सत्रहवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
सत्रहवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
नास्-तम्
कदा चिदु नहीं पढ़ना है
कदाचि-दु-पयासि
न राहु-गम्यः,
इस प्रकार भक्तामर जी के
सत्रहवें काव्य का पहला चरण हुआ
नास्-तम् कदाचि-दु-पयासि
न राहु-गम्यः,
अब स्पष्-टी
क-रोषि
फिर सह… सा नहीं पढ़ियेगा
और ‘सा’ आकार के साथ बोलना है
स-हसा
यु-ग-पज्-जगन्ति
इस प्रकार भक्तामर जी के
सत्रहवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
स्पष्-टी क-रोषि स-हसा
यु-गपज्-जगन्ति ।
अब ‘र’ अकार के साथ बोलना है
नाम्भो-धरोदर
निरुद्ध
आधा ‘प’ दो बार बोलना है
महा(प्)-प्रभाव:,
इस प्रकार भक्तामर जी के
सत्रहवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
नाम्भो-धरोदर निरुद्ध
महा(प्)-प्रभाव:,
अब सूर्याति-शायि-महि-मासि
‘य’ के आकार को
‘श’ के आकार को
‘म’ के आकार को
थोड़ा सा खींचियेगा
सूर्याति-शायि-महि-मासि
फिर दीर्घ उच्चारण करना है
मुनीन्द्र ! लोके
इस प्रकार भक्तामर जी के
सत्रहवें काव्य का चौथा चरण हुआ
सूर्याति-शायि-महि-मासि
मुनीन्द्र ! लोके ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
नास्-तम् कदाचि-दु-पयासि
न राहु-गम्यः,
स्पष्-टी क-रोषि स-हसा
यु-गपज्-जगन्ति ।
नाम्भो-धरोदर निरुद्ध
महा(प्)-प्रभाव:,
सूर्याति-शायि-महि-मासि
मुनीन्द्र ! लोके ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
न अस्तम्
कदाचित् उपयासि मतलब
आप कभी अस्त नहीं होते हैं
यह श्री भगवान् का विशेषण है
और
न राहुगम्यः मतलब
न राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं
और
स्पष्टीकरोषि मतलब
प्रकाशित करते हैं
सहसा मतलब शीघ्र ही
युगपत् मतलब एक साथ
जगन्ति मतलब
तीनों लोकों के लिए
और
न अम्भोधरोदर
निरुद्धमहा-प्रभावः
मतलब
मेघों के द्वारा आपका
महाप्रभाव निरुद्ध नहीं होता है
इसलिए
सूर्यातिशायि महिमा असि
मतलब
सूर्य से भी अतिशय-अधिक
महिमा वाले हैं
मुनीन्द्र ! मतलब हे मुनियों के इन्द्र
लोके मतलब इस संसार में
ओम्
अठारहवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
अठारहवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
नित्यो-दयं
‘त’ अकार के साथ बोलना है
दलित
‘ह’ अकार के साथ बोलना है
मोह
महान्-धकारं,
इस प्रकार भक्तामर जी के
अठारहवें काव्य का पहला चरण हुआ
नित्यो-दयं दलित मोह
महान्-धकारं,
फिर
गम्यं न
अब ‘र’ का आकार
थोड़ा सा खींचियेगा
रा…हु
वन वाला ‘व’ पढ़ना है
और आधा ‘स’ दो बार पढ़ना है
और सुनियेगा
‘य’ अकार के साथ बोलना है
व-दन(स्)-स्य
अब ‘व’ का आकार
थोड़ा सा खींचियेगा
न वारि-दानाम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
अठारहवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
गम्यं न राहु व-दन(स्)-स्य
न वारि-दानाम् ।
फिर
वि(भ्)-भ्राजते
अब ‘व’ अकार के साथ बोलना है
तव
फिर ‘ज’ अकार के साथ बोलना है
मुखाब्ज
म-नल्-पकान्ति,
इस प्रकार भक्तामर जी के
अठारहवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
वि(भ्)-भ्राजते तव मुखाब्ज
म-नल्-पकान्ति,
फिर
आधा ‘द’ दो बार बोलना है
वि(द्)-द्यो-तयज्
जगद-पूर्व नहीं पढ़ना है
जग-दपूर्व पढ़ियेगा
फिर
शशाङ्क-बिम्बम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
अठारहवें काव्य का चौथा चरण हुआ
वि(द्)-द्यो-तयज्-जग-दपूर्व-
शशाङ्क-बिम्बम् ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
नित्यो-दयं दलित मोह
महान्-धकारं,
गम्यं न राहु व-दन(स्)-स्य
न वारि-दानाम् ।
वि(भ्)-भ्राजते तव मुखाब्ज
म-नल्-पकान्ति,
वि(द्)-द्यो-तयज्-जग-दपूर्व-
शशाङ्क-बिम्बम् ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
नित्योदयम् मतलब
हमेशा उदय रहने वाला
और कैसा ?
तो
दलित-मोह-महान्धकारम् मतलब
मोहरूपी अन्धकार को
नष्ट करने वाला
और कैसा ?
तो
गम्यम् न राहुवदनस्य मतलब
राहु जिसे अपने मुख के द्वारा
ग्रसित नहीं कर सकता है
और कैसा ?
तो
न वारिदानां मतलब
मेघों के द्वारा छिपाने के अयोग्य
विभ्राजते मतलब
शोभित होता है
क्या ?
