परम पूज्य १०८ मुनिश्री निराकुलसागर महाराजजी द्वारा रचित
सहस्र कूट विधान
वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*पूजन*
विरद भगवत्
श्रुति, नुति,
प्रभु, विभु,
झट, तट,
भव, नव ।।
जिन बिम्ब हजारिक आठ,
हरिक को अलग-अलग,
सभी को एक साथ,
ढ़ोक हमारी है, झुकाकर माथ ।
श्री फल बनाकर, अपने दोनों हाथ ।
सजल बनाकर, अपनी दोनों आँख ।
झुकाकर माथ, ढ़ोक हमारी है ।।
पीले चावल वाली ये परात,
जो तुमने स्वीकारी है ।
बलिहारी है,
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूट जिनालयस्थ
अष्टाधिक सहस्र जिनेन्द्र नम:
अत्र अवतर ! अवतर ! संवौषट् !
(इति आह्वाननम्)
अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:!
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्!
(इति सन्निधिकरणम्)
प्रतिमा मुख-मण्ड़ल आगे,
फीका सा लगता चन्दर ।।
इक से इक बढ़कर सुन्दर ।
बतियाये लग गगन शिखर ।
लहराये ध्वज भी अम्बर,
जय जिन-कूट-सहस-मन्दर ।।
दर्श आपका कर जिनराज ।
ज्योति दृगों ने पाई आज ।।
धन्य हाथ, कर चरणस्-पर्श ।
धन्य माथ, कर वन्दन-फर्श ।।
जल, चन्दन, धाँ-शालि, प्रसून ।
चरु-घृत-दीप, धूप, फल-पून ।।
थाल समर्पित हित भव-पार ।
अखर-चैत्य अठ और हजार ।।
जय जयकार, जय जयकार
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चलो तुम्हीं ले चलो मन ।
हित जिन शाश्वत दर्शन ।।
पैरों में नहीं शक्ति ।
पर ठेल रही भक्ति ।।
बगैर दर्शन,
पनीले नयन ।
क्षय हो मेरी, पापन ढ़ेरी ।
माहन देहरी, जय हो तेरी ।।
बिम्ब-दिगम्बर, अक्षर-मन्दर ।
शिखर पताका, कलशा अम्बर ।
जल-चन्दन-गुल, चरु-घृत-तण्डुल ।
दीप, धूप, फल, हित अनूप कल ।।
द्रव्य सुन-हरी, भेंटूँ सबरी ।
जय हो तुमरी ।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चाँद सितारों से न्यारा ।
अक्षर-जिन-मन्दर द्वारा ।।
सुर-नर-नाग नयन-हारी ।
विहर नज़र मंगलकारी ।।
गुल, तंडुल, चरु, जल, चंदन ।
दीप, धूप, फल-वन-नंदन ।।
लो स्वीकार द्रव्य शबरी ।
शरण हमें केवल तुमरी ।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कल्याण मित्र हैं ।
ये मन्दिर भगवन् के,
इतिवृत चरित्र हैं ।।
पावन पवित्र हैं ।
रचना विचित्र हैं ।।
अखर ये मन्दिर भगवन् के,
दें उन्हें दर्शन, जो साँचे भक्त हैं ।
बिम्ब ये अक्षर भगवन् के,
सम्यक्-दर्शन के दृढ़ निमित्त हैं
जल-कंचन, घट-चन्दन ।
नन्दन-वन, गुल, व्यंजन ।
धाँ-शाली, दीपाली ।
अगरु अरु फल-थाली ।।
लाये हैं, आये हैं ।
गुण तेरे, भाये हैं ।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूट जिनेन्द्रेभ्यो नम:
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जिन प्रतिमा इतनी सारीं ।
बिन आयुध, बिन आडम्बर ।
शान्त, कान्त छव दैगम्बर ।।
दृढ़-निमित्त-दृग् ,मन-हारीं ।
इक से इक बढ़ कर न्यारीं ।।
जल-श्री-फल,
गुल, तण्डुल,
अरु चरु, लिये ललाम ।
विश्वास, आश इक-नाम ।
अहसास खास त्रिक् शाम !
दीप-रतन,
घी, चन्दन,
अरु अगरु ले अभिराम ।
कूट-सहस-जिन-धाम !
