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क-था ...क-विता

क-था ...क-विता

क्षमा धार, नैय्या बहुतों की पार ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।

गुस्से में घर से निकली है ।
बाहर नंगे पैर चली है ।।
बिना विचारे पीछे-आगे ।
आंख बंद करके बस भागे ।।
काँटे चुभे, खून की फूटी धार ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।१।।

नदी एक आई रस्ते में ।
बहिन मृत्यु की ही रिश्ते में ।।
कूदीं, पर न तैरना जाने ।
जलचर दौड़े ग्रास बनाने ।।
बहते वृक्ष सहारे लगी किनार ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।२।।

दिखा पहाड़ एक नभ छूता ।
करते पार, पसीना छूटा ।।
पीछे सर्प भयंकर भारी ।
भाग चली बेसुध बेचारी ।।
फिसला पैर, लुड़कते पार उतार ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।३।।

जंगल घना, भील मिल चाले ।
न सिर्फ तन, मन के भी काले ।।
और फूल नाजुक यह नारी ।
तोड़ मसलने, हा ! तैयारी ।।
बच पाई, वन देवी दीन दयाल ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।४।।

वन बाहर क्या पैर बढ़ाई ।
चेहरा पढ़, इक ठग फुसलाई ।।
बिटिया कह, घर अपने ले जा ।
और बेंच दी इक रॅंग-रेजा ।।
हाय ! स्वार्थ साधे सारा संसार ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।५।।

खूब खिलाता, खूब पिलाता ।
हर हफ्ते इक गोंच मंगाता ।।
और निकाल खून वह काफी ।
कपड़े रॅंगता था, यह पापी ।।
क्या करती ? रह जाती थी मन मार ।
पछताई गुस्सा करके तुंकार ।।६।।

कभी, वहाँ से निकला भाई ।
राम कहानी सुन, अकुलाई ।।
पैसे देकर उसे छुड़ाया ।
क्रोध न करना, नियम दिलाया ।।
बहना, गहना उत्तम क्षमा हमार ।
क्षमा धार, नैय्या बहुतों की पार ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम क्षमा प्रदीव ।।

साधो ! उत्तम मार्दव धर्म महान ।
रावण पछताया करके अभिमान ।।

मुनि बाली चढ़ गिर कैलाशा ।
आतप तपें दृष्टि रख नासा ।।
रानी मन्दो-दरी समेता ।
निकला तीन खण्ड अभिजेता ।।
आगे बढा़ न, पुष्पक नाम विमान ।
रावण पछताया करके अभिमान ।।१।।

कर अपनी आंखें अंगारा ।
बोला किसे ना जीवन प्यारा ।।
खड्ग उठाऊॅं, लाश बिछाऊॅं ।
खून बहाऊॅं प्यास बुझाऊॅं ।।
देखा नीचे, दिखे साधु रत ध्यान ।
रावण पछताया करके अभिमान ।।२।।

इसने बहिन न मुझसे ब्याही ।
बात याद यह रावण आई ।।
बोध क्रोध ने तत्क्षण क्षीणा ।
मजा चखाने का प्रण कीना ।।
लखन पतन गुरु-देव-शास्त्र अपमान ।
रावण पछताया करके अभिमान ।।३।।

इक विद्या को तुरत बुलाया ।
चीर धरा, आदेश सुनाया ।।
हूॅं किससे कम, मैं शक्ति में ।
ले अट्टाहस जा धरती में ।।
गिरि पलटा, मेंटे अरि नाम निशान ।
रावण पछताया करके अभिमान ।।४।।

मुनि बाली मन विचार आया ।
भरत चक्रि निर्माण कराया ।।
वे जिन धाम बहत्तर सारे ।
मिल ना जावें मिट्टी गारे ।।
छिंगरी पैर दबाते दया निधान ! ।
रावण पछताया करके अभिमान ।।५।।

अट्टाहस बदला क्रंदन में ।।
रावण नाम ख्यात त्रिभुवन में ।।
मन्दो-दरी दौड़ती आई ।
मुनि से सविनय क्षमा मंगाई ।।
भूल भूल प्रतिक्रमण निरत भगवान् ।
साधो ! उत्तम मार्दव धर्म महान ।।६।।

रावण मुनि पद तीरथ पाई ।
कस वीणा नस कीरत गाई ।।
ढ़ोल अश्रु जल चरण पखारे ।
भिजा गगन श्रीगुरु जयकारे ।।
पुनि दर्शन मुनि एक हृदय अरमान ।
साधो ! उत्तम मार्दव धर्म महान ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम मार्दव दीव ।।

महिमा उत्तम आर्जव धर्म अपार ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।

शकुनी हाथ थमा के गादी ।
पिता निभा परिपाट अनादी ।।
पट उतार देते जा वन में ।
लट उखाड़ लेते इक छिन में ।।
साधा सुमरण सुमर मंत्र नवकार ।
महिमा उत्तम आर्जव धर्म अपार ।।१।।

राजा बन शकुनी हुंकारा ।
कहो शत्रु जग कौन हमारा ।।
मंत्री-गण बोले इक सुर में ।
चुभें फॉंस कुरु-वंशी उर में ।।
कल नासूर बनें, दो फेंक उखाड़ ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।२।।

बे-लगाम मति रूपी घोड़ा ।
‘दीना’ नृप शकुनी ने दौड़ा ।।
वह जा रुका जगह अनजानी ।
मन मानी हिस्से मनमानी ।।
बुन चाला मकड़ी के जैसा जाल ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।३।।

कुरु वंशी धृत-राष्टर राजा ।
दिशा दिशा जश जिनका गाजा ।।
पर न आँख में उनके ज्योती ।
भेंट रहे प्रभु-पद दृग मोती ।।
उन्हें बहिन दे, क्यूँ न करूँ उपकार ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़।।४।।

अर मैना सुन्दर, गांधारी ।
प्रतिभारत प्रति-भारत नारी ।।
ना अधिकांगन, मैं अर्धागंन ।
बांध चली कह पाटी आँखन ।।
शकुनी आया साथ बहिन ससुराल ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।५।।

प्यारा भांजा, मामा प्यारे ।
रहा न ‘बच्चा’ विष घोला ‘रे ।।
भरसक पट्टी उलट पढ़ाई ।
भाई-भाई ठान लड़ाई ।।
युद्ध महाभारत उतरे बन काल ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।६।।

सौ भांजे सोये चिर निद्रा ।
मामा मन उमडे़ आनन्दा ।।
अहा ! शत्रु जड़ मूल मिटाया ।
छला किसे ? पर, समझ न आया ।।
खुश जो अपने पैर कुल्हाड़ी मार ।
पछताया शकुनी घर बहिन उजाड़ ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम आर्जव दीव ।।

बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।
साधो ! उत्तम शौच धर्म बेजोड़ ।।

गई रात आधी, थी लेटा ।
रही रात आधी, उठ बैठा ।।
रात अमावस, बिजुरी पानी ।
नंगे पैर, चाल मनमानी ।।
बढ़ा जा रहा इक नाले की ओर ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।१।।

पहुंचा सके न बाधा आंधी ।
नाले पहुँच कमर थी बांधी ।।
बहती लकड़ी उसे पकड़नी ।
जान डाल जोखिम में अपनी ।।
उतर चला बहती धारा में दौड़ ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।२।।

रानी साथ निकलते राणा ।
लख यह दृश्य हुआ थम जाना ।।
राजा से तब बोली रानी ।
दुखी बड़ा लगता ये प्राणी ।।
ला इसके जीवन में दीजे मोड़ ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।३।।

हाथ इशारे उसे बुलाया ।
सिर के बल वह दौड़ा आया ।।
ले दृग खुशी, विनय भावों में ।
अपनी पगड़ी रख पांवों में ।।
ढ़ोक दे चला, विनय दुशाला ओढ़ ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।४।।

गले लगा फिर राजा बोले ।
दुख अपना बोलो, ओ ! भोले ।।
लुब्धक कहे, कमी बस थोड़ी ।
पाने फिरूॅं बैल इक जोड़ी ।।
नृप बोले, चल बैल दिया, दुख छोड़ ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।५।।

राजा उसे गुशाला लाई ।
बोले, बैल खोज लो भाई ।।
लुब्धक बोला वह ना इसमें ।
राजा बोले देखूॅं चल मैं ।।
घर तेरे, वह तेरा बैल अमोल ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।६।।

लुब्धक वैभव बने देखते ।
रत्न स्वर्ण के पशु अनेक थे ।।
देख बैल कम, नृप फ़रमाई ।
कर न सकूॅंगा, यह भरपाई ।।
क्षमा मांगता हूॅं, हाथों को जोड़ ।
बंध्या लुब्धक संध्या, करके होड़ ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम शौच प्रदीव ।।

महिमा सत्य धर्म की बड़ी अनूठ ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।

सिंह सेनिन सिंहपुर रजधानी ।
नाम रामदत्ता पटरानी ।।
कहूँ झूठ तो जिह्वा काटूॅं ।
फिरे जनेऊ लटका चाकू ।।
राज पुरोहित पूर्व नाम श्रीभूत ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।१।।

नाम समुद्र-दत्त व्यापारी ।
रत्न दीप सुन, रत्न पिटारी ।।
रत्न पुरोहित को दे अपने ।
चढ़ा जहाज पूरने सपने ।।
लौट रहा, तब डूबा जहाज टूट ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।२।।

लगा किनारे, ठूठ सहारे ।
बोला आन पुरोहित द्वारे ।।
मेरे रत्न मुझे लौटा दो ।
विप्र कहे ओ ! माटी माधो ।।
लगता पगलाया, या लागे भूत ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।३।।

वणिक चला नृप न्याय कराने ।
राम कथा निज लगा सुनाने ।।
आन पुरोहित नृप से बोला ।
यह झूठा, प्रभू हूॅं मैं भोला ।।
चाकू और जनेऊ रहे सबूत ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।४।।

वणिक साॅंच अब पागल होके ।
तरु चढ़ कथा कहे यह रो के ।।
दया रामदत्ता को आई ।
चौसर विप्र बुलाय खिलाई ।।
छुरी, जनेऊ जीते, जीत अंगूठ ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।५।।

दासी को भेजा रानी ने ।
पत्नी-विप्र रत्न दे दीने ।।
और रत्न मण मिला दिखाये ।
पांच रत्न निज वणिक उठाये ।।
पानी पानी, हुआ दूध का दूध ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।६।।

विप्र दण्ड भज गोबर खाया ।
मुक्के खाया, सह नहिं पाया ।।
सम्पत छीन, किया मुँह काला ।
हर कोई थू थू कह चाला ।।
काल अनिश्चित चाली कीरत रूठ ।
सत्यघोष पछताया कहकर झूठ ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम सत्य प्रदीव ।।

महिमा उत्तम संयम धर्म अपार ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।

पाण्डव पांच दुपद इक छोरी ।
खण्ड-प्रस्थ था आया झोरी ।।
मेहनत रंग ला चली इनकी ।
रचना चोर नयन की, मन की ।।
इन्द्र-प्रस्थ कह कर जन रहे पुकार ।
महिमा उत्तम संयम धर्म अपार ।।१।।

सुनी प्रशंसा कौरव आये ।
तले दांत अंगुलियां दबाये ।।
पानी कहाँ, जहाँ था पानी ।
पानी वहॉं, जहॉं ना पानी ।।
मायामयी फर्श, द्वार, दीवार ।
महिमा उत्तम संयम धर्म अपार ।।२।।

आशंका पानी की होती ।
पाण्डव चलें, उठा कुछ धोती ।।
फिर भी गिर इक जगह भिंजो ली ।
देख द्रोपदी हँसकर बोली ।।
अंधों के अंधे ही बाल गुपाल ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।३।।

रात रात ना आती निद्रा ।
चुभे द्रोपदी मजाक भद्दा ।।
चौसर पाण्डव बुला खिलाई ।
पासें शकुनी हाथ थमाई ।।
पाण्डव राज चिन्ह भी चाले हार ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।४।।

झुका नजर पाण्डव उठ चाले ।
कौरव बोले, क्या सब हारे ।।
सुन पत्नी भी धन कहलाई ।
बची खुची भी नाक कटाई ।।
हाय ! द्रोपदी भी कर चले निछार ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।५।।

गूंजे कौरव कान मजाका ।
हरो चीर दुश्शासन जाका ।।
हम सब अंधे कहा इसी ने ।
सिद्ध कराया, आज विधी ने ।।
मचा तीन लोकों में हाहाकार ।
पछताई खो संयम दुपद दुलार ।।६।।

लीन द्रोपदी भगवत ध्याना ।
जान उदय कृत कर्म पुराना ।।
देवों का आसन हिल चाला ।
स्वर्ग उतर सति विघ्न निवारा ।।
चीर बढ़ा जा खड़ा अखण्ड कतार ।
महिमा उत्तम संयम धर्म अपार ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम सयंम दीव ।।

करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।
पाल बाल तप पछ्ताया भवदेव ।।

नाम एक भवदत्त रखा है ।
शिशु दूजे भवदेव कहा है ।।
इक दिन आगी घर में लागी ।
बच निकले बच्चे बढ़भागी ।।
छीन चला मां पिता किन्तु दुर्देव ।
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।।१।।

