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जयोदय महाकाव्य

जयोदय महाकाव्य 1से5

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

जयोदय महाकाव्य
=हाईकू=

….पहला रंग….

जै-सुलोचना गाथा,
ईश ! नवा के शीष, मैं गाता ।।१।।

अच्छा कलम लिखे,
इच्छा… दिल न किसी का दुखे ।।२।।

हस्तिनापुर नरेश,
‘जय’ अनु-चर तीर्थेश ।।३।।

और कथाएँ करायें हँसी,
‘कथा-जय’ सुधा-सी ।।४।।

पूर्ण-मुराद,
‘कथा-जै’ दिखायेगी मुझे भी पाथ ।।५।।

हस्तिनापुर पले,
‘इन जै’ पाँव कछुआ तले ।।६।।

खड़ी सेवा में हाथ जोड़,
विद्याएँ चौदा बेजोड़ ।।७।।

था खड्ग नाग काला,
स्फुर्ति, कीर्ति, दो जिह्वाओं वाला ।।८।।

सखा ! जिसके तेज सरीखा,
देखा, कहीं न दीखा ।।९।।

ब्रह्मा न विष्णु, न महेश,
‘तेज जै’ जैसा विशेष ।।१०।।

कीर्ति पताका जय,
तभी तिलक भुवनत्रय ।।११।।

दृग्-शत्रु-नार,
‘अति वृष्टि’ न राज्य जय कुमार ।।१२।।

था नीतिज्ञ, भू-भर्तार, जगत-वन्द्य,
‘जय’ अनिन्द्य ।।१३।।

रीझीं उसपे, बहत्तर ही कला,
भाँति अबला ।।१४।।

कुछ काला सा ‘ना’ शशि,
लिक्खी जय-जश-प्रशस्ति ।।१५।।

की अर्द्धांगिनी, शिव… गौरी,
गौरी की, जै पृथ्वी पूरी ।।१६।।

और न दिखा,
जै जो गिना, ‘अंगुली’ सो अनामिका ।।१७।।

न दिया कभी तोल-तोल,
दिया जै ने दिल खोल ।।१८।।

भीम, अर्जुन,
नकुल, सहदेव, युधिष्ठिर जै ।।१९।।

सुन उसकी पद चाप,
थे ‘सूर’ भी जाते काँप ।।२०।।

उसकी कीर्ति,
‘स्वैर विहारणी’ थी फिर भी सती ।।२१।।

नियोग से,
भू-‘कर’ थामा उसनेे, न’ कि लोभ-से ।।२२।।

भेंटे भुक्ति भी
‘जै-चरणानुयोग’ न ‘कि मुक्ति ही ।।२३।।

जै तेज फैल आसमान,
जो बचा… सो रचा… भान ।।२४।।

पवर्ग ज्ञानी,
जय-सा कौन ‘चतुर्वर्ग’ श्रद्धानी ।।२५।।

जै बाहु देख,
सोच में पड़ा, शेष नाग-सफेद ।।२६।।

शत्रु-स्त्रियों ने भिंजाया,
‘सिन्धु’ जय-तेज सुखाया ।।२७।।

पुत्री कटार,
शत्रु आलिंगित भी, सती-कतार ।।२८।।

त्रि-‘वर्ग’ साधा,
‘हाथ-जै-पदार्थ’ नौ से कहॉं ज्यादा ।।२९।।

‘जै’ यथा नाम, तथा गुण,
‘दुश्मन’ धनी औगुण ।।३०।।

जम्बू… औ’ शम्भु, ‘सदय-हृदय’
स-विभूति जय ।।३१।।

वर्ण व्यवस्था अनुरूप,
साम्राज्य-जय अनूप ।।३२।।

रसना ‘मोर’
मिस… ‘जै-जश’ झूमे भाव-विभोरे ।।३३।।

भरे नभ, जै-जश-सागर,
रवि शशि गागर ।।३४।।

‘नव’ पाकर जै ‘करण’ संजोग,
चौ-अनुयोग ।।३५।।

सत् थे, शिव थे, सुन्दर थे,
‘जै’ ज्ञान-समुन्दर थे ।।३६।।

था जा पहुँचा ‘जै-विरद’
उलाँघ त्रिजगत्-हद ।।३७।।

था लम्बा विश्व समूचा,
‘कद-जय’ था कुछ ऊँचा ।।३८।।

थे शत्रु …. जै-से ही हूबहू, प्राणी…
न ‘कि विज्ञानी ।।३९।।

‘निधि’ कहाँ त्रि-वर्ग में,
सो… निरत जै पवर्ग में ।।४०।।

थे ‘धी’वर,
‘ना’ कौन ढ़ोरे चॅंवर, जय-‘इतर’ ।।४१।।

चूँकि ‘अजड़’ थे,
अचरज है ‘ना, जै ‘समुद’ थे ।।४२।।

थे शत्रु, जै-से ही हूबहू
नृ…वंशा न ‘कि धी-हंसा ।।४३।।

थे जै वृषभ-सभासद,
गावेगा ‘को न’ विरद ।।४४।।

आश्चर्य है ‘ना’, मीत पुरुषोत्तम जै,
न द्विज पै ।।४५।।

जै करते थे संभाल क्षमा की,
सो रीझी रमा भी ।।४६।।

पता, देख जै का रूप रंग,
काम-देव-अनंग ।।४७।।

देख के जै का पग-तल,
बगलें झाँके कँवल ।।४८।।

दे बता…
जै विद् चौ वर्ण, आती कहाँ से चंचलता ।।४९।।

और क्या ? लक्ष्मी का निलय,
हृदय-कमल-जय ।।५०।।

हुआ जै हस्त-रेखा-त्रै अवतार,
ले ‘कं-खं-भू सार’ ।।५१।।

दक्ष-दक्षिणा-दान,
‘हाथ-जै’ वृक्ष सुर विमान ।।५२।।

थी जकड़ने अरि-गला,
‘भुजा जै’ भाँत अर्गला ।।५३।।

देखा…
न बना भाँत जै-दृग् ‘पद्म’
सो कीचड़ फेका ।।५४।।

चूँकि अन्त्यज,
बने तो कैसे ‘मुख’ जै सा जलज ।।५५।।

होके भी पून,
