भक्ता-मर-स्तोत्र ५२
भक्त अमर जिनके भाई ।
जिसकी भक्ति मुक्ति दाई ।।
मुकुट माथ रखके चरणन ।
सुरग नाथ करते अर्चन ।।
झालर-मुकुट थिरक उठतीं ।
तब मणि मुकुट चमक उठतीं ।।
अन्धर पाप मिटाते जो ।
अन्तर् ताप मिटाते जो ।।
थी जुग जब पलटी खाई ।
‘जी जुग नव पारी आई ।।
था अपनाया जब जिनने ।
दीप दिखाया तब जिनने ।।
उनके दोनों श्री चरणा ।
किन्हें न दोनों जग शरणा ।।
करते सम्यक् तिन्हें नमन ।
करके दूर चपलता-मन ।।१।।
सकल-वाङ्-मय अधिकारी ।
केवल एक-भवातारी ।।
समाँ चन्द्रमा सुर-तारे ।
मानें आज्ञा सुर सारे ।।
वह सौधर्म स्वर्ग स्वामी ।
करे थवन जिन अभिरामी ।।
थव मन जो हर-ले हर का ।।
थव मन जो कर दे हल्का ।।
अर्थ गहन रखने वाला ।।
सहज समझ आने वाला ।।
थवन न इक भूलन जिसमें ।
महके जश जिस दश-दिश् में ।।
मैं भी थवन रचाता हूँ ।
श्रद्धा सुमन चढ़ाता हूँ ।।
आदीश्वर वे तीर्थेश्वर ।
जगदीश्वर वे सर्वेश्वर ।।२।।
मैं माटी-माधव ठहरा ।
ज्ञान कहाँ मेरा गहरा ।।
पाद-पीठ तुम, कहॉं जिसे ।
विबुध लगाते माथे से ।।
फिर भी मैं निर्लज्ज बना ।
खो-के स्वाभिमान अपना ।।
मन को रोक न पाता हूँ ।
गीत तुम्हारे गाता हूँ ।।
साँझ हुई चन्दा आया ।
जल में दिखी पड़ी छाया ।।
घट अमरित छलकाता है ।
सब का चित्त चुराता है ।।
सब कामों को छोड़ चला ।
देखो वो शिशु दौड़ चला ।।
सहसा बातों-बातों में ।
चाँद पकड़ने हाथों में ।।३।।
कौन आप गुण गा सकता ।
नदी कौन लौटा सकता ।।
सबके सब गुण धवल-धवल ।
दिव्य अनोखे नवल-नवल ।।
भर गागर तो गुण गा लें ।
तट सागर कैसे पा लें ।।
आखिर कर सुरगुरु हारे ।
देर तलक गिनकर तारे ।।
पवन प्रलय-कालीन प्रबल ।
आया यम समेत दल-बल ।।
रात भाँत भँवरे काली ।
उठें न लहर भँवर खाली ।।
मच्छ तैरते तिल जैसे ।
वह समुद्र बाहुन बल से ।।
कहाँ ? कौन वह तर पाया ।
तैराकों ने सर नाया ।।४।।
बची-खुची सुध-बुध खोके ।
आप भक्ति के वश हो के ।।
फिर भी हे ! सिरमौर श्रमण ।
नेक ! एक चित्-चोर सुमन ।।
पास न मेरे शक्ति भले ।
बिन मोती मैं शुक्ति भले ।।
गाता हूँ तेरी गाथा ।
मन की बातों में आता ।।
और और वो देखो ना ।
जिसका नया नया छौना ।।
शिशु है जरा न सोचा है ।
सिंह ने जिसे दबोचा है ।।
माँ वो हिरण भले अबला ।
सोचे बिना कदम अगला ।।
सिंह की तरफ बढ़ाती है ।
कहो कहाँ घबड़ाती है ।।५।।
राख नाक नहिं पाऊँगा ।
बन मजाक रह जाऊँगा ।।
नादाँ मन्द-बुद्धि हूँ मैं ।
ज्यादा समझ नहीं मुझमें ।।
जबरन भक्ति तुम्हारी पर ।
कर जादू-टोना मन्तर ।।
बना रही मुझको मुखरी ।
कर पकड़ा कर बेशबरी ।।
डाल-डाल पर ढ़ोल रही ।
कोयल मिसरी घोल रही ।।
ऋतु वसंत की आई है ।
पतझड़ हुई विदाई है ।।
और नहीं कारण इसमें ।
सिर्फ यही कारण इसमें ।।
नव-जीवन परछाई जो ।