बड़े हुए, मेहनत रॅंग लाई ।
जेबों से ध्वनि खनखन आई ।।
कभी संघ-मुनि नगरी आया ।
उर भवदत्त विराग समाया ।।
नगन हुआ, गुरु चरण धुला दृग रेव ।
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।।२।।

कभी ग्राम इस निकला फिर से ।
मन आया लूॅं भिक्षा घर से ।।
ज़श्न आज भवदेव सगाई ।
खुश था बड़ा अहार कराई ।।
पीछे मुनि कुछ दूर चला स्वयमेव ।
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।।३।।

क्यों भवदत्त ? कहें मुनि नाना ।
क्या इसको भी श्रमण बनाना ।।
मुनि भवदेव बना कहने से ।
जब तब जुड़े प्रिया सपने से ।।
इक दिन मोड़ चला घर तरफी खेव ।
पाल बाल तप पछ्ताया भवदेव ।।४।।

मंदिर दिखा जहॉं कल घर था ।
लख प्रभु सेवारत इक वृद्धा ।।
कहॉं नागवसु ? पूछा उससे ।
चिर यौवन या रूठा उससे ।।
जीवित या बन चाली काल कलेव ।
पाल बाल तप पछ्ताया भवदेव ।।५।।

वृद्धा कहे नागवसु मैं ही ।
तुम्हें जान मुनि, देह विदेही ।।
मंदिर धन तुम खरच रचाया ।
पर न छोड़ पाये तुम माया ।।
साधा मुनि बन बारह बर्ष फरेव ।
पाल बाल तप पछ्ताया भवदेव ।।६।।

हृदय छू चली प्रिया देशना ।
मोक्ष मार्ग बस नगन भेष ना ।।
मन अब नगन बनाऊँगा मैं ।
लगन निजात्म लगाऊॅंगा में ।।
अबकी जिनगुण सम्पद् करने जेब ।
करो सेव उत्तम तप धर्म सदैव ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम तप पिरदीव ।।

सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।
दुखी सेठ परिजन ग्रहीत वृत त्याग ।।

उज्जैनी नगरी अति प्यारी ।
सागरदत्त नाम व्यापारी ।।
बच्चे सात विवाहित सारे ।
शशि भा सेठानी शिशु तारे ।।
लिखी कोटि छप्पन दीनारे भाग ।
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।।१।।

कर मुनि दर्श, कहे सेठानी ।
पालन में जिसके आसानी ।।
व्रत वह दीजे, भाग विधाता ! ।
साल साल भर में जो आता ।।
रोट तीज व्रत चौबीसी कर जाग ।
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।।२।।

बच्चे उलट लगे समझाने ।
व्रत वो रखें, न घर जिन खाने ।।
बच्चों की बातों में आई ।
सेठानी प्रण निभा न पाई ।।
कंकर बनी दिनारें, अनरव फाग ।
दुखी सेठ परिजन ग्रहीत वृत त्याग ।।३।।

सुता हस्तिना-पुर थी रहती ।
कहती, मैं न मदद कर सकती ।।
पुर बसंत ससुराल कहाई ।
लखा न उसने आंख उठाई ।।
भगे मित्र घर, लगे न चोरी दाग ।
दुखी सेठ परिजन ग्रहीत वृत त्याग ।।४।।

सेठ समुद्र-दत्त पुर-चंपा ।
लख साधर्मी, रख अनुकंपा ।।
बहना सेठानी को माना ।
काम-काज दे, दिया ठिकाना ।।
ज्वार दिया, कटु तेल ‘कि जगे चिराग ।
दुखी सेठ परिजन ग्रहीत वृत त्याग ।।५।।

आज हमारा व्रत शिवदाई ।
नन्द कहे, इक दिन भौजाई ।।
ननद काल, जो व्रत था तोड़ा ।
निन्दा की, हाथों को जोड़ा ।।
रोट हाथ जा ननन्द, स्वर्ण सुहाग ।
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।।६।।

कंकर, खा पलटी दीनारें ।
अपना रिश्तेदार पुकारें ।।
गूॅंज चली घर में किलकारीं ।
खुश बेटे, खुश बहुयें सारीं ।।
दीक्षित सेठ सिठानी भर वैराग्य ।
सुखकर उत्तम त्याग धर्म अनुराग ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम त्याग प्रदीव ।।

‘भा’ उत्तम आकिंचन बढ़ शश पून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।

नाम सात्यकि साधु पिता का ।
जेष्ठा नाम साधवी माता ।।
पाला पुसा चेलना माँ-सी ।
करता फिरे ठिठोली हॉंसी ।।
कहे चेलना रंग दिखाये खून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।१।।

रुद्र पूछता मांसी मोरी ।
पिता कौन, मां कौन कहो ‘री ।।
कथा चेलना ने कह दीनी ।
वन की राह रुद्र ने लीनी ।।
खिला माँ पिता से मिल हृदय प्रसून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।२।।

बेटा, दुनिया स्वास्थ साधे ।
नर-तन धर तर आये आधे ।।
जोर जरा सा और लगाना ।
दूर न हमसे अधिक ठिकाना ।।
कर सवार लो सर इस बार जुनून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।३।।

रुद्र दिगम्बर मुनि बन चाला ।
बरषा तरु-तल आसन मांड़ा ।।
ठण्डी आन खड़ा चौराहे ।
ग्रीष्म चढ़ा गिरि सूरज दाहे ।।
रात चौगुना तपता तप दिन दून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।४।।

द्वादश अंग कहे श्री जी ने ।
ग्यारह अंग सभी पढ़ लीने ।।
नौ पूरब तक पढ़ता आया ।
दश विद्यानु-वाद फिर गाया ।।
खड़ीं हाथ जोड़े विद्या मन ऊन ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।५।।

विद्या बोलीं बनकर दीना ।
सार्थक नाम ‘आप्’ हम मीना ।।
हमें शरण में ले लो अपनी ।
सधा सभी तो, तजो सुमरनी ।।
रमा रखी क्यों हृदय विरागी धून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।६।।

हाय ! रुद्र बातों में आया ।
बोल पड़ा दिखलाओ माया ।।
भ्रष्ट ज्ञान दर्शन आचरणा ।
मानो जीते जी ही मरना ।।
मंदिर व्रत बिन कलश समाधि अपून ।
आश पाँश फॅंस रुद्र साधना शून ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
धर्म अकिंचन दीव ।।

उत्तम ब्रह्मचर्य अपने सा आप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।