‘इन्दु’ था रहता जै-मुख से न्यून ।।५६

भा… जय-नख पा
मणि पद्म-राग समॉं, चन्द्रमा ।।५७।।

संतुष्ट, नख-जै-पादांगुष्ठ
देख रूप, आ भूप ।।५८।।

जै रोम-राशि,
विहरने लक्ष्मी को थी बगिया-सी ।।५९।।

रक्खीं जै-गुण गिनने,
शलाका हीं, रोम न ‘कि ।।६०।।

बाल भाव जै ‘जिया’
‘शत्रु तिया’ वैधव्य दिया ।।६१।।

नासिका तोते भाँत,
‘बड़ी सुन्दर’ जै दन्त-पाँत ।।६२।।

सुन्दर श्रेष्ठ सुवर्ण,
‘जय’ कण्ठ-अधर-कर्ण ।।६३।।

कुल दीप जै-कुमार
मिस-केश, धूम ‘औतार’ ।।६४।।

जै-जश’ सुना,
लागी चाहने, उसे सुलोचना ।।६५।।

याद आता जै-कुमार,
सुनती ज्यों ही, वो जै-कार ।।६६।।

जाँ सुलोचना…
था कहना, जीना ‘जी ना जै के बिना ।।६७।।

लोकापवाद लज्जा थाती,
भिजाती न प्रेम पाती ।।६८।।

सो… कह पड़ी रो,
भगवन् ! सुलझा दो उलझन ।।६९।।

पहले से ‘जै’ ने सुलोचना गुण,
थे रक्खे सुन ।।७०।।

काम ने मिस सुलोचना,
सो, ‘जै ‘को चाहा जीतना ।।७१।।

पा सुलोचना पद्म पाश,
‘जै’ भाँत-अलि खग्रास ।।७२।।

जै चाहे उसे, पै कैसे माँगे,
माँगे तो कीर्ति भागे ।।७३।।

रंग-अनंग,
पै छोड़-ही न रहा था, जै का संग ।।७४।।

गई निवस,
‘हंसी-सुलोचना’ जै सर-मानस ।।७५।।

बताई काम ने दवाई ब्याह,
जै की सुन आह ।।७६।।

‘वैद्य-मदन’
राख हो-के भी, राख लिया जीवन ।।७७।।

समाँ बसन्त,
आ पहुॅंचे बगीचे-जै कोई सन्त ।।७८।।

ऐसा सुन…
जै का दर्शनार्थ हुआ उत्सुक मन ।।७९।।

और आसन-से उतर,
जै चल पड़ा सत्वर ।।८०।।

यहाँ बाग…. ले सुमन,
था आतिथ्य-रत-श्रमण ।।८१।।

बिन-स्त्री-मधु कुल्ला पाये,
बकुल लो मुस्कुराये ।।८२।।

‘जादू-सत्संग,
लो हुये छू, चंपक से पाप-भृंग ।।८३।।

पाप ही छोड़े ये बाग,
मानो छोड़ पुष्प-पराग ।।८४।।

बिन स्त्री पाद प्रहार,
अशोक लो पाया निखार ।।८५।।

कदम्ब फूला न समाया,
सत्संग-गुरु क्या पाया ।।८६।।

आम, न रहा ‘आम’, आज खास,
पा गुरु-प्रवास ।।८७।।

द्विज गण,
‘पी महर्षि पादोदक’ करें कीर्तन ।।८८।।

जिसे सुन खो गया जै तन-मन,
समाँ-सावन ।।८९।।

शंका आहत खिंचे डोरी,
बढ़े जै त्यों थोड़ी-थोड़ी ।।९०।।

और फिर जा पहुॅंचा वहाँ,
ऋषि-राज थे जहाँ ।।९१।।

प्रफुल्ल लता जै-मन-वाक्-काया,
ज्यों ‘दर्शन’ पाया ।।९२।।

क्या भौंरे,
आये ‘साध-पाद’ विनत पाप ही दौड़े ।।९३।।

झिरे पुष्प श्री चरण,
मुक्ति-राधा ‘शर’-नयन ।।९४।।

अगणनीय
गुरु-गुण आश्चर्य ‘ना’
‘गणनीय’ ।।९५।।

करने वाले गुण वृद्धि हाथ,
जै श्री पूज्यपाद ।।९६।।

चन्द्रार्क ‘वनवासी’
भवि कुमुद-पद्म विकासी ।।९७।।

जगत् तिलक चीन,
‘साथ’ हृदय वाक् काय तीन ।।९८।।

गुण मार्गणा-‘थान’,
आश्चर्य है ‘ना’ अभयदान ।।९९।।

ये क्या ? सराहें भाग देव-गण,
छू ऋषि चरण |।१००।।

दे प्रदक्षिणा,
‘बैठ गया जै’ हाथ श्री फल बना ।।१०१।।

पा सूर शिर-मौर
निशि-नूर कृष्ण से गौर ।।१०२।।

मुस्कान गुरु इन्दु पा,
जै आनन्द सिन्धु उमड़ा ।।१०३।।

‘जै बोला’ तुम्हें दृग्-धर,
बचा सिन्धु भौ चुल्लु-भर ।।१०४।।

मन कुटीर बिखरे खुश्बू,
आप पाँव धूल छू ।।१०५।।

जा दूर मिथ्या-तम दिखा,
पा आप पाँव चन्द्रिका ।।१०६।।

पा आज नेत्र धन-धन !
दुर्लभ आप दर्शन ।।१०७।।

न रहा दर्द का अता-पता,
‘कि माँ ने फूँका ही था ।।१०८।।

निरत परि-ग्रह,
‘मैं कहाँ आप’ गत गिरह ।।१०९।।

आर्य प्रवर,
लगा लीजिये मुझे ‘भी’ मार्ग पर ।।११०।।

हम ग्रहस्थों के कर्त्तव्य क्या-क्या ?
दो बता कृपया ।।१११।।

निराकुलता न घर में
जाने क्यूँ पूछूॅं फिर मैं ।।११२।।

वशी-भागन जै भान,
बोले पद्म वे ले मुस्कान ।।११३।।

पूर्ण मुराद मृदु कली सुमन
समय बाद ।।११४।।

फिर हित जै, वे अन्तर्मना
देने लगे देशना ।।११५।।

….दूसरा रंग….