बौर आम्र-वन छाई वो ।।६।।
किया आपका पलक भजन ।
किया आपका पल सुमरण ।।
दे यम को दाबत आता ।
पापों की शामत लाता ।।
अघ जिनसे नाता चिर से ।
तौल न कम, भारी गिर से ।।
झपक-पलक भी कब पाई ।
करता गिरा धरासाई ।।
फीका सा पड़ता भँवरा ।
काला हा ! ऐसा गहरा ।।
दूर-दूर की बात सखे ।
न पास का भी जरा दिखे ।।
किरणें आ फैलाता है ।
सूरज आँख उठाता है ।।
अन्दर ही अन्दर रोता ।
अन्धर छू मन्तर होता ।।७।।
और न कुछ ज्यादा जानूँ ।
मैं तो बस इतना मानूॅं ।।
जिसका नैन सजल नाता ।
मेरी यह तेरी-गाथा ।।
बुद्धि नहीं होने पर भी ।
बुद्धि रही, खोने पर भी ।।
पाकर तुम प्रसाद भगवन् ।
इक पूरण मुराद-त्रिभुवन ! ।।
बुद्धिमान मन हर लेगी ।
वृद्ध ज्ञान मन-हर लगी ।।
संस्तुति क्योंकि आप-की है ।
दुश्मन चूँकि पाप-की है ।।
कमल पत्र ऊपर जैसे ।
गिर कर ओस-बूँद नभ से ।।
ऐसी प्रति-भाषित होती ।
दूर चमकता हो मोती ।।८।।
रहे दूर अर्चन तेरा ।
रहे सुदूर थवन तेरा ।।
ढूॅंढ़े दोष न मिलता हो ।
अलङ्कार गुल खिलता, जो ।।
ए ‘जी नई पुरानी-ही ।
तेरी कथा-कहानी-भी ।।
नाथ ! पाप हर लेती है ।
भाँत आप कर लेती है ।।
रहे भले सूरज ऊपर ।
अपनी भिंजा किरण भू-पर ।।
सर सरोज जो अलसाये ।
रहे चूँकि रजनी साये ।।
क्या अनुराग न बिखराता ।
उनमें जाग न भर जाता ।।
बोलो, क्या नहिं देखा है ।
वैसे नहीं अनोखा है ? ।।९।।
बात कहाँ यह अद्भुत है ।
जगह-जगह तो चर्चित है ।।
हृदय आप पधरा कर के ।
विरद आप पल गा कर के ।।
गाने वाला बालक भी ।
न सिर्फ आला साधक ही ।।
भूत-नाथ ! त्रिभुवन भूषण ।
दोष-दूर ! निरसक दूषण ।।
भो ! जग तीन एक-स्वामी ।
गत अंधर अन्तर्-यामी ।।
आँगन गगन दिखाता है ।
तुम जैसा बन जाता है ।।
सेवक, सेवक रखे बना ।
काम निकाले-बस अपना ।।
वह धनवान काम का किस ।
वह धनवान नाम का बस ।।१०।।
बिना दिलाये झाँप पलक ।
दर्शनीय इक आप झलक ।।
अपना पुण्य जगा करके ।
ऐसी उसको पा करके ।।
स्वर्ग, रसातल भौन भुवन ।
ऐसा होगा कौन नयन ।।
बेल नमक जल सींचेगा ।
जो औरों पर रीझेगा ।।
क्षीर सिन्धु का मीठा जल ।
पूरण इन्दु, अनूठा जल ।।
तर निज गला बनाया हो ।
संतोषामृत पाया हो ।।
कहो कौन बुध होवेगा ।
सावन कागा धोवेगा ।।
पिये समझ अमरित धारा ।
सागर सा पानी खारा ।।११।।
राग शान्त हो चाला है ।
जिनका भाग-निराला है ।।
वे परमाणु पुण्यशाली ।
उजियाली, सुबहो लाली ।।
थारी देह विरच चाले ।
अपना पुण्य खरच चाले ।।
दया कृपा करुणा बरसे ।
निरत तपस्या थे चिर से ।।
सत् शिव सुन्दर तन त्रिभुवन ।
नयन नयन हर, अपहर मन ।।
रस्ते नैन चला आता ।
धस कुछ हृदय समा जाता ।।
छान लिया जग सारा है ।
जैसा रूप तुम्हारा है ।।
नहीं किसी के हिस्से में ।
न स्वप्न ही, न किस्से में ।।१२।।