बसंत उत्सव झूमें सारे ।
द्वारे द्वारे वन्दन वारे ।।
निकली हाथी राज सवारी ।
राजा नजर पड़ी एक नारी ।।
काम बाण भिद उपजा मन संताप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।१।।

चिड़िया चहक, न उसे सुहाती ।
बगिया महक, न उसे लुभाती ।।
भोजन उसे न अब रुचता है ।
मलमल का अचकन चुभता है ।।
सुमरे मन फिर मिलन मृग-नयन जाप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।२।।

देर रात तक नींद न आई ।
झपकी लग वह हूर दिखाई ।।
भेष भिखारी का रख लीना ।
दीनानाथ, चला बन दीना ।।
कुल मर्याद उलांघ रहा न काँप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।३।।

भिक्षाम् देही, भिक्षाम् देही ।
वह कह रहा, रूप रस नेही ।।
नैन तृप्त रस रूप चुरा के ।
गोरी पर्शित भिक्षा पाके ।।
कर धन ! धन्य ! कान सुन वचनालाप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।४।।

घर आया तिष्णा बड़ चाली ।
ले पुनि आश रूप रस प्याली ।।
रोज सुबह बन चले भिखारी ।
वह नारी पर इक दिन हारी ।।
वन फल मांग चला भिक्षुक मुख आप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।५।।

अबला बोली पति विदेश में ।
व्रति स्वदार गर, तो क्षणेक में ।।
आंगन वही वृक्ष लग जाये ।
फल जो भिक्षुक आन मंगाये ।।
और लगे फल, जो मैं सति निष्पाप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।६।।

दाब लगा दूॅं, अब मैं किसको ।
फल पक जायें, दे दूॅं इसको ।।
मन विशुद्ध नृप दाव लगाया ।
नृप समेट कर अपनी माया ।।
जा सीधे घर अपने लागा हांप ।
राजा पछताया रख मन में पाप ।।७।।
दोहा
लगा पता, लागे पते,
अब तक जितने जीव ।
उनके हाथों में रहा,
उत्तम ब्रह्म प्रदीव ।।

*दोहा*
वत्सलंग पूर्णांक पा,
जा पहुँचे शिव धाम ।
विष्णु कुमार ऋषीश को,
बारम्बार प्रणाम ॥

रक्षा बन्धन पर्व महान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान ॥
नमुचि, वृहस्पति, बलि, प्रहलाद ।
ज्ञाता वेद, उपनिषद आद ॥
नगरी उज्जैनी मनहार ।
नृप श्री वर्मा मन्त्री चार ॥
सबके सब पुतले अभिमान ।
अंग वात्सल्य सर्व प्रधान ॥

दर्श ससंघ अकम्पन सूर ।
बढ़ा देख चेहरे-नृप नूर ॥
बोल नीसरे ये मुख-‘मन्त’ ।
मूरख सब के सब निर्ग्रन्थ ॥
तभी न कीं बातें दो ज्ञान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान ॥

मुनि श्रुत सागर आते देख ।
बोल पड़ा मन्त्री नृप एक ॥
बैल आ गया खा पी खूब ।
हारे मन्त्र-‘वाद’ सर डूब ॥
चूँकि चुभी आ मन-मुनि वाण ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान ॥

गुरु ने सुन सारी मुन बात ।
कहा ‘योग-बुत’ साधो रात ॥
आ मन्त्री निश किया प्रहार ।
कीलित देख लिये तलवार ॥
‘देश-निकाला, नृप फरमान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान ॥

हस्ति-नागपुर पद्म नरेश ।
जीत-हृदय, बन रक्षक देश ॥
वर मुँह माँगा लागा हाथ ।
बाद कभी ले लेंगे नाथ ॥
मन्त्री सभी बोले दे मान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान ॥

नगर ससंघ अकंपन साध ।
मंत्री दिलाई वर नृप याद ॥
राज आठ दिन लिया संभाल ।
रचा यज्ञ नर-मेध कराल ॥
साथ घोषणा किमिच्छ-दान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान ॥

पद्म भात मुनि विष्णु कुमार ।
मुख क्षुल्लक सुन हाहाकार ॥
माँग तीन डग ली बलि-भूम ।
बनकर वटु-वामन मासूम ॥
बलि संकल्पित ले जल-पाण ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान ॥

बल विक्रिय डग प्रथम सुमेर ।
नाप मानुषोत्तर बिन देर ॥
बलि आदिक से बोले खीज ।
रख लूँ कहाँ ? कहो डग तीज ॥
माँगें मन्त्रि अभय वरदान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान ॥

श्रावण शुक्ला पूरण मास ।
धुन जय-जय गूँजी आकाश ॥
फिर प्रायश्चित ले ऋषि राज ।
पुन: बैठ सद्-ध्यान जहाज ॥
पहुँचे ‘सहज-निराकुल’ थान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान ॥
रक्षा बन्धन पर्व महान ।
अंग वात्सल सर्व प्रधान ॥

*दोहा*
रक्षा बन्धन पर्व पे,
उठा रहा सौगन्द ।
लगा दाव पे प्राण भी,
राखूँगा ‘पत- पन्थ’ ॥

महिमा रक्षा बंधन पर्व अपार ।
जयतु सप्त शत मुनि जय विष्णु कुमार ।।

नगरी उज्जैनी रजधानी ।
नृप श्रीधर्मा, श्रीमति रानी ।।
नमुचि, वृहस्पति, बलि प्रहलादा ।
मंत्रि मन्त्रणा मद आमादा ।।
सप्त शतक मुनि सहित पधारे ।
सूर अकम्पन तारण हारे ।।
देख भक्त जन आना जाना ।
राजा ने भी जाना ठाना ।।
रोक खड़े मन्त्री चारों के चार ।
लो पीछे, जब चलने नृप तैयार ।।१।।

राजा ने दी ढोक सभी को ।
ध्यान मग्न थे चूँकि सभी वो ।।
तभी न आर्शीर्वाद नवाजा ।
वृत्ति निरीह प्रभावित राजा ।।
झुके न, मन्त्री अड़े खड़े हैं ।
बोले, ये सब मूर्ख निरे हैं ।।
पहले ही चित चारों खाने ।
लाज बचायें, मौन बहाने ।।
चलो यहाँ से चलें शीघ्र सरकार ।
समय कीमती यूँ ही व्यर्थ निछार ।।२।।

देख मार्ग में आते मुनि को ।
मन्त्रि लगे छेड़ने उनको ।।
बैल पेट भरकर आ चाला ।
भैंस बराबर अक्षर काला ।।
उत्तर दे चाले तपाक से ।
मुनि श्रुत सागर सार्थ आप से ।।
वाद विवाद मन्त्रिगण हारे ।
गूंजे दया धर्म जयकारे ।।
साँच कहावत नीचे ऊंट पहाड़ ।
नजर चुरा मंत्री गण नौ दो ग्यार ।।३।।

