भक्ता-मर-स्तोत्र ५१
=दोहा=
सुनते, भव जल डूबते,
आदि लगाया-पार ।
भर जल-सागर आँख में,
मैं भी रहा पुकार ।।१।।
थुति विरची तुम इन्द्र ने,
चुन, जन-मन-हर छन्द ।
टूटी-फूटी तुम रचूॅं,
थुति मैं भी मति-मन्द ।।२।।
लाज छोड़ मति-मन्द मैं,
थुति-हित आप अधीर ।
शिशु सिवाय पकड़े भला,
कौन चन्द्रमा नीर ।।३।।
गुण तेरे गा, अन्त में,
सुर-गुरु मानी हार ।
भूखे जलचर सिन्धु वो,
कौन भुजा से पार ।।४।।
शक्ति नहीं फिर भी करूँ,
थुति तुम भक्ति वशात् ।
सिंह से जा हिरणी भिड़े,
करने शिशु निज हाथ ।।५।।
भक्ति आप मुखरी करे,
रहवासी मैं ग्राम ।
कूके कोयल, मन हरे,
वजह मंजरी आम ।।६।।
सिमरन क्या तुमरा किया,
दूर दिखे जा पाप ।
रवि देखे, अन्धर निशा,
भागे अपने आप ।।७।।
थुति होगी यह मन-हरा,
पा कर आप प्रसाद ।
कमल पत्र जल-कण पड़े,
दिपैं मोतियन भाँत ।।८।।
दूर थवन, तुम नाम भी,
करता पाप विनाश ।
दूर गगन, वन-पद्म में
भरता आप विकास ।।९।।
भक्त, नाम तुम रट लगा,
तुम समान गुणवान ।
रक्खे सेवक ही बना,
नाम धनी बस जान ।।१०।।
नैन और टिकते नहीं,
देख तुम्हें इक बार ।
पिया क्षीर जल, बुध कहाँ ?
चाहे सागर क्षार ।।११।।
आप रचे परमाणु वे,
प्रशमित राग अनूप ।
बस उतने, तुम सा तभी,
और न दूजा रूप ।।१२।।
निर्विकार तुम मुख कहाँ,
मनहर सुर, नर, नाग ।
ढ़ाक पत्र दिन चन्द्रमा,
दागदार हतभाग ।।१३।।
शश भा-से गुण आपके,
लाँघ चले तिहु लोक ।
जिन्हें शरण है आपकी,
कौन सकेगा रोक ।।१४।।
सार्थ नाम रम्भा चली,
पलटा पग, सिर टेक ।
चले प्रलय मारुत भले,
‘अचल’ मेरु अभिलेख ।।१५।।
तेल विवर्जित वर्तिका,
तले न तम, निर्धूम ।
आप दीप जगमग सदा,
वात-अगम, गत-झूम ।।१६।।
राहु ग्रास कब कर सका,
मेघ न पाया झॉंप ।
जगमग द्यु, पाताल, भू,
सूर्य अलौकिक आप ।।१७।।
झाँप न पाया घन कभी,
उदित रहे दिनरात ।
तमहर शश मुख आपका,
अगम राहु निज भॉंत ।।१८।।
नूर आप बिखरा रहे,
विचरें क्यों शश-भान ।
क्यों गरजें आ बादरा,
पक पहुॅंची घर धान ।।१९।।
सार्थ नाम केवल निरा,
ज्ञान न औरन पास ।
किरणाकुल भी काँच का,
मणि सा कहाँ प्रकाश ।।२०।।
भला और दर घूमना,
पाया साँचा धाम ।
हाय ! आप से लाभ क्या ?
भगवत् खोज विराम ।।२१।।
लाल नाम के गोद माँ,
पुन अपूर्व तुम मात ।
दिश् दिश् दीखें तारिकां,
सूरज पूरब हाथ ।।२२।।
पुरु ! तिमिरारि ! पुनीत ओ !