बारम्बार प्रणाम ।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूट जिनेन्द्रेभ्यो नम:
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जल के कलश भरे ।
घट चन्दन विरले ।।
शालि-धान सुरभित ।
गुल-प्रफुल्ल, चरु घृत ।
दीप, धूप, श्री-फल ।
लोचन लिये सजल ।।
जश गाऊँ, नमो नम: ।।
मंगलकर सुख कार ।
दुक्ख अमंगल हार ।।
सौख्य निराकुल धार ।
महिमा अपरम्पार ।।
इक सहस-आठ प्रतिमा ।।
नमो नम: ।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूट जिनालयस्थ
अष्टाधिक सहस्र जिनेन्द्रेभ्यो नम:
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दर्शन
‘के अनक्षरण जिनालय अर्चन ।
मैं करूँ,
हो के रूबरू ।।
न और आरजू
करो न भगवन्
कोई जादू
क्षीर समुन्द ।
नीर सुगन्ध ।।
शाली-धान ।
गुल-बागान ।।
चरु-अनमोल ।
ज्योत-अड़ोल ।।
दशांग-धूप ।
श्री-फल-नूप ।।
हित उद्धार ।
लाये द्वार ।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूट जिनालयस्थ
अष्टाधिक सहस्र जिनेन्द्रेभ्यो नम:
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वन्दना, वन्दना,
अक्षर जिनम् प्रतिमा ।
अक्षर अगम महिमा ।
पनडुबी पार हेत भौ
ऊन हजारेक नौ,
बने झरना,
मिरे नयना,
तिरे चरणा,
पखारने को ।
जल-कण । चन्दन ।।
धाँ-वन-नन्दन ।।
फुलवा ।पकवां ।।
घी का । दीवा ।।
धूपम् । फल-द्रुम ।।
लाया । आया ।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूट जिनालयस्थ
अष्टाधिक सहस्र जिनेन्द्रेभ्यो नम:
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
घट नीर क्षीर भर लाया ।
घिस चन्दन गंध बनाया ।।
सुरभित अक्षत धाँ शाली ।
गुल रंग-बिरंग पिटारी ।।
षट्-रस मिश्रित पकवाना ।
दर्शन घृत ज्योत सुहाना ।।
दश-गंध-धूप आहा ‘रे ।
फूटे सुगंध फल न्यारे ।।
जिन कूट-सहस चरणों में ।
लाया ले जल नयनों में ।।
नहीं और प्रार्थना दूजी ।
बस रखना लाज प्रभू जी ।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“जयमाला”
दोहा=
अमिट-लेख जिन-धर्म के,
कूट सहस जिनधाम ।
हेत स्वात्म कल्याण ले,
बारम्बार प्रणाम ।।
जय-जय-कारा, जय-जय-कारा ।
कूट सहस्र जिनालय न्यारा ।।
शिखर गगन से बातें करता ।
मारग-थकन सहज अपहरता ।।
लहर-लहर पंच-रंग लहरते ।
ठहर-ठहर सत्संगत कहते ।।
गुम्मद गुम-मद करने वाला ।
कूर सहस जिनालय न्यारा ।।१।।
कहीं और ना काबा-काशी ।
अच्छी-खासी है नक्काशी ।।
मान थम्भ अपने समान है ।
हान-दम्भ करने प्रधान है ।।
चौखट-ऊँची, नीचा-द्वारा ।
कूट सहस्र जिनालय न्यारा ।।२।।
ऐसा कहीं न वृक्ष अनोखा ।
तथा नाम-गुण वृक्ष-अशोका ।।
शोभा बढ़ा रखी रत्नों ने ।
उठा रखा आसन सींहों ने ।।
देख, न देखे कौन दुबारा ।
कूट सहस्र जिनालय न्यारा ।।३।।
ले पूरी की पूरी गिनती ।
चौंसठ चँवर अधिक न कमती ।।
चीन अधीन तीन जग तेरे ।
छतर तीन दें सर-पर फेरे ।।
बने देखते दिव्य नजारा ।
कूट सहस्र जिनालय न्यारा ।।४।।
सौम्य सोम भामण्डल नीका ।
आगे, तेज कोटि-रवि फीका ।।
लिये कर्ण-प्रिय स्वर आहा ‘रे ।
बाजे बाज रहे हैं सारे ।।
मन्द-पवन, जल-गन्ध फुहारा ।
कूट सहस्र जिनालय न्यारा ।।५।।
धनुष पाँच सौ ले ऊँचाई ।
प्रतिमा नासा-दृष्टि टिकाई ।।
दर्श-मात्र सम-दर्श भिंटाये ।
सहज स्वर्ग-अपवर्ग पठाये ।
मंगल करन, अमंगल हारा ।
कूट सहस्र-जिनालय न्यारा ।।
जय-जय-कारा, जय-जय-कारा ।।६।।
