़ से मिल के,
रंग जमा लीना ।
सजग ना रहा, रहा स्वप्न बस,
वर्ष शंख जीना ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
छप्पन भोग सजा के थरिया,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
क्षुधारोग-विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
तिल तिल जल के स्वयं दिया ने,
किया उजाला है ।
ग्वाला सरसुत मात माथ रख,
मुनि बन चाला है ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
स्वर्ण दीप कर्पूरी बाती,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
चूरी धूप उन्हीं हाथों में,
खुशबू दे चाली ।
फल आये जैसे, वैसे ही,
झुक चाली डाली ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
चन्दन चूर अगर कस्तूरी,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
अष्टकर्म-दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
सार्थक नाम गिरी सुन श्रीफल,
महंगा हो चाला ।
मृत बिन भंवर कमल बिच भँवरा,
मदिर मोह हाला ।।
चुनो चुनो, तुम भीतर आओ,
सुनो सुनो, तुम भी…तर आओ,
जगत अकेला श्रीफल भेला,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
महा मोक्षफल-प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥
गंगा जल, मलयागिर चंदन,
अक्षत अनटूटे ।
दिव्य पुष्प, अरु चरु, मण दीपक,
गंध दश अनूठे ।।
श्री फल मिला द्रव्य सब आठों,
लाओ ‘री लाओ ।।
सखि ! आओ ‘री आओ ।
दश धर्मों की पूज रचाओ,
आओ ‘री आओ
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण धर्माय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
दोहा
हैं स्वभाव अपने सखे,
उत्तम क्षमादि धर्म ।
बनती कोशिश पाल के,
पा लो दिव-शिव शर्म ।।
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
जयमाला
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।
किस ग्रन्थ न विस्तारे हैं ।।
दे क्रोध तसल्ली झूठी ।
है उत्तम क्षमा अनूठी ।।
करबद्ध देव ठाड़े हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
रख मान, ज्ञान सपने सा ।
उत्तम मार्दव अपने सा ।।
जश वांचे ऋषि सारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
छल छीनी शिव रजधानी ।
उत्तम आर्जव वरदानी ।।
नभ गूंजे जयकारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
पड़ लोभ नारकी जोना ।
है उत्तम शौच सलोना ।।
टकते चुनरी तारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
कह झूठ टूक विश्वासा ।
सत्-धर्म पूर्ण मन आशा ।।
प्रद चक्र सहस आरे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
वश आलस निज-निध दूरी ।
उत्तम संयम कस्तूरी ।।
करते वारे न्यारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
व्रत विरत जीव जग डोला ।
उत्तम तप धर्म अमोला ।।
मण अक्षर उजियाले हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
विष ‘विष’य शब्द इठलाता ।
धन ! त्याग धर्म एक त्राता ।।
भव जल तारण हारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
ग्रह परि-ग्रह रिश्तेदारी ।
आकिंचन धर्म प्रभारी ।।
अलकापुर गलियारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
बाहर कछु…आ, बहु धोखा ।
उत्तम ब्रम-चर्य अनोखा ।।
सुख ‘निराकुलम्’ द्वारे हैं ।
दश धर्म सभी प्यारे हैं ।।
दोहा
दश धर्मों को पाल के,
सूर बनें अरिहन्त ।
सिद्ध शिला फिर जा वसें,
वन्दन कोटि अनन्त ।।
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
दश धर्म अर्घ्य
उत्तम क्षमा धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम क्षमा प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
उत्तम मार्दव धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम मार्दव दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम मार्दव धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
उत्तम आर्जव धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम आर्जव दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम आर्जव धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
उत्तम शौच धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम शौच प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम शौच धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
उत्तम सत्य धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम सत्य प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम सत्य धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
उत्तम संयम धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम सयंम दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम सयंम धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
उत्तम तप धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम तप पिरदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम तप धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
