
जुग जुग काल अनन्ता ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
वर्ण माल ‘आ -ख्याता ।
आदि युग पुरुष पांता ।
यदि न पूज प्रभु नाता ।
क्या न व्यर्थ विद्वत्ता ? ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
करके प्रभु की सेवा ।
तट भव-सागर खेवा ।
पुण्य सातिशय जेबा ।
‘साध’ सिद्ध-अरिहन्ता ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
जो प्रभु के गुण गाते ।
कर्म ने उन्हें सताते ।
अजर-अमर कहलाते ।
नाप स्वर्ग-शिव पन्था ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
लो प्रभु नाम सुमरणी ।
तरने दुख वैतरणी ।
मेटन करनी भरनी ।
सिर रज चरण जिनन्दा ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
धन्य देख प्रभु नयना ।
प्रभु गुण गा धन वयना ।
प्रभु बढ़ पारस रयना ।
आप समान करन्ता ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
2
मेघ महिमा
घन जन भाग्य विधाता ।
सार्थक अमृत कहाता ।
खेत लहर लहराता ।
जल भोजन मुख अंगा ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
जल बिन धरती तरसे ।
यदपि घिरी सागर से ।
झिरें फूट अम्बर से ।
साहस कृषक भरन्ता ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
पतझड़ की मनमानी ।
दें विघटा झिर पानी ।
झोरी नदी रवानी ।
हरियाली वासन्ता ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
‘मकराकर’ क्या श्लाघा ।
भाग मेघ सँग जागा ।
भोज न होंगे यागा ।
यदि न मेघ गर्जन्ता ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
सदाचार खोवेगा ।
अनाचार होवेगा ।
धर्म सिसक रोवेगा ।
यदि घन रखे कृपणता ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
3
मुनि महिमा
बिषय कषाय विजेता ।
धन ! धन ! ऊरध-रेता ।
कलि, सत्, द्वापर त्रेता ।
महिमा अगम महन्ता ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
सन्त उठाएं दृष्टि ।
उठे जगमगा सृष्ट्रि
सुधा साध मुख वृष्टि
बढ़ सुर पादप सन्ता
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
तप सामर्थ अनूठी
इन्द्र, जिनेन्द्र विभूती
झिर भीतर सुख फूटी
छूटा गौरख धंधा
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
इन्द्रिय विषय विराधे ।
एक वही शिव साधे ।
उतर स्वर्ग आराधे ।
कहें सभी सद ग्रंथा ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
सभ सौधरम प्रशंसा
सर अध्यातम हंसा
बुत आदर्श अहिंसा
ब्राह्मण ‘साध’ भदन्ता
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
4
धर्म महिमा
स्वर्ग मोक्ष प्रद दोई ।
बढ़ न धर्म से कोई ।
व्यर्थ मनुज वय खोई।
बढ़ा न पद सद्-पंथा।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
नेकी कभी न छोड़ो।
मन बुराई से मोडो ।
चुनरी पलकें ओढो।
देख और छल-छिद्रा ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
अप्रिय वचन न बोलो ।
बोलो , पहले तोलो ।
स्वयं कहे गुन’ गो लो।
यम न भरोसे मंदा ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
धर्म अधर्म प्रभावा ।
धूप एक सिर छांवा
नाव लगे शिव गांवा ।
करुणा भद्र समंता ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
साध धर्म सुख पाया ।
साँच और सुख माया ।
धर्म अहिंसा भाया ।
दूर न पद अरिहंता ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
5
गृहस्थ श्रम
आश्रम तीन सहारा ।
आश्रम गृहस्थ न्यारा ।
परम्परा भव पारा ।
कहे ग्रंथ निर्ग्रंथा ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
तप, संयम, गुरु सेवा ।
श्रुत – रति, पूजन देवा ।
गृहि कर्तव्य सदैवा ।
‘ दाना ‘ सार्थक संज्ञा ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
घर जिस प्रेम वसे है।
कुशल क्षेम वरसे है ।
हेम न जंग धसे है ।
कीचड़ भले प्रसंगा ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
करुणा क्षमा निधाना ।
अधिकारी निर्वाणा ।
भोग भोग दिव नाना ।