जल प्रासुक, रस-मलयज-चन्दन ।
नव धान, फुल्ल-गुल वन-नन्दन ।।
चरु, दीप, धूप, फल लिये अर्घ ।
मन-भावन केवल पद अनर्घ ।।
कृत-कारित-अनुमत, मन-वच-तन ।
चैत्यालय-कूट-सहस्र नमन ।।
दोहा=
अछत-स्रोत सत्-पुण्य के,
कूट सहस जिनधाम ।
हेत स्वात्म कल्याण ले,
बारम्बार प्रणाम ।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
विधान प्रारंभ
*प्रथम वलय पूजन विधान*
मन करता जा अकृत्रिम,
चैत्यालय पूज रचाऊँ ।
नहीं ऋद्धि आकाश-गामिनी,
उड़ के कैसे आऊँ ।।
यही भावना, स्वप्न अधूरा,
पूरा होवे मेरा ।
करूँ यहीं से कूट-सहस्र-
जिनालय वन्दन तेरा ॥१।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आया सुनकर विरद किया,
लाखों का बेड़ा पार ।
कूट-सहस्र-जिनालय मेरा,
नमन करो स्वीकार ।।
और नहीं कुछ मिल पाया,
ले आया अश्रु धार ।
कूट-सहस्र-जिनालय मेरा,
नमन करो स्वीकार ॥२।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रद पीयूष भवातप अपहर,
‘इन-सा’ चन्द ना ।।
जग दोई, कोई इन सिवाय,
सोने-सुगन्ध ना ।
कूट सहस्र जिनालय की,
आ करते वंदना ।।३।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
यह अद्भुत मानस्तम्भ है ।
स्तंभित करता दम्भ है ।।
लो गये सीझ हजार ।
साथी निगोद हमार ।।
कदम मंजिल चूम रहे हैं ।
चूँकि मन मासूम रहे हैं ।।
दुनिया और अचम्भ है ।
यह अद्भुत मानस्तम्भ है ॥४।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चरणों की रज चाहूँ ।
बनना सहज चाहूँ ।।
माफिक तुम्हार,
आठरु हजार,
महिमा अ-प्रतिम !
प्रतिमा अ-कृतिम !
कर दो ना कुछ जादू,
पा जाऊ तुम्हें रूबरू,
बनना सहज चाहूँ ।
चरणों की रज चाहूँ ।।५।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कर दर्शन ।
अन्तर्-मन ।।
न फिर भूलता ।
मगन झूमता ।
गगन चूँमता ।।
करतार पाप क्षय ।
कूट-सहस-जिनालय ॥६।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चैत्यालय-कूट-सहस ।
रस-पारस बढ़-के जश ।।
‘के-बल लोहा सोना ।
केवल लोहा सो ‘ना’ ।।
करे खुद-सा बिन परस ।
चैत्यालय-कूट-सहस ।।
जय हो, हित-आत्म-दरश ।।७।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘आ’ ले कालिख मिटा ।।
श्री जी को अर्घ भिंटा ।।
हँसा कब दर्पण है रोया ।
वहीं काटा है जो बोया ।
प्रति-छव कर्मन ।
भव-भव नर्तन ।।
‘आ’ ले कालिख हटा ।
इक दफा करके दर्शन ।
जिन-प्रतिमा दर्पण ।।८।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ढ़ोल-मज़ीरे साथ ।
भर-भर द्रव्य परात ।।
मैं चढ़ाऊँ,
‘मह’ रचाऊँ,
चैत्यालय-कूट-सहस ।
ज्ञान स्वाधीन परस,
हित व्रत समिचीन दरश,
‘मैं’ चढ़ाऊँ ।
अरि-रजस् विहीन रहस,
‘कि हो पाऊँ ।।९।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*पूर्णार्घ*
शुभ कर्म उदय ।
पापों का क्षय ।।
वो कर लेता ।
जो कर लेता ।।
जल, चन्द, अक्षत कण ।
गुल नन्दन, घृत व्यञ्जन ।।
दीप रतन, सुगन्ध अन ।
फल उपवन, हित सु-मरण ।।
जय कूट-सहस-जिनालय ।
वो कर लेता, आत्म-विजय ॥
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
पूणार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*द्वितीय वलय पूजन विधान*
चौखट क्या छुई ।
आफत छू हुई ।।
क्या न देती है,
प्रतिमा
प्रति-माँ
हर लेती है,
जल्द ही गम ।
वक्त के सितम ।।
‘वन्दे मातरम्’
भर देती है,
