भक्ता-मर-स्तोत्र १३३
हाई…को ?
देव-देव ! ।
मैं करता रहूँ यूँ ही आपकी सेव ॥१।।
सौधर्म पार ।
अपना तेरा, मुझे भी दो उबार ।।२।।
‘बुध वन्दित’ पाद पीठ तव ।
मैं माटी माधव ॥३।।
हा ! सुर-गुरु हारे ।
गा सिन्धु इन्दु गुण तुम्हारे ।।४।।
धकायें भक्ति तेरी ।
‘स्तुति-प्रस्तुति’ न शक्ति मेरी ।।५।।
देवानाम् प्रिय हम ।
भक्ति तुम पै भरती दम ।।६।।
आपका छुआ नाम ।
पाप का हुआ काम तमाम ।।७।।
तुम प्रसाद ।
हाथ-हाथ पूरण होती मुराद ।।८।।
सुनी, सुनाई कथा क्या आप ।
आई शामत पाप ।।९।।
करते नेक-दिल इंसा ।
अपने सा, आईने सा ।।१०।।
वो सिर्फ तुम भगवन् ।
जिसे मुड़ के देखे मन ।।११।।
दृग् अभिराम ।
आप, कहाँ वो मृग लांछन नाम ।।१२।।
एक जो खूबसूरत ।
रची तुम डूब मूरत ।।१३।।
विचरें बल आप गुण त्रिलोक ।
बे-रोक-टोक ।।१४।।
रम्भा, रमने वाली भा खोई ।
देख तुम्हें निर्मोही ।।१५।।
बाती, तेल, न अंधेरा तले ।
दीप आप विरले ।।१६।।
क्या मजाल, ले बादल झाँप ।
चाँद विरले आप ।।१७।।
राहु न आँख मिचौली खेले ।
सूर्य आप अकेले ।।१८।।
कष्ट चन्द्रार्क क्यों उठाते ।
तम जो तुम हटाते ।।१९।।
और न कहीं जिसका भान ।
कहे ‘केवल’ ज्ञान ।।२०।।
हुआ आपसे राग एक ।
आये जो सराग देख ।।२१।।
सूर्य पूर्व माँ आप धन्य ।
पुत्र जो आप अनन्य ।।२२।।
दिखाया आप सिवा ।
और किसने पन्थ शिव का ।।२३।।
सिर्फ नाम में अन्तर ।
तुम्हीं ब्रह्मा, विष्णु, शंकर ।।२४।।
विशुद्ध तुम्हीं, बुद्ध तुम्हीं ।
नृसिंह प्रसिद्ध तुम्हीं ।।२५।।
जय हो… जय हो आपकी ।
क्षय हो ढ़ेरी पाप की ।।२६।।
और जा दिल धसायें ।
दोष, पास आप क्यों आयें ।।२७।।
तर अशोक आप कान्तिमान् ।
मेघ निकट भान ।।२८।।
अनोखा ।
रत्न जड़ित सिंहासन आप सोने का ।।२९।।
अमर ।
एक नहीं ढ़ोरते चउ-साठ चँवर ।।३०।।
छतर, ढुल कहे झालर ।
आप जगदीश्वर ।।३१।।
दिश्-विदिश् फेरी दे ।
शुभ सम्मेलन पाती, भेरी दे ।।३२।।
हरषते सु-मन ।
बरसते दृग्-रख सुमन ।।३३।।
भू मण्डल पे एक ।
भामण्डल भौ-भौ अभिलेख ।।३४।।
आपकी वाणी सहज ।
लेते सभी प्राणी समझ ।।३५।।
पदम देव रचाते ।
कदम क्या आप बढ़ाते ।।३६।।
बभूति द्वारे द्वारे ।
विभूति इक पास तुम्हारे ।।३७।।
सामने आप भक्त को पाता ।
मद हाथी खो जाता ।।३८।।
शेर क्रूरता फेर ।
गौ बने आप भक्त सामने ।।३९।।
जल कौन ? दे जो बुझा दावा ।
नाम आप अलावा ।।४०।।
भय नागिन ना…गिन ।
नाम जब ले रहे जिन ।।४१।।
इक तरफा आप भक्त के नाम ।
होता संग्राम ।।४२।।
शत्रु चित् खाने चार ।
सुनके भक्त आप हुँकार ।।४३।।
शान्त दुर्दान्त बड़वानल ।
नाम आप पा जल ।।४४।।
आप नाम क्या औषध पाता ।
आत्मा हो स्वस्थ जाता ।।४५।।
मंजुल गुण कीर्तन गाते ।
आप खुल बन्धन जाते ।।४६।।
तुम्हें ध्याया ।
‘कि विघन बाधा भागे समेट माया ।।४७।।
देते ही नुति ।
रीझती ही रीझती माँ सरसुति ।।४८।।
भक्ता-मर-स्तोत्र १३४
हाई…को ?