उत्तम त्याग धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम त्याग प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम त्याग धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
उत्तम आकिंचन धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
धर्म अकिंचन दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम आकिंचन्य धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा ॥ ९ ॥
उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम ब्रह्म प्रदीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मांगाय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १० ॥
संयम धर्म धारी
आचार्य छत्तीस अर्घ
नजर बागवान की ।
सैर, आसमान की ।
खो चला मिथ्या-तमा ।
इन्द्र भूति ‘गौतमा’,
छाँव वर्धमान की ॥
ॐ ह्रीं श्री गति गौतम मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
‘सुधर्मा’ ।
सुधरना ॥
आपना ।
साधना ।
वन्दना, वन्दना ॥
ॐ ह्रीं श्री सुधर्म स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
पहले विद्युत चोर ।
करें पत्नियाँ होड़ ॥
‘जम्बु’ संयमी बाद ।
देती दुनिया दाद ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य जम्बू स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
संयत परिणत गौर ।
धन ! यत यत सिर-मौर ॥
श्री ‘धर-सेना’ जी ।
मर्जी विधि राजी ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य धरसेन स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
‘सुमन’ सरीखा मन ।
परहित चीखा धन ! ॥
टीका सु-मरण माथ ।
जाग जाग दिन-रात ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य पुष्पदंत स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
सीप मुख जा मोती ।
सर्प मुख विष होती ॥
वही बिन्दू पानी ।
संगति लासानी ॥
मात प्रवचन सेवा ।
‘भूतबलि’ दृग रेवा ॥
संयत मन वाणी ।
संयम धर प्राणी ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भूतबली मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
धन ! जंघा बल ।
‘भद्र-बाहु’ बल ॥
खड़े साधना ।
बिन विराधना ॥
सामायिक पल ।
वन्दना, वन्दना ।
बिन विराधना, खड़े साधना ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य भद्रबाहु स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
संयम पाल, पलवाया ।
संयत वाक् मन काया ॥
माया राह यम पकड़ी ।
‘शाहन-शाह’ सिर पगड़ी ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य कुंदकुंद मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
मितव्ययी कमण्डल हाथ ।
सूत्र ग्रन्थ जग विख्यात ॥
सूर ‘उमा-स्वामी’ नाम ।
झुक प्रणाम श्रद्धा साथ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य उमा स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
हुआ भस्मक व्याधि रोग ।
संयम न छोड़ा, नियोग ॥
छेद आज्ञा श्री-गुरु मान ।
क्षुध् शमन, आ पकड़े कान ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य समन्त भद्र मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १० ॥
‘देव-सेना’ पीछे ।
कान अपने खींचे ॥
उतरते ही सीढ़ी ।
अनुशरण कर पीड़ी ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य देव सेन मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११ ॥
घोटक आई लगाम ।
लो झट आई मुकाम ।
धाम निराकुल नाम,
‘सुपूज्य-पाद’ प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य पूज्य पाद स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १२ ॥
बने न यूँ ‘योगिन्द’ हैं,
वश काया मन वाक् ।
जागृत जगत अनिन्द हैं,
कछु…आ भीतर झाँक ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य योगीन्दु देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १३ ॥
तट न उलाँघे ।
नदिया आगे ॥
जा मिलती सागर ।
‘सिध-सेन-दिवाकर’ ।
वन्दना सादर, वन्दना सादर ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य सिद्ध सेन दिवाकर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १४ ॥
सार्थ नाम भाई छोड़ा ।
संयम से नाता जोड़ा ।
दौड़ा दौड़ा आये क्यूँ ना,
जश फैला नभ बेजोड़ा ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य अकलंक देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १५ ॥
बिन अंकुश हाथी ।
दे फेंक फँसा दाँती ।
धन ! वैन ‘जिनसेन’,
ना संयम सा साथी ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य जिन सेन स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १६ ॥
जीती आँखें ।
तीती आँखें ॥
‘गुणभद्रा’ ! ।
छल-छिद्र रीती आँखें ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य गुणभद्र स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १७ ॥
श्रुत जीवन्त ।
बुत श्रीमन्त ॥
‘विद्यानन्द’ ।
चित्त जयन्त ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्या नन्द स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १८ ॥