जल्दी जखम ।।
बन के मरहम ।
‘वन्दे मातरम्’ ।।१।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रसून-सा-जश ।
सुकून-मानस ।
जुनून-साहस ।
देता जिनेन्द्र दर्शन ।।
बड़ पारस-रतन ।
जश जिनेन्द्र दर्शन ।।२।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कुछ भी नहीं देते तुम ।
कुछ भी नहीं लेते तुम ।।
जाने, पर जिन देवा ।
तेरे चरणों की सेवा ।।
मेरे माथे का कुमकुम ।
करती तकलीफें गुम ।
जय-जिनवरम् ।।३।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ये सब कुछ जो मिला,
वो तुमसे हमें,
बहाने भेंट, हुआ बस, लौटाना ।
तेरी गोद में,
हम कल थे जनमे,
आगे भी
यूं ही गोद तेरी,
बनी रहे मेरा सिरहाना ।।४।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नयन नम ‘भी’
गगन चुम्बी,
सुन्दर अशेष,
मन्दर जिनेश ।
वच तन मना,
शत वन्दना ।।५।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
शान्त दिगम्बर मुद्रा प्यारी ।
थिर नासाग्र दृष्टि मनहारी ।।
दृग् सहस्र लख भी अनिमेषा ।
रहता बना अतृप्त हमेशा ।।
अरज यही इक अन्तर्-यामी ।
रहना बने नयन-पथ गामी ।।६।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कालिमा गुम हो ।
आईना तुम हो ।।
बस चला आया इसलिये,
हाथों में पुष्प लिये ।।
आँखों में अश्क लिये ।
छुवा दोगे आसमाँ, बागवाँ तुम हो ।।७।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
माँड़े पद्द्मासन ।
ठाँड़े खड़गासन ।।
आठ और हजार
इक शरण अकारण ।
जिन-बिम्ब तरण-तारण ।
जय जय कार… जय-जयकार ।।८।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
किया तुमने जादू टोना ।
लगे फीका चाँदी सोना ।।
नैना पा कोना-पॉंवन,
फिर चाहें कभी न खोना ।।
सूना-सूना मन आँगन ।
आ किया आपने सावन ।।
दे भी वर इतना दो ‘ना’,
रख सकूँ थाम तुम दामन ।।९।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रतिमा दिगम्बर,
जहाँ दोई
है कोई,
सत्य शिव सुन्दर ।
कूट-सहस-मन्दर ।।
नासिका पर टिकीं नजरें,
हथेली पर हथेली धरें ।
हजारिक-आठ-प्रतिमायें,
सदा हमारी रक्षा करें ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तेरे सुमरण से,
छूटते है संसार भ्रमण से,
सुनते हैं ।
जिन-कूट-सहस वन्दन,
जिन-कूट-सहस अर्चन,
जल लिये,
गंध, अक्षत,
पुष्प, चरु-घृत,
दीप-तमहर,
मनहर-अगर,
फल लिये,
इसलिये चुनते हैं ।
जिन-कूट-सहस सिमरन ।।११।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नील गगन में एक सितारा ।
मन्दिर कूट सहस्र निराला ।।
ढ़ोल मजीरे साथ देव-गण ।
करते यजन अर्चना पूजन ।।
मैं भी करूँ वन्दना मन से ।
निकल सकूँ बाहर भव-वन से ।।१२।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
निरखा जिन मन्दर ।
निवसा मन अन्दर ।।
कलश लिये सिर पर ।
चूमे गगन शिखर ।।
जग निशि, यह चन्दर ।
अर सत्-शिव सुन्दर ।।
हाथ माथ रख कर, वन्दना निरन्तर ।।१३।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गिर पाप वजर,
अर आप नजर,
मरहम, नम-तर,
पर-पीर विहर ।
घन-पाप-पवन,
धन ! आप शरण,
तर मन-वच-तन,
अनगिन वन्दन ।।१४।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वो पा ही जाता छाया ।
नीचे तरु के जो आया ।।
सब मिलता बिन माँगे जब ।
बालक माँगे माँ से कब ।।
उस पार लगा दो नैय्या ।
आलोकित स्वयं तरैरया !
