नौ दस माह कोख में रखकर माँ, ने मुझको पाला था ।
किन्तु जन्म देकर फिर , भवसागर में डाला था ॥
फिर गर्भस्थ किया गुरवर ने , धर्म कोख में है पाला ।
कैसे उनके गुण गाऊँ मैं, जिसने अपना सब कुछ दे डाला ॥
जिस प्रकार एक किसान अच्छी से अच्छी फसल की प्राप्ति हेतु फसल लगाने के पूर्व ही फसल कैसे प्राप्त हो ? किस प्रकार बीज लगायें जिससे फसल अच्छी हो ? आदि, फसल बोने के पूर्व भूमिका अपने मन में बना लिया करता है । उसके बाद वह खेत में बीज वपन करता है । समय समय पर खाद पानी देता है, तथा पशु पक्षी आदि से सुरक्षा के लिए स्वयं सचेत रहता है, तब कहीं जाकर सुन्दर लहलहाती फसल प्राप्त होती है । वैसे ही एक माँ भी अच्छी संतान की प्राप्ति हेतु शिशु के गर्भ में आने के पूर्व अपने मन में अपनी संतान को कैसा बनाना है यह भावना निर्मित कर लेती है । यदि अपनी संतान को आदर्श महापुरूष बनाना चाहती है तो गर्भावस्था के समय से ही महापुरूषों का जीवन चरित्र सुनना, पढ़ना प्रारंभ कर अपनी आत्मा को शुभ संस्कारों से संस्कारित करती है । संस्कार – वे सारे सगुण जो इंसान को आम प्रारूषों की भीड़ से निकालकर महापुरूषों का दर्जा दिलाते है वे संस्कार कहलाते है । माता को अपनी संगति पर ध्यान देना अनिवार्य है ।
संगति से संस्कार और संस्कार से संतान संस्कारित बनती है ।
संतान के माध्यम से ही संस्कृति और समाज चलती है ॥
समाज में धर्म प्रवर्तन होता और समाज खुशहाल होता है ।
धार्मिक संस्कारों से एक दिन सद्गति एवं मुक्ति को प्राप्त होता है ॥
माँ के शुभाशुभ संस्कारों से संतान में शुभाशुभ संस्कारों का बीजारोपण कर अपनी संतान को जीवन के उच्च शिखर पर पहुँचा देती है । अपनी संतान का प्रथम गुरू माँ को कहा गया है । यदि गर्भावस्था में माँ लड़ाई झगड़ा करती है तो शिशु उदण्ड झगडालु होता है । यदि अश्लील, साहित्य, फोटो, टी. व्ही, संगीत, गीत, डांस करती है तो संस्कार विहीन संतान हो जाती है । गटर का पानी यदि गंगा में मिल जाये तो गंगा-जल बन जाता है । यदि गंगा-जल गटर में मिल जाये तो गटर का पानी बन जाती है ।
चन्दन पड़े चमार घर, प्रति दिन कूटे चाम ।
चंदन बेचारा क्या करे, पडे नीच के धाम ॥
जैसी संगति होती है वैसा जीवन हो जाता है । सिंह का बच्चा सियार के खेमे में चला जाता है सियार जैसी क्रियायें करने लगता है वैसे ही बोलता है ।
यदि संतान को धार्मिक संस्कार वान बनाना है तो माता-पिता का जीवन सादगी
