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कविता

कविता- तप

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

तप
(१)
टफ नहीं हैं
तप
तट है संसार सागर का
चलो पलटाकर आखर
पत मतलब
लाज राखें

(२)
तपना पकड़ेगा
खरा जो बनना है
अकेले सुवर्ण बनने से बात न बनेगी
सच
तपस्या अनोखी

(३)
ठण्डे पड़े चन्द्रमा के नाम दाग
तपते सूरज का सूर नाम
मतलब तप बेदाग
‘रे मनुआ जाग

(४)
तप से डरना नहीं हैं
‘रे भाई क्या निखरना नहीं है
तुषार
तुष का यार
दाना
तपते सूरज का दिवाना

(५)
मुनि का मौन से
साधु का साधना से संबंध है
पर तप का अनुबन्ध सूर से है
तभी तो सूरि के ३६ मूल गुणों में
१२ आप, १० धर्म, ६ आवश्यक,
५ समिति, ६ गुप्तियां आती हैं

(६)
खाद्य पदार्थ रूप
आत्मा सीझ जाये
‘के सार्थ नाम बर्तन रूप
तन को तपने दीजिये
जिन अक्षरों से शब्द राख बना है
पलटा करके उन्हीं अक्षरों से
शब्द खरा बनता है

(७)
था तपा जो नहीं
पानी न राख पाया घड़ा
पानी पड़ते ही बिखरा
मतलब घूम-फिर के वहीं

(८)
वर सा चाहते है
करुणा की बरसा चाहते हैं हम
पर बगरे तपे
धरती पर कब हुई
बरसा
मानो ‘रे मानौ मौका है
सच
तप अनोखा है

(९)
तपता लोहा हो
जैसा चाहो
वैसा मोड़ लो
घाटे का नहीं फायदे का सौदा है
बने जैसे स्वयं को
जल्द से जल्द तप से जोड़ लो

(१०)
तपना यानि ‘कि जीवन
ठण्डे पड़ना मतलब
अब देह में जीव…न
सो जानवी

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