मुनि ने गुरु से सब कह डाला ।
गुरु ने कहा सुनो यति बाला ।।
आती आफत के पग बांधो ।
प्रतिमा-योग वहीं जा साधो ।।
ठाना कहर संघ पर ढ़ाना ।
निकले मन्त्री लिये कृपाणा ।।
देख सामने अपना वैरी ।
किया प्रहार, न कीनी देरी ।।
कीलित सभी, खड़े बुत से लाचार ।
नृप ने सुबह देश से दिये निकाल ।।४।।

पहुंच हस्तिनापुर अब मन्त्री ।
खड़े पद्म नृप सेवक पंक्ति ।।
सिंहबल नाम शत्रु नृप पदमा ।
ला बलि खड़ा किया नृप कदमा ।।
खुश होकर नृप बोले बलि से ।
मांगो मनचाहा वर मुझ से ।।
बलि बोला, मम दृग पथ गामी !
समझें उसे धरोहर स्वामी ! ।।
हुआ अकम्पन सूर ससंघ विहार ।
कभी हस्तिनापुर लख वर्षा काल ।।५।।

बलि ने नृप वर याद दिलाया ।
सात दिवस का राज मँगाया ।।
घेर संघ जूठन फिकवाई ।
गला रुधा, यूँ धुंआ कराई ।।
दूर न जब तक यह उपसर्ग ।
साध खड़े मुनि कार्योत्सर्ग ।।
अवधि ज्ञान दृग दिया दिखाई ।
शिख ढ़िग विष्णु कुमार पठाई ।
सुन रिध विक्रियधर उपसर्ग निवार ।
हेत परीक्षा मुनि दी बाहु पसार ।।६।।

बलि से बोले विष्णु कुमारा ।
क्या बिगाड़ते साधु तुम्हारा ।।
क्यों ये पाप कार्य करते हो ।
क्या उससे भी ना डरते हो ।।
बलि बोला, ये राज हमारा ।
छोड़ इसे, यह करें विहारा ।।
ऋषि बोले, यह जा नहीं सकते ।
जगह एक बरसात ठहरते ।।
अच्छा सुनो करो इतना उपकार ।
भूमि तीन डग दे दो, बनो उदार ।।७।।

बलि बोला, ना ज्यादा दूँगा ।
बाद खबर इन सबकी लूँगा ।।
फिर क्या ? विष्णु कुंवर हुंकारे ।
बढ़ ज्योतिस्-मण्डल छू चाले ।।
डग पहले सुमेर गिर नाका ।
दूज मानुषोत्तर गिर राखा ।।
डग तीजा नभ में लहराये ।
नर, सुर, नाग धरा थर्राये ।।
निरत भक्ति सौधर्म साथ परिवार ।
मुनि सकोचि विक्रिय सुन धुन रिध-धार ।।८।।

क्षमा संघ से बलि ने मांगी ।
‘धर्म वृद्धि’ कह चले विरागी ।।
श्रावक मुनि पड़गा हरषाये ।
नवधा भक्ति अहार कराये ।।
रक्षा बंधन पर्व मनाया ।
जश मुनि विष्णु कुमार बढ़ाया ।।
प्रायश्चित लेने ऋषि बढ़ चालें ।
कर्म सभी ध्यानानल जारे ।।
समय मात्र परिणाई शिवपुर नार ।
लागी सौख्य ‘निराकुल’ अविरल धार ।।९।।
दोहा
यह रक्षा बंधन कथा, पढ़ें सुन जे जीव ।
उनके जीवन में जगे, सम्यक् ज्ञान प्रदीव ।।

दूर न छिदना स्त्री लिंग इस बार ।
सति बसन्त-सेना कुल-वन्ती नार ॥

नाम नगर कौशाम्बी प्यारा ।
विंध्य सेन नृप हृदय विशाला ॥
नाम विंध्य सेना पटरानी ।
दुहिता इक छवि दिव्य सुहानी ॥
चौषठ कला सभी से आँखें चार ।
सति बसन्त-सेना कुल-वन्ती नार ॥

जुबाँ हुई कम दु-तीस पहरे ।
माथ मात चिन्ता शल लहरे ॥
पिता चले वर खोज निकाला ।
विरद युधिष्ठिर धवल निराला ॥
मन ही मन दे सुता पिता निर्भार ।
सति बसन्त-सेना कुल-वन्ती नार ॥

खबर कहीं से उड़ती आई ।
अगनी लाखा महल जराई ॥
सत्-भूसाई, पाप विजेता ।
जरे पाण्डु सुत मात समेता ॥
टूटा सिर सेना बा…सन्त पहाड़ ।
सति बसन्त-सेना कुल-वन्ती नार ॥

भोली सुता पिता से बोली ।
अब न उठेगी बिटिया डोली ॥
रंगोली माँ अब न सँजेगी ।
हो ‘री दीवाली न मनेगी ॥
माँग रही भरने से, हाथ उजाड़ ।
सति बसन्त-सेना कुल-वन्ती नार ॥

भव पूरब जुग तोड़ा होगा ।
जुग जुग जिया न पति, फल भोगा ॥
अब धौरी साड़ी ओढ़ूँगी ।
कर्म निकाच बंध तोडूँगी ॥
मात पिता दृग लागी अशुअन धार ।
सति बसन्त-सेना कुल-वन्ती नार ॥

बोले पिता सुनो ‘री बिटिया ।
भले न धारो माथे बिंदि‌या ॥
पढ़ो समय कुछ, जुड़ो शाम से ।
भाग जगे, हो मिलन स्वाम से ॥
अबला ठहरी कर न सकी इंकार ।
सति बसन्त-सेना कुल-वन्ती नार ॥

पास आर्यिका करे पढाई ।
आ पहुँचे पाण्डव सँग माई ॥
कहे कुन्ति यह किसकी छोरी ।
बाल उमर तप साधे ओ ‘री ॥
कहे आर्यिका राम-कथा दुखियार ।
सति बसन्त-सेना कुल-वन्ती नार ॥

बसंत से माँ कुन्ती बोली ।
आँसू पोंछ बहुरिया मोरी ॥
अब तेरे दुख के दिन बीते ।
हारे कौरव, पाण्डव जीते ॥
राखे साईं, सके कौन फिर मार ।
सति बसन्त-सेना कुल-वन्ती नार ॥