एवं साधना मय जीवन होना चाहिये, धार्मिक क्रिया कलापो में जीवन व्यतीत होना चाहिये । दान पूजा, सास-ससुर की सेवा, अपना कर्तव्य मानकर करना । यदि आप सेवा करोगी तो आपकी संतान आपकी सेवा करेगी । वैराग्य वर्धक शुभ भाव, संतो के प्रवचन सुनना, स्वाध्याय करना । राजा व्दारा बतायी गयी गर्भावस्था की बातें सुनकर मदालसा कहती है- आप धन्य है स्वामी, आपकी बातें सुनकर, मन मेरा पुलकित आनन्द विभोर हो गया । आपकी बातों को अक्षरशः पालन करूंगी । मदालसा सावधान रहती हुई धार्मिक संस्कारों का बीजारोपण गर्भस्थ शिशु पर करने लगी । आहिस्ता आहिस्ता नौ माह पूर्ण होने पर उत्तम लक्षणों वाला सौम्य-बाल भानु सम बालक को जन्म दिया । जो भगवान महावीर की परम्परा को प्रवर्तमान कर श्रमण संस्कृति को दिग दिगान्तर तक गुंजायमान करेगा । मदालसा ने अपनी संतान की परवरिश का दायित्व अपने हाथों में लिया, घाँय माँ, दासी दास को नहीं सौंपा, बल्कि खुद स्वतःकिया । माँ की निर्मल भावना शिल्पी के हाथ वत, बालक रूपी घटको संस्कार सृजन रूप गढ़ने में स्वयं संकल्पित हुई । शिशु को दूध की बूँदो के साथ, जिनवाणी का बोधामृत पिलाती थी । माँ का कर्त्तव्य बालक को जन्म देकर निश्चिन्त हो जाना नही, बीज को अंकुरित देख यदि किसान बैठ जाये, सोचे बीज का अंकुरण हो गया फसल अपने आप आ जायेगी, क्या होगा वह पछ्तायेगा । कहते हैं – पराये भरोसे खेती नही होती, खेती आप सेती होती हैं । ऐसे बुंदेलखण्ड में कहते हैं । पराये भरोसे बच्चे पल जाते हैं पर वो संस्कार विहीन होते हैं । जिस प्रकार पराये भरोसे खेती की फसल की पैदावार अच्छी नहीं हो पाती । अत: माँ का मातृत्व तभी गौरवान्वित होता है जब अपनी संतान में उद्घाटित अनन्य, अप्रमित, अपरिमित (अक्रत्रिम) सुसुप्त आत्म शक्ति, वो समीचीन संस्कारो का बीजारोपण कर सचेत, सशक्त साकार बनाती है ।
संत कहते हैं – संतान को शैतान, हैवान, व्यसनी बनाने मे माँ का हाथ होता है,
संस्कार सज्जन साधु संत, यहाँ तक भगवान बनाने में माँ का ही हाथ होता है । परम श्रध्देय उपकारी गुरूवर आ. विद्यासागर जीने अपनी कृति मूकमाटी में कहा है –
सुत को प्रसूतकर विश्व के सम्मुख
प्रस्तुत करने मात्र से माँ का सतीत्व
विश्रुत-सार्थक नही होता
प्रत्युत
सुत संतान की सुषुप्त शक्ति को
सचेत और शत प्रतिशत सशक्त
साकार करना होता है, सत संस्कारो से
संतो की यही सूक्ति सुनी है
संतान की अवनति में, निग्रह का हाथ उठता है माँ का
और संतान की उन्नति में अनुग्रह का भाव उठता है माँ का
वैसे तो जन्मदाता माँ बाप तो, कुत्ते के पिल्ले और गधे के बच्चे को मिल जाते है, लेकिन संस्कार दाता माँ-बाप किसी खुशनसीब संतान को ही मिलते है । वे बडे खुशनसीब है जिन्हें बचपन में माँ बाँप ने उंगली पकड़कर चलना ही नहीं सिखाया, अपितु मंदिर पाठशाला जाना भी सिखाया । अपने बच्चों को कंधे पर, गोद में मत बिठाइये, बल्कि सस्कारो की पाठशाला में भी दाखिल कराइये । अपने पिल्ले की सुख की चिन्ता को कुत्ती भी कर लेती है, किन्तु माँ वह है, जो संतान के सुख के साथ अपने संस्कारो की भी चिन्ता करती है । जिस समय गुणों की मंजूषा संस्कारों से निष्णात संवेग बनी मदालसा अपने शिशु को दूध पिलाती है उसी समय अन्य कार्यों से निवृत होकर भावना करती है कि