आप चरण ।
भव ताप हरण आदि भगवन् ।।१।।
सौधर्म पार ।
थव अर्णव तव, मैं मॅंझधार ।।२।।
बुध तीरथ ! आप कीरत गाना ।
पत गवाना ।।३।।
अपार सिन्धु गुण तुम्हार ।
गुरु-द्यु मानी हार ।।४।।
पै माने तब मनवा ।
दे रचाने थवन हवा ।।५।।
मैं ठेठ बाँस ।
भक्ति आप कराये स्तुति आयास ।।६।।
पाप अंधेरा ।
छू… छू कर सबेरा, दर्शन तेरा ।।७।।
वर्षे आप के द्वार ।
सुनते, कृपा छप्पर-फाड़ ।।८।।
दे लगा सिन्धु भौ छोर ।
इति-स्तुति, कथा भी तोर ।।९।।
मेरा सो तेरा कहने में ।
देर न लगती तुम्हें ।।१०।।
न छकी इन्द्र हज्जार ।
दृग् देखें क्या तुम्हें दो चार ।।११।।
तुम्हें भूल से बनाया ।
और तुम जैसा न पाया ।।१२।।
निकले ।
रात छुपा के मुख चाँद आप विरले ।।१३।।
तुम्हारा एक ।
चलता सिक्का जहाँ में लिया देख ।।१४।।
देख नजर नाक पे ।
चाली ‘द्यु…ति’ खेल साख पे ।।१५।।
तेल बगैर बाती ।
जाग चिराग तुमरी थाती ।।१६।।
डूबता ।
भान और तुम को देख कौन ऊबता ।।१७।।
आप छुट्टी लें न बर्षा ।
‘चन्द’ पढ़े दूजे मदर्सा ।।१८।।
रवि-शशि तो खेल करते ।
तम आप हरते ।।१९।।
भेद विज्ञान ।
तुम्हार सिवा पास और गुमान ।।२०।।
सार्थक नाम दे…वता ।
दिया बता जो आप पता ।।२१।।
पुण्य कमाएँ ।
सोच माएँ, ‘कि आप सा पुत्र पाएँ ।।२२।।
सिर्फ डराते हैं ।
‘और’ आप सिवा भरमाते हैं ।।२३।।
एक तुम्हारे ।
नाम जितने नेक सारे के सारे ।।२४।।
बुद्ध कोई न और ।
तुम ही रुद्र कोई न और ।।२५।।
अर्हन्त, सिद्ध, सन्त ।
शरण और धर्म माहन्त ।।२६।।
औ गुण शून ।
आप जन्म-पूर्व से ही गुण पून ।।२७।।
भान निकट घन ।
तर अशोक तन कंचन ।।२८।।
तन आसन स्वर्ण एक समान ।
गिरि उदय भान ।।२९।।
तट सुमेर निर्झर ।
देह स्वर्ण अर चँवर ।।३०।।
साम्राज्य एक छत्र ।
हवा…ले ‘जहां’ एकेक छत्र ।।३१।।
बाजे… ।
खिवैय्या म्हार-तुम्हार नैय्या,
यहाँ विराजे ।।३२।।
झिर-अथिर वरन-वरन ।
सु-मन गगन ।।३३।।
कर्ता उपमा भा-विलय आप ।
भा-वलय आप ।।३४।।
निस्पृह भला ।
जाने सीखी ‘भी’ वाणी कहाँ पे कला ।।३५।।
सुर कमल रचते ।
आप ज्यों ही चल पड़ते ।।३६।।
और पास वै-निश्चै से भव ।
पास आप वैभव ।।३७।।
कहना चढ़ी मस्ती हा…थी ।
भक्तेक तुम्हार थाती ।।३८।।
जय जिनेन्द्र आगे ।
सुनते, भय मृगेन्द्र भागे ।।३९।।
पा आप नाम जल ।
बुझती जग भस्म अनल ।।४०।।
नाम तुम्हार ।
वशी व्याल कराल,
दृग् लाल लाल ।।४१।।
खूनी समर ।
रमाये धूनी, आप-गुणी ! सुमर ।।४२।।
तलक अब जीती तुम भक्त से ना ।
शत्रु सेना ।।४३।।
तुम वगरै पतवार ।
नौ करा देते हो पार ।।४४।।
रोगों का काम तमाम ।
दवा लेते ही आप-नाम ।।४५।।
अक्षय थारा ।
छू कर जय कारा, छू भय कारा ।।४६।।
भागता रण छोड़ डर ।
ले नाम ले तोर भर ।।४७।।
‘भी’ भक्तामर एकाक्षरी ।
जपा, ‘कि दफा बिगड़ी ।।४८।।
भक्ता-मर-स्तोत्र १३५
हाई…को ?