सार्थ नाम मुख अभिलेखा ।
मुड़-मुड़ कर हर ने देखा ।।
है अनिमेषों में कोई ।
लोचन सहसों में कोई ।।
धरण उवाच् मनोहारी ।
आनन आन…न बलिहारी ।।
वदना बद…ना नृप कहते ।
देख जिसे ना चुप रहते ।।
करूँ प्रशंसा कम उतनी ।
जीती उपमाएँ जितनी ।।
कहाँ चन्द्रमा बढ़ इससे ।
हिस्से रात, छुपा किससे ।।
तभी अंधेरा मन भाता ।
चेहरा लुपा-छुपा आता ।।
दिन ज्यों-ज्यों चढ़ता दीखा ।
पत्र पलाश भॉंत फीका ।।१३।।
कला-कलाप विभव न्यारा ।
पूरण चन्दा उजियारा ।।
चाँद चाँदनी मन भाई ।
चॉंदी चॉंदी जुन्हाई ।।
शुभ्र उसी जैसे गुण हैं ।
मुक्ताफल माणिक मण हैं ।।
चले उलॉंघ भुवन रेखा ।
जितने सभी न बस एका ।।
आश्रय जिन्हें तुम्हारा हो ।
थारा जिन्हें सहारा हो ।।
भुवन तीन इक रखवाले ।
शरण दीन तारण हारे ।।
कौन टोक पाया उनको ।
कौन रोक पाया उनको ।।
भले विचरते मनमाना ।
ओढ़ निराकुलता बाना ।।१४।।
रम्भा चली रमाने को ।
उर उर्वशी बसाने को ।।
तिलोत्तमा दिव आई है ।
साथ मेनका लाई है ।।
ये क्या सभी हार चालीं ।
धो पग अश्रु धार चालीं ।।
त्राहि-माम् दे दो माफ़ी ।
भूल बन पड़ी हैं काफी ।।
आशा दृष्टि हटा के तुम ।
नासा दृष्टि सटा के तुम ।।
बैठे रहे न अचरज है ।
लिए मुक्ति राधा स्रज है ।।
चले भले प्रलयी पौना ।
झर ही चला मेर कोना ।।
सुनने में भी आया ना ।
सपने कभी दिखाया ना ।।१५।।
बाती भाँझ न डाली है ।
तेल बिना दीवाली है ।।
तले अंधेरा नाता ना ।
खाता झोल दिखाता ना ।।
कज्जल कहॉं उगलता है ।
तिल-तिल कर कब जलता है ।।
फूॅंक बुझ चला देखा ना ।
रुक रुक जला-भिलेखा ना ।।
मूसल-धार चली आई ।
बाल न बाँका कर पाई ।।
आंधी, तूफानों में भी ।
लौं जाती, न सुना कभी ।।
हो ऐसे विरले दीवा ।
सच दूजे ही संजीवा ।।
जगमग जगमग जग जेते ।
डूब अनोखी इक लेते ।।१६।।
जोड़ लालिमा से नाता ।
राहु न आँखें दिखलाता ।।
बाना ओढ़ भले काला ।
झाँप न सके मेघ-माला ।।
जो नाता उदयाचल से ।
नाता वो अस्ताचल से ।।
भाग-दौड़ ना हॉंपा है ।
कम ना त्रिभुवन नापा है ।।
रोशन किया जगत् सारा ।
दिखलाया तम यम द्वारा ।।
क्यों कर बजे आग गोला ।
फिर बोला, पहले तोला ।।
कभी न चुभा निग़ाहों को ।
खड़ा पसारे बाहों को ।।
दिव्य अलौकिक हो रवि तुम ।
कृत मौलिक ओ ! गौरव तुम ।।१७।।
मद से भरी भले आई ।
बदली झाँप कहाँ पाई ।।
ग्रास राहु मुख बना कभी ।
देखा नहीं न सुना कभी ।।
गिरगिट चाल न अपनाता ।
भीतर दर्पण से नाता ।।
धब्बे-दाग न दामन में ।
लाज तैरती आंखन में ।।
पिण्ड दौड़ से छूटा है ।
निर्झर अमृत अनूठा है ।।
ज्यों ही आँखों को खोला ।
हुआ नदारद तम मोहा ।।
है जगमग कोना कोना ।
छवि बढ़ रवि कवि देखो ना ।।
कान्तिमान शशि मुख दूजा ।
इक-सुर सुर-सुर मुख गूॅंजा ।।१८।।
तुम मुख चन्दा काफी है ।