तो
तव मतलब आपका
मुखाब्जम् मतलब मुख कमल रूपी
जो
अनल्पकान्ति मतलब
अल्प नहीं यानि ‘कि
अधिक कान्ति वाला
और
विद्योतयत् मतलब
प्रकाशित करने वाला
जगत् मतलब संसार के लिए
ऐसा
अपूर्व-शशाङ्क-बिम्बम् मतलब
अपूर्व चन्द्रमण्डल है
ओम्
उन्नीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
उन्नीसवां काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
किं शर्-वरीषु
‘री’ के लिए थोड़ा सा खींचियेगा
वरीषु
आधा ‘ह्’ दो बार पढ़ियेगा
शशि-नाह्-(हि)नि
फिर आधा ‘स’ दो बार पढ़ना है
विव(स्)-स्वता
अब
‘व’ आकार के साथ बोलना है
वा
इस प्रकार भक्तामर जी के
उन्नीसवां काव्य का पहला चरण हुआ
किं शर्-वरीषु शशि-नाह्-(हि)नि
विव(स्)-स्वता वा,
फिर
युष्मन्
अब ‘खेन्’ के लिए
थोड़ा सा खींचियेगा
मुखेन्दु
फिर ‘ते’ के लिए
थोड़ा सा खींचियेगा
दलि-तेषु
तमः
अब ‘थ’ अकार के साथ बोलना है
सु-नाथ !
इस प्रकार भक्तामर जी के
उन्नीसवां काव्य का दूसरा चरण हुआ
युष्मन्-मुखेन्दु-दलि-तेषु
तमः सु-नाथ !
अब निष्-पन्न
शालि-वन
शा-लिनी
जीव-लोके,
ककार दीर्घ पड़ना है
लोके
इस प्रकार भक्तामर जी के
उन्नीसवां काव्य का तीसरा चरण हुआ
निष्-पन्न-शालि-वन-शा-लिनी
जीव-लोके,
अब कार्यम्
कियज्-जल-धरैर्-
जल-भार-न(म्)-म्रैः
चूंकि आधा ‘म्’ है और पूरा ‘र’
न(म्)-म्रैः
इस प्रकार भक्तामर जी के
उन्नीसवां काव्य का चौथा चरण हुआ
कार्यं कियज्-जल-धरैर्-
जल-भार-न(म्)-म्रैः
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
किं शर्-वरीषु शशि-नाह्-(हि)नि
विव(स्)-स्वता वा,
युष्मन्-मुखेन्दु-दलि-तेषु
तमः सु-नाथ !
निष्-पन्न-शालि-वन-शा-लिनी
जीव-लोके,
कार्यं कियज्-जल-धरैर्-
जल-भार-न(म्)-म्रैः ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
किम् मतलब
क्या प्रयोजन है ?
शर्वरीषु मतलब रात में
शशिना मतलब चन्द्रमा से
वा मतलब अथवा
अह्नि मतलब दिन में
विवस्वता मतलब सूर्य से
युष्मन्मुखेन्दु मतलब
आपके मुखचन्द्र द्वारा
दलितेषु मतलब
नष्ट हो जाने पर
तमः सु मतलब
अन्धकार के
नाथ ! मतलब
हे स्वामिन् !
जिस प्रकार
निष्पन्न मतलब
पके हुए
शालिवन मतलब
धान्य के खेतों से
शालिनि मतलब
शोभायमान
जीव-लोके मतलब संसार में
कार्यम् कियत् मतलब
कितना काम रह जाता है
जलधरैः मतलब मेघों से
कैसे हैं जो
तो
जलभार नम्रै: मतलब
पानी के भार से झुके हुए
अर्थात् कुछ भी तो नहीं
ओम्
बीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
बीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
ज्ञानं
अब
‘त’ आधा जो है
सो दो बार पढ़ियेगा
यथा(त्)-त्वयि
अब भा के लिए
थोड़ा सा खींचियेगा
वि…भाति
कृ-ता-
वका-शं,
इस प्रकार भक्तामर जी के
बीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
ज्ञानं यथा(त्)-त्वयि विभाति
कृ-ता-वका-शं,
नैवं तथा
हरि-हरा-दिषु
नाय-केषु नहीं पढ़ियेगा
ना-यकेषु
इस प्रकार भक्तामर जी के
बीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
नैवं तथा हरि-हरा-दिषु
ना-यकेषु ।
तेजो महा मणिषु
अब ‘या’ के लिए
थोड़ा सा खींचियेगा
या…ति
यथा महत्त्वं,
इस प्रकार भक्तामर जी के
बीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
तेजो महा मणिषु याति
यथा महत्त्वं,
अब नैवं तु
फिर ‘च’ अकार के साथ बोलना है
काच
श…क…ले
अब किर-णा नहीं पढ़ियेगा
कि-रणा-कुलेऽपि बोलना है
इस प्रकार भक्तामर जी के
बीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
नैवं तु काच-शकले
कि-रणा-कुलेऽपि ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
ज्ञानं यथा(त्)-त्वयि विभाति
कृ-ता-वका-शं,
नैवं तथा हरि-हरा-दिषु
ना-यकेषु ।
तेजो महा मणिषु याति
यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच-शकले
कि-रणा-कुलेऽपि ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
ज्ञानम् मतलब ज्ञान
यथा मतलब जिस प्रकार
त्वयि मतलब आपमें
विभाति मतलब शोभायमान होता है
यदि आप पूछते हैं
कि कैसा है यह ज्ञान ?
तो
कृतावकाश मतलब
सम्पूर्ण, केवल ज्ञान
न एवं तथा मतलब
नहीं है उस प्रकार
हरिहरादिषु नायकेषु मतलब
अन्य देवी-देवता के प्रमुखों में
क्योंकि
तेजः मतलब तेज
स्फुरन्मणिषु मतलब
चमकते हुए मणियों में
याति यथा महत्त्वम् मतलब
जैसे महत्त्व को प्राप्त होता है
न एवं तु मतलब
निश्चय से
वैसे महत्त्व को नहीं प्राप्त होता है
काच-शकले मतलब
काँच के टुकड़े में
कैसे काँच के टुकड़े में ?