चाहूँ नजर ।
‘तेरी’ भक्ति का बीड़ा उठाऊँ सर ।।१।।
इन्द्र सफल ।
मेरे भी दें लिख मन्जिल ।।२।।
थोड़ी सी मोटी धी ।
पत-राखना ‘जि ओ ! बीच-सुधी ।।३।।
देवों के गुरु जी हारे ।
गा न पाये गुण तुम्हारे ।।४।।
छुवाये भक्ति तेरी आस्मां ।
देखो ना वैसे मैं बौना ।।५।।
और न आना हाथ ।
बनने सिवा हँसी का पात्र ।।६।।
पाप नापते आप रस्ता ।
जुड़ा ‘कि आपसे रिश्ता ।।७।।
पर्श-पाँव का आप पाती ।
बनती चन्दन माटी ।।८।।
दूर संस्तुति, कथा भी तेरी ।
ढ़हे पापों की ढ़ेरी ।।९।।
पीछे पारस ।
तुम्हें आता करना निज-सा बस ।।१०।।
दृग् हजार न समेट पाई रूप ।
आप अनूप ।।११।।
जहां दोई ।
न मिला सुन्दर आप सा,
और कोई ।।१२।।
कहाँ आप का मुख ।
देखा ‘कि हुआ चाँद को दुख ।।१३।।
लाँघें उछल उछल ।
जगत् गुण आपके बल ।।१४।।
जो चितवन जित-रण ।
कोई तो तुम भगवन् ।।१५।।
न बुझा पाये पवन झोंके ।
दीप आप अनोखे ।।१६।।
देखा ‘कि खिलें भवि मुख जलज ।
आप सूरज ।।१७।।
मोह अन्धर ।
देखा आप चन्दर, ‘कि छू मन्तर ।।१८।।
मिटाये मुख तुम अंधेरा ।
दें क्यों चन्द्रार्क फेरा ।।१९।।
तव समान ।
प्रकट किस घट वैभव ज्ञान ।।२०।।
औरों का हाथ ।
आपसे मुलाकात, हो पाई बात ।।२१।।
माँ खूब, बेटे आप अपूर्व ।
सिर्फ सूर्य माँ पूर्व ।।२२।।
मृत्युंजय दे बना ।
की हृदय से आप वन्दना ।।२३।।
नाम अलग-अलग ।
दे आवाज तुम्हें ही जग ।।२४।।
बुद्ध, विशुद्ध, गणेश ।
तुम्हीं ब्रह्मा, विष्णु, महेश ।।२५।।
जै जयतु जै ।
सहजो निराकुल जै जयतु जै ।।२६।।
औगुण औरों ने लिये चुन ।
हुये आप सद्गुण ।।२७।।
बना ।
अशोक वृक्ष,
अध्यक्ष दक्ष आप अपना ।।२८।।
मन भावन ।
सिंहासन और ये तन कंचन ।।२९।।
ढ़ोरें सुन्दर बड़े चँवर ।
खड़े जोड़े-अमर ।।३०।।
चोर नजर ।
मनहर छतर, गौर अपर ।।३१।।
कहती भेरी ।
भैय्या, खिवैय्या नैय्या ये तेरी मेरी ।।३२।।
साथ वर्षात सुमन ।
गन्ध कण, मन्द पवन ।।३३।।
सूरज रोम रोम ।
भाये मण्डल-भा सौम्य सोम ।।३४।।
बैठे बैठे ही जमीं ।
दे छुवा आस्माँ जिनवाणी माँ ।।३५।।
तुम चलते ।
कम् कुसुम रचते, देव चलते ।।३६।।
और तो और विदेश न ।
आपसी सभा देशना ।।३७।।
जपे मनके जय जिनेन्द्र ।
भागा भय गजेन्द्र ।।३८।।
तेरी जिस पे करुणा ।
क्या सिंह से उसे डरना ।।३९।।
करता दावा शमन ।
जल आप नाम कीर्तन ।।४०।।
जीतने मुझ से जंग ।
काफी प्रभु नाम, भुजंग… ।।४१।।
भगवत् नाम कीर्तन बल ।
जाता संग्राम टल ।।४२।।
तुम्हें ध्याते ही विधाता ।
प्रतिद्वन्दी मुँह की खाता ।।४३।।
बीच भँवर नाव ।
तुम्हें ध्याते ही लगती गाँव ।।४४।।
नाम आप क्या सुना ।
रोग मुड़ के न देखें पुनः ।।४५।।
क्षय बन्धन भय कारा ।
छुआ श्री जी जय कारा ।।४६।।
भेंटे शाम सु…मरण ।
तेरे नाम का सुमरण ॥४७।।
जिनका उन्हें समर्पित ।
स्तोत्र दृग् जल सहित ।।४८।।
भक्ता-मर-स्तोत्र १३६
हाई…को ?
