महावीर स्वामी
वृहद चालीसा
‘दोहा’
शासन नायक वर्तमाँ,
हाथ अहिंसा ड़ोर ।
वर्धमान भगवान् वे,
तिन्हें नमन ‘कर’-जोड़ ।।
चौपाई
जम्बूद्वीप भरत-भू विरली ।
कौशल प्रान्त क्षत्र-पुर नगरी ।।
भव यह पिछला तीजा जानो ।
नाम वहाँ नन्दन पहचानो ।।१।।
वर्ण, स्वर्ण के जैसा दीखे ।
ग्यारह-अंग इन्होंने सीखे ।।
थे मांडलिक यहाँ पर राजा ।
बाद श्रमण भव जलधि जहाजा ।।२।।
शगुन नेक सद्गुण आभरणा ।
व्रत सिंह निष्क्रीड़ित आचरणा ।।
धन ! प्रायोपगमन सन्यासी ।
पुष्पोत्तर विमान अधिशासी ।।३।।
‘गर्भ पर्व’ छह महीने पहले ।
रत्न बरसने लगे रुपहले ।।
लिये हाथ में भेंट अनोखी ।
माँ सेविका देवि-देवों की ।।४।।
नाम सार्थ सिद्धारथ राजा ।
सुख-कर्ता, दुख जलधि जहाजा ।।
पट्टन वैशाली रजधानी ।
नाम देवि त्रिशला पटरानी ।।५।।
सपने लगे हुये से अपने ।
देखे माँ ने सोलह सपने ।।
मानो कोई बाल पुकारे ।
“जागो माँ हम आये द्वारे” ।।६।।
गर्भ शुक्ल षष्टी आसाढ़ा ।
गर्भ नक्षत्र उत्तराषाढ़ा ।।
देश विदेह स्वर्ग से आये ।
नाथ-वंश ‘कुल-दीप’ कहाये ।।७।।
चैत्र शुक्ल दिन तेरस जनमे ।
स्वर्ग उतर आया भू छिन में ।।
‘योग-अर्यमा’ जग विख्याता ।
जुड़ा राशि कन्या से नाता ।।८।।
रिख उत्तरा-फाल्गुनी नामी ।
आभा तप्त-स्वर्ण अभिरामी ।।
शचि आई, बालक को लाई ।
अवतारी भव-एक कहाई ।।९।।
हिवरा फूला नहीं समाया ।
बाल गोद सौधर्म थमाया ।।
पार रुप कब नेत्र सफीने ।
नेत्र हजार इन्द्र ने कीने ।।१०।।
ऐरावत की किस्मत जागी ।
सेवा हाथ भागवत लागी ।।
रच सुमेर अभिषेक अनोखा ।
सुर-गण पुण्य कमाया चोखा ।।११।।
पैर उखड़ते दीखे यम के ।
नृत्य किया ताण्डव फिर जमके ।।
यादगार ये दृश्य अनुठे ।
‘सिंह’ सुशोभित पाँव अँगूठे ।।१२।।
बढ़ने लगे दूज चन्दा से ।
निष्कलंक शशि पूनम भासे ।।
दर्श मात्र अपहारक-पीडा ।
सात-हाथ उत्तुंग शरीरा ।।१३।।
अन्त-बालयति तीर्थंकर में ।
बर्ष तीस जल पंकज घर में ।।
निमित्त जातिस्-मरण बनाया ।
यह संसार जान के माया ।।१४।।
बारह सभी भावना भाये ।
देव तभी लौकान्तिक आये ।।
”विरला थामे केतु-अहिंसा” ।
लगे बाँधने सेतु-प्रशंसा ।।१५।।
बिन ओढ़े दैगम्बर-बाना ।
भ्रम व्रत-मन्दिर कलश चढ़ाना ।।
देव-शास्त्र-गुरु का कहना है ।
संयम भव-मानव गहना है ।।१६।।
केवल नयन न, मन-मन भाई ।
‘चन्दर-प्रभा’ पालकी आई ।।
वीर-कुमार पधारे आ के ।
हर्षाये सुर-असुर उठा के ।।१७।।
पुर परिजन ने दूर तलक आ ।
किया विदा निज-नैन-उदक ला ।।
कुण्डल ‘पुर’-इक जाना-माना ।
नाम ‘नाथ-वन’ तप उद्याना ।।१८।।
मुँह लग वृक्ष गगन बतियाई ।
धनु ऊपर-दो, तीस उँचाई ।।
विनत खड़े राजे-महराजे ।
मूल-शाल-तरु आन विराजे ।।१९।।
‘नमो सव्व सिद्धाणं’ बोला ।
दिया उतार राजसी चोला ।।
पंच मुष्टी लुंचन अपना के ।
खड़े हो गये ध्यान लगा के ।।२०।।
दीक्षा कृष्ण मगसिरा दशमी ।
अपराह्निक छवि रवि खर रश्मी ।।