हे पुत्र तू कभी मेरे दूध को मत लजाना । अर्थात- मातृवंश एवं पितृवंश की रक्षा के लिए न्यायनीति के कार्यों में सदैव मन वचन काय से तत्पर रहना । इस दूध का प्रभाव तेरे शरीर में रक्त रसादि के रूप में जीवन पर्यन्त रहेगा, इसके संस्कार आत्मा में रहेंगे , तुम भविष्य में आदर्श श्रमण बनकर , आदि ब्रह्मा ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर स्वामी पर्यन्त चली आयी श्रमण परंपरा को चलाने में एक कड़ी बनना । अपने इस प्रकार मदालसा श्रेष्ठ विचारों के साथ दूध पिलाती हुई पुत्र को सुसंस्कारित करती थी । हर दम ऐसा प्रतीत होता था कि मानो मैं भावी एक श्रमण का पालन-पोषण कर रही हूँ । जब वह बच्चे को झुले में झुलाती तो आज की महिलाओं की तरह रागात्मक लोरी नही सुनाती, मोबाइल नही पकडाती बल्कि वैराग्य वर्धक लोरी सुनाती थी । यथा-स्वयं का स्वाध्याय एवं बच्चे पर सुसंस्कार-पड़े ऐसे भाव रखती थी ।
सिद्धोसि बुद्धोसि, निरंजनोसि, संसार माया परिवर्जितोसि ।
शरीर भिन्नस्त्यज सर्व चेष्टो, मदालसा वाक्य मुपासि पुत्र ॥
हे पुत्र तुम सिध्द हो, बुध्द हो, निरंजन हो, सांसारिक मायाजाल से रहित और उस देह से भिन्न हो तुम मदालसा की बात मानते हो ? तो सर्व चेष्टाओं को छोड़ दो ।
ज्ञातासि दृष्टासि परमात्म रूपा, खण्ड स्वारपोसि गुणालयोसि ।
जितेंन्द्रियस्त्वं त्यजमान मुद्रा मदालसा वाक्य मुपासि पुत्र ॥
हे पुत्र तुम ज्ञाता हो, दृष्टा हो, परमात्म स्वरूप हो, अखण्ड स्वरूप हो, गुणों के आलय और इन्द्रिय विजेता हो, तुम मदालसा की बात मानते हो तो तुम मान मुद्रा को छोड़ दो ।
शान्तोसि दान्तोसि विनाश-हीनः सिद्ध स्वरूपोसि कलंक मुक्तः ।
ज्योति स्वरूपोसि विमुच्य माया, मदालसा वाक्य मुपासि पुत्र: ॥
हे पुत्र तुम शान्त हो दान्त हो, अर्थात इन्द्रिय निग्रह में तत्पर साधु हो, अविनाशी हो, सिंह स्वरूप हो, कलंक मुक्त हो और ज्योति स्वरूप हो । तुम मदालसा की बात मानते हो तो माया को छोड दो ।
निष्काम धामासि विकर्म रूपो, रत्नत्रयात्मासि पदं पवित्रः ।
वेत्तासि चेतोसि विमुच्य कायं मदालसा वाक्य मुपासि पुत्रः ॥
हे पुत्र तुम निष्काम धाम हो, कर्म रूप नही हो, रत्नत्रय मयी हो, परम पवित्र हो, वेत्ता हो, चेतन हो, तुम मदालसा की बात मानते हो, तो काम को छोड दो ।
प्रमाद मुक्तोसि सुनिर्मलोसी , अनन्त बोधादि चतुष्ट योपि ।
ब्रह्मासिरक्ष, स्वचिदात्म रूपं, मदालसा वाक्य मुपासि पुत्र : ॥
हे पुत्र तुम प्रमाद रहित हो, अत्यंत निर्मल हो, अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय वाले हो, और
ब्रह्म हो, तुम मदालसा की बात मानते हो तो अपने चिदात्म रूप की रक्षा करो ।
कैवल्य भावोसि , निवृतयोगे , निरामयो ज्ञात समस्त तत्व: ।
परमात्व वृतिः स्मर चित्स्वरूपं, मदालसा वाक्य मुपासि पुत्र: ॥
