भक्ता-मर-स्तोत्र ५८
खड़े हाथ जोड़े ‘सुर जोड़े’ ।
आप सामने तम, दम तोड़े ।।
आदि पतित भव जलधि जहाज ।
यूँ ही सदा राखना लाज ।।१।।
सकल वाङ्मय तत्त्व प्रबोधा ।
रचे इन्द्र थुति तुम मनमोहा ।।
शामिल मैं भी थति तुम दौड़ ।
प्रथम जिनेन्द्र देव सिर-मौर ।।२।।
पाद-पीठ तुम विबुध पुजारी ।
थुति तुम, सुमति गई मम मारी ।।
शशि प्रतिबिम्ब पड़ा आ नीर ।
सिर्फ पकड़ने बाल अधीर ।।३।।
पार सिन्धु-गुण तुम कब आया ।
सिर आखिर सुरगुरु ने नाया ।।
जल किरात-दल प्रलयी-पौन ।
भुज बल पार सिन्धु भव कौन ।।४।।
प्रेरित करे भक्ति इक तेरी ।
तुम थुति प्रस्तुति शक्ति न मेरी ।।
चली मृगी दौड़ी सिंह ओर ।
खींचे जो शिशु निज चित्-चोर ।।५।।
हँसी उडायेंगे बुध मेरी ।
मुखरी करे भक्ति पर तेरी ।।
हुये कोकिला मीठे बोल ।
बौर आम दी मिसरी घोल ।।६।।
पल भर के सिमरन से थारे ।
पाप लगे सब एक किनारे ।।
अलि अन्धर फैला चहुँ ओर ।
देख भान भागे बिन शोर ।।७।।
थुति थारी, मैं तनु मति धारी ।
होगी तुम प्रसाद मन-हारी ।।
पड़े नीर-कण कमलन पात ।
चम-चम चमके मोतिन भाँत ।।८।।
रहे दूर थव सरस विधाता ।
मात्र नाम तव हरष दिलाता ।।
दूर गगन खेले रवि फाग ।
सर सरोज भर जाये जाग ।।९।।
भक्त भजे जो तुम्हें हमेशा ।
कर लेते तुम अपने जैसा ।।
रखे न जो सेवक का ध्यान ।
सिर्फ नाम का वह धनवान ।।१०।।
अंखियाँ देख तुम्हें जो आतीं ।
कहीं और सन्तोष न पातीं ।।
हाथ लगा जल सागर-क्षीर ।
छुये कौन फिर सागर-नीर ।।११।।
थे उतने परमाणु अनोखे ।
बचें ‘कि नहिं तुम रचना हो के ।।
सत् शिव सुन्दर दिव्य अनूप ।
त्रिभुवन और न दूजा रूप ।।१२।।
कहाँ आपका मुख अविकारी ।
देखे दृग्-सहस्र-पविधारी ।।
कहाँ भाग शशि जिसके दाग ।
भाँत पलाश दिवस हतभाग ।।१३।।
शुभ्र आप शशि गुण अलबेले ।
विचरें जग स्वच्छन्द अकेले ।।
कौन दिखाये उनको आँख ।
रखते पास नाम तुम साख ।।१४।।
स्वर्ग उतर तिय आईं दौड़े ।
तुम पर डाल न पाई डोरे ।।
तके ‘पवन-लय’ आँख तरेर ।
और भले डोले, न सुमेर ।।१५।।
धुँआ नहीं, नहिं तेल न बाती ।
जगत तीन प्रकटाना थाती ।।
बुझा न पाती झंझावात ।
दीप प्रकाशित तुम दिन-रात ।।१६।।
अस्त सुदूर, न राहु परेशाँ ।
प्रगटाते वैसा, जग-जैसा ।।
घन, क्षण भर भी सके न झांप ।
सूर्य अनोखे, ऐसे आप ।।१७।।
उदित नित्य तम-मोह प्रहारी ।
राहु अगम्य, मेघ-मद-हारी ।।
उत्तर, दक्षिण, पश्चिम पूर्व ।
आप अकेले चाँद अपूर्व ॥१८।।
लगा रहे शशि रवि क्यों फेरा ।
जब मेंटे मुख आप अँधेरा ।।
खेत खड़ी पक धान अखीर ।
घन गरजें क्यों ? भर कर नीर ।।१९।।
भेद ज्ञान जो पास तिहारे ।
और न जा देखा जग सारे ।।
तेज दिव्य मणि जैसा साँच ।
पास न किरणाकुल भी काँच ।।२०।।
दर दर भटका हुआ भला ही ।
हुये आप पथ-दृग्-मम राही ।।
तुम्हें देख पर हुआ न लाभ ।
पोत-परिन्दा मिला खिताब ।।२१।।
रोज नारियाँ बनती माएँ ।
पुत्र कहाँ तुम जैसा पाएँ ।।
पूरित दिश्-दिश् नखत विचित्र ।
एक सूर्य माँ पूर्व पवित्र ।।२२।।
परम-पुरुष ! आदित्य सरीखे ।
मुनि माने हस्ताक्षर ‘भी’ के ।।
पद प्रदत्त मृत्युंजय एक ।
मुक्ति पंथ पग-पग अभिलेख ।।२३।।
हरि ! हर ! ब्रह्मा ! एक ! अनेका ।
विदित जोग ! तुम हंस-विवेका ।।
अव्यय ! आद्य ! अनन्त ! असंख्य ! ।
