भक्ता-मर-स्तोत्र ७५
आदि तुमने तारा ।
हमने भी पुकारा ।।१।।
पार वो परिधारी ।
बार अबकि हमारी ।।२।।
बस आसरा तेरा ।
ध्यान रखना मेरा ।।३।।
गुण तुम गगन तारे ।
गा बृहस्पति हारे ।।४।।
निरा माटी माधव ।
क्या रचूॅंगा तुम थव ।।५।।
भक्ति करती तुमरी ।
मुझे जबरन मुखरी ।।६।।
इक आपका सुमरण ।
धिक् पाप का निरसन ।।७।।
तेरी छाया-छतर ।
फिर करनी क्या फिकर ।।८।।
आप काफ़ी नामा ।
पाप माफीनामा ।।९।।
रुपया न ले पैसा ।
करते आप जैसा ।।१०।।
भोर दर्शन तेरा ।
अमा और अंधेरा ।।११।।
रज नूरि सुन्दरतम ।
रच तुम्हें हुई खतम ।।१२।।
कौन तुम सारीखा ।
चॉंद दिन में फीका ।।१३।।
गुण तुम, अर नदारद ।
लॉंघें त्रिजग सरहद ।।१४।।
गुमान अप्सरा गुम ।
लख दृष्टि नासा तुम ।।१५।।
धूम न तेल बाती ।
दीप ‘पन-धन’ थाती ।।१६।।
न आताप का काम ।
रवि तुम न ढ़लो शाम ।।१७।।
न परेशाँ चन्द्र ऽमा ।
विरले तुम चन्द्रमा ।।१८।।
रवि शशि क्यों मुसाफिर ?
तुम हो ना गत तिमिर ।।१९।।
दृग् आप तींजी भी ।
न दृगौर भींजी भी ।।२०।।
सघन औरन किरपा ।
गया जो तुम को पा ।।२१।।
‘तुम माँ’ कोई, न कम ।
दोनों ही अप्रतिम ।।२२।।
आप जिसके अपने ।
वो मृत्युंजय बने ।।२३।।
ब्रह्मा, विष्णु, शंकर ।
तुम सत्य, शिव, सुन्दर ।।२४।।
बुद्ध तुम शमकर तुम ।
विधाता, पुरुषोत्तम ।।२५।।
अरिहन्त, सिद्ध नन्त ।
जै सूरि पाठि सन्त ।।२६।।
औ’ औगुन लिये चुन ।
आय तुम हिस्से गुण ।।२७।।
तुम्हें पा तर अशोक ।
हुआ इक पात्र-ढ़ोक ।।२८।।
तुम और सिंहासन ।
संयोग मणि कांचन ।।२९।।
चौ-तीस-तीस चँवर ।
ढ़ोरें दुतीस अमर ।।३०।।
अपहर भान प्रताप ।
छतर भा-चन्द्र आप ।।३१।।
बिखेरे सुगन्ध ‘भी’ ।
गभीर तुम दुन्दुभी ।।३२।।
गुल बरसा गन्ध कण ।
देव कृत मन्द पवन ।।३३।।
धरा न ऐसा व्योम ।
भा-मण्डल तुम सोम ।।३४।।
दिवि शिव मील पाहन ।
दिये तुम दिव्य वचन ।।३५।।
आप बढ़ाते कदम ।
रचते सुर-गण पदम ।।३६।।
सिर्फ समवशरण तुम ।
रवि छवि तारकन गुम ।।३७।।
बने साथी हाथी ।
भक्ति जिसकी थाती ।।३८।।
जुड़ा तुमसे वास्ता ।
सिंह दे छोड़ रास्ता ।।३९।।
छू कर तुम-नाम जल ।
छू मन्तर दव अनल ।।४०।।
नाम तुम अहि दमनी ।
दिखे वल्मीक फणी ।।४१।।
लेते ही तुम नाम ।
थमे ठना-संग्राम ।।४२।।
अरि कुल जाता हार ।
भक्त नाम जय-कार ।।४३।।
सागर झंझा मगर ।
जाते तुम भक्त तर ।।४४।।
नाम तुम ‘कि ली दवा ।
खत्म रोग दबदबा ।।४५।।
प्रसाद आप वन्दन ।
खुलते दिखें बन्धन ।।४६।।
उड़े सघन घन विघन ।
सुन नाम आप पवन ।।४७।।
की किरपा बड़ी माँ ।
मैं छुऊँ जो, आस्माँ ।।४८।।
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