हे पुत्र तुम कैवल्यभाव हो, रोगमुक्त हो, निरोग हो सर्व तत्व वेत्ता हो और उत्कृष्ट आत्म स्वरूप हो, तुम मदालसा की बात मानते हो तो चित्स्वरूप का स्मरण करो ।
चेतन्य रूपोसि विमुक्त भावो, भावादि कर्तासि समग्र वेदि ।
ध्याय प्रकाम परमात्म रूपं, मदालसा वाक्य मुपासि पुत्रः ॥
हे पुत्र तुम चेतन्य रूप हो, काम वासना से विमुक्त हो, ज्ञान भावादि के कर्त्ता हो और सर्वज्ञ हो । तुम मदालसा की बात मानते हो तो अमीष्ट परमात्म स्वारूप का ध्यान करो । ऐसे संस्कार देती थी मदालसा ।
नारी नारी मत कहो, नारी नर की खान ।
नारी से ही उपजते है तीर्थंकर भगवान ॥
नारि = न + अरि अरि ( कुशीलरूपी शत्रु) को दूर रखती है ।
महिला = महि + ला महि (धरती) धरती के समान धैर्यवान
ला = लज्जा = धरती के समान धैर्यवान, लज्जावान
आजकल की संस्कार विहीन माताओं को, मोबाइल, टी.वी. किटी पार्टी, वी.सी पार्टियों सजने संवरने से इतना समय ही नहीं मिलता कि अपनी संतान को कुछ धार्मिक संस्कार प्रदान कर सकें । क्योंकि नौकरी, आया के भरोसे बच्चे पलते हैं । लम्बे पैकेज नौकरी आदि से समय नहीं मिलता । बच्चों से बात करने का भी समय नही मिलता ।
रामायण का प्रसंग – लंका विजय के बाद लोकापवाद के कारण राम ने सीता को कृतान्तवक्र सेनापति के साथ तीर्थयात्रा के बहाने गर्भावस्था में सीता को जंगल मे छुड़वाया गया । कृतान्तवक्र रो पड़ा कहा कि स्वामी की आज्ञा है कि आपको वन में छोड आऊँ । माँ, मुझे माफ करो मैं मजबूर हूँ । राजाज्ञा के कारण ऐसा करना पड रहा है । धिक्कार है ऐसी नौकरी पर जो ऐसा निकृष्ट कार्य कराता है । मुझे कभी ऐसी चाकरी न करना पडे ।
तब सीता ने अपना दृढ़ संकल्प सुनाया जो भारतीय नारी के सच्चे पति प्रेम शीला सौजन्य का प्रमाण है । “मैं प्रसूति से छुटकारा पाते ही सूर्य बिम्ब की ओर एक टक दृष्टि लगाकर तप करूंगी, जिससे अगले जन्म में भी (राम) तुम्हीं मेरे पति रूप में हो । और कहा कि, जिस तरह लोकापवाद के कारण मुझे छोड़ा ऐसे लोकापवाद के कारण धर्म, जिनधर्म को नही छोड़ना । धन्य है वह नारी जिसने ब्याह के बाद से ही कष्ट ही कष्ट सहे जीवन पर और लव, कुश को संस्कारित किया, कभी ये नही बताया कि तुम्हारे पिता ने क्या किया मेरे साथ, न पति का नाम बताया । सोचती थी काश मैं सुन्दर न होती न ये सब होता । न रावन हरण करता, न उसका मरण होता, ना मैं वन को आ पाती । महासती मैना सुन्दरी – एक पतिव्रता नारी थी ।
देखो इक महासती के जीवन में , ये कैसा दिन आया ।
अपने भाग्य पर विश्वास कर पिता का प्रस्ताव ठुकराया ॥
पिता ने जिद में आकर के , उनका कोढ़ी से विवाह रचाया ।
उस सती ने सिध्दों की आराधना कर, सुन्दर कंचनधारी बनाया ॥