सम-सु-सुमरना ।
यम यानि मरणा ॥
पल आवीच ।
‘सिंह-वादीभ- ॥
सूर’ त्रिभुवना ।
नूर द्यु भुवि ना ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वादीभ सिंह सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १९ ॥
अभिजित मन ।
जित चितवन ।
धन ! ‘अमरित-चन्द्र’ श्रमण ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य अमृत चंद्र सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २० ॥
हन ममता कारी ।
धन ! समता धारी ॥
‘वीर-नन्द’ जय हो ।
जय हो वीर नन्द्र थारी ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वीर नन्दी स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २१ ॥
दश मुण्डन कीना ।
मन, वच, तन तीना ॥
अक्ष, हस्त, पाँवन ।
‘गुणधर’ अभिवादन ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य गुणधर स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २२ ॥
कृषित कषाया ।
ग्रसित न माया ।
चित चित ‘नेमचन्द्र’ यत राया ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य नेमिचंद्र स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २३ ॥
हित मित अमोल ।
‘यत-वृषभ’ बोल ॥
गत गोल गोल ।
पथ वृषभ कोल ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य यति वृषभ सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २४ ॥
बन्धन क्षार क्षार ।
वन्दन चमत्कार ।
संयत मन विचार ।
संयम निरतिचार ।
जय जयकार, जय जयकार ॥
भक्तामर कृतिकार ।
जय जयकार, जय जयकार ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य मानतुंग देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २५ ॥
मूलाचार अवतारा ।
धन ! उपकार अनगारा ॥
सुदूर सूर ‘वट्टकेर’ ।
जय जयकार, जयकारा ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वट्टकेर सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २६ ॥
मा ! धिक् ! हन्त ।
साधिक मन्त्र ॥
जयतु जयन्त ।
‘माणिक-नन्द’ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य माणिक्य नन्दी देव मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २७ ॥
जल भिन पद्म समान ।
विरचा पद्य पुरान ॥
जयतु जयतु ‘रविषेण’ ।
भारत गौरव जैन ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य रविषेण स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २८ ॥
पर्वत सोन ।
सुमरन मौन ।
दूर न अबकी,
अर्हत् जोन ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य शुभ चंद्र स्वामी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २९ ॥
पर हित दृग नम की ।
खुश्बू संयम की ।
दिश दश जा गमकी ।
‘वादिराज’ जय, वादि राज,
आदि आज जय, आदि आज ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वादि राज सूरी मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३० ॥
डरो न, संयम आराधो ।
बनती कोशिश व्रत साधो ।
कल जुग हेत ‘शान्ति’ ना दूजा,
कर्म पूर्व कृत पग बाँधो ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य शांति सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३१ ॥
हाथ संयमित जन्म लें,
अक्षर मोति समान ।
फिर टोकें, पहले चलें,
‘वीर’ राह नादान ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य वीर सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३२ ॥
झट लट उखाड़ के ।
घर छोड़ छाड़ के ।
सादर ‘शिव-सागर’
तट पट उतार के ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य शिव सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३३ ॥
संयम दे डाला ।
उमर अभी बाला ॥
नजर पारखी ।
शिल्पकार की ॥
दिव आरती शिव सारथी ।
श्रीमन्ती लाला ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य ज्ञान सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३४ ॥
सूरज से ज्यादा तेजस्वी ।
साधु मनस्वी, सन्त तपस्वी ॥
भारत रत्न, अहिंसा गौरव,
महाश्रमण, वक्ता ओजस्वी ।
कुन्द कुन्द गुरु ज्ञान दुलारा ।
धर्म अहिंसा नभ ध्रुव-तारा ॥ १ ॥
कहाँ दूसरा और दयालू ।
आज गुपाला बड़ा कृपालू ॥
हिन्दी संवर्धक, संरक्षक,
करधा, संप्रेरक पूर्णायू ।
छोड़ सिन्धु विद्या जल खारा ।
धर्म अहिंसा नभ ध्रुव-तारा ॥ २ ॥
अक्ष विजेता, उरध-रेता ।
मण्डल प्रतिभास्थली प्रणेता ॥
मन्दर जीर्णोद्धारक, तारक,
निध वृत, दर्शन ज्ञान समेता ।
श्रावक, श्रमणों, श्रमण सहारा ।
धर्म अहिंसा नभ ध्रुव-तारा ॥ ३ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्या सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३५ ॥
समयसार के सार ।
चेतन मूला चार ।
जय जयकार, जय जयकार ॥
हेत आत्म उद्घार ।
जय जयकार, जय जयकार ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्य समय सागर मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३६ ॥
घट जल, चन्दन, अक्षत दाने ।
चुन वन नन्दन पुष्प सुहाने ॥
व्यञ्जन, दीप, धूप, फल भेंटूँ ।