रूह तिमिर की कॉंपी है ।।
काफी तुम सूरज माथा ।
तम न लौट वापिस आता ।।
खुद को तमहर कहता क्यूॅं ।
सूरज दिन भर रहता क्यूँ ।।
उठा रात गिरगिट गर्दन ।
शशि किस लिये करे नर्तन ।।
धान न बस लहराये है ।
जश किसान का गाये है ।।
गाड़ी बैल गेल पाई ।।
खन-खन सुनने में आई ।।
गर्जन सिंह दहाड़ वाला ।
राख रूप काला काला ।।
किस कारण छाये बादल ।
लगते थोड़े से पागल ।।१९।।
त्रिभुवन दर्पन-वत् झलका ।
और और युगपत् झलका ।।
स्व-पर प्रकाशक दीपक ज्यों ।
स्वपर प्रकाशक धी इक त्यों ।।
मर्यादा ज्ञेयों की है ।
महिमा ज्ञान अनोखी है ।।
केवल एक अकेला है
हिस्से जहाँ झमेला है ।।
यानि ज्ञान वैभव ऐसा ।
बौना जिस आगे पैसा ।।
झोली और कहॉं दीखा ।
सॉंच जमाना नव-सीखा ।।
हीरे मोती माणिक मण ।
जगमग जगमग यथा रतन ।।
कहाँ काँच का ऐसा जश ।
भले सहाई रश्मि सहस ।।२०।।
दर दर श्री फल फोड़ा है ।
मन सर के बल दौड़ा है ।।
माँगी खूब मनौती है ।
अबुझ जगाई ज्योती है ।।
छप्पन भोग लिये घूमा ।
बाँध पैर घुँघरु झूमा ।।
चोला लिये लाल काला ।
चाला दे घर पर ताला ।।
बड़ा हो चला लाभ मुझे ।
मिले आप अभिताभ मुझे ।।
किस्मत मेरी जागी है ।
लगन आप से लागी है ।।
अब न और कोई भाता ।
ऐसा जुड़ चाला नाता ।।
सपना भी देखूँ तेरा ।
इक अपना सो तू मेरा ।।२१।।
कहा लाड़ के, हैं लड़के ।
सारे इक से इक बढ़के ।।
लाल नाम के बस सारे ।
गोद विदिश् दिश् शश-तारे ।।
सार्थ नाम गुल मुस्काना ।
श्याह कोकिला तुतलाना ।।
उड़ते तोते सी नासा ।
गिर माथा इक परिभाषा ।।
बात ‘सूर’ की क्या कहना ।
नाम तथा गुण ‘रिख’ गहना ।।
पुण्य अपूर्व पूर्व पाया ।
लिये जलॉंजलि जग आया ।।
वैसी ही तुम महतारी ।
पुण्य सातिशय बलिहारी ।।
जयतु जगत माता जय जय ।
जयतु जगत त्राता जय जय ।।२२।।
जय जय जय जय पुरुषोत्तम ।
जय जय जय जय पुरु उत्तम ।।
जयतु पुराण पुरुष जय जय ।
जयतु ऊर्ध्व रेतस् जय जय ।।
जयतु पुनीत जयतु जय जय ।
जगत विनीत जयतु जय जय ।।
पुण्यवान जय जय जय जय ।
धन्य ज्ञान जय जय जय जय ।।
जय मृत्युंजय जय जय जय ।
जयतु अरिंजय जय जय जय ।।
जयतु सूर अपहर अन्धर ।
जयतु नूर सत्, शिव, सुन्दर ।।
दिव पथ निर्देशक जय जय ।
शिव पथ संदर्शक जय जय ।।
निर्मल वरण जयतु जय जय ।
निस्पृह शरण जयतु जय जय ।।२३।।
जयतु जयतु जय जय अव्यय ।
जयतु जयतु जय जय जय जय ।।
जयतु जयतु विभु अचिन्त्य जय ।
जयतु जयतु जय असंख्य जय ।।
जयतु आद्य जय जय ईश्वर ।
सिद्ध साध्य जय जगदीश्वर ।।
केतु-अनंग जयत जय जय ।
सेतु अनन्त जयत जय जय ।।
जयतु एक जय जयत जयत ।
जय अनेक जय जयत जगत ।।
महित योग जय जय जय जय ।
विदित योग जय जय जय जय ।।
जय ब्रह्माण जयतु जय जय ।
ब्रह्मिक ज्ञान जयतु जय जय ।।
जयतु स्वरूप अमल जय जय ।
