भक्ता-मर-स्तोत्र ७२
विपदाहर,
भक्तामर विपदाहर ।।
छवि सुर नत मुकुट रतन ।
तम पाप अपहर चरण ।।
नमन, तरण भव सागर ।
भक्तामर विपदाहर ।।१।।
गाये इन्द्र तुम्हारी ।
संस्तुति रच मनहारी ।।
गाता मैं तुतलाकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।२।।
बुध वन्दित ! तुम गाथा ।
मैं लाज छोड़ गाता ।।
शिशु, जल गहूँ निशाकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।३।।
सुर गुरु आखिर हारे ।
शगुन,गा-गुण तुम्हारे ।।
तर, कौन मगर सागर ।
भक्तामर विपदाहर ।।४।।
भक्ति धकेले तेरी ।
वैसे न शक्ति मेरी ।।
रण, शिशु-वश मृग-नाहर ।
भक्तामर विपदाहर ।।५।।
बल जोर भक्ति तुमरी ।
करती मुझको मुखरी ।।
मधु-पिक मंजरि पाकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।६।।
करते ही तुम सुमरण ।
गम हो गुम, हो सु-मरण ।।
तम गुम देख दिवाकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।७।।
थुति हर लेगी यह मन ।
पा आप कृपा भगवन् ।।
मोती, जल कमल पतर ।
भक्तामर विपदाहर ।।८।।
थव दूर, कथा थारी ।
भव-पूर व्यथा-हारी ।।
रवि खम्, खिलें कमल-सर ।
भक्तामर विपदाहर ।।९।।
जगत और न तुम जैसा ।
तुम करते अपने सा ।।
शिव, सत्य और सुन्दर ।
भक्तामर विपदाहर ।।१०।।
ले देखे तुम्हें नैना ।
पायें न और चैना ।।
तुम क्षीर और सागर ।
भक्तामर विपदाहर ।।११।।
परमाणु ‘कि बस उतने ।
तन जिससे आप बने ।।
तुम भांत न रूप अवर ।
भक्तामर विपदाहर ।।१२।।
अभिजेय उपमा जहॉं ।
मुख आप मनहर कहाँ ।।
दल-ढ़ाक, दिन निशाकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।१३।।
लांघें त्रिभुवन गुण तुम ।
छवि पूनम शशि अनुपम ।।
तुम शरणा, किसका डर ।
भक्तामर विपदाहर ।।१४।।
मद-चूर अप्सराएं ।
मद चूर चूर जाएं ।
न बस, नाम मेर अचर ।
भक्तामर विपदाहर ।।१५।।
बिन धूम, तेल बाती ।
रोशन त्रिभुवन थाती ।।
तुम दीप अगम अन्धर ।
भक्तामर विपदाहर ।।१६।।
क्या मजाल घन झांपे ।
लख राहु तुम्हें कांपे ।।
अद्भुत एक प्रभाकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।१७।।
दलित मोह अँधियारा ।
नुत राहु, मेघ द्वारा ।।
मुख-तुम प्रमुख सुधाकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।१८।।
नाहक शशि भान जनम ।
गुम शशि मुख तुम जब तम ।।
स्वर घन विफल फसल घर ।
भक्तामर विपदाहर ।।१९।।
कह केवल ज्ञान रहा ।
अर पास गुमान रहा ।।
छवि काँच अर जबाहर ।
भक्तामर विपदाहर ।।२०।।
करुणा देव सरागी ।
लगन आपसे लागी ।।
चित् चोर न तुम-सा अर ।
भक्तामर विपदाहर ।।२१।।
तुम माँ अपने माफिक ।
दोनों दुनिया में इक ।।
हूबहू पूर्व दिनकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।२२।।
भर पलक, तुम्हें ध्याते ।
मृत्युंजय बन जाते ।।
शिव पन्थ इक उजागर |
भक्तामर विपदाहर ।।२३।।
परमेश्वर नर-सिंहा ।
शंकर, श्री हरि, ब्रह्मा ।।