जग धूप, आप तरु छैय्या ।
दो उठा नजर,
‘के कर्म निकर,
हा ! नाँचे ता… था.. थैय्या ।।१५।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
पूणार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आया अकेला,
ये लगा मेला,
‘दिया’ तेरा है ।
चहु ओर अँधेरा है ।।
थामे रखना हाथ,
एक हजार आठ,
प्रतिमा दिगम्बर,
न नमो नमः भर,
बल्कि भर परात,
द्रव्य सबरी आठ,
सादर समर्पित ।
इक हेत आत्महित ।।१६।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तेरे चरणों की धूली,
मेरे माथे की रोली ।
न दूर करना मुझे,
नजरों से,
अपने चरणों से,
तलक ये जीवन ज्योत बुझे ।।१७।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जगत् त्राता तुम,
बिन ‘शरत’ दाता तुम,
मैं सवाली,
देख बदहाली,
न सिर्फ आश,
है पूरा भरोसा ।
तान लोंगे वृक्षों सा,
तुरत छाता तुम ।।
क्योंकि कुटुम,
वसुधा तुम्हें ।
न देता यूँ ही भू और खम्
सजदा तुम्हें ।।
हरि-हर-विधाता तुम ।।१८।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*पूणार्घ*
गंध, जल,
नारियल,
दीप, धूप,
धाँ-अनूप,
चरु, अगरू
ले सुमरूँ ।
हित भव क्षय,
चैत्यालय ।।
नैन नम,
जिनवरम् ।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
पूणार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*तृतीय वलय पूजन विधान*
छवि न्यारी है ।
मन हारी है ।।
मन्दर कूट सहस,
छू मन्तर कल्मष,
किया दर्शन ‘कि बस,
हुआ सम्यक्-दरस ।
बलि हारी है,
उपकारी है,
मन्दर-कूट-सहस ।।१।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
एक आशा,
दृष्टि-नासा,
क्या मैं भी रख पाऊँगा ?
या यूँ ही मर-जाऊँगा,
इस बार भी,
प्यासा ।
रह वारि ही,
मछरिया सा ।।
ओ विश्वासा !
मोर श्वासा !
एक आशा ।।२।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तेरी इक नजर चाहता हूँ ।
इतना बस मेहर चाहता हूँ ।।
धन पैसों की बरसात,
चाहता नहीं,
मैं जरा भी,
श्री जी हजारिक आठ
इतना बस शुकर चाहता हूँ ।।३।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तेरे चरण,
मेरे नयन,
पथ गामी बने रहें ।
आप मेरे यूँ ही स्वामी बने रहें ।।
इस भव में,
भव-नव में,
दीजिये वर हमें,
अय ! मेरे भगवन् ।।४।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जो खुशी मिलती है ।
बाबा
तेरे दरबार के अलावा,
कहीं और नहीं मिलती है ।।
जग-भर की खबर रखना ।
तेरा नाक पर नजर रखना ।।
वाह..वाह ।।५।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मस्ती में झूलें ।
दूर से भले, क्या छू लें ।
तेरे चरन,
मेरे नयन,
क्या छू लें, दूर से भले ।
मन कमल खिले ।।
तम हारण किरण !
अय ! तारण तरण !
बिन माँगे सब मिले ।।६।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिर्फ अरज
मिल सके रज,
तोर चरणन ।
मोर-जीवन, ‘कि बने सहज,
ओ चैत्य अज !