आखर ब्रम-चर, खातिर-पित उल्लेख ।
भीष्म पितामह अपने जैसे एक ॥

नाम पिता पाराशर राणा ।
सैर किनारे यमुना ठाना
बैठी तरी सुन्दरी देखी ।
बैठ नाव दृग चंचल फेंकी
लौटी दृष्टि न, देख रहे दृग टेक ।
भीष्म पितामह अपने जैसे एक ॥

सुनने वाणी मिसरी घोरी ।
बोले नृप तू किसकी छोरी
नायक नाविक पिता हमारे ।
जग कह ‘गुणवत’ मुझे पुकारे
‘माँग’, माँग भर लो, न उलाँघो रेख ।
भीष्म पितामह अपने जैसे एक ॥

राज…लाज खो राजन् खोला ।
नाम सार्थ धर धीवर बोला
सुत मम सुता कहाँ सुत-गंगा ।
थके न जिन विरदावल खम् गा
पिता सुता मुख नत क्या सकता देख ।
भीष्म पितामह अपने जैसे एक ॥

देख पिता का मुख मुरझाया ।
गंगा सुत घर धीवर आया
धीवर बोला राजकुमारा ।
आप भाँत जब सौत दुलारा
तब कैसे सुत सुता राज अभिषेक ।
भीष्म पितामह अपने जैसे एक ॥

धीवर से गंगा सुत बोले ।
चल दीना वर स्वप्न सँजों ले
पर धीवर फिर बोल चला है ।
निकला इक काँटा अगला है
बोले भीष्म दिया चल वह भी फेंक ।
भीष्म पितामह अपने जैसे एक ॥

और उठा अंजुल में पानी ।
दानी बन चाले लासानी
धरा, पताल सुने ये अम्बर ।
शपथ उठाऊँ साक्ष दिगम्बर
तज वृति-श्वान, रखूँगा हंस विवेक ।
भीष्म पितामह अपने जैसे एक ॥

आखर ब्रम-चर, खातिर-पित उल्लेख ।
भीष्म पितामह अपने जैसे एक ॥

क्षमा धार माँ द्रोपद सक्षम वीर ।
माँ अश्वत्थामा दृग छलका नीर ॥

सिध दोषाकर निशि जग दोई ।
दबे पाँव आया है कोई
स्याही मनसूबे लाया है ।
मृत्यु पूर्व मरने आया है
क्या कर पायेगा सन्मृत्यु अखीर ।
क्षमा धार माँ द्रोपद सक्षम वीर

पुत्र द्रोपदी पाये सोते ।
भाव कर चला पूरे खोटे
था लाया दो-धार कटारी ।
लगा भागने शीष उतारी
छुपे कहाँ अंगार कपासी चीर ।
क्षमा धार माँ द्रोपद सक्षम वीर

भीम, युधिष्ठिर, अर्जुन आगे ।
नकुल और सहदेवा जागे
पकड़ जकड़ कर रखा भुजा में ।
सार्थ भीम मनु मृत्यु नामे
करे मना हित छिड़कन सार्थ अबीर ।
क्षमा धार माँ द्रोपद सक्षम वीर

थम न रही माँ असुअन धारा ।
शिशु माँ को प्राणों से प्यारा
पाण्डव बोले द्रुपद दुलारी ।
पकड़‌ रखा यह अत्याचारी
दण्ड इसे दे, हर लो अपनी पीर ।
क्षमा धार माँ द्रोपद सक्षम वीर

इसे छोड़ दो द्रोपद बोली ।
माँ न शोभती खूनी होली
छींटे गुरु माँ तक जायेंगे ।
कोसेगी जब तल-फायेंगे
फिरे न बिना सहे, दुख लेख लकीर
क्षमा धार माँ द्रोपद सक्षम वीर

माँ अश्वत्थामा दृग छलका नीर ।
क्षमा धार माँ द्रोपद सक्षम वीर

सुगंध दशमी व्रत कथा

धन ! सुगन्ध दशमी व्रत पाला ।
तन दुर्गन्धा सुगन्ध वाला ॥

द्वीप द्वीप जम्बू मनहारी ।
शिव मंदिर नगरी इक न्यारी ॥
राजा नाम प्रियंकर नामी ।
रानी मनोरमा अभिरामी ॥

धर्म न जाने, कृत मन-माने ।
भँजा रही कृत पुण्य पुराने ॥
करे घमण्ड रूप-सी काया ।
जब तब बीड़ा पान चबाया ॥

मुनि सुगुप्त इक रोज पधारे ।
मुद्रा हित आहार बना ‘रे ॥
महल अटार खड़ी मतवाली ।
पान-पीक छोड़ी पिचकारी ॥

धिक् अहार अन्तराय डाला ।
लिख डाला कलि ‘पा…तर’ काला ॥
धन ! सुगन्ध दशमी व्रत पाला ।
तन दुर्गन्धा सुगन्ध वाला ॥

कोढ़ फूट चाला ‘रे तन में ।
थू थू हो चाली त्रिभुवन में ॥
ला पटकी वन में, दुख भोगा ।
रोग शोक आमरण संयोगा ॥

पा पर्याय गधी ना मानी ।
लात मार दी ‘पा…तर’ पाणी ॥
बनी शूकरी मैला खाया ।
कहाँ अपहरी ‘मैं’ हा ! माया ॥

भूसे बन कूकर की तिरिया ।
और और करती मन करिया ॥
पाप अभी बाकी है काफी ।
पाप सफाया कब बिन माफी ॥

जग-त्रि ‘गलती’ दृग जल डाला ।
‘भूला’ ओढ़ा क्षमा दुशाला ॥
धन ! सुगन्ध दशमी व्रत पाला ।
तन दुर्गन्धा सुगन्ध वाला ॥

विजय सेन राजा की रानी ।
नाम चित्र लेखा गुणधानी ॥
मरी कूकरी, सुता कहाई ।
सहन न यूँ दुर्गन्ध समाई ॥

यूँ न जानता कोई जग में ।
ख्यात सुता नृप दोई जग में ॥
कह दुर्गन्धा जगत् पुकारे ।
करो न गंदा कृत्य हहा ! ‘रे ॥

नम नैना जागृत दिन रैना ।
श्रमण पधारे सागर-सेना ॥
आ नृप तीन परि-क्रमा दीनी ।
बैठा चरण धूल सिर लीनी ॥

कह डाला दुख अपना सारा ।
टूट न रही सुता दृग धारा ॥
धन ! सुगन्ध दशमी व्रत पाला ।
तन दुर्गन्धा सुगन्ध वाला ॥

मुनि बोले बिटिया मत रोओ ।
जल नवकार पाप रज धोओ ॥
दशमी भादो सुदी अनोखी ।
देनहार सद्‌गुण रत्नों की ॥