पुण्य-पुरुष सिरमौर ।
शिवपंथी मृत्युंजयी,
भक्त तिहार न और ।।२३।।
बुद्ध, विष्णु, ब्रह्मा, तुम्हीं,
शिव भोला भंडार ।
और गुण परक नाम से,
जजे तुम्हें संसार ।।२४।।
बुद्ध ज्ञान केवल वशी,
शंकर प्रद सुख-सात ।
पुरु पुरुषोतम सिद्ध ही,
विध शिव मार्ग विधात ।।२५।।
क्षितितल भूषण वन्दना ।
त्रिभुवन दुख हर्तार ।।
भव-दधि शोषण वन्दना,
भुवन भुवन भर्तार ।।२६।।
लख तुम गुण मुख तक भरे,
औगुण नापा पाथ ।
अर आश्रित भर गर्व से,
मुड़ न निहारा बाद ।।२७।।
तर अशोक तर आपका,
रूप सुवर्ण सुगंध ।
प्रकट निकट मनु मेघ के,
रवि तेजो छवि-वन्त ।।२८।।
मणि विचित्र सिंह-पीठ पे,
तन तुम वर्ण सुवर्ण ।
उदयाचल के श्रृंग से,
सहस रश्मि अवतर्ण ।।२९।।
तन कंचन प्रभु आपका,
ढुरें चॅंवर नव कुन्द ।
तट सुमेर तिस श्रृंग से,
झरना झिरे अमन्द ।।३०।।
छतर तीन शश छव लिये,
भान प्रताप विलीन ।
कहे जगमगा झल्लरी,
ईश्वर तुम जग तीन ।।३१।।
सुर गभीर, रव तार ले,
हित शिव संगम टेर ।
हंस राज सद्-धर्म जै,
बाजे तब जश भेर ।।३२।।
गुल नमेर, सुन्दर तथा,
पारिजात बरसात ।
धार-गंध, मनहर हवा,
झिर वच तुम लग पॉंत ।।३३।।
अद्भुत तुम तन वृत्त भा,
जित दुतिवन्त जहान ।
जोड़ भान अनगीनती,
सौमिल सोम समान ।।३४।।
पटु बखान सद्-धर्म ‘भी’,
प्रद पथ स्वर्ग पवर्ग ।
अर्थ विशद दिव धुन अहा !
परिणत भाषा सर्व ।।३५।।
नख-नख जगमग चॉंदनी,
श्रुति दुति भाँत प्रयोज ।
चरण आप रखते जहाँ,
विरचें देव सरोज ।।३६।।
रिध निध वैभव आप सा,
हाथ और के झूठ ।
कहो दिवाकर सी कहाँ,
छव नक्षत्र अनूठ ।।३७।।
अलि गुनगुन पारा चढ़ा,
झिर मद धार अटूट ।
नाम आपके जाप से,
गज तुरंत वशभूत ।।३८।।
मण-गज दी श्रृंगार भू,
नख गज कुम्भ विदार ।
नाम आपके जाप से,
करे न सिंह प्रहार ।।३९।।
प्रलय पवन बल झूमती,
ग्रास भुवन रख चाह ।
नाम आपके जाप से,
गोद भूमि ले राह ।।४०।।
स्याही कोकिल कण्ठ सा,
फण विशाल, दृग्-लाल ।
नाम आपके जाप से,
विषधर बिल तत्काल ।।४१।।
घोड़े, दौड़ें गज जहाँ,
मचा हहा उत्पात ।
नाम आपके जाप से,
लगे विजय श्री हाथ ।।४२।।
बही खून-हाथी नदी,
आतुर तरने सैन ।
नाम आपके जाप से,
छू रवि छू तम रैन ।।४३।।
आगी पानी आँधियाँ,
नैय्या बिच मॅंझधार ।
नाम आपके जाप से,
लगती ‘सहजो’ पार ।।४४।।
रोग जोग ऐसा जुड़ा,
छोड़ी जीवन आश ।
नाम आपके जाप से,
लौं पाये फिर श्वास ।।४५।।
काल कोठरी बेढ़ियाँ,
प्यास सताये भूख ।
नाम आपके जाप से,
आप आप दो टूक ।।४६।।
भीति, भँवर, सिंह, रोग, दौ,
गज, रण, बंधन, नाग ।
नाम आपके जाप से,
दिखे द्वार यम भाग ।।४७।।
विरची तुम गुण बाग से,
चुन-चुन आखर फूल ।
करे कण्ठ गुणमाल वो
मान-तुंग भव कूल ।।४८।।
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