पतिव्रता महासती मैना सुन्दरी ने अपने भाग्य पर विश्वास करके, कोढी पति से विवाह हो जाने पर , उसके पिता को पश्चाताप हुआ और कहा – कि हे बेटी मैने मान वश तेरा कोढ़ी पति से विवाह कर दिया । क्षमा कर दो बेटी, क्षमा कर दो । तब मैना ने कहा – पिता जी ध्यान रहे अब वो मेरे पति हैं, इस राज्य के मानदान हैं, आपके जमाई हैं, जो मेरे भाग्य में था मुझे मिला । भाग्य को कोई नही बदल सकता । अनेक सतियाँ हुई जिन्होने, पंगु, अँधे, कोढ़ी, कुबड़े व्याधि से पीडित आफत में पड़े पति को नही छोड़ा, बल्कि आल्हाद भाव से उनकी सेवा की । ऐसी भी स्त्रियाँ हुई है यदि पति कार्य वश दूसरे देश में जाते हैं तो वो आभूषण नही पहनती, श्रृंगार नही करतीं । पूजन पाठ भगवन की भक्ति करती रहती हैं । कहा गया है पतिव्रता कौन है – जो स्त्री कार्य के समय दासी, रती के समय रम्भा, भोजन के समय माता और विपत्ति के समय पति को परामर्श देने वाली मन्त्रिणी होती है वह पतिव्रता है । जो स्त्रियाँ अपने शरीर को आभूषणों से विभूषित नही करती हैं बल्कि वो शील और लज्जा रूप आभूषण धारण करती हई । उनके लिए शील और लज्जा महान आभूषण हैं ।
आज कल तो शिशु को माँ का दूध नही, बोतल का पिलाया जाता है ।
प्रभू के नाम की लोरी नही , फिल्मी गीत सुनाया जाता है ॥
कैसे होगी मजबूत संस्कारो की नींव , अब आज बच्चों की बन्धुओ ।
बच्चो को शुध्द भोजन की जगह , फास्टफूड खिलाया जाता है ॥
जो आज नन्हा बालक बोतल का दूध / दूध की बोतल पकड़ता है वह निश्चित ही यौवन अवस्था में ड्रिंक, कोल्डड्रिंक आदि दूषित पदार्थों की बोतल पकड़ेगा । संत कहते है नाली का पानी पीना श्रेष्ठ है पर बोतलों में वर्षों से भरा पानी, ड्रिंक पीना श्रेष्ठ नही है । यौवन अवस्था में जिसने बोतल पकड़ी वह आगे चलकर शराब की बोतल क्यों नही पकड़ेगा ?
जन्म के संस्कार-किस तरह से होते हैं
एक चोर था जेब काटने वाला, जेब काटने में इतना माहिर था कि किसी को भनक भी नही लग पाती थी, और उसके पाकिट का माल निकाल लेता था । एक दिन वह एक लड़की की जेब काट रहा था, लड़की ने हाथ पकड़ लिया, क्योंकि लड़की भी जेब काटने वाली थी । नजरे मिली परिचय हुआ मुलाकात होती गयी और परिणय हो गया । अब दोनो एक साथ जेब काटने का कार्य करने लगे । कुछ दिन पश्चात उनको संतान हुई । वह संतान एक दिन अपनी मुट्ठी नहीं खोल रहा था । बहुत प्रयास किया लेकिन उसने अपनी मुट्ठी नहीं खोली । तब उन्होंने मानसिक रोगी के डाक्टर को दिखाया । मानसिक रोगो का डाक्टर समझ गया , उसने बच्चे को स्वर्ण का हार दिखाया । उसने हार देखते ही मुट्ठी खोल दी । उसकी मुट्ठी में एक अँगूठी अटकी हुई थी । इसलिए वह मुट्ठी नही खोल रहा था । वह आँगूठी मालिस करने वाली की थी।
परम पूज्य आचार्य १०८ विद्यासागर जी महाराज ने अपनी कृति मूकमाटी महाकाव्य में लिखा है –
टालने में नही
संत संतो की
आज्ञा पालने में
पूत के लक्षण पालने में
“ बच्चों में काम करने की उमंग हुआ करती हैं ।
सागर की लहरो जैसी , तरंग उन में हुआ करती हैं ॥
बच्चों को डाकू बनाना है या साधु , उनको बन्धुओं ।