ऋक्ष उत्तरा दीक्षा न्यारा ।
अष्टम भक्त नियम उर धारा ।।२१।।
विसर पूर्व-भव-तापस शेखी ।
लगा टक-टकी नासा देखी ।।
कर अफसोश दोष-कृत पिछले ।
हरकत बिना तीन दिन निकले ।।२२।।
रखे ‘दर्श-मुनि’ हित बेशबरी ।
बहुचर्चित कुण्डल-पुर नगरी ।।
हेत पारणा आये स्वामी ।
पुण्यवान नृप-नन्दन नामी ।।२३।।
नवधा भक्ति से पड़गाया ।
गो-क्षीरान्न अहार कराया ।।
पुण्य सातिशय अबकि बोने ।
पञ्चाश्चर्य किये देवों ने ।।२४।।
बीते बर्ष-द्वादशिक श्वासा ।
गले उतार ध्यान परिभाषा ।।
बस अन्तर्मुहूर्त इक लागा ।
सुप्त चतुष्टय-अनन्त जागा ।।२५।।
सुदि दशमी वैशाखी न्यारी ।
अपराह्निक बेला सुखकारी ।।
नियम धारणा धारी बेला ।
नाम हस्त-रिख वाली बेला ।।२६।।
वन-मनहर ऋजु कूला पानी ।
शाल-वृक्ष तर केवल ज्ञानी ।।
ऊँचाई धनु मानस्तंभा ।
एक-बीस धुनि माँ-जगदम्बा ।।२७।।
कोट उँचाई यही बताई ।
चैत्य ‘वृक्ष’ सिद्धार्थ गुसाईं ।।
गिरि-तोरण भी इतने ऊँचे ।
इतने ऊँचे ध्वज नभ गूँजे ।।२८।।
वेदिस्-तूप न इससे ज्यादा ।
विस्तृत इतने ही प्रासादा ।।
कोट, वेदि सम-शरणा साँची ।
चौड़े एक-बीस-धनु वाँची ।।२९।।
गिरि-पर्वत धनु छप्पन चौड़े ।
तूप सप्त-धनु उप्पर थोड़े ।।
योजन एक प्रमाण सभा का ।
चार कोस अर-‘मान’ सभा का ।।३०।।
सिंहासन पद्मासन माड़े ।
चौषठ चँवर लिये सुर ठाड़े ।।
छतर तीन सिर-ऊपर डोलें ।
देव-दुन्दुभि मिसरी घोलें ।।३१।।
भामण्डल भव-भव दर्पण है ।
झिर लग गंधोदक बर्सण है ।।
मन्द-मन्द चाले पवमाना ।
पुष्प-वृष्टि नन्दन बागाना ।।३२।।
तर अशोक तर छटा निराली ।
ध्वनि शिव-स्वर्ग भिंटाने वाली ।।
गुण अनुरूप नाम सम शरणा ।
वैर छोड़ बैठे सिंह, हिरणा ।।३३।।
सप्त शतक अर केवल ज्ञानी ।
तीन शतक ‘धर-पूरब’ ध्यानी ।।
शिक्षक नौ हजार अर नौ-सौ ।
वादी सभी मिला ‘जुग-दो-सौ’ ।।३४।।
श्रमण विपुल शत-पञ्चक भासा ।
गणि दश एक रसिक दृग्-नासा ।।
ऋषि नौ-सौ विक्रिय अधिकारी ।
ऋषि तेरह-सौ अवधि प्रभारी ।।३५।।
गौतम नाम गणेश प्रधाना ।
‘चन्दन’ बाद आर्यिका नाना ।।
मिल गणनी छत्तीस हजारा ।
श्रेणिक श्रोतरि प्रमुख पुकारा ।।३६।।
एक लाख सुधि श्रावक शोभें ।
तीन-लाख श्राविका सुशोभें ।।
यक्ष प्रधान गुहाक सुनो जी ।
सिद्धायनि यक्षिणी चुनो जी ।।३७।।
निस्पृह सिखला आखर-ढ़ाई ।
दिन दो पहले सभा विदाई ।।
कार्तिक कृष्ण अमावस मोखा ।
पल प्रभात, रिख-स्वाति अनोखा ।।३८।।
पद्म सरोवर नगरी पावा ।
मुद्रा कायोत्सर्ग स्वभावा ।।
आखर पाँच हृश्व बतयाया ।
समय मात्र ऋज-गति शिव पाया ।।३९।।
तीन केवली जिन अनुबद्धा ।
चबालीस-सौ तीर्थ प्रसिद्धा ।।
कहूँ कहाँ तक पार न आता ।
‘सहज-निराकुल’ मौन सुहाता ।।४०।।
दोहा
स्वर्ग मोक्ष नहिं चाहिये,
सिर्फ एक अरदास ।
आप गोद में नीसरे,
मेरी अन्तिम श्वास ।।
ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
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