जय चिद्रूप विमल जय जय ।।२४।।
बुध जय जय केवल-ज्ञानी ।
बुद्ध आप केवल ध्यानी ।।
शम सुख करने वाले हैं ।
शंकर आप निराले हैं ।।
विध विधान शिव-पथ कीना ।
आप विधाता जग तीना ।।
पुरुषोत्तम कहलाते तुम ।
भा भावन वसुधैव कुटुम ।।
रमण निजात्म ब्रह्म भाया ।
नाम आद ब्रह्मा पाया ।।
पत राखी कैलाशा सत् ।
नाम सार्थ कैलाशा-पत ।।
गहल वृषभ तेली खोई ।
वृषभ नाथ तुम जग दोई ।।
आशुतोष कब रूठे हो ।
दीनानाथ अनूठे हो ।।२५।।
नमो नमः, जय नमो नमः ।
भूषण भू जय निलय क्षमा ।।
नमो नमः, जय नमो नमः ।
नन्त चतुष्ट्य ज्ञान रमा ।।
नमो नमः, जय नमो नमः ।
भव जल शोष, तोष धर्मा ।।
नमो नमः, जय नमो नमः ।
अपहर त्रिभुवन आर्त अमा ।।
नमो नमः, जय नमो नमः ।
ईश्वर विश्व विश्व कर्मा ।।
नमो नमः, जय नमो नमः ।
असि, आ, उसा इष्ट परमा ।।
नमो नमः, जय नमो नमः ।
समशरणा अचिन्त्य महिमा ।।
नमो नमः, जय नमो नमः ।
करुणा कृपा दया प्रतिमा ।।२६।।
बात कहाँ अचरज कारी ।
महिमा जन्म-मुक्त भारी ।।
पाँत लगाकर आये हैं ।
माथ नवाकर आये हैं ।।
अपना मुझे बना लो तुम ।
करुणा कर अपना लो तुम ।।
रहा नहीं अवकाश वसे ।
भाँत गंग-आकाश लसे ।।
अब अवगुण आ रहें कहाँ ।
भरे गर्व से, रहें जहाँ ।।
धसे वसे जा रहे वहीं ।
पलट देख भी रहे नहीं ।।
क्यों नयनों में छायेंगे ।
क्यों सपनों में आयेंगे ।।
मिल चाला सब औरन से ।
मतलब क्या अब औरन से ।।२७।।
पुण्य सातिशय जागा है ।
ऊँचा जा नभ लागा है ।।
आ बैठे नीचे छाया ।
जगत् जगत् इक जिनराया ।।
लिये और ही छव खिलता ।
सार्थ अशोक नाम मिलता ।।
पात पात करता नर्तन ।
साख साख माफिक दर्पण ।।
देह सुवर्ण सुहागा तुम ।
तिमिर दबा के भागा दुम ।।
तब मानो लगता ऐसा ।
ऋत प्रावट् दिखता जैसा ।।
बीच मेघ काले-काले ।
स्वामी उजियारे वाले ।।
किरण जाल फैलाते हैं ।
भवि मयूर जश गाते हैं ।।२८।।
काँधा सीह लगाया है ।
विरद अहिंसा गाया है ।।
सोला वानी सोने का ।
दूजा और नहीं देखा ।।
सारी दुनिया से न्यारा ।
सिंहासन ऐसा प्यारा ।।
अपने जैसी बड़ीं बड़ीं ।
पार्श्व भाग में जड़ीं मणीं ।।
तुम तन बड़ा सलोना है ।
सुरभी वाला सोना है ।।
तब मानो ऐसा लगता ।
अपना पहला डग भरता ।।
उदयाचल नामा गिर से ।
किरण रूप अपने ‘कर’ से ।।
छूने निकला अरविन्दा ।
जयतु जयतु माँ मरु नन्दा ।।२९।।
अमर कतार लगाते हैं ।
चौंसठ चॅंवर ढुराते हैं ।।
सत् शिव सुन्दर नवल-नवल ।
कुन्द पुष्प से धवल-धवल ।।
अवर सभी अपने जैसे ।
चॅंवर सभी अपने जैसे ।।
और आपका तन सोना ।
देख कौन चाहे खोना ।।
नीचे तट पर गिरता है ।
‘भद-भद सुर’ हो चलता है ।।
भरे उछाल लगे चाँदी ।
भा हूबहू चाँद भाँती ।।
दृश्य अनोखा फबता है ।
तब कुछ ऐसा लगता है ।।
मेर नाम इक पर्वत से ।
झिर चाले झिरना मथ से ।।३०।।
