सवाल
आचार्य भगवन् !
सुनते हैं,
माँ श्री मन्ती और पिता मल्लप्पा जी,
अक्कीवाट में विद्यासागर महाराज की.
समाधि पर मन्नत लेके गये थे,
तब आप उनकी गोद में आये थे
शरद् पूनम के चाँद बनकर के,
क्या ऐसा भी होता है
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
जवाब…
लाजवाब
सुनिये,
भारतीय भाषाओं में
मन्नत शब्द नहीं बनता है
शब्द मन…नत तो बनता है
तो पृथु…मा…अनुयोग
पृथु…मान…जोग
प्रथमानुयोग में समकिती दृग्-धारी
अपने अभीष्ट की सिद्धी के लिए,
अपने आराध्य के समीप नत होता है
यहाँ तक की उसका मन भी नत होता है
लेकिन पहले वचन नत होता है
और इससे भी पहले तन नत होता है
और इससे अगणित पुण्य एकत्रित होता है
फिर सुत तो सहज धन अण्टस्थ सा
हाँ…हाँ…कण्ठस्थ द्वादशांग-श्रुत होता है
जो बहुत होता है
थोड़ा सा भी अद्भुत होता है
न कम दृग्-धारी
सच, नम दृग् धारी
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः
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