‘गल’ दिखे स्रज, तोर सुमरन ।
तोर चरणन, मिल सके रज ।।
सिर्फ अरज ।।७।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लेकर आँखों में जल,
श्री कूट-सहस्र-जिनालय दर्शन को ।
हम चाले
श्री कूट-सहस्र-जिनालय अर्चन को,
लेकर हाथों में जल,
घट चन्दन,
अक्षत-कण
फुल्वा ले
चरु, मनहर
दीप, अगर
फल-दाँ ले ।।८।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जल प्रासुक भर लाया,
ले आया घिस चन्दन ।
लाया अक्षत चुन-चुन,
सुरभित गुल वन-नन्दन ।।
चरु अमरित घृत निर्मित,
लाया प्रदीप माला ।
दश गंध धूप लाया,
श्री-फल बिन जल वाला ।।
चैत्यालय-कूट-सहस,
यह अर्घ लिये आया ।
कृपया बनाये रखना,
यूं ही छत्रच्छाया ।।९।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बेवजह एक शरणालय ।
क्षय आपहिं विकार-मानस ।
लय तुरतहिं विचार-तामस ।।
मावस जग, यह शशि पूरण ।
पूरण-मन्शा-सम्पूरण ।।
हरतार जन्म-मरणा भय ।
भरतार रहम करुणा दय ।
जय कूट-सहस्र-जिनालय ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चिड़िया चहक रही है ।
बगिया महक रही है ।।
यही सोचकर,
ढ़ोल मजीरे
दीपक घी-के
फल-फूल-अगर,
साथ अपने,
नहीं लाया ।
लिये आया,
बस नमन सजल,
हाथ अपने,
बना श्री फल,
चला आया,
अय जिन राया ! ।।११।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सम्यक् दर्शन होता है ।
ले क्षीर-नीर चन्दन,
तण्डुल, गुल-वन-नन्दन,
फल, दीप, धूप-व्यञ्जन,
गद-गद-उर सजल-नयन
द्रव्य जो सँजोंता है ।
हित कूट-सहस-वन्दन ।।१२।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रोज सपने में आते हो ।
जागते ही रुलाते हो ।।
जिन कूट-सहस-मन्दर ।
कर दो ना जादू मन्तर ।।
साक्षात् ‘के पा जाऊँ ।
या उड़ के आ जाऊँ ।।
पा, गमन-रिद्धि-अम्बर ।
जिन कूट-सहस-मन्दर ।।
वन्दन बग़ैर अन्तर ।
गद-गद-उर, दृग्-नम-तर ।।१३।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तुम्हें देखते ही,
जो मिली खुशी ।
जमीं आसमान में,
दोनों जहान में,
और कहीं, वो मिली नहीं ।।
अंधेरे का परचम,
जमीं आसमान में,
दोनों जहान में,
सिर्फ तुम, एक रोशनी ।
ईमान तुम,
दो जहान तुम,
हो मेरी जान तुम,
चैत्य अकृत्रिम
वन्दनम् वन्दनम् ।।१४।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अँधियारा मन अन्दर,
दिन-मण अक्षर मन्दर,
विघटा-कर अँधेरा ।
मन धन्य करो मेरा ।।
तुम चरण से आँख जोड़े,
हैं खड़े हम हाथ जोड़े,
लिये जल, गंध, अक्षत,
सुगंधित-पुष्प, चरु-घृत,
दीप-माला, फल, अगर,
वन्दना गणना विसर,
सत्-शिव अप्रतिम-सुन्दर ।
जय-जय अकृतिम मन्दर ।।१५।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कलश मंगल ध्वजाएँ,
अगम प्रलय प्रतिमाएँ,
आठ और हजार,
इक साँचा दरबार,
जल, चन्दन, अक्षत,
फुल्ल-पुष्प, चरु-घृत,
सुगन्ध, फल-रस-दार,
करें अर्घ स्वीकार ।
जय जयकार, जय-जयकार ।।१६।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अकृतिम चैत्यालय,
जश जैन हिमालय,
शिखर नभ छूता,
ध्वज दण्ड अनूठा,
गुम्मद न दूजा,
न किसने पूजा,
इक अछूते प्रलय,
जय-जय, जय-जय ।।१७।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
शंकर, मोहन तुम हो ।
संकट-मोचन तुम हो ।।
तुम हो धर्म शिरोमण ।
करते ही तेरा सिमरन ।।
जिन-बिम्ब-अखर ।
अक्षर मन्दर ।।
करते ही तेरा अर्चन ।
कर्म शिरोमण गुम हो ।।१८।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तू मेरा भी ले ले बीड़ा,
बेड़ा पार का ।
सुन रखा है बड़ा विरद,
तेरे दरबार का ।।
अक्षर मन्दर ।
प्रतिमा अन्दर ।।
हजार वा,
आठ अविनश्वर,
सुन रखा है बड़ा विरद,
तेरे दरबार का ।
तू मेरा भी ले ले बीड़ा,
बेड़ा पार का ।।१९।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जल कलश
गंध रस, गंध-दश
लाये फल सरस
आये तेरे द्वार ।
महिमा अपरम्पार पार ।
पंख लगा दो,
अंक लगा दो,
मैं शून हूँ ।
छू आसमाँ सकूँ ।।
‘के तेरे पास आ सकूँ,
कूट सहस मन्दर ।
अकृतिम अमिट-अखर ।।
चन्द्रमा पून तू ।।२०।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दो टूक हो,
गहल अनादि की ।
मुट्ठी-वानर-वाली ।
नहर-नाहर-वाली ।
रात्रि-जागर-वाली ।
सहस कूट ओ !
‘दिये’ धाँ-बिना आया ।
लिए भावना आया ।
बोधि समाधी की ।।
मन रहा फूट-फूट रो ।
सहस कूट ओ !