‘नुति निर्ग्रन्थ्र,
अथ प्रारम्भ… ग्रही-संहिता ग्रन्थ ।।१।।

लाखन महत्-जन,
‘अप्राप्त प्राप्ति, प्राप्त रक्षण’ ।।२।।

व्यौहार-भूसी बिना,
कहाँ ‘निश्चय’ धान्य उगना ।।३।।

दवा-‘चरण’ छुआ,
‘कि दुख-दाद रोग छू हुआ ।।४।।

सो… व्यौहार भू बो बीज,
पाले ‘निश्चै’ चीज अजीज ।।५।।

नीति’
‘व्यौहार’ सापेक्ष निश्चय
‘रे-जै ! आर्ष रीति ।।६।।

प्रमान्य, नीति भी वही पुरानी,
न’ कि मन-मानी ।।७।।

‘कुल’ मिला के मर्यादिता ऽऽचरण,
सदाचरण ।।८।।

स्वप्न में भी न सेवते ‘काग-चाल’
मति- मराल ।।९।।

‘भुक्ति-मुक्ति में’ धर्म भूमिका,
काक दृग्-कनीनिका ।।१०।।

व्यौहार काम…’गो’ बने तभी,
अन्न हो, हो घास भी ।।११।।

पाषाण… मणि-समान,
होते कुछ व्रति-सुजान ।।१२।।

बाला
पाक्षिक-श्रावक,
दार्शनिक प्रौढ़ निराला ।।१३।।

तपा…लो बना घी, ‘क्षीर’,
पल-पल क्षीण शरीर ।।१४।।

सत्… नाम-अर्हत् शुद्ध,
पे मंगलार्थ लोक-विरुद्ध ।।१५।।

‘चरस-कूप’
असह्य पादत्राण,
शक्यानुष्ठान ।।१६।।

ओ…सुधी ।।
रोग-रोग…न उपयोग
एक औषधी ।।१७।।

पा वचनों में विरुद्धपना,
साधो ! हित अपना ।।१८।।

वैसे विरुद्ध-
‘धर्म’-अर्थ-‘काम’ पै लें बना बुद्ध ।।१९।।

धर्मेक… रेख रक्खे खींच,
मानव-दानव बीच ।।२०।।

आ…आदर्श क्या फना,
पीछे-‘ई’
अर्थ सो ‘अर्थी ‘ बना ।।२१।।

भौ-ताप
‘साध’ मोक्ष-पुरुषार्थ छू-मन्तर पाप ।।२२।।

दिश् विदिश् गूँजा,
‘सार्थ’ वाक्य न दूजा, ‘देवन-पूजा’ ।।२३।।

वही ‘कि ‘देव’
नव-कोटि कभी, जो कहते नहीं ।।२४।।

लाग लपेट बिना ‘दे… बता’
पता-सो अन्तर्मना ।।२५।।

तुष्ट न रुष्ट,
परम इष्ट ‘दे वा’ न देवा सेवा ।।२६।।

शरण इक हैं,
‘अरिहन्त देव’ मांगलिक हैं ।।२७।।

मेंटे मरज-जन्म-मरण,
श्री जी रज चरण ।।२८।।

पूजा विधि ‘ना…ना’ साँच,
नटी ‘सूत्र’ पे रही नाँच ।।२९।।

‘दे-बता’ प्रति…माँ
देवता प्रतिमा बड़ी महिमा ।।३०।।

समीर… थान-नीर,
ज्यों ‘हरे-पीर’ त्यों मूर्ति-वीर ।।३१।।

विफल फणी,
मंत्र-जल… ‘महिमा’ प्रतिमा बड़ी ।।३२।।

कहाता नदी का,
वर्षा का पानी, त्यों पूजा कहानी ।।३३।।

मंग-उमंग लाना
‘मंगल’ ‘मम’ अहम् गलाना ।।३४।।

लेते ही नाम अरहत,
बनते काम तुरत ।।३५।।

जप-भगवान्,
सीझे ‘अन’ किसान आतप-भान ।।३६।।

रटन ‘तीर’
काका ! ‘विघन हन’ रटन-वीर ।।३७।।

‘दिन-परब’ पूजा-जिनेश,
मेंटे पाप अशेष ।।३८।।

कुल मिला के, ‘कुल देवा’
रखना ध्यान सदेवा ।।३९।।

पछतावा ‘कि ‘लगे हाथ’,
मान लो बड़ों की बात ।।४०।।

शस्त्र शाण पे चढ़ा,
‘काम का’ शास्त्र ध्यान से पढ़ा ।।४१।।

‘सूर’ सुदूर क्षत-विक्षत,
ग्रन्थ कर्ताभिमत ।।४२।।

‘संहिता-पोथी’
सांगोपांग वर्णन ‘सहित’ होती ।।४३।।

वा सूक्त-पोथी
‘विषय अप्रशस्त’ विमुक्त होती ।।४४।।

‘चुनें सुमन’
न्यार श्रावकाचार का पारायण ।।४५।।

‘चारित्र ग्रन्थ’ आईना,
देखें आ…मुख अपना ।।४६।।

साँची क्या झूठी,
सुधी ! ‘धी-करणानुयोग’ कसौटी ।।४७।।

‘धी चरणानु-योग’,
‘मणि काञ्चन’ दिव्य-संजोग ।।४८।।

भौ सुधारती,
‘धी द्रव्यानुयोग’ शिव-सारथी ।।४९।।

लगे मेंटने में भव-रोग
सब ही अनुयोग ।।५०।।

न अति शंका ‘भली’
न गति अंध-विश्वास गली ।।५१।।

बनें साधिये,
शब्द-शास्त्र भी अर्थ-शुद्धि के लिये ।।५२।।

छन्द शास्त्र लो रीझा,
‘चित् चोर’ वाक्य ‘नौ’-रस भींजा ।।५३।।

कहने मन की बात,
काव्य-कला कीजिये हाथ ।।५४।।

सुधी ! सम्पूर्ण वाङ्मय,
इस-विधी करते ‘जय’ ।।५५।।

मेंटने तन-मन खेद,
सीखते आ…आयुर्वेद ।।५६।।

धी ‘काम-धाम’ भी लो दौड़ा,
उछले-कूॅंदे भी घोड़ा ।।५७।।

साथ निगम-निमित्त,
असंभव, संभव मित्र ।।५८।।

अर्थ-शास्त्र भी जरूरी,
निर्धनता मृत्यु ही दूजी ।।५९।।

सँभारी कला, गीत संगीत,
सारी दुनिया मीत ।।६०।।

वास्तु शास्त्र ‘भी’ साधा,
‘करेगी घर’ क्यों-कर बाधा ।।६१।।

दुःश्रुति योग
‘भो-जन’ धिक, न धिक् भस्मक रोग ।।६२।।

दुःश्रुति
पाद-अंग ‘द्वादश-‘अंग’-माथ संस्कृति ।।६३।।

चुन सुमन,
गेय, हेयोपादेय जिन-वयन ।।६४।।

दोनों-लोक दें दुख में झोंक,
शस्त्र, न ‘कि वे शास्त्र ।।६५।।

वैसा सागर न मोती,
गुरु-कृपा जिसपे होती ।।६६।।

‘काम तमाम’ काम,
दैगम्बर-स्वाम प्रणाम ।।६७।।

‘सिद्ध-बुजुर्ग सेव’,
‘कि रिद्ध-सिद्ध ‘समृद्ध’ जेब ।।६८।।

‘कूबत बिना’ अच्छा न क्रोध,
टालें राज्य विरोध ।।६९।।

‘साध’ वैशाखी,
‘सपना-दीवाली’ न अपनी राखी ।।७०।।

बनाये बिना, जीव-मात्र अपना,
सुख सपना ।।७१।।

तन-मन की शुद्धि,
छुई ‘कि हुई धन की वृद्धि ।।७२।।

लगा के कान सुन,
खुदबखुद कहता ‘गुन’ ।।७३।।

भाई ! सुनिये,
कम से कम सदा-चारी ‘बनिये’ ।।७४।।

जल अनल,
‘राख’ विशुद्धि ‘गोमै’ काल अनिल ।।७५।।

माँजें बर्तन,
‘राख’ न दे लगने धान्य में घुन ।।७६।।

गोमय गुणी अनन्त,
करें शुद्धि इससे सन्त ।।७७।।

काल अशुद्धि ‘दे…खो’