आदि भौ-सिन्धु जहाज ।
राखो आज मेरी भी लाज ।।१।।
इन्द्र विख्यात ।
स्तुति-प्रस्तुति थामो मेरा भी हाथ ।।२।।
नादानी ।
तव-संस्तव पकड़ने सा, चाँद पानी ।।३।।
न मानी किस ने हार ।
तुम गुण-सिन्धु अपार ।।४।।
सिंह पै टूटे मृगी ।
लाल जो ‘आप’ लौं लगी ।।५।।
मंजरी पिक मिसरी ।
करे भक्ति तेरी मुखरी ।।६।।
कीर्तन तेरा ।
पाप विनाशे जैसे सूर्य अँधेरा ।।७।।
कमल, जल मोती भाँत ।
स्तुति ये तुम प्रसाद ।।८।।
पर्याप्त, नाम आप्त ।
सूरज, दूर खिले जलज ।।९।।
आ समर्पण करना ।
बस वर्षी तेरी करुणा ।।१०।।
नैन रस्ते ।
आ सीधे हृदय तुम जाते धसते ।।११।।
तुम्हें बना के वो माटी गुम ।
तभी, तुम से तुम ।।१२।।
इतने तुम सुन्दर ।
हटाये, न हटे नजर ।।१३।।
तुमनें डाली एक नजर ।
फिर किसका डर ।।१४।।
अप्सराएँ ।
ले रिश्ता भक्त भगवन् आखिर जाएँ ।।१५।।
झाँकें बगलें दीप-रत्नों के ।
आप दीप अनोखे ।।१६।।
बादल तुम्हें सकें न झाँप ।
ऐसे सूरज आप ।।१७।।
न ग्रसे राहु जिसे ।
आप विरले चन्द्रमा ऐसे ।।१८।।
क्यों चले आते ।
‘चन्द्रार्क’ तुम तम जो विघटाते ।।१९।।
और न भेद-विज्ञान जहां ।
मणि सा काँच कहाँ ।।२०।।
औरों ने तुम्हें ‘दिया’ तुमने क्या ।
चित् औ’ चुरा लिया ।।२१।।
बनती रोज माएँ ।
पा पुत्र आप जैसा न पाँए ।।२२।।
पाई ‘कि आप आशीषी छाँव ।
मृत्यु लौटाती पाँव ।।२३।।
न न्यारे, थारे ही नाम ।
बुद्ध, ब्रह्मा ,शंकर, राम ।।२४।।
तुम्हीं नृसींह ।
सहज-निराकुल और निरीह ।।२५।।
अ नमो नमः, सि नमो नमः ।
आ-उ-सा नमो नमः ।।२६।।
यूँ, हुये छू न आये लौट औगुण ।
आप शगुन ।।२७।।
ऊँचे अशोक नीचे ।
आप दृग् खोले न पूरी मींचे ।।२८।।
हुआ चित् चोर सिंहासन ।
पा तोर तन कंचन ।।२९।।
देेह स्वर्ण चँवर ।
मानो झिरे मेरु निर्झर ।।३०।।
चाँद, छत्र के बहाने ।
आया आप कीर्तन गाने ।।३१।।
दे फेरी, कहे भेरी ।
सद्-धर्मराज जय हो तेरी ।।३२।।
सुमन वर्षा सुगन्ध-कण ।
मन्द-पवन धन ! ।।३३।।
चित्त चुराये ।
भामण्डल भौ सात-साथ दिखाये ।।३४।।
दूध का दूध, करे पानी का पानी ।
वाणी कल्याणी ।।३५।।
आप विहार पल ।
भू मानो और सर-कमल ।।३६।।
आप वैभव देशना ।
कहीं और लव-लेश ना ।।३७।।
हो हवा हाथी उत्पात ।
आप नाम से हाथों-हाथ ।।३८।।
दृग् तरेर ।
न मिला देखता आप-भक्त को शेर ।।३९।।
पा आप नाम जल ।
जग-भक्षिणी बुझे अनल ।।४०।।
नाम मन्तर आप ।
जपते ही छू-मन्तर साँप ।।४१।।
तुम पाँवन प्रीत ।
वाम संग्राम दिलाये जीत ।।४२।।
टिक न पाता शत्रु सुभट ।
आप भक्त निकट ।।४३।।
सिन्धु ‘मगर’ दे दें रस्ता ।
आप से जिन का रिश्ता ।।४४।।
आप नाम क्या दवाई लेते ।
रोग विदाई लेते ।।४५।।
किया मन से वन्दन ।
आप देता खोल बन्धन ।।४६।।
समस्या और अनेक ।
नाम आप समाधाँ एक ।।४७।।
गाता ये गाथा भक्तामर ।
वो सिन्धु भौ जाता तर ।।४८।।
भक्ता-मर-स्तोत्र १३७
हाई…को ?