छतर बड़ा सा एक अधर ।
फिर मँझला, छोटा ऊपर ।।
सूर ताप अपहरते जे ।
तुम गुण कीर्तन करते वे ।।
आभा लिये अलग दमकें ।
चमचम चॉंद भाँत चमकें ।।
और न है ऐसे वैसे ।
चल चंचल अपने जैसे ।।
लम्बी-लम्बी रतनारीं ।
लरें अनोखी मन हारीं ।।
मन माफिक मणि लागीं हैं ।
मण माणिक बढ़ भागी हैं ।।
हिलतीं ढुलतीं झल्लिरियाँ ।
आपस में करती बतियाँ ।।
जे त्रिभुवन इक राजा हैं ।
इक जल जनम जहाजा हैं ।।३१।।
सुर गंभीर बताते हैं ।
सुर स्वर्गों से आते हैं ।।
फिरते कथन फितूरी के ।
ढ़ोल सुहाने दूरी के ।।
करकश लगें न कानों को ।
छेड़े ऐसी तानों को ।।
झंकृत दिशा दिशा होती ।
पलभर को सुध बुध खोती ।।
डूब अनोखी लग चाली ।
खिसक चली परिणति काली ।।
शुभ संगम आह्वानन है ।
सत्य धर्म इक माहन है ।।
जय सद्धर्म राज की जय ।
जय शिव-शर्म भाज की जय ।।
बाज रही तेरी भेरी ।
दे कोने कोने फेरी ।।३२।।
नमेर, सुन्दर, सन्तानिक ।
पारिजात मन्दा-रादिक ।।
झिर लग सुमनों की बरसा ।
देव करें हरषा-हरषा ।।
डण्ठल जिनके नीचे को ।
पॉंखुड़ी ऊपर आ देखो ।।
फबते ऐसे जब गिरते ।
वचन आप लग झिर झिरते ।।
ह…वा वा…ह अपने घॉंई ।
सार्थ नाम मा…रुत लाई ।।
धीमें धीमें चाले है ।
डोरे मन पे डाले है ।।
और झिरें झीनीं झीनीं ।
बुन्दियाँ पानी अनचीनीं ।।
महक न ऐसी बगिया की ।
सच कुछ हटके ही झाँकी ।।३३।।
तीन भूत के दीखे भव ।
लेख तीन अनदीखे भव ।।
भव वर्तमान दीखा है ।
भा वृत आप सरीखा है ।।
द्युति उपमाएँ मिल सारीं ।
जितनी त्रिभुवन में न्यारीं ।।
पलड़े एक रखी जायें ।
भामण्डल भारी पायें ।।
सूर प्रताप कोटि जितना ।
भूर प्रभाव ज्योति उतना ।।
नाम निशान ना आतप का ।
यूँ प्रभाव न अर तप का ।।
सौम्य सोम आभा मण्डल ।
सौम्य सोम सा भा-मण्डल ।।
बात दूर आँखों की भो ।
ठण्ड़क मिले अनोखी औ’ ।।३४।।
स्वर्ग वहाँ तक ले आती ।
सिर्फ न बस इतनी थाती ।।
जीवन मुक्त बनाती है ।
दीव विमुक्त थमाती है ।।
दया धर्म का गाती जश ।
धर्म क्षमाद बताती दश ।।
वस्तु स्वभाव धर्म गाथा ।
धर्म रतन त्रय इक ज्ञाता ।।
सार्थ नाम आखर-आखर ।
गागर में भरती सागर ।।
ऐसी दिव्य ध्वनि न्यारी ।
सुखकारी भव-दुखहारी ।।
भाषा सभी पिछाने है ।
जो भाषा जो जाने है ।।
उस भाषा में ले पलटी ।
सुलट चले मत ‘के उल्टी ।।३५।।
नख अपने जैसे सुन्दर ।
रख बहुरूप प्रकट चन्दर ।।
जगमग जगमग करते हैैं ।
नयन, मन त्रिजग हरते हैं ।।
फुल्ल प्रफुल्ल कमल चरणा ।
नवल नवेले छव स्वर्णा ।।
कुछ हटके कूर्मोमोन्नत हैं ।
चलते फिरते तीरथ हैं ।।
चलते भूम निरखते तुम ।
उन्हें जहाँ भी रखते तुम ।।
जो आ रहे आँख मींचे ।
भक्त अमर पीछे-पीछे ।।
ले करके भींगे नयना ।
वे करते कमलन रचना ।।
ना ऐसे वैसे, सुवरण ।
सहस दल कमल वन नन्दन ।।३६।।