मटमैला-सा, पानी न फेंको ।।७८।।

जल अशुद्धि ‘दे.. खो’
धो लो गन्दला वस्त्र न फेंको ।।७९।।

हो शुद्धताई
अग्नि से ही तो सोना जगमगाई ।।८०।।

कुछ वस्तुएँ निर्घृण होती,
जैसे कस्तूरी, मोती ।।८१।।

आ बैठ चलें पाहन,
वात ख्यात शुद्धि-करण ।।८२।।

न रक्खा ‘कि सु-भाव,
तो आ रखता पाँव तनाव ।।८३।।

बस इतना सार,
‘माँ द्वादशांग ऽमा’ यत्नाचार ।।८४।।

बिखरा मिथ्या-तम,
आँखें ‘भी’तर परमागम ।।८५।।

न मिली मुफ्त में पवित्रता,
‘गो’ मैं’ करना पड़ा ।।८६।।

दोई लोक न कोई सधता,
वह लोक मूढ़ता ।।८७।।

हिंसा जिनकी माँ
जिन-अनुयाई करें तिन्हें…ना ।।८८।।

‘लाख रुपये की बात’
छड़ी जादू बुजुर्ग हाथ ।।८९।।

भला शक्तिशः दान,
‘राख’ भावना लोक कल्याण ।।९०।।

भोजन, जुबां,
राखो ‘कि देता-जाये’ अतिथि दुआ ।।९१।।

सींचते ‘क्षमा’ छुये आसमाँ,
दान, वृक्ष समान ।।९२।।

फैले दान से यश,
प्यारा न किसे जान से यश ।।९३।।

शिविका-भुक्ति-मुक्ति,
आहार साथ नवधा-भक्ति ।।९४।।

न सकोचिजो हाथ,
द्वारे पधारे कोई भी पात्र ।।९५।।

अपनों का भी राखिजो ध्यान,
दीप ही तो रात्रि का भान ।।९६।।

उन्हें सहज सम्मान दें,
त्रिवर्ग जिनसे सधें ।।९७।।

दान जानता जादू,
कष्ट देखते ही देखते छू ।।९८।।

कीजो सभी की मदद,
भिजाये दिश्-विदिश् विरद ।।९९।।

क्या देना ?
दूर-दूर आखर पढ़े, दे… बता ‘दा…न’ ।।१००।।

लग ‘मा…रग चालें,
‘बनता दान’ उन्हें दे डालें ।।१०१।।

क्या दें ?
तो हो जो उपयोगी, वो सभी,
न ‘कि रोगी ‘घी’ ।।१०२।।

‘सुमन’ हाथ,
महकते रहते दान के बाद ।।१०३।।

बिना व्यापार, परोपकार नाम,
सुकूने-शाम ।।१०४।।

देव पूजा,
है कर्तव्य सद्गृहस्थों का दान दूजा ।।१०५।।

खुदबखुद कह रहा है
मुझ ‘शा… का… आहार’ ।।१०६।।

चले न मोक्ष-मार्ग में दौड़ें,
‘जै…न’ जूठन छोड़ें ।।१०७।।

साधो सात्विक-‘भोजन’
तामसिक ‘ना’ पाशविक ।।१०८।।

कोई भी चुनो,
‘पुरुष-अर्थ’ ऐसा वैसा न सुनो ।।१०९।।

हाय ! संस्कार न आय ‘मो-कर’
‘शू-दर’ ऽऽसू-धर ।।११०।।

‘छतरी’
वर्षा कहर न बिगाड़ सका कुछ ‘री ।।१११।।

ब्रह्म-रमण
अपहर भ्रमण-जन्म-मरण ।।११२।।

दीक्षार्थ करें शीघ्रता अति
‘वैश्य’ रक्षार्थ सति ।।११३।।

चल सम-धी पन्थ,
‘बनिये’ कल समाधी वन्त ।।११४।।

आश्रम ब्रह्म-चर्य, सा-ऽऽवास,
वान प्रस्थ, सन्यास ।।११५।।

उपनियम जबां
सम्सामयिक समस्या हवा ।।११६।।

गिरते बाल,
बनती कोशिश लें वृद्ध संभाल ।।११७।।

‘झाँक बगलें’ जीना भी क्या जीना
अ…नीति अच्छी ना ।।११८।।

अपना…
‘साम-दाम-दण्ड भेद’ लो साध सपना ।।११९।।

सँभाल पाने भाव,
‘मन-के’ फेरो अर्हन नाव ।।१२०।।

सुधी !
‘कहते ‘भोग’ साँप के फन को भी,
सो जानवी ।।१२१।।

होती न भली,
‘अति’ करने वाली मति पगली ।।१२२।।

वैसे झूठे,
माँ, दादी, नानी, टोटके बड़े अनूठे ।।१२३।।

शनि भी ठीक था, वि-विशेष शनी
‘व्यसनी’ सुनी ।।१२४।।

महाभारत मचा,
खेल था लगा शरत रचा ।।१२५।।

‘मां-मत’ आवो पास,
स… साधो ! सुनो, कहता मांस ।।१२६।।

नाश… नजर-बंधी-ए-शैतान,
न ‘कि न…शा, शा…न ।।१२७।।

द…देने वाला
शह-मात
शहद छोड़ो भी भ्रात ।।१२८।।

प…’राई’ नार,
क्या बना काम ओ ! ‘आप’ कामगो ।।१२९।।

बनता लेती ‘पण्य’-स्त्री,
‘रे बनता देती ‘पुण्य’-स्त्री ।।१३०।।

न कौन-कौन तोड़,
‘पात’ ले जोड़… न कोन-कोन ।।१३१।।

पराया धन
‘चुराना’ अपना ही चेन अमन ।।१३२।।

बिछुड़ी बेड़ी,
बन्धन, सदाचार बिन कंगन ।।१३३।।

अंधेरा दिया तले,
आर्या-आचार-आर्य विरले ।।१३४।।

अतः तू…बन के वायु,
दिश्-विदिश् दे भिजा ये खुश्बू ।।१३५।।

कर नमन,
और चल पड़ा जै तर नयन ।।१३६।।

जगत् के बारे में सोचता,
तभी ये क्या ‘जै’ देखता ।।१३७।।

एक सर्पिणी,
थी रिझा रही, दूजी जाति का फणी ।।१३८।।

जय ने मारा प्रसून,
लोग प्यासे खून, ‘ना…गिनी’ ।।१३९।।

जा बनीं ‘सुर-तिया’
और जै-प्रति भड़का दिया ।।१४०।।

देव आया,
‘जै-से’ सुन रहीं रानी, यही कहानी ।।१४१।।

सचाई जान,
हुआ देव को ‘तिया-चरित’ भान ।।१४२।।

दोषाकर से न्यार,
झूठ बोलने से ‘मुख’-नार ।।१४३।।

‘अव’…गुण, ला…लाती है,
सो अबला कहलाती है ।।१४४।।

स्वभाव से ही रीत,
नाम जो ‘वाम’ सो विपरीत ।।१४५।।

तिया सुन्दर मुखिया,
पै अन्दर पत्थर जिया ।।१४६।।

सार्थ नाम ‘औ…रत’
हाय ! जमा…ना, साधे स्वारथ ।।१४७।।

ऐसा ‘न…अरि’
अर्थ सन्धि तोड़ते ही अवतरी ।।१४८।।

कहती थी हो तुम्हीं खास,
हाय ! खो चली विश्वास ।।१४९।।

ये भोला-भाला पन,
सच में भाले सी दे चुभन ।।१५०।।

ये मन्द-मन्द मुस्कुराहट,
विघ्नों की सी आहट ।।१५१।।

‘रे करे गर्त-रचना,
ले बहाना भू-खुरचना ।।१५२।।

कुल मिला के,
मानो, शैतान निष्फिकर इन्हें बना के ।।१५३।।

बिगाड़ देती काम बनता,
मुधा मुग्धा बनिता ।।१५४।।

यूँ धिक्कारता तिया को,
ले आज्ञा ‘जै से’,
आ गया वो ।।१५५।।

….तीसरा रंग….