बाँटा औरों को हाथ ढ़ीले ।
अभी भी दृग् मेरे गीले ।।१।।
सौधर्म भाँत ।
स्तुति प्रस्तुति सौंपूँ में भी हाथ ।।२।।
बुध वन्दित ! स्तुति तेरी ।
धी मारी गई सी मेरी ।।३।।
सर नवाया ।
थव-तव गा सुर-गुरु न पाया ।।४।।
धकाये तेरी भक्ति मुझे नाहक ।
मैं ना लायक ।।५।।
जग कसेगा व्यंग्य ।
क्या करूँ, चढ़ा भक्ति पै रंग ।।६।।
पल भी ध्याये जाते आप ।
पलाते पल में पाप ।।७।।
पा आप कृपा, ये थवन ।
हरेगा हरका मन ।।८।।
दूर संस्तव तव जीवन वृत ।
हरे दुष्कृत ।।९।।
करते आप आप सा ।
सिद्ध-रस न कोई ऐसा ।।१०।।
नैन पायें न छक ।
इक-टक भी तुम्हें निरख ।।११।।
जाये ‘कि आप रच तन ।
थे बस वे रज कण ।।१२।।
देखा आपका मुख ।
स्वानुभौ वाला ‘कि हुआ सुख ।।१३।।
भर के डग-डग ।
सद्-गुण आप उलाँघें जग ।।१४।।
मिल के नारीं-सारीं ।
तुमसे रण कटाक्ष हारीं ।।१५।।
संदीप्त और और सदीव ।
आप अखण्ड दीव ।।१६।।
राहु तुम्हें न निवाला करे ।
तुम सूरज निरे ।।१७।।
गत-अन्धर मोह अमा ।
आप श्री मुख चन्द्रमा ।।१८।।
जा बैठें घर ।
रवि-शशि तुम हो ना तम-हर ।।१९।।
भेद विज्ञान छूता आकाश ।
सिर्फ आप के पास ।।२०।।
सत् की खोज को थमा मुकाम दिया ।
‘और’ शुक्रिया ।।२१।।
छिंगली ।
आप माँ रखा अनामिका और अंगुली ।।२२।।
सत् तुम शिव तुम ।
सुन्दर तुम, अन्धर गुम ।।२३।।
मृत्यु जीतना हुआ आसान ।
हुआ ‘कि आप ध्यान ।।२४।।
तुम्हीं बुद्ध हो ।
नर-सिंह प्रसिद्ध हो, विशुद्ध हो ।।२५।।
अरिहन्त जै ।
प्रसिद्ध सिद्ध नन्त जै, निर्ग्रन्थ जै ।।२६।।
शगुन ।
तुम्हें छोड़ के कहीं, जाते ही नहीं गुण ।।२७।।
निकट मेघ दिनकर ।
विराजे अशोक तर ।।२८।।
रत्न जड़ा ।
न और सिंहासन यूँ सुन्दर बड़ा ।।२९।।
लिये दो तीस अमर ।
दुगुण दो-तीस चँवर ।।३०।।
चन्दर और गौर ।
छतर ऐसे न कहीं और ।।३१।।
मिटाती द्वन्द ही ।
भिंटाती आनंद भी, श्री दुन्दुभि ।।३२।।
मन्द-पवन ।
सुमन झिर, तुम गिर् गन्ध कण ।।३३।।
भा-मण्डल भा कोटि समेटे भान ।
चाँद समान ।।३४।।
वचन निरे ।
अमृत छलकाते द्वादश घड़े ।।३५।।
रचना देव कृत कमल ।
तर पाँवन तल ।।३६।।
सिवा तुम न और त्रिभुवन ।
श्री समोशरण ।।३७।।
न छेड़े तुम भक्त को ।
वो हाथी हो मदासक्त जो ।।३८।।
क्षय मृगेन्द्र भय ।
कहा ‘कि जय जिनेन्द्र जय ।।३९।।
बाबा छू आप नाम जल ।
मन्तर छू दावानल ।।४०।।
शिशु निकले बीच साँप ।
ले नाम ताबीज आप ।।४१।।
तुम्हें आवाज क्या लगाई ।
सिराई ठनी लड़ाई ।।४२।।
पल क्या तुम से रिश्ता जोड़ा ।
शत्रु ने रास्ता छोड़ा ।।४३।।
विदाई जल किरात भै ।
लगाई जिननाथ जै ।।४४।।
किसी रोग से भक्त तुम परेशाँ ।
हुआ न ऐसा ।।४५।।
देर बाँध लें ।
भक्त तुम न बनी ऐसी साँकलें ।।४६।।
समेट माया भागे अंधेरा ।
सुन के नाम तेरा ।।४७।।
कृति निराली ।
भक्तामर विपत्ति हरने वाली ।।४८।।
भक्ता-मर-स्तोत्र १३८
हाई…को ?