तो
किरणाकुले अपि मतलब
किरणों से व्याप्त भी
ओम्
इक्कीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
इक्कीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
मन्ये वरं हरि-हरा-दय
‘य’ अकार के साथ बोलना है
दय
अब ‘व’ अकार के साथ बोलना है
ए…व
दृष्टा,
इस प्रकार भक्तामर जी के
इक्कीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
मन्ये वरं हरि-हरा-
दय एव दृष्टा,
अब ‘टे’ के लिए
थोड़ा सा खींचियेगा
दृष्-टेषु येषु
हृ…दयं
त्वयि तोष-मेति
इस प्रकार भक्तामर जी के
इक्कीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
दृष्-टेषु येषु हृदयं
त्वयि तोष-मेति ।
फिर किं
अब ‘क्ष’ होने से
आधा ‘क’ दो बार बोलना है
और ‘ते’ के लिए
थोड़ा सा खींचियेगा
वी(क्)-क्षितेन
भ…वता
भुवि
अब ये के लिए
थोड़ा सा खींचियेगा
येन
आधा ‘न’ दो बार बोलना है
ना(न्)-न्यः,
इस प्रकार भक्तामर जी के
इक्कीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
किं वी(क्)-क्षितेन भवता
भुवि येन ना(न्)-न्यः,
कश्चिन्-मनो ह…र…ति
अब ‘त’ अकार के साथ बोलना है
नाथ !
भवान्-त…रेऽपि
इस प्रकार भक्तामर जी के
इक्कीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
कश्चिन्-मनो हरति नाथ !
भवान्-तरेऽपि ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
मन्ये वरं हरि-हरा-
दय एव दृष्टा,
दृष्-टेषु येषु हृदयं
त्वयि तोष-मेति ।
किं वी(क्)-क्षितेन भवता
भुवि येन ना(न्)-न्यः,
कश्चिन्-मनो हरति नाथ !
भवान्-तरेऽपि ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
मन्ये मतलब
मैं मानता हूँ कि
वरम् मतलब अच्छे हैं
हरिहरादयः एव दृष्टाः मतलब
देखे गये विष्णु, महादेव आदि देव ही
दृष्टेषु येषु मतलब
जिनके देखे जाने पर
हृदयम् मतलब मन
त्वयि मतलब
आपके विषय में
तोषम् मतलब सन्तोष को
एति मतलब
प्राप्त हो जाता है
लेकिन
किम् मतलब
क्या लाभ है ?
वीक्षितेन मतलब देखे गये
भवता मतलब आपसे
भुवि मतलब पृथ्वी पर
येन मतलब जिससे
अन्यः कश्चित् मतलब
कोई दूसरा देव
मनः मतलब चित्त को
न हरति मतलब नहीं हर पाता है
नाथ ! मतलब हे स्वामिन् !
और तो और
क्या ?
तो भवान्तरे अपि
मतलब जन्मान्तर में भी
ओम्
बाईसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
बाईसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
स्त्रीणां
अब ता के लिए
थोड़ा सा खींचियेगा
श…तानि
श…त…शो
अब जन नहीं पढ़ना है
ज-नयन्ति पुत्रान्,
इस प्रकार भक्तामर जी के
बाईसवें काव्य का पहला चरण हुआ
स्त्रीणां शतानि शतशो
ज-नयन्ति पुत्रान्,
फिर
आधा ‘न’ दो बार बोलना है
ना(न्)-न्या
सुतं
त्व-दु-पमं
जननी
अब प्र पहले पढ़ कर के
सूता
चूंकि दोनों अक्षर हैं
सोदीर्घ बोलने से
सही उच्चारण करते बनेगा
प्र…सूता
इस प्रकार भक्तामर जी के
बाईसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
ना(न्)-न्या सुतं त्व-दु-पमं
जननी प्रसूता ।
फिर सर्वा दिशो
द…धति भानि,
आधा ‘स्’और पूरा ‘र’ है
सो ‘स’ दो बार पढ़ियेगा
स-ह(स्)-स्र-रश्मिम्,
इस प्रकार भक्तामर जी के
बाईसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
सर्वा दिशो दधति भानि,
स-ह(स्)-स्र-रश्मिम्,
प्रा(च्)-च्येव दिग्
ज-न-यतिस् नहीं पढ़ना है
ज-नयतिस् बोलियेगा
अब
फुर-दंशु-जालम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
बाईसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
प्रा(च्)-च्येव दिग्-ज-नयतिस्-
फुर-दंशु-जालम् ॥
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
स्त्रीणां शतानि शतशो
ज-नयन्ति पुत्रान्,
ना(न्)-न्या सुतं त्व-दु-पमं
जननी प्रसूता ।
सर्वा दिशो द-धति भानि,
स-ह(स्)-स्र-रश्मिम्,
प्रा(च्)-च्येव दिग्-ज-नयतिस्-
फुर-दंशु-जालम् ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
स्त्रीणाम् शतानि मतलब
सैकड़ों स्त्रियाँ
शतशः मतलब सैकड़ों
पुत्रान् मतलब पुत्रों के लिए
जनयन्ति मतलब
जन्म देती रहतीं हैं,
परन्तु
न अन्या मतलब
नहीं कोई दूसरी
सुतं मतलब
पुत्र को
त्वदुपमं मतलब
आप जैसे
ऐसी वह कौन ?
तो
जननी मतलब माँ
प्रसूता मतलब
जन्म दे पाई है
सच
सर्वाः दिशः मतलब
सब दिशाएँ
दधति मतलब धारण करती हैं
भानि मतलब नक्षत्रों को
परन्तु
सहस्ररश्मिम् मतलब सूर्य को
प्राची दिक् एव मतलब
पूर्व दिशा ही
जनयति मतलब प्रकट करती है
वह कैसा है सूर्य ?