न उठाता था जै गलत कदम कभी,
था सुधी ।।१।।

तन से, मन से,
न दिल दुखाता था वचन से ।।२।।

कर प्रथम देव पूजा,
करता था काम दूजा ।।३।।

करने से सत्-संग,
था ‘कला-धर’ नखत संग ।।४।।

प्रतिनिधि था सच्चाई का,
विरोधी था बुराई का ।।५।।

हितु अपनों का,
था शत्रु मायावी-पापी जनों का ।।६।।

राही अहिंसा,
विवेकी नीर-क्षीर दूजा ही हंसा ।।७।।

मुदा… जड़ता, जुदा,
‘जै परिषद’…समाँ शरद ।।८।।

सुमन… लता पुन,
‘जै परिषद’… शुभ शगुन ।।९।।

विषद जिन वाण,
‘जै-परिषद’…सरित् समान ।।१०।।

सालंकार
‘जै परिषद’… कविता-कामिनी-न्यार ।।११।।

निर्णय… सभा जय, काम समान
चूॅंकि स्मृतिवान् ।।१२।।

विलसते पा सूरज,
सभासद जै, ज्यों नीरज ।।१३।।

सुदर्शिन…जै गुप्तचर,
मंत्रिन… विषाद-हन ।।१४।।

न पक्ष पाती, शशि सा,
माहौल जै सभा खुद-सा ।।१५।।

वैद,
सुश्रुत-चरक वाग्भट्टादि ज्ञान समेत ।।१६।।

थे बुनते जै कीरत-वस्त्र-भाट,
जुलाहे भाँत ।।१७।।

देशना जिन रवि,
कवि, कल्पना सी, सभा-जै थी ।।१८।।

विराजमान….
सभा-मध्य जै साथ मन्द मुस्कान ।।१९।।

त्रिवर्ग विद्
ऽपवर्ग पण्डित ! नतवर्ग मण्डित ।।२०।।

तभी, आ एक अजनबी,
कहता स्वाम ! प्रणाम ।।२१।।

तब बैठाया,
दृग् ‘जै’ जिह्वा ने उसे रस पिलाया ।।२२।।

भो ! आप नाम कामगो,
धारे किन वर्णों को, कहो ।।२३।।

श्री वंश !
‘सर’ किस पधारे, कर विहीन हंस ।।२४।।

क्यूँ आप कली-पगतली,
छुये ये वज्र देहरी ।।२५।।

यात्रा गुजरी तो कष्ट बिना,
वैसे आप पुण्यवाँ ।।२६।।

और कुशल भी,
‘शत्रु-अगम्य-भू’ छू सके तभी ।।२७।।

दिखा ‘सु…वर्ण पद’ इस तरह,
चुप जिह्वा जै ।।२८।।

जै-मिश्री-वाणी चखी,
दूत ने बात अपनी रखी ।।२९।।

सुखी प्रजा सगरी,
राजा श्रीधर काशी नगरी ।।२८।।

आया विनय समेत,
मैं उनके कारज हेत ।।२९।।

हुये धन्य ये नयन,
पा आपका पुण्य-दर्शन ।।३०।।

आप लोगों का होता नाम,
घर ‘न’ हमारा ग्राम ।।३१।।

और कुशल ?
कुश भेंटे ही गये थे, आते पल ।।३२।।

कारण आने का बताया,
लाया वो पत्र थमाया ।।३३।।

अतिथि बोल,
लागे जै को अमृत से भी अमोल ।।३४।।

है सुलोचना नाम की,
पुत्री मेरे उन स्वाम की ।।३५।।

फीकी चांदनी,
सामने जिसके न नीकी रागिनी ।।३६।।

समाँ शगुन,
‘वह’ समाये नेक अनेक गुण ।।३७।।

और तो छोड़ो,
जो अंग रसना, वो भी रस सना ।।३८।।

चन्द्र कला ही दूजी,
लिये षोडस-गुण-चौ पूजी ।।३९।।

सभा कोकिल वैन,
कहाँ उससे चंचल नैन ।।४०।।

सुना होगा न कभी देखा,
सौन्दर्य ऐसा अनोखा ।।४१।।

पल्लव जन्मा,
ले उसकी ही पग… लव सुषमा ।।४२।।

ऐसे नख,
न, ख-यानि आकाश भी, बिलाशक ।।४३।।

देख देवता भी उसे,
पल रह जाते ठगे से ।।४४।।

रम्भा दूसरी, मेनका तिलोत्तमा,
वही उर्वशी ।।४५।।

सुन्दरता की साक्षात् मूरत,
खूब खूबसूरत ।।४६।।

रंग भर, दी कूची तोड़,
तभी न उस-सा और ।।४७।।

रच उसके हाथ,
रचा शेषांश से जलजात ।।४८।।

बिखेरे चाँद कान्ति अटूट,
यहीं से लूट-लूट ।।४९।।

उसके होंठ क्या देखें,
फल-बिम्ब घुटने टेकें ।।५०।।

फूल सी हँसी,
उसकी धनुष सी भोंहें रूपसी ।।५१।।

लगे नजर न लगाया दिठौना,
रूप सलौना ।।५२।।

भाँत सर्पिनी,
बुरी-दृष्टि वालों को उसकी वेणी ।।५३।।

हित…दा पति-पिता,
मिले पुण्य से ऐसी ‘दुहिता’ ।।५४।।

मुख-अंधेरा करती काला,
चारु यूँ दन्त माला ।।५५।।

गोल कपोल,
‘सम्मत-सामुद्रिक शास्त्र’ सुड़ौल ।।५६।।