पूजो शीतलनाथ जिनेशा ।
रख उपवास पूर्ण निर्दोषा ॥
हरष बरष दश करना छोरी ।
रख विश्वास भरेगी झोरी ॥

दृढ संकल्पित राज कुमारी ।
दुष्कृत पूर्व आज दिल भारी ॥
पाल चली व्रत, भर श्रद्धा से ।
सुर…भी बढ़ रजनी-गंधा से ॥

गूँजा त्रिभुवन जय जयकारा ।
सांचा प्रभु शीतल इक द्वारा ॥
धन ! सुगन्ध दशमी व्रत पाला ।
तन दुर्गन्धा सुगन्ध वाला ॥


दोहा

गलती सब से बन पड़े,
रोना धोना छोड़ ।
कान खींच, ले दृग भरे,
प्रीत प्रभो से जोड़ ॥

सुहाग दशमी व्रत कथा

व्रत सुहाग दशमी अपने-सा एक ।
सोकर उठा, मुआ पति मनु अभिलेख ॥

थे इक सेठ और सेठानी ।
भरा आँख में रहता पानी ॥
पके कान सुन बाँझ उलाहन ।
बैठ रो रही इक दिन आँगन ॥
ग्यावन देख तभी इक गैय्या ।
प्रसव कराया, दी छत छैय्या ॥
गो सेवा कर पुण्य कमाया ।
रात देव सपने में आया ॥
बोला, ‘री है तुम हाथन सुत रेख ।
व्रत सुहाग दशमी अपने-सा एक ॥

सत् शिव सुन्दर सुत इक जन्मा ।
थके न बधाई दे जन-जन माँ ॥
आन ज्योतिषी पत्रा खोला ।
ले आँखों में पानी बोला ॥
कहते हुये फटे जी म्हारा ।
वर्ष जियेगा यह बस बारा ॥
सुनते ही माँ और पिता ने ।
किये यत्न विधि लेख मिटाने ॥
‘भुला द्वारिका जली’ अटल विध लेख ।
व्रत सुहाग दशमी अपने-सा एक ॥

सारे जग में एक अकेली ।
माँ ले आई बहु अलबेली ॥
बरस बार-वा कुछ बाकी है ।
बहु ले जा पीहर ‘राखी’ है ॥
रात आखरी डसने आई ।
गले लगा शिशु रोवे माई ॥
यम सिवाय जग तीन दयाला ।
हरने प्राण काल बढ़ चाला ॥
चीख पड़ी माँ शिशु भू‌-शाई देख ।
व्रत सुहाग दशमी अपने-सा एक ॥

आज वहाँ पीहर व्रत साधा ।
बहु ने प्रभु शीतल आराधा ॥
व्रत सुहाग दशमी अनमोला ।
उठे नार सधवा ही डोला ॥
चूनर अपने सी बढ़िया है ।
अक्षत पुण्य सजी बिंदिया है ॥
जाने क्यूँ पर थमे न हिचकी ।
कर पतिदेव याद वह सिसकी ॥
बिन संदेश आन पी-घर ली टेक ।
व्रत सुहाग दशमी अपने-सा एक ॥

इक चावल गिर चाला द्वारे ।
कहाँ आप पतिदेव ? पुकारे ॥
काठे दूजे चावल दूजा ।
फिर तीजे, तीजा गिर गूँजा ॥
कोठे नवे, नवा गिर चावल ।
‘लख-पति’ हुई ख़ुशी से पागल ॥
आन अश्रु जल चरण पखारे ।
दस के दस चावल गिर चाले ॥
किया आन देवों ने ‘सत’ अभिषेक ।
व्रत सुहाग दशमी अपने-सा एक ॥

आन थमे चारण-रिध धारी ।
उठ सति झट पड़गाहन चाली ॥
पति ऊपर ऋषि पड़ी नजरिया ।
उठ बैठा, मनु तज कर निंदिया ॥
मिल सबने आहार कराये ।
ऋषि अशीष, रिध वन को आये ॥
तिनके तोड़ बलायें लेती ।
माँ-सासू लख अशीष देती ॥
‘सदा सुहा‌गन रहो’ अशीषे ।
पूतो फलो, नहाओ घी से ॥
दीक्षित बाद जगा उर हंस-विवेक ।
व्रत सुहाग दशमी अपने-सा एक ॥
सोकर उठा, मुआ पति मनु अभिलेख ।
व्रत सुहाग दशमी अपने-सा एक ॥

‘दोहा’
अनहोनी, होनी करे, ।
पुण्य बड़ा बलवान ॥
पुण्य कमा लो, भज प्रभो ! ।
जब तक घट में प्राण ॥

श्री-पाल

चम्पापुर रजधानी थी ।
कुन्द-प्रभा पटरानी थी ।
नृप अरि-दमन शरण-अरहन,
मातेश्वरी जिनवाणी थी ॥ ०1 ॥

एक नहीं दो दो सपने ।
हुये कुन्द-प्रभ माँ अपने ।
दिखा स्वर्ण-गिरि, कल्पद्रुम,
उठ नवकार लगी जपने ॥ ०2 ॥

नृप बोले हम बढ़‌भागी ।
सुत होगा दय-अनुरागी ।
सत् शिव-सुन्दर, दृग्-अविचल,
शिव अधिपति, परिणति जागी ॥ ०3 ॥

छाया उत्सव भारी है ।
गूँज उठी किलकारी है ।
पा तेजो-रवि कुल-दीपक,
छटी रात्रि अंधियारी है ॥ ०4 ॥

जिन-मन्दिर ले जा करके ।
नयनन खुशी अश्रु भर के ।
पालित-जिन श्री-पाल अतः,
खुश माँ-पिता नाम धर के ॥ ०5 ॥

शिशु बढ़ चला दूज चन्दा ।
शिशु पढ़ चला नीति ग्रंथा ।
जान योग्य, दे राज-पिता,
नाप चले दिव-शिव पंथा ॥ ०6 ॥

न्याय-निष्ठ नृप श्री पाला ।
पुण्य बरफ सा गल चाला ।
कुष्ठ बहाने पूर्व पाप ने,
अपना रंग दिखा डाला ॥ ०7 ॥

अपने वीर-दमन काका ।
मुकुट माथ उनके राखा ।
क्यों दुर्गन्ध सहे पिरजा,
बाहर नगर पंथ ताँका ॥ ०8 ॥


मैना सुन्दरी

नगर उज्जैनी सुहाना ।
प्रतापी पुहुपाल राणा ॥
नाम गुण सुन्दरी रानी ।
लाज रखती आँख पानी ॥ ०1 ॥