थोड़े सकोची ना ।
बाहें चिर तुमने सकोची ना ।।१।।
सौधर्म मोती, दो मुट्ठी खोली ।
मेरी तोतली बोली ।।२।।
धी-मोटी नाता ।
लाज छोड़ के गाता आप की गाथा ।।३।।
हों दो, तो गिना दें ।
गुण नन्त कैसे द्यु-गुरु गा दें ।।४।।
करे मुखरी जबरन ।
तुमरी भक्ति भगवन् ।।५।।
कूक कोकिल मिसरी ।
हेत वन आम्र मंजरी ।।६।।
भोर अँधेरा ।
क्षय करता भय स्मरण तेरा ।।७।।
गिरी सिर से माया ।
क्या हाथ तेरा सिर पे आया ।।८।।
लगती झड़ी कल्याण ।
तुम कथा, पड़ी क्या कान ।।९।।
बनाना तुम ने, अपने सरीखा ।
कहाँ से सीखा ।।१०।।
तुम देखते ही बनते ।
दृग् रस्ते जा जी घसते ।।११।।
तुम्हें रचा ।
सत्-शिव-सुन्दर माटी राखी न बचा ।।१२।।
चन्द्रमा ।
देखे मुख चन्द्रमा आप ‘के जाता शर्मा ।।१३।।
थारा हाथ जो सिर पर ।
गुण जा लगे अम्बर ।।१४।।
तुम्हें निर्मद पायें ।
जायें मद खो के अप्सराएँ ।।१५।।
झोंक-मारुत न नोंक-झोंक किया ।
तुम वो दीया ।।१६।।
ओ ! जाते वहाँ, न जाते जहाँ कवि ।
तुम वो रवि ।।१७।।
रंच जिसमें न कलंक ।
विरंच आप मयंक ।।१८।।
हर अन्धर तुम ।
छवि ‘कि रवि चन्दर गुम ।।१९।।
आप-सा कोई न ज्ञानी ।
आप जग-दोई लासानी ।।२०।।
‘परोपकार’ बड़ा ।
अंगुली तेरी दी जो पकड़ा ।।२१।।
अनन्य पुण्य विभूत ।
‘जा’ तुम सा पाते सपूत ।।२२।।
लिया रस क्या ? भी जश में ।
मृत्यु आ जाती वश में ।।२३।।
नाम उसके बस अनेक ।
वह भगवन् एक ।।२४।।
हो गुरु तुम ।
हो पुरु तुम, तुम पुरुषोत्तम ।।२५।।
नौकार जय ।
मृत्युंजय सबिन्दु ओकार जय ।।२६।।
और औगुण ।
हो सकते हैं कैसे ? ‘आप’ शगुन ।।२७।।
बने देखते अशोक तर ।
रूप आप सुन्दर ।।२८।।
सिंहासन वो, लो नजरों में आया ।
तुम्हें क्या पाया ।।२९।।
कान्ति चँवरों की दूनी ।
तेरे नाम की रमा धूनी ।।३०।।
छत्र झालर विचित्र अमोल ।
जै आप की बोल ।।३१।।
भेरी ने घूँमा जग सारा ।
दे तुम नाम जैकारा ।।३२।।
वर्षा सुमन ।
करते हर्षा कर अमर गण ।।३३।।
क्या पीछे आप के लगा ।
भामण्डल का भाग जागा ।।३४।।
अक्षर बिना अक्षर वाणी तोर ।
जगत् चित्-चोर ।।३५।।
रचते तर पद तल ।
सुवर्ण देव कमल ।।३६।।
नाम ही रक्खा सम-शरण ।
यूं न और दर्शन ।।३७।।
किया तुम्हें ‘कि याद ।
उत्पाती हाथी दे खो उत्पात ।।३८।।
शेर दे रास्ता छोड़ ।
न करें आप भक्त से होड़ ।।३९।।
जर्रा-सा तेरे नाम का जल ।
बुझा ले दावानल ।।४०।।
नाम तुम्हारा ।
सुना ‘कि दिखें सर्प सिर्फ पिटारा ।।४१।।
छुये मनके ‘कि नाम तुम ।
महा संग्राम गुम ।।४२।।
जुड़ी तुमसे प्रीत ।
मिले अमीत हो ‘कि विनीत ।।४३।।
लगाई रट ।
नाम तुम ‘कि गुम जल संकट ।।४४।।
लेते ही तेरे नाम की दवा ।
रोग हो चला हवा ।।४५।।
बन्धन खुल जाते ।
तेरा नाम क्या गुनगुनाते ।।४६।।
गुमान भार ।
मान आभार, भागे आपके आगे ।।४७।।
तेरी कृपा हो गई,
वैसे ये कोई बात न नई ।।४८।।
भक्ता-मर-स्तोत्र १३९
हाई…को ?