दूजी न मूर्ति सोने की,
ली तलाशी कोने-कोने की ।।५७।।

बड़ी सलोनी सी,
मियाँ अंगुलिंयाँ लम्बी पैनी सी ।।५८।।

नेक’ लक्षण संयुत,
कुल मिला कर अद्भुत ।।५९।।

विधाता रचे हाथ पाँवन जोड़,
वैसे बेजोड़ ।।६०।।

हैं सु-लोचना,
पै उसका तो नाम ही सुलोचना ।।६१।।

‘बाजिब ही’ जो चाहें सभी,
वो है ही चाँद चौदवीं ।।६२।।

पावे वृक्ष, वो सुलोचना लता,
सो चिन्तित पिता ।।६३।।

‘वृद्ध सलाह’
अच्छी स्वयंवर से न और राह ।।६४।।

रचा मण्डप स्वयं-वर ‘दे-वता’
स्वयं आकर ।।६५।।

लाजमी,
वैसा स्वयंवर मण्डप न होना जमीं ।।६६।।

देवों ने बीड़ा उठाया,
पड़े नहीं ‘कि काली छाया ।।६७।।

वास्तु निधान,
स्वयंवर मण्डप, आप समान ।।६८।।

मनहारी है,
स्वयंवर मण्डप मणि-धारी हैं ।।६९।।

चार, मण्डप द्वार,
कोने कोने, है बड़े सलोने ।।७०।।

कहती पता…का ? राज
सिरी यहाँ रही विराज ।।७१।।

मुकुर वाला,
मण्डप उप-वन मुकुल वाला ।।७२।।

मण्डप राज वंश,
‘सेवित’ सर-मानस हंस ।।७३।।

देखा ‘कि जिया बाग-बाग,
‘रे भाई है ही बेदाग ।।७४।।

निराली, अच्छी खासी…
नगरी काशी, वैभवशाली ।।७५।।

स्वर्ग धरा सी,
सुधा-धारा लसी, वो नगरी काशी ।।७६।।

दूसरे ही चित्-चोर,
नगरी काशी के घर-दोर ।।७७।।

मनभावन भवन,
कहे कुछ कान गगन ।।७८।।

फिर ध्वजा का क्या कहना,
आपे में रहे ‘वह ना’ ।।७९।।

मनोनुकूल,
गली-चौपाथ, स्नात सुगंधी फूल ।।८०।।

निरी नगरी काशी,
आशी सुभाषी, सुलोचना सी ।।८१।।

जाने वो किसे वर ले ?
‘न सोच यूॅं’ चलें पहले ।।८२।।

आया ही देख,
मैं यहाँ आते-आते शगुन नेक ।।८३।।

और विधाता
सोच समझ के ही जोड़े बनाता ।।८४।।

काम अनंग जो था,
उसे अदृश्य रति से जोड़ा ।।८५।।

‘और शगुन’,
सो देख सुलोचना को आया सुन ।।८६।।

फिर भी रूठे जो दैव,
तो रहेगा खेद सदैव ।।८७।।

हमार नूर,
देखने ही सही, पै आये जरूर ।।८८।।

वाग् बर्षा भिंगो सभा कोन-कोन,
लो दूत वो मौन ।।८९।।

छुआ पुल्कन,
जै अंग-अंग, सुन सभी प्रसंग ।।९०।।

‘सदृश-हार’
सुन उसे दिया जै ने उपहार ।।९१।।

कथा ने जिया जो छुआ,
जै चलने आतुर हुआ ।।९२।।

वह सत् देेह-धारक,
निवारक-सन्देह जय ।।९३।।

करता सिर पे धारण,
मुकुट राज-लाञ्छन ।।९४।।

भगवन् ज्योत जगाई,
और लीनी जै ने बिदाई ।।९५।।

पुरोहित से करवाया तिलक,
छूने फलक ।।९६।।

कवच पादत्राण पहिना,
पुष्पों से रण है ना ।।९७।।

देखने मुख जै आईने,
चन्द्रार्क कुण्ड़ल बने ।।९८।।

सूर ले लिये जै ने,
ले चाले सूर्य जैसे किरणें ।।९९।।

ढुरें चॅंवर,
साथ ही साथ, पुष्पों की बरसात ।।१००।।

हार वक्ष पे वैसे,
सुशोभे गंगा मेरु पे जैसे ।।१०१।।

तब देखते ही बनती थी पता ?
जै सुन्दरता ।।१०२।।

‘आह्लाद’ शुभ शगुन,
सो चला वो प्रसन्न मन ।।१०३।।

गली-गली, पा दीपाली,
पार कर, द्वार नगर ।।१०४।।

पीछे, लो पीछे छोड़ा नगर,
देखा न मुड़कर ।।१०५।।

लो काशी आ ही गई पास में,
आई श्वास-श्वास में ।।१०६।।

पीड़ित खुरा ऽऽघात भू,
सहलाने लगे घोड़े छू ।।१०७।।

उड़ती धूल सुन नगाड़े,
मोर थे मतवाले ।।१०८।।

आई स्वर्गगा प्रक्षालती भू,
भाई ध्वज पंक्ति यूँ ।।१०९।।

हुआ छू सिर का भार,
लो हुई क्या वन-भू पार ।।११०।।

श्रेय घोड़ों को दिया,
पुरी-काशी जो शीघ्र पा लिया ।।१११।।

वैसे मार्ग भू नीकी,
पे सुलोचना के आगे फीकी ।।११२।।

कराने द्वार-प्रवेश,
आये स्वयं काशी नरेश ।।११३।।

….चौथा रंग….