सुता इक सुर सुन्दरी है ।
सुन्दरी मैना निरी है ॥
शैव गुरु के पास जा के ।
खूब पढ़ लिख मन लगा के ॥ ०2 ॥

आ चली सुर सुन्दरी है ।
स्वयं…वर के खुश बड़ी है ॥
सार्थ ‘मैं… ना’ सुन्दरी भी ।
पास श्रमणी जो पढ़ी थी ॥ ०3 ॥

सुता मैना, पिता बोले ।
भाग तू भी स्वयं गो ले ॥
बता किससे ब्याह कर दूँ ।
नाम सार्थक आज ‘वर’ दूँ ॥ ०4 ॥

खड़ी मैना झुका नयना ।
लाज बहना, एक गहना ॥
पिता ने फिर पूँछ डाली ।
भू अँगूठे खोद चाली ॥ ०5 ॥

मौन स्वीकृति मान लें ना ।
खोल चाली मौन मैना ॥
ज्ञात ही होगा पिता जी ।
पिता निर्णय सुता राजी ॥ ०6 ॥

भाग जो हम लिखा लाते ।
और कब ? बस वही पाते ॥
आप चाहे जिस किसी से ।
ब्याह दें राजी खुशी से ॥ ०7 ॥

उसे पति मैं मान लूँगी ।
सुमर जन्म विमान लूँगी ॥
क्रोध से भर पिता बोले ।
कह रही क्या ? बिना तोले ॥ ०8 ॥

‘री कृतघ्नी है बड़ी तू ।
जमीं पर मेरी खड़ी तू ॥
पले छैय्या में हमारी ।
‘भाग’ विरथा तरफदारी ॥ ०9 ॥

बोलती मैना पिता से ।
मोह वशि विपरीत भासे ॥
बने हम तुम बस निमित्ता ।
कर्म की लीला विचित्रा ॥ 10 ॥

रह ठगे-से बाद जाना ।
फोड़ सिर क्यों ? शिला आना ॥
बात मैना सुनी जैसे ।
पिता दृग कुछ लोहु वैसे ॥ 11 ॥

सभासद् बोले दयाला ! ।
दो क्षमा नादान बाला ॥
बात ‘के गरमा न पाये ।
मंत्रि जोड़े हाथ आये ॥ 12 ॥

बात काटी और बोले ।
सैर हित तैयार घोड़े ॥
कोटि भट श्री पाल ओ ‘री ।
सात सौ मिल मित्र कोढ़ी ॥ 13 ॥

आन ठहरे जिस बगाना ।
जा पहुँचते वहाँ राणा ॥
पूछते नृप सहजता से ।
आप आ ठहरे कहाँ से ॥ 14 ॥

बोलते श्री पाल राया ।
मुझे कर्मों ने सताया ॥
फल उसी का पा रहा हूँ ।
‘भाग’ पीछे जा रहा हूँ ॥ 15 ॥

गीत कर्म सुनाई दीना ।
चुन जमाई इसे लीना ॥
सोचते पुहुपाल मन में ।
भाग-वादि साम्य इनमें ॥ 16 ॥

जचेगी यह खूब जोड़ी ।
हटी मैना, गलित कोढ़ी ॥
बिठा कर रथ पे बगल में ।
नृप उसे लाये महल में ॥ 17 ॥

और मैना को पुकारा ।
कहा, है यह पति तुम्हारा ॥
शपथ मैना ने उठाई ।
इन सिवा सुत, तात, भाई ॥ 18 ॥

होश माँ के उड़ चले हैं ।
पिता ये क्या कर चले हैं ॥
दुखी अम्बर, दुखी धरती ।
रो चली, क्या ? प्रजा करती ॥ 19 ॥

बेसुरी बांसुरी आँसे ।
सार्थ शह-ना…ई अभासे ॥
आ चली बेला विदाई ।
बहिन रोती-फूट माई ॥ 20 ॥

अन्त-अन्त पिता पसीजे ।
नैन भीतर, बाह्य भींजे ॥
हाय ! हावी कुमति सिर थी ।
टाल भी, होनी न टलती ॥ 21 ॥

कोसते सब भाग मैना ।
आमरण संजोग रैना ॥
कोटि भट पति किन्तु कोढ़ी ।
दया कर्म रखे न थोड़ी ॥ 22 ॥

कहे मैना, मौन धारो ।
और अब ताने न मारो ॥
मोर पति परमेश दूजा ।
विदा कर दो, करूँ पूजा ॥ 23 ॥

घाव पोंछूँ, दवा दे के ।
गांव पहुँचूँ, दुआ ले के ॥
चले सेवक उठा डोली ।
सताई दुर्दैव भोली ॥ 24 ॥

दूज…सिद्ध-पूज

बाद घर, पहले आ मंदर ।
खड़ी सविनय मैना सुंदर ॥
दिखे निर्ग्रंथ संत बैठे ।
ध्यान कछु…आ भीतर पैठे ॥ ०1 ॥

तीन दे प्रदक्षिणा मैना ।
लीन मुनि चरण टिका नैना ॥
ध्यान फिर ज्ञान लीन संता ।
स्वस्ति पढ़ते नम दृग-वंता ॥ ०2 ॥

सजल मैना बोली स्वामी ! ।
छुपा क्या ? तुम अंतर्यामी ! ॥
पुण्य गाढा हो, वर दीजे ।
पाप दिखला यम घर दीजे ॥ ०3 ॥

स्वपर हित साधन अनुरागी ।
संत मुख झिर अमरित लागी ॥
माड़ना सिद्ध चक्र माड़ो ।
भक्ति सिद्धों की उर धारो ॥ ०4 ॥

माह कार्तिक, फागुन, षाढ़ा ।
पर्व सिद्ध अष्टाह्निक न्यारा ॥
धार श्री सिद्ध-यंत्र कर के ।
माथ धारो श्रद्धा धर के ॥ ०5 ॥

छटेगी पाप रात्रि काली ।
मानेगी होली दिवाली ॥
सिद्ध सुमरण साबुन सोडा ।
आत्म दामन कर लो धौरा ॥ ०6 ॥

साध नवकार सिद्ध पूजा ।
सुंदरी मैना सति गूँजा ॥
कुष्ठ झर, कामदेव काया ।
हास मुख दुख-पीड़ित आया ॥ ०7 ॥

बाद श्रीपाल अग्नि ध्याना ।
कर्म सब झुलसा निर्वाणा ॥
आर्यिका बन मैना रानी ।
स्वर्ग अधिपत शिव रजधानी ॥ ०8 ॥

दोहा

‘सहज निराकुल’ सुख जहाँ,
और न वह शिव धाम ।
यही प्रार्थना वह कभी,
लिखे हमारे नाम ॥

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