ले लो शरण में ।
‘आप’ और और त्रिभुवन में ।।१।।
इन्द्र सफल ।
पा, आप कृपा, मैं भी पा लूॅंगा हल ।।२।।
दीप दिखाना भान ।
मेरा ये तेरा जो गुणगान ।।३।।
गा सके, तुम जश न पल ।
सुर-गुरु विफल ।।४।।
गाता बनती कोशिश ।
जश ‘आप’ भक्ति के वश ।।५।।
कूक कोकिल भाई ।
कारण आम्र-मंजरी छाई ।।६।।
करे चुटकी में पाप निरसन ।
आप दर्शन ।।७।।
तुम प्रसाद पा ।
झोली मोरी, लेगी चार-चाँद पा ।।८।।
काफी आप का नाम ।
आप पाप का काम तमाम ।।९।।
आप सिवाय ।
आप सा करना न किसी को आय ।।१०।।
तुम्हें देखें तो कैसे छक ? ।
भीगनें लगे पलक ।।११।।
खूब वो रज-कण ।
रचा जिनसे तुम्हारा तन ।।१२।।
तुम बाहर वैसे अन्दर ।
सत्य, शिव, सुन्दर ।।१३।।
भागती माया आप ।
सिर पे हाथ क्या आया आप ।।१४।।
अटल मन ।
पाई न डिगा तुम्हें स्त्री चितवन ।।१५।।
जिसमें धूम्र निकले ।
न वो, दीप आप विरले ।।१६।।
करज रूप तम ।
सहज गुम सूरज तुम ।।१७।।
घटें कला ।
न उनमें मुख-चाँद आप विरला ।।१८।।
हाथ लगना रोना ।
‘चाँद सूरज’ तुम जो हो’ना ।।१९।।
निवास आप श्वास ।
‘ज्ञान’ कहाँ वो और पास ।।२०।।
और रहमो-करम ।
लागे पीछे तेरे ‘कि हम ।।२१।।
आप-के जैसा पुत्र कहाँ ।
आपके जैसी कहाँ माँ ।।२२।।
कहते ही श्री जी जयतु जै ।
कौन न मृत्यंजय ।।२३।।
पुकारे नाम ले अलग-अलग ।
तुम्हें ही जग ।।२४।।
बुद्ध अखर ।
शमकर शंकर, नर नाहर ।।२५।।
उत्तम तुम्हीं लोक ।
शरण तुम्हीं मंगल ढ़ोक ।।२६।।
और औगुण माँगे ।
हाथ में आपके गुण लागे ।।२७।।
पा गया तुम्हें क्या देव पुरु ।
तरु अशोक गुरु ।।२८।।
आप पधारे ।
चमके सिंहासन भाग सितारे ।।२९।।
ढुर सामने तुम भगवन् ।
हुये चॅंवर धन ! ।।३०।।
आकर छत्र ने भगवन् के काम ।
कमाया नाम ।।३१।।
गुंजायमान दिश्-दिश भेरी ।
लगाती जै-कार तेरी ।।३२।।
प्रफुल झिर गुल सुगन्ध कण ।
मन्द पवन ।।३३।।
भामण्डल ‘कि देखा ।
दीखी भौ सात जीवन रेखा ।।३४।।
अपनी भाषा में लें समझे प्राणी ।
वाणी कल्याणी ।।३५।।
वन-कमल जमीं ।
पल विहार आप… लाजिमी ।।३६।।
देखा न सुना ।
कहीं और ‘आप-सी’ सभा-देशना ।।३७।।
होगा किसी का ‘साथी’ ।
न आप भक्त का भय हाथी ।।३८।।
केशरी दबा के दुम भागे ।
तुम भक्त के आगे ।।३९।।
बुझे उद्दाम दावानल ।
पा नाम भगवत् जल ।।४०।।
आता साँप दे रास्ता बदल ।
नाम आप के बल ।।४१।।
लिया भगवत् नाम जैसे ही ।
थमी ‘कि केशा केशी ।।४२।।
तेरी अंगुली क्या पकड़ी ।
रहता न कोई अरि ।।४३।।
लगाई रट नाम तुम ।
‘कि जल संकट गुम ।।४४।।
हो चले रोग रफा-दफा ।
तिहारा नाम क्या जपा ।।४५।।
की जै तुम माँ मरु-नन्दन ।
गुम ‘कि भै बन्धन ।।४६।।
तुम्हें बुलाया ।
भागे औरौर भय समेट माया ।।४७।।
जै मॉं पुकारा क्या हमनें ।
मदद की आ तुमनें ।।४८।।
भक्ता-मर-स्तोत्र १४०
हाई…को ?
