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कहानी

कहानी -बिंही शुआ कटीं

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

“बिंही शुआ कटीं”

सहजू नाम का लड़का था
उसकी माँ सुबह-सुबह बोली
सहजू के पापा !
क्या बाजार जा रहे हो ?
बिंही ले आना
पापा ‘मूड’ में थे
कहने लगे ‘व्ही’ क्या है यह ?
मम्मी बोलतीं हैं
ठण्डी में जब खूब भूख लगती है
तो भोजन सामग्री पेट में जाकरके
अजीरण मचाती है
तब यही V फॉर विक्ट्री दिलाती है

तब पापा बोलते हैं
अच्छा ‘पेरु’
मम्मी कहती हैं
पेरु मत कहिये
पेरु तो अपनी ‘जीभ’ है

अच्छा जाम कहूँ
मम्मी बोलतीं हैं नो, नो, नो
चक्काजाम के पीछे लगता है वह तो
अच्छा अमरूद
मम्मी कहती हैं
सफेद झूठ है
अमर तो देवता भी नहीं हैं
अच्छा भागवान् बिंही ले आऊँगा

मम्मी कहती हैं
जरा सुनिये,
न सिर्फ छटीं लाना,
बिंही शुआ कटीं लाना
अच्छा तो झूठा खाना
खिलाना चाहतीं हैं हमें आप,
माँ दूसरी कक्षा जो पड़ी होती है
बोलतीं हैं मम्मी
नहीं ‘जी अनूठा खिलाना चाहती हूँ
पापा चुप हो चले
जानते थे यह दूसरी ज्ञानमति है

पापी पहुॅंचे बाजार,
कम न दुकानदार
खूब समझता था
‘के शब्द दुकान
क्या कहता है
दुका के उसने
कोई भी चीज न रक्खी थी
बिंही के ढ़ेर के ऊपर
शुआ कटी तो रक्खी थी
जो अन्दर से लाल थी
वह भी बनाकर के रक्खी थी
ऐसी वैसी नहीं कमलाकार देकर
सलीके के साथ जमाकर रक्खी थी
और चुप्पी ‘साधना’
साधना समझ कठिन जान करके
गले न लगाई थी उसने
यानि ‘कि गाल बजाने में खूब माहिर था
आम तो आम है
कुछ खास जाम लीजिये
फटे-पुराने सिक्के नोट चलेंगे
नये नये ताजे ताजे जाम लीजिये
सहजू के पापा ने जैसे ही कहा
तोता टोंची दे दो
दुकानदार ने एक लम्बी सी मुस्कान
जिसमें अपनेपन का हद से ज्यादा पुट था
चूंकि अभी तक चोरी छुपके
चढ़ानीं पड़ रहीं थीं
वो तो मेहरबानी इन जैन साहब की
वरना मैंने तो आज संकल्प ही कर लिया था
‘कि भले चिड़ीमार को पैसे दे करके
तोते पकड़‌वाने पड़े
लेकिन तोतों का इंतजाम
करना ही पड़ेगा अब तो
पापा ने पैसे पूरे दे दिये
जितने उसने मांग रक्खे थे
मम्मी ने जो कह रक्खा था
सुनो जी !
गरीबों से मोल-भाव मत किया करना
बड़ी मेहनत में पैसे होते हैं उनके,
अपन उन जैसी मेहनत करे
तो लोमड़ी के जैसे खट्टे कहके अंगूर
लंगूरों के लिये छोड़ने पड़ेंगे
जाते-जाते पापा बोलते हैं
क्यों बाबा !
क्या हर दिन यही बैठते हो
दुकानदारा बोला
हाँ बाबू जी,
पर क्यों ?
पापा बोले,
मेरी रानी साहिबा शुआ-कटी बिंही ही
पसन्द करतीं हैं
फिर क्या परमानेंट ग्राहक बनते देख
गरीबा ने ढ़रों दुआएँ जैन साहिबा के लिये
जैन साहब के साथ भेजीं

चेहरे गोरे तिल जैसीं
शुआ कटीं बिंही खरीदियेगा
मात्र जियो और जीने दो कहने से
सम्यक् दर्शन न होगा
अंग निर्विचिकित्सा पालियेगा
ओम्

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