सूर आप जैसा तम मेंटूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सर्वा-चार्य परमेष्ठि मुनिन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३७ ॥
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
संयम धर्म जयमाला
महिमा उत्तम संयम धर्म अपार ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।
पाण्डव पांच दुपद इक छोरी ।
खण्ड-प्रस्थ था आया झोरी ।।
मेहनत रंग ला चली इनकी ।
रचना चोर नयन की, मन की ।।
इन्द्र-प्रस्थ कह कर जन रहे पुकार ।
महिमा उत्तम संयम धर्म अपार ।।१।।
सुनी प्रशंसा कौरव आये ।
तले दांत अंगुलियां दबाये ।।
पानी कहाँ, जहाँ था पानी ।
पानी वहॉं, जहॉं ना पानी ।।
मायामयी फर्श, द्वार, दीवार ।
महिमा उत्तम संयम धर्म अपार ।।२।।
आशंका पानी की होती ।
पाण्डव चलें, उठा कुछ धोती ।।
फिर भी गिर इक जगह भिंजो ली ।
देख द्रोपदी हँसकर बोली ।।
अंधों के अंधे ही बाल गुपाल ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।३।।
रात रात ना आती निद्रा ।
चुभे द्रोपदी मजाक भद्दा ।।
चौसर पाण्डव बुला खिलाई ।
पासें शकुनी हाथ थमाई ।।
पाण्डव राज चिन्ह भी चाले हार ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।४।।
झुका नजर पाण्डव उठ चाले ।
कौरव बोले, क्या सब हारे ।।
सुन पत्नी भी धन कहलाई ।
बची खुची भी नाक कटाई ।।
हाय ! द्रोपदी भी कर चले निछार ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।५।।
गूंजे कौरव कान मजाका ।
हरो चीर दुश्शासन जाका ।।
हम सब अंधे कहा इसी ने ।
सिद्ध कराया, आज विधी ने ।।
मचा तीन लोकों में हाहाकार ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।६।।
लीन द्रोपदी भगवत ध्याना ।
जान उदय कृत कर्म पुराना ।।
देवों का आसन हिल चाला ।
स्वर्ग उतर सति विघ्न निवारा ।।
चीर बढ़ा जा खड़ा अखण्ड कतार ।
महिमा उत्तम संयम धर्म अपार ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम सयंम दीव ।।
ॐ ह्रीं उत्तम सयंम धर्माय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
( पुष्पांजलिं क्षिपामी )
श्री स्वर-श्रुति मंत्र
ॐ ह्रीम्
अर्हन् मुख कमल-वासिनि
पापात्म क्षयंकरि
श्रुत-ज्ञान
ज्वाला सहस्र प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति !
मत् पापम् हन हन दह दह
क्षाम् क्षीम् क्षम् क्षौम् क्षः
क्षीरवर-धवले
अ-मृत-संभवे
वम् वम् हूम् फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ॥
*विसर्जन पाठ*
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ॥
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ॥
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ॥
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ॥
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ॥
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ॥
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ॥
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ॥
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
=दोहा=
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दिस ॥
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
आरती
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।
थाल सजाओ,
ज्योत जगाओ,
नाचो गाओ, धूम मचाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।
क्षमा धर्म की आरती पहली ।
सक्षम जिसने गुस्सा सह ली ।।
बोध जगाओ ।
क्रोध नशाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।१
उत्तम मार्दव आरती दूजी ।
छीने मान ज्ञान की पूँजी ।।
बुध कहलाओ ।
मद विहसाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।२
उत्तम आर्जव आरति तीजी ।
बस माया वश अँखियां भींजी ।
सुभट कहाओ ।
कपट मिटाओ ।।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।३।।
शौच धर्म की आरती चौधी ।
घटा न लोभ, रटी बस पौथी ।
लोभ घटाओ ।
लौं प्रकटाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।४।।
सत्य धर्म की आरती पंचा ।
झूठ बोल पद दूर विरंचा ।
सत कह जाओ ।
चित्त चुराओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।५।।
उत्तम संयम आरति छट्टी ।
आंख असंयम मोहन पट्टी ।
अलस हटाओ ।
दरश रिझाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।६।।
परमोत्तम तप आरति सप्तम ।
कर इच्छा निरोध गढ़ परचम ।
लगन लगाओ ।
तपन मिटाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।७।।
त्याग धर्म की आरति अष्टा ।
परिग्रह पीछे अरि ग्रह दुष्टा ।
राग मिटाओ ।
फाग मनाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।८।।
धर्म अकिंचन आरति नौवी ।
मेरा कुछ ना कह देखो भी ।
आतम ध्याओ ।
तम विघटाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।९।।
धर्म ब्रह्मचर आरति दशमी ।
छव ब्रह्मचर बढ़ सहस्र रशमी ।
भीतर आओ ।
जी’ तर आओ ।।
थाल सजाओ,
ज्योत जगाओ,
नाचो गाओ, धूम मचाओ ।
दश धर्मों की आरती उतारो आओ ।।१०।।
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