काशी राजा श्री धर,
आगवानी में व्यस्त इधर ।।१।।

इधर…
चक्री पुत्र पाया पत्र न कोई खबर ।।२।।

आ तभी,
काशी स्वयंवर की किसी ने खबर दी ।।३।।

देवता जाते वहाँ,
दें बता आप भी जा रहे क्या ।।४।।

जाना बुलाये बिना न बने,
कहा अर्ककीर्ति ने ।।५।।

तभी कहता कोई,
सुलोचना-सी न जहाँ दोई ।।६।।

निरी परी है,
सुलोचना में भरी जादूगरी है ।।७।।

गुमाँ शंख ‘दे…खो’
कण्ठ सुलोचना का देखना तो ।।८।।

ओ ! सुलोचना जो मुस्कुराती,
चन्द्र-लेखा शर्माती ।।९।।

बिन काजर कजरारी,
अँखिंयाँ सुलोचना ‘री ।।१०।।

चाँद टुकड़ा,
मुखड़ा सुलोचना सुन्दर बड़ा ।।११।।

भाँत कोकिल मधुर,
सुलोचना गले का सुर ।।१२।।

उसे भूल से बनाया,
तभी वैसा न और पाया ।।१३।।

फिर क्या था,
न किसका ‘जी’ आ दूज चाँद पे जाता ।।१४।।

चलने मित्र-सभी तैयार,
कर साज श्रृंगार ।।१५।।

झपकते ही निगाहें,
नापीं छोड़ों ने लम्बी राहें ।।१६।।

चक्री पुत्र को आया देख,
पहुॅंचा राजा ले भेंट ।।१७।।

स्वामिन् आप पधारे,
सौ-भाग अहो-भाग हमारे ।।१८।।

है बिटिया का ब्याह,
रखते हम आशीष चाह ।।१९।।

राजन् वाक् फूल,
पै लगे अर्ककीर्ति मित्रों को शूल ।।२०।।

वे टूट पड़े,
राजन् चित्र-लिखित से रहे खड़े ।।२१।।

भगवन् ! आप हो योग्य मंत्रण,
न ‘कि नियंत्रण ।।२२।।

पत्र-कुंकुम क्या ?
आप छाँव खड़े स्वामी स्वयं का ।।२३।।

सुन मंत्री सु-मत,
अर्क कीर्ति का काफूर मद ।।२४।।

राजन् उन्हें,
ले गये राज भवन में ठहरने ।।२५।।

लगे न चक्री-पुत्र मन,
यदपि सभी साधन ।।२६।।

ले सुलोचना वर ना ऽवर,
खाये जाये फिकर ।।२७।।

बोला मन,
क्यूॅं न कर लूँ उसका अपहरण ।।२८।।

आई भी’तर आवाज,
जांबाज़ ! जाँ से प्यारी लाज ।।२९।।

संभाली मित्रों ने कमान,
बात मन की जान ।।३०।।

क्यों न दें माला बिखरा,
होगा खेल ही किरकिरा ।।३१।।

सो सुलोचना SSनुकूल,
डाल दो ना मोहन-धूल ।।३२।।

कहता मित्र एक,
ठहरिये, मैं ही लेता देख ।।३३।।

रख विश्वास,
लो चला सुलोचना कंचुकी पास ।।३४।।

और लगाने लगा मक्खन,
बोला… हे ! विचक्षण ।।३५।।

न एक, राजन् आ रहे नेक
आप रहे ही देख ।।३६।।

‘जी नादाँ,
अभी सुलोचना, रक्खे ही कहाँ धी ज्यादा ।।३७।।

सुयोग्य वर चुन भी पायेगी,
या ठगी जायेगी ।।३८।।

अच्छा है, तोल ‘पुन’ लें,
राजन् ‘स्वयं…वर’ चुन लें ।।३९।।

बोला कुंचुकी,
बात छीनी, आपने मेरे मन की ।।४०।।

और ये बात,
बना सकता मेरा बाँया भी हाथ ।।४१।।

मित्र ने कहा,
तो कहें कौन वर-सुयोग्य यहाँ ।।४२।।

‘अर्क’ कीर्ति सा सूर,
कंचुकी बोला, न दूर-दूर ।।४३।।

मित्र फूला न समाया,
अमृत ये कान क्या पाया ।।४४।।

निकला मुख से,
‘सुन्दर भी तो न और उससे’ ।।४५।।

बाद ‘जी’ बाग-बाग,
लौट आया वो भाग-भाग ।।४६।।

बोला कंचुकी मन ही मन,
हैं ये कैसे ‘सुमन’ ।।४७।।

‘कोई किसी के क्या वश में’
छोड़ो क्या करना हमें ।।४८।।

जाना अपनों से हार,
है यही तो लोक-व्यौहार ।।४९।।

मित्रों से मिल,
बोला मित्र, न दूर अब मंजिल ।।५०।।

और दी बता, बात सारी,
सभी ने मिल दी ताली ।।५१।।

आ चली शरद् ऋतु वह,
देखने उत्सव यह ।।५२।।

स्वच्छ आसमाँ,
वस्त्र जिसका वक्त्र, पूर्ण चन्द्रमा ।।५३।।

पद्म पांखुड़ी पगतलिंयाँ,
न्यारे-तारे अँखिंयाँ ।।५४।।

पके बाल हैं,
वृद्धा स्त्री शरद् ऋतु पकी है बालें ।।५५।।

जड़ज दे ज्ञॉं,
भली स्त्री शरद् ऋतु जलज दे जाँ ।।५६।।

सर कमल हंस शरद्,
आकाश शशि नखत ।।५७।।

चन्द्रमा कान्ति ताज,
पाये पा शरद् रात्रि साम्राज ।।५८।।

जल्द ही थके भान, ‘जले जो’
शरद् में देख धान ।।५९।।

जलज बन्धु रंगे षट्-राशि रंग,
हा ! दुष्ट संग ।।६०।।

आहा ! शरद् में सरोवर
कुमुदों से मनोहर ।।६१।।

ऋत वो यही,
देवता आये स्वर्ग उतर मही ।।६२।।

ज्यादा क्या कहें…
शरद कृपा बर्षाने वाली शारद ।।६३।।

‘शरद-शत जि… ओ’ आशीर्वाद,
कोई तो होगी बात ।।६४।।

खुश हो जाते मजूर,
शरद् में खो जाते मयूर ।।६५।।

बर्साता सुधा सुधाकर,
शरद् औ पुर-अमर ।।६५।।

….पांचवां रंग….