लगा भक्तों का ताँता ।
बताता, तुम्हें सुनना आता ।।१।।
पार सौधर्म इन्द्र बेड़ा ।
मुझे भी आसरा तेरा ।।२।।
सेवक भट ।
‘आप’ स्तुति प्रस्तुति बालक हट ।।३।।
हार माने ।
गा, सुर-गुरु न सके आप तराने ।।४।।
सिंह स्तुति, मैं मृगी ।
और छौना, लौं तुमसे लगी ।।५।।
पिकी मंजरी ।
‘करे मुखरी’ मुझे भक्ति तुमरी ।।६।।
अंधेरा पाप ।
भागे मुहँ छिपा पा सूरज आप ।।७।।
जल कमल मुक्ताफल ।
असर आप नजर ।।८।।
दूर स्तवन आप नामस्मरण ।
पाप हरण ।।९।।
‘आप’ आप-सा करने में, माहिर ।
जग जाहिर ।।१०।।
पलक तुम्हें न पाते नैन ।
तो हो जाते बेचैन ।।११।।
तुम सुन्दर जो बड़े ।
क्या तिलिस्मी माटी से गढ़े ।।१२।।
नाम सा लिये गुण ।
पुरु आपका मुख शगुन ।।१३।।
गुण आपके रह आस-पास ।
छू रहे आकाश ।।१४।।
तिलोत्तमा ले लौटा लाई पग ।
पा तुम्हें सजग ।।१५।।
रतन दीप ।
न तुम जैसा प्रात रात प्रदीप ।।१६।।
दोपहर न चुभते दृग् ।
सूरज आप अलग ।।१७।।
है कातती न चर्खा बुढ़िया ।
चाँद आप बढ़िया ।।१८।।
आगे पाँवन आप रज ।
न लागे चाँद सूरज ।।१९।।
प्रकर्ष ज्ञान आपके समान ।
न और जहान ।।२०।।
हुआ आप-से मिलन ।
हेतु इस में और जन ।।२१।।
औरन मात दे मात ।
मात आप सुत विश्रुत ।।२२।।
जुड़ी आप से प्रीत ।
समझो लिया मृत्यु को जीत ।।२३।।
ब्रह्मा, महेश, राम ।
‘आदि’ जिनेश सहस्र नाम ।।२४।।
निरीह जगत् त्राता ।
नृसींह, शुद्ध, बुद्ध, विधाता ।।२५।।
जै अरिहन्त जी
जै सिद्ध नन्त जी, जै निर्ग्रन्थ जी ।।२६।।
जाने क्या देखा औ’ औगुनों ने ।
‘चुना’ तुम्हें गुणों ने ।।२७।।
मेघ निकट भास्कर ।
तुम तरु अशोक तर ।।२८।।
तन कंचन सिंहासन समान ।
पूर्वाद्रि भान ।।२९।।
खड़े बत्तीस अमर ।
ले चौंतीस ढ़ोरें चॅंवर ।।३०।।
जग भर से न्यारे ।
छतर सारे चाँद से प्यारे ।।३१।।
दुन्दुभि कहे, रहे विराज ।
यहाँ सद्धर्म राज ।।३२।।
सुगन्ध कण ।
बर्षा सुमन मन्द मन्द पवन ।।३३।।
चाँद समान
भा भामण्डल भा कोटि समेटे भान ।।३४।।
ध्वनि ओंकार ।
दे समझा अपनी भाषा-नुसार ।।३५।।
रचें न कम देव कमल ।
तुम विहार पल ।।३६।।
देखा जा, जहां दो गुम ।
वो देशना विभव तुम ।।३७।।
लें क्या भगवन् को भज ।
होता नत मस्तक गज ।।३८।।
जपा नृसींह रख आपा ।
रास्ता ‘कि सींह ने नापा ।।३९।।
भगवत् नाम लिया पल ।
प्रशान्त ‘कि दावानल ।।४०।।
नाग वल्मीक तरफ भागे ।
भक्त भगवन् आगे ।।४१।।
भगवत् नाम रमाई धुनी ।
थमी लड़ाई ठनी ।।४२।।
तुम्हें क्या लाते चित्त ।
दुश्मन हो चारों खाने चित्त ।।४३।।
जुड़ा भगवन् से रिश्ता ।
दें ‘कि जल किरात रस्ता ।।४४।।
ली तुम नाम क्या दवाई ?
रोगों की शामत आई ।।४५।।
भगवन् कैसे ।
भक्त को न छुड़ायें जो बन्धन से ।।४६।।
भगवन् भक्त को गोद में उठाते ।
पा राह काँटे ।।४७।।
रही खूब माँ की कृपा ।
हम गये जो मंजिल पा ।।४८।।
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