उनके माँ बाँप के संस्कार से, हुआ करती है बन्धुओं ॥”
एक पति-पत्नी एक गाँव में रहा करते थे । उनकी इकलौती संतान थी, लाड़ली थी, प्रिय थी, उसकी हर इच्छा पूरी करते थे । उसको स्कूल में दाखिला कराया । एक दिन वह किसी बच्चे की पेन्सिल उठा लाया । उसने माँ को बताया कि पेन्सिल कितनी अच्छी है । माँ ने पूछा कहाँ से लाया ? बेटा बोला स्कूल से लाया । दूसरे दिन किसी का पेन ले आया, माँ को बताया । माँ कुछ न बोली । स्कूल से किसी की भी वस्तुयें चुराने की आदत बढती गई । धीरे धीरे बड़ा होकर वह प्रसिध्द चोर हो गया । एक दिन वह चोरी के इल्जाम में पकड़ा गया, केस चला । चोर के अनेक केस होने वे कारण उसको फाँसी की सजा सुनायी गई । जज ने फाँसी के पूर्व उनकी अंतिम इच्छा पूछी गयी तो उसने कहा मैं अपने माता पिता से मिलना चाहता हूँ । उसके माता-पिता को बुलाया गया और उनको उस चोर के सम्मुख खड़ा किया गया । वह माता पिता के पास आया और उसने माता-पिता के, दोनो गालो पर खींचकर दो दो चाटें मारे और उन पर थूक दिया । सारे लोग एक दम सन्न, अंचभित रह गये, इस असभ्य व्यवहार पर, यह अप्रत्याशित कैसे हो गया । जज ने चोर से कारण पूछा कि जिन माता-पिता से तुम मिलना चाहते थे, जिन्होने तुम्हें जन्म दिया, पाला पोसा उनके साथ यह व्यवहार क्यों किया ? चोर ने कहा – जज साहब बचपन में जब मैं प्रथम दिन स्कूल से पेन्सिल चुराकर लाया था, मैने इनको बताया था, तब ही ये माता-पिता मुझे, उस बुरी आदत से अवगत करा कर रोक देते तो मैं आज यहाँ तक नही पहुँचता । माता पिता बच्चों के प्रथम गुरू, कुम्भकार की तरह होते हैं । जैसा कुम्भकार घड़ा बनाना चाहे या चिलम जैसा बना देता है । वैसे माता पिता बच्चो को संस्कारित कर बना सकते हैं ।
संस्कार विहीन माता – पिता यह कब जानते है कि मृदु घड़े को गीले रहने तक सुधारा जा सकता है, सूखने के बाद नहीं । सूखने के पश्चात घड़ा टूट फूट सकता है पर सुधार नहीं हो सकता । मृदु घड़े के समान बच्चे “टीन इयर्स ओल्ड” याने 13 से 19 वर्ष तक, जैसा चाहे बच्चों को संस्कार के माध्यम से ढाल सकते हैं । उसके बाद सुधार नही हो पाता । विरले या पुण्यात्मा ही होते हैं जो बाद मे सुधरते हैं । नीतिकारों ने कहा-
माता शत्रु, पिता वैरी, येन बालो न पाठितः ।
शोभते न सभा मध्ये, हंस मध्ये बको यथा ॥
जो माता पिता संतान को संस्कार, सद्शिक्षा, नही देते वह माता शत्रु, पिता वैरी, के समान है । उनकी वह संतान धर्म सभा, लौकिक सभा में शोभायमान नही होता । जैसे हंसो की सभा में बगुला नही शोभता ।
हस्तस्थ भूषणं दानं , सत्यं कष्ठस्य भूषणं ।
श्रोयस्थ भूषणं शास्त्रं, भूषणं किं प्रयोजनम ॥
हाथों का आभूषण दान, कण्ठ का आभूषण सत्य, कान का आभूषण शास्त्र श्रवण करना है । इस प्रकार जो सज्जन अपने अंगो को शोभायमान करता है उसे इन जड़ पुद्गलमयी आभूषणों से क्या प्रयोजन है ?