तो
स्फुरदंशु-जालम् मतलब
चमक रहा है
किरणों का समूह जिसका ऐसा
ओम्
तेईसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
तेईसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
दीर्घ पढ़ना है
त्वा-मा
मनन्ति
मुन-यः नहीं
मु…नयः बोलियेगा
परमं नहीं बोलना है
प-र-मं पुमांस-
इस प्रकार भक्तामर जी के
तेईसवें काव्य का पहला चरण हुआ
त्वा-मा-मनन्ति मुनयः
परमं पुमांस-
फिर आधा ‘त’ दो बार पढ़ियेगा
‘य’ अकार के साथ बोलना है
मादि(त्)-त्य
वर्ण
ममलं नहीं
म…मलं बोलियेगा
तम-सः नहीं
त-मसः बोलियेगा
अब पुरस्-तात्
इस प्रकार भक्तामर जी के
तेईसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
मादि(त्)-त्य-वर्ण-ममलं
त-मसः पुरस्-तात् ।
‘व’ अकार के साथ बोलना है
त्वा-मेव
आधा ‘म’ दो बार बोलना है
और ‘य’ अकार के साथ बोलना है
स(म्)-म्य
आधा ‘म’ दो बार पढ़ना है
और ‘य’ अकार के साथ बोलना है
गु-पल(भ्)-भ्य
जयन्ति
फिर आधा ‘त्’ दो बार पढ़ियेगा
मृ(त्)-त्युम्,
इस प्रकार भक्तामर जी के
तेईसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
त्वामेव स(म्)-म्य गु-पल(भ्)-भ्य
जयन्ति मृ(त्)-त्युम्,
फिर
ना(न्)-न्यः
विसर्ग का ह् बोलना मत भूलिये
शिवः
शिव
‘य’ अकार के साथ बोलना है
और आधा ‘स’ दो बार पढ़ियेगा
पद(स्)-स्य
अब ‘नी’ दीर्घ पढ़ना है
मुनीन्द्र !
पन्थाः
इस प्रकार भक्तामर जी के
तेईसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
नान्यः शिवः शिव-पद(स्)-स्य
मुनीन्द्र ! पन्थाः ।।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
त्वा-मा-मनन्ति मुनयः
परमं पुमांस-
मादि(त्)-त्य-वर्ण-म-मलं
त-मसः पुरस्-तात् ।
त्वामेव स(म्)-म्य गु-पल(भ्)-भ्य
जयन्ति मृ(त्)-त्युम्,
नान्यः शिवः शिव-पद(स्)-स्य
मुनीन्द्र ! पन्थाः ।।
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
मुनीन्द्र! हे मुनियों के नाथ!
त्वाम् मतलब आपको
आमनन्ति मतलब मानते हैं
मुनयः मतलब
तपस्वी-जन !
कैसा ?
तो
परमं पुमांसम् मतलब
परम पुरुष
और कैसा ?
तो
आदित्यवर्ण मतलब
सूर्य की तरह तेजस्वी
अमलम् मतलब निर्मल
और तमसः पुरस्तात् मतलब
मोहान्धकार से परे रहने वाले
त्वाम् एव मतलब आपको ही
सम्यक् मतलब अच्छी तरह से
उपलभ्य मतलब
प्राप्त कर
जयन्ति मृत्युम् मतलब
मृत्यु को जीत लेते हैं
न अन्यः मतलब
इसके सिवाय दूसरा नहीं है
शिवः मतलब कल्याणकर
शिवपदस्य मतलब मोक्षपद का
पन्थाः मतलब रास्ता
ओम्
चौबीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
चौबीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
आधा ‘व’ दो बार पढ़ना है
त्वा-म(व्)-व्ययं
विभु-मचिन्त्य-
‘य’ अकार के साथ बोलना है
म-संख्य
आधा ‘द्’ दो बार पढ़ियेगा
मा(द्)-द्यं,
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौबीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
त्वा-म(व्)-व्ययं विभु-मचिन्त्य-
म-संख्य मा(द्)-द्यं,
अब ‘ण’ अकार के साथ बोलना है
ब्रह्माण
‘र’ अकार के साथ बोलना है
मी(श्)-श्वर
‘त’ अकार के साथ बोलना है
मनन्त
मनङ्ग-केतुम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौबीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
ब्रह्माण-मी(श्)-श्वर मनन्त
मनङ्ग-केतुम् ।
फिर योगी(श्)-श्वरं
‘त’ अकार के साथ बोलना है
विदित
‘ग’ अकार के साथ बोलना है
योग
मनेक-मेकं,
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौबीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
योगी(श्)-श्वरं विदित योग-
मनेक-मेकं,
फिर
आधा ‘स्’ दो बार पढ़ना है
ज्ञान(स्)-स्व-रूप
मम लं नहीं
म-मलं पढ़ना है
प्रव दन्ति नहीं
प्र-वदन्ति सन्तः
इस प्रकार भक्तामर जी के
चौबीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
ज्ञान(स्)-स्व-रूप म-मलं
प्र-वदन्ति सन्तः
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
त्वा-म(व्)-व्ययं विभु-मचिन्त्य-
म-संख्य मा(द्)-द्यं,
ब्रह्माण-मी(श्)-श्वर मनन्त
मनङ्ग-केतुम् ।
योगी(श्)-श्वरं विदित योग-
मनेक-मेकं,
ज्ञान(स्)-स्व-रूप म-मलं
प्र-वदन्ति सन्तः ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
त्वाम् मतलब आपको
अव्ययम् मतलब अविनाशी
विभुम् मतलब विभु
अचिन्त्यम् मतलब अचिन्त्य
असंख्यम् मतलब असंख्य
आद्यम् मतलब आद्य
ब्रह्माणम् मतलब ब्रह्मा
ईश्वरम् मतलब ईश्वर
अनंतम् मतलब अनन्त
अनङ्गकेतुम् मतलब
अनंगकेतु कामदेव को जीतने से
उसका चिन्ह आपकी ध्वजा में
बना हुआ है
योगीश्वरम् मतलब योगीश्वर
विदितयोगम् मतलब
योगों के जानकार
अनेकम् मतलब अनेक
एकम् मतलब एक
ज्ञानस्वरूपम् मतलब
ज्ञानस्वरूप और
अमलम् मतलब निर्मल
प्रवदन्ति मतलब कहते हैं
कौन ?
