सवाल
आचार्य भगवन् !
बेवजह अपनों के ऊपर,
गुस्सा उतारता रहता हूँ
कैसे संभलूँ ?
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
जवाब…
लाजवाब
पश्चात्
सिवाय पश्चाताप
लगने वाला के कुछ हाथ
बरसने के बाद
यानि ‘कि कोई तीर न मार लेते हम
बिन मौसम करके बरसात
किसी पर बरस के,
सिर्फ भीतर-ही-भीतर सिसकना होता है
जो कुछ थोड़ा अपना होता है
वह भी अब से सपना होता है
खुद ही कह रहा था
छिन ना,
दिन ना,
सप्ताह ना,
माह ना
और तो और वरष ना
पर हाय राम !
मैं ही रख पाया सबर निमिष ना
कीचड़ का मचना हुआ है
जब जब बरसना हुआ है
नफा न फायदा
बरसने वाले का चला दिया गाँठ का
कहकर के अलविदा
वो भी ऐसा वैसा नहीं
‘पानी’
जिसे राखने की बात कही
ज्ञान पून
बिन पानी सब शून
और होता बरसना
न ऊपर जाये बिना
सुनते हैं
ऊपर वाले बरसते
यानी ‘कि बरसने वाले जीते जी मरते
तब जाकर के कहीं थोड़ा बहुत बरसते
क्या बरसना अब बस भी करो..ना
बरस गए
अबर से थे,
न बरसे थे
क्यूँ बरस गये
हा ! यूँ बरष गये
माटी माधौ
फिर ‘के साधो
सो पश्चाताप-ताप क्या पाती
आप-आप बरफ ‘गलती’
बरसने के बाद भभका छूटता है
इसमें झूठ क्या है ?
गये बीते हम बादल से
दे इत्तिला फिर इक झला बादल बरसे
बिना इत्तिला
शर्माये ‘कि तला
नाहक बरसे
रहे रीते, हम पागल से
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः
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