खूब हुआ तन का श्रृंगार, अब रूह का श्रृंगार कीजीये ।
तोड़ो न फूल साख से , खुशबुओं से प्यार कीजीये ॥
मदालसा कहती है – हे पुत्र तुम शिव पथ के पथिक हो, संसारी लोग नश्वर तन को हिंसक प्रसाधनों से श्रृंगारित करके, राग व्देषरूपी पंक में फंसकर चेतन आत्मा को भव भ्रमण करा रहे हैं । अत: तन को नही चेतन को सदगुणों से अलंकृत कर, सद्गुण के अलंकारो के द्वारा, आदर्श पुरूषों के चरण चिन्ह पर आरूढ़ हो, अपने तन का कायाकल्प करना है तुम्हें ।
मदालसा का भीगे भावों से वैराग्यमयी उपदेश :-
यह आत्मा कर्मो का गुलाम बनकर उन्मत्त होकर अपने स्वरूप को भूलकर इन्द्रिय जन्य सुख के लिए रात दिन प्रयत्न करता हुआ, परिणामों को क्लिष्ट करता है । और आत्मोन्नति के मार्ग से वंचित होकर इस संसार में भ्रमित होकर इधर उधर भटकते हुये अनन्त दु:ख भोगता है । किन्तु अपने आत्म स्वरूप को पहचान कर “कर्म दासता” से छूटने की अभिलाषा स्वप्न में भी कदापि कभी नहीं करता । यदि इसने आगमादि का अभ्यास किया तो भी अविवेक से मूर्ख प्राणी के समान उल्लू बनकर नीच कार्य करने में इसको लेश मात्र भी लज्जा का अनुभव नहीं होता हैं । हे पुत्र अनन्त प्रयत्न से, पुण्यों का आर्जन होने से यह मानव पर्याय प्राप्त हुई, इसी देह से प्राणी अपना कल्याण कर सकता है । अन्यथा अपने हाथ में आये चिन्तामणी रत्न को खोकर मूढ़ प्राणी अपना सर्वस्व नाश कर लेते हैं ।
जहर के ऊपर शर्करा के पुट देने से, खाते वक्त मीठा लगता है । परन्तु परिणाम स्वरूप वह प्राण हरता है । उसी प्रकार संसारी प्राणी भोग-भोगते समय अच्छा लगता है, आनन्द मनाता है बाद में दुःखों को उठाता है, नरक निगोद की यात्रा करना पड़ता है । ये भोग शहद लपटी तलवार के समान है । शुरू मे मीठा बाद में जिव्हा कट जाती है ।
सभी गतियों में मनुष्य गति श्रेष्ठ है, मोक्ष का साधन है, इसमें तप संयम है । इन दोनों का अभ्यास कर प्राणी सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र भी प्राप्ति कर अपना कल्याण कर सकता है । कर्मो से मुक्त हो सकता है । जो ऐसे दुर्लभ तम मानव जन्म में जो अपनी आत्मा का कल्याण नही कर सकता वह “अजाभाव स्तन स्तेय तस्य जन्म निरर्थक” अर्थात- अज (बकरे के गले में जो थन होते है उनमें दूध नही निकालता अत: वे थन निरर्थक है ।
कर्म मन से मलीन अशुद्ध आत्मा को शुध्द करने के लिए शांतता (समता) एक दिव्य औषधि है । यह कर्म बध्द आत्मा कौन है ? कहाँ से आया है ? किन परिणामों से आत्मा कर्म बध्द हुआ ? कितने पूर्व जन्म धारण किये ? क्या क्या दु:ख सहे ? दु:ख निवारणार्थ इसने क्या क्या सत्कार्य किये हैं, जिसके पुण्यादेय से उच्च कुल में मानव जन्म प्राप्त हुआ है । इस जन्म में इन कर्मों से मुक्त होने के लिए क्या क्या उपाय करना चाहिये ? इत्यादि विचार समता धारण करने पर ही होता है ।
माँ की वैराग्य-मयी बातें सुनकर पुत्र का हृदय अभिभूत हुआ और धर्म मार्ग पर अग्रसर होता है पुत्र अपनी माँ से कहता है –
हे तन में इतनी पावनता कि , ये भोग नही सहला पाये ।
उठने दो ममता का पर्दा माँ , शिव सत्य सामने आ जाये ॥
मेरा मन हरदम कहता है कि, कुछ ऐसा काम किया जाये ।
तीर्थकरों की माताओं में , माँ तेरा नाम लिया जावें ॥