तेरे ही नाम अपर ।
भक्तामर विपदाहर ।।२४।।
बुद्ध सुबुद्धि प्रदाता ।
प्रद शिव पन्थ विधाता ।।
पुरुषोत्तम ! शिव नागर ।
भक्तामर विपदाहर ।।२५।।
अरिहन्त नन्त वन्दन ।
सिरि सिद्ध अनन्त नमन ।
सब सन्त नमन सादर ।
भक्तामर विपदाहर ।।२६।।
सर अर दोष चढ़ाये ।
गुण पाले तुम आये ।।
धस वसे हृदय आकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।२७।।
तर अशोक तर कंचन ।
जन-जन मनहर तुम तन ।।
घन निकट भान तमहर ।
भक्तामर विपदाहर ।।२८।।
सिंहासन रत्नों का ।
स्वर्ग तन तुम अनोखा ।।
गिरि उदय उदित भास्कर ।
भक्तामर विपदाहर ।।२९।।
छवि चंवर कुन्द वैसी ।
तन कान्ति स्वर्ण जैसी ।।
तट मेर झिरे निर्झर ।
भक्तामर विपदाहर ।।३०।।
रवि हर प्रताप विरले ।
छवि पूरण चन्दर ले ।।
चल झालर तीन छतर ।
भक्तामर विपदाहर ।।३१।।
यहाँ, जहाँ-रखवाले ।
निधि निज देने वाले ।।
भेरी कहे जगाकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।३२।।
कण गन्ध बरसा सुमन ।
जन-मन-हर मन्द पवन ।।
झिर वच तुम निशि वासर ।
भक्तामर विपदाहर ।।३३।।
भा उपमा विजित सकल ।
अर चन्दर भामण्डल ।।
रवि कोटि तेज आगर ।
भक्तामर विपदाहर ।।३४।।
प्रद पथ-दिव कल्याणी ।
प्रद पथ-शिव तुम वाणी ।।
भर सागर ले गागर ।।
भक्तामर विपदाहर ।।३५।।
छवि नव कमल सलोनी ।
नख करें कान्ति दूनी ।।
सुर रचें कमल पद-तर ।।
भक्तामर विपदाहर ।।३६।।
वैभव आप समशरण ।
देखा न और त्रिभुवन ।।
रवि छवि अर नखत निकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।३७।।
गुन-गुन भ्रमर परेशां ।
निर्झर मद गज ऐसा ।।
वशि, नाम आप, सुनकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।३८।।
छीने गज मुक्ताफल ।
सिंह ऐसा उच्-छृंखल ।।
वशि, नाम आप सुनकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।३९।।
प्रेरित प्रलयन पवना ।
दव, चाहे जग भखना ।।
वशि, जल तुम नाम सुमर ।
भक्तामर विपदाहर ।।४०।।
फन उन्नत विकराला ।
दृग् लाल नाग काला ।।
वशि, नाम आप सुनकर ।
भक्तामर विपदाहर ।।४१।।
रव भीम अश्व छोड़ें ।
चिंघाड़ें गज दौड़ें ।।
वशि रण, तुम नाम सुमर ।
भक्तामर विपदाहर ।।४२।।
गज देह रक्त झरने ।
अरि कुल आतुर तरने ।
जित भक्त तुम वह समर ।
भक्तामर विपदाहर ।।४३।।
जल वडवा वक्र भ्रुयें ।
लहरें आसमाँ छुयें ।।
तुम भक्त मगर ले तर ।
भक्तामर विपदाहर ।।४४।।
दृग् नीर पीर भारी ।
लाइलाज बीमारी ।।
गुम, औषध ! तुम्हें सुमर ।
भक्तामर विपदाहर ।।४५।।
तन जकड़ा सांकल से ।
सर्वांग गये छिल से ।।
गुम बन्धन, तुम्हें सुमर ।
भक्तामर विपदाहर ।।४६।।
गज, सिंह, रण, अहि-काला ।
गद, दव, जल, अरि, कारा ।।
क्षय यह भय तुम्हें सुमर ।
भक्तामर विपदाहर ।।४७।।
गुल विविध वर्ण चुन के ।
गुण माल हाथ बुन के ।।
आ धरें कण्ठ पल भर ।।
भक्तामर विपदाहर ।।४८।।
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