तो
सन्तः मतलब सज्जन-पुरुष
ओम्
पच्चीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
पच्चीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
बुद्धस्
फिर ‘व’ अकार के साथ बोलना है
त्व
अब
‘म’ का एकार थोड़ा सा खींचियेगा
मेव
फिर वि पढ़कर बुधार्
अब ‘त’ अकार के साथ बोलना है
चित
बुद्धि-बोधात्,
इस प्रकार भक्तामर जी के
पच्चीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
बुद्धस्-त्व-मेव वि-बुधार्-चित-
बुद्धि-बोधात्,
अब त्वं
फिर
शङ्-करोऽसि
भुवन के आगे ‘त्र’ है
इसलिए आधा ‘त’ दो बार पढ़ियेगा
और ‘य’ अकार के साथ बोलना है
भु-वन(त्)-त्रय
अब पुनः
आधा ‘त’ दो बार पढ़ियेगा
शङ्-कर(त्)-त्वात् ।
इस प्रकार भक्तामर जी के
पच्चीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
त्वं शङ्-करोऽसि भु-वन(त्)-
त्रय-शङ्-कर(त्)-त्वात् ।
अब ‘ता’ का आकार
थोड़ा सा खींचियेगा
धा…तासि
‘र’ अकार के साथ बोलना है
धीर !
‘ग’ अकार के साथ बोलना है
शिव-मार्ग-
फिर विधेर्-विधानाद्,
इस प्रकार भक्तामर जी के
पच्चीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
धातासि धीर ! शिव-मार्ग-
विधेर्-विधानाद्,
अब व्यक्तं
फिर ‘व’ अकार के साथ बोलना है
त्व
‘म’ का एकार थोड़ा सा खींचियेगा
मेव
भगवन्
पुरु-षोत्
‘मो’ का एकार थोड़ा सा खींचियेगा
तमोऽसि
इस प्रकार भक्तामर जी के
पच्चीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
व्यक्तं त्व-मेव भगवन्
पुरु-षोत्-तमोऽसि ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
बुद्धस्-त्व-मेव वि-बुधार्-चित-
बुद्धि-बोधात्,
त्वं शङ्-करोऽसि भु-वन(त्)-
त्रय-शङ्-कर(त्)-त्वात् ।
धातासि धीर ! शिव-मार्ग-
विधेर्-विधानाद्,
व्यक्तं त्व-मेव भगवन्
पुरु-षोत्-तमोऽसि ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
बुद्धः मतलब बुद्ध हैं
त्वम् एव मतलब आप ही
विबुधार्चित मतलब
देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित
बुद्धि-बोधात मतलब
बुद्धि-ज्ञान वाले होने से
और कैसे हैं आप
तो
त्वं मतलब आप ही
शङ्करः असि मतलब
शंकर हो
भुवनत्रयः मतलब
तीनों लोकों में
शङ्करत्वात् मतलब
शान्ति करने के कारण
और कैसे हैं आप
तो
धाता असि मतलब ब्रह्मा हो
धीर ! मतलब हे धीर !
शिवमार्ग मतलब
मोक्षमार्ग की
विधेर्विधानात् मतलब
विधि के विधान करने से
और कैसे हैं आप
तो
व्यक्तम् मतलब स्पष्ट रूप से
त्वमेव मतलब आप ही
भगवन् ! मतलब हे स्वामिन् !
पुरुषोत्तमः असि मतलब
मनुष्यों में उत्तम
अथवा नारायण हो
ओम्
छब्बीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
छब्बीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
आधा ‘भ्’ दो बार पढ़ियेगा
तुभ्यं नमस्
त्रि-भु-वनार्-ति
‘य’ अकार के साथ बोलना है
हराय
‘थ’ अकार के साथ बोलना है
नाथ !
इस प्रकार भक्तामर जी के
छब्बीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
तुभ्यं नमस् त्रि-भु-वनार्-ति
हराय नाथ !
पुनः आधा ‘भ्’ दो बार पढ़ियेगा
तुभ्यं
नमः क्षिति-
अब ‘ल’ अकार के साथ बोलना है
तलामल
भूष णाय नहीं बोलना है
फिर ‘य’ अकार के साथ बोलना है
भू-षणाय
इस प्रकार भक्तामर जी के
छब्बीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल-
भू-षणाय ।
फिर से आधा ‘भ्’ दो बार पढ़ियेगा
तुभ्यं नमस्
त्रि-ज-गतः
पर नहीं पढ़ना है
और ‘य’ अकार के साथ बोलना है
प-र-मे(श्)-श्वराय,
इस प्रकार भक्तामर जी के
छब्बीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
तुभ्यं नमस् त्रि-ज-गतः
प-र-मे(श्)-श्वराय,
अब फिर आधा ‘भ्’ दो बार पढ़ियेगा
तुभ्यं नमो
फिर ‘न’ अकार के साथ बोलना है
जिन !
भवोदधि-
शोष णाय नहीं बोलना है
फिर ‘य’ अकार के साथ बोलना है
शो-षणाय
इस प्रकार भक्तामर जी के
छब्बीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधि-
शो-षणाय ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
तुभ्यं नमस् त्रि-भु-वनार्-ति
हराय नाथ !
तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल-
भू-षणाय ।
तुभ्यं नमस् त्रि-ज-गतः
प-र-मे(श्)-श्वराय,
तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधि-
शो-षणाय ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
तुभ्यम् मतलब आपके लिए
नमः मतलब नमस्कार हो
त्रिभुवनार्तिहराय मतलब
तीनों लोकों के दुःखों के हरने वाले
नाथ ! मतलब हे स्वामिन् !
तुभ्यम् मतलब आपके लिए
नमः मतलब नमस्कार हो
क्षिति तलामल
मतलब पृथ्वी तल के
भूषणाय मतलब
निर्मल आभूषण स्वरूप
तुभ्यम् मतलब आपके लिए
नमः मतलब नमस्कार हो
त्रिजगतः मतलब तीनों जगत् के
परमेश्वराय मतलब परमेश्वर स्वरूप
तुभ्यम् मतलब आपके लिए
नमः मतलब नमस्कार हो
जिन ! मतलब हे जिनेन्द्र देव !