जब मदालसा का पुत्र ९ वर्ष का हुआ प्रात: काल “माँ” के पुनीत चरणों में प्रत्युष बेला में निवेदन : करता है – हे माँ आज्ञा दीजिये मुझे सहर्ष, आज अपने इस पुत्र को कि, वह कुल का दीपक ही नही अपितु लोका लोक को प्रकाशित लाने वाला सर्वदर्शी दीपक बने, जगदीश बने । हे माँ मुझे आज्ञा प्रदान करें, ताकि संसार में अनन्त दुःखो को पार करने वाली अनादि कर्म बध्द आत्मा को पूर्ण कर्म मुक्त कर मुक्ति सुख का भाजन बनाने वाली इस जैनेश्वरी दीक्षा को धारण कर सकूँ । माँ की आँखो से झर-झर आँसू बहने लगे । दु:ख के नही, सुख के आँसू वर्षों से भावित भावना का बीज आज अंकुरित होकर फल देने तैयार हुआ । आशीष का हाथ उठाते हुये कहा – शीघ्र जाओ बेटा , अपनी आत्मा को निष्कलंक बनाओ , मुक्ति रमा का वरण करो । राजा के कानो में बात पहुँची, पुत्र को मनाने आया और कहा – ये क्या करते हो अभी बहुत छोटे हो तुम्हारे खेलने कूदने के दिन हैं बाद में संयम धारण कर लेना, हम लोगो के बुढ़ापे के तुम ही सहारे हो । पुत्र बोला – पिताजी संसार दुःखों से भरा है , मोक्ष सुख की प्रबल इच्छा है उसको प्राप्त करने के लिए मैने जैनेश्वरी दीक्षा लेने का पूर्ण निश्चय कर लिया है जो
कदापि नही बदल सकता ।
“चाह गई चिन्ता मिटी मनवा वे परवाह ,
जिनको कुछ न चाहिये, वे शाहन के शाह”
जो निरन्तर एक राज्य से दूसरे राज्य पर विजय प्राप्त करने की चाह में निरन्तर व्याकुल बने रहते हैं वे शहनशाह नही भिखारी हैं । सही राजा वही है जिसे इच्छा नहीं विकल्प नही, निर्विकल्प रहते हैं वे राजा नहीं राजाओं के राजा नही वे महाराजा बन जाते हैं ।
इच्छा निरोधः तप:
मन की इच्छाओं पर विजय पाना निरोध करना तप कहलाता है । राजकुमार घर छोड़ मुनि बनने दीक्षार्थ वन को निकला, सारी नगरी मे हाहा-कार मच गया, पर राजकुमार की वृति में लेशमात्र भी परिवर्तन नही आया ।
“ सतपथ पर चलता हूँ ,
पथिक मुड़कर नही देखता
तन से भी , मन से भी ”
पिता ने कहा –
“कल्पनाओं में उड़ नही सकता , तू जिन्दगी का साजसुख ।
भावनाओ में बह नही सकता, तू दर्द का अल्फाज तो सुन ॥
चेतना तुझमें नही है तो , तू महज है एक चुटकुला ।
सुन सके अब भी सुन तू अगर, वक्त की आवाज को सुन ॥”
राजकुमार ने कहा –
“ वृध्दि वंश की करत है प्राणी , पशु वन मे नर लाहि होय ।
नर भव मिलना बहुत कठिन है इसे व्यर्थ गँवाना नाही कोय ॥
शायद चिन्तामणि रत्न मिल जाये , किन्तु प्राप्त न नर तन होय ।
सहज मिले तो सार्थक करो नर-भव, अब भव का दुःख न होय ॥”
पिता की शोक पूर्ण कारण जनक स्थिति देखकर राजकुमार समझाने लगा – हे पिताश्री सर्व प्रथम इस परमार्थ के मार्ग पर चलना ही प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है । यही इस मानव पर्याय का सार है । राजकुमार आगे कहता है – हे पिता जी मुझे दृढ़ आत्म विश्वास है कि ये कर्म नष्ट करने की शक्ति से थोड़े ही दिनों में सिध्दत्व अवस्था निर्भयता पूर्वक प्राप्त करूँगा । आप क्यों डरते हैं, मैं प्रचण्ड बलधारी सिंह का शूर बच्चा हूँ । इसलिए सर्वथा इच्छा, आशाओं को रोकने का प्रयत्न करना चाहिये ।
इच्छा निरोधः तपः
“कामनाओं से भटकता, जीव इस संसार में ।
कामनाओं से निकलती, रात सोच विचार में ॥
कामनाओं से गुजरती, जिन्दगी दिन चार में ।
कामनाओ में फँसा जो, वह फंसा मझधार में ॥”