शक्र, चक्र बलभंडा ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
सदाचार मन भाता ।
उतर स्वर्ग जश गाता ।
धरा देवता पांता।
नाता सहज सरलता ।
कुरल काव्य जयवन्ता ।।
6
सहधर्मिणी
आय देख व्यय करती ।
सहधर्मिणि वह फबती ।
गुण गृहणी यदि कमती ।
भार धर्म गार-हस्थिता।
विगडा काम बनाती ।
‘वनिता’ सार्थ कहाती ।
सतित्व अनन्य साथी ।
माथ तेज रवि नंता ।
दे स्वामिन सम्माना ।
पार नार जलयाना ।
वचन सिद्धि वर नाना ।
लगते हाथ तुरन्ता ।
‘जित-इन्द्रिय दृग-नीचे ।
शोभे पर्दा पीछे ।
शील वल्लरी सींचे ।
तिय वह महित महेन्द्रा ।
जशवन्ती पत राखे ।
पिये क्रोध, गम चाखे ।
पानी रखे वचा के ।
‘वाला’ मनस धरंता ।
7
संतान
‘सुत-विश्रुत’ नभ गूंजा ।
और न सुख बढ़ दूजा ।
औगुन क्या ? गुन बूझा ।
‘पूत’ सार्थ निकलंका।
सत्संपद सन्ताना ।
छिड़े धर्म-‘पुन’ ताना ।
कहते वेद पुरा पुराणा।
‘बच्चा’ पाप प्रपंचा ।
धुन वंशी की प्यारी ।
स्वर सितार मनहारी ।
कहे न सुन किलकारी ।
‘शिश’ शश प्रद आनंदा ।
प्रथम पांत सभ बेटा ।
जगत बधाई देता ।
धन ! मां पिता समेता ।
गमके कीर्त दिगंता ।
माँ, सुन पुत्र बढ़ाई ।
मन ही मन हर्षाई
कहो ? पुन्य किस पाई ।
पूंछे सज्जन वृन्दा ।
8
प्रेम
जादू प्रेम बताते ।
अश्रु जुबां पा जाते ।
दामन खुशियां नाते ।
धन्य वशिकरण मंत्रा।
निष्पृह प्रेम अनूठा ।
सुख स्वर्गो का झूठा ।
पिण्ड शत्रुता छूटा ।
मित्र सर्व भूखंडा ।
प्रेम समान न कोई ।
जा खोजा जग दोई ।
दुश्मन आंख भिंझोई।
पढ़ दृग करुणावंता।
प्रेम भगत भगवाना ।
सांच उवाच पुराणा
अशुवन पांव धुलाना ।
लख टकेक मुख चंदा
निश्छल प्रेम संगाती ।
सुन्दरता बढ़ जाती
दिव शिव भेजे पाती
समझ अनन्य सुकंता
9
अथिति सत्कार
अतिथि न क्षुधा मिटाई
विथा गृहस्थी बसाई
वांट अमृत भी खाई
मेटे झट भव फन्दा
सेवा अतिथि लुभाती
विपद न उन्हें सताती
लक्ष्मी दौड़ी आती
झोरी सुख अगनंता
हष अश्रु दृग लाके
जीमें अतिधि जिमाके
जाये शिव दिव आके
बात सत्य सौ-टंचा
धन ! धुनि धुनि रेवा ज्यों
यज्ञ अतिथि सेवा त्यों
पुन अतिशय जेवा यों
भोग भूमि विलसन्ता
अतिथि देव कहलाते
‘पन्ने’ सार्थ बताते
सोया भाग जगाते
मंशा पूरण तंत्रा
10
मधुर भाषण
बोलो मीठी बोली
आकर न वोय निवोली
लौट न आती गोली
सार्थ सुवर्ण सुगंधा
धर्म मायने साधो
मीठे बोल अराधो
निर्धनता पग वाधो
साँचा सार्थ जिनन्दा
नाक हना सब सहना
गहना मिश्री नयना
आप पाप गिर देहता
व्रज वाणी सह्रदयता
कोयल जगत दीवाना
कागा शत्रु जमाना
बच वच वाण वाण
ज्योति पोथी पन्ना
सार्थ टंच सो बनी
कटुता किट कहानी
पीना सारा पानी
रहते क्षीर समुद्र
11
कृतज्ञता
गिने कौनी अहसाना
पूछ हिलाये स्वाना
काम समय पे आना
विन आभार प्रशंसा
तिल समान उपकारा
माने सुमन पहाडा
कर उपकार अपारा
विस्तृत करे तुरंता
आज संगत संतो की
नेकी टेब अनोखी
डगर निराकुल मोरी
डग मग डग मग रिक्ता
साहलाई सुख सुखिया
साध हरे दुख दुखिया
साध साध मुख मुखिया
जा सिध इला वसंता
लघु ही आ भलाई
सुमरत मिटत लड़ाई
इक कृतज्ञता घाँई
और नगुण अनंता
12
न्याय शीलता
कहता कुछ कुछ न्याया
नया नई सी आया
माया कमना माया
पिटता सत्त कब मिटता
लाम लोभ हमजोली
धन अनीति न भलोरी
वाद खेद दुख होरी
तोरी मोरी संधा
न्याय नीत जुड नाता
स्वाभिमान बढ़ जाता
झोडी गुण लग ताता
जुग जुग जीवता
निर्धनता भी लखती
न्याय नीति उर बसती
संतात कर्म विहस्ति
बात निकल मुख परी
पाप भाव से दूरी
स्वानुभूति कस्तूरी
न्याय मोती मन चिंता
13
संयम
संगत परिणति जागी
असंयमी हतभागी
भौरा है इक माखी
हाथ भले सिर धुनता
ज्ञान दीप हाथों में
चीन दया आंखो में
अनेकांत बातों में
उठे न मनस तरंगा
क … छूआ भीतर भाई
कछु आ भीतर साँई
कहुआ भीतर घई
रख बस इंद्रिय पंचा
जाधो जुबां लगाना
रुक रुक कर भुलाना
चीर हरण सती नामा
सुत अंधे का अंधा
जुबा चोट हट कस्ती
जुबां चोट एक भरती
अख संयत …
जुबां ! पोत तर धरती
जुवा चोट हट करतो जुवा चारहर भरती अरु संथ जुबाँ ! पोत तर धरती
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