भवोदधि मतलब
संसार समुद्र के
शोषणाय मतलब सुखाने वाले
ओम्
सत्ताईसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
सत्ताईसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
दीर्घ उच्चारण करना है
को
विस्-
मयो के आगे ‘त्र’ है
इसलिए आधा ‘त’ दो बार पढ़ियेगा
और ‘त्र’ अकार के साथ बोलना है
मयोऽत्र यदि
‘म’ अकार के साथ बोलना है
नाम
गुणै-र-शेषैस्-
इस प्रकार भक्तामर जी के
सत्ताईसवें काव्य का पहला चरण हुआ
को विस्-मयोऽत्र यदि नाम
गुणै-र-शेषैस्-
अब
त्वं
आधा ‘स’ दो बार पढ़ियेगा
सं(स्)-श्रितो
नि-र पढ़ते समय
अकार का उच्चारण
संभल कर करना है
और ‘श’ अकार के साथ बोलना है
नि-र-वकाश-
‘य’ के आकार को थोड़ा सा खींचियेगा
तया
‘नी’ भी दीर्घ पढ़ना है
मुनीश !
इस प्रकार भक्तामर जी के
सत्ताईसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
त्वं सं(स्)-श्रितो नि-र-वकाश-
तया मुनीश !
अब
दोषै
‘त’ अकार के साथ बोलना है
रुपात्त
वि पढ़कर विधा फिर
आधा ‘स’ दो बार पढ़ना है
और ‘य’ अकार के साथ बोलना है
वि-विधा(श्)-श्रय
जात-गर्वैः,
इस प्रकार भक्तामर जी के
सत्ताईसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
दोषै-रुपात्त वि-विधा(श्)-
श्रय-जात-गर्वैः,
अब स्वप्नान्
‘रे’ का एकार थोड़ा सा खींचियेगा
तरेऽपि
न
अब कदाचिद नहीं पढ़ना है
कदाचि-
फिर
क् और से मिलकर बना शब्द
‘क्ष’ आने से
आधा ‘क’ दो बार पढ़ियेगा
द-पी(क्)-क्षि-तोऽसि
इस प्रकार भक्तामर जी के
सत्ताईसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
स्वप्नान्-तरेऽपि न कदाचि-
द-पी(क्)-क्षि-तोऽसि ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
को विस्-मयोऽत्र यदि नाम
गुणै-र-शेषैस्-
त्वं सं(स्)-श्रितो नि-र-वकाश-
तया मुनीश !
दोषै-रुपात्त वि-विधा(श्)-
श्रय-जात-गर्वैः,
स्वप्नान्-तरेऽपि न कदाचि-
द-पी(क्)-क्षि-तोऽसि ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
कः विस्मयः मतलब
क्या आश्चर्य है?
अत्र मतलब इस विषय में
यदि नाम मतलब यदि
गुणैः अशेषैः मतलब
समस्त गुणों के द्वारा
त्वम् मतलब आप
संश्रितः मतलब आश्रित हुए हो
निरवकाश तया मतलब
अन्य जगह स्थान
न मिलने के कारण
अथवा
अवकाश यानि ‘कि
खाली स्थान नहीं रहा
‘के अवगुण आकर के रह सकें
मुनीश ! मतलब
हे मुनियों के स्वामी
दोषैः मतलब दोषों के द्वारा
उपात्त मतलब प्राप्त हुए
विविधाश्रय मतलब
अनेक आधार से
जातगर्वैः मतलब
उत्पन्न हुआ है अहंकार जिनको ऐसे
स्वप्नान्तरे अपि मतलब
स्वप्न के मध्य में भी
कदाचित् अपि मतलब कभी भी
न ईक्षितः असि मतलब
नहीं देखे गये हो
ओम्
अट्ठाईसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
अट्ठाईसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
चई नहीं चय् बोलना है
उच्चै
‘क’ अकार के साथ बोलना है
रशोक
तरु
अब आधा ‘स’ दो बार पढ़ियेगा
और ‘त’ अकार के साथ बोलना है
सं(स्)-श्रित-
फिर
‘ख’ अकार के साथ बोलना है
मुन्-मयूख,
इस प्रकार भक्तामर जी के
अट्ठाईसवें काव्य का पहला चरण हुआ
उच्चै-रशोक- तरु सं(स्)-श्रित-
मुन्-मयूख,
अब दीर्घ उच्चारण करना है
मा-भाति
‘प’ अकार के साथ बोलना है
रूप
म-मलं
भव तो नहीं
भ-वतो नितान्-तम् ।
इस प्रकार भक्तामर जी के
अट्ठाईसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
मा-भाति रूप म-मलं
भ-वतो नितान्-तम् ।
अब स्पष्-टोल्
लसत्
फिर किरण नहीं
‘ण’ अकार के साथ बोलना है
कि-रण
मस्त-
तमो-वि-तानम्,
इस प्रकार भक्तामर जी के
अट्ठाईसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
स्पष्-टोल्-लसत्-कि-रण-मस्त-
तमो-वि-तानम्,
अब बिम्बं
फिर दीर्घ उच्चारण करना है
रवे
फिर ‘व’ अकार के साथ बोलना है
रिव
‘र’ अकार के साथ बोलना है
पयो-धर-
पार्श्व-वर्ति
इस प्रकार भक्तामर जी के
अट्ठाईसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
बिम्बं रवे-रिव पयो-धर-
पार्श्व-वर्ति
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
उच्चै-रशोक- तरु सं(स्)-श्रित-
मुन्-मयूख,
मा-भाति रूप म-मलं
भ-वतो नितान्-तम् ।
स्पष्-टोल्-लसत्-कि-रण-मस्त-
तमो-वि-तानम्,
बिम्बं रवे-रिव पयो-धर-
पार्श्व-वर्ति ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
उच्चै: मतलब ऊँचे
अशोक तरु संश्रितम् मतलब
अशोक वृक्ष के नीचे स्थित
और कैसा ?