ऋत-ऋत के फल फूल खिले ।
पथ में शूल न धूल मिले ।।
सुभिख योजनों तक छाया ।
दिखे चार दिश् मुख माया ।।
जात वैर विसराया है ।
हिरण साथ सिंह आया है ।।
भेद रात्रि-दिन खो चाला ।
धर्म अहिंसा जयकारा ।।
दिखे धरा दर्पण जैसी ।
निध न और प्रवचन ऐसी ।।
सुर, नर, नाग करें सेवा ।
पुल प्रशंस बॉंधें देवा ।।
अंधकार हरने वाला ।।
जैसा सूरज उजियारा ।
भले विकास माथ रेखा ।
पास न तारागण देखा ।।३७।।
मूल कपोल बने झरना ।
हा ! जिनसे मद का झिरना ।।
हवा पैर सुरभी भागी ।
खबर भँवर ज्यों ही लागी ।।
आ चाले दौड़ी-दौड़ी ।
राग रँगे थोड़ी-थोड़ी ।।
आ मड़राने लागे हैं ।
कोप बढ़ाने लागे हैं ।।
ऐसा मत वाला हाथी ।
हा ! हा ! दूज काल भाँती ।।
वृक्ष उखाड़ चला आता ।
हा ! चिंघाड़ बढ़ा आता ।।
ज्यों ही दिखे भक्त थारा ।
हो छू मन्तर मद सारा ।।
सूड़ उठा उठ कर पॉंवन ।
करे जोड़ ‘कर’ अभिवादन ।।३८।।
पर्वत बढ़ उन्नत नाता ।
ऐसा गज दिग्गज माथा ।।
जोर लगा भरसक लोंचे ।
नोंकदार नाखूनों से ।।
जगमग जगमग संज्योती ।
मुट्ठी भर-भर गज मोती ।।
धरती जिसने श्रृंगारी ।
मृग कम्पित दहाड़ मारी ।।
सार्थ नाम वह पंचानन ।
खून उतार हहा ! आँखन ।
दाढ़ दिखाता है बॉंकी ।
रसना लाल लोल जाकी ।।
भर छलाँग बढ़ता आता ।
राह भक्त तुम क्या पाता ।।
तुरत ठिठक सा जाता है ।
पग उलटे लौटाता है ।।३९।।
प्रलय काल की पवमाना ।
जिसे उठाती मनमाना ।।
उचटे चट-चट चिनगारी ।
बढ़ आँखों में चुभ चाली ।।
भभक उठे अंगारे हैं ।
अलग मृत्यु के द्वारे हैं ।।
हरे भरे जंगल लागी ।
दावा नाम हहा ! आगी ।।
दिखती कोई राह नहीं ।
विश्व निगलना चाह रही ।।
दौड़-दौड़ बढ़ती आये ।
आप भक्त न भय खाये ।।
आप नाम जल लेता है ।
आँख बंद कर लेता है ।।
आगी वहीं समाती है ।
आँच भक्त ना आती है ।।४०।।
मद से भर कर आया है ।
नेत्र लाल कर लाया है ।।
कण्ठ कोकिला सा काला ।
भयद भयंकर विकराला ।।
उठा-उठा फन पटक रहा ।
उग्र क्रोध, कर प्रकट रहा ।।
हहा ! न फुंकारे बस है ।
बनता छोड़ रहा विष है ।।
पैर बिना भागा आये ।
भावन पाप रँगा आये ।।
कम ना…गिन तक्षक दूजा ।
त्राहि-माम् दिश्-दिश् गूँजा ।।
ले तुम नाम नाग-दमनी ।
भक्त उलाँघे मणी फणी ।।
नाम मात्र कब डरता है ।
पग मंजिल पर धरता है ।।४१।।
हाथी दौड़ें इधर उधर ।
दौड़ें घोड़े उधर इधर ।।
घोड़े हुंकारें भरते ।
हाथी चिंघाड़े भरते ।।
रथारूढ़ हैं ना कमती ।
पैदल सैनिक अनगिनती ।।
ऐसी चतुरंगण सेना ।
हाथ स्वप्न भी जब जै ना ।।
तब तुम भक्त अकेला ही ।
चक्रव्यूह का घेरा भी ।।
अर्जुन भाँत तोड़ निकले ।
पुण्य साथ रखता पिछले ।।
एक अकेला तिमिरारी ।
है ही निशि तम पे भारी ।।
इसमें किसको शंका है ।
बजे सत्य का डंका है ।।४२।।
बड़े नुकीले भालों से ।