दो टूक हो,
गहल अनादि की ।।२१।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
फल का थाल हाथों में ।
फुल्वा माल हाथों में ।।
जल ही झार हाथों में ।
जल की धार आँखों में ।।
डाल भी दो ना नज़र
जिन बिम्ब अखर,
अकृतिम मन्दर,
बन्द आँखों से दिखते हो ।
आँखें खोलूँ तो छिपते हो ।।
क्या हमसे रूठे हो ।
क्यों हमसे,
जा इतनी दूर बसे हो ।।२२।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मनमोहक,
गन्दोधक,
मिल जाये बस,
तेरी एक झलक,
शान औ’ शौकत न चाहिए ।
फिर जहान दो दौलत न चाहिए ।।
चैत्य इक हजार आठ,
धनुष पाँच सौ कद-काठ,
दर्शनीय अपलक ।
मिल जाये बस,
तेरी एक झलक ।।२३।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मुख-कमल,
दृग्-कमल,
उर-कमल,
कर-कमल,
हैं जिनके ।
ले मनके,
अविरल ।
पल-पल ।।
मैं जपता हूँ नाम उनका ।
डेरा शिव-धाम जिनका ।।
कूट सहस अविचल ।
ले सहस दल कमल ।।
मैं भजता हूँ नाम उनका ।
चेरा दिव धाम जिनका ।।२४।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बेजोड़ हैं ।
चित्-चोर हैं ।।
श्रुत-विश्रुत चहु-ओर हैं ।
सहस-कूट-जिन ।
विहँस-टूट बिन ।।
सम दरश हेत धन !
जगत-सरित् तट छोर हैं ।।
वन्दन,
अनगिन,
छिन-छिन,
निशि-दिन,
वन्दन-अभिनन्दन ।
सहस-कूट-जिन ।।२५।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भगवन् तेरी ।
रहमत बड़ी है ।।
चिंता-मणी है ।
जादुई छड़ी है ।।
बिन देरी सुलटत बिगड़ी है ।
रहमत बड़ी है,
भगवन् तेरी,
है छोटी सी, उलझन मेरी ।।
जश-अमिट,
सहस-अठ,
भगवन् तेरी,
रहमत बड़ी है ।
पीर-पराई,
दी दिखाई,
‘कि लगी आँसुओं की अनवरत झड़ी है ।
भगवन् तेरी,
रहमत बड़ी है ।।२६।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रख लो अपने पाद मूल में ।
आया हूँ बनने अमूल मैं ।।
सजल नयना उर-सदय,
करुणा झरना अक्षय,
अय ! शरणा वे-वजह,
कूट सहस्र जिनालय,
तुम इतर, कागज़ का फूल मैं ।
तुम शिखर, रस्ते की धूल मैं ।।
अपनी भूल, करता कबूल मैं ।
रख लो अपने पाद-मूल में ।।२७।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
है ही क्या मेरा, जिसे चढ़ाऊँ ।
लौटा के ‘दिया’ तेरा,
सूरज को ज्योति दिखाऊँ ।
सागर को मोती भिंटाऊँ ।
ये चार आँसु लिये,
द्वार कूट-सहस
हूँ आया मैं इसलिए
‘के माँ एकाध ही अब रुलाऊँ ।।२८।।
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*पूणार्घ*
पानी ‘पय’ । गंध-मलय ।।
धाँ-शाली । गुल-क्यारी ।।
चरु-मिसरी ।दीपक-घी ।।
सुगंध, फल । नेत्र-सजल ।।
भेंटूॅं मैं ।
जयतु जय जय ।।
आवा-गमन-मिटावन-हार ।
कूट-सहस-जिनवर-दरबार ।।
नासा-दृष्टि, रहित श्रृंगार ।
कमल-नैन, विरहित-टिमकार ।।
पूजन हेत, एक-उद्धार ।
आठ और जिन-चैत्य-हजार ।।
जय जयकार, जय जयकार
ॐ ह्रीं श्री सहस्र कूटाय नम:
पूणार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
समर्पण
है मुश्किल बड़ा गान गरिमा ।
सूरज को ‘दिया’ दिखने सा ।
‘धन’ देवि लक्ष्मी चढ़ाने सा ।।