तो
उन्मयूखम् मतलब
जिसकी किरणें
ऊपर को फैल रही हैं, ऐसा
आभाति मतलब शोभित होता है
अमलम् रूपम् मतलब
उज्ज्वल रूप
भवतः मतलब आपका
कैसा सुशोभित ? तो
नितान्तम् अत्यन्त सुशोभित
स्पष्टोल्लसत्किरणम् मतलब
स्पष्टरूप से शोभायमान हैं
किरणें जिसकी
और
अस्त-तमो-वितानम्
मतलब नष्ट कर दिया है
अन्धकार का समूह जिसने ऐसे
पयोधर मतलब
पय यानि ‘कि पानी को
धर मतलब धारण करने वाले
मेघ के
पार्श्ववर्ति मतलब पास में स्थित
रवेः बिम्बम् इव मतलब
सूर्य के बिम्ब की तरह
ओम्
उन्तीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
उन्तीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
न सिन् पढ़ना है
और न ही सिम्
नाक के सहारे अनुस्वार पढ़ना है
सिं-हा-सने
‘ख’ अकार के साथ बोलना है
मणि-मयूख-
शिखा
फिर ‘त्र’ का आधा ‘त्’
दो बार पढ़ियेगा
विचि(त्)-त्रे,
इस प्रकार भक्तामर जी के
उन्तीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
सिं-हा-सने मणि-मयूख-
शिखा-विचि(त्)-त्रे,
अब
आधा ‘भ’ दो बार पढ़ना है
वि(भ्)-भ्रा-जते
फिर
वन का ‘व’ पढ़ना है
तव वपुः
क-न-का-वदातम् ।
इस प्रकार भक्तामर जी के
उन्तीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
वि(भ्)-भ्रा-जते तव वपुः
क-न-का-वदातम् ।
अब
बिम्बं वियद्-
‘स’ अकार के साथ बोलना है
वि-लस
दंशु-लता-वि-तानं,
इस प्रकार भक्तामर जी के
उन्तीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
बिम्बं वियद्-वि-लस
दंशु-लता-वि-तानं,
अब
आधा ‘द’ दो बार पढ़ना है
तुङ्गो-दया(द्)-द्रि
शिर नहीं बोलना है
संभलना है थोड़ा
शि-र-सीव
अब आधा ‘स’ दो बार पढ़ियेगा
स-ह(स्)-स्र-रश्मेः
इस प्रकार भक्तामर जी के
उन्तीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
तुङ्गो-दया(द्)-द्रि शि-र-सीव
स-ह(स्)-स्र-रश्मेः ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
सिं-हा-सने मणि-मयूख-
शिखा-विचि(त्)-त्रे,
वि(भ्)-भ्रा-जते तव वपुः
क-न-का-वदातम् ।
बिम्बं वियद्-वि-लस
दंशु-लता-वि-तानं,
तुङ्गो-दया(द्)-द्रि शि-र-सीव
स-ह(स्)-स्र-रश्मेः ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
सिंहासने मतलब सिंहासन पर
मणि-मयूख मतलब
रत्नों की किरणों के
शिखा-विचित्रे मतलब
अग्रभाग से चित्र विचित्र
विभ्राजते मतलब शोभायमान हो रहा है
तव मतलब आपका
वपुः मतलब शरीर
कैसा ?
तो
कनकावदातम् मतलब
सुवर्ण की तरह उज्ज्वल
मानो
तुङ्गोदद्याद्रि-शिरसि मतलब
ऊँचे उदयाचल के शिखर पर
वियद्-विलसत् मतलब
आकाश में शोभायमान है
अंशुलता-वितानम् मतलब
किरण रूपी लताओं का समूह है
जिसका ऐसे
सहस्त्ररश्मेः मतलब
सूर्य के
बिम्बम् इव मतलब
मण्डल की तरह
ओम्
तीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
तीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
‘त’ अकार के साथ बोलना है
कुन्दा-वदात
‘ल’ अकार के साथ बोलना है
चल
‘र’ अकार के साथ बोलना है
चामर-
चारु-शोभं,
इस प्रकार भक्तामर जी के
तीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
कुन्दा-वदात चल चामर-
चारु-शोभं,
अब
आधा ‘भ’ दो बार बोलना है
वि(भ्)-भ्रा-जते
‘व’ अकार के साथ बोलना है
तव
वपुः
‘ल’ अकार के साथ बोलना है
कल-धौत-कान्तम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
तीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
वि(भ्)-भ्रा-जते तव वपुः
कल-धौत-कान्तम् ।
अब
आधा ‘द’ दो बार पढ़ना है
उ(द्)-द्यच्-
छशाङ्क
‘र’ अकार के साथ बोलना है
शुचि-निर्झर
दीर्घ उच्चारण करना है
वारि-धार-
इस प्रकार भक्तामर जी के
तीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
उ(द्)-द्यच्-छशाङ्क शुचि-निर्झर
वारि-धार-
अब मुच्चैस्-तटं
‘र’ अकार के साथ बोलना है
सुर
‘व’ अकार के साथ बोलना है
गिरे-रिव
शात कौम्भम् नहीं
शा-तकौम्-भम् पढ़ना है
इस प्रकार भक्तामर जी के
तीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
मुच्चैस्-तटं सुर-गिरे-रिव
शा-तकौम्-भम् ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
कुन्दा-वदात चल चामर-
चारु-शोभं,
वि(भ्)-भ्रा-जते तव वपुः
कल-धौत-कान्तम् ।
उ(द्)-द्यच्-छशाङ्क शुचि-निर्झर
वारि-धार-
मुच्चैस्-तटं सुर-गिरे-रिव
शा-तकौम्-भम् ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
कुन्दावदात मतलब
कुन्द के फूल के समान स्वच्छ
चल-चामर मतलब
हिलते हुए चॅंवरों की
चारु-शोभम् मतलब
सुन्दर शोभा से युक्त
विभ्राजते मतलब
शोभायमान होता है
तव मतलब आपका
वपुः मतलब शरीर