तीरों से, तलवारों से ।।
तन हाथी के छिद चाले ।
तन हाथी के भिद चाले ।।
फूट पड़े फब्बारे हैं ।
खूनी हहा ! नज़ारे हैं ।।
नदी खून की बह चाली ।
बाँध कमर कर तैयारी ।।
बड़े वेग से अर जोधा ।
तर दरिया-खूॅं अविरोधा ।।
बढ़ा सामने आ चाले ।
खड़ा सामने ललकारे ।।
भक्त आपका कर सिमरन ।
जैसे ही खोले लोचन ।।
दुश्मन पीठ दिखाता है ।
कभी न आँख उठाता है ।।४३।।
जाने कितनी गहराई ।
पानी ही पानी भाई ।।
पीठ छिलें इक दूजे से ।
धस वस रहे मच्छ ऐसे ।।
धधक रही बड़बानल है ।
छुयें, जलाता तन जल है ।।
लहर-लहर नभ छू आती ।
डग-डग भँवर-भॅंवर थाती ।।
सिन्धु भयानक हा ! ऐसा ।
भॅंवर बीच जलयान फँसा ।।
क्षण भर तुम्हें सुमरते हैं ।
पल कीर्तन तुम करते हैं ।।
भक्ति पाल बन जाती है ।
हवा धकाती आती है ।।
सहजो तट दिखने लागे ।
पंख लगा के डर भागे ।।४४।।
पित्त कुपित हो चाला है ।
कफ प्रकुपित हो चाला है ।।
बात मानता वात नहीं ।
देह दे रही साथ नहीं ।।
रोग पाँत लग आ धमके ।
लहराये परचम तम के ।।
छोड़ी जीवन की आशा ।
धस जा हृदय सोच वासा ।।
धूल आप पाँवन पावन ।
लगा धार सावन आँखन ।।
साँची श्रद्धा से भरता ।
अपने सिर माथे करता ।
तन नीरोग बनाता है ।
पाँत स्वस्थ पा जाता है ।।
कामदेव सा तन पाकर ।
साधे सन्मृत्यु आखिर ।।४५।।
पाप बाँध लाये अण्टी ।
पैरों से लेकर कण्ठी ।।
प्रतिफल जकड़ी साँकल से ।
हाय ! हा ! हहा छल बल से ।।
छिली जा रहीं जंघाएँ ।
घिसट-घिसट क्या बतलाएँ ।।
ऊपर से ऐसा कारा ।
नाम मात्र न उजियारा ।।
गर्मी-ठण्ड कहर ढ़ाये ।
भूख प्यास हा ! तलफाये ।।
ऐसी जैसी भी हालत ।
नाम आपका निस्वारथ ।।
जो भी लेता है मन से ।
छूट चले झट बन्धन से ।।
खुद राजा आकर खोले ।
क्षमा क्षमा सविनय बोले ।।४६।।
जुबाँ गीत तुम क्या गाती ।
वश में हाथी उत्पाती ।।
लेना हाथ सुमरनी है ।
दिखे गुफा सिंह अपनी है ।।
आना भगवत् पाले है ।
दावानल बुझ चाले है ।।
जुड़ते ही तुमसे रिश्ता ।
विष विषधर नापे रस्ता ।।
हार जीत में बदली है ।
जयतु आद जय मुख ली है ।।
दवा नाम तुम क्या पाई ।
रोग पीठ रण दिखलाई ।।
नाम लिया बस तेरा है ।
पार लग चला बेड़ा है ।।
करते ही सुमरण थारा ।
भय कारा यम को प्यारा ।।४७।।
गुण अनंत तुम फुलवारी ।
महक उठे न्यारी प्यारी ।।
मान-तुंग मुनि भाव गुने ।
वरन-वरन के वरण चुने ।।
सुमन यही इनको गो के ।
गदगद हृदय दृग् भिंजो के ।।
सहज भक्ति धागा डाला ।
विरच चली यह जयमाला ।।
इसे कण्ठ रखने वाले ।
बन स्वर्गों के रखवाले ।।
भोग-भोग इंद्रिय सारे ।
भोग अतीन्द्रिय फिर न्यारे ।।
लगे हाथ, ले जिन दीक्षा ।
कर उत्तीर्ण दूज कक्षा ।।
‘सहज-निराकुल’ सुख पाते ।
जोड़ राधिका शिव नाते ।।४८।।
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