आये कुमार नेक,
लो स्वयंवर औ’तार देख ।।१।।

ऐसी न दिशा,
जहाँ से न आया हो कोई ले आशा ।।२।।

ले गति वायु प्रेरित इत्र,
आये सभी समित्र |।३।।

यही… नहीं,
आ पहुँचे भू-कण-भी, ‘लग… दो पग’ ।।४।।

आ रहे खिंचे युवक,
सुलोचना सच चुम्बक ।।५।।

पूछ कुशल क्षेम,
दे रहे राजन् मान सप्रेम ।।६।।

उन्नत भाल,
चले आये तत्काल, सभी दिग्पाल ।।७।।

विरहन् दिशा,
उड़ी धूल पा, पाईं धूमिल दशा ।।८।।

सब ही करें पहुँचने की जल्दी,
दूर पै दिल्ली ।।९।।

छू दिन ‘छू हाथ’
चित्र सुलोचना सपना रात ।।१०।।

दिन अगले,
सभी सर्वतोभद्र मण्डप चले ।।११।।

सार्थक ‘बुह-रूप’ नाम,
कुमार जो वशी-काम ।।१२।।

कर तुलना परस्पर,
वे ‘गिर-गिट’ अपर ।।१३।।

अतिथि कान में सभी,
कह गई आशा, मैं हूँ ना ।।१४।।

देखो ना, मुझसे ही टिका आकाश,
रक्खो विश्वास ।।१५।।

छोड़ भवन, ‘काशी’
लो आये देव भवन-वासी ।।१६।।

देखने कौन सिकन्दर,
आये लो देव व्यन्तर ।।१७।।

क्या अचरज आये विमानी,
आये जो स्वाभिमानी ।।१८।।

कौन देवता, क्या पता,
पलकें न कोई झपता ।।१९।।

मण्डप है ही इतना,
सत्-‘सुन्दर’-शिव जितना ।।२०।।

सभा सुमन लग कतार,
मानो आई बहार ।।२१।।

द्वारपाल दे रहे पद्मा’सन’
ज्यों प्रातः किरण ।।२२।।

शशि मावसी छिपाया,
‘मुख’ राज-वंशी, बनाया ।।२३।।

उपमा स्वयं स्वयमेव,
प्रतिमा से काम देव ।।२४।।

‘सभी’ सूरज से स्वाभिमानी हिया,
कोई न ‘दिया’ ।।२५।।

आ गये राज-सभा में तभी,
राजा जै-कुमार भी ।।२६।।

नक्षत्रों वाली सभा,
पा गई जिन्हें पा ‘चाँद-वाह’ ।।२७।।

सूर… उन्हें न देख पा रहीं आँखें,
बगलें झाँके ।।२८।।

न चले जादू माया किन पे,
मन आया उन पे ।।२९।।

बेशक माला-मोति सभा-अभय,
सुमेरु जय ।।३०।।

इन्द्र सभा भी नीकी,
पै स्वयंवर सभा से फीकी ।।३१।।

वहाँ इकेक,
‘कवि, गुरु, कलापी’ यहाँ अनेक ।।३२।।

सिर्फ देवता,
वहाँ, यहाँ, देव न कौन दे…बता ।।३३।।

थी फुल्ल पुष्प ‘मुस्कान’
स्वयंवर सभा ई…शान ।।३४।।

‘न आसॉं’ परि-चय काज,
चिन्तित सो काशी राज ।।३५।।

आई आवाज ‘भी’ तर,
धी-देवी है ना, सुधी वर ।।३६।।

जो जाने सभी को,
सो लेते हैं बुला, उसे अभी लो ।।३७।।

आज्ञा को पाला,
आ देवी धी ने, कार्य-भार संभाला ।।३८।।

साक्षात् शारदा औ’तार,
महिमा धी देवी अपार ।।३९।।

सार्थक ‘विद्या’ नाम,
निश-किल्विष काम तमाम ।।४०।।

नाग-सूत्रों से ही थी बनी,
उसकी अपूर्व वेणी ।।४१।।

उस सी किस की,
रसिक-क्षणिक दृष्टि उसकी ।।४२।।

उसकी ‘तिरी-वली’
भली-भाँति विद् वेद विरली ।।४३।।

नास्तिकतानु-चर-दुर्गुण
धर-नेकान्त-गुण ।।४४।।

चाँद चाँदनी सी,
श्वेताम्बर मतानुगामी हँसी ।।४५।।

अर अधर रक्ताम्बर प्रमुख,
सोम सा मुख ।।४६।।

निश्चय नय व्यवहार पूरका,
दृग्-कनीनिका ।।४७।।

समां कोकिला,
संगीत, नृत्य, गीत, त्रि-सूत्री गला ।।४८।।

नाभि गंभीर,
अध्यात्म श्रुति की ही दूजी तस्वीर ।।४९।।

ज्योतिष ज्योति प्रतिरूप,
हीरक-हार अनूप ।।५०।।

समाँ पल्लव हथेली,
व्याकरण शास्त्र सहेली ।।५१।।

कान उसके,
कूप स्मृति-उपनिषद् रूप रस के ।।५२।।

पा ऐसी सर्व-गुण सम्पन्न,
बुद्धि-देवी अनन्य ।।५३।।

साह्लाद,
कहा काशीराज,
‘कि हो दुन्दुभि-नाद ।।५४।।

जिसे सुन के सुलोचना,
बढ़ाती पैर अपना ।।५५।।

गत उप…’माँ’, उसकी उपमा,
‘प’ विगत उमा ।।५६।।

न ही ऐसी, न ही वैसी,
सुलोचना अपने जैसी ।।५७।।

ले सुलोचना खुशबू,
कोन-कोन, चल दी वायू ।।५८।।

होवें तो कैसे दर्शन ?
कहाँ, जहाँ न आभूषण ।।५९।।

सर्वप्रथम की पूजा जिन-देव,
भाँति सदैव ।।६०।।

चल दी पश्चात्,
ढ़ोक समेत भेंट श्री फल हाथ ।।६१।।

हित ‘जै’
पुरुष ‘धनुष’ इन्द्र, भेंटे वो सविनय ।।६२।।

ढुरें चॅंवर,
देख-टकेक ‘कि न लगे नजर ।।६३।।

चन्द्र वदना,
कौन उसे चाहता न निरखना ।।६४।।

न मन ही,
आ…भूषण प्रतिबिम्बित, डूबा तन भी ।।६५।।

ले जंभाई मुँ बाया,
‘अनिमेष’ पी रूप न पाया ।।६६।।

चूॅंकि अधेड़
था जाग गया मन, गौ-रव सुन ।।६७।।

पै उठ चाले ‘बाल’
सुलोचना भा-भान विशाल ।।६८।।

भेंजें चुटकी जंभाई,
‘मन पंछी’ उसे छू आई ।।६९।।

साथ-सखिंयाँ,
ले सुलोचना झुकीं-झुकीं अखिंयाँ ।।७०।।

आ पहुॅंची लो,
स्वयंवर शाला में सकुची सी ओ ।।७१।।

स्तब्ध सभी, न जाने…
क्या जादू किया सुलोचना ने ।।७२।।

हकीकत या सपना,
समझ पा रहा मन ना ।।७३।।

को ? नहीं गया खो,
सुन, पायजेब की रुनझुन ।।७४।।

रुकी पलक ‘जी धक-धक,
सुन चूड़ी खनक ।।७५।।

‘ध्वनि’ वंशी न निराली,
ज्यों झुमकी घुँघरु वाली ।।७६।।

अनूठी,
स्वर्ग निर्मित, जड़ी रत्न-मणी अँगूठी ।।७७।।

केयूर,
ऐसे रत्न जड़े ‘कि दूर-दूर न नूर ।।७७।।

‘न तुला’
चाँद साथ नक्षत्र बाट,
ये न ‘कि दाँत ।।७८।।

लोक अशेष जित मदना,
शेष ‘अ सु’-‘लोचना’ ।।७९।।

नुपूर, जिनके आगे,
नज़ारे द्यु पुर अभागे ।।८०।।

छू सुलोचना चारु गेशू
गुमान गो चमरी छू ।।८१।।

सभी पुण्यों का पाक,
कोमलता रही जो झाँक ।।८२।।

फीकी सी रति,
वो तो अदृश्य यह हो दृश्यवती ।।८३।।

फीकी सी चन्द्र लेखा,
दाग इसमें न गया देखा ।।८४।।

बताते दन्त-पाँत,
चमचमाते मोति के भाँत ।।८५।।

नाम के सोने-के ‘कडे़’
कोने-कोने से हीरे जड़े ।।८६।।

बचा नजर, ‘खोजे’ वर अपना,
दृग्-सुलोचना ।।८७।।

न पाई देख भी पुनी-पुनी,
बनी चक्रवर्तिनी ।।८८।।

इस प्रकार,
रूप सागर कर पार अपार ।।८९।।

हार…निहार अपना हिया,
प्राण-प्रिया पा लिया ।।९०।।

और मिटाने लगी थकन,
खोल तीजे नयन ।।९१।।

लासानी, उसकी वाणी
चिर ‘मौन’ करती गौण ।।९२।।

बुद्धि देवी से बोली सुलोचना,
‘री कुछ सोच’ना’ ।।९३।।

देवता करूँ क्या ?
उपहार ‘एक के हाथ’ हार ।।९४।।

बनूँगी एक ‘वा… ऽमा’ नेक
न बनूँ प्रतिपदा क्यूँ ।।९५।।

ये उपक्रम हमें,
‘री ले न चाले, पाप पंक में ।।९६।।

‘मिसरी घोल,
निकले मुख-पद्म, देवी-धी बोल ।।९७।।

अपना चाहा, होता नहीं,
चाहें श्री जी होता वही ।।९८।।

वृद्ध बताई राह,
चाले तू तो, क्या तेरा गुनाह ।।९९।।

गम के,
किसी के होवेंगे अपने आँसू खुशी के ।।१००।।

पा तेरी मुख चन्द्र-भा
‘री पायेगी आनन्द सभा ।।१०१।।

कर चिन्ता ना तू,
सब किया-धरा भाग का जादू ।।१०२।।

आ गई बीच सभा के,
यूँ… सुन के कुछ सुना के ।।१०३।।

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