कलधौत-कान्तम् मतलब
सुवर्ण के समान कान्ति वाला
मानो
उद्यच्छशाङ्क मतलब
उदीयमान चन्द्रमा के समान
शुचिनिर्झर मतलब
निर्मल झरनों की
वारि-धारम् मतलब
जलधारा से युक्त
उच्चैस्तटम् मतलब
ऊँचे तट वाले
सुरगिरेः इव मतलब
सुमेरु पर्वत के समान
शात-कौम्भम् मतलब
स्वर्णमयी
ओम्
इकत्तीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
इकत्तीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
आधा ‘त’ दो बार पढ़ना है
छ(त्)-त्र(त्)-त्रयं
‘म’ अकार के साथ बोलना है
तव
वि-भाति
शशाङ्क- कान्त-
इस प्रकार भक्तामर जी के
इकत्तीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
छ(त्)-त्र(त्)-त्रयं तव वि-भाति
शशाङ्क- कान्त-
अब
मुच्चैः स्थितं
‘त’ अकार के साथ बोलना है
स्थगित-
आधा ‘प’ दो बार पढ़ना है
भानु-कर(प्)-प्र-तापम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
इकत्तीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
मुच्चैः स्थितं स्थगित-
भानु-कर(प्)-प्र-तापम् ।
अब
आधा ‘प’ दो बार पढ़ना है
मुक्ता फल(प्)
प्र-कर
जाल
वि-वृद्ध-शोभं,
इस प्रकार भक्तामर जी के
इकत्तीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
मुक्ता फल(प्)-प्र-कर-जाल-
वि-वृद्ध-शोभं,
अब
आधा ‘ख’ दो बार पढ़ना है
प्र(ख्)-ख्या-पयत्
त्रि-ज-गतः
आधा ‘श’ और
आधा ‘त’ दो बार पढ़ना है
प-र-मे(श्)-श्वर(त्)
त्वम्
इस प्रकार भक्तामर जी के
इकत्तीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
प्र(ख्)-ख्या-पयत्-त्रि-ज-गतः
प-र-मे(श्)-श्वर(त्)-त्वम् ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
छ(त्)-त्र(त्)-त्रयं तव वि-भाति
शशाङ्क- कान्त-
मुच्चैः स्थितं स्थगित-
भानु-कर(प्)-प्र-तापम् ।
मुक्ता फल(प्)-प्र-कर-जाल-
वि-वृद्ध-शोभं,
प्र(ख्)-ख्या-पयत्-त्रि-ज-गतः
प-र-मे(श्)-श्वर(त्)-त्वम् ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
छत्र-त्रयम् मतलब तीन छत्र
तव मतलब आपके
विभाति मतलब शोभायमान होते हैं
कैसे हैं वह छत्र ?
तो
शशाङ्क-कान्तम् मतलब
चन्द्रमा के समान सुन्दर है
और
उच्चैः स्थितम् मतलब ऊपर स्थित है
जिन्होंने
स्थगित मतलब रोक दिया है
भानु-कर-प्रतापम् मतलब
सूर्य की किरणों के सन्ताप को
तथा
मुक्ता-फल-प्रकर-जाल मतलब
मोतियों के समूह वाली झालर से
विवृद्ध-शोभम् मतलब
बढ़ रही है शोभा जिनकी
ऐसे
प्रख्यापयत् ‘इव’ मतलब
प्रकट करते हुए की तरह
त्रिजगतः मतलब
तीन जगत् के
परमेश्वरत्वम् मतलब
स्वामित्व को
ओम्
बत्तीसवां काव्य
*माँ जूं
आकर के
मेरे कण्ठ में विराजमान होवें*
चलिये
भक्तामर जी के
बत्तीसवें काव्य का
उच्चारण सीखते हैं
गम्भीर तार
‘व’ अकार के साथ बोलना है
रव
‘त’ अकार के साथ बोलना है
पूरित
दिग्-वि-भागस्-
इस प्रकार भक्तामर जी के
बत्तीसवें काव्य का पहला चरण हुआ
गम्भीर तार रव-पूरित-
दिग्-वि-भागस्-
अब ‘य’ अकार के साथ बोलना है
त्रै-लो(क्)-क्य
फिर ‘भ’ अकार के साथ बोलना है
लोक-शुभ
अब ‘म’ अकार के साथ बोलना है
सङ्गम-
भूति-दक्षः
इस प्रकार भक्तामर जी के
बत्तीसवें काव्य का दूसरा चरण हुआ
त्रै-लो(क्)-क्य-लोक-शुभ सङ्गम-
भूति-दक्षः ।
अब सद्धर्म-राज
अब ‘य’ बोलते समय संभलना है
और ‘य’ अकार के साथ बोलना है
जय
घोष ण नहीं बोलना है
घो-षण
और अब इसी प्रकार से
घो-षकः सन्,
इस प्रकार भक्तामर जी के
बत्तीसवें काव्य का तीसरा चरण हुआ
सद्धर्म-राज जय घो-षण
घो-षकः सन्,
अब खे दुन्-दुभिर्
ध्व-नति ते
य-श बोलते समय संभलना है
य-श-सः प्र-वादी
इस प्रकार भक्तामर जी के
बत्तीसवें काव्य का चौथा चरण हुआ
खे दुन्-दुभिर्-ध्व-नति ते
य-श-सः प्र-वादी ।
चलिये
एक बार फिर से पूरा काव्य पढ़ते हैं
गम्भीर तार रव-पूरित-
दिग्-वि-भागस्-
त्रै-लो(क्)-क्य-लोक-शुभ सङ्गम-
भूति-दक्षः ।
सद्धर्म-राज जय घो-षण
घो-षकः सन्,
खे दुन्-दुभिर्-ध्व-नति ते
य-श-सः प्र-वादी ॥
चलिये,
तुरत के तुरत अरथ भी समझ लेते हैं
गम्भीर-तार-रव-पूरित
मतलब
गम्भीर और उच्च शब्द से
पूर दिया है
दिग्विभागः मतलब दिशाओं के
विभाग को जिसने, ऐसा त्रैलोक्य-लोक-शुभ-सङ्गम
मतलब तीनों लोकों के जीवों को
शुभ समागम की
भूति-दक्षः मतलब
सम्पत्ति देने में समर्थ
और
सद्धर्म-राज-जय
मतलब समीचीन जैनधर्म के
स्वामी की
घोषण-घोषकः मतलब
जय घोषणा को
घोषित करने वाला
खे मतलब आकाश में
दुन्दुभिः मतलब दुन्दुभि बाजा
ध्वनति मतलब शब्द करता है
ते मतलब आपके
यशसः मतलब यश का
प्रवादी सन् मतलब
कथन करता हुआ
ओम्
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