विभु ! परमेश्वर ! विमल ! अचिन्त्य ! ।।२४।।
विधि विधान शिव पंथ विधाता ।
शम-कर शंकर त्रिभुवन त्राता ।।
विबुध समर्पित बुद्ध भदन्त ।
पुरुषोत्तम पुरुषारथ वन्त ।।२५।।
नमो नमः दुख हरने वाले ।
नमो नमः जन-जन रखवाले ।।
नमो नमः भूतल श्रृंगार ।
नमो नमः नैय्या भय-पार ।।२६।।
खोजा और न आश्रय पाया ।
तुम्हें गुणों ने आ अपनाया ।।
दोष और आश्रय मद चूर ।
रहे स्वप्न भी तुमसे दूर ।।२७।।
तर तरु सार्थक नाम अशोका ।
स्वर्ण भाँत तुम रूप अनोखा ।।
करता तम का काम तमाम ।
प्रकटा रवि समीप घनश्याम ।।२८।।
स्वर्ण सिंहासन रत्न सजाया ।
चम-चम चमके कंचन काया ।।
करता तम का खण्डित मान ।
प्रकटा गिरि उदयाचल भान ।।२९।।
चामर कुन्द पुष्प के जैसे ।
तन प्रदेश मिलते सोने से ।।
झिरे मेर झर-झर जल-धार ।
उछले तट शशि प्रभा अपार ।।३०।।
छतर तीन शशि भा से भासे ।
रवि प्रतापहर ऊपर राजे ।।
झालर मुक्ताफल आलाप ।
जगत तीन परमेश्वर आप ।।३१।।
स्वर पूरित दश दिश् गम्भीरा ।
यहाँ खिवैय्या प्रद भव तीरा ।।
धर्म अहिंसा इक जय घोष ।
बाजे दुन्दुभि भरती होश ।।३२।।
पुष्प सुगंधित अतिशय कारी ।
झिरें गगन, ले अपनी बारी ।।
झिर गन्धोदक मन्द बयार ।
झिरें वचन तुम बाँध-कतार ।।३३।।
भा भा-मण्डल आप अनोखी ।
प्रभा पड़ी फीकी रत्नों की ।।
तेज कोटि रवि, गत आताप ।
सौम्य, सोम शरमाये आप ।।३४।।
स्वर्ग-मोक्ष तक लाने वाली ।
निज वैभव दिखलाने वाली ।।
ध्वनि ऐसी सबिन्दु ओकार ।
फिरे स्वयं-भाषा अनुसार ।।३५।।
फुल्ल कमल नव स्वर्ण सलोने ।
कान्ति बढ़ाई नखत-नखों ने ।।
आप जहाँ रखते जुग-चर्ण ।
सुर गण रचते कमल सुवर्ण ।।३६।।
आप समशरण वैभव जैसा ।
विभव न तलक क्षितिज भुवि वैसा ।।
तमहर दिनकर दिव्य प्रकाश ।
विकसित भी कब ग्रह गण पास ।।३७।।
झिरे धार-मद मूल कपोला ।
छेड़े जिसे मत्त अलि टोला ।।
सम्मुख ऐसा गज़ विकराल ।
तुम्हें भजा भागे तत्काल ।।३८।।
कुम्भ विदारे नखन नुकीले ।
रत्न बिखरे शोणित गीले ।।
सम्मुख ऐसा सिंह विकराल |
तुम्हें भजा भागे तत्काल |।३९।।
प्रलय पवन बल नभ अवगाहे ।
सारा विश्व निगलना चाहे ।।
सम्मुख ऐसा दव विकराल ।
तुम्हें भजा भागे तत्काल ।।४०।।
काला लाल-लाल दृग् वाला ।
विष उगले फण उठा विशाला ।।
सम्मुख ऐसा अहि विकराल ।
तुम्हें भजा भागे तत्काल ।।४१।।
गरज रहे गज मानो मेघा ।
गरजे अश्व भीम ले वेगा ।।
सम्मुख ऐसा बल विकराल ।
तुम्हें भजा भागे तत्काल ।।४२।।
उड़ा देह गज रक्त अबीरा ।
तरने सरिता रक्त अधीरा ।।
सम्मुख ऐसा अरि विकराल ।
तुम्हें भजा भागे तत्काल ।।४३।।
रहें बना गुट जल-चर प्राणी ।
पिये जा रहा बडवा पानी ।।
सम्मुख ऐसा भय विकराल ।
तुम्हें भजा भागे तत्काल ।।४४।।
जीते जी न जाने वाला ।
जितना बने नचाने वाला ।।
सम्मुख ऐसा गद विकराल ।
तुम्हें भजा भागे तत्काल ।।४५।।
जकड़ी देह साँकलन भारी ।
नख-शिख देह छिल चली सारी ।।
सम्मुख ऐसा दुख विकराल ।
तुम्हें भजा भागे तत्काल ।।४६।।
गज, सिंह, दव, अहि, नीर अपारा ।
रण, बंधन, रुज, पीर पहाड़ा ।।
सम्मुख ऐसा यम विकराल ।
तुम्हें भजा भागे तत्काल ।।४७।।
वर्ण पुहुप गूँथी गुण माला ।
भक्ति दूसरी धागा डाला ।।
इसे भविक जे धारें कण्ठ ।
आप देश पहुँचें निष्कण्ट ।।४८।।
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