सागर ‘जल अर्घ’ भिंटाने सा ।
चैत्यालय कूट सहस प्रतिमा ।।
=जयमाला=
जिन-शासन भूमि-हिमालय ।
जिन-चैत्य और चैत्यालय ।।
जिनको कोई न बनाता ।
गाता, तिन गौरव-गाथा ।।१।।
निर्मित सोने से मन्दर ।
प्रतिमा रत्नों की अन्दर ।।
धन-शत-पन उतुंग ‘गाता’ ।
गाता, तिन गौरव गाथा ।।२।।
जा शिखर गगन से लगता ।
अद्भुत कलशा सुन्दरता ।।
ध्वज-अनेकान्त लहराता ।
गाता, तिन गौरव गाथा ।।३।।
उपहार हाथ लाता है ।
परिवार साथ आता है ।।
पूजन सौ-धर्म रचाता ।
गाता, तिन गौरव-गाथा ।।४।।
मिल इन्द्र मनाते जलसा ।
ढ़ारें सिर श्री जी कलशा ।।
ढ़ोरें चाँमर लग ताँता ।
गाता, तिन गौरव गाथा ।।५।।
‘अलि’ घूँघर-वाली अलकें ।
सर-पद्म-पाँखुड़ी पलकें ।।
भवि तेजस्वी-रवि माथा ।
गाता, तिन गौरव गाथा ।।६।।
मुख-सम्मुख छवि शशि फीकी ।
नासिका प्रसून सरीखी ।।
भ्रू धनुष सहोदर नाता ।
गाता, तिन गौरव गाथा ।।७।।
जा लगें कान काँधे से ।
काँधे उन्नत गिरि जैसे ।।
फल-बिम्ब अधर ‘इक-जाता’
गाता, तिन गौरव गाथा ।।८।।
अर-गला शंख-आवर्ती ।
छवि-नख अन्तरंग हरती ।।
पग-तल अलि-गुन-गुन भाता ।
गाता, तिन गौरव गाथा ।।९।।
लग जाता ध्यान सहज है ।
‘बढ़-चन्दन’ पाँवन-रज है ।।
होता सुख-अबाध नाता ।
गाता, तिन गौरव गाथा ।।१०।।
गिन पाया कौन सितारे |
गुण अन-गिन देव ! तुम्हारे ।।
सो, मौन अखीर सुहाता ।
गाता, तिन गौरव गाथा ।।११।।
प्रार्थना
हवा जो छू के जाये तुझे ।
चली वो छू के जाये मुझे ।।
बस चाहत घट अन्दर ।
जिन कूट-सहस-मन्दर ।।
तेरी वन्दना को, यूँहि रोज आते रहें ।
जल, चन्दन, अक्षत, सरोज लाते रहें ।
चरु, दीप, धूप, फल सँजों के लाते रहें ।।
दोहा=
दाता दिव-शिव-सौख्य के,
कूट-सहस-जिन-धाम ।
हेत स्वात्म-कल्याण ले,
बारम्बार प्रणाम ।।
सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
*आरती*
मन्दर कूट सहस, शिव-रथ-सारथी ।
आओ मिल के हम सभी, उतारे आरती ।।
इसके दर्शन से, सम-दर्शन होता ।
पूजन अर्चन से, मिथ्यातम खोता ।।
ढ़ोल मजीरा झाँझर, लिये शंख, बाँसुरी ।
आओ मिल के हम सभी, उतारे आरती ।।१।।
लिखा जीवन में अंधेरा ।
लेखा वज्र से उकेरा ।।
इसके सुमरन से, झूठ-मूठ होता ।
टूक-टूक होता ।
भूल-चूक टोटा ।
इसके कीर्तन से, फूट-फूट रोता ।।
इसके दर्शन से, सम-दर्शन होता ।
पूजन अर्चन से, मिथ्यातम खोता ।।
झूम-झूम झुक, घूम-घूम बन, चाकरी ।
ढ़ोल मजीरा झाँझर, लिये शंख, बाँसुरी ।
आओ मिल के हम सभी, उतारे आरती ।।२।।
दूर दिव-सुख सुनहरा ।
नूर शिव-सुख रुपहला ।।
इसके वन्दन से, झोली में होता ।
रोली ‘मैं’ होता ।
टोली में होता ।
चरणस्-पर्शन से बोली ‘मै’ श्रोता ।।
इसके दर्शन से, सम दर्शन होता ।
पूजन अर्चन से, मिथ्यातम खोता ।।
झूम-झूम झुक, घूम-घूम बन, चाकरी ।
ढ़ोल मजीरा झाँझर, लिये शंख, बाँसुरी ।
आओ मिल के हम सभी, उतारे आरती ।।३।।
मन्दर कूट सहस, शिव-रथ-सारथी ।
आओ मिल के